०५ सुन्दरकाण्ड

अशोकवन

विश्वास-प्रस्तुतिः

बासव-बरुन-बिधि-बनतें सुहावनो,
दसाननको काननु बसंतको सिंगारु सो।
समय पुराने पात परत, डरत बातु,
पालत लालत रति-मारको बिहारु सो॥
देखें बर बापिका तड़ाग बागको बनाउ,
रागबस भो बिरागी पवनकुमारु सो।
सीयकी दसा बिलोकि बिटप असोक तर,
‘तुलसी’ बिलोक्यो सो तिलोक-सोक-सारु सो॥

मूल

बासव-बरुन-बिधि-बनतें सुहावनो,
दसाननको काननु बसंतको सिंगारु सो।
समय पुराने पात परत, डरत बातु,
पालत लालत रति-मारको बिहारु सो॥
देखें बर बापिका तड़ाग बागको बनाउ,
रागबस भो बिरागी पवनकुमारु सो।
सीयकी दसा बिलोकि बिटप असोक तर,
‘तुलसी’ बिलोक्यो सो तिलोक-सोक-सारु सो॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोसाईंजी कहते हैं कि रावणका वन इन्द्र, वरुण और ब्रह्माके वनसे भी अधिक सुहावना था। वह मानो वसन्तका शृङ्गार ही था (तात्पर्य यह कि सब वन और उपवनोंका शृङ्गार वसन्त ऋतु है, परंतु रावणका बाग वसन्त ऋतुकी भी शोभा बढ़ानेवाला था) पुराने पत्ते (पतझड़के) समयमें ही गिरते हैं, क्योंकि वायु वहाँ आते हुए डरता था और उसके बागका लालन-पालन रति और कामदेवके विहार-स्थलके समान करता था। उत्तम बावली, तालाब और बागकी बनावट देखकर हनुमान् जी जैसे वैराग्यवान् भी रागके वशीभूत-से हो गये। (किंतु) जब उन्होंने अशोक वृक्षके तले श्रीजानकीजीकी दशा देखी तो उन्हें वह बाग तीनों लोकोंके शोकका सार-सा दिखायी दिया॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माली मेघमाल, बनपाल बिकराल भट,
नीकें सब काल सींचैं सुधासार नीरके।
मेघनाद तें दुलारो, प्रान तें पियारो बागु,
अति अनुरागु जियँ जातुधान धीर कें॥
‘तुलसी’ सो जानि-सुनि, सीयको दरसु पाइ,
पैठो बाटिकाँ बजाइ बल रघुबीर कें।
बिद्यमान देखत दसाननको काननु सो
तहस-नहस कियो साहसी समीर कें॥

मूल

माली मेघमाल, बनपाल बिकराल भट,
नीकें सब काल सींचैं सुधासार नीरके।
मेघनाद तें दुलारो, प्रान तें पियारो बागु,
अति अनुरागु जियँ जातुधान धीर कें॥
‘तुलसी’ सो जानि-सुनि, सीयको दरसु पाइ,
पैठो बाटिकाँ बजाइ बल रघुबीर कें।
बिद्यमान देखत दसाननको काननु सो
तहस-नहस कियो साहसी समीर कें॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ मेघोंके समूह माली हैं और बड़े-बड़े विकराल भट उस बागके रक्षक हैं। वे सब समय अमृतके सार-सदृश मीठे जलसे उसे अच्छी प्रकार सींचते हैं। धीर-वीर रावणके चित्तमें उस बागके प्रति अत्यन्त अनुराग था। उसे वह मेघनादसे भी अधिक दुलारा और प्राणोंसे भी अधिक प्यारा था। गोसाईंजी कहते हैं—यह सब जान-सुनकर भी हनुमान् जी जानकीजीका दर्शन पा श्रीरामचन्द्रजीके बलसे बागमें निःशङ्क घुस गये और रावणके रहते और देखते हुए भी साहसी वायुनन्दनने उस वनको तहस-नहस कर दिया॥ २॥

लंकादहन

विश्वास-प्रस्तुतिः

बसन बटोरि बोरि-बोरि तेल तमीचर,
खोरि-खोरि धाइ आइ बाँधत लँगूर हैं।
तैसो कपि कौतुकी डेरात ढीले गात कै-कै,
लातके अघात सहै, जीमें कहै, कूर हैं॥
बाल किलकारी कै-कै, तारी दै-दै गारी देत,
पाछें लागे, बाजत निसान ढोल तूर हैं।
बालधी बढ़न लागी, ठौर-ठौर दीन्ही आगी,
बिंधिकी दवारि कैधौं कोटिसत सूर हैं॥

मूल

बसन बटोरि बोरि-बोरि तेल तमीचर,
खोरि-खोरि धाइ आइ बाँधत लँगूर हैं।
तैसो कपि कौतुकी डेरात ढीले गात कै-कै,
लातके अघात सहै, जीमें कहै, कूर हैं॥
बाल किलकारी कै-कै, तारी दै-दै गारी देत,
पाछें लागे, बाजत निसान ढोल तूर हैं।
बालधी बढ़न लागी, ठौर-ठौर दीन्ही आगी,
बिंधिकी दवारि कैधौं कोटिसत सूर हैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसलोग गली-गली दौड़कर, कपड़े बटोरकर और उन्हें तेलमें डुबा-डुबाकर आकर हनुमान् जी की पूँछमें बाँधते हैं। वैसे ही खिलाड़ी हनुमान् जी भी डरते हुए-से शरीरको ढीला कर-करके उनकी लातोंके आघात सहन करते हैं और मन-ही-मन कहते हैं कि ये सब कायर हैं। बालक किलकारी मारकर ताली बजा-बजाकर गाली देते हुए पीछे लगे हैं तथा नगाड़े, ढोल और तुरही बजाये जा रहे हैं। पूँछ बढ़ने लगी और [राक्षसोंने उसमें] जहाँ-तहाँ आग लगा दी, जिससे वह ऐसी जान पड़ती थी, मानो वह विन्ध्यपर्वतकी दावाग्नि हो अथवा सौ करोड़ सूर्य हों॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाइ-लाइ आगि भागे बालजाल जहाँ-तहाँ,
लघु ह्वै निबुकि गिरि मेरुतें बिसाल भो।
कौतुकी कपीसु कूदि कनक-कँगूराँ चढ़ॺो,
रावन-भवन चढ़ि ठाढ़ो तेहि काल भो॥
‘तुलसी’ विराज्यो ब्योम बालधी पसारि भारी,
देखें हहरात भट, कालु सो कराल भो।
तेजको निधानु मानो कोटिक कृसानु-भानु,
नख बिकराल, मुखु तैसो रिस लाल भो॥

मूल

लाइ-लाइ आगि भागे बालजाल जहाँ-तहाँ,
लघु ह्वै निबुकि गिरि मेरुतें बिसाल भो।
कौतुकी कपीसु कूदि कनक-कँगूराँ चढ़ॺो,
रावन-भवन चढ़ि ठाढ़ो तेहि काल भो॥
‘तुलसी’ विराज्यो ब्योम बालधी पसारि भारी,
देखें हहरात भट, कालु सो कराल भो।
तेजको निधानु मानो कोटिक कृसानु-भानु,
नख बिकराल, मुखु तैसो रिस लाल भो॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाल-समूह [पूँछमें] आग लगा-लगाकर, जहाँ-तहाँ भाग गये और हनुमान् जी छोटे हो फंदेसे निकलकर फिर सुमेरु पर्वतसे भी विशाल हो गये। तदनन्तर खिलाड़ी हनुमान् कूदकर सोनेके कँगूरेपर चढ़ गये और वहाँसे उसी समय रावणके राजमहलपर चढ़कर खड़े हो गये। गोसाईंजी कहते हैं, (उस समय) वे आकाशमें अपनी लंबी पूँछ फैलाये हुए सुशोभित थे। उसको देखकर वीरलोग हहर (थर्रा) जाते थे; (उस समय) वे कालके समान भयंकर हो गये। वे तेजके पुञ्ज-से जान पड़ते थे, मानो करोड़ों अग्नि और सूर्य हैं। उनके नख बड़े विकराल थे और वैसे ही मुख भी क्रोधसे लाल हो रहा था॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालधी बिसाल बिकराल, ज्वालजाल मानो
लंक लीलिबेको काल रसना पसारी है।
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सो उघारी है॥
‘तुलसी’ सुरेस-चापु, कैधौं दामिनि-कलापु,
कैधौं चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है।
देखें जातुधान-जातुधानीं अकुलानी कहैं,
काननु उजारॺो, अब नगरु प्रजारिहै॥

