वन-गमन
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीरके कागर ज्यों नृपचीर, बिभूषन उप्पम अंगनि पाई।
औध तजी मगबासके रूख ज्यों, पंथके साथ ज्यों लोग-लोगाई॥
संग सुबंधु, पुनीत प्रिया, मनो धर्मु क्रिया धरि देह सुहाई।
राजिवलोचन रामु चले तजि बापको राजु बटाउ कीं नाई॥
मूल
कीरके कागर ज्यों नृपचीर, बिभूषन उप्पम अंगनि पाई।
औध तजी मगबासके रूख ज्यों, पंथके साथ ज्यों लोग-लोगाई॥
संग सुबंधु, पुनीत प्रिया, मनो धर्मु क्रिया धरि देह सुहाई।
राजिवलोचन रामु चले तजि बापको राजु बटाउ कीं नाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामके अङ्गोंने राजोचित वस्त्रों और अलंकारोंका त्यागकर वही शोभा पायी जो सुग्गा अपने पंखोंको त्यागकर पाता है। अयोध्याको मार्गनिवास (चट्टी) के वृक्षों और वहाँके स्त्री-पुरुषोंको रास्तेके साथियोंके समान त्याग दिया। साथमें सुन्दर भाई और पवित्र प्रिया ऐसे मालूम होते हैं, मानो धर्म और क्रिया सुन्दर देह धारण किये हुए हों। कमलनयन श्रीरामचन्द्रजी अपने पिताका राज्य बटोहीकी तरह छोड़कर चल दिये॥ १॥
[जैसे सुग्गा वसन्त-ऋतुमें अपने पुराने पंखोंको त्यागकर आनन्दित होता है, वैसे ही श्रीरामचन्द्रजीने राजवस्त्र और अलंकारोंको आनन्दसे त्याग दिया। जैसे रास्तेमें निवासस्थानके वृक्षको त्यागनेमें कुछ भी खेद नहीं होता, वैसे ही उन्होंने अयोध्याको सहर्ष त्याग दिया और रास्तेके संगी-साथियोंको त्यागनेमें जैसे मोह नहीं सताता, वैसे ही पुरवासी नर-नारियोंको त्यागनेमें उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। तात्पर्य यह कि जैसे बटोही मार्गकी सब वस्तुओंको बिना खेद त्यागकर चला जाता है, वैसे ही श्रीरामचन्द्रजी अपने पिताके राज्यादिको किसी अन्य पुरुषके समान त्यागकर चल दिये।]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कागर कीर ज्यों भूषन-चीर सरीरु लस्यो तजि नीरु ज्यों काई।
मातु-पिता प्रिय लोग सबै सनमानि सुभायँ सनेह सगाई॥
संग सुभामिनि, भाइ भलो, दिन द्वै जनु औध हुते पहुनाई।
राजिवलोचन रामु चले तजि बापको राजु बटाउ कीं नाईं॥
मूल
कागर कीर ज्यों भूषन-चीर सरीरु लस्यो तजि नीरु ज्यों काई।
मातु-पिता प्रिय लोग सबै सनमानि सुभायँ सनेह सगाई॥
संग सुभामिनि, भाइ भलो, दिन द्वै जनु औध हुते पहुनाई।
राजिवलोचन रामु चले तजि बापको राजु बटाउ कीं नाईं॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् के लिये वस्त्र और आभूषण तोतेके पंखके समान थे। उन्हें त्याग देनेपर उनका शरीर ऐसा सुशोभित हुआ, जैसे काईको हटानेपर जल। माता-पिता और प्रिय लोगोंको स्वभावसे ही उनके स्नेह और सम्बन्धानुसार सम्मानित कर कमलनयन भगवान् राम साथमें सुन्दर स्त्री और भले भाईको ले अपने पिताका राज्य अन्य पुरुषकी भाँति छोड़कर चल दिये, मानो वे अयोध्यामें दो ही दिनकी मेहमानीपर थे॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिथिल सनेहँ कहैं कौसिला सुमित्राजू सों,
मैं न लखी सौति, सखी! भगिनी ज्यों सेई है।
कहै मोहि मैया, कहौं मैं न मैया, भरतकी,
बलैया लेहौं भैया तेरी मैया कैकेयी है॥
तुलसी सरल भायँ रघुरायँ माय मानी,
काय-मन-बानीहूँ न जानी कै मतेई है।
बाम बिधि मेरो सुखु सिरिस-सुमन-सम,
ताको छल-छुरी कोह-कुलिस लै टेई है॥
मूल
सिथिल सनेहँ कहैं कौसिला सुमित्राजू सों,
मैं न लखी सौति, सखी! भगिनी ज्यों सेई है।
कहै मोहि मैया, कहौं मैं न मैया, भरतकी,
बलैया लेहौं भैया तेरी मैया कैकेयी है॥
तुलसी सरल भायँ रघुरायँ माय मानी,
काय-मन-बानीहूँ न जानी कै मतेई है।
बाम बिधि मेरो सुखु सिरिस-सुमन-सम,
ताको छल-छुरी कोह-कुलिस लै टेई है॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौसल्याजी प्रेमसे विह्वल होकर सुमित्राजीसे कहती हैं—‘‘हे सखि! मैंने कैकेयीको कभी सौत नहीं समझा। सदा अपनी बहिनके समान उसका पालन किया। जब रामचन्द्रजी मुझको मैया कहते थे तो मैं यही कहती थी, ‘मैं तेरी नहीं, भरतकी माता हूँ। भैया! मैं तेरी बलैया लेती हूँ—तेरी माता तो कैकेयी है।’ [गोसाईंजी कहते हैं—] रामचन्द्रने भी सरल भावसे, मन-वचन-कर्मसे कैकेयीको माता ही माना, कभी विमाता नहीं समझा। परंतु वाम विधाताने हमारे सिरस-सुमन-सदृश सुकुमार सुख (को काटने) के लिये छलरूपी छुरीको वज्रपर पैनाया है’’॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीजै कहा, जीजी जू! सुमित्रा परि पायँ कहै,
तुलसी सहावै बिधि, सोई सहियतु है।
रावरो सुभाउ रामजन्म ही तें जानियत,
भरतकी मातु को कि ऐसो चहियतु है॥
जाई राजघर, ब्याहि आई राजघर माहँ
