विश्वास-प्रस्तुति
देखि सपुर परिवार जनक हिय हारेउ। नृप समाज जनु तुहिन बनज बन मारेउ॥ ८९॥ कौसिक जनकहि कहेउ देहु अनुसासन। देखि भानु कुल भानु इसानु सरासन॥ ९०॥मूल
देखि सपुर परिवार जनक हिय हारेउ।
नृप समाज जनु तुहिन बनज बन मारेउ॥ ८९॥
कौसिक जनकहि कहेउ देहु अनुसासन।
देखि भानु कुल भानु इसानु सरासन॥ ९०॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरवासी एवं परिवारके सहित महाराज जनक यह देखकर हृदयमें हार गये अर्थात् निराश हो गये और राजाओंके समाजरूपी कमलवनको तो मानो पाला मार गया॥ ८९॥ (तब) कौशिकमुनिने महाराज जनकसे कहा—‘आप आज्ञा दीजिये। सूर्यकुलके सूर्य श्रीरामचन्द्रजी शंकरजीके धनुषको देखें’॥ ९०॥
विश्वास-प्रस्तुति
मुनिबर तुम्हरें बचन मेरु महि डोलहिं। तदपि उचित आचरत पाँच भल बोलहिं॥ ९१॥ बानु बानु जिमि गयउ गवहिं दसकंधरु। को अवनी तल इन सम बीर धुरंधरु॥ ९२॥मूल
मुनिबर तुम्हरें बचन मेरु महि डोलहिं।
तदपि उचित आचरत पाँच भल बोलहिं॥ ९१॥
बानु बानु जिमि गयउ गवहिं दसकंधरु।
को अवनी तल इन सम बीर धुरंधरु॥ ९२॥
अनुवाद (हिन्दी)
(महाराज जनकने कहा—) ‘हे मुनिवर! आपके वचनसे पर्वत और पृथ्वी भी डोल सकते हैं; तो भी उचित आचरण करनेसे सब लोग प्रशंसा करते हैं। (तात्पर्य यह कि यद्यपि आपके आशीर्वादसे श्रीरामके लिये यह धनुष तोड़ना कोई बड़ी बात नहीं है, फिर भी जैसी वस्तुस्थिति है, उसे देखते हुए तो ऐसा होना असम्भव ही जान पड़ता है; क्योंकि देखिये, इस धनुषको देखकर) बाणासुर बाणके समान भाग गया और रावण भी चुपकेसे (अपने घर) चला गया। भला इनके समान धुरंधर वीर पृथ्वीतलमें कौन है॥ ९१-९२॥
विश्वास-प्रस्तुति
पारबती मन सरिस अचल धनु चालक। हहिं पुरारि तेउ एक नारि ब्रत पालक॥ ९३॥ सो धनु कहिय बिलोकन भूप किसोरहि। भेद कि सिरिस सुमन कन कुलिस कठोरहि॥ ९४॥मूल
पारबती मन सरिस अचल धनु चालक।
हहिं पुरारि तेउ एक नारि ब्रत पालक॥ ९३॥
सो धनु कहिय बिलोकन भूप किसोरहि।
भेद कि सिरिस सुमन कन कुलिस कठोरहि॥ ९४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह धनुष तो पार्वतीजीके मनके समान अचल है, इसे विचलित करनेवाले तो बस एक महादेवजी ही हैं, किंतु वे भी एकनारी व्रतका पालन करनेवाले हैं॥ ९३॥ ऐसे धनुषको आप इन राजकुमारको देखनेके लिये कहते हैं। भला, कहीं सिरसका अत्यन्त कोमल फूल कठोर वज्रके कणको भी भेद सकता है॥ ९४॥
विश्वास-प्रस्तुति
रोम रोम छबि निंदति सोभ मनोजनि। देखिय मूरति मलिन करिय मुनि सो जनि॥ ९५॥ मुनि हँसि कहेउ जनक यह मूरति सोहइ। सुमिरत सकृत मोह मल सकल बिछोहइ॥ ९६॥मूल
रोम रोम छबि निंदति सोभ मनोजनि।
देखिय मूरति मलिन करिय मुनि सो जनि॥ ९५॥
मुनि हँसि कहेउ जनक यह मूरति सोहइ।