मूल

बालधी बिसाल बिकराल, ज्वालजाल मानो
लंक लीलिबेको काल रसना पसारी है।
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सो उघारी है॥
‘तुलसी’ सुरेस-चापु, कैधौं दामिनि-कलापु,
कैधौं चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है।
देखें जातुधान-जातुधानीं अकुलानी कहैं,
काननु उजारॺो, अब नगरु प्रजारिहै॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयंकर ज्वालमालाके सहित विशाल पूँछ ऐसी जान पड़ती थी, मानो लङ्काको निगलनेके लिये कालने जीभ फैलायी है अथवा मानो आकाशमार्गमें अनेकों धूमकेतु भरे हैं अथवा वीररसरूपी वीरने मानो तलवार निकाल ली है। गोसाईंजी कहते हैं कि यह इन्द्रधनुष है अथवा बिजलीका समूह है या सुमेरु पर्वतसे अग्निकी भारी नदी बह चली है। उसे देखकर राक्षस और राक्षसियाँ व्याकुल होकर कहती हैं—यह वनको तो उजाड़ चुका, अब नगरको और जलावेगा॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहाँ-तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत,
जरत निकेतु, धावौ, धावौ, लागी आगि रे।
कहाँ तातु-मातु, भ्रात-भगिनी, भामिनी-भाभी,
ढोटा छोटे छोहरा अभागे भोंडे भागि रे॥
हाथी छोरौ, घोरा छोरौ, महिष-बृषभ छोरौ,
छेरी छोरौ, सोवै सो, जगावौ, जागि, जागि रे।
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं,
बार-बार कह्यौं, पिय! कपिसों न लागि रे॥

मूल

जहाँ-तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत,
जरत निकेतु, धावौ, धावौ, लागी आगि रे।
कहाँ तातु-मातु, भ्रात-भगिनी, भामिनी-भाभी,
ढोटा छोटे छोहरा अभागे भोंडे भागि रे॥
हाथी छोरौ, घोरा छोरौ, महिष-बृषभ छोरौ,
छेरी छोरौ, सोवै सो, जगावौ, जागि, जागि रे।
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं,
बार-बार कह्यौं, पिय! कपिसों न लागि रे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ-तहाँ आगकी भभकको देखकर पुकार देते हैं—‘अरे, भागो, भागो! आग लग गयी है, घर जल रहा है। अरे अभागे! माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-भौजाई, लड़के-बच्चे कहाँ हैं? अरे गँवार! भाग, भाग। हाथी खोलो, घोड़ा खोलो, भैंस और बैल खोलो तथा बकरियोंको भी खोल दो। वह सोता है, उसे जगा दो। अरे जागो! जागो!!’ गोसाईंजी कहते हैं कि इस दशाको देखकर राक्षसियाँ व्याकुल होकर अपने-अपने पतियोंसे कहती हैं—हे प्रियतम! हमने बार-बार कहा था कि इस बंदरके मुँह मत लगो॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि ज्वालाजालु, हाहाकारु दसकंध सुनि,
कह्यौ, धरो, धरो, धाए बीर बलवान हैं।
लिएँ सूल-सेल, पास-परिघ, प्रचंड दंड,
भाजन सनीर, धीर धरें धनु-बान हैं॥
‘तुलसी’ समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि,
जातुधान पुंगीफल जव तिल धान हैं।
स्रुवा सो लँगूल, बलमूल प्रतिकूल हबि,
स्वाहा महा हाँकि हाँकि हुनैं हनुमान हैं॥

मूल

देखि ज्वालाजालु, हाहाकारु दसकंध सुनि,
कह्यौ, धरो, धरो, धाए बीर बलवान हैं।
लिएँ सूल-सेल, पास-परिघ, प्रचंड दंड,
भाजन सनीर, धीर धरें धनु-बान हैं॥
‘तुलसी’ समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि,
जातुधान पुंगीफल जव तिल धान हैं।
स्रुवा सो लँगूल, बलमूल प्रतिकूल हबि,
स्वाहा महा हाँकि हाँकि हुनैं हनुमान हैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस (धधकते हुए) अग्निसमूहको देख और लोगोंका हाहाकार सुन रावणने कहा—‘अरे, इसे पकड़ो! इसे पकड़ो!!’ यह सुनकर बहुत-से बलवान् योद्धा त्रिशूल, बर्छी, फाँसी, परिघ, मजबूत डंडे और पानी भरे हुए बर्तन लिये दौड़े और कुछ धीर लोगोंने धनुष-बाण भी धारण कर रखे थे। श्रीगोसाईंजी कहते हैं कि लङ्काको यज्ञकुण्ड समझो और वहाँकी सामग्री लकड़ी है तथा राक्षसगण सुपारी, जौ, तिल और धान हैं। हनुमान् जी की पूँछ स्रुवा है, बलवान् शत्रु हवि हैं और उच्च हाँकरूपी स्वाहामन्त्रद्वारा हनुमान् जी हवन कर रहे हैं॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाज्यो कपि गाज ज्यों, बिराज्यो ज्वालजालजुत,
भाजे बीर धीर, अकुलाइ उठॺो रावनो।
धावौ, धावौ, धरौ, सुनि धाए जातुधान धारि,
बारिधारा उलदै जलदु जौन सावनो॥
लपट-झपट झहराने, हहराने बात,
भहराने भट, परॺो प्रबल परावनो।
ढकनि ढकेलि, पेलि सचिव चले लै ठेलि,
नाथ! न चलैगो बलु, अनलु भयावनो॥

मूल

गाज्यो कपि गाज ज्यों, बिराज्यो ज्वालजालजुत,
भाजे बीर धीर, अकुलाइ उठॺो रावनो।
धावौ, धावौ, धरौ, सुनि धाए जातुधान धारि,
बारिधारा उलदै जलदु जौन सावनो॥
लपट-झपट झहराने, हहराने बात,
भहराने भट, परॺो प्रबल परावनो।
ढकनि ढकेलि, पेलि सचिव चले लै ठेलि,
नाथ! न चलैगो बलु, अनलु भयावनो॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी धधकते हुए अग्निसमूह-से सुशोभित हुए और बादलकी भाँति गरजे। इससे बड़े धीर-वीर योद्धा भाग गये और रावण भी व्याकुल हो उठा और बोला, ‘दौड़ो, दौड़ो, इसे पकड़ लो।’ यह सुनकर राक्षसोंकी सेना दौड़ी, मानो सावनका बादल जल बरसा रहा हो। वे योद्धालोग आगकी लपटोंकी झपटसे झुलसकर और वायुके झकोरोंसे घबड़ाकर व्याकुल हो गये। इस प्रकार उस समय वहाँ भारी भगदड़ पड़ गयी। रावणको भी मन्त्रीलोग धक्कोंसे ढकेलकर और जबरदस्ती ठेलकर ले चले और कहने लगे—‘हे नाथ! आग भयंकर है, इसमें बल नहीं चलेगा’॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बड़ो बिकराल बेषु देखि, सुनि सिंघनादु,
उठॺो मेघनादु, सबिषाद कहै रावनो।
बेग जित्यो मारुतु, प्रताप मारतंड कोटि,
कालऊ करालताँ, बड़ाईं जित्यो बावनो॥
‘तुलसी’ सयाने जातुधान पछिताने कहैं,
जाको ऐसो दूतु, सो तो साहेबु अबै आवनो।
काहेको कुसल रोषें राम बामदेवहू की,
बिषम बलीसों बादि बैरको बढ़ावनो॥

