विश्वास-प्रस्तुति
गाधि सुवन तेहि अवसर अवध सिधायउ। नृपति कीन्ह सनमान भवन लै आयउ॥ १५॥ पूजि पहुनई कीन्ह पाइ प्रिय पाहुन। कहेउ भूप मोहि सरिस सुकृत किए काहु न॥ १६॥मूल
गाधि सुवन तेहि अवसर अवध सिधायउ।
नृपति कीन्ह सनमान भवन लै आयउ॥ १५॥
पूजि पहुनई कीन्ह पाइ प्रिय पाहुन।
कहेउ भूप मोहि सरिस सुकृत किए काहु न॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय विश्वामित्रजी अयोध्यापुरी गये। महाराजने उनका बड़ा आदर किया और उन्हें घर ले आये॥ १५॥ अपने प्रिय पाहुनेको पाकर राजा दशरथने उनकी पूजा करके खूब पहुनाई की और कहा कि ‘हमारे समान किसीने पुण्य नहीं किया’ (जिसके प्रभावसे हमें आपका दर्शन हुआ)॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुति
काहूँ न कीन्हेउ सुकृत सुनि मुनि मुदित नृपहि बखानहीं। महिपाल मुनि को मिलन सुख महिपाल मुनि मन जानहीं॥ अनुराग भाग सोहाग सील सरूप बहु भूषन भरीं। हिय हरषि सुतन्ह समेत रानीं आइ रिषि पायन्ह परीं॥ २॥मूल
काहूँ न कीन्हेउ सुकृत सुनि मुनि मुदित नृपहि बखानहीं।
महिपाल मुनि को मिलन सुख महिपाल मुनि मन जानहीं॥
अनुराग भाग सोहाग सील सरूप बहु भूषन भरीं।
हिय हरषि सुतन्ह समेत रानीं आइ रिषि पायन्ह परीं॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराजने कहा कि ‘हमारे समान किसीने पुण्य नहीं किया।’ यह बात सुनकर मुनिने प्रसन्न हो महाराजकी बड़ाई की। उस समय महाराज और मुनिके मिलन-सुखको महाराज और मुनिका मन ही जानता था। प्रेम, भाग्य, सौभाग्य, शील, सुन्दरता और बहुत-से आभूषणोंसे भरी हुई रानियाँ हृदयसे आनन्दित हो अपने पुत्रोंसहित ऋषिके पैरोंपर पड़ीं॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुति
कौसिक दीन्हि असीस सकल प्रमुदित भईं। सींचीं मनहुँ सुधा रस कलप लता नईं॥ १७॥ रामहि भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ। नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेउ॥ १८॥मूल
कौसिक दीन्हि असीस सकल प्रमुदित भईं।
सींचीं मनहुँ सुधा रस कलप लता नईं॥ १७॥
रामहि भाइन्ह सहित जबहिं मुनि जोहेउ।
नैन नीर तन पुलक रूप मन मोहेउ॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्रजीने उन्हें आशीर्वाद दिया। इससे वे सब अत्यन्त प्रसन्न हुईं, मानो उन्होंने नवीन कल्पलताओंको अमृतरससे सींच दिया हो॥ १७॥ जिस समय मुनिने भाइयोंके सहित श्रीरामचन्द्रजीको देखा, तब उनके नेत्रोंमें जल भर आया, शरीर पुलकित हो गया और मन मोहित हो गया॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुति
परसि कमल कर सीस हरषि हियँ लावहिं। प्रेम पयोधि मगन मुनि पार न पावहिं॥ १९॥ मधुर मनोहर मूरति सादर चाहहिं। बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं॥ २०॥मूल
परसि कमल कर सीस हरषि हियँ लावहिं।
प्रेम पयोधि मगन मुनि पार न पावहिं॥ १९॥
मधुर मनोहर मूरति सादर चाहहिं।
