०८ राम-विवाह

विश्वास-प्रस्तुति बेद बिहित कुलरीति कीन्हि दुहुँ कुलगुर। पठई बोलि बरात जनक प्रमुदित मन॥ १२७॥ जाइ कहेउ पगु धारिअ मुनि अवधेसहि। चले सुमिरि गुरु गौरि गिरीस गनेसहि॥ १२८॥
मूल

बेद बिहित कुलरीति कीन्हि दुहुँ कुलगुर।
पठई बोलि बरात जनक प्रमुदित मन॥ १२७॥
जाइ कहेउ पगु धारिअ मुनि अवधेसहि।
चले सुमिरि गुरु गौरि गिरीस गनेसहि॥ १२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजी और शतानन्दजी दोनों कुलगुरुओंने वेदविहित कुलरीति सम्पन्न की तथा महाराज जनकने प्रमुदित मनसे बरातको बुला भेजा॥ १२७॥ [तब] शतानन्दमुनिने [जनवासेमें] जाकर अयोध्यापति (महाराज दशरथ)-से कहा—‘पधारिये’ और वे गुरु (वसिष्ठ), गौरी, शिवजी और गणेशजीको स्मरणकर चले॥ १२८॥

विश्वास-प्रस्तुति चले सुमिरि गुर सुर सुमन बरषहिं परे बहुबिधि पावड़े। सनमानि सब बिधि जनक दसरथ किये प्रेम कनावड़े॥ गुन सकल सम समधी परस्पर मिलन अति आनँद लहे। जय धन्य जय जय धन्य धन्य बिलोकि सुर नर मुनि कहे॥ १६॥
मूल

चले सुमिरि गुर सुर सुमन बरषहिं परे बहुबिधि पावड़े।
सनमानि सब बिधि जनक दसरथ किये प्रेम कनावड़े॥
गुन सकल सम समधी परस्पर मिलन अति आनँद लहे।
जय धन्य जय जय धन्य धन्य बिलोकि सुर नर मुनि कहे॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथ गुरु आदिको स्मरणकर चले; देवतालोग फूल बरसाने लगे और अनेक प्रकारके पाँवड़े पड़ने लगे। महाराज जनकने सब प्रकारसे सम्मानित कर श्रीदशरथजीको अपने प्रेमसे कृतज्ञ बना लिया। सब गुणोंमें तुल्य दोनों समधियोंने परस्पर मिलते समय अत्यन्त आनन्द प्राप्त किया। उन्हें देखकर देवता, मनुष्य और मुनिजन धन्य-धन्य कहते और जय-जयकार कर रहे हैं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुति तीनि लोक अवलोकहिं नहिं उपमा कोउ। दसरथ जनक समान जनक दसरथ दोउ॥ १२९॥ सजहिं सुमंगल साज रहस रनिवासहि। गान करहिं पिकबैनि सहित परिहासहि॥ १३०॥
मूल

तीनि लोक अवलोकहिं नहिं उपमा कोउ।
दसरथ जनक समान जनक दसरथ दोउ॥ १२९॥
सजहिं सुमंगल साज रहस रनिवासहि।
गान करहिं पिकबैनि सहित परिहासहि॥ १३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीनों लोकोंको देखते हैं; [परंतु] कहीं कोई उपमा नहीं मिलती। बस, महाराज दशरथ और जनकके समान तो जनक और दशरथ दो ही हैं॥ १२९॥ रनिवासमें बड़ा आनन्द है। सब लोग श्रेष्ठ मंगलसाज सजा रहे हैं और कोकिलबयनी कामिनियाँ परिहास करती हुई गान कर रही हैं॥ १३०॥

विश्वास-प्रस्तुति उमा रमादिक सुरतिय सुनि प्रमुदित भईं। कपट नारि बर बेष बिरचि मंडप गईं॥ १३१॥ मंगल आरति साज बरहि परिछन चलीं। जनु बिगसीं रबि उदय कनक पंकज कलीं॥ १३२॥
मूल