सुमिरत सकृत मोह मल सकल बिछोहइ॥ ९६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीकी रोम-रोमकी शोभा अनेक कामदेवोंकी छबिका भी तिरस्कार करनेवाली है। हे मुने! ऐसा न कीजिये कि यह मूर्ति मलिन देखी जाय [क्योंकि यदि इनसे धनुष न टूटा तो इनकी यह प्रसन्नता नष्ट हो जायगी]’॥ ९५॥ मुनिने हँसकर कहा, हे जनक! यह मूर्ति जो शोभायमान हो रही है, वह एक बार स्मरण करनेसे भी सम्पूर्ण अज्ञानान्धकारको दूर कर देनेवाली है॥ ९६॥
विश्वास-प्रस्तुति
सब मल बिछोहनि जानि मूरति जनक कौतुक देखहू। धनु सिंधु नृप बल जल बढ़ॺो रघुबरहि कुंभज लेखहू॥ सुनि सकुचि सोचहिं जनक गुर पद बंदि रघुनंदन चले। नहिं हरष हृदय बिषाद कछु भए सगुन सुभ मंगल भले॥ १२॥मूल
सब मल बिछोहनि जानि मूरति जनक कौतुक देखहू।
धनु सिंधु नृप बल जल बढ़ॺो रघुबरहि कुंभज लेखहू॥
सुनि सकुचि सोचहिं जनक गुर पद बंदि रघुनंदन चले।
नहिं हरष हृदय बिषाद कछु भए सगुन सुभ मंगल भले॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे जनक! इस मूर्तिको सब प्रकारके मलोंको छुड़ानेवाली जानकर यह कौतुक देखो। धनुषरूपी समुद्रमें राजाओंका बलरूपी जल बढ़ा हुआ है, [उसे सुखानेके लिये] रघुनाथजीको अगस्त्यके समान जानो।’ यह सुनकर राजा जनक सकुचाकर सोचने लगे और [उधर] श्रीरामचन्द्रजी गुरुके चरणोंको प्रणाम करके चले। इस समय उनके हृदयमें हर्ष या विषाद कुछ भी नहीं था। [उनके चलते समय] बहुत-से शुभ और कल्याणसूचक अच्छे शकुन हुए॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुति
बरिसन लगे सुमन सुर दुंदुभि बाजहिं। मुदित जनक, पुर परिजन नृपगन लाजहिं॥ ९७॥ महि महिधरनि लखन कह बलहि बढ़ावनु। राम चहत सिव चापहि चपरि चढ़ावनु॥ ९८॥मूल
बरिसन लगे सुमन सुर दुंदुभि बाजहिं।
मुदित जनक, पुर परिजन नृपगन लाजहिं॥ ९७॥
महि महिधरनि लखन कह बलहि बढ़ावनु।
राम चहत सिव चापहि चपरि चढ़ावनु॥ ९८॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवतालोग फूल बरसाने और नगारे बजाने लगे; राजा जनक, उनके परिवारके लोग तथा पुरवासी आनन्दित हो गये और राजालोग लजा गये॥ ९७॥ लक्ष्मणजी पृथ्वी और शेषादिसे बल बढ़ानेके लिये कहते हैं; क्योंकि अब शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजी शिवजीके धनुषको चढ़ाना चाहते हैं॥ ९८॥
विश्वास-प्रस्तुति
गए सुभायँ राम जब चाप समीपहि। सोच सहित परिवार बिदेह महीपहि॥ ९९॥ कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ सोचइ। गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ॥ १००॥मूल
गए सुभायँ राम जब चाप समीपहि।
सोच सहित परिवार बिदेह महीपहि॥ ९९॥
कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ सोचइ।
गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकोचइ॥ १००॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब श्रीरामचन्द्रजी सहज भावसे धनुषके समीप गये, तब परिवारसहित राजा जनक सोचमें पड़ गये॥ ९९॥ संकोचवश जानकीजी कुछ कह नहीं पातीं, मन-ही-मन सोच करती हैं और पार्वती, गणेश तथा महादेवजीका स्मरण करके उन्हें संकोचमें डाल रही हैं॥ १००॥
विश्वास-प्रस्तुति
होत बिरह सर मगन देखि रघुनाथहि। फरकि बाम भुज नयन देत जनु हाथहि॥ १०१॥ धीरज धरति सगुन बल रहति सो नाहिन। बरु किसोर धनु घोर दइउ नहिं दाहिन॥ १०२॥मूल
होत बिरह सर मगन देखि रघुनाथहि।
फरकि बाम भुज नयन देत जनु हाथहि॥ १०१॥
धीरज धरति सगुन बल रहति सो नाहिन।
बरु किसोर धनु घोर दइउ नहिं दाहिन॥ १०२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीको देखकर वे विरहके सरोवरमें डूब रही हैं। उस समय उनके बाम भुजा और नेत्र फड़ककर मानो डूबनेसे बचानेके लिये हाथ बढ़ाते हैं॥ १०१॥ इस प्रकार शकुनके बलसे कुछ धीरज धरती हैं; परंतु वह स्थिर नहीं रहता। [वे सोचने लगती हैं कि] ‘वर तो किशोरावस्थाके हैं और धनुष विकराल है। इस समय विधाता भी अनुकूल नहीं है’॥ १०२॥
विश्वास-प्रस्तुति
अंतरजामी राम मरम सब जानेउ। धनु चढ़ाइ कौतुकहिं कान लगि तानेउ॥ १०३॥ प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ। जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ॥ १०४॥मूल
अंतरजामी राम मरम सब जानेउ।
धनु चढ़ाइ कौतुकहिं कान लगि तानेउ॥ १०३॥
प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ।
जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ॥ १०४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तर्यामी श्रीरामचन्द्रजीने जानकीजीका सारा मर्म जान लिया (अर्थात् वे श्रीजानकीजीके मनका दुःख समझ गये)। बस उन्होंने कौतुकसे ही धनुषको चढ़ाकर कानतक तान लिया॥ १०३॥ श्रीजानकीजीके प्रेमको परखकर श्रीरामचन्द्रजीने धनुषको उसी प्रकार तोड़ दिया, जैसे कोई सिंहका बच्चा बड़े भारी हाथीको मार डाले॥ १०४॥
विश्वास-प्रस्तुति
गंजेउ सो गर्जेउ घोर धुनि सुनि भूमि भूधर लरखरे। रघुबीर जस मुकता बिपुल सब भुवन पटु पेटक भरे॥ हित मुदित अनहित रुदित मुख छबि कहत कबि धनु जाग की। जनु भोर चक्क चकोर कैरव सघन कमल तड़ाग की॥ १३॥मूल
गंजेउ सो गर्जेउ घोर धुनि सुनि भूमि भूधर लरखरे।
रघुबीर जस मुकता बिपुल सब भुवन पटु पेटक भरे॥
हित मुदित अनहित रुदित मुख छबि कहत कबि धनु जाग की।
