१० अयोध्यामें आनन्द

विश्वास-प्रस्तुति एहि बिधि ब्याहि सकल सुत जग जसु छायउ। मग लोगन्हि सुख देत अवधपति आयउ॥ १८०॥
मूल

एहि बिधि ब्याहि सकल सुत जग जसु छायउ।
मग लोगन्हि सुख देत अवधपति आयउ॥ १८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सब पुत्रोंका ब्याह करके उन्होंने समस्त संसारमें अपने सुयशका विस्तार किया और [फिर] रास्तेमें लोगोंको सुख देते हुए अवधपति दशरथजी [अपनी राजधानीको] लौट आये॥ १८०॥

विश्वास-प्रस्तुति होहिं सुमंगल सगुन सुमन सुर बरषहिं। नगर कोलाहल भयउ नारि नर हरषहिं॥ १८१॥ घाट बाट पुर द्वार बजार बनावहिं। बीथीं सींचि सुगंध सुमंगल गावहिं॥ १८२॥
मूल

होहिं सुमंगल सगुन सुमन सुर बरषहिं।
नगर कोलाहल भयउ नारि नर हरषहिं॥ १८१॥
घाट बाट पुर द्वार बजार बनावहिं।
बीथीं सींचि सुगंध सुमंगल गावहिं॥ १८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर मंगलमय शकुन हो रहे हैं, देवता फूल बरसाते हैं। नगरमें कोलाहल हो गया, समस्त स्त्री-पुरुष आनन्दित हो रहे हैं॥ १८१॥ वे घाट, बाट, पुर, द्वार और बाजारोंको सुसज्जित करते हैं और गलियोंको सुगन्धसे सींचकर सुमंगल गाते हैं॥ १८२॥

विश्वास-प्रस्तुति चौकैं पूरैं चारु कलस ध्वज साजहिं। बिबिध प्रकार गहागह बाजन बाजहिं॥ १८३॥ बंदनवार बितान पताका घर घर। रोपे सफल सपल्लव मंगल तरुबर॥ १८४॥
मूल

चौकैं पूरैं चारु कलस ध्वज साजहिं।
बिबिध प्रकार गहागह बाजन बाजहिं॥ १८३॥
बंदनवार बितान पताका घर घर।
रोपे सफल सपल्लव मंगल तरुबर॥ १८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर चौक पूरकर कलश और ध्वजाएँ सजाते हैं। अनेक प्रकारके आनन्दमय बाजे बज रहे हैं॥ १८३॥ घर-घरमें वन्दनवार, पताका और चँदोवे विराजमान हैं तथा फल और पल्लवोंके सहित मंगलमय वृक्ष लगाये गये हैं॥ १८४॥

विश्वास-प्रस्तुति मंगल बिटप मंजुल बिपुल दधि दूब अच्छत रोचना। भरि थार आरति सजहिं सब सारंग सावक लोचना॥ मन मुदित कौसल्या सुमित्रा सकल भूपति-भामिनी। सजि साजु परिछन चलीं रामहि मत्त कुंजर गामिनी॥ २३॥
मूल

मंगल बिटप मंजुल बिपुल दधि दूब अच्छत रोचना।
भरि थार आरति सजहिं सब सारंग सावक लोचना॥
मन मुदित कौसल्या सुमित्रा सकल भूपति-भामिनी।
सजि साजु परिछन चलीं रामहि मत्त कुंजर गामिनी॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से सुन्दर मंगलमय वृक्ष लगाये गये हैं, मृगशावकके-से नेत्रोंवाली समस्त स्त्रियाँ थालोंमें दही, दूब, अक्षत और गोरोचन भरकर आरती सजाती हैं तथा कौसल्या, सुमित्रा आदि सम्पूर्ण राजमहिषियाँ मनमें अत्यन्त आनन्दित हैं। मतवाले हाथियोंकी-सी चालसे चलनेवाली वे महारानियाँ सब सामग्री सजाकर श्रीरामचन्द्रजीका परिछन करने चलीं॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुति बधुन सहित सुत चारिउ मातु निहारहिं। बारहिं बार आरती मुदित उतारहिं॥ १८५॥ करहिं निछावरि छिनु छिनु मंगल मुद भरीं। दूलह दुलहिनिन्ह देखि प्रेम पयनिधि परीं॥ १८६॥
मूल

बधुन सहित सुत चारिउ मातु निहारहिं।
बारहिं बार आरती मुदित उतारहिं॥ १८५॥
करहिं निछावरि छिनु छिनु मंगल मुद भरीं।
दूलह दुलहिनिन्ह देखि प्रेम पयनिधि परीं॥ १८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताएँ वधुओंके सहित चारों पुत्रोंको निहारती हैं और प्रसन्न होकर बारंबार उनकी आरती उतारती हैं॥ १८५॥ वे क्षण-क्षणमें मंगल और आनन्दसे भरकर उनकी निछावर करती हैं और दूल्हा-दुलहिनोंको देखकर प्रेमके समुद्रमें डूब गयी हैं॥ १८६॥

विश्वास-प्रस्तुति देत पावड़े अरघ चलीं लै सादर। उमगि चलेउ आनंद भुवन भुइँ बादर॥ १८७॥ नारि उहारु उघारि दुलहिनिन्ह देखहिं। नैन लाहु लहि जनम सफल करि लेखहिं॥ १८८॥
मूल

देत पावड़े अरघ चलीं लै सादर।
उमगि चलेउ आनंद भुवन भुइँ बादर॥ १८७॥
नारि उहारु उघारि दुलहिनिन्ह देखहिं।
नैन लाहु लहि जनम सफल करि लेखहिं॥ १८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पावड़ें बिछाती और अर्घ्य देती हुई उन्हें आदरपूर्वक लिवा चलीं। उस समय समस्त लोकोंमें तथा पृथ्वी एवं आकाशमें आनन्द उमड़ चला। स्त्रियाँ ओहार अर्थात् पर्दा उठाकर दुलहिनियोंको देखती हैं और नेत्रोंका लाभ पाकर जन्मको सफल समझती हैं॥ १८७-१८८॥

विश्वास-प्रस्तुति भवन आनि सनमानि सकल मंगल किए। बसन कनक मनि धेनु दान बिप्रन्ह दिए॥ १८९॥ जाचक कीन्ह निहाल असीसहिं जहँ तहँ। पूजे देव पितर सब राम उदय कहँ॥ १९०॥
मूल

भवन आनि सनमानि सकल मंगल किए।
बसन कनक मनि धेनु दान बिप्रन्ह दिए॥ १८९॥
जाचक कीन्ह निहाल असीसहिं जहँ तहँ।
पूजे देव पितर सब राम उदय कहँ॥ १९०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें सम्मानपूर्वक राजमहलमें लाकर सब प्रकारके मंगलकृत्य किये और ब्राह्मणोंको वस्त्र, सोना, मणि और गौएँ दान कीं॥ १८९॥ याचकोंको (मनमाना दान देकर) निहाल कर दिया। वे जहाँ-तहाँ आशीर्वाद देते हैं और श्रीरामचन्द्रजीकी उन्नतिके लिये देवता और पितृगण सभीका पूजन किया गया॥ १९०॥

विश्वास-प्रस्तुति नेगचार करि दीन्ह सबहि पहिरावनि। समधी सकल सुआसिनि गुरतिय पावनि॥ १९१॥ जोरीं चारि निहारि असीसत निकसहिं। मनहुँ कुमुद बिधु-उदय मुदित मन बिकसहिं॥ १९२॥
मूल

नेगचार करि दीन्ह सबहि पहिरावनि।
समधी सकल सुआसिनि गुरतिय पावनि॥ १९१॥
जोरीं चारि निहारि असीसत निकसहिं।
मनहुँ कुमुद बिधु-उदय मुदित मन बिकसहिं॥ १९२॥

अनुवाद (हिन्दी)

रीतिके अनुसार नेग-चार करके अपने सम्बन्धियोंको, सब सुवासिनियोंको, अपनेसे बड़ी स्त्रियोंको और पौनियों (अपने आश्रित निम्न जातिकी स्त्रियों)-को पहिरावनी दी॥ १९१॥ वे सब [वर-दुलहिनोंकी] चारों जोड़ियोंको आशीर्वाद देती हुई निकलती हैं और मनमें ऐसी प्रसन्न होती हैं जैसे चन्द्रमाके उदय होनेपर कुमुदिनियाँ आनन्दसे खिल उठती हैं॥ १९२॥

विश्वास-प्रस्तुति बिकसहिं कुमुद जिमि देखि बिधु भइ अवध सुख सोभामई। एहि जुगुति राम बिबाह गावहिं सकल कबि कीरति नई॥ उपबीत ब्याह उछाह जे सिय राम मंगल गावहीं। तुलसी सकल कल्यान ते नर नारि अनुदिन पावहीं॥ २४॥
मूल

बिकसहिं कुमुद जिमि देखि बिधु भइ अवध सुख सोभामई।
एहि जुगुति राम बिबाह गावहिं सकल कबि कीरति नई॥
उपबीत ब्याह उछाह जे सिय राम मंगल गावहीं।
तुलसी सकल कल्यान ते नर नारि अनुदिन पावहीं॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे चन्द्रमाको देखकर कुमुदिनियाँ खिल उठती हैं वैसे ही सब स्त्रियाँ आनन्दित हैं। उस समय अयोध्या सुखी और शोभामयी हो रही हैं। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीके विवाहकी सुन्दर नवीन कीर्तिको कवि लोग गाते हैं। जो लोग भगवान् के यज्ञोपवीत और श्रीसीतारामके विवाहोत्सवसम्बन्धी मंगलका गान करते हैं, गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि वे स्त्री-पुरुष दिनोदिन सब प्रकारका कल्याण प्राप्त करते हैं॥ २४॥

भागसूचना

श्रीजानकीजीकी स्तुति

विश्वास-प्रस्तुति भई प्रगट कुमारी भूमि-विदारी जन हितकारी भयहारी। अतुलित छबि भारी मुनि-मनहारी जनकदुलारी सुकुमारी॥ सुन्दर सिंहासन तेहिं पर आसन कोटि हुताशन द्युतिकारी। सिर छत्र बिराजै सखि संग भ्राजै निज-निज कारज करधारी॥ सुर सिद्ध सुजाना हनै निशाना चढ़े बिमाना समुदाई। बरषहिं बहुफूला मंगल मूला अनुकूला सिय गुन गाई॥ देखहिं सब ठाढ़े लोचन गाढ़ें सुख बाढ़े उर अधिकाई। अस्तुति मुनि करहीं आनन्द भरहीं पायन्ह परहीं हरषाई॥ ऋषि नारद आये नाम सुनाये सुनि सुख पाये नृप ज्ञानी। सीता अस नामा पूरन कामा सब सुखधामा गुन खानी॥ सिय सन मुनिराई विनय सुनाई समय सुहाई मृदुबानी। लालनि तन लीजै चरित सुकीजै यह सुख दीजै नृपरानी॥ सुनि मुनिवर बानी सिय मुसकानी लीला ठानी सुखदाई। सोवत जनु जागीं रोवन लागीं नृप बड़भागी उर लाई॥ दम्पति अनुरागेउ प्रेम सुपागेउ यह सुख लायउँ मन लाई। अस्तुति सिय केरी प्रेमलतेरी बरनि सुचेरी सिर नाई॥
मूल

भई प्रगट कुमारी भूमि-विदारी जन हितकारी भयहारी।
अतुलित छबि भारी मुनि-मनहारी जनकदुलारी सुकुमारी॥
सुन्दर सिंहासन तेहिं पर आसन कोटि हुताशन द्युतिकारी।
सिर छत्र बिराजै सखि संग भ्राजै निज-निज कारज करधारी॥
सुर सिद्ध सुजाना हनै निशाना चढ़े बिमाना समुदाई।
बरषहिं बहुफूला मंगल मूला अनुकूला सिय गुन गाई॥
देखहिं सब ठाढ़े लोचन गाढ़ें सुख बाढ़े उर अधिकाई।
अस्तुति मुनि करहीं आनन्द भरहीं पायन्ह परहीं हरषाई॥
ऋषि नारद आये नाम सुनाये सुनि सुख पाये नृप ज्ञानी।
सीता अस नामा पूरन कामा सब सुखधामा गुन खानी॥
सिय सन मुनिराई विनय सुनाई समय सुहाई मृदुबानी।
लालनि तन लीजै चरित सुकीजै यह सुख दीजै नृपरानी॥
सुनि मुनिवर बानी सिय मुसकानी लीला ठानी सुखदाई।
सोवत जनु जागीं रोवन लागीं नृप बड़भागी उर लाई॥
दम्पति अनुरागेउ प्रेम सुपागेउ यह सुख लायउँ मन लाई।
अस्तुति सिय केरी प्रेमलतेरी बरनि सुचेरी सिर नाई॥

विषय (हिन्दी)

दोहा

विश्वास-प्रस्तुति निज इच्छा मखभूमि ते प्रगट भईं सिय आय। चरित किये पावन परम बरधन मोद निकाय॥
मूल

निज इच्छा मखभूमि ते प्रगट भईं सिय आय।
चरित किये पावन परम बरधन मोद निकाय॥

विश्वास-प्रस्तुति ॥ श्रीजनकनन्दिनीकी जय॥
मूलम् (समाप्तिः)

॥ श्रीजनकनन्दिनीकी जय॥

भागसूचना

श्रीकिशोरीजीके द्वादश नाम-वर्णन

विश्वास-प्रस्तुति मैथिली जानकी सीता वैदेही जनकात्मजा। कृपापीयूषजलधिः प्रियार्हा रामवल्लभा॥ सुनयनासुता वीर्यशुल्काऽयोनी रसोद्भवा। द्वादशैतानि नामानि वाञ्छितार्थप्रदानि हि॥
मूल

मैथिली जानकी सीता वैदेही जनकात्मजा।
कृपापीयूषजलधिः प्रियार्हा रामवल्लभा॥
सुनयनासुता वीर्यशुल्काऽयोनी रसोद्भवा।
द्वादशैतानि नामानि वाञ्छितार्थप्रदानि हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीजानकी-चरितामृतम्)
१-मैथिली—श्रीमिथिवंशमें सर्वोत्कृष्टरूपसे विराजनेवाली श्रीसीरध्वजराजदुलारीजी।
२-जानकी—श्रीजनकजी महाराजके भावकी पूर्तिके लिये उनकी यज्ञवेदीसे प्रकट होनेवाली।
३-सीता— आश्रितोंके हृदयसे सम्पूर्ण दुःखोंकी मूल दुर्भावनाको नष्ट करके सद्भावनाका विस्तार करनेवाली।
४-वैदेही—भगवान् श्रीरामजीके चिन्तनकी तल्लीनतासे देहकी सुधि भूल जानेवाली शक्तियोंमें सर्वोत्तम।
५-जनकात्मजा— श्रीसीरध्वजमहाराज नामके श्रीजनकजी महाराजके पुत्री-भावको स्वीकार करनेवाली।
६-कृपापीयूषजलधिः— समुद्रके समान अथाह एवं अमृतके सदृश असम्भवको सम्भव कर देनेवाली कृपासे युक्त।
७-प्रियार्हा— जो प्यारेके योग्य और प्यारे श्रीरामभद्रजू जिनके योग्य हैं।
८-रामवल्लभा— जो श्रीराघवेन्द्र सरकारकी परम प्यारी हैं।
९-सुनयनासुता— श्रीसुनयना महारानीके वात्सल्यभाव-जनित सुखका भलीभाँति विस्तार करनेवाली।
१०-वीर्यशुल्का— शिवधनुष तोड़नेकी शक्तिरूपी न्योछावर ही वधू रूपमें जिनकी प्राप्तिका साधन है अर्थात् जो भगवान् शिवजीके धनुष तोड़नेकी शक्तिरूपी न्योछावर अर्पण कर सकेगा, उसीके साथ जिनका विवाह होगा।
११-अयोनिः—किसी कारणविशेषसे प्रकट न होकर केवल भक्तोंका भाव पूर्ण करनेके लिये अपनी इच्छानुसार प्रकट होनेवाली।
१२-रसोद्भवा—जन्मसे ही अपनी अलौकिकता व्यक्त करनेके लिये किसी प्राकृत शरीरसे प्रकट न होकर पृथ्वीसे प्रकट होनेवाली।
श्रीललीजीके ये बारह नाम मनोवांछित (मनचाही) सिद्धिको प्रदान करनेवाले हैं।

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