उमा रमादिक सुरतिय सुनि प्रमुदित भईं।
कपट नारि बर बेष बिरचि मंडप गईं॥ १३१॥
मंगल आरति साज बरहि परिछन चलीं।
जनु बिगसीं रबि उदय कनक पंकज कलीं॥ १३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे सुनकर पार्वतीजी, लक्ष्मीजी एवं अन्य देवताओंकी स्त्रियाँ आनन्दित हुईं और स्त्रियोंका सुन्दर छद्म-वेष बनाकर मंडपमें गयीं॥ १३१॥ वे मंगल आरती सजाकर दुलहेका परिछन करने चलीं, वे ऐसी प्रसन्न हो रही हैं मानो सोनेके कमलकी कलियाँ सूर्योदय होनेपर फूल उठी हों॥ १३२॥

विश्वास-प्रस्तुति नख सिख सुंदर राम रूप जब देखहिं। सब इंद्रिन्ह महँ इंद्र बिलोचन लेखहिं॥ १३३॥ परम प्रीति कुलरीति करहिं गज गामिनि। नहिं अघाहिं अनुराग भाग भरि भामिनि॥ १३४॥
मूल

नख सिख सुंदर राम रूप जब देखहिं।
सब इंद्रिन्ह महँ इंद्र बिलोचन लेखहिं॥ १३३॥
परम प्रीति कुलरीति करहिं गज गामिनि।
नहिं अघाहिं अनुराग भाग भरि भामिनि॥ १३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे नखसे चोटीतक श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर रूपको देखती हैं, तब सभी इन्द्रियोंमें इन्द्रके-से नेत्रोंको ही श्रेष्ठ समझती हैं। (वे सोचती हैं जिस प्रकार इन्द्रके शरीरमें हजार नेत्र हैं, वैसे ही हमारे भी रोम-रोममें नेत्र होते तो श्रीरामचन्द्रजीकी अनुपम रूपसुधाका कुछ आस्वादन कर पातीं)॥ १३३॥ अनुराग एवं सौभाग्यसे भरी हुई वे गजगामिनी स्त्रियाँ परम प्रीतिपूर्वक कुलाचार करती हैं किंतु अघाती नहीं॥ १३४॥

विश्वास-प्रस्तुति नेगचारु कहँ नागरि गहरु न लावहिं। निरखि निरखि आनंदु सुलोचनि पावहिं॥ १३५॥ करि आरती निछावरि बरहि निहारहिं। प्रेम मगन प्रमदागन तन न सँभारहिं॥ १३६॥
मूल

नेगचारु कहँ नागरि गहरु न लावहिं।
निरखि निरखि आनंदु सुलोचनि पावहिं॥ १३५॥
करि आरती निछावरि बरहि निहारहिं।
प्रेम मगन प्रमदागन तन न सँभारहिं॥ १३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे चतुरा स्त्रियाँ रीति-रस्ममें देरी नहीं लगातीं, बार-बार श्रीरघुनाथजीको देख करके सुलोचना स्त्रियाँ [महान्] आनन्दका अनुभव करती हैं॥ १३५॥ आरती और निछावर करके वे दुलहाको निरखती हैं और प्रेममें मग्न हो जानेसे वे प्रेम-मदसे छकी युवती स्त्रियाँ अपने शरीरको भी नहीं सँभाल पातीं॥ १३६॥

विश्वास-प्रस्तुति नहिं तन सम्हारहिं छबि निहारहिं निमिष रिपु जनु रनु जए। चक्रवै लोचन राम रूप सुराज सुख भोगी भए॥ तब जनक सहित समाज राजहि उचित रुचिरासन दए। कौसिक बसिष्ठहि पूजि पूजे राउ दै अंबर नए॥ १७॥
मूल

नहिं तन सम्हारहिं छबि निहारहिं निमिष रिपु जनु रनु जए।
चक्रवै लोचन राम रूप सुराज सुख भोगी भए॥
तब जनक सहित समाज राजहि उचित रुचिरासन दए।
कौसिक बसिष्ठहि पूजि पूजे राउ दै अंबर नए॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने शरीरको नहीं सँभाल पातीं। भगवान् की शोभा [एकटक होकर] निहारती हैं। ऐसा जान पड़ता है, मानो उन्होंने पलकरूपी शत्रुओंको रणमें जीत लिया है। इससे उनके नेत्ररूपी चक्रवर्ती राम-छबिरूप सुराज्यके सुखके भोगी हुए हैं। तब जनकजीने समाजसहित महाराज दशरथको सुन्दर आसन दिये और कौशिकमुनि तथा वसिष्ठजीकी पूजा करके नवीन वस्त्र अर्पण कर महाराज दशरथकी पूजा की॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुति देत अरघ रघुबीरहि मंडप लै चलीं। करहिं सुमंगल गान उमगि आनँद अलीं॥ १३७॥ बर बिराज मंडप महँ बिस्व बिमोहइ। ऋतु बसंत बन मध्य मदनु जनु सोहइ॥ १३८॥
मूल

