विश्वास-प्रस्तुति
राजत राज समाज जुगल रघुकुल मनि। मनहुँ सरद बिधु उभय नखत धरनी धनि॥ ४९॥ काकपच्छ सिर सुभग सरोरुह लोचन। गौर स्याम सत कोटि काम मद मोचन॥ ५०॥मूल
राजत राज समाज जुगल रघुकुल मनि।
मनहुँ सरद बिधु उभय नखत धरनी धनि॥ ४९॥
काकपच्छ सिर सुभग सरोरुह लोचन।
गौर स्याम सत कोटि काम मद मोचन॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस राजाओंकी सभामें वे दोनों रघुकुलमणि इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, मानो शरत्-कालके दो चन्द्रमा नक्षत्ररूपी राजाओंके मध्य शोभायमान हों॥ ४९॥ उनके मस्तकपर सुन्दर काकपक्ष (जुल्फें) हैं और नेत्र कमलके समान हैं तथा उनकी श्याम-गौर मूर्ति सैकड़ों, करोड़ों कामदेवोंके मदका नाश करनेवाली है॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुति
तिलकु ललित सर भ्रुकुटी काम कमानै। श्रवन बिभूषन रुचिर देखि मन मानै॥ ५१॥ नासा चिबुक कपोल अधर रद सुंदर। बदन सरद बिधु निंदक सहज मनोहर॥ ५२॥मूल
तिलकु ललित सर भ्रुकुटी काम कमानै।
श्रवन बिभूषन रुचिर देखि मन मानै॥ ५१॥
नासा चिबुक कपोल अधर रद सुंदर।
बदन सरद बिधु निंदक सहज मनोहर॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी भ्रुकुटिरूप कामदेवकी कमानपर सुन्दर तिलक बाणके समान सुशोभित है। उनके सुन्दर कर्णभूषण देखकर मन प्रसन्न हो जाता है॥ ५१॥ उनकी नाक, ठोड़ी, कपोल, होठ और दाँत सुन्दर हैं तथा शरत्-कालके चन्द्रमाकी निन्दा करनेवाला उनका मुख स्वभावसे ही मनको हरनेवाला है॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुति
उर बिसाल बृष कंध सुभग भुज अतिबल। पीत बसन उपबीत कंठ मुकुता फल॥ ५३॥ कटि निषंग कर कमलन्हि धरें धनु-सायक। सकल अंग मन मोहन जोहन लायक॥ ५४॥मूल
उर बिसाल बृष कंध सुभग भुज अतिबल।
पीत बसन उपबीत कंठ मुकुता फल॥ ५३॥
कटि निषंग कर कमलन्हि धरें धनु-सायक।
सकल अंग मन मोहन जोहन लायक॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका वक्षःस्थल विशाल है, कंधे वृषभके टिलेके समान सुन्दर हैं और भुजाएँ अति बलवान् हैं। वे पीताम्बर और जनेऊ धारण किये हुए हैं तथा उनके गलेमें मोतियोंका हार सुशोभित है॥ ५३॥ वे कमरमें तरकस और करकमलोंमें धनुष-बाण धारण किये हैं। इस प्रकार उनके सभी अंग मनको मोहनेवाले और दर्शनीय हैं॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुति
राम-लखन-छबि देखि मगन भए पुरजन। उर अनंद जल लोचन प्रेम पुलक तन॥ ५५॥ नारि परस्पर कहहिं देखि दोउ भाइन्ह। लहेउ जनम फल आजु जनमि जग आइन्ह॥ ५६॥मूल
राम-लखन-छबि देखि मगन भए पुरजन।
उर अनंद जल लोचन प्रेम पुलक तन॥ ५५॥
नारि परस्पर कहहिं देखि दोउ भाइन्ह।
लहेउ जनम फल आजु जनमि जग आइन्ह॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीकी शोभाको देख पुरजन आनन्दित हो गये। उनके हृदयमें आनन्द, नेत्रोंमें जल और शरीरमें प्रेमजनित रोमांच हो आया॥ ५५॥ दोनों भाइयोंको देखकर स्त्रियाँ आपसमें कहती हैं कि ‘हम जो जगत् में जन्म लेकर आयी थीं सो आज हमें जन्मका फल प्राप्त हुआ’॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुति
जग जनमि लोयन लाहु पाए सकल सिवहि मनावहीं। बरु मिलौ सीतहि साँवरो हम हरषि मंगल गावहीं॥ एक कहहिं कुँवरु किसोर कुलिस कठोर सिव धनु है महा। किमि लेहिं बाल मराल मंदर नृपहि अस काहुँ न कहा॥ ७॥मूल
जग जनमि लोयन लाहु पाए सकल सिवहि मनावहीं।
बरु मिलौ सीतहि साँवरो हम हरषि मंगल गावहीं॥
एक कहहिं कुँवरु किसोर कुलिस कठोर सिव धनु है महा।
किमि लेहिं बाल मराल मंदर नृपहि अस काहुँ न कहा॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमने जगत् में जन्म लेकर नेत्रोंका लाभ पाया।’ यों कहकर सब शिवजीसे मनाती हैं कि सीताको साँवला वर मिले और हमलोग हर्षित होकर मंगल गावें। कोई कहती हैं कि ‘कुँवर बालक हैं और शिवजीका धनुष वज्रके समान अत्यन्त कठोर है। राजासे यह बात किसीने नहीं कही कि हंसके बच्चे पर्वत किस प्रकार उठायेंगे’॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुति
भे निरास सब भूप बिलोकत रामहि। पन परिहरि सिय देब जनक बरु स्यामहि॥ ५७॥ कहहिं एक भलि बात ब्याहु भल होइहि। बर दुलहिनि लगि जनक अपनपन खोइहि॥ ५८॥मूल
भे निरास सब भूप बिलोकत रामहि।
पन परिहरि सिय देब जनक बरु स्यामहि॥ ५७॥
कहहिं एक भलि बात ब्याहु भल होइहि।
बर दुलहिनि लगि जनक अपनपन खोइहि॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सब राजा निराश हो गये कि अब तो राजा जनक शर्त त्यागकर जानकीको साँवले वरके साथ ही ब्याह देंगे॥ ५७॥ कोई कहते हैं—‘अच्छी बात है, विवाह अच्छा होगा, यदि वर और दुलहिनके लिये जनक अपनी शर्त छोड़ देंगे’॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुति
सुचि सुजान नृप कहहिं हमहि अस सूझई। तेज प्रताप रूप जहँ तहँ बल बूझई॥ ५९॥ चितइ न सकहु राम तन गाल बजावहु। बिधि बस बलउ लजान सुमति न लजावहु॥ ६०॥मूल
सुचि सुजान नृप कहहिं हमहि अस सूझई।
तेज प्रताप रूप जहँ तहँ बल बूझई॥ ५९॥
चितइ न सकहु राम तन गाल बजावहु।
बिधि बस बलउ लजान सुमति न लजावहु॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुद्ध हृदयके ज्ञानवान् राजालोग कहने लगे—हमको तो ऐसा जान पड़ता है कि जहाँ तेज, प्रताप और सुन्दरता होती है, वहीं बल भी जान पड़ता है॥ ५९॥ देखो, तुम श्रीरामचन्द्रजीकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते, बेमतलब गाल बजाते हो। प्रारब्धवश तुमलोगोंका बल तो लजा ही गया, अब व्यर्थ अपनी सुबुद्धिको मत लजाओ॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुति
अवसि राम के उठत सरासन टूटिहि। गवनहिं राजसमाज नाक अस फूटिहि॥ ६१॥ कस न पिअहु भरि लोचन रूप सुधा रसु। करहु कृतारथ जन्म होहु कत नर पसु॥ ६२॥मूल
अवसि राम के उठत सरासन टूटिहि।
गवनहिं राजसमाज नाक अस फूटिहि॥ ६१॥