मूल

बड़ो बिकराल बेषु देखि, सुनि सिंघनादु,
उठॺो मेघनादु, सबिषाद कहै रावनो।
बेग जित्यो मारुतु, प्रताप मारतंड कोटि,
कालऊ करालताँ, बड़ाईं जित्यो बावनो॥
‘तुलसी’ सयाने जातुधान पछिताने कहैं,
जाको ऐसो दूतु, सो तो साहेबु अबै आवनो।
काहेको कुसल रोषें राम बामदेवहू की,
बिषम बलीसों बादि बैरको बढ़ावनो॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी का बड़ा भयंकर वेष देख और उनका सिंहनाद सुन मेघनाद उठा और रावण भी चिन्तायुक्त होकर बोला—इसने तो वेगमें वायुको, प्रतापमें करोड़ों सूर्योंको, करालतामें कालको और बड़ाई (विशालता) में भगवान् वामनको भी जीत लिया। तुलसीदासजी कहते हैं—उस समय जो समझदार राक्षस थे, वे पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे—‘जिसका दूत ऐसा (प्रचण्ड) है, वह स्वामी तो अभी आना बाकी ही है।’ भला रामके क्रोधित होनेपर शिवजीकी भी कुशल कैसे हो सकती है। ऐसे बाँके वीरसे वैर बढ़ाना व्यर्थ ही है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पानी! पानी! पानी! सब रानीं अकुलानी कहैं,
जाति हैं परानी, गति जानी गजचालि है।
बसन बिसारैं, मनिभूषन सँभारत न,
आनन सुखाने, कहैं, क्योंहू कोऊ पालिहै॥
‘तुलसी’ मँदोवै मीजि हाथ, धुनि माथ कहै,
काहूँ कान कियो न, मैं कह्यो केतो कालि है।
बापुरें बिभीषन पुकारि बार-बार कह्यो,
बानरु बड़ी बलाइ घने घर घालिहै॥

मूल

पानी! पानी! पानी! सब रानीं अकुलानी कहैं,
जाति हैं परानी, गति जानी गजचालि है।
बसन बिसारैं, मनिभूषन सँभारत न,
आनन सुखाने, कहैं, क्योंहू कोऊ पालिहै॥
‘तुलसी’ मँदोवै मीजि हाथ, धुनि माथ कहै,
काहूँ कान कियो न, मैं कह्यो केतो कालि है।
बापुरें बिभीषन पुकारि बार-बार कह्यो,
बानरु बड़ी बलाइ घने घर घालिहै॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब रानियाँ व्याकुल होकर ‘पानी-पानी’ चिल्लाती हैं और दौड़ी चली जा रही हैं। गजकी-सी चालसे ही उनकी गति पहचाननेमें आती है। वे वस्त्र लेना भूल गयी हैं और मणि-जटित आभूषणोंको भी नहीं सँभाल सकी हैं। उनके मुख सूख रहे हैं और वे कहती हैं—‘क्या किसी प्रकार भी कोई हमारी रक्षा करेगा?’ गोसाईंजी कहते हैं—मन्दोदरी हाथ मल-मलकर और सिर धुन-धुनकर कहती है कि अहो! कल मैंने कितना कहा, फिर भी किसीने उसपर कान नहीं दिया। बेचारे विभीषणने भी बार-बार पुकारकर कहा कि यह वानर बड़ी भारी बला है और बहुत-से घरोंको चौपट कर देगा॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काननु उजारॺो तो उजारॺो, न बिगारॺो कछु,
बानरु बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों।
निपट निडर देखि काहूँ न लख्यो बिसेषि,
दीन्हों ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों॥
छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,
साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।
‘तुलसी’ मँदोवै रोइ-रोइ कै बिगोवै आपु,
बार-बार कह्यो मैं पुकारि दाढ़ीजारसों॥

मूल

काननु उजारॺो तो उजारॺो, न बिगारॺो कछु,
बानरु बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों।
निपट निडर देखि काहूँ न लख्यो बिसेषि,
दीन्हों ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों॥
छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,
साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।
‘तुलसी’ मँदोवै रोइ-रोइ कै बिगोवै आपु,
बार-बार कह्यो मैं पुकारि दाढ़ीजारसों॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वनको उजाड़ा तो उजाड़ा, उससे कुछ बिगाड़ नहीं हुआ था, किंतु ये बेचारे इस बंदरको उपवनसे हठात् बाँधकर ले आये! उसे बिलकुल निडर देखकर भी किसीने कुछ विशेष नहीं समझा और न कुलकुठार मेघनादसे कहकर किसीने उसे छुड़ाया ही। मेरे छोटे-बड़े सभी पुत्र अन्यायी हैं, ये साँपोंसे खिलवाड़ करते हैं और छूरेकी धारमें अपनी गर्दनें रखते हैं। गोसाईंजी कहते हैं कि मन्दोदरी रो-रोकर अपनेको क्षीण करती है और कहती है कि मैंने इस दाढ़ीजार (मेघनाद) से बार-बार पुकारकर कहा (परंतु इसने मेरी एक बात न सुनी)॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रानीं अकुलानी सब डाढ़त परानी जाहिं,
सकैं न बिलोकि बेषु केसरीकुमारको।
मीजि-मीजि हाथ, धुनैं माथ दसमाथ-तिय,
‘तुलसी’ तिलौ न भयो बाहेर अगारको॥
सबु असबाबु डाढ़ो, मैं न काढ़ो, तैं न काढ़ो,
जियकी परी, सँभारै सहन-भँडार को।
खीझति मँदोवै सबिषाद देखि मेघनादु,
बयो लुनिअत सब याही दाढ़ीजारको॥

मूल

रानीं अकुलानी सब डाढ़त परानी जाहिं,
सकैं न बिलोकि बेषु केसरीकुमारको।
मीजि-मीजि हाथ, धुनैं माथ दसमाथ-तिय,
‘तुलसी’ तिलौ न भयो बाहेर अगारको॥
सबु असबाबु डाढ़ो, मैं न काढ़ो, तैं न काढ़ो,
जियकी परी, सँभारै सहन-भँडार को।
खीझति मँदोवै सबिषाद देखि मेघनादु,
बयो लुनिअत सब याही दाढ़ीजारको॥

अनुवाद (हिन्दी)

रानियाँ सब जलती हुई घबड़ाकर दौड़ी चली जाती हैं। वे केसरीनन्दन (हनुमान् जी) के (विकराल) वेषको देख नहीं सकतीं। रावणकी स्त्रियाँ हाथ मल-मलकर रह जाती हैं और सिर धुन-धुनकर कहती हैं कि तिलभर वस्तु भी घरके बाहर नहीं हो सकी। सब असबाब जल गया, न मैंने ही निकाला और न तूने ही निकाला। सबको अपने-अपने जीकी पड़ी थी, घर-आँगन कौन सँभालता। मेघनादको देखकर मन्दोदरी दुःखपूर्वक क्रोधित होती है और कहती है कि इसी दाढ़ीजारका बोया हुआ सब काट रहे हैं। [यदि यह इस बंदरको पकड़कर न लाता तो ऐसी आफत क्यों आती?]॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावन की रानीं बिलखानी कहै जातुधानीं,
हाहा! कोऊ कहै बीसबाहु दसमाथ सों।
काहे मेघनाद! काहे, काहे रे महोदर! तूँ,
धीरजु न देत, लाइ लेत क्यों न हाथसों॥
काहे अतिकाय! काहे, काहे रे अकंपन!
अभागे तीय त्यागे भोंड़े भागे जात साथ सों।
‘तुलसी’ बढ़ाईं बादि सालतें बिसाल बाहैं,
याहीं बल बालिसो बिरोधु रघुनाथसों॥