बार बार दसरथके सुकृत सराहहिं॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने करकमलसे श्रीरामचन्द्रजीके मस्तकका स्पर्श करते हैं और हर्षित होकर उन्हें हृदयसे लगाते हैं। इस समय मुनिवर प्रेम-सागरमें डूब जाते हैं। उसकी थाह नहीं पाते॥ १९॥ वे आदरपूर्वक उनकी मधुर-मनोहर मूर्तिको देख रहे हैं और बार-बार महाराज दशरथके पुण्यकी सराहना करते हैं॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुति
राउ कहेउ कर जोर सुबचन सुहावन। भयउ कृतारथ आजु देखि पद पावन॥ २१॥ तुम्ह प्रभु पूरन काम चारि फलदायक। तेहिं तें बूझत काजु डरौं मुनिनायक॥ २२॥मूल
राउ कहेउ कर जोर सुबचन सुहावन।
भयउ कृतारथ आजु देखि पद पावन॥ २१॥
तुम्ह प्रभु पूरन काम चारि फलदायक।
तेहिं तें बूझत काजु डरौं मुनिनायक॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महाराजने हाथ जोड़कर सुन्दर सुहावने शब्दोंमें कहा—‘आज आपके पवित्र चरणोंको देखकर मैं कृतार्थ हो गया’॥ २१॥ हे प्रभु! आप पूर्णकाम हैं और चारों फल (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष)-के देनेवाले हैं, इसीसे हे मुनिनायक! मैं आपसे कोई सेवा पूछते हुए डरता हूँ॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुति
कौसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहि। धर्म कथा कहि कहेउ गयउ जेहि काजहि॥ २३॥ जबहिं मुनीस महीसहि काजु सुनायउ। भयउ सनेह सत्य बस उतरु न आयउ॥ २४॥मूल
कौसिक सुनि नृप बचन सराहेउ राजहि।
धर्म कथा कहि कहेउ गयउ जेहि काजहि॥ २३॥
जबहिं मुनीस महीसहि काजु सुनायउ।
भयउ सनेह सत्य बस उतरु न आयउ॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौशिकमुनिने राजाका वचन सुन उनकी प्रशंसा की और धर्मकथा कहकर जिस कामके लिये गये थे, वह कहा॥ २३॥ जब मुनीश्वरने महाराजको अपना कार्य सुनाया, तब महाराज स्नेह और सत्यके बन्धनसे जडीभूत हो गये, उनसे कुछ भी उत्तर देते न बना॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुति
आयउ न उतरु बसिष्ठ लखि बहु भाँति नृप समझायऊ। कहि गाधिसुत तप तेज कछु रघुपति प्रभाउ जनायऊ॥ धीरज धरेउ सुर बचन सुनि कर जोरि कह कोसल धनी। करुना निधान सुजान प्रभु सो उचित नहिं बिनती घनी॥ ३॥मूल
आयउ न उतरु बसिष्ठ लखि बहु भाँति नृप समझायऊ।
कहि गाधिसुत तप तेज कछु रघुपति प्रभाउ जनायऊ॥
धीरज धरेउ सुर बचन सुनि कर जोरि कह कोसल धनी।
करुना निधान सुजान प्रभु सो उचित नहिं बिनती घनी॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराजसे उत्तर देते नहीं बनता—यह देखकर वसिष्ठजीने अनेक प्रकारसे राजाको समझाया। उन्होंने इधर तो विश्वामित्रजीके तप और तेजका वर्णन किया और उधर कुछ श्रीरामचन्द्रजीका प्रभाव समझाया। गुरुजीके वचन सुनकर महाराजने धैर्य धारण किया और फिर कोसलेश्वर महाराज दशरथने हाथ जोड़कर कहा—‘प्रभो! आप दयासागर और सारी परिस्थितिसे अभिज्ञ हैं; अतः आपके सामने बहुत विनय करना उचित नहीं है॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुति
नाथ मोहि बालकन्ह सहित पुर परिजन। राखनिहार तुम्हार अनुग्रह घर बन॥ २५॥ दीन बचन बहु भाँति भूप मुनि सन कहे। सौंपि राम अरु लखन पाय पंकज गहे॥ २६॥मूल
नाथ मोहि बालकन्ह सहित पुर परिजन।
राखनिहार तुम्हार अनुग्रह घर बन॥ २५॥
दीन बचन बहु भाँति भूप मुनि सन कहे।
