विश्वास-प्रस्तुतिः
रेफ आत्मचिन्मय अकल, परब्रह्म पररूप।
हरि-हर-अज-वन्दित-चरन, अगुण अनीह अनूप॥ १॥
बालकेलि दशरथ-अजिर, करत सो फिरत सभाय।
पदनखेन्दु तेहि ध्यान धरि, विरचत तिलक बनाय॥ २॥
अनिलसुवन पदपद्मरज, प्रेमसहित शिर धार।
इन्द्रदेव टीका रचत, कवितावली उदार॥ ३॥
बन्दौं श्रीतुलसीचरन-नख, अनूप दुतिमाल।
कवितावलि-टीका लसै कवितावलि-वरभाल॥ ४॥
मूल
रेफ आत्मचिन्मय अकल, परब्रह्म पररूप।
हरि-हर-अज-वन्दित-चरन, अगुण अनीह अनूप॥ १॥
बालकेलि दशरथ-अजिर, करत सो फिरत सभाय।
पदनखेन्दु तेहि ध्यान धरि, विरचत तिलक बनाय॥ २॥
अनिलसुवन पदपद्मरज, प्रेमसहित शिर धार।
इन्द्रदेव टीका रचत, कवितावली उदार॥ ३॥
बन्दौं श्रीतुलसीचरन-नख, अनूप दुतिमाल।
कवितावलि-टीका लसै कवितावलि-वरभाल॥ ४॥
बालरूपकी झाँकी
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवधेसके द्वारें सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं सोच बिमोचनको ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से॥
तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से।
सजनी ससिमें समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे॥
मूल
अवधेसके द्वारें सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं सोच बिमोचनको ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से॥
तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से।
सजनी ससिमें समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे॥
अनुवाद (हिन्दी)
[एक सखी किसी दूसरी सखीसे कहती है— ] मैं सबेरे अयोध्यापति महाराज दशरथके द्वारपर गयी थी। उसी समय महाराज पुत्रको गोदमें लिये बाहर आये। मैं तो उस सकल शोकहारी बालकको देखकर ठगी-सी रह गयी; उसे देखकर जो मोहित न हों, उन्हें धिक्कार है। उस बालकके अञ्जन-रञ्जित मनोहर नेत्र खञ्जन पक्षीके बच्चेके समान थे। हे सखि! वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो चन्द्रमाके भीतर दो समान रूपवाले नवीन नीलकमल खिले हुए हों॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ।
नवनील कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकैं नृपु गोद लिएँ॥
अरबिंदु सो आननु रूप मरंदु अनंदित लोचन-भृंग पिएँ।
मनमो न बस्यौ अस बालकु जौं तुलसी जगमें फलु कौन जिएँ॥
मूल
पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ।
नवनील कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकैं नृपु गोद लिएँ॥
अरबिंदु सो आननु रूप मरंदु अनंदित लोचन-भृंग पिएँ।
मनमो न बस्यौ अस बालकु जौं तुलसी जगमें फलु कौन जिएँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बालकके चरणोंमें घुँघरू, कर-कमलोंमें पहुँची और गलेमें मनोहर मणियोंकी माला शोभायमान थी। उसके नवीन श्याम शरीरपर पीला झँगुला झलकता था। महाराज उसे गोदमें लेकर पुलकित हो रहे थे। उसका मुख कमलके समान था, जिसके रूप मकरन्दका पान कर (देखनेवालोंके) नेत्ररूप भौंरे आनन्दमग्न हो जाते थे। श्रीगोसाईंजी कहते हैं—यदि मनमें ऐसा बालक न बसा तो संसारमें जीवित रहनेसे क्या लाभ है?॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनकी दुति स्याम सरोरुह लोचन कंजकी मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दूरि धरैं॥
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यौं किलकैं कल बाल-बिनोद करैं।
अवधेसके बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिरमें बिहरैं॥
मूल
तनकी दुति स्याम सरोरुह लोचन कंजकी मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दूरि धरैं॥
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यौं किलकैं कल बाल-बिनोद करैं।