कस न पिअहु भरि लोचन रूप सुधा रसु।
करहु कृतारथ जन्म होहु कत नर पसु॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीके उठते ही धनुष अवश्य टूट जायगा और नाक फूटनेपर जैसे समाजसे उठ जाना पड़ता है, वैसे ही सारे राजसमाजको चला जाना पड़ेगा॥ ६१॥ ‘तुमलोग श्रीरामचन्द्रजीके अमृतमय रूपरसको नेत्र भरकर क्यों नहीं पीते? अपने जन्मको कृतार्थ कर लो। नर-पशु क्यों बनते हो?’॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुति
दुहु दिसि राजकुमार बिराजत मुनिबर। नील पीत पाथोज बीच जनु दिनकर॥ ६३॥ काकपच्छ रिषि परसत पानि सरोजनि। लाल कमल जनु लालत बाल मनोजनि॥ ६४॥मूल
दुहु दिसि राजकुमार बिराजत मुनिबर।
नील पीत पाथोज बीच जनु दिनकर॥ ६३॥
काकपच्छ रिषि परसत पानि सरोजनि।
लाल कमल जनु लालत बाल मनोजनि॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिवर विश्वामित्रके दोनों ओर दोनों राजकुमार वैसे ही सुशोभित हो रहे हैं जैसे नीले और पीले कमलके बीचमें सूर्य हों॥ ६३॥ मुनिवर अपने करकमलोंसे उनकी अलकोंका स्पर्श करते हैं, जिससे ऐसा जान पड़ता है, मानो अरुण कमल बालक कामदेवोंका लालन करते हों॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुति
मनसिज मनोहर मधुर मूरति कस न सादर जोवहू। बिनु काज राज समाज महुँ तजि लाज आपु बिगोवहू॥ सिष देइ भूपति साधु भूप अनूप छबि देखन लगे। रघुबंस कैरव चंद चितइ चकोर जिमि लोचन लगे॥ ८॥मूल
मनसिज मनोहर मधुर मूरति कस न सादर जोवहू।
बिनु काज राज समाज महुँ तजि लाज आपु बिगोवहू॥
सिष देइ भूपति साधु भूप अनूप छबि देखन लगे।
रघुबंस कैरव चंद चितइ चकोर जिमि लोचन लगे॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे, कामदेवके भी मनको चुरानेवाली इन मधुर मूर्तियोंको तुम सादर क्यों नहीं निहारते? तुम बिना ही प्रयोजन इस राजसमाजमें लज्जा त्यागकर अपनेको नष्ट करते हो!’ राजाओंको ऐसी शिक्षा देकर वे साधुस्वभाव नृपतिगण उनकी अनुपम छबि निरखने लगे। उस समय रघुकुल-कुमुदचन्द्र श्रीरामजीको देखकर चकोरके समान उनके नेत्र चन्द्रमाको देखनेवाले चकोर पक्षीके समान ठग गये अर्थात् उन्हींकी ओर लगे रह गये॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुति
पुर नर नारि निहारहिं रघुकुल दीपहि। दोषु नेहबस देहिं बिदेह महीपहि॥ ६५॥ एक कहहिं भल भूप देहु जनि दूषन। नृप न सोह बिनु बचन नाक बिनु भूषन॥ ६६॥मूल
पुर नर नारि निहारहिं रघुकुल दीपहि।
दोषु नेहबस देहिं बिदेह महीपहि॥ ६५॥
एक कहहिं भल भूप देहु जनि दूषन।
नृप न सोह बिनु बचन नाक बिनु भूषन॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
नगरके स्त्री-पुरुष रघुकुलके दीपक श्रीरामचन्द्रजीको देखते हैं और प्रेमवश महाराज जनकको दोष देते हैं॥ ६५॥ कोई कहते हैं—‘महाराज तो बड़े अच्छे हैं, उन्हें दोष मत दो, देखो, वचनके बिना राजा और भूषणके बिना नाक भले नहीं होते॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुति
हमरें जान जनेस बहुत भल कीन्हेउ। पन मिस लोचन लाहु सबन्हि कहँ दीन्हेउ॥ ६७॥ अस सुकृती नरनाहु जो मन अभिलाषिहि। सो पुरइहिं जगदीस परज पन राखिहि॥ ६८॥मूल
हमरें जान जनेस बहुत भल कीन्हेउ।
पन मिस लोचन लाहु सबन्हि कहँ दीन्हेउ॥ ६७॥
अस सुकृती नरनाहु जो मन अभिलाषिहि।
सो पुरइहिं जगदीस परज पन राखिहि॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमारी समझमें तो राजाने बहुत अच्छा किया जो अपनी शर्तके बहाने हम सबको नेत्रोंका फल दिया॥ ६७॥ ऐसे पुण्यात्मा राजा मनमें जो अभिलाषा करेंगे, उसीको जगदीश्वर पूरा कर देंगे और उनकी प्रतिज्ञा एवं शर्तकी रक्षा करेंगे॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुति
प्रथम सुनत जो राउ राम गुन-रूपहि। बोलि ब्याहि सिय देत दोष नहिं भूपहि॥ ६९॥ अब करि पइज पंच महँ जो पन त्यागै। बिधि गति जानि न जाइ अजसु जग जागै॥ ७०॥मूल
प्रथम सुनत जो राउ राम गुन-रूपहि।
बोलि ब्याहि सिय देत दोष नहिं भूपहि॥ ६९॥
अब करि पइज पंच महँ जो पन त्यागै।
बिधि गति जानि न जाइ अजसु जग जागै॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि महाराज [शर्त करनेसे] पहले श्रीरामचन्द्रजीका रूप और गुण सुन लेते तो इन्हें बुलाकर जानकीजीको ब्याह देते। उस समय ऐसा करनेमें महाराजको कोई दोष स्पर्श नहीं करता॥ ६९॥ किंतु अब प्रण करके यदि वे पंचोंमें (जनसमुदायमें) अपना प्रण त्यागते हैं तो विधाताकी गति तो जानी नहीं जाती, किंतु संसारमें तो उनका अपयश फैल ही जायगा॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुति
अजहुँ अवसि रघुनंदन चाप चढ़ाउब। ब्याह उछाह सुमंगल त्रिभुवन गाउब॥ ७१॥ लागि झरोखन्ह झाँकहिं भूपति भामिनि। कहत बचन रद लसहिं दमक जनु दामिनि॥ ७२॥मूल
अजहुँ अवसि रघुनंदन चाप चढ़ाउब।
ब्याह उछाह सुमंगल त्रिभुवन गाउब॥ ७१॥
लागि झरोखन्ह झाँकहिं भूपति भामिनि।
कहत बचन रद लसहिं दमक जनु दामिनि॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब भी श्रीरामचन्द्रजी अवश्य धनुष चढ़ायेंगे और उनके विवाहोत्सवमें त्रिलोकी मंगलगान करेगी’॥ ७१॥ इस समय राजमहिलाएँ झरोखोंसे लगकर झाँक रही हैं और बात करते समय उनके दाँत इस प्रकार चमक रहे हैं, जैसे बिजली॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुति
जनु दमक दामिनि रूप रति मद निदरि सुंदरि सोहहीं। मुनि ढिग देखाए सखिन्ह कुँवर बिलोकि छबि मन मोहहीं॥ सिय मातु हरषी निरखि सुषमा अति अलौकिक रामकी। हिय कहति कहँ धनु कुँअर कहँ बिपरीत गति बिधि बाम की॥ ९॥मूल
जनु दमक दामिनि रूप रति मद निदरि सुंदरि सोहहीं।
मुनि ढिग देखाए सखिन्ह कुँवर बिलोकि छबि मन मोहहीं॥
सिय मातु हरषी निरखि सुषमा अति अलौकिक रामकी।
हिय कहति कहँ धनु कुँअर कहँ बिपरीत गति बिधि बाम की॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