देत अरघ रघुबीरहि मंडप लै चलीं।
करहिं सुमंगल गान उमगि आनँद अलीं॥ १३७॥
बर बिराज मंडप महँ बिस्व बिमोहइ।
ऋतु बसंत बन मध्य मदनु जनु सोहइ॥ १३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

[फिर जानकीजीकी कुछ] सखियाँ श्रीरामचन्द्रजीको अर्घ्य देती हुई मण्डपमें लिवा चलीं। वे आनन्दमें उमँगकर मनोहर मंगलगान करती हैं॥ १३७॥ दूल्हा राम मण्डपमें विराजमान हो संसारको विशेषरूपसे मोहित कर रहे हैं; वे ऐसे भले लगते हैं, मानो वसन्त-ऋतुमें कामदेव वनके मध्यमें शोभायमान हैं॥ १३८॥

विश्वास-प्रस्तुति कुल बिबहार बेद बिधि चाहिय जहँ जस। उपरोहित दोउ करहिं मुदित मन तहँ तस॥ १३९॥ बरहि पूजि नृप दीन्ह सुभग सिंहासन। चलीं दुलहिनिहि ल्याइ पाइ अनुसासन॥ १४०॥
मूल

कुल बिबहार बेद बिधि चाहिय जहँ जस।
उपरोहित दोउ करहिं मुदित मन तहँ तस॥ १३९॥
बरहि पूजि नृप दीन्ह सुभग सिंहासन।
चलीं दुलहिनिहि ल्याइ पाइ अनुसासन॥ १४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ जिस प्रकारकी वैदिक विधि और कुल-व्यवहारकी आवश्यकता होती है, वहाँ दोनों पुरोहित प्रसन्न-मनसे वैसा ही करते हैं॥ १३९॥ राजा जनकने वरका पूजन करके सुन्दर सिंहासन दिया और सखियाँ आज्ञा पा दुलहिनको लेकर चलीं॥ १४०॥

विश्वास-प्रस्तुति जुबति जुत्थ महँ सीय सुभाइ बिराजइ। उपमा कहत लजाइ भारती भाजइ॥ १४१॥ दुलह दुलहिनिन्ह देखि नारि नर हरषहिं। छिनु छिनु गान निसान सुमन सुर बरषहिं॥ १४२॥
मूल

जुबति जुत्थ महँ सीय सुभाइ बिराजइ।
उपमा कहत लजाइ भारती भाजइ॥ १४१॥
दुलह दुलहिनिन्ह देखि नारि नर हरषहिं।
छिनु छिनु गान निसान सुमन सुर बरषहिं॥ १४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियोंके झुंडमें जानकीजी स्वभावसे ही शोभा पा रही हैं। सरस्वती उपमा कहनेमें लजाकर भाग जाती हैं॥ १४१॥ दुलहा और दुलहिनको देखकर स्त्री-पुरुष हर्षित होते हैं और क्षण-क्षणमें गीत गाते और नगारे बजाते हुए देवतालोग फूल बरसाते हैं॥ १४२॥

विश्वास-प्रस्तुति लै लै नाउँ सुआसिनि मंगल गावहिं। कुँवर कुँवरि हित गनपति गौरि पुजावहिं॥ १४३॥ अगिनि थापि मिथिलेस कुसोदक लीन्हेउ। कन्या दान बिधान संकलप कीन्हेउ॥ १४४॥
मूल

लै लै नाउँ सुआसिनि मंगल गावहिं।
कुँवर कुँवरि हित गनपति गौरि पुजावहिं॥ १४३॥
अगिनि थापि मिथिलेस कुसोदक लीन्हेउ।
कन्या दान बिधान संकलप कीन्हेउ॥ १४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवासिनियाँ दूल्हा और दुलहिनका नाम ले-लेकर मंगल गाती हैं और कुमार-कुमारीके कल्याणके लिये [उनसे] गणेशजी तथा पार्वतीजीकी पूजा कराती हैं॥ १४३॥ मिथिलापति (महाराज जनक)-ने अग्नि-स्थापन करके कुश और जल लिया तथा कन्या-दानकी विधिके लिये संकल्प किया॥ १४४॥