राज-पूतु पाएहूँ न सुखु लहियतु है।
देह सुधागेह, ताहि मृगहूँ मलीन कियो,
ताहू पर बाहु बिनु राहु गहियतु है॥
मूल
कीजै कहा, जीजी जू! सुमित्रा परि पायँ कहै,
तुलसी सहावै बिधि, सोई सहियतु है।
रावरो सुभाउ रामजन्म ही तें जानियत,
भरतकी मातु को कि ऐसो चहियतु है॥
जाई राजघर, ब्याहि आई राजघर माहँ
राज-पूतु पाएहूँ न सुखु लहियतु है।
देह सुधागेह, ताहि मृगहूँ मलीन कियो,
ताहू पर बाहु बिनु राहु गहियतु है॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुमित्राजी कौसल्याजीके पैरोंपर पड़कर कहती हैं—‘बहिनजी! क्या किया जाय! विधाता जो कुछ सहाता है, वह सहना ही पड़ता है। आपका स्वभाव तो रामजीके जन्महीसे जाना जाता है, परंतु भरतकी माताको क्या ऐसा करना उचित था? तुमने राजाके घरमें जन्म लिया, राजाके घर ही ब्याही गयीं, राज्याधिकारी (सर्वश्रेष्ठ) पुत्र भी पाया, पर तो भी तुम सुखलाभ न कर सकीं। देखो, चन्द्रमाका शरीर अमृतका आश्रय है; किंतु उसे मृगने कलंकित कर दिया और ऊपरसे बाहुरहित राहु भी उसे ग्रस लेता है’॥ ४॥
गुहका पादप्रक्षालन
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम अजामिल-से खल कोटि अपार नदीं भव बूड़त काढ़े।
जो सुमिरें गिरि मेरु सिलाकन होत, अजाखुर बारिधि बाढ़े॥
तुलसी जेहि के पद पंकज तें प्रगटी तटिनी, जो हरै अघ गाढ़े।
ते प्रभु या सरिता तरिबे कहुँ मागत नाव करारे ह्वै ठाढ़े॥
मूल
नाम अजामिल-से खल कोटि अपार नदीं भव बूड़त काढ़े।
जो सुमिरें गिरि मेरु सिलाकन होत, अजाखुर बारिधि बाढ़े॥
तुलसी जेहि के पद पंकज तें प्रगटी तटिनी, जो हरै अघ गाढ़े।
ते प्रभु या सरिता तरिबे कहुँ मागत नाव करारे ह्वै ठाढ़े॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके नामने संसाररूपी अपार नदीमें डूबते हुए अजामिल-जैसे करोड़ों पापियोंका उद्धार कर दिया और जिसके स्मरणमात्रसे सुमेरुके समान पर्वत पत्थरके कणके बराबर और बढ़ा हुआ समुद्र भी बकरीके खुरके समान हो जाता है; गोसाईंजी कहते हैं—जिनके चरणकमलसे (श्रीगङ्गा) नदी प्रकट हुई हैं, जो बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाली हैं, वे समर्थ श्रीरामचन्द्रजी इस नदीको पार करनेके लिये किनारेपर खड़े होकर नाव माँग रहे हैं॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि घाटतें थोरिक दूरि अहै कटि लौं जलु थाह देखाइहौं जू।
परसें पगधूरि तरै तरनी, घरनी घर क्यों समुझाइहौं जू॥
तुलसी अवलंबु न और कछू, लरिका केहि भाँति जियाइहौं जू।
बरु मारिए मोहि, बिना पग धोए हौं नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू॥
मूल
एहि घाटतें थोरिक दूरि अहै कटि लौं जलु थाह देखाइहौं जू।
परसें पगधूरि तरै तरनी, घरनी घर क्यों समुझाइहौं जू॥
तुलसी अवलंबु न और कछू, लरिका केहि भाँति जियाइहौं जू।
बरु मारिए मोहि, बिना पग धोए हौं नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू॥
अनुवाद (हिन्दी)
[केवट कहता है—] इस घाटसे थोड़ी ही दूरपर केवल कमरभर जल है। चलिये, मैं थाह दिखला दूँगा [मैं नावपर तो आपको ले नहीं जाऊँगा, क्योंकि यदि अहल्याके समान] आपकी चरणरजका स्पर्श कर मेरी नावका भी उद्धार हो गया तो मैं घरकी स्त्रीको कैसे समझाऊँगा? मुझको [जीविकाके लिये] और कुछ अवलम्ब नहीं है। अतः फिर अपने बाल-बच्चोंका पालन मैं किस प्रकार करूँगा? हे नाथ! बिना आपके चरण धोये मैं नावपर नहीं चढ़ाऊँगा, चाहे आप मुझे मार डालिये॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावरे दोषु न पायनको, पगधूरिको भूरि प्रभाउ महा है।
पाहन तें बन-बाहनु काठको कोमल है, जलु खाइ रहा है॥
पावन पाय पखारि कै नाव चढ़ाइहौं, आयसु होत कहा है।
तुलसी सुनि केवटके बर बैन हँसे प्रभु जानकी ओर हहा है॥
मूल
रावरे दोषु न पायनको, पगधूरिको भूरि प्रभाउ महा है।
पाहन तें बन-बाहनु काठको कोमल है, जलु खाइ रहा है॥
पावन पाय पखारि कै नाव चढ़ाइहौं, आयसु होत कहा है।
तुलसी सुनि केवटके बर बैन हँसे प्रभु जानकी ओर हहा है॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें आपके चरणोंका कोई दोष नहीं है। आपके चरणकी धूलिका प्रभाव ही बहुत बड़ा है। जिसके स्पर्शसे अहल्या पत्थरसे सुन्दरी स्त्री हो गयी, उससे इस नौकाका उद्धार हो जाना कौन बड़ी बात है? क्योंकि पत्थरकी अपेक्षा तो यह काठका जलयान कोमल है और तिसपर यह पानी खाये हुए है अर्थात् पानीमें रहनेसे और भी अधिक कोमल हो गया है। अतः मैं तो आपके पवित्र चरणकमलको धोकर ही नावपर चढ़ाऊँगा, कहिये क्या आज्ञा है? गोसाईंजी कहते हैं कि केवटके ये श्रेष्ठ [चतुरताके] वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजी जानकीजीकी ओर देखकर ठहाका मारकर हँसे॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे,