मूल

रावन की रानीं बिलखानी कहै जातुधानीं,
हाहा! कोऊ कहै बीसबाहु दसमाथ सों।
काहे मेघनाद! काहे, काहे रे महोदर! तूँ,
धीरजु न देत, लाइ लेत क्यों न हाथसों॥
काहे अतिकाय! काहे, काहे रे अकंपन!
अभागे तीय त्यागे भोंड़े भागे जात साथ सों।
‘तुलसी’ बढ़ाईं बादि सालतें बिसाल बाहैं,
याहीं बल बालिसो बिरोधु रघुनाथसों॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसियाँ जो रावणकी रानियाँ थीं, बिलख-बिलखकर कहती हैं—‘हाय! हाय!! कोई यह हाल बीस भुजा और दस सिरवाले रावणको सुनावे, क्यों रे मेघनाद! क्यों रे महोदर! तुम हमें धैर्य क्यों नहीं बँधाते और अपने हाथोंमें आश्रय क्यों नहीं देते? क्यों रे अतिकाय! क्यों रे अकम्पन! अरे अभागे गँवारो! क्यों स्त्रियोंको त्यागकर साथसे भागे जाते हो? तुमलोगोंने व्यर्थ ही सालवृक्षके समान बड़ी-बड़ी भुजाएँ बढ़ा रखी हैं; अरे मूर्खो! इसी बलसे रघुनाथजीसे वैर बढ़ाया है?’॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाट-बाट, कोट-ओट, अटनि, अगार, पौरि,
खोरि-खोरि दौरि-दौरि दीन्ही अति आगि है।
आरत पुकारत, सँभारत न कोऊ काहू,
ब्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चले भागि हैं॥
बालधी फिरावै, बार-बार झहरावै, झरैं
बुँदिया-सी, लंक पघिलाइ पाग पागिहै।
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं,
चित्रहू के कपि सों निसाचरु न लागिहै॥

मूल

हाट-बाट, कोट-ओट, अटनि, अगार, पौरि,
खोरि-खोरि दौरि-दौरि दीन्ही अति आगि है।
आरत पुकारत, सँभारत न कोऊ काहू,
ब्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चले भागि हैं॥
बालधी फिरावै, बार-बार झहरावै, झरैं
बुँदिया-सी, लंक पघिलाइ पाग पागिहै।
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं,
चित्रहू के कपि सों निसाचरु न लागिहै॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इस प्रकार हनुमान् जी ने) हाट-बाट, किले-प्राकार, अटारी, घर-दरवाजे और गली-गलीमें दौड़-दौड़कर भारी आग लगा दी। सब लोग आर्तनाद कर रहे हैं, कोई किसीको नहीं सँभालता। सब लोग व्याकुल होकर जहाँ-तहाँ भाग चले। हनुमान् जी पूँछको घुमाकर बार-बार झाड़ते हैं, उससे बुँदियाकी भाँति चिनगारियाँ झड़ रही हैं, मानो लङ्काको पिघलाकर उसकी चाशनीमें उस बुँदियाको पागेंगे। यह देखकर राक्षसियाँ व्याकुल होकर कहती हैं कि अब राक्षसलोग चित्रके वानरसे भी नहीं भिड़ेंगे॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लगी, लागी आगि, भागि-भागि चले जहाँ-तहाँ,
धीयको न माय, बाप पूत न सँभारहीं।
छूटे बार, बसन उघारे, धूम-धुंद अंध,
कहैं बारे-बूढ़े ‘बारि’ बारि, बार बारहीं॥
हय हिहिनात, भागे जात घहरात गज,
भारी भीर ठेलि-पेलि रौंदि-खौंदि डारहीं।
नाम लै चिलात, बिललात, अकुलात अति,
‘तात तात! तौंसिअत, झौंसिअत, झारहीं’॥

मूल

लगी, लागी आगि, भागि-भागि चले जहाँ-तहाँ,
धीयको न माय, बाप पूत न सँभारहीं।
छूटे बार, बसन उघारे, धूम-धुंद अंध,
कहैं बारे-बूढ़े ‘बारि’ बारि, बार बारहीं॥
हय हिहिनात, भागे जात घहरात गज,
भारी भीर ठेलि-पेलि रौंदि-खौंदि डारहीं।
नाम लै चिलात, बिललात, अकुलात अति,
‘तात तात! तौंसिअत, झौंसिअत, झारहीं’॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आग लग गयी, आग लग गयी’ ऐसा पुकारते हुए सब लोग जहाँ-तहाँ भाग चले। न माँ लड़कीको सँभालती है और न पिता पुत्रको सँभालता है। केश और वस्त्र खुल गये हैं, सब लोग नंगे हो गये हैं और धुएँकी धुन्धसे अन्धे होकर लड़के-बूढ़े सब बार-बार ‘पानी-पानी’ पुकार रहे हैं। घोड़े हिनहिनाते हुए भागे जाते हैं। हाथी चिग्घार मारते हैं और जो बड़ी भारी भीड़ लगी हुई थी, उसे धक्कोंसे ढकेलकर पैरोंसे कुचले डालते हैं। सब लोग नाम ले-लेकर पुकार रहे हैं और अत्यन्त बिलबिलाते तथा अकुलाते हुए कहते हैं, ‘बाप रे बाप! आगकी लपटोंसे तो झुलसे जाते हैं, तपे जाते हैं’॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लपट कराल ज्वालजालमाल दहूँ दिसि,
धूम अकुलाने, पहिचानै कौन काहि रे।
पानीको ललात, बिललात, जरे गात जात,
परे पाइमाल जात ‘भ्रात! तूँ निबाहि रे॥
प्रिया तूँ पराहि, नाथ! नाथ! तूँ पराहि, बाप!
बाप! तूँ पराहि, पूत! पूत! तूँ पराहि रे’॥
‘तुलसी’ बिलोकि लोग ब्याकुल बेहाल कहैं,
लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे॥

मूल

लपट कराल ज्वालजालमाल दहूँ दिसि,
धूम अकुलाने, पहिचानै कौन काहि रे।
पानीको ललात, बिललात, जरे गात जात,
परे पाइमाल जात ‘भ्रात! तूँ निबाहि रे॥
प्रिया तूँ पराहि, नाथ! नाथ! तूँ पराहि, बाप!
बाप! तूँ पराहि, पूत! पूत! तूँ पराहि रे’॥
‘तुलसी’ बिलोकि लोग ब्याकुल बेहाल कहैं,
लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे॥

अनुवाद (हिन्दी)

दसों दिशाओंमें ज्वालमालाओंकी भयंकर लपटें फैल गयी हैं। सब लोग धुएँसे व्याकुल हो रहे हैं। उस धूममें कौन किसे पहचान सकता था। लोग पानीके लिये लालायित होकर बिलबिला रहे हैं, शरीर जला जाता है, सब लोग तबाह हुए जाते हैं और कहते हैं—‘भैया! बचाओ। प्रिये! तुम भागो। हे नाथ! हे नाथ! भागो। पिताजी! पिताजी! दौड़ो। अरे बेटा! ओ बेटा! भाग।’ तुलसीदासजी कहते हैं—सब लोग व्याकुल और परेशान होकर कह रहे हैं— ‘अरे दशशीश रावण! अब बीसों आँखोंसे अपनी करतूत देख ले’॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीथिका-बजार प्रति, अटनि अगार प्रति,
पवरि-पगार प्रति बानरु बिलोकिए।
अध-ऊर्ध बानर, बिदिसि-दिसि बानरु है,
मानो रह्यो है भरि बानरु तिलोकिएँ॥
मूँदैं आँखि हियमें, उघारें आँखि आगें ठाढ़ो,
धाइ जाइ जहाँ-तहाँ, और कोऊ कोकिए।
लेहु, अब लेहु, तब कोऊ न सिखाबो मानो,
सोई सतराइ जाइ, जाहि-जाहि रोकिए॥