विश्वास-प्रस्तुति संकल्पि सिय रामहि समरपी सील सुख सोभामई। जिमि संकरहि गिरिराज गिरिजा हरिहि श्री सागर दई॥ सिंदूर बंदन होम लावा होन लागी भाँवरीं। सिल पोहनी करि मोहनी मनहरॺो मूरति साँवरीं॥ १८॥
मूल

संकल्पि सिय रामहि समरपी सील सुख सोभामई।
जिमि संकरहि गिरिराज गिरिजा हरिहि श्री सागर दई॥
सिंदूर बंदन होम लावा होन लागी भाँवरीं।
सिल पोहनी करि मोहनी मनहरॺो मूरति साँवरीं॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज जनकने संकल्प करके शील, सुख और शोभामयी श्रीजानकीजी भगवान् रामको समर्पण कर दीं-[ठीक उसी तरह] जैसे गिरिराज हिमवान् ने शंकरजीको पार्वतीजी और सागरने भगवान् श्रीहरिको लक्ष्मीजी समर्पण की थीं। सिंदूर-वन्दन तथा लाजाहोमकी विधि सम्पन्न करके भाँवर होने लगी। फिर सिलपोहनी (अश्मारोहण) विधि की गयी। [उस समय] भगवान् की मन-मोहिनी साँवली मूर्तिने सबके मन हर लिये॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुति एहि बिधि भयो बिबाह उछाह तिहूँ पुर। देहिं असीस मुनीस सुमन बरषहिं सुर॥ १४५॥ मन भावत बिधि कीन्ह मुदित भामिनि भईं। बर दुलहिनिहि लवाइ सखीं कोहबर गईं॥ १४६॥
मूल

एहि बिधि भयो बिबाह उछाह तिहूँ पुर।
देहिं असीस मुनीस सुमन बरषहिं सुर॥ १४५॥
मन भावत बिधि कीन्ह मुदित भामिनि भईं।
बर दुलहिनिहि लवाइ सखीं कोहबर गईं॥ १४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ और तीनों लोकमें आनन्द छा गया। मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं और देवता फूल बरसाते हैं॥ १४५॥ विधाताने जो कुछ हमारे मनको प्रिय लगता था, वही कर दिया—यह सोचकर [सभी] स्त्रियाँ आनन्दित हुईं और फिर [जानकीजी] सखियाँ दूल्हा और दुलहिनको लेकर कोहबर (कुलदेवताके स्थान)-में गयीं॥ १४६॥

विश्वास-प्रस्तुति निरखि निछावर करहि बसन मनि छिनु छिनु। जाइ न बरनि बिनोद मोदमय सो दिनु॥ १४७॥ सिय भ्राताके समय भोम तहँ आयउ। दुरीदुरा करि नेगु सुनात जनायउ॥ १४८॥
मूल

निरखि निछावर करहि बसन मनि छिनु छिनु।
जाइ न बरनि बिनोद मोदमय सो दिनु॥ १४७॥
सिय भ्राताके समय भोम तहँ आयउ।
दुरीदुरा करि नेगु सुनात जनायउ॥ १४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें निरख-निरखकर वे क्षण-क्षणमें वस्त्र और मणियाँ निछावर करती हैं। विनोद और आनन्दसे पूर्ण उस दिनका वर्णन नहीं किया जा सकता॥ १४७॥ जिस समय जानकीजीके भाईकी आवश्यकता हुई, उस समय वहाँ [पृथ्वीका पुत्र] मंगलग्रह [स्वयं] आया और अपनेको छिपाकर सब रीति-रस्म करके अपना सुन्दर सम्बन्ध जनाया॥ १४८॥

विश्वास-प्रस्तुति चतुर नारि बर कुँवरिहि रीति सिखावहिं। देहिं गारि लहकौरि समौ सुख पावहिं॥ १४९॥ जुआ खेलावन कौतुक कीन्ह सयानिन्ह। जीति हारि मिस देहिं गारि दुहु रानिन्ह॥ १५०॥
मूल

चतुर नारि बर कुँवरिहि रीति सिखावहिं।
देहिं गारि लहकौरि समौ सुख पावहिं॥ १४९॥
जुआ खेलावन कौतुक कीन्ह सयानिन्ह।
जीति हारि मिस देहिं गारि दुहु रानिन्ह॥ १५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