अवधेसके बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिरमें बिहरैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके शरीरकी आभा नील कमलके समान है तथा नेत्र कमलकी शोभाको हरते हैं। धूलिसे भरे होनेपर भी वे बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं और कामदेवकी महती छबिको भी दूर कर देते हैं। उनके नन्हे-नन्हे दाँत बिजलीकी चमकके समान चमकते हैं और वे किलक-किलककर मनोहर बाललीलाएँ करते हैं। अयोध्यापति महाराज दशरथके वे चारों बालक तुलसीदासके मनमन्दिरमें सदैव विहार करें॥ ३॥
बाललीला
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबहूँ ससि मागत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं।
कबहूँ करताल बजाइकै नाचत मातु सबै मन मोद भरैं॥
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।
अवधेसके बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिरमें बिहरैं॥
मूल
कबहूँ ससि मागत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं।
कबहूँ करताल बजाइकै नाचत मातु सबै मन मोद भरैं॥
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।
अवधेसके बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिरमें बिहरैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी चन्द्रमाको माँगनेका हठ करते हैं, कभी अपनी परछाहीं देखकर डरते हैं, कभी हाथसे ताली बजा-बजाकर नाचते हैं, जिससे सब माताओंके हृदय आनन्दसे भर जाते हैं। कभी रूठकर हठपूर्वक कुछ कहते (माँगते हैं) और जिस वस्तुके लिये अड़ते हैं, उसे लेकर ही मानते हैं। अयोध्यापति महाराज दशरथके वे चारों बालक तुलसीदासके मनमन्दिरमें सदैव विहार करें॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बर दंतकी पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खोलनकी।
चपला चमकैं घन बीच जगै छबि मोतिन माल अमोलनकी॥
घुँघुरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलनकी।
नेवछावरि प्रान करै तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलनकी॥
मूल
बर दंतकी पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खोलनकी।
चपला चमकैं घन बीच जगै छबि मोतिन माल अमोलनकी॥
घुँघुरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलनकी।
नेवछावरि प्रान करै तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलनकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्दकलीके समान उज्ज्वलवर्ण दन्तावली, अधरपुटोंका खोलना और अमूल्य मुक्तामालाओंकी छवि ऐसी जान पड़ती है मानो श्याम मेघके भीतर बिजली चमकती हो। मुखपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—लल्ला! मैं कुण्डलोंकी झलकसे सुशोभित तुम्हारे कपोलों और इन अमोल बोलोंपर अपने प्राण न्योछावर करता हूँ॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पदकंजनि मंजु बनीं पनहीं धनुहीं सर पंकज-पानि लिएँ।
लरिका सँग खेलत डोलत हैं सरजू-तट चौहट हाट हिएँ॥
तुलसी अस बालक-सों नहिं नेहु कहा जप जोग समाधि किएँ।
नर वे खर सूकर स्वान समान कहौ जगमें फलु कौन जिएँ॥
मूल
पदकंजनि मंजु बनीं पनहीं धनुहीं सर पंकज-पानि लिएँ।
लरिका सँग खेलत डोलत हैं सरजू-तट चौहट हाट हिएँ॥
तुलसी अस बालक-सों नहिं नेहु कहा जप जोग समाधि किएँ।
नर वे खर सूकर स्वान समान कहौ जगमें फलु कौन जिएँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके चरणकमलोंमें मनोहर जूतियाँ सुशोभित हैं, वे करकमलोंमें छोटा-सा धनुष-बाण लिये हुए हैं, बालकोंके साथ सरयूजीके किनारे, चौराहे और बाजारोंमें खेलते फिरते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—यदि ऐसे बालकोंसे प्रेम न हुआ तो बताइये जप, योग अथवा समाधि करनेसे क्या लाभ है? वे लोग तो गधों, शूकरों और कुत्तोंके समान हैं, बताइये, संसारमें उनके जीनेका क्या फल है?॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरजू बर तीरहिं तीर फिरैं रघुबीर सखा अरु बीर सबै।
धनुहीं कर तीर, निषंग कसें कटि पीत दुकूल नवीन फबै॥
तुलसी तेहि औसर लावनिता दस चारि नौ तीन इकीस सबै।
मति भारति पंगु भई जो निहारि बिचारि फिरी उपमा न पबै॥