मूल

बीथिका-बजार प्रति, अटनि अगार प्रति,
पवरि-पगार प्रति बानरु बिलोकिए।
अध-ऊर्ध बानर, बिदिसि-दिसि बानरु है,
मानो रह्यो है भरि बानरु तिलोकिएँ॥
मूँदैं आँखि हियमें, उघारें आँखि आगें ठाढ़ो,
धाइ जाइ जहाँ-तहाँ, और कोऊ कोकिए।
लेहु, अब लेहु, तब कोऊ न सिखाबो मानो,
सोई सतराइ जाइ, जाहि-जाहि रोकिए॥

अनुवाद (हिन्दी)

[हनुमान् जी ऐसी शीघ्रतासे घूम रहे हैं कि] गली-गली, बाजार-बाजार, अटारी-अटारी, घर-घर, द्वार-द्वार, दीवार-दीवारपर वानर ही दिखायी पड़ रहा है। ऊपर-नीचे और दिशा-विदिशाओंमें वानर ही दीखता है, मानो वह वानर तीनों लोकोंमें भर गया है। आँख मूँदनेसे हृदयमें और आँख खोलनेसे आगे खड़ा दिखायी देता है। जहाँ और किसीको पुकारते हैं, वहाँ मानो हनुमान् जी ही जा धमकते हैं। ‘लो, अब लो; पहले तो किसीने हमारी शिक्षा नहीं मानी’—इस प्रकार जिसे रोकते हैं, वही सतरा (चिढ़) जाता है॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक करैं धौंज, एक कहैं, काढ़ौ सौंज, एक
औंजि, पानी पीकै कहैं, बनत न आवनो।
एक परे गाढ़े, एक डाढ़त हीं काढ़े, एक
देखत हैं ठाढ़े, कहैं, पावकु भयावनो॥
‘तुलसी’ कहत एक ‘नीकें हाथ लाए कपि,
अजहूँ न छाड़ै बालु गालको बजावनो’।
‘धाओ रे, बुझाओ रे,’ ‘कि बावरे हौ रावरे, या
औरै आगि लागि, न बुझावै सिंधु सावनो’॥

मूल

एक करैं धौंज, एक कहैं, काढ़ौ सौंज, एक
औंजि, पानी पीकै कहैं, बनत न आवनो।
एक परे गाढ़े, एक डाढ़त हीं काढ़े, एक
देखत हैं ठाढ़े, कहैं, पावकु भयावनो॥
‘तुलसी’ कहत एक ‘नीकें हाथ लाए कपि,
अजहूँ न छाड़ै बालु गालको बजावनो’।
‘धाओ रे, बुझाओ रे,’ ‘कि बावरे हौ रावरे, या
औरै आगि लागि, न बुझावै सिंधु सावनो’॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई दौड़ लगाते हैं, कोई कहते हैं, ‘असबाब निकालो’, कोई ऊमससे घबड़ाकर पानी पीकर कहते हैं कि ‘आते नहीं बनता’, कोई बड़े संकटमें पड़ गये हैं; कोई जलते ही निकाले जाते हैं, कोई खड़े-खड़े देखते हैं और कहते हैं कि ‘अग्नि बड़ी भयंकर है।’ तुलसीदासजी कहते हैं—कोई कहते हैं कि ‘हनुमान् जी ने खूब हाथ लगाया, किंतु यह मूर्ख अब भी गाल बजाना नहीं छोड़ता।’ कोई कहता है—‘अरे दौड़ो, अरे बुझाओ।’ दूसरा कहता है—‘क्या तुम बावले हुए हो? यह कुछ और ही तरहकी आग लगी है, जिसे समुद्र और सावनका मेघ भी नहीं बुझा सकते’॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोपि दसकंध तब प्रलयपयोद बोले,
रावन-रजाइ धाए आइ जूथ जोरि कै।
कह्यो लंकपति लंक बरत, बुताओ बेगि,
बानरु बहाइ मारौ महाबारि बोरि कै॥
‘भलें नाथ!’ नाइ माथ चले पाथप्रदनाथ,
बरषैं मुसलधार बार-बार घोरि कै।
जीवनतें जागी आगी, चपरि चौगुनी लागी,
‘तुलसी’ भभरि मेघ भागे मुखु मोरि कै॥

मूल

कोपि दसकंध तब प्रलयपयोद बोले,
रावन-रजाइ धाए आइ जूथ जोरि कै।
कह्यो लंकपति लंक बरत, बुताओ बेगि,
बानरु बहाइ मारौ महाबारि बोरि कै॥
‘भलें नाथ!’ नाइ माथ चले पाथप्रदनाथ,
बरषैं मुसलधार बार-बार घोरि कै।
जीवनतें जागी आगी, चपरि चौगुनी लागी,
‘तुलसी’ भभरि मेघ भागे मुखु मोरि कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावणने क्रोधित होकर प्रलयकालके मेघोंको बुलाया और वे रावणकी आज्ञासे सब अपना दल बटोरकर दौड़े आये। उनसे लङ्कापतिने कहा—‘अरे मेघो! जलती हुई लङ्कापुरीको शीघ्र बुझाओ और बंदरको बहाकर गम्भीर जलमें डुबाकर मार डालो।’ तब मेघोंके स्वामी ‘महाराज! बहुत अच्छा’ ऐसा कहकर प्रणाम करके चल दिये और बार-बार गरज-गरजकर मूसलधार पानी बरसाने लगे; किंतु जलसे अग्नि और भी प्रज्वलित हो गयी और चपलतापूर्वक चौगुनी बढ़ गयी। तुलसीदासजी कहते हैं—तब सब मेघ घबड़ाकर मुँह मोड़कर भागे॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहाँ ज्वाल जरे जात, उहाँ ग्लानि गरे गात,
सूखे सकुचात सब, कहत पुकार हैं।
‘जुग-षट भानु देखे, प्रलयकृसानु देखे,
सेष-मुख-अनल बिलोके बार-बार हैं॥
‘तुलसी’ सुन्यो न कान सलिलु सर्पी-समान,
अति अचिरिजु कियो केसरीकुमार हैं’।
बारिद-बचन सुनि धुने सीस सचिवन्ह,
कहैं दससीस! ‘ईस-बामता-बिकार हैं’॥

मूल

इहाँ ज्वाल जरे जात, उहाँ ग्लानि गरे गात,
सूखे सकुचात सब, कहत पुकार हैं।
‘जुग-षट भानु देखे, प्रलयकृसानु देखे,
सेष-मुख-अनल बिलोके बार-बार हैं॥
‘तुलसी’ सुन्यो न कान सलिलु सर्पी-समान,
अति अचिरिजु कियो केसरीकुमार हैं’।
बारिद-बचन सुनि धुने सीस सचिवन्ह,
कहैं दससीस! ‘ईस-बामता-बिकार हैं’॥

अनुवाद (हिन्दी)

बादल इधर तो अग्निकी लपटोंसे जले जाते हैं और उधर उनके शरीर ग्लानिसे गले जाते हैं। सब मेघ शुष्क हो सकुचाकर पुकारने लगे—‘हम लोगोंने बारहों सूर्य देखे, प्रलयका अग्नि देखा और कई बार शेषजीके मुखकी ज्वाला देखी। परंतु कभी जलको घृतके समान हुआ नहीं सुना। यह महान् आश्चर्य केसरीनन्दन हनुमान् जी ने कर दिखलाया।’ मेघोंके वचन सुनकर मन्त्रीगण सिर धुनने लगे और रावणसे बोले—‘यह सब ईश्वरकी प्रतिकूलताका विकार है’॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