चतुर स्त्रियाँ वर और दुलहिनको कुलरीति सिखाती हैं और लहकौरीकी विधिके समय गाली गाकर सुख मानती हैं॥ १४९॥ जुआ खेलानेमें चतुर स्त्रियोंने बड़ा कौतुक किया। वे हार-जीतका बहाना करके [कौसल्या और सुनयना] दोनों रानियोंको गाली देती थीं॥ १५०॥

विश्वास-प्रस्तुति सीय मातु मन मुदित उतारति आरति। को कहि सकइ अनंद मगन भइ भारति॥ १५१॥ जुबति जूथ रनिवास रहस बस एहि बिधि। देखि देखि सिय राम सकल मंगल निधि॥ १५२॥
मूल

सीय मातु मन मुदित उतारति आरति।
को कहि सकइ अनंद मगन भइ भारति॥ १५१॥
जुबति जूथ रनिवास रहस बस एहि बिधि।
देखि देखि सिय राम सकल मंगल निधि॥ १५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जानकीजीकी माता मनमें आनन्दित हो आरती उतारती हैं। उस आनन्दको कौन कह सकता है। उस समय सरस्वती भी आनन्दमग्न हो रही हैं॥ १५१॥ इस प्रकार युवतियोंका झुंड और [सम्पूर्ण] रनिवास समस्त मंगलोंकी खानि श्रीराम-जानकीको देख-देखकर आनन्दके वशीभूत हो रहा है॥ १५२॥

विश्वास-प्रस्तुति मंगल निधान बिलोकि लोयन लाह लूटति नागरीं। दइ जनक तीनिहुँ कुँवरि कुँवर बिबाहि सुनि आनँद भरीं॥ कल्यान मो कल्यान पाइ बितान छबि मन मोहई। सुरधेनु ससि सुरमनि सहित मानहुँ कलप तरु सोहई॥ १९॥
मूल

मंगल निधान बिलोकि लोयन लाह लूटति नागरीं।
दइ जनक तीनिहुँ कुँवरि कुँवर बिबाहि सुनि आनँद भरीं॥
कल्यान मो कल्यान पाइ बितान छबि मन मोहई।
सुरधेनु ससि सुरमनि सहित मानहुँ कलप तरु सोहई॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

मंगलनिधि श्रीराम-जानकीजीको देखकर चतुर स्त्रियाँ नेत्रोंका लाभ लूट रही हैं। महाराज जनकने [सीताजीके सिवा अपनी और भी] तीनों कुमारियोंको (अन्य तीनों) कुमारोंके साथ ब्याह दिया। यह सुनकर सारी प्रजा आनन्दसे भर गयी। इस प्रकार मंगलमें मंगल पाकर मण्डपकी शोभा मनको मोहने लगी। तीनों जोड़ियोंके साथ वह ऐसा लगता था मानो कामधेनु, चन्द्रमा और चिन्तामणिके सहित कल्पवृक्ष सुशोभित हो॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुति जनक अनुज तनया दोउ परम मनोरम। जेठि भरत कहँ ब्याहि रूप रति सय सम॥ १५३॥ सिय लघु भगिनि लखन कहुँ रूप उजागरि। लखन अनुज श्रुतकीरति सब गुन आगरि॥ १५४॥
मूल

जनक अनुज तनया दोउ परम मनोरम।
जेठि भरत कहँ ब्याहि रूप रति सय सम॥ १५३॥
सिय लघु भगिनि लखन कहुँ रूप उजागरि।
लखन अनुज श्रुतकीरति सब गुन आगरि॥ १५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज जनकके छोटे भाई (कुशध्वज)-की जो परम सुन्दरी कन्याएँ थीं, उनमें बड़ी (माण्डवी)-का विवाह भरतजीके साथ हुआ, जो सुन्दरतामें सैकड़ों रतियोंके समान थी॥ १५३॥ जानकीजीकी छोटी बहिन (उर्मिला), लक्ष्मणजीको ब्याही गयी जो रूपके कारण अत्यन्त प्रसिद्ध थी; और लक्ष्मणजीके छोटे भाई शत्रुघ्नजीका विवाह श्रुतिकीर्तिसे हुआ, जो सब गुणोंकी खानि थी॥ १५४॥