[उनके दाँत ऐसे जान पड़ते हैं] मानो बिजली चमक रही हो। वे कामिनियाँ अपने रूपसे रतिके मदका निरादर करती हुई शोभा पा रही हैं। [सखियोंने सुनयनाजीको] मुनिके समीप दोनों कुमारोंको दिखलाया। उनकी छबि देख उनका मन मोहित हो गया। श्रीरामचन्द्रजीकी अत्यन्त अलौकिक शोभाको देख जानकीजीकी माता प्रसन्न हुईं और मन-ही-मन कहने लगीं कि ‘कहाँ धनुष और कहाँ ये कुमार? वाम विधाताकी गति बड़ी विपरीत है’॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुति
कहि प्रिय बचन सखिन्ह सन रानि बिसूरति। कहाँ कठिन सिव धनुष कहाँ मृदु मूरति॥ ७३॥ जौं बिधि लोचन अतिथि करत नहिं रामहि। तौ कोउ नृपहि न देत दोषु परिनामहि॥ ७४॥मूल
कहि प्रिय बचन सखिन्ह सन रानि बिसूरति।
कहाँ कठिन सिव धनुष कहाँ मृदु मूरति॥ ७३॥
जौं बिधि लोचन अतिथि करत नहिं रामहि।
तौ कोउ नृपहि न देत दोषु परिनामहि॥ ७४॥
अनुवाद (हिन्दी)
सखियोंसे प्रिय वचन कहकर रानी सोचने लगीं कि कहाँ शिवजीका (कठोर) धनुष और कहाँ यह सुकुमार मूर्ति॥ ७३॥ यदि विधाता श्रीरामचन्द्रजीको हमारे नेत्रोंका अतिथि न बनाता तो अन्तमें राजाका कोई दोष न देता॥ ७४॥
विश्वास-प्रस्तुति
अब असमंजस भयउ न कछु कहि आवै। रानिहि जानि ससोच सखी समझावै॥ ७५॥ देबि सोच परिहरिय हरष हियँ आनिय। चाप चढ़ाउब राम बचन फुर मानिय॥ ७६॥मूल
अब असमंजस भयउ न कछु कहि आवै।
रानिहि जानि ससोच सखी समझावै॥ ७५॥
देबि सोच परिहरिय हरष हियँ आनिय।
चाप चढ़ाउब राम बचन फुर मानिय॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब तो असमंजसकी बात हो गयी, कुछ कहते नहीं बनता।’ इस प्रकार रानीको सोचवश जानकर सखियाँ समझाने लगीं—‘हे देवि! सोचको त्याग दीजिये। हृदयमें आनन्द मनाइये। यह वचन सत्य मानिये कि धनुषको श्रीरामचन्द्रजी ही चढ़ायेंगे॥ ७५-७६॥
विश्वास-प्रस्तुति
तीनि काल को ग्यान कौसिकहि करतल। सो कि स्वयंबर आनिहिं बालक बिनु बल॥ ७७॥ मुनि महिमा सुनि रानिहि धीरजु आयउ। तब सुबाहु सूदन जसु सखिन्ह सुनायउ॥ ७८॥मूल
तीनि काल को ग्यान कौसिकहि करतल।
सो कि स्वयंबर आनिहिं बालक बिनु बल॥ ७७॥
मुनि महिमा सुनि रानिहि धीरजु आयउ।
तब सुबाहु सूदन जसु सखिन्ह सुनायउ॥ ७८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कौसिक मुनिको तीनों कालका ज्ञान करतलगत है, क्या वे बिना किसी बलके इन बालकोंको स्वयंवरमें लाते?’॥ ७७॥ मुनिकी महिमा सुनकर रानीको धैर्य हुआ। तब सखियोंने रानीको सुबाहुका वध करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका यश सुनाया॥ ७८॥
विश्वास-प्रस्तुति
सुनि जिय भयउ भरोस रानि हिय हरषइ। बहुरि निरखि रघुबरहि प्रेम मन करषइ॥ ७९॥ नृप रानी पुर लोग राम तन चितवहिं। मंजु मनोरथ कलस भरहिं अरु रितवहिं॥ ८०॥मूल
सुनि जिय भयउ भरोस रानि हिय हरषइ।
बहुरि निरखि रघुबरहि प्रेम मन करषइ॥ ७९॥
नृप रानी पुर लोग राम तन चितवहिं।