‘पावकु, पवनु, पानी, भानु, हिमवानु, जमु,
कालु, लोकपाल मेरे, डर डावाँडोल हैं।
साहेबु महेसु, सदा संकित रमेसु मोहिं,
महातप साहस बिरंचि लीन्हें मोल हैं॥
‘तुलसी’ तिलोक आजु दूजो न बिराजै राजु,
बाजे-बाजे राजनिके बेटा-बेटी ओल हैं।
को है ईस नामको, जो बाम होत मोहूसे को,
मालवान! रावरेके बावरे-से बोल हैं’॥

मूल

‘पावकु, पवनु, पानी, भानु, हिमवानु, जमु,
कालु, लोकपाल मेरे, डर डावाँडोल हैं।
साहेबु महेसु, सदा संकित रमेसु मोहिं,
महातप साहस बिरंचि लीन्हें मोल हैं॥
‘तुलसी’ तिलोक आजु दूजो न बिराजै राजु,
बाजे-बाजे राजनिके बेटा-बेटी ओल हैं।
को है ईस नामको, जो बाम होत मोहूसे को,
मालवान! रावरेके बावरे-से बोल हैं’॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावणने कहा—अग्नि, वायु, जल, सूर्य, हिमाचल, यम, काल और लोकपाल (इन्द्रादि) मेरे डरसे डाँवाँडोल रहते हैं अर्थात् काँपते रहते हैं। हमारे स्वामी श्रीमहादेवजी हैं, लक्ष्मीपति विष्णु भी हमसे सदा शङ्कित रहते हैं। मैंने साहसपूर्वक महान् तपस्या करके ब्रह्माजीको भी मोल ले लिया है; अर्थात् वे भी मेरे प्रतिकूल नहीं जा सकते। तीनों लोकोंमें आज कोई दूसरा राजा विराजमान नहीं है और तो क्या, बाजे-बाजे, राजाओंके बेटा-बेटीतक हमारे यहाँ ओलमें (गिरवी) हैं। माल्यवान्! तुम्हारे वचन पागलोंके-से हैं। यह ‘ईश्वर’ नामका व्यक्ति कौन है, जो मेरे-जैसे शूरवीरके प्रतिकूल जा सकता है?॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमि भूमिपाल, ब्यालपालक पताल, नाक-
पाल, लोकपाल जेते, सुभट-समाजु है।
कहै मालवान, जातुधानपति! रावरे को
मनहूँ अकाजु आनै, ऐसो कौन आजु है॥
रामकोहु पावकु, समीरु सीय-स्वासु, कीसु,
ईस-बामता बिलोकु, बानरको ब्याजु है।
जारत पचारि फेरि-फेरि सो निसंक लंक,
जहाँ बाँको बीरु तोसो सूर-सिरताजु है॥

मूल

भूमि भूमिपाल, ब्यालपालक पताल, नाक-
पाल, लोकपाल जेते, सुभट-समाजु है।
कहै मालवान, जातुधानपति! रावरे को
मनहूँ अकाजु आनै, ऐसो कौन आजु है॥
रामकोहु पावकु, समीरु सीय-स्वासु, कीसु,
ईस-बामता बिलोकु, बानरको ब्याजु है।
जारत पचारि फेरि-फेरि सो निसंक लंक,
जहाँ बाँको बीरु तोसो सूर-सिरताजु है॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब माल्यवान् कहने लगा—‘पृथ्वीमें जितने राजा हैं, पातालमें जितने सर्पराज हैं, जितने स्वर्गके अधिपति और लोकपाल हैं और जितना वीरोंका समाज है, हे राक्षसेश्वर! उनमेंसे आज ऐसा कौन है, जो मनसे भी आपका अपकार करनेकी सोचे? किंतु यह अग्नि तो श्रीरामचन्द्रजीका क्रोध है और वायु जानकीजीका श्वास है। और देखो, वानरके रूपमें यह ईश्वरकी प्रतिकूलता ही है, वानरका तो बहानामात्र है। इसीसे जहाँ तुम्हारे समान शूरशिरोमणि बाँका वीर मौजूद है, वहीं यह बार-बार बलपूर्वक किसी प्रकारकी शङ्का न करता हुआ लङ्काको जला रहा है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पान-पकवान बिधि नाना के, सँधानो, सीधो,
बिबिध बिधान धान बरत बखारहीं।
कनककिरीट कोटि पलँग, पेटारे, पीठ
काढ़त कहार सब जरे भरे भारहीं॥
प्रबल अनल बाढ़ें जहाँ काढ़े तहाँ डाढ़े,
झपट-लपट भरे भवन-भँडारहीं।
‘तुलसी’ अगारु न पगारु न बजारु बच्यो,
हाथी हथसार जरे घोरे घोरसारहीं॥

मूल

पान-पकवान बिधि नाना के, सँधानो, सीधो,
बिबिध बिधान धान बरत बखारहीं।
कनककिरीट कोटि पलँग, पेटारे, पीठ
काढ़त कहार सब जरे भरे भारहीं॥
प्रबल अनल बाढ़ें जहाँ काढ़े तहाँ डाढ़े,
झपट-लपट भरे भवन-भँडारहीं।
‘तुलसी’ अगारु न पगारु न बजारु बच्यो,
हाथी हथसार जरे घोरे घोरसारहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक प्रकारके पेय पदार्थ, पकवान्, अचार, सीधा (चावल-दाल आदि) और अनेक प्रकारके धान बखारमें ही जल रहे हैं। करोड़ों सोनेके मुकुट, पलंग, पिटारे और सिंहासन निकालनेमें कहार लोग भार लिये हुए ही जल रहे हैं, प्रबल अग्निके बढ़ जानेसे जो वस्तुएँ जहाँ निकालकर रखीं, वहीं जल गयीं तथा अग्निकी झपट और लपट घर और भण्डारमें भर गयीं। गोसाईंजी कहते हैं कि न तो घर बचा और न दीवार या बजार ही बचा। हाथी हाथीखानेमें और घोड़े घुड़सालहीमें जल गये॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाट-बाट हाटकु पिघिलि चलो घी-सो घनो,
कनक-कराही लंक तलफति तायसों।
नाना पकवान जातुधान बलवान सब
पागि पागि ढेरी कीन्ही भलीभाँति भायसों॥
पाहुने कृसानु पवमानसों परोसो, हनुमान
सनमानि कै जेंवाए चित-चायसों।
‘तुलसी’ निहारि अरिनारि दै-दै गारि कहैं
‘बावरें सुरारि बैरु कीन्हौ रामरायसों’॥

मूल

हाट-बाट हाटकु पिघिलि चलो घी-सो घनो,
कनक-कराही लंक तलफति तायसों।
नाना पकवान जातुधान बलवान सब
पागि पागि ढेरी कीन्ही भलीभाँति भायसों॥
पाहुने कृसानु पवमानसों परोसो, हनुमान
सनमानि कै जेंवाए चित-चायसों।
‘तुलसी’ निहारि अरिनारि दै-दै गारि कहैं
‘बावरें सुरारि बैरु कीन्हौ रामरायसों’॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाजार तथा राहमें ढेर-का-ढेर सोना घीके समान पिघलकर बहने लगा। अग्निके तापसे सोनेकी लङ्कारूपी कराही खदक रही है, उसमें बलवान् राक्षसरूपी अनेक प्रकारकी मिठाइयोंको बड़े प्रेमसे पागकर खूब ढेर लगा दिया है और अपने अग्निरूपी पाहुनेको वायुद्वारा परसवाकर हनुमान् जी ने बड़े चावसे आदरपूर्वक भोजन कराया है। यह देखकर शत्रुकी स्त्रियाँ गाली दे-देकर कहती हैं—‘अरे! पागल रावणने श्रीरामचन्द्रके साथ वैर किया है!’॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावनु सो राजरोगु बाढ़त बिराट-उर,
दिनु-दिनु बिकल, सकल सुख राँक सो।
नाना उपचार करि हारे सुर, सिद्ध, मुनि,
होत न बिसोक, औत पावै न मनाक सो॥
रामकी रजाइतें रसाइनी समीरसूनु
उतरि पयोधि पार सोधि सरवाक सो।
जातुधान-बुट पुटपाक लंक-जातरूप-
रतन जतन जारि कियो है मृगांक-सो॥