मूल
सरजू बर तीरहिं तीर फिरैं रघुबीर सखा अरु बीर सबै।
धनुहीं कर तीर, निषंग कसें कटि पीत दुकूल नवीन फबै॥
तुलसी तेहि औसर लावनिता दस चारि नौ तीन इकीस सबै।
मति भारति पंगु भई जो निहारि बिचारि फिरी उपमा न पबै॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजी उनके सखा और सब भाई पवित्र सरयू नदीके किनारे-किनारे घूमते फिरते हैं। उनके हाथमें छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं, कमरमें तरकस कसा हुआ है और शरीरपर नूतन पीताम्बर सुशोभित है। तुलसीदासजी कहते हैं श्रीशारदाकी मति उस समयकी सुन्दरताकी उपमा चौदहों भुवन, नवों खण्ड, तीनों लोक और इक्कीसों ब्रह्माण्डोंमें जब विचारपूर्वक खोजनेपर भी नहीं पा सकी, तब कुण्ठित हो गयी*॥ ७॥
पादटिप्पनी
- उस समय शोभाकी उपमा पानेके लिये शारदा दसों यामल-तन्त्र, चारों उपवेद, नवों व्याकरण, वेदत्रायी और इक्कीसों ब्रह्माण्डोंमें सर्वत्र फिरी, परंतु उन सबको देख और विचारकर भी उसकी बुद्धि कुण्ठित हो गयी। अर्थात् उसे उस शोभाके योग्य कोई भी उपमा नहीं मिली।
काशी-नागरी-प्रचारिणी-सभाकी प्रतिमें यों अर्थ है—
दस गुण माधुर्यके (रूप, लावण्य, सौन्दर्य, माधुर्य, सौकुमार्य, यौवन, सुगन्ध, सुवेश, स्वच्छता, उज्ज्वलता)।
चार गुण प्रतापके (ऐश्वर्य, वीर्य, तेज, बल)।
ऐश्वर्यके नौ गुण (भाग्य, अदभ्रता, नियतात्मता, वशीकरण, वाग्मित्व, सर्वज्ञता, संहनन, स्थिरता, वदान्यता)।
सहज या प्रकृतिके तीन गुण (सौम्यता, रमण, व्यापकता)।
यशके इक्कीस गुण (सुशीलता, वात्सल्य, सुलभता, गम्भीरता, क्षमा, दया, करुणा, आर्द्रता, उदारता, आर्जव, शरण्यत्व, सौहार्द, चातुर्य, प्रीतिपालकत्व, कृतज्ञता, ज्ञान, नीति, लोकप्रियता, कुलीनता, अनुराग, निवर्हणता)।
धनुर्यज्ञ
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोनीमेंके छोनीपति छाजै जिन्है छत्रछाया।
छोनी-छोनी छाए छिति आए निमिराजके।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बर बेष बपु।
बरिबेकों बोले बैदेही बर काजके॥
बोले बंदी बिरुद बजाइ बर बाजनेऊ।
बाजे-बाजे बीर बाहु धुनत समाजके।
तुलसी मुदित मन पुर नर-नारि जेते।
बार-बार हेरैं मुख औध-मृगराजके॥
मूल
छोनीमेंके छोनीपति छाजै जिन्है छत्रछाया।
छोनी-छोनी छाए छिति आए निमिराजके।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बर बेष बपु।
बरिबेकों बोले बैदेही बर काजके॥
बोले बंदी बिरुद बजाइ बर बाजनेऊ।
बाजे-बाजे बीर बाहु धुनत समाजके।
तुलसी मुदित मन पुर नर-नारि जेते।
बार-बार हेरैं मुख औध-मृगराजके॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके ऊपर राजछत्रोंकी छाया शोभायमान है, ऐसे पृथ्वीभरके राजालोग झुंड-के-झुंड महाराज जनकके यहाँ आकर उनके स्थानमें छाये हुए हैं। वे बड़े बलवान्, प्रतापी और तेजस्वी हैं, उनके शरीर और वेष भी बड़े सुन्दर हैं और वे श्रीसीताजीको वरण करनेके शुभ कार्यसे बुलाये गये हैं। श्रेष्ठ वन्दीजन उनकी विरदावलीका बखान करते हैं, बाजेवाले बाजे बजाते हैं तथा उस राजसमाजके कोई-कोई वीर भी अपनी भुजाएँ ठोंकते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—इस समय जनकपुरके जितने नर-नारी हैं, वे सभी अवधकेसरी भगवान् रामका मुख बारम्बार देखते और मन-ही-मन प्रसन्न होते हैं॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सियकें स्वयंबर समाजु जहाँ राजनिको
राजनके राजा महाराजा जानै नाम को।
पवनु, पुरंदरु, कृसानु, भानु, धनदु-से,
गुनके निधान रूपधाम सोमु कामु को॥
बान बलवान जातुधानप सरीखे सूर
जिन्हकें गुमानु सदा सालिम संग्रामको।
तहाँ दसरत्थकें समत्थ नाथ तुलसी के
चपरि चढ़ायौ चापु चंद्रमाललामको॥
मूल
सियकें स्वयंबर समाजु जहाँ राजनिको
राजनके राजा महाराजा जानै नाम को।
पवनु, पुरंदरु, कृसानु, भानु, धनदु-से,
गुनके निधान रूपधाम सोमु कामु को॥
बान बलवान जातुधानप सरीखे सूर
जिन्हकें गुमानु सदा सालिम संग्रामको।