जनु भोर चक्क चकोर कैरव सघन कमल तड़ाग की॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुषको जब तोड़ा गया, तब उसका ऐसा घोर गर्जन हुआ कि उसे सुनकर पृथ्वी और पर्वत डगमगा गये। श्रीरामचन्द्रजीके सुयशरूपी बहुत-से मोतियोंसे समस्त भुवन-मण्डलरूप सुन्दर पिटारे भर गये। (अर्थात् चौदहों भुवनमें उनका सुयश व्याप्त हो गया) इससे मित्र लोग आनन्दित हुए और शत्रुओंका मुख रुआँसा हो गया। उस समयकी धनुष-यज्ञकी छबिको कवि इस प्रकार वर्णन करता है कि प्रातःकाल चकवा-चकवी, कुमुदिनी और सघन कमलवनसे युक्त तालाबकी जैसी शोभा होती है, वैसी ही उस यज्ञकी हुई (भाव यह कि शत्रुलोग तो चकोर और कुमुदिनियोंके समान निस्तेज हो गये और सत्पुरुष चकवा-चकवी एवं कमलवनके समान प्रफुल्लित हो गये)॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुति
नभ पुर मंगल गान निसान गहागहे। देखि मनोरथ सुरतरु ललित लहालहे॥ १०५॥ तब उपरोहित कहेउ सखीं सब गावन। चलीं लेवाइ जानकिहि भा मन भावन॥ १०६॥मूल
नभ पुर मंगल गान निसान गहागहे।
देखि मनोरथ सुरतरु ललित लहालहे॥ १०५॥
तब उपरोहित कहेउ सखीं सब गावन।
चलीं लेवाइ जानकिहि भा मन भावन॥ १०६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनोरथरूपी सुन्दर कल्पवृक्षको लहलहाते देखकर नगर और आकाशमें आनन्दपूर्वक मंगल-गान और नगारोंका शब्द होने लगा॥ १०५॥ तब पुरोहित (शतानन्दजी)-ने समस्त सखियोंको गानेकी आज्ञा दी और वे [गाती हुई] श्रीजानकीजीको लिवाकर चलीं। इस प्रकार जानकीजीका मनमाना हो गया॥ १०६॥
विश्वास-प्रस्तुति
कर कमलनि जयमाल जानकी सोहइ। बरनि सकै छबि अतुलित अस कबि को हइ॥ १०७॥ सीय सनेह सकुच बस पिय तन हेरइ। सुरतरु रुख सुरबेलि पवन जनु फेरइ॥ १०८॥मूल
कर कमलनि जयमाल जानकी सोहइ।
बरनि सकै छबि अतुलित अस कबि को हइ॥ १०७॥
सीय सनेह सकुच बस पिय तन हेरइ।
सुरतरु रुख सुरबेलि पवन जनु फेरइ॥ १०८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जानकीजीके करकमलोंमें जयमाला शोभा दे रही है; भला ऐसा कौन कवि है, जो उस अतुलित छबिका वर्णन कर सके॥ १०७॥ जानकीजी प्रेम और संकोचवश प्रियतमकी ओर देखती हैं, मानो वायु कल्पलताको कल्पवृक्षकी ओर घुमा रहा है॥ १०८॥
विश्वास-प्रस्तुति
लसत ललित कर कमल माल पहिरावत। काम फंद जनु चंदहि बनज फँसावत॥ १०९॥ राम सीय छबि निरुपम निरुपम सो दिनु। सुख समाज लखि रानिन्ह आनँद छिनु-छिनु॥ ११०॥मूल
लसत ललित कर कमल माल पहिरावत।
काम फंद जनु चंदहि बनज फँसावत॥ १०९॥
राम सीय छबि निरुपम निरुपम सो दिनु।
सुख समाज लखि रानिन्ह आनँद छिनु-छिनु॥ ११०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जयमाल पहनाते समय उनके सुन्दर करकमल ऐसे सुशोभित जान पड़ते हैं मानो कमल कामदेवके फंदेमें चन्द्रमाको फँसाते हों॥ १०९॥ श्रीराम और जानकीजीकी अनुपम शोभा और वह दिन भी अनुपम था। उस सुख-समाजको देखकर रानियोंको क्षण-क्षणमें आनन्द हो रहा था॥ ११०॥
विश्वास-प्रस्तुति
प्रभुहि माल पहिराइ जानकिहि लै चलीं। सखीं मनहुँ बिधु उदय मुदित कैरव कलीं॥ १११॥ बरषहिं बिबुध प्रसून हरषि कहि जय जए। सुख सनेह भरे भुवन राम गुर पहँ गए॥ ११२॥मूल