मूल

रावनु सो राजरोगु बाढ़त बिराट-उर,
दिनु-दिनु बिकल, सकल सुख राँक सो।
नाना उपचार करि हारे सुर, सिद्ध, मुनि,
होत न बिसोक, औत पावै न मनाक सो॥
रामकी रजाइतें रसाइनी समीरसूनु
उतरि पयोधि पार सोधि सरवाक सो।
जातुधान-बुट पुटपाक लंक-जातरूप-
रतन जतन जारि कियो है मृगांक-सो॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराट् पुरुषके हृदयमें रावणरूपी राजरोग बढ़ रहा था; जिससे व्याकुल होकर वह दिनोंदिन समस्त सुखोंसे हीन होता जाता था। देवता, सिद्ध और मुनिगण अनेक प्रकारकी ओषधि करके हार गये, परंतु न तो वह शोकरहित होता था, न कुछ भी चैन पाता था। तब श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे रसवैद्य हनुमान् जी ने समुद्रके पार उतरकर और (लङ्कारूपी) शिकारेको ठीक करके राक्षसरूपी बूटियोंके रसमें लङ्काके सोने और रत्नोंको यत्नपूर्वक फूँककर मृगाङ्क (एक प्रकारका रसौषधि-विशेष) बना डाला॥ २५॥

सीताजीसे विदाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जारि-बारि, कै बिधूम, बारिधि बुताइ लूम,
नाइ माथो पगनि, भो ठाढ़ो कर जोरि कै।
मातु! कृपा कीजै, सहिदानि दीजै, सुनि सीय
दीन्ही है असीस चारु चूडामनि छोरि कै॥
कहा कहौं तात! देखे जात ज्यों बिहात दिन,
बड़ी अवलंब ही, सो चले तुम्ह तोरि कै।
‘तुलसी’ सनीर नैन, नेहसो सिथिल बैन,
बिकल बिलोकि कपि कहत निहोरि कै॥

मूल

जारि-बारि, कै बिधूम, बारिधि बुताइ लूम,
नाइ माथो पगनि, भो ठाढ़ो कर जोरि कै।
मातु! कृपा कीजै, सहिदानि दीजै, सुनि सीय
दीन्ही है असीस चारु चूडामनि छोरि कै॥
कहा कहौं तात! देखे जात ज्यों बिहात दिन,
बड़ी अवलंब ही, सो चले तुम्ह तोरि कै।
‘तुलसी’ सनीर नैन, नेहसो सिथिल बैन,
बिकल बिलोकि कपि कहत निहोरि कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर हनुमान् जी ने लङ्काको जला और उसे धूमरहित कर अपनी पूँछको समुद्रमें बुता (श्रीजानकीजीके) चरणोंमें सिर नवाया और उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये, (तथा कहने लगे—) ‘हे मातः! कृपाकर कोई सहिदानी (चिह्न) दीजिये।’ यह सुनकर श्रीजानकीजीने आशीर्वाद दिया और अपना सुन्दर चूड़ामणि उतारकर उसे देते हुए कहा—‘भैया! मैं तुमसे क्या कहूँ? हमारे दिन किस प्रकार कट रहे हैं,सो तो तुम देखे ही जाते हो। तुम्हारे रहनेसे बड़ा सहारा था, उसे भी तुम तोड़कर चल दिये।’ गोसाईंजी कहते हैं—जानकीजीके नेत्रोंमें जल भर आया और वाणी शिथिल हो गयी। (इस प्रकार सीताजीको) व्याकुल देख हनुमान् जी उन्हें विनयपूर्वक समझाते हुए कहने लगे॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

‘दिवस छ-सात जात जानिबे न, मातु! धरु
धीर, अरि-अंतकी अवधि रहि थोरिकै।
बारिधि बँधाइ सेतु ऐहैं भानुकुलकेतु
सानुज कुसल कपिकटकु बटोरि कै’॥
बचन बिनीत कहि, सीताको प्रबोधु करि,
‘तुलसी’ त्रिकूट चढ़ि कहत डफोरि कै।
‘जै जै जानकीस दससीस-करि-केसरी’
कपीसु कूद्यो बात-घात उदधि हलोरि कै॥

मूल

‘दिवस छ-सात जात जानिबे न, मातु! धरु
धीर, अरि-अंतकी अवधि रहि थोरिकै।
बारिधि बँधाइ सेतु ऐहैं भानुकुलकेतु
सानुज कुसल कपिकटकु बटोरि कै’॥
बचन बिनीत कहि, सीताको प्रबोधु करि,
‘तुलसी’ त्रिकूट चढ़ि कहत डफोरि कै।
‘जै जै जानकीस दससीस-करि-केसरी’
कपीसु कूद्यो बात-घात उदधि हलोरि कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मातः! धैर्य धारण करो! आपको छः-सात दिन बीतते कुछ मालूम न होंगे। अब शत्रुके नाशकी अवधि थोड़ी ही रह गयी है। भाईके सहित सूर्यकुलकेतु (श्रीरामचन्द्रजी) वानरसेना एकत्रित कर, समुद्रमें पुल बाँध यहाँ (शीघ्र ही) सकुशल पधारेंगे।’ इस प्रकार नम्र वचन कह, जानकीजीको समझाकर हनुमान् जी त्रिकूट पर्वतपर चढ़ गये और बड़े जोरसे चिल्लाकर बोले—‘रावणरूप गजराजके लिये मृगराजतुल्य जानकीवल्लभ (भगवान् श्रीराम) की जय हो।’ (ऐसा कहकर) कपिराज (श्रीहनुमान् जी) वायुके आघातसे समुद्रमें हिलोरें उत्पन्न करते हुए (समुद्रके उस पार) कूद गये॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहसी समीरसूनु नीरनिधि लंघि, लखि
लंक सिद्धपीठु निसि जागो है मसानु सो।
‘तुलसी’ बिलोकि महासाहसु प्रसन्न भई
देबी सीय-सारिखी, दियो है बरदानु सो॥
बाटिका उजारि, अछधारि मारि, जारि गढ़,
भानुकुलभानुको प्रतापभानु-भानु-सो।
करत बिसोक लोक-कोकनद, कोक कपि,
कहै जामवंत, आयो, आयो हनुमानु सो॥

मूल

साहसी समीरसूनु नीरनिधि लंघि, लखि
लंक सिद्धपीठु निसि जागो है मसानु सो।
‘तुलसी’ बिलोकि महासाहसु प्रसन्न भई
देबी सीय-सारिखी, दियो है बरदानु सो॥
बाटिका उजारि, अछधारि मारि, जारि गढ़,
भानुकुलभानुको प्रतापभानु-भानु-सो।
करत बिसोक लोक-कोकनद, कोक कपि,
कहै जामवंत, आयो, आयो हनुमानु सो॥

अनुवाद (हिन्दी)

साहसी वायुनन्दनने समुद्रको लाँघ और लङ्कारूपी सिद्धपीठको जान उसने रातभर मसान-सा जगाया है। उनके इस महान् साहसको देख श्रीजानकीजी-जैसी देवी प्रसन्न हुईं और उन्हें वरदान दिया। उस समय जाम्बवान् कहने लगे—‘वाटिकाको उजाड़, अक्षयकुमारकी सेनाका संहार कर और फिर लङ्काको जलाकर भानुकुलभानु श्रीरामचन्द्रके प्रतापरूप सूर्यकी किरणके समान लोकरूपी कमल और वानररूपी चक्रवाकोंको शोकरहित करते हनुमान् जी आ गये, आ गये’॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गगन निहारि, किलकारी भारी सुनि,
हनुमान पहिचानि भए सानँद सचेत हैं।
बूड़त जहाज बच्यो पथिकसमाजु, मानो
आजु जाए जानि सब अंकमाल देत हैं॥
‘जै जै जानकीस, जै जै लखन-कपीस’ कहि,
कूदैं कपि कौतुकी नटत रेत-रेत हैं।
अंगदु मयंदु नलु नीलु बलसील महा
बालधी फिरावैं, मुख नाना गति लेत हैं॥