तहाँ दसरत्थकें समत्थ नाथ तुलसी के
चपरि चढ़ायौ चापु चंद्रमाललामको॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताजीके स्वयंवरमें, जहाँ राजाओंका समाज जुड़ा हुआ था, बहुत-से राजराजेश्वर और सम्राट् थे, उनके नाम कौन जानता है? वे वायु, इन्द्र, अग्नि, सूर्य और कुबेरके समान गुणके भण्डार और ऐसे रूपराशि थे कि उनके सामने चन्द्रमा तथा कामदेव भी क्या हैं? उनमें बाणासुर और राक्षसराज रावण-जैसे शूरवीर भी थे, जिन्हें संग्रामभूमिमें सदा ही सकुशल रहनेका अभिमान था [अर्थात् जो संग्राममें सदा ही दृढ़रूपसे क्षतिरहित विजय लाभ करते थे] उसी राजसमाजमें तुलसीदासके समर्थ प्रभु दशरथनन्दन रामने चपलतासे चन्द्रमौलि भगवान् शंकरका धनुष चढ़ा दिया॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयनमहनु पुरदहनु गहनु जानि
आनिकै सबैको सारु धनुष गढ़ायो है।
जनकसदसि जेते भले-भले भूमिपाल
किये बलहीन, बलु आपनो बढ़ायो है॥
कुलिस-कठोर कूर्मपीठतें कठिन अति
हठि न पिनाकु काहूँ चपरि चढ़ायो है।
तुलसी सो रामके सरोज-पानि परसत ही
टूटॺौ मानो बारे ते पुरारि ही पढ़ायो है॥
मूल
मयनमहनु पुरदहनु गहनु जानि
आनिकै सबैको सारु धनुष गढ़ायो है।
जनकसदसि जेते भले-भले भूमिपाल
किये बलहीन, बलु आपनो बढ़ायो है॥
कुलिस-कठोर कूर्मपीठतें कठिन अति
हठि न पिनाकु काहूँ चपरि चढ़ायो है।
तुलसी सो रामके सरोज-पानि परसत ही
टूटॺौ मानो बारे ते पुरारि ही पढ़ायो है॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजीने कामका दलन और त्रिपुरका नाश बहुत कठिन समझकर सब कठोर पदार्थोंको मँगाकर उनका साररूप यह धनुष बनवाया था। उसने जनकजीकी सभामें जितने बड़े-बड़े राजा आये थे, उन सभीको बलहीन कर अपना ही बल बढ़ा रखा। वज्रसे भी कठोर और कछुएकी पीठसे भी कड़े उस धनुषको कोई भी राजा बलपूर्वक फुर्तीसे नहीं चढ़ा सका। तुलसीदासजी कहते हैं—किंतु वही धनुष भगवान् रामके करकमलका स्पर्श होते ही टूट गया, मानो महादेवजीका उसे बालेपन (आरम्भ) से यही पाठ पढ़ाया हुआ था॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
डिगति उर्वि, अति गुर्वि, सर्व पब्बै समुद्र-सर।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर॥
दिग्गयंद लरखरत परत दसकंधु मुख्ख भर।
सुर-बिमान हिमभानु भानु संघटत परसपर॥
चौंके बिरंचि संकर सहित, कोलु कमठु अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मंड खंड कियो चंड धुनि जबहिं राम सिवधनु दल्यौ॥
मूल
डिगति उर्वि, अति गुर्वि, सर्व पब्बै समुद्र-सर।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर॥
दिग्गयंद लरखरत परत दसकंधु मुख्ख भर।
सुर-बिमान हिमभानु भानु संघटत परसपर॥
चौंके बिरंचि संकर सहित, कोलु कमठु अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मंड खंड कियो चंड धुनि जबहिं राम सिवधनु दल्यौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय श्रीरामचन्द्रजीने शिवजीका धनुष तोड़ा, उस समय उसका प्रचण्ड शब्द ब्रह्माण्डको पार कर गया और उसके आघातसे सारे पर्वत, समुद्र और तालाबोंके सहित अत्यन्त भारी पृथ्वी डगमगाने लगी, सर्प बहिरे हो गये, सम्पूर्ण चराचर एवं इन्द्रादि दिक्पालगण व्याकुल हो उठे, दिग्गज लड़खड़ाने लगे, रावण मुँहके बल गिरने लगा, देवताओंके विमान, चन्द्रमा और सूर्य आकाशमें परस्पर टकराने लगे, महादेवजी सहित ब्रह्माजी चौंक पड़े और वाराह, कच्छप तथा शेषजी भी कलमला उठे॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोचनाभिराम घनस्याम रामरूप सिसु,
सखी कहै सखीसों तूँ प्रेमपय पालि, री!
बालक नृपालजूकें ख्याल ही पिनाकु तोरॺो,
मंडलीक-मंडली-प्रताप-दापु दालि री॥
जनकको, सियाको, हमारो, तेरो, तुलसीको,
सबको भावतो ह्वैहै, मैं जो कह्यो कालि, री।
कौसिलाकी कोखिपर तोषि तन वारिये, री
राय दसरत्थकी बलैया लीजै आलि री॥
मूल
लोचनाभिराम घनस्याम रामरूप सिसु,
सखी कहै सखीसों तूँ प्रेमपय पालि, री!