सौंपि राम अरु लखन पाय पंकज गहे॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे नाथ! घर और वनमें नगर और नगरवासियोंके सहित मेरी और इन बालकोंकी रक्षा करनेवाली तो आपकी कृपा ही है’॥ २५॥ इस प्रकार महाराजने मुनिसे अनेक प्रकारके दीन वचन कहे और श्रीरामचन्द्र एवं लक्ष्मणजीको उन्हें सौंपकर उनके चरण-कमल पकड़ लिये॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुति
पाइ मातु पितु आयसु गुरु पायन्ह परे। कटि निषंग पट पीत करनि सर धनु धरे॥ २७॥ पुरबासी नृप रानिन्ह संग दिये मन। बेगि फिरेउ करि काजु कुसल रघुनंदन॥ २८॥मूल
पाइ मातु पितु आयसु गुरु पायन्ह परे।
कटि निषंग पट पीत करनि सर धनु धरे॥ २७॥
पुरबासी नृप रानिन्ह संग दिये मन।
बेगि फिरेउ करि काजु कुसल रघुनंदन॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता-पिताकी आज्ञा पाकर श्रीराम और लक्ष्मणजी कमरमें तरकस और पीताम्बर तथा हाथोंमें धनुष और बाण लिये गुरुके चरणोंपर गिरे॥ २७॥ पुरवासी, राजा और रानियोंने अपने मनको श्रीरामचन्द्रजीके साथ कर दिया और कहने लगे—‘हे रघुनन्दन! मुनिवरका कार्य करके कुशलपूर्वक शीघ्र ही लौट आना’॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुति
ईस मनाइ असीसहिं जय जसु पावहु। न्हात खसै जनि बार गहरु जनि लावहु॥ २९॥ चलत सकल पुर लोग बियोग बिकल भए। सानुज भरत सप्रेम राम पायन्ह नए॥ ३०॥मूल
ईस मनाइ असीसहिं जय जसु पावहु।
न्हात खसै जनि बार गहरु जनि लावहु॥ २९॥
चलत सकल पुर लोग बियोग बिकल भए।
सानुज भरत सप्रेम राम पायन्ह नए॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब शिवजीको मनाकर राम-लक्ष्मणको आशीर्वाद देते हैं कि ‘तुम विजय और यश प्राप्त करो, नहानेमें भी तुम्हारा केश न गिरे (अर्थात् तुम्हें किसी भी अवस्थामें किसी प्रकारका कष्ट न हो) और देखो, आनेमें देरी न करना’॥ २९॥ उनके चलते समय सकल पुरवासी वियोगसे विह्वल हो गये और छोटे भाई शत्रुघ्नके सहित भरतजीने श्रीरामचन्द्रके चरणोंमें प्रणाम किया॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुति
होहिं सगुन सुभ मंगल जनु कहि दीन्हेउ। राम लखन मुनि साथ गवन तब कीन्हेउ॥ ३१॥ स्यामल गौर किसोर मनोहरता निधि। सुषमा सकल सकेलि मनहुँ बिरचे बिधि॥ ३२॥मूल
होहिं सगुन सुभ मंगल जनु कहि दीन्हेउ।
राम लखन मुनि साथ गवन तब कीन्हेउ॥ ३१॥
स्यामल गौर किसोर मनोहरता निधि।
सुषमा सकल सकेलि मनहुँ बिरचे बिधि॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तरह-तरहके शुभ शकुन होने लगे, मानो उन्होंने भावी मंगलकी सूचना दे दी। तब श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीने विश्वामित्र मुनिके साथ प्रस्थान किया॥ ३१॥ वे क्रमशः श्याम और गौर तथा किशोर अवस्थावाले हैं और दोनों ही मानो मनोहरताके भंडार हैं। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजीने सारी शोभाको बटोरकर ही इन्हें रचा है॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुति
बिरचे बिरंचि बनाइ बाँची रुचिरता रंचौ नहीं। दस चारि भुवन निहारि देखि बिचारि नहिं उपमा कहीं॥ रिषि संग सोहत जात मग छबि बसत सो तुलसी हिएँ। कियो गवन जनु दिननाथ उत्तर संग मधु माधव लिएँ॥ ४॥मूल