मूल

गगन निहारि, किलकारी भारी सुनि,
हनुमान पहिचानि भए सानँद सचेत हैं।
बूड़त जहाज बच्यो पथिकसमाजु, मानो
आजु जाए जानि सब अंकमाल देत हैं॥
‘जै जै जानकीस, जै जै लखन-कपीस’ कहि,
कूदैं कपि कौतुकी नटत रेत-रेत हैं।
अंगदु मयंदु नलु नीलु बलसील महा
बालधी फिरावैं, मुख नाना गति लेत हैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

किलकारीके उच्च शब्दको सुनकर (सब वानर और भालु) आकाशकी ओर देखने लगे और हनुमान् जी को पहचानकर आनन्दित और सचेत हो गये, मानो जहाजके साथ पथिकोंका समाज डूबता-डूबता बच गया। वे सब आज अपना नया जन्म जान एक-दूसरेसे गले लगकर मिलने लगे। ‘जय जानकीश, जय जानकीश, जय लक्ष्मणजी, जय सुग्रीव’ ऐसा कहते हुए वे कौतुकी वानर कूदते हैं और समुद्रकी रेतीपर नाचते हैं। बलशाली अङ्गद, मयन्द, नील, नल—ये सब अपनी विशाल पूछोंको घुमाते हैं और अनेक प्रकारसे मुँह बनाते हैं॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयो हनुमानु, प्रानहेतु अंकमाल देत,
लेत पगधूरि एक, चूमत लँगूल हैं।
एक बूझैं बार-बार सीय-समाचार, कहें
पवनकुमारु, भो बिगतश्रम-सूल हैं॥
एक भूखे जानि, आगें आनैं कंद-मूल-फल,
एक पूजैं बाहु बलमूल तोरि फूल हैं।
एक कहैं ‘तुलसी’ सकल सिधि ताकें, जाकें
कृपा-पाथनाथ सीतानाथु सानुकूल हैं॥

मूल

आयो हनुमानु, प्रानहेतु अंकमाल देत,
लेत पगधूरि एक, चूमत लँगूल हैं।
एक बूझैं बार-बार सीय-समाचार, कहें
पवनकुमारु, भो बिगतश्रम-सूल हैं॥
एक भूखे जानि, आगें आनैं कंद-मूल-फल,
एक पूजैं बाहु बलमूल तोरि फूल हैं।
एक कहैं ‘तुलसी’ सकल सिधि ताकें, जाकें
कृपा-पाथनाथ सीतानाथु सानुकूल हैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने प्राणोंकी रक्षा करनेवाले हनुमान् जी को आया देख कोई उनसे गले लगकर मिलते हैं, कोई चरणधूलि लेते हैं। कोई पूँछ चूमते हैं, कोई बार-बार जानकीजीके समाचार पूछते हैं। जिन्हें कहनेहीसे हनुमान् जी की सारी थकावट और व्यथा जाती रही। कोई हनुमान् जी को भूखे जान उनके आगे कन्द-मूल-फल लाकर रख देते हैं। कोई फूल तोड़कर हनुमान् जी की बलशालिनी भुजाओंका पूजन करते हैं। कोई कहते हैं कि कृपासिंधु सीतानाथ जिसके ऊपर अनुकूल हैं, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीयको सनेहु, सीलु, कथा तथा लंकाकी
कहत चले चायसों, सिरानो पथु छनमें।
कह्यो जुबराज बोलि बानरसमाजु, आजु
खाहु फल, सुनि पेलि पैठे मधुबनमें॥
मारे बागवान, ते पुकारत देवान गे,
‘उजारे बाग अंगद’, देखाए घाय तनमें।
कहै कपिराजु, करि काजु आये कीस, तुल-
सीसकी सपथ, महामोदु मेरे मनमें॥

मूल

सीयको सनेहु, सीलु, कथा तथा लंकाकी
कहत चले चायसों, सिरानो पथु छनमें।
कह्यो जुबराज बोलि बानरसमाजु, आजु
खाहु फल, सुनि पेलि पैठे मधुबनमें॥
मारे बागवान, ते पुकारत देवान गे,
‘उजारे बाग अंगद’, देखाए घाय तनमें।
कहै कपिराजु, करि काजु आये कीस, तुल-
सीसकी सपथ, महामोदु मेरे मनमें॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे सब श्रीजानकीजीके प्रेम और शीलकी तथा लङ्काकी कथा बड़े चावसे कहते हुए चले, (जिससे) क्षणमात्रमें रास्ता समाप्त हो गया। [किष्किन्धामें पहुँचनेपर] युवराज (अङ्गद) ने कपिसमाजको बुलाकर कहा—‘आज सब लोग फल खाओ!’ यह सुनकर वे सब-के-सब बलपूर्वक मधुवनमें घुस गये। उन्होंने जिन बागवानोंको मारा, वे पुकारते हुए दरबारमें गये और शरीरमें घाव दिखाकर कहने लगे कि युवराज अङ्गदने बागोंको उजाड़ दिया [और हमलोगोंको मारा ], तब सुग्रीवने कहा—तुलसीके स्वामी (श्रीरामचन्द्रजी) की शपथ है, आज मेरे मनमें बड़ा आनन्द है; मालूम होता है, वानरगण कार्य कर आये हैं॥ ३१॥

भगवान् रामकी उदारता

विश्वास-प्रस्तुतिः

नगरु कुबेरको सुमेरुकी बराबरी,
बिरंचि-बुद्धिको बिलासु लंक निरमान भो।
ईसहि चढ़ाइ सीस बीसबाहु बीर तहाँ,
रावनु सो राजा रज-तेजको निधानु भो॥
‘तुलसी’ तिलोककी समृद्धि, सौंज, संपदा
सकेलि चाकि राखी, रासि, जाँगरु जहानु भो।
तीसरें उपास बनबास सिंधु पास सो
समाजु महाराजजू को एक दिन दानु भो॥

मूल

नगरु कुबेरको सुमेरुकी बराबरी,
बिरंचि-बुद्धिको बिलासु लंक निरमान भो।
ईसहि चढ़ाइ सीस बीसबाहु बीर तहाँ,
रावनु सो राजा रज-तेजको निधानु भो॥
‘तुलसी’ तिलोककी समृद्धि, सौंज, संपदा
सकेलि चाकि राखी, रासि, जाँगरु जहानु भो।
तीसरें उपास बनबास सिंधु पास सो
समाजु महाराजजू को एक दिन दानु भो॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुबेरकी पुरी लङ्का (स्वर्णमय होनेके कारण) सुमेरुके समान है। वह मानो ब्रह्माकी बुद्धिका कौशल ही बनकर खड़ा हो गया है। वहाँ राजसी तेजकी खान, बीस भुजाओंवाला रावण श्रीमहादेवजीको अपने मस्तक चढ़ाकर राजा हुआ। तुलसीदासजी कहते हैं—मानो तीनों लोकोंकी विभूति, सामग्री और सम्पत्तिकी राशिको एकत्रित कर यहीं चाँक लगाकर (सीमा बाँधकर) रख दी है तथा इसीका भूसा आदि सारा संसार बन गया। यह सारी सम्पत्ति वनवासी महाराज रामजीको समुद्रतटपर तीन दिन उपवास करनेके बाद [विभीषणको देते समय] एक दिनका दान हो गयी॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(इति सुन्दरकाण्ड)

मूलम् (समाप्तिः)

(इति सुन्दरकाण्ड)