बालक नृपालजूकें ख्याल ही पिनाकु तोरॺो,
मंडलीक-मंडली-प्रताप-दापु दालि री॥
जनकको, सियाको, हमारो, तेरो, तुलसीको,
सबको भावतो ह्वैहै, मैं जो कह्यो कालि, री।
कौसिलाकी कोखिपर तोषि तन वारिये, री
राय दसरत्थकी बलैया लीजै आलि री॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई सखी दूसरी सखीसे कहने लगी—अरी सखि! रामचन्द्रजीके इस नयनसुखदायक मेघश्यामरूप शिशुका तू प्रेमरूपी दूधसे पालन कर। यहाँ एकत्रित हुए मण्डलेश्वरोंको जो अपने प्रतापका अभिमान था, उसे चूर्ण कर इस राजकुमारने संकल्पमात्रसे ही धनुष तोड़ डाला। मैंने जो तुझसे कल कहा था, अब महाराज जनकका, सीताका, हमारा, तेरा और तुलसीका—सभीका मनमाना होगा। अरी आली! अब संतुष्ट होकर रानी कौसल्याकी कोखपर अपना शरीर न्योछावर कर दो और महाराज दशरथकी भी बलैयाँ लो॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूब दधि रोचनु कनक थार भरि भरि
आरति सँवारि बर नारि चलीं गावतीं।
लीन्हें जयमाल करकंज सोहैं जानकीके
पहिराओ राघोजूको सखियाँ सिखावतीं॥
तुलसी मुदित मन जनकनगर-जन
झाँकतीं झरोखें लागीं सोभा रानीं पावतीं।
मनहुँ चकोरीं चारु बैठीं निज निज नीड
चंदकी किरिन पीवैं पलकौं न लावतीं॥
मूल
दूब दधि रोचनु कनक थार भरि भरि
आरति सँवारि बर नारि चलीं गावतीं।
लीन्हें जयमाल करकंज सोहैं जानकीके
पहिराओ राघोजूको सखियाँ सिखावतीं॥
तुलसी मुदित मन जनकनगर-जन
झाँकतीं झरोखें लागीं सोभा रानीं पावतीं।
मनहुँ चकोरीं चारु बैठीं निज निज नीड
चंदकी किरिन पीवैं पलकौं न लावतीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौभाग्यवती स्त्रियाँ सुवर्णके थालोंमें दूब, दही और रोली भर-भरकर आरती सजा गाती हुई चलीं। श्रीजानकीजीके करकमल जयमाला लिये सुशोभित हो रहे हैं। उन्हें सखियाँ सिखाती हैं कि श्रीरामचन्द्रजीको जयमाला पहना दो। तुलसीदासजी कहते हैं—जनकपुरके सभी लोग मनमें प्रसन्न हैं। झरोखोंमें आकर झाँकती हुई रानियाँ भी बड़ी ही शोभा पा रही हैं, मानो अपने-अपने घोसलोंमें बैठी हुई मनोहर चकोरियाँ चन्द्रमाकी किरणोंका अनिमेष नेत्रोंसे पान कर रही हैं॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नगर निसान बर बाजैं ब्योम दुंदुभीं
बिमान चढ़ि गान कैके सुरनारि नाचहीं।
जयति जय तिहुँ पुर जयमाल राम उर
बरषैं सुमन सुर रूरे रूप राचहीं॥
जनकको पनु जयो, सबको भावतो भयो
तुलसी मुदित रोम-रोम मोद माचहीं।
साँवरो किसोर गोरी सोभापर तृन तोरी
जोरी जियो जुग-जुग जुवती-जन जाचहीं॥
मूल
नगर निसान बर बाजैं ब्योम दुंदुभीं
बिमान चढ़ि गान कैके सुरनारि नाचहीं।
जयति जय तिहुँ पुर जयमाल राम उर
बरषैं सुमन सुर रूरे रूप राचहीं॥
जनकको पनु जयो, सबको भावतो भयो
तुलसी मुदित रोम-रोम मोद माचहीं।
साँवरो किसोर गोरी सोभापर तृन तोरी
जोरी जियो जुग-जुग जुवती-जन जाचहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
नगरमें मनोहर नगाड़े और आकाशमें दुन्दुभियाँ बज रही हैं। देवाङ्गनाएँ विमानोंपर चढ़ गा-गाकर नृत्य कर रही हैं। तीनों लोकोंमें जय-जयकार छाया हुआ है। भगवान् रामके गलेमें जयमाला सुशोभित है। देवतालोग भगवान् के सुन्दर रूपपर मुग्ध होकर पुष्पोंकी वर्षा कर रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं— महाराज जनककी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई, सब लोगोंकी अभिलाषा पूरी हो गयी; अतः आनन्दके कारण उनके रोम-रोममें हर्ष भर गया है। युवतियाँ उस श्याम-सुन्दर कुमार और गौरवर्णा कुमारीकी शोभापर तृण तोड़कर मनाती हैं कि यह जोड़ी युग-युग जीवित रहे॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भले भूप कहत भलें भदेस भूपनि सों
लोक लखि बोलिये पुनीत रीति मारिषी।
जगदंबा जानकी जगतपितु रामचंद्र,
जानि जियँ जोहौ जो न लागै मुँह कारिखी॥
देखे हैं अनेक ब्याह, सुने हैं पुरान बेद,
बूझे हैं सुजान साधु नर-नारि पारिखी।
ऐसे सम समधी समाज न बिराजमान,
रामु-से न बर दुलही न सिय-सारिखी॥
मूल
भले भूप कहत भलें भदेस भूपनि सों
लोक लखि बोलिये पुनीत रीति मारिषी।
जगदंबा जानकी जगतपितु रामचंद्र,
जानि जियँ जोहौ जो न लागै मुँह कारिखी॥
देखे हैं अनेक ब्याह, सुने हैं पुरान बेद,
बूझे हैं सुजान साधु नर-नारि पारिखी।
ऐसे सम समधी समाज न बिराजमान,
रामु-से न बर दुलही न सिय-सारिखी॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छे राजालोग नीच राजाओंको भली प्रकार समझाकर कहते हैं कि समाजको देखकर आर्योचित पवित्र ढंगसे बात कीजिये। श्रीजानकीजीको जगत् की माता और कल्याणस्वरूप श्रीरामचन्द्रजीको जगत् के पिता जानकर मनमें ऐसे विचारकर देखो जिससे मुँहमें कालिमा न लगे। अनेकों विवाह देखे हैं, वेद-पुराण भी सुने और श्रेष्ठ साधु-पुरुषोंसे तथा जो अन्य स्त्री-पुरुष परीक्षा कर सकते हैं, उनसे भी पूछा है; परंतु ऐसे समान समधी और समाजकी जोड़ी कहीं नहीं है और न श्रीरामचन्द्रजीके समान दुलहा तथा श्रीजानकीजी-जैसी दुलहिन ही हैं॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बानी बिधि गौरी हर सेसहूँ गनेस कही,
सही भरी लोमस भुसुंडि बहुबारिषो।
चारिदस भुवन निहारि नर-नारि सब
नारदसों परदा न नारदु सो पारिखो॥
तिन्ह कही जगमें जगमगति जोरी एक
दूजो को कहैया औ सुनैया चष चारिखो।
रमा रमारमन सुजान हनुमान कही
सीय-सी न तीय न पुरुष राम-सारिखो॥
मूल
बानी बिधि गौरी हर सेसहूँ गनेस कही,
सही भरी लोमस भुसुंडि बहुबारिषो।
चारिदस भुवन निहारि नर-नारि सब
नारदसों परदा न नारदु सो पारिखो॥
तिन्ह कही जगमें जगमगति जोरी एक
दूजो को कहैया औ सुनैया चष चारिखो।
रमा रमारमन सुजान हनुमान कही
सीय-सी न तीय न पुरुष राम-सारिखो॥
अनुवाद (हिन्दी)
सरस्वती, ब्रह्मा, पार्वती, शिव, शेष और गणेशने कहा है और चिरंजीवी लोमश तथा काकभुशुण्डिजीने साक्षी दी है; जिन नारदजीसे कहीं पर्दा नहीं है और जिनके समान दूसरा कोई स्त्री-पुरुषोंके लक्षणोंका जानकार नहीं है, उन्होंने भी चौदहों भुवनोंके समस्त स्त्री-पुरुषोंको देखकर यही कहा है कि संसारमें एक श्रीराम जानकीजीकी (ही) जोड़ी जगमगा रही है। उनसे बढ़कर और कौन चार आँखोंवाला बतलाने और सुननेवाला है। स्वयं लक्ष्मी और श्रीमन्नारायण तथा तत्त्वज्ञ हनुमान् जी ने कहा है कि जानकीजीके समान स्त्री और श्रीरामजीके समान पुरुष नहीं है॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूलह श्रीरघुनाथु बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुंदरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
रामको रूपु निहारति जानकी कंकनके नगकी परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारत नाहीं॥
मूल
दूलह श्रीरघुनाथु बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुंदरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