केवटकी जाति, कछु बेद न पढ़ाइहौं।
सबु परिवारु मेरो याहि लागि, राजा जू,
हौं दीन बित्तहीन, कैसें दूसरी गढ़ाइहौं॥
गौतमकी घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी,
प्रभुसों निषादु ह्वै कै बादु ना बढ़ाइहौं।
तुलसीके ईस राम, रावरे सों साँची कहौं,
बिना पग धोएँ नाथ, नाव ना चढ़ाइहौं॥
मूल
पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे,
केवटकी जाति, कछु बेद न पढ़ाइहौं।
सबु परिवारु मेरो याहि लागि, राजा जू,
हौं दीन बित्तहीन, कैसें दूसरी गढ़ाइहौं॥
गौतमकी घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी,
प्रभुसों निषादु ह्वै कै बादु ना बढ़ाइहौं।
तुलसीके ईस राम, रावरे सों साँची कहौं,
बिना पग धोएँ नाथ, नाव ना चढ़ाइहौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
घरमें पत्तलपर मछलीके सिवा और कुछ नहीं है और बच्चे सब छोटे-छोटे हैं [अभी कमाने योग्य नहीं हैं] जातिका मैं केवट हूँ, उन्हें कुछ वेद तो पढ़ाऊँगा नहीं। राजाजी! मेरा तो सारा परिवार इसीके आश्रय है तथा मैं धनहीन और दरिद्र हूँ, दूसरी नौका भी कहाँसे बनवाऊँगा। यदि गौतमकी स्त्रीके समान मेरी यह नाव भी तर गयी तो हे प्रभो! जातिका निषाद होकर मैं आपसे बात भी नहीं बढ़ा सकूँगा (झगड़ नहीं सकूँगा)। हे नाथ! हे तुलसीश राम! आपसे मैं सच कहता हूँ, बिना पैर धोये आपको नावपर नहीं चढ़ाऊँगा॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्हको पुनीत बारि धारैं सिरपै पुरारि,
त्रिपथगामिनि-जसु बेद कहैं गाइकै।
जिन्हको जोगींद्र मुनि बृंद देव देह दमि,
करत बिबिध जोग-जप मनु लाइकै॥
तुलसी जिन्हकी धूरि परसि अहल्या तरी,
गौतम सिधारे गृह गौनो-सो लेवाइकै।
तेई पाय पाइकै चढ़ाइ नाव धोए बिनु,
ख्वैहौं न पठावनी कै ह्वैहौं न हँसाइ कै॥
मूल
जिन्हको पुनीत बारि धारैं सिरपै पुरारि,
त्रिपथगामिनि-जसु बेद कहैं गाइकै।
जिन्हको जोगींद्र मुनि बृंद देव देह दमि,
करत बिबिध जोग-जप मनु लाइकै॥
तुलसी जिन्हकी धूरि परसि अहल्या तरी,
गौतम सिधारे गृह गौनो-सो लेवाइकै।
तेई पाय पाइकै चढ़ाइ नाव धोए बिनु,
ख्वैहौं न पठावनी कै ह्वैहौं न हँसाइ कै॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन चरणोंके (धोवनरूप) पवित्र जल—श्रीगङ्गाजीको शिवजी अपने सिरपर धारण करते हैं, जिन (गङ्गाजी) के यशका वेद भी गा-गाकर वर्णन करते हैं, जिनके लिये योगीश्वर, मुनिगण और देवतालोग देहका दमन कर, मन लगाकर अनेक प्रकारके योग और जप करते हैं; गोसाईंजी कहते हैं, जिनकी धूलिको स्पर्शकर अहल्या तर गयी और गौतमजी गौनेके समान अपनी स्त्रीको लिवाकर घर ले गये; उन्हीं चरणोंको पाकर बिना धोये नावपर चढ़ाकर मैं अपनी मजूरी नहीं खोऊँगा और न अपनी हँसी कराऊँगा?॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभुरुख पाइ कै, बोलाइ बालक घरनिहि,
बंदि कै चरन चहूँ दिसि बैठे घेरि-घेरि।
छोटो-सो कठौता भरि आनि पानी गंगाजूको,
धोइ पाय पीअत पुनीत बारि फेरि-फेरि॥
तुलसी सराहैं ताको भागु, सानुराग सुर
बरषैं सुमन, जय-जय कहैं टेरि-टेरि।
बिबिध सनेह-सानी बानी असयानी सुनि,
हँसैं राघौ जानकी-लखन तन हेरि-हेरि॥
मूल
प्रभुरुख पाइ कै, बोलाइ बालक घरनिहि,
बंदि कै चरन चहूँ दिसि बैठे घेरि-घेरि।
छोटो-सो कठौता भरि आनि पानी गंगाजूको,
धोइ पाय पीअत पुनीत बारि फेरि-फेरि॥
तुलसी सराहैं ताको भागु, सानुराग सुर
बरषैं सुमन, जय-जय कहैं टेरि-टेरि।
बिबिध सनेह-सानी बानी असयानी सुनि,
हँसैं राघौ जानकी-लखन तन हेरि-हेरि॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीका रुख देख केवटने अपने लड़के और स्त्रीको बुलवाया। वे सब प्रभुके चरणोंकी वन्दना कर चारों ओरसे उन्हें घेरकर बैठ गये। पुनः छोटे-से काठके कठौतेमें गङ्गाजीका जल लाया और चरण धोकर उस पवित्र जलको बार-बार पीने लगा। गोसाईंजी कहते हैं कि देवतालोग केवटके भाग्यकी बड़ाई कर प्रेमसहित फूल बरसाने और पुकार-पुकारकर जय-जयकार करने लगे। (केवटपरिवारकी) नाना प्रकारकी प्रेमभरी भोली-भोली बातोंको सुनकर श्रीरामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजीकी ओर देख-देखकर हँसते हैं॥ १०॥
वनके मार्गमें
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरतें निकसी रघुबीरबधू, धरि धीर दए मगमें डग द्वै।
झलकीं भरि भाल कनीं जलकी, पुट सूखि गए मधुराधर वै॥
फिरि बूझति हैं, चलनो अब केतिक, पर्नकुटी करिहौ कित ह्वै?
