विश्वास-प्रस्तुति
सुभ दिन रच्यौ स्वयंबर मंगलदायक। सुनत श्रवन हिय बसहिं सीय रघुनायक॥ ३॥ देस सुहावन पावन बेद बखानिय। भूमि तिलक सम तिरहुति त्रिभुवन जानिय॥ ४॥मूल
सुभ दिन रच्यौ स्वयंबर मंगलदायक।
सुनत श्रवन हिय बसहिं सीय रघुनायक॥ ३॥
देस सुहावन पावन बेद बखानिय।
भूमि तिलक सम तिरहुति त्रिभुवन जानिय॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीका तिलकस्वरूप और तीनों लोकोंमें विख्यात जो परम पवित्र शोभाशाली और वेदविदित तिरहुत देश है, वहाँ एक अच्छे दिन श्रीजानकीका मंगलप्रद स्वयंवर रचा गया, जिसका श्रवण करनेसे श्रीराम और सीताजी हृदयमें बसते हैं॥ ३-४॥
विश्वास-प्रस्तुति
तहँ बस नगर जनकपुर परम उजागर। सीय लच्छि जहँ प्रगटी सब सुख सागर॥ ५॥ जनक नाम तेहिं नगर बसै नरनायक। सब गुन अवधि न दूसर पटतर लायक॥ ६॥मूल
तहँ बस नगर जनकपुर परम उजागर।
सीय लच्छि जहँ प्रगटी सब सुख सागर॥ ५॥
जनक नाम तेहिं नगर बसै नरनायक।
सब गुन अवधि न दूसर पटतर लायक॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ (तिरहुत देशमें) जनकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर बसा हुआ था, जिसमें सुखोंकी समुद्र लक्ष्मीस्वरूपा श्रीजानकीजी प्रकट हुई थीं॥ ५॥ उस नगरमें जनक नामके एक राजा निवास करते थे, जो सारे गुणोंकी सीमा थे और जिनके समान कोई दूसरा नहीं था॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुति
भयउ न होइहि है न जनक सम नरवइ। सीय सुता भइ जासु सकल मंगलमइ॥ ७॥ नृप लखि कुँअरि सयानि बोलि गुर परिजन। करि मत रच्यौ स्वयंबर सिव धनु धरि पन॥ ८॥मूल
भयउ न होइहि है न जनक सम नरवइ।
सीय सुता भइ जासु सकल मंगलमइ॥ ७॥
नृप लखि कुँअरि सयानि बोलि गुर परिजन।
करि मत रच्यौ स्वयंबर सिव धनु धरि पन॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनकके समान नरपति न हुआ, न होगा, न है; जिनकी पुत्री सर्वमंगलमयी जानकीजी हुईं॥ ७॥ राजाने राजकुमारीको वयस्क होते देख अपने गुरु और परिवारके लोगोंको बुलाकर सलाह की और शिव-धनुषको शर्तके रूपमें रखकर स्वयंवर रचा। [अर्थात् यह शर्त रखकर स्वयंवर रचा कि जो शिवजीका धनुष चढ़ा देगा, वही कन्यासे विवाह करेगा]॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुति
पनु धरेउ सिव धनु रचि स्वयंबर अति रुचिर रचना बनी। जनु प्रगटि चतुरानन देखाई चतुरता सब आपनी॥ पुनि देस देस सँदेस पठयउ भूप सुनि सुख पावहीं। सब साजि साजि समाज राजा जनक नगरहिं आवहीं॥ १॥मूल
पनु धरेउ सिव धनु रचि स्वयंबर अति रुचिर रचना बनी।
जनु प्रगटि चतुरानन देखाई चतुरता सब आपनी॥
पुनि देस देस सँदेस पठयउ भूप सुनि सुख पावहीं।
सब साजि साजि समाज राजा जनक नगरहिं आवहीं॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने शिव-धनुष चढ़ानेकी शर्त रखकर स्वयंवर रचा, जिसकी सजावट अत्यन्त सुन्दर थी,मानो ब्रह्माने अपना सम्पूर्ण कौशल प्रत्यक्ष करके दिखा दिया। फिर देश-देशमें समाचार भेजा गया, जिसे सुनकर राजालोग प्रसन्न हुए और वे सब-के-सब अपना साज सजा-सजाकर जनकपुरमें आये॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुति
रूप सील बय बंस बिरुद बल दल भले। मनहुँ पुरंदर निकर उतरि अवनिहिं चले॥ ९॥ दानव देव निसाचर किंनर अहिगन। सुनि धरि-धरि नृप बेष चले प्रमुदित मन॥ १०॥मूल
रूप सील बय बंस बिरुद बल दल भले।
मनहुँ पुरंदर निकर उतरि अवनिहिं चले॥ ९॥
दानव देव निसाचर किंनर अहिगन।
सुनि धरि-धरि नृप बेष चले प्रमुदित मन॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सुन्दरता, शील, आयु, कुलकी बड़ाई, बल और सेनासे सुसज्जित होकर चले, मानो इन्द्रोंका यूथ ही पृथ्वीपर उतरकर जा रहा हो॥ ९॥ दैत्य, देवता, राक्षस, किन्नर और नागगण भी स्वयंवरका समाचार सुन, राजवेष धारण कर-करके प्रसन्नचित्तसे चले॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुति
एक चलहिं एक बीच एक पुर पैठहिं। एक धरहिं धनु धाय नाइ सिरु बