०९ बरातकी विदाई

विश्वास-प्रस्तुति करि करि बिनय कछुक दिन राखि बरातिन्ह। जनक कीन्ह पहुनाई अगनित भाँतिन्ह॥ १६१॥ प्रात बरात चलिहि सुनि भूपति भामिनि। परि न बिरह बस नींद बीति गइ जामिनि॥ १६२॥
मूल

करि करि बिनय कछुक दिन राखि बरातिन्ह।
जनक कीन्ह पहुनाई अगनित भाँतिन्ह॥ १६१॥
प्रात बरात चलिहि सुनि भूपति भामिनि।
परि न बिरह बस नींद बीति गइ जामिनि॥ १६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज जनकने विनती कर-करके कुछ दिन बरातियोंको रोककर रखा और उनकी असंख्य प्रकारसे पहुनाई की॥ १६१॥ महाराजकी रानियोंने जब सुना कि प्रातःकाल बरात चली जायगी, तब भावी वियोगकी चिन्तासे उन्हें नींद न पड़ी और सारी रात बीत गयी॥ १६२॥

विश्वास-प्रस्तुति खरभर नगर नारि नर बिधिहि मनावहिं। बार बार ससुरारि राम जेहि आवहिं॥ १६३॥ सकल चलन के साज जनक साजत भए। भाइन्ह सहित राम तब भूप-भवन गए॥ १६४॥
मूल

खरभर नगर नारि नर बिधिहि मनावहिं।
बार बार ससुरारि राम जेहि आवहिं॥ १६३॥
सकल चलन के साज जनक साजत भए।
भाइन्ह सहित राम तब भूप-भवन गए॥ १६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरमें खलबली मच गयी, समस्त स्त्री-पुरुष विधातासे यही मनाते थे कि श्रीरामचन्द्रजी बार-बार ससुराल आया करें॥ १६३॥ महाराज जनकने बरातके चलनेका सारा साज सजाया और फिर भाइयोंके सहित श्रीरामचन्द्रजी राजमहलमें गये॥ १६४॥

विश्वास-प्रस्तुति सासु उतारि आरती करहिं निछावरि। निरखि निरखि हियँ हरषहिं सूरति साँवरि॥ १६५॥ मागेउ बिदा राम तब सुनि करुना भरीं। परिहरि सकुच सप्रेम पुलकि पायन्ह परीं॥ १६६॥
मूल

सासु उतारि आरती करहिं निछावरि।
निरखि निरखि हियँ हरषहिं सूरति साँवरि॥ १६५॥
मागेउ बिदा राम तब सुनि करुना भरीं।
परिहरि सकुच सप्रेम पुलकि पायन्ह परीं॥ १६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सासुएँ आरती उतारकर निछावर करती हैं और उनकी साँवली मूर्तिको देख-देखकर हृदयमें आनन्दित होती हैं॥ १६५॥ तब श्रीरामचन्द्रजीने [उन सबसे] विदा माँगी। यह सुनकर वे सब करुणा (शोक)-से भर गयीं और संकोच छोड़कर प्रेमपूर्वक उनके चरणोंपर गिर गयीं॥ १६६॥

विश्वास-प्रस्तुति सीय सहित सब सुता सौंपि कर जोरहिं। बार बार रघुनाथहि निरखि निहोरहिं॥ १६७॥ तात तजिय जनि छोह मया राखबि मन। अनुचर जानब राउ सहित पुर परिजन॥ १६८॥
मूल

सीय सहित सब सुता सौंपि कर जोरहिं।
बार बार रघुनाथहि निरखि निहोरहिं॥ १६७॥
तात तजिय जनि छोह मया राखबि मन।
अनुचर जानब राउ सहित पुर परिजन॥ १६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे जानकीजीके सहित सब पुत्रियोंको (अपने-अपने पतिको) सौंपकर हाथ जोड़ती हैं और बार-बार श्रीरामचन्द्रजीको निहारकर उनसे विनय करती हैं—॥ १६७॥ ‘हे तात! आप हमारे प्रति स्नेह न छोड़ियेगा। हृदयमें दया बनाये रखियेगा और पुर तथा पुरजनसहित महाराजको अपना अनुचर समझियेगा॥ १६८॥

विश्वास-प्रस्तुति जन जानि करब सनेह बलि, कहि दीन बचन सुनावहीं। अति प्रेम बारहिं बार रानी बालिकन्हि उर लावहीं॥ सिय चलत पुरजन नारि हय गय बिहँग मृग ब्याकुल भए। सुनि बिनय सासु प्रबोधि तब रघुबंस मनि पितु पहिं गए॥ २१॥
मूल

जन जानि करब सनेह बलि, कहि दीन बचन सुनावहीं।
अति प्रेम बारहिं बार रानी बालिकन्हि उर लावहीं॥
सिय चलत पुरजन नारि हय गय बिहँग मृग ब्याकुल भए।
सुनि बिनय सासु प्रबोधि तब रघुबंस मनि पितु पहिं गए॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हम आपकी बलिहारी जाती हैं, आप अपना सेवक जानकर इनपर स्नेह रखियेगा’ यों कहकर रानियाँ दीन वचन सुनाती हैं और अत्यन्त प्रेमसे [चारों] बालिकाओंको बार-बार हृदयसे लगाती हैं। जानकीजीके चलनेपर नगरके पुरुष, स्त्रियाँ, घोड़े, हाथी, पक्षी और मृग—सभी व्याकुल हो गये। [इस प्रकार] सासुओंकी विनय सुनकर और उनको समझाकर श्रीरामचन्द्रजी पिताजीके पास गये॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुति परे निसानहि घाउ राउ अवधहिं चले। सुर गन बरषहिं सुमन सगुन पावहिं भले॥ १६९॥ जनक जानकिहि भेटि सिखाइ सिखावन। सहित सचिव गुर बंधु चले पहुँचावन॥ १७०॥
मूल

परे निसानहि घाउ राउ अवधहिं चले।
सुर गन बरषहिं सुमन सगुन पावहिं भले॥ १६९॥
जनक जानकिहि भेटि सिखाइ सिखावन।
सहित सचिव गुर बंधु चले पहुँचावन॥ १७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगारोंपर चोट पड़ने लगी और महाराज दशरथ अयोध्याके लिये चल पड़े। देवगण फूल बरसाते हैं और अच्छे-अच्छे (शुभसूचक) सगुन होते हैं॥ १६९॥ जनकजीने जानकीजीसे मिलकर उन्हें शिक्षा दी और मन्त्री, गुरु तथा भाईके सहित उन्हें पहुँचाने चले॥ १७०॥

विश्वास-प्रस्तुति प्रेम पुलकि कहि राय फिरिय अब राजन। करत परस्पर बिनय सकल गुन भाजन॥ १७१॥ कहेउ जनक कर जोरि कीन्ह मोहि आपन। रघुकुल तिलक सदा तुम उथपन थापन॥ १७२॥
मूल

प्रेम पुलकि कहि राय फिरिय अब राजन।
करत परस्पर बिनय सकल गुन भाजन॥ १७१॥
कहेउ जनक कर जोरि कीन्ह मोहि आपन।
रघुकुल तिलक सदा तुम उथपन थापन॥ १७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथने प्रेमसे पुलकित होकर कहा—‘राजन्! अब आप लौट जाइये।’ फिर समस्त गुणोंके पात्र दोनों महाराज परस्पर विनय करने लगे॥ १७१॥ महाराज जनकने हाथ जोड़कर कहा—‘आपने मुझे अपना लिया, हे रघुकुलतिलक! आप सदा ही उजड़ोंको बसानेवाले हैं’॥ १७२॥

विश्वास-प्रस्तुति बिलग न मानब मोर जो बोलि पठायउँ। प्रभु प्रसाद जसु जानि सकल सुख पायउँ॥ १७३॥ पुनि बसिष्ठ आदिक मुनि बंदि महीपति। गहि कौसिक के पाइ कीन्ह बिनती अति॥ १७४॥
मूल

बिलग न मानब मोर जो बोलि पठायउँ।
प्रभु प्रसाद जसु जानि सकल सुख पायउँ॥ १७३॥
पुनि बसिष्ठ आदिक मुनि बंदि महीपति।
गहि कौसिक के पाइ कीन्ह बिनती अति॥ १७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने आपको बुला भेजा—‘मेरे इस व्यवहारसे बुरा न मानियेगा। प्रभु (आप)-की [ही] कृपासे आपका सुयश जानकर मैंने सब प्रकारका सुख पाया है’॥ १७३॥ फिर महाराजने वसिष्ठ आदि मुनियोंकी वन्दना करके श्रीविश्वामित्रजीके चरण पकड़कर अत्यन्त विनती की॥ १७४॥

विश्वास-प्रस्तुति भाइन्ह सहित बहोरि बिनय रघुबीरहि। गदगद कंठ नयन जल उर धरि धीरहि॥ १७५॥ कृपा सिंधु सुख सिंधु सुजान सिरोमनि। तात समय सुधि करबि छोह छाड़ब जनि॥ १७६॥
मूल

भाइन्ह सहित बहोरि बिनय रघुबीरहि।
गदगद कंठ नयन जल उर धरि धीरहि॥ १७५॥
कृपा सिंधु सुख सिंधु सुजान सिरोमनि।
तात समय सुधि करबि छोह छाड़ब जनि॥ १७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज जनक फिर भाइयोंके साथ श्रीरामचन्द्रजीसे विनय करने लगे। आनन्दसे उनका कण्ठ भर आया, नेत्रोंमें जल उमड़ आया और हृदयमें धीरज धरकर कहने लगे, हे कृपासिन्धु, हे सुखसागर, हे सुजान-शिरोमणि, हे तात! समय-समयपर आप हमारी याद करते रहियेगा। [हमारे प्रति] स्नेह न त्यागियेगा’॥ १७५-१७६॥

विश्वास-प्रस्तुति जनि छोह छाड़ब बिनय सुनि रघुबीर बहु बिनती करी। मिलि भेटि सहित सनेह फिरेउ बिदेह मन धीरज धरी॥ सो समौ कहत न बनत कछु सब भुवन भरि करुना रहे। तब कीन्ह कोसलपति पयान निसान बाजे गहगहे॥ २२॥
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जनि छोह छाड़ब बिनय सुनि रघुबीर बहु बिनती करी।
मिलि भेटि सहित सनेह फिरेउ बिदेह मन धीरज धरी॥
सो समौ कहत न बनत कछु सब भुवन भरि करुना रहे।
तब कीन्ह कोसलपति पयान निसान बाजे गहगहे॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्नेह न छोड़ियेगा’—इस विनयको सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने बहुत विनती की और महाराज जनक [सबसे] प्रेमसहित मिल-भेंटकर तथा मनमें धीरज धारणकर लौट आये। उस अवसरके विषयमें कुछ कहते नहीं बनता; सम्पूर्ण लोक करुणा (शोक)-से भर गये। तब कोसलपति महाराज दशरथने प्रस्थान किया और आनन्दपूर्वक नगारे बजने लगे॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुति पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए। डाटहिं आँखि देखाइ कोप दारुन किए॥ १७७॥ राम कीन्ह परितोष रोष रिस परिहरि। चले सौंप सारंग सुफल लोचन करि॥ १७८॥
मूल

पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए।
डाटहिं आँखि देखाइ कोप दारुन किए॥ १७७॥
राम कीन्ह परितोष रोष रिस परिहरि।
चले सौंप सारंग सुफल लोचन करि॥ १७८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्गमें भृगुनाथ (परशुरामजी) हाथमें फरसा लिये मिले। वे आँख दिखाकर तीव्र क्रोधकी मुद्रा धारण किये डाँटने लगे॥ १७७॥ किंतु श्रीरामचन्द्रजीने परशुरामजीको संतुष्ट किया और वे रोष एवं अमर्षको त्यागकर भगवान् को धनुष सौंप अपने नेत्रोंको सुफल करके चले गये॥ १७८॥

विश्वास-प्रस्तुति रघुबर भुज बल देखि उछाह बरातिन्ह। मुदित राउ लखि सनमुख बिधि सब भाँतिन्ह॥ १७९॥
मूल

रघुबर भुज बल देखि उछाह बरातिन्ह।
मुदित राउ लखि सनमुख बिधि सब भाँतिन्ह॥ १७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके बाहुबलको देखकर बरातियोंको बड़ा हर्ष हुआ और विधाताको सब प्रकार सम्मुख अर्थात् अनुकूल जानकर महाराज दशरथ प्रसन्न हुए॥ १७९॥