तियकी लखि आतुरता पियकी अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै॥
मूल
पुरतें निकसी रघुबीरबधू, धरि धीर दए मगमें डग द्वै।
झलकीं भरि भाल कनीं जलकी, पुट सूखि गए मधुराधर वै॥
फिरि बूझति हैं, चलनो अब केतिक, पर्नकुटी करिहौ कित ह्वै?
तियकी लखि आतुरता पियकी अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
रघुवीरप्रिया श्रीजानकीजी जब नगरसे बाहर हुईं तो वे धैर्य धारण कर मार्गमें दो डग चलीं। इतनेहीमें (सुकुमारताके कारण) उनके ललाटपर जलके कण (पसीनेकी बूँदें) भरपूर झलकने लगे और दोनों मधुर अधरपुट सूख गये। वे घूमकर पूछने लगीं—‘हे प्रिय! अब कितनी दूर और चलना है और कहाँ चलकर पर्णकुटी बनाइयेगा?’ पत्नीकी ऐसी आतुरता देख प्रियतमकी अति मनोहर आँखोंसे जल बहने लगा॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलको गए लक्खनु, हैं लरिका
परिखौ, पिय! छाहँ घरीक ह्वै ठाढ़े।
पोंछि पसेउ बयारि करौं,
अरु पाय पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े॥
तुलसी रघुबीर प्रिया श्रम जानि कै
बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।
जानकीं नाहको नेहु लख्यो,
पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े॥
मूल
जलको गए लक्खनु, हैं लरिका
परिखौ, पिय! छाहँ घरीक ह्वै ठाढ़े।
पोंछि पसेउ बयारि करौं,
अरु पाय पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े॥
तुलसी रघुबीर प्रिया श्रम जानि कै
बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।
जानकीं नाहको नेहु लख्यो,
पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीजानकीजी कहती हैं—‘प्रियतम! लक्ष्मणजी बालक हैं, वे जल लाने गये हैं, सो कहीं छाँहमें एक घड़ी खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कीजिये। मैं आपके पसीने पोंछकर हवा करूँगी और गरम बालूसे जले हुए चरणोंको धोऊँगी।’ प्रियाकी थकावटको जानकर श्रीरामचन्द्रजीने बैठकर बड़ी देरतक उनके पैरोंके काँटे निकाले। जब जानकीजीने अपने प्राणप्रियके प्रेमको देखा तो उनका शरीर आनन्दसे रोमाञ्चित हो गया और नेत्रोंमें आँसू भर आये॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ठाढ़े हैं नवद्रुमडार गहें,
धनु काँधें धरें, कर सायकु लै।
बिकटी भृकुटी, बड़री अँखियाँ,
अनमोल कपोलन की छबि है॥
तुलसी अस मूरति आनु हिएँ,
जड! डारु धौं प्रान निछावरि कै।
श्रमसीकर साँवरि देह लसै,
मनो रासि महा तम तारकमै॥
मूल
ठाढ़े हैं नवद्रुमडार गहें,
धनु काँधें धरें, कर सायकु लै।
बिकटी भृकुटी, बड़री अँखियाँ,
अनमोल कपोलन की छबि है॥
तुलसी अस मूरति आनु हिएँ,
जड! डारु धौं प्रान निछावरि कै।
श्रमसीकर साँवरि देह लसै,
मनो रासि महा तम तारकमै॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी नवीन वृक्षकी डालको पकड़े हुए (श्रीरामचन्द्रजी) खड़े हैं। वे कन्धेपर धनुष धारण किये हुए हैं और हाथमें बाण लिये हुए हैं; उनकी भृकुटी टेढ़ी है, आँखें बड़ी-बड़ी हैं और कपोलोंकी शोभा अनमोल है। पसीनेकी बूँदोंसे साँवला शरीर ऐसा सुशोभित हो रहा है, मानो तारोंसे युक्त महान् तमोराशि हो। गोसाईंजी कहते हैं—रे जड़! ऐसी मूर्तिको प्राण निछावर करके भी हृदयमें बसा॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलजनयन, जलजानन, जटा है सिर,
जौवन-उमंग अंग उदित उदार हैं।
साँवरे-गोरेके बीच भामिनी सुदामिनी-सी,
मुनिपट धारैं, उर फूलनिके हार हैं॥
करनि सरासन सिलीमुख, निषंग कटि,
अति ही अनूप काहू भूपके कुमार हैं।
तुलसी बिलोकि कै तिलोकके तिलक तीनि,
रहे नरनारि ज्यों चितेरे चित्रसार हैं॥
मूल
जलजनयन, जलजानन, जटा है सिर,
जौवन-उमंग अंग उदित उदार हैं।
साँवरे-गोरेके बीच भामिनी सुदामिनी-सी,
मुनिपट धारैं, उर फूलनिके हार हैं॥
करनि सरासन सिलीमुख, निषंग कटि,
अति ही अनूप काहू भूपके कुमार हैं।
तुलसी बिलोकि कै तिलोकके तिलक तीनि,
रहे नरनारि ज्यों चितेरे चित्रसार हैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