रामको रूपु निहारति जानकी कंकनके नगकी परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारत नाहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर राजमहलमें श्रीरामचन्द्रजी दुलहा और श्रीजानकीजी दुलहिन बनी हुई हैं। समस्त सुन्दरी स्त्रियाँ मिलकर गीत गा रही हैं और युवक ब्राह्मणलोग जुटकर वेदपाठ कर रहे हैं। उस अवसरमें श्रीजानकीजी हाथके कंकणके नगमें पड़ी हुई श्रीरामचन्द्रजीकी परछाहीं निहार रही हैं, इससे वे सारी सुधि भूल गयी हैं अर्थात् रूपकी शोभामें मन लीन हो गया है। उनके हाथ जहाँ-के-तहाँ रुक गये हैं और वे पलकें भी नहीं हिलाती हैं॥ १७॥
परशुराम-लक्ष्मण-संवाद
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूपमंडली प्रचंड चंडीस-कोदंडु खंडॺौ,
चंड बाहुदंडु जाको ताहीसों कहतु हौं।
कठिन कुठार-धार धरिबेको धीर ताहि,
बीरता बिदित ताको देखिए चहतु हौं॥
तुलसी समाजु राज तजि सो बिराजै आजु,
गाज्यौ मृगराजु गजराजु ज्यों गहतु हौं।
छोनीमें न छाडॺौ छप्यौ छोनिपको छोना छोटो,
छोनिप-छपन बाँको बिरुद बहतु हौं॥
मूल
भूपमंडली प्रचंड चंडीस-कोदंडु खंडॺौ,
चंड बाहुदंडु जाको ताहीसों कहतु हौं।
कठिन कुठार-धार धरिबेको धीर ताहि,
बीरता बिदित ताको देखिए चहतु हौं॥
तुलसी समाजु राज तजि सो बिराजै आजु,
गाज्यौ मृगराजु गजराजु ज्यों गहतु हौं।
छोनीमें न छाडॺौ छप्यौ छोनिपको छोना छोटो,
छोनिप-छपन बाँको बिरुद बहतु हौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
[परशुरामजीने गरजकर कहा—] राजाओंकी मण्डलीमें जिसने शिवजीका प्रचण्ड धनुष तोड़ा है और जिसके भुजदण्ड बड़े प्रचण्ड हैं, मैं उसीसे कहता हूँ—मैं अपने कठिन कुठारकी धारको धारण करनेकी उसकी धीरता और प्रसिद्ध वीरता देखना चाहता हूँ। वह राज-समाजको छोड़कर आज अलग विराजमान हो जाय अर्थात् राज-समाजसे बाहर निकल आवे। जैसे हाथीको सिंह पकड़ता है, वैसे ही मैं उसे पकड़ूँगा। मैंने पृथ्वीपर राजाओंके छिपे हुए छोटे बालकको भी नहीं छोड़ा; मैं राजाओंको मारनेकी उत्कृष्ट कीर्ति धारण किये हुए हूँ॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निपट निदरि बोले बचन कुठारपानि,
मानी त्रास औनिपनि मानो मौनता गही।
रोष माखे लखनु अकनि अनखोही बातैं,
तुलसी बिनीत बानी बिहसि ऐसी कही॥
सुजस तिहारें भरे भुअन भृगुतिलक,
प्रगट प्रतापु आपु कह्यो सो सबै सही।
टूटॺौ सो न जुरैगो सरासनु महेसजूको,
रावरी पिनाकमें सरीकता कहाँ रही॥
मूल
निपट निदरि बोले बचन कुठारपानि,
मानी त्रास औनिपनि मानो मौनता गही।
रोष माखे लखनु अकनि अनखोही बातैं,
तुलसी बिनीत बानी बिहसि ऐसी कही॥
सुजस तिहारें भरे भुअन भृगुतिलक,
प्रगट प्रतापु आपु कह्यो सो सबै सही।
टूटॺौ सो न जुरैगो सरासनु महेसजूको,
रावरी पिनाकमें सरीकता कहाँ रही॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब परशुरामजीने अत्यन्त निरादरपूर्ण वचन कहे तब सब राजालोग भयभीत हो ऐसे चुप हो गये, मानो मौन ग्रहण कर लिया हो। किंतु ऐसे अनखावने वचन सुनकर लक्ष्मणजी रोषमें भर गये और हँसकर इस प्रकार नम्र वचन बोले—‘हे भृगुकुलतिलक! तुम्हारे सुयशसे [चौदहों] भुवन भरे हुए हैं। आपने जो अपना प्रसिद्ध प्रताप बखान किया है, सो सब सही है। परंतु शिवजीका जो धनुष टूट गया, वह तो अब जुड़ नहीं सकेगा। इस धनुषमें तो आपका कोई हिस्सा भी नहीं था [जो आप इतना क्रोध करते हैं]’॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्भके अर्भक काटनकों पटु धार कुठारु कराल है जाको।