प्रभुहि माल पहिराइ जानकिहि लै चलीं।
सखीं मनहुँ बिधु उदय मुदित कैरव कलीं॥ १११॥
बरषहिं बिबुध प्रसून हरषि कहि जय जए।
सुख सनेह भरे भुवन राम गुर पहँ गए॥ ११२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीको माला पहनाकर सखियाँ जानकीजीको लिवा चलीं; वे ऐसी प्रफुल्लित हो रही हैं जैसे चन्द्रमाका उदय होनेसे कुमुदिनीकी कलियाँ खिल उठती हैं॥ १११॥ देवता लोग आनन्दित होकर जय-जयकार करते हुए फूल बरसाते हैं। उस समय सारे भुवन सुख और स्नेहसे भर गये और श्रीरामचन्द्रजी गुरुके पास गये॥ ११२॥
विश्वास-प्रस्तुति
गए राम गुरु पहिं राउ रानी नारि-नर आनँद भरे। जनु तृषित करि करिनी निकर सीतल सुधासागर परे॥ कौसिकहि पूजि प्रसंसि आयसु पाइ नृप सुख पायऊ। लिखि लगन तिलक समाज सजि कुल गुरहि अवध पठायऊ॥ १४॥मूल
गए राम गुरु पहिं राउ रानी नारि-नर आनँद भरे।
जनु तृषित करि करिनी निकर सीतल सुधासागर परे॥
कौसिकहि पूजि प्रसंसि आयसु पाइ नृप सुख पायऊ।
लिखि लगन तिलक समाज सजि कुल गुरहि अवध पठायऊ॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी गुरुके यहाँ गये। राजा-रानी, स्त्री-पुरुष—सब उसी प्रकार आनन्दसे भर गये, मानो प्यासे हाथी-हथिनियोंका झुंड शीतल अमृत-सागरमें जा गिरा हो। कौशिकमुनिकी पूजा और प्रशंसा करके उनकी आज्ञा पा राजा सुखी हुए तथा लग्न लिखकर तिलककी सामग्री सजा अपने कुलगुरु (शतानन्दजी)-को अयोध्या भेजा॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुति
गुनि गन बोलि कहेउ नृप माँडव छावन। गावहिं गीत सुआसिनि बाज बधावन॥ ११३॥ सीय राम हित पूजहिं गौरि गनेसहि। परिजन पुरजन सहित प्रमोद नरेसहि॥ ११४॥मूल
गुनि गन बोलि कहेउ नृप माँडव छावन।
गावहिं गीत सुआसिनि बाज बधावन॥ ११३॥
सीय राम हित पूजहिं गौरि गनेसहि।
परिजन पुरजन सहित प्रमोद नरेसहि॥ ११४॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने गुणी लोगोंको बुलाकर मण्डप छानेकी आज्ञा दी। सुवासिनियाँ (सुहागिनी लड़कियाँ) गीत गाने लगीं और बधावा बजने लगा॥ ११३॥ श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजीके लिये वे गौरी और गणेशकी पूजा करती हैं। [इस प्रकार] सभी परिवारके लोगों एवं पुरजनोंके सहित राजाको परम आनन्द हो रहा है॥ ११४॥
विश्वास-प्रस्तुति
प्रथम हरदि बंदन करि मंगल गावहिं। करि कुल रीति कलस थपि तेलु चढ़ावहिं॥ ११५॥मूल
प्रथम हरदि बंदन करि मंगल गावहिं।
करि कुल रीति कलस थपि तेलु चढ़ावहिं॥ ११५॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले हरिद्रा-वन्दन करके अर्थात् हल्दी चढ़ाकर मंगल-गान करती हैं और कुलकी रीति करके कलश-स्थापन कर तेल चढ़ाती हैं॥ ११५॥