[मार्गके गाँवोंके नर-नारी श्रीराम, लक्ष्मण और सीताको देखकर आपसमें इस प्रकार बातें करते हैं—] इनके नेत्र कमलके समान हैं तथा मुख भी कमलके ही सदृश हैं। इनके सिरपर जटाएँ हैं और प्रशस्त अङ्गोंमें यौवनकी उमंग झलक रही है। साँवरे (श्रीरामचन्द्र) और गोरे (लक्ष्मणजी) के मध्यमें बिजलीके समान आभावाली एक रमणी सुशोभित है। ये (तीनों) मुनियोंके वस्त्र धारण किये हैं और इनके हृदयमें फूलोंकी मालाएँ हैं। हाथोंमें धनुष-बाण लिये और कमरमें तरकस कसे ये किसी राजाके अत्यन्त ही अनुपम कुमार हैं। गोसाईंजी कहते हैं कि त्रिलोकीके इन तीन तिलकोंको देखकर वे नर-नारी ऐसे स्तब्ध रह गये, मानो चित्रशालाके चित्र हों॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगें सोहै साँवरो कुँवरु गोरो पाछें-पाछें,
आछे मुनिबेष धरें, लाजत अनंग हैं।
बान बिसिषासन, बसन बनही के कटि।
कसे हैं बनाइ, नीके राजत निषंग हैं॥
साथ निसिनाथमुखी पाथनाथनंदिनी-सी,
तुलसी बिलोकें चितु लाइ लेत संग हैं।
आनँद उमंग मन, जौबन-उमंग तन,
रूपकी उमंग उमगत अंग-अंग हैं॥
मूल
आगें सोहै साँवरो कुँवरु गोरो पाछें-पाछें,
आछे मुनिबेष धरें, लाजत अनंग हैं।
बान बिसिषासन, बसन बनही के कटि।
कसे हैं बनाइ, नीके राजत निषंग हैं॥
साथ निसिनाथमुखी पाथनाथनंदिनी-सी,
तुलसी बिलोकें चितु लाइ लेत संग हैं।
आनँद उमंग मन, जौबन-उमंग तन,
रूपकी उमंग उमगत अंग-अंग हैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
आगे-आगे साँवरे और पीछे-पीछे गोरे राजकुमार सुन्दर मुनिवेष धारण किये सुशोभित हैं, जिन्हें देखकर कामदेव भी लज्जित होता है। वे धनुष-बाण लिये हैं और वनके वस्त्र धारण किये हैं। कमरमें भी वनके ही वस्त्र अच्छी तरह कसे हुए हैं और सुन्दर तरकस भी सुशोभित हैं। साथमें समुद्रसुता लक्ष्मीके समान एक चन्द्रमुखी हैं। गोसाईंजी कहते हैं, वे तीनों देखनेसे मनको सङ्ग लगा लेते हैं। उनके मनमें आनन्दकी उमंग है, शरीरमें यौवनकी उमंग है और रूपकी उमंग अङ्ग-अङ्गमें उमँग रही है॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुन्दर बदन, सरसीरुह सुहाए नैन,
मंजुल प्रसून माथें मुकुट जटनि के।
अंसनि सरासन, लसत सुचि सर कर,
तून कटि, मुनिपट लूटक पटनि के॥
नारि सुकुमारि संग, जाके अंग उबटि कै,
बिधि बिरचैं बरूथ बिद्युतछटनि के।
गोरेको बरनु देखें सोनो न सलोनो लागै,
साँवरे बिलोकें गर्ब घटत घटनि के॥
मूल
सुन्दर बदन, सरसीरुह सुहाए नैन,
मंजुल प्रसून माथें मुकुट जटनि के।
अंसनि सरासन, लसत सुचि सर कर,
तून कटि, मुनिपट लूटक पटनि के॥
नारि सुकुमारि संग, जाके अंग उबटि कै,
बिधि बिरचैं बरूथ बिद्युतछटनि के।
गोरेको बरनु देखें सोनो न सलोनो लागै,
साँवरे बिलोकें गर्ब घटत घटनि के॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका सुन्दर मुख है, कमलके समान सुहावने नेत्र हैं और मस्तकपर जटाओंके मुकुट हैं, जिनमें सुन्दर फूल खोंसे हुए हैं। कन्धोंपर धनुष, हाथोंमें सुन्दर बाण, कमरमें तरकस और वस्त्रोंकी शोभाको लूटनेवाले मुनिवस्त्र सुशोभित हैं। उनके साथ एक सुकुमारी नारी है, जिसके अङ्गोंमें उबटन लगाकर [उसके मैलसे] ब्रह्माने विद्युच्छटाके समूह रचे हैं। गोरे (लक्ष्मणजी) के रंगको देखनेपर सोना सुहावना नहीं मालूम होता और साँवरे कुँवरको देखनेसे श्याम मेघोंका गर्व घट जाता है॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलकल-बसन, धनु-बान पानि, तून कटि,
रूपके निधान घन-दामिनी-बरन हैं।
तुलसी सुतीय संग, सहज सुहाए अंग,
नवल कँवलहू तें कोमल चरन हैं॥
औरै सो बसंतु, और रति, औरै रतिपति,
मूरति बिलोकें तन-मनके हरन हैं।
तापस-बेषै बनाइ पथिक पथें सुहाइ,
चले लोकलोचननि सुफल करन हैं॥
मूल
बलकल-बसन, धनु-बान पानि, तून कटि,
रूपके निधान घन-दामिनी-बरन हैं।
तुलसी सुतीय संग, सहज सुहाए अंग,
नवल कँवलहू तें कोमल चरन हैं॥
औरै सो बसंतु, और रति, औरै रतिपति,
मूरति बिलोकें तन-मनके हरन हैं।
तापस-बेषै बनाइ पथिक पथें सुहाइ,
चले लोकलोचननि सुफल करन हैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
वल्कलवस्त्र धारण किये, हाथोंमें धनुष-बाण लिये, कमरमें तरकस कसे दोनों राजकुमार रूपके राशि तथा क्रमशः मेघ और बिजलीके रंगके हैं। साथमें सुन्दरी स्त्री है, अङ्ग स्वाभाविक ही सलोने हैं और चरण नवीन कमलसे भी अधिक कोमल हैं। लक्ष्मणजी मानो दूसरे वसन्त, सीताजी दूसरी रति और श्रीराम दूसरे कामदेव हैं; उनकी मूर्तियाँ अवलोकन करनेसे तन-मनको हरनेवाली हैं; ऐसा जान पड़ता है, मानो ये तीनों (वसन्त, रति और काम) सुन्दर तपस्वियोंका वेष बनाये पथिकरूपसे मार्गमें लोगोंके नेत्रोंको सफल करने चले हैं॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बनिता बनी स्यामल गौरके बीच,