मंजु मनोरथ कलस भरहिं अरु रितवहिं॥ ८०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर रानीके जीमें भरोसा आया और वे हर्षित हो गयीं। फिर उन्होंने रघुनाथजीकी ओर देखा, इससे उनका मन प्रेमसे आकर्षित हो गया॥ ७९॥ राजा, रानी और पुरवासीलोग श्रीरामचन्द्रजीकी ओर देख रहे हैं। वे बार-बार मनोहर मनोरथरूपी कलश भरते हैं और उसे खाली कर देते हैं (अर्थात् आशा और निराशाके झूलेमें झूल रहे हैं)॥ ८०॥
विश्वास-प्रस्तुति
रितवहिं भरहिं धनु निरखि छिनु-छिनु निरखि रामहि सोचहीं। नर नारि हरष बिषाद बस हिय सकल सिवहिं सकोचहीं॥ तब जनक आयसु पाइ कुलगुर जानकिहि लै आयऊ। सिय रूप रासि निहारि लोचन लाहु लोगन्हि पायऊ॥ १०॥मूल
रितवहिं भरहिं धनु निरखि छिनु-छिनु निरखि रामहि सोचहीं।
नर नारि हरष बिषाद बस हिय सकल सिवहिं सकोचहीं॥
तब जनक आयसु पाइ कुलगुर जानकिहि लै आयऊ।
सिय रूप रासि निहारि लोचन लाहु लोगन्हि पायऊ॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुषको देखकर वे क्षण-क्षणमें मनोरथरूपी कलशको भरते और खाली करते हैं और श्रीरामचद्रजीको देखकर सोच करते हैं; समस्त स्त्री-पुरुष हर्ष और विषादवश हृदयमें शिवजीको संकुचित करते हैं (अर्थात् प्रार्थना करके उनसे यह मनाते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी उन्हींका धनुष तोड़नेमें समर्थ हों) तब महाराज जनककी आज्ञा पाकर कुलगुरु शतानन्दजी जानकीजीको ले आये। उस समय रूपराशि श्रीजानकीजीको देखकर सब लोगोंने नेत्रोंका फल पाया॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुति
मंगल भूषन बसन मंजु तन सोहहिं। देखि मूढ महिपाल मोह बस मोहहिं॥ ८१॥ रूप रासि जेहि ओर सुभायँ निहारइ। नील कमल सर श्रेनि मयन जनु डारइ॥ ८२॥मूल
मंगल भूषन बसन मंजु तन सोहहिं।
देखि मूढ महिपाल मोह बस मोहहिं॥ ८१॥
रूप रासि जेहि ओर सुभायँ निहारइ।
नील कमल सर श्रेनि मयन जनु डारइ॥ ८२॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीजानकीजीके सुन्दर शरीरमें मंगलमय (विवाहोचित) वस्त्र और आभूषण सुशोभित हैं। उन्हें देखकर मूर्ख राजालोग मोहवश मोहित हो जाते हैं॥ ८१॥ रूपकी राशि श्रीजानकीजी जिस ओर स्वभावसे ही निहारती हैं, उसी ओर मानो कामदेव नील कमलके बाणोंकी झड़ी लगा देता है॥ ८२॥
विश्वास-प्रस्तुति
छिनु सीतहि छिनु रामहि पुरजन देखहिं। रूप सील बय बंस बिसेष बिसेषहिं॥ ८३॥ राम दीख जब सीय सीय रघुनायक। दोउ तन तकि तकि मयन सुधारत सायक॥ ८४॥मूल
छिनु सीतहि छिनु रामहि पुरजन देखहिं।
रूप सील बय बंस बिसेष बिसेषहिं॥ ८३॥
राम दीख जब सीय सीय रघुनायक।
दोउ तन तकि तकि मयन सुधारत सायक॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरवासीलोग एक क्षण जानकीजीको और दूसरे क्षण श्रीरामचन्द्रजीको निहारते हैं। वे उनके रूप, शील, अवस्था और वंशकी विशेषताका विशेषरूपसे वर्णन करते हैं॥ ८३॥ जब श्रीरामचन्द्रजीको जानकीजीने और जानकीजीको श्रीरामचन्द्रजीने देखा, तब दोनोंकी ओर देख-देखकर कामदेव अपने बाण सुधारने लगा॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुति
प्रेम प्रमोद परस्पर प्रगटत गोपहिं। जनु हिरदय गुन ग्राम थूनि थिर रोपहिं॥ ८५॥ राम सीय बय समौ सुभाय सुहावन। नृप जोबन छबि पुरइ चहत जनु आवन॥ ८६॥मूल
प्रेम प्रमोद परस्पर प्रगटत गोपहिं।
जनु हिरदय गुन ग्राम थूनि थिर रोपहिं॥ ८५॥
राम सीय बय समौ सुभाय सुहावन।
नृप जोबन छबि पुरइ चहत जनु आवन॥ ८६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजी परस्पर प्रकट होते हुए प्रेमानन्दको छिपाते हैं, मानो वे अपने हृदयमें एक-दूसरेके गुण-गणरूपी स्तम्भको स्थिरतापूर्वक गाड़ते हैं॥ ८५॥ श्रीरामचन्द्रजी और जानकीजीकी अवस्थाका समय भी स्वभावसे ही शोभायमान है, मानो इस समय यौवनरूपी राजा छबिरूपी नगरीमें प्रवेश करना चाहता है॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुति
सो छबि जाइ न बरनि देखि मनु मानै। सुधा पान करि मूक कि स्वाद बखानै॥ ८७॥ तब बिदेह पन बंदिन्ह प्रगट सुनायउ। उठे भूप आमरषि सगुन नहिं पायउ॥ ८८॥मूल
सो छबि जाइ न बरनि देखि मनु मानै।
सुधा पान करि मूक कि स्वाद बखानै॥ ८७॥
तब बिदेह पन बंदिन्ह प्रगट सुनायउ।
उठे भूप आमरषि सगुन नहिं पायउ॥ ८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस शोभाका वर्णन नहीं किया जा सकता; उसे तो देखनेसे ही मन प्रसन्न होता है। क्या गूँगा अमृत-पान करके उसके स्वादको कह सकता है?॥ ८७॥ तब बंदीजनोंने महाराज जनककी शर्तको स्पष्ट करके सुनाया। उसे सुनकर राजालोग जोशमें आकर उठे, परंतु कोई शकुन नहीं बना॥ ८८॥
विश्वास-प्रस्तुति
नहि सगुन पायउ रहे मिसु करि एक धनु देखन गए। टकटोरि कपि ज्यों नारियरु, सिरु नाइ सब बैठत भए॥ एक करहिं दाप, न चाप सज्जन बचन जिमि टारें टरै। नृप नहुष ज्यों सब कें बिलोकत बुद्धि बल बरबस हरै॥ ११॥मूल
नहि सगुन पायउ रहे मिसु करि एक धनु देखन गए।
टकटोरि कपि ज्यों नारियरु, सिरु नाइ सब बैठत भए॥
एक करहिं दाप, न चाप सज्जन बचन जिमि टारें टरै।
नृप नहुष ज्यों सब कें बिलोकत बुद्धि बल बरबस हरै॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजाओंको शुभ शकुन नहीं मिला, तब वे बहाना बनाकर बैठ गये। उनमेंसे कोई धनुष देखनेके लिये गये और जैसे बंदर नारियलको टटोलकर छोड़ देता है, वैसे ही वे सब धनुषको टटोलकर सिर नीचा करके बैठ गये। कोई-कोई बड़े जोशमें आते हैं, परंतु सत्पुरुषोंके वचनोंके समान धनुष टाले नहीं टलता। इस प्रकार राजा नहुषके समान* उनके बुद्धि और बल सबके देखते-देखते बरबस क्षीण हो गये॥ ११॥
पादटिप्पनी
- जब अपने पुण्यके प्रतापसे राजा नहुषको इन्द्रपद प्राप्त हुआ, तब उसके मदमें उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। उन्होंने इन्द्राणीको भोगनेकी इच्छा प्रकट की और उसका संदेश पाकर ऋषियोंको शिविकामें जोड़कर चले। उनमें इस प्रकारके अनौचित्यका विचार करनेकी भी बुद्धि न रही। अन्तमें अगस्त्य ऋषिके शापसे वे तत्काल अजगर हो गये।