सोई हौं बूझत राजसभा ‘धनु को दल्यौ’ हौं दलिहौं बलु ताको॥
लघु आनन उत्तर देत बड़े लरिहै मरिहै करिहै कछु साको।
गोरो गरूर गुमान भरॺौ कहौ कौसिक छोटो-सो ढोटो है काको॥
मूल
गर्भके अर्भक काटनकों पटु धार कुठारु कराल है जाको।
सोई हौं बूझत राजसभा ‘धनु को दल्यौ’ हौं दलिहौं बलु ताको॥
लघु आनन उत्तर देत बड़े लरिहै मरिहै करिहै कछु साको।
गोरो गरूर गुमान भरॺौ कहौ कौसिक छोटो-सो ढोटो है काको॥
अनुवाद (हिन्दी)
[तब परशुरामजी बोले—] जिसके भयंकर कुठारकी धार गर्भके बालकोंको भी काटनेमें कुशल है, वही मैं इस राजसभामें पूछता हूँ कि किसने इस धनुषको तोड़ा है? उसके बलको मैं नष्ट करूँगा। छोटे मुँहसे बड़े-बड़े उत्तर देता है। क्या लड़-मरकर कुछ नाम करेगा? हे कौशिक! यह गोरा और घमण्ड-गुमानसे भरा हुआ छोटा-सा लड़का किसका है?॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मखु राखिबेके काज राजा मेरे संग दए ,
दले जातुधान जे जितैया बिबुधेसके।
गौतमकी तीय तारी, मेटे अघ भूरि भार,
लोचन-अतिथि भए जनक जनेसके॥
चंड बाहुदंड-बल चंडीस-कोदंडु खंडॺौ,
ब्याही जानकी, जीते नरेस देस-देसके।
साँवरे-गोरे सरीर धीर महाबीर दोऊ,
नाम रामु लखनु कुमार कोसलेसके॥
मूल
मखु राखिबेके काज राजा मेरे संग दए ,
दले जातुधान जे जितैया बिबुधेसके।
गौतमकी तीय तारी, मेटे अघ भूरि भार,
लोचन-अतिथि भए जनक जनेसके॥
चंड बाहुदंड-बल चंडीस-कोदंडु खंडॺौ,
ब्याही जानकी, जीते नरेस देस-देसके।
साँवरे-गोरे सरीर धीर महाबीर दोऊ,
नाम रामु लखनु कुमार कोसलेसके॥
अनुवाद (हिन्दी)
[तब विश्वामित्रजीने कहा—] मेरे यज्ञकी रक्षाके लिये महाराज दशरथने इन्हें मेरे सङ्ग कर दिया था और इन्होंने ऐसे-ऐसे राक्षसोंका नाश किया है, जो इन्द्रको भी जीतनेवाले थे। गौतमकी स्त्री अहल्याके बड़े भारी पापको नष्ट कर उसे तार दिया है। अब नरनाथ जनकके नेत्रोंके अतिथि हुए हैं। इन्होंने अपने प्रचण्ड भुजदण्डके बलसे शिवजीके धनुषको तोड़ डाला है और देश-देशके राजाओंको जीतकर जानकीजीको विवाह लिया है। इन साँवले और गोरे शरीरवाले बड़े वीर और धीर दोनों बालकोंका नाम राम और लक्ष्मण है। ये कोसलदेशपति महाराज दशरथके राजकुमार हैं॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काल कराल नृपालन्हके धनुभंगु सुनै फरसा लिएँ धाए।
लक्खनु रामु बिलोकि सप्रेम महारिसतें फिरि आँखि दिखाए॥
धीरसिरोमनि बीर बड़े बिनयी बिजयी रघुनाथु सुहाए।
लायक हे भृगुनायकु, से धनु-सायक सौंपि सुभायँ सिधाए॥
मूल
काल कराल नृपालन्हके धनुभंगु सुनै फरसा लिएँ धाए।
लक्खनु रामु बिलोकि सप्रेम महारिसतें फिरि आँखि दिखाए॥
धीरसिरोमनि बीर बड़े बिनयी बिजयी रघुनाथु सुहाए।
लायक हे भृगुनायकु, से धनु-सायक सौंपि सुभायँ सिधाए॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुष-भङ्ग सुनकर राजाओंके कराल कालरूप श्रीपरशुरामजी अपना कुठार लेकर दौड़े। मोहिनी मूर्ति श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीको पहले प्रेमपूर्वक देखा, फिर महाक्रोधमें आ आँखें दिखाने लगे। श्रीरामचन्द्रजी स्वभावसे ही धीरशिरोमणि, महावीर, परमविनयी और विजयशील हैं। यद्यपि भृगुनायक परशुरामजी बड़े सुयोग्य वीर थे, तो भी उन्हें अपने धनुष-बाण सौंपकर चले गये॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(इति बालकाण्ड)
मूलम् (समाप्तिः)
(इति बालकाण्ड)