बिलोकहु, री सखि! मोहि-सी ह्वै।
मगजोगु न कोमल, क्यों चलिहै,
सकुचाति मही पदपंकज छ्वै॥
तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं,
पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै।
सब भाँति मनोहर मोहनरूप
अनूप हैं भूपके बालक द्वै॥
मूल
बनिता बनी स्यामल गौरके बीच,
बिलोकहु, री सखि! मोहि-सी ह्वै।
मगजोगु न कोमल, क्यों चलिहै,
सकुचाति मही पदपंकज छ्वै॥
तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं,
पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै।
सब भाँति मनोहर मोहनरूप
अनूप हैं भूपके बालक द्वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
[एक ग्रामीण स्त्री अन्य स्त्रियोंसे कहती है—] ‘अरी सखि! साँवरे और गोरे कुँवरके बीचमें एक स्त्री विराजमान है, उसे तनिक मेरे समान होकर देखो। वह बड़ी कोमल है, मार्गमें चलने योग्य नहीं है, कैसे चलेगी। फिर इसके (कोमल) चरणकमलोंका स्पर्श करके तो पृथ्वी भी सकुचाती है।’ गोसाईंजी कहते हैं कि उसकी बातें सुनकर सब ग्रामकी स्त्रियाँ थकित हो गयीं; उनके शरीर पुलकित हो गये और नेत्रोंसे जल बहने लगा। [सब कहने लगीं कि] ये दोनों राजकुमार सब प्रकार मनोहर, मोह लेनेवाले और अनुपम सुन्दर हैं॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साँवरे-गोरे सलोने सुभायँ, मनोहरताँ जिति मैनु लियो है।
बान-कमान, निषंग कसें, सिर सोहैं जटा, मुनिबेषु कियो है॥
संग लिएँ बिधुबैनी बधू, रतिको जेहि रंचक रूपु दियो है।
पायन तौ पनहीं न, पयादेंहि क्यों चलिहैं, सकुचात हियो है॥
मूल
साँवरे-गोरे सलोने सुभायँ, मनोहरताँ जिति मैनु लियो है।
बान-कमान, निषंग कसें, सिर सोहैं जटा, मुनिबेषु कियो है॥
संग लिएँ बिधुबैनी बधू, रतिको जेहि रंचक रूपु दियो है।
पायन तौ पनहीं न, पयादेंहि क्यों चलिहैं, सकुचात हियो है॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये श्याम और गौरवर्ण बालक स्वभावसे ही सुन्दर हैं, इन्होंने मनोहरतामें कामदेवको भी जीत लिया है। ये धनुष-बाण लिये और तरकश कसे हुए हैं, इनके सिरपर जटाएँ सुशोभित हैं और इन्होंने मुनियोंका-सा वेष बना रखा है। साथमें चन्द्रवदनी स्त्रीको लिये हैं, जिसने रतिको अपना थोड़ा-सा रूप दे रखा है। [इन्हें देखकर] हृदय सकुचाता है कि इनके पैरोंमें जूते भी नहीं हैं, ये पैदल कैसे चलेंगे?॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रानी मैं जानी अयानी महा, पबि-पाहनहू तें कठोर हियो है।
राजहुँ काजु अकाजु न जान्यो, कह्यौ तियको जेहिं कान कियो है॥
ऐसी मनोहर मूरति ए , बिछुरें कैसे प्रीतम लोगु जियो है।
आँखिनमें सखि! राखिबे जोगु, इन्हैं किमि कै बनबासु दियो है॥
मूल
रानी मैं जानी अयानी महा, पबि-पाहनहू तें कठोर हियो है।
राजहुँ काजु अकाजु न जान्यो, कह्यौ तियको जेहिं कान कियो है॥
ऐसी मनोहर मूरति ए , बिछुरें कैसे प्रीतम लोगु जियो है।
आँखिनमें सखि! राखिबे जोगु, इन्हैं किमि कै बनबासु दियो है॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने जान लिया कि रानी महामूर्ख है, उसका हृदय वज्र और पत्थरसे भी कठोर है। राजाको भी कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान नहीं रहा, जिन्होंने स्त्रीके कहे हुएपर कान दिया। अरे! इनकी मूर्ति ऐसी मनोहारिणी है; भला इन लोगोंका वियोग होनेपर इनके प्रिय लोग कैसे जीते होंगे? हे सखि! ये तो आँखोंमें रखने योग्य हैं, इन्हें वनवास क्यों दिया गया है?॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीस जटा, उर-बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी-सी भौंहैं।
तून सरासन-बान धरें तुलसी बन-मारगमें सुठि सोहैं॥
सादर बारहिं बार सुभायँ चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहैं।
पूँछति ग्रामबधू सिय सों, कहौ, साँवरे-से सखि! रावरे को हैं॥
मूल
सीस जटा, उर-बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी-सी भौंहैं।
तून सरासन-बान धरें तुलसी बन-मारगमें सुठि सोहैं॥
सादर बारहिं बार सुभायँ चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहैं।