बिरचे बिरंचि बनाइ बाँची रुचिरता रंचौ नहीं।
दस चारि भुवन निहारि देखि बिचारि नहिं उपमा कहीं॥
रिषि संग सोहत जात मग छबि बसत सो तुलसी हिएँ।
कियो गवन जनु दिननाथ उत्तर संग मधु माधव लिएँ॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने इन्हें ऐसा सँवारकर रचा है कि मानो इन्हें छोड़कर अब थोड़ी-सी भी सुन्दरता शेष नहीं रही। चौदहों भुवनमें बहुत विचारपूर्वक देखा, परंतु कहीं भी इनकी उपमा नहीं है। वे ऋषिके साथ मार्गपर चलते हुए अत्यन्त शोभायमान हो रहे हैं, उनकी वह छबि तुलसीदासके हृदयमें बस गयी है। वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो मधु (चैत्र) और माधव (वैशाख)-के साथ सूर्यदेव उत्तर दिशाको जा रहे हैं॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुति
गिर तरु बेलि सरित सर बिपुल बिलोकहिं। धावहिं बाल सुभाय बिहग मृग रोकहिं॥ ३३॥ सकुचहिं मुनिहि सभीत बहुरि फिरि आवहिं। तोरि फूल फल किसलय माल बनावहिं॥ ३४॥मूल
गिर तरु बेलि सरित सर बिपुल बिलोकहिं।
धावहिं बाल सुभाय बिहग मृग रोकहिं॥ ३३॥
सकुचहिं मुनिहि सभीत बहुरि फिरि आवहिं।
तोरि फूल फल किसलय माल बनावहिं॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्गमें अनेकों पर्वत, वृक्ष, लता, नदी और तालाब देखते हैं। बालक-स्वभावसे दौड़ते हैं तथा पक्षी और मृगोंको रोकते हैं॥ ३३॥ और फिर मुनिसे डरकर संकुचित हो लौट जाते हैं तथा फल-फूल और नये पत्तोंको तोड़कर माला बनाते हैं॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुति
देखि बिनोद प्रमोद प्रेम कौसिक उर। करत जाहिं घन छाँह सुमन बरषहिं सुर॥ ३५॥ बधी ताड़का राम जानि सब लायक। बिद्या मंत्र रहस्य दिए मुनिनायक॥ ३६॥मूल
देखि बिनोद प्रमोद प्रेम कौसिक उर।
करत जाहिं घन छाँह सुमन बरषहिं सुर॥ ३५॥
बधी ताड़का राम जानि सब लायक।
बिद्या मंत्र रहस्य दिए मुनिनायक॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीके आमोद-प्रमोदको देखकर कौशिकमुनिके हृदयमें प्रेम उमड़ आता है। मार्गमें मेघ छाँह किये जाते हैं और देवतालोग फूल बरसाते जाते हैं॥ ३५॥ (इसी समय) श्रीरामचन्द्रजीने ताड़काका वध किया। तब मुनिराजने उन्हें सब प्रकार योग्य जानकर मन्त्र और रहस्यसहित शस्त्र-विद्या दी॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुति
मन लोगन्हके करत सुफल मन लोचन। गए कौसिक आश्रमहिं बिप्र भय मोचन॥ ३७॥ मारि निसाचर निकर जग्य करवायउ। अभय किए मुनिबृंद जगत जसु गायउ॥ ३८॥मूल
मन लोगन्हके करत सुफल मन लोचन।
गए कौसिक आश्रमहिं बिप्र भय मोचन॥ ३७॥
मारि निसाचर निकर जग्य करवायउ।
अभय किए मुनिबृंद जगत जसु गायउ॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विप्र-भय-मोचन श्रीरामचन्द्रजी मार्गके लोगोंके मन और नेत्रोंको सफल करते कौशिकमुनिके आश्रममें गये॥३७॥ वहाँ राक्षसोंके समूहका नाश करके विश्वामित्रजीका यज्ञ पूर्ण करवाया और मुनि-समूहको निर्भय किया। भगवान् के इस सुयशको सारे संसारने गाया॥ ३८॥