विश्वास-प्रस्तुति राम बिबाह समान बिबाह तीनिउ भए। जीवन फल लोचन फल बिधि सब कहँ दए॥ १५५॥ दाइज भयउ बिबिध बिधि जाइ न सो गनि। दासी दास बाजि गज हेम बसन मनि॥ १५६॥
मूल

राम बिबाह समान बिबाह तीनिउ भए।
जीवन फल लोचन फल बिधि सब कहँ दए॥ १५५॥
दाइज भयउ बिबिध बिधि जाइ न सो गनि।
दासी दास बाजि गज हेम बसन मनि॥ १५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके विवाहके समान ही [अन्य] तीनों विवाह [भी] हुए। इस प्रकार विधातानेसभीको जीवनका फल और नेत्रोंका फल दिया॥ १५५॥ दासी-दास, घोड़े-हाथी, सोना-वस्त्र और मणि इत्यादि अनेक प्रकारका दहेज दिया गया, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥ १५६॥

विश्वास-प्रस्तुति दान मान परमान प्रेम पूरन किए। समधी सहित बरात बिनय बस करि लिए॥ १५७॥ गे जनवासे राउ संगु सुत सुतबहु। जनु पाए फल चारि सहित साधन चहु॥ १५८॥
मूल

दान मान परमान प्रेम पूरन किए।
समधी सहित बरात बिनय बस करि लिए॥ १५७॥
गे जनवासे राउ संगु सुत सुतबहु।
जनु पाए फल चारि सहित साधन चहु॥ १५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

दान, आदर-सत्कार और परले-सिरेके प्रेमद्वारा महाराज जनकने सबको परितृप्त कर दिया और सारी बरातके सहित समधी (दशरथजी)-को विनयपूर्वक अपने वशीभूत कर लिया॥ १५७॥ फिर महाराज संगमें पुत्र और पुत्रवधुओंको लेकर जनवासेमें गये; [ऐसा लगता था] मानो उन्होंने चारों साधनोंके सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) प्राप्त कर लिये॥ १५८॥

विश्वास-प्रस्तुति चहु प्रकार जेवनार भई बहु भाँतिन्ह। भोजन करत अवधपति सहित बरातिन्ह॥ १५९॥ देहि गारि बर नारि नाम लै दुहु दिसि। जेंवत बढ़ॺो अनंद सुहावनि सो निसि॥ १६०॥
मूल

चहु प्रकार जेवनार भई बहु भाँतिन्ह।
भोजन करत अवधपति सहित बरातिन्ह॥ १५९॥
देहि गारि बर नारि नाम लै दुहु दिसि।
जेंवत बढ़ॺो अनंद सुहावनि सो निसि॥ १६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तरह-तरहसे (भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य—) चारों प्रकारका भोजन बनाया गया; बरातियोंके सहित महाराज दशरथ भोजन करने लगे॥ १५९॥ सुन्दरी स्त्रियाँ दोनों ओरके नाम ले-लेकर गालियाँ गाने लगीं, भोजन करते समय उनके हृदयमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी; इससे वह रात्रि बड़ी ही सुहावनी जान पड़ती थी॥ १६०॥

विश्वास-प्रस्तुति सो निसि सोहावनि मधुर गावति बाजने बाजहिं भले। नृप कियो भोजन पान पाइ प्रमोद जनवासेहि चले॥ नट भाट मागध सूत जाचक जस प्रतापहि बरनहीं। सानंद भूसुर बृंद मनि गज देत मन करषै नहीं॥ २०॥
मूल

सो निसि सोहावनि मधुर गावति बाजने बाजहिं भले।
नृप कियो भोजन पान पाइ प्रमोद जनवासेहि चले॥
नट भाट मागध सूत जाचक जस प्रतापहि बरनहीं।
सानंद भूसुर बृंद मनि गज देत मन करषै नहीं॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह रात्रि बड़ी सुहावनी हो गयी। स्त्रियाँ मधुर गान करती थीं। अच्छे-अच्छे बाजे बज रहे थे। इस प्रकार भोजन-पानसे निवृत्त हो महाराज आनन्द प्राप्तकर जनवासेको चले। नट, भाट, मागध, सूत और याचकगण महाराजके सुयश और प्रतापका वर्णन कर रहे थे और ब्राह्मणवृन्दको आनन्दपूर्वक मणि और हाथी आदि देते-देते उनका मन हटता न था, अर्थात् बराबर देते ही रहनेकी इच्छा होती थी॥ २०॥