पूँछति ग्रामबधू सिय सों, कहौ, साँवरे-से सखि! रावरे को हैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं—श्रीसीताजीसे गाँवकी स्त्रियाँ पूछती हैं—‘जिनके सिरपर जटाएँ हैं, वक्षःस्थल और भुजाएँ विशाल हैं, नेत्र अरुणवर्ण हैं, भौंहें तिरछी हैं, जो धनुष-बाण और तरकश धारण किये वनके मार्गमें बड़े भले जान पड़ते हैं और स्वभावसे ही आदरपूर्वक बार-बार तुम्हारी ओर देखकर जो हमारा मन मोहे लेते हैं, बताओ तो हे सखि! वे साँवले-से कुँवर आपके कौन होते हैं?॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने सयानी हैं जानकीं जानी भली।
तिरछे करि नैन, दै सैन, तिन्हैं समुझाइ कछू, मुसुकाइ चली॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचनलाहु अलीं।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदैं बिगसीं मनो मंजुल कंजकलीं॥
मूल
सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने सयानी हैं जानकीं जानी भली।
तिरछे करि नैन, दै सैन, तिन्हैं समुझाइ कछू, मुसुकाइ चली॥
तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचनलाहु अलीं।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदैं बिगसीं मनो मंजुल कंजकलीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(गाँवकी स्त्रियोंके) अमृत-से सने हुए सुन्दर वचनोंको सुनकर जानकीजी जान गयीं कि ये सब बड़ी चतुरा हैं। अतः नेत्रोंको तिरछा कर उन्हें सैनसे ही कुछ समझाकर मुसकराकर चल दीं। गोसाईंजी कहते हैं कि उस समय लोचनके लाभरूप श्रीरामचन्द्रजीको देखती हुई वे सब सखियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं, मानो सूर्यके उदयसे प्रेमरूपी तालाबमें कमलोंकी मनोहर कलियाँ खिल गयी हैं। [अर्थात् श्रीरामचन्द्ररूपी सूर्यके उदयसे प्रेमरूपी सरोवरमें सखियोंके नेत्र कमलकलीके समान विकसित हो गये।]॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरि धीर कहैं, चलु, देखिअ जाइ, जहाँ सजनी! रजनी रहिहैं।
कहिहै जगु पोच, न सोचु कछू, फलु लोचन आपन तौ लहिहैं॥
सुखु पाइहैं कान सुनें बतियाँ कल, आपुसमें कछु पै कहिहैं।
तुलसी अति प्रेम लगीं पलकैं, पुलकीं लखि रामु हिए महि हैं॥
मूल
धरि धीर कहैं, चलु, देखिअ जाइ, जहाँ सजनी! रजनी रहिहैं।
कहिहै जगु पोच, न सोचु कछू, फलु लोचन आपन तौ लहिहैं॥
सुखु पाइहैं कान सुनें बतियाँ कल, आपुसमें कछु पै कहिहैं।
तुलसी अति प्रेम लगीं पलकैं, पुलकीं लखि रामु हिए महि हैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सखियाँ धीरज धारणकर (परस्पर) कहती हैं—‘हे सजनी! चलो, रातको जहाँ ये रहेंगे उस स्थानको जाकर देखें। यदि संसार हम लोगोंको खोटा भी कहेगा तो कुछ परवा नहीं! नेत्र तो अपना फल पा जायँगे और कान इनकी सुन्दर बातोंको सुनकर सुख पावेंगे। (हमसे नहीं तो) आपसमें तो अवश्य ही कुछ कहेंगे ही।’ गोसाईंजी कहते हैं—अत्यन्त प्रेमसे उनकी आँखें बंद हो गयीं और श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें देखकर वे पुलकित हो गयीं॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद कोमल, स्यामल-गौर कलेवर राजत कोटि मनोज लजाएँ।
कर बान-सरासन, सीस जटा, सरसीरुह-लोचन सोन सुहाएँ॥
जिन्ह देखे सखी! सतिभायहु तें तुलसी तिन्ह तौ मन फेरि न पाए।
एहिं मारग आजु किसोर बधू बिधुबैनी समेत सुभायँ सिधाए॥
मूल
पद कोमल, स्यामल-गौर कलेवर राजत कोटि मनोज लजाएँ।
कर बान-सरासन, सीस जटा, सरसीरुह-लोचन सोन सुहाएँ॥
जिन्ह देखे सखी! सतिभायहु तें तुलसी तिन्ह तौ मन फेरि न पाए।
एहिं मारग आजु किसोर बधू बिधुबैनी समेत सुभायँ सिधाए॥
अनुवाद (हिन्दी)
[वे दूसरी स्त्रियोंसे कहने लगीं—]अरी सखि! आज एक चन्द्रवदनी बालाके सहित दो कुमार स्वभावसे ही इस मार्गसे गये हैं। उनके चरण बड़े कोमल थे तथा श्याम और गौर शरीर करोड़ों कामदेवोंको लज्जित करते हुए सुशोभित हो रहे थे। उनके हाथमें धनुष-बाण थे। सिरपर जटाएँ थीं तथा कमलके समान अरुणवर्ण नेत्र बड़े ही शोभायमान थे। जिन्होंने उन्हें सद्भावसे भी देख लिया, वे फिर उनकी ओरसे अपने मनको नहीं लौटा सके॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखपंकज, कंजबिलोचन मंजु, मनोज-सरासन-सी बनीं भौंहैं।
कमनीय कलेवर कोमल स्यामल-गौर किसोर, जटा सिर सोहैं॥
तुलसी कटि तून, धरें धनु-बान, अचानक दिष्टि परी तिरछौहैं।
केहि भाँति कहौं सजनी! तोहि सों, मृदु मूरति द्वै निवसीं मन मोहैं॥
मूल
मुखपंकज, कंजबिलोचन मंजु, मनोज-सरासन-सी बनीं भौंहैं।
कमनीय कलेवर कोमल स्यामल-गौर किसोर, जटा सिर सोहैं॥
तुलसी कटि तून, धरें धनु-बान, अचानक दिष्टि परी तिरछौहैं।
केहि भाँति कहौं सजनी! तोहि सों, मृदु मूरति द्वै निवसीं मन मोहैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके मुख कमलके समान और नेत्र भी कमलके ही समान सुन्दर थे तथा भौंहें कामदेवके धनुषके समान बनी हुई थीं। उनके अति सुन्दर और सुकुमार श्याम-गौर शरीर थे, किशोर अवस्था थी एवं सिरपर जटाएँ सुशोभित थीं तथा वे कमरमें तरकश कसे और धनुष-बाण लिये थे। जिस समयसे अचानक ही उनकी तिरछी निगाह मुझपर पड़ी है, अरी सखि! तुझसे किस प्रकार कहूँ, वे दोनों मृदुल मूर्तियाँ मेरे मनमें बसकर मोहित कर रही हैं॥ २५॥
वनमें
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेमसों पीछें तिरीछें प्रियाहि चितै चितु दै चले लै चितु चोरैं।
स्याम सरीर पसेउ लसै, हुलसै ‘तुलसी’ छबि सो मन मोरैं॥
लोचन लोल, चलैं भृकुटीं कल काम-कमानहु सो तृनु तोरैं।
राजत रामु कुरंगके संग निषंगु कसें, धनुसों सरु जोरैं॥
मूल
प्रेमसों पीछें तिरीछें प्रियाहि चितै चितु दै चले लै चितु चोरैं।
स्याम सरीर पसेउ लसै, हुलसै ‘तुलसी’ छबि सो मन मोरैं॥
लोचन लोल, चलैं भृकुटीं कल काम-कमानहु सो तृनु तोरैं।
राजत रामु कुरंगके संग निषंगु कसें, धनुसों सरु जोरैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीराम) पीछेकी ओर प्रेमपूर्वक तिरछी दृष्टिसे दत्तचित्तसे प्रियाकी ओर निहारकर उनका चित्त चुराकर (आखेटको) चले। तुलसीदासजी कहते हैं—(प्रभुके) श्याम शरीरमें पसीना सुशोभित है, वह छवि मेरे हृदयमें हुलास भर देती है। प्रभुके नेत्र चञ्चल हैं और सुन्दर भौंहें चलायमान हो रही हैं, जिन्हें देखकर कामदेवकी जो कमान है, वह भी तृण तोड़ती अर्थात् लज्जित होती है। इस प्रकार तरकश बाँधे तथा धनुषपर बाण चढ़ाये भगवान् राम हरिणके साथ (दौड़ते हुए) बड़े ही सुशोभित हो रहे हैं॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर चारिक चारु बनाइ कसें कटि, पानि सरासनु सायकु लै।
बन खेलत रामु फिरैं मृगया, ‘तुलसी’ छबि सो बरनै किमि कै॥
अवलोकि अलौकिक रूपु मृगीं मृग चौंकि चकैं, चितवैं, चितु दै।
न डगैं, न भगैं जियँ जानि सिलीमुख पंच धरैं रति नायकु है॥
मूल
सर चारिक चारु बनाइ कसें कटि, पानि सरासनु सायकु लै।
बन खेलत रामु फिरैं मृगया, ‘तुलसी’ छबि सो बरनै किमि कै॥
अवलोकि अलौकिक रूपु मृगीं मृग चौंकि चकैं, चितवैं, चितु दै।
न डगैं, न भगैं जियँ जानि सिलीमुख पंच धरैं रति नायकु है॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी वनमें शिकार खेलते फिरते हैं। उन्होंने दो-चार सुन्दर बाण बड़ी सुघरतासे कमरमें खोंस रखे हैं तथा हाथमें धनुष-बाण लिये हुए हैं। गोस्वामीजी कहते हैं कि उस शोभाका मैं कैसे वर्णन करूँ? उनके अलौकिक रूपको देखकर मृग और मृगी चौंककर चकित हो जाते हैं और चित्त लगाकर देखने लगते हैं। वे यह जानकर कि पाँच बाण धारण किये साक्षात् कामदेव ही हैं, न तो हिलते हैं और न भागते ही हैं॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिंधिके बासी उदासी तपी ब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतमतीय तरी ‘तुलसी’ सो कथा सुनि भे मुनिबृंद सुखारे॥
ह्वैहैं सिला सब चंदमुखीं परसें पद मंजुल कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायकजू! करुना करि काननको पगु धारे॥
मूल
बिंधिके बासी उदासी तपी ब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतमतीय तरी ‘तुलसी’ सो कथा सुनि भे मुनिबृंद सुखारे॥
ह्वैहैं सिला सब चंदमुखीं परसें पद मंजुल कंज तिहारे।
कीन्हीं भली रघुनायकजू! करुना करि काननको पगु धारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
विन्ध्यपर्वतपर रहनेवाले महाव्रतधारी उदासी और तपस्वी लोग बिना स्त्रीके दुःखी थे। वे मुनिगण यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए कि इनके कारण गौतमकी स्त्री अहल्या तर गयी, [और बोले] अब सब पत्थर आपके सुन्दर चरणकमलोंके स्पर्शसे चन्द्रमुखी स्त्री हो जायँगे। हे रघुनन्दनजी! आपने अच्छा किया जो कृपाकर वनमें पधारे॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(इति अयोध्याकाण्ड)
मूलम् (समाप्तिः)
(इति अयोध्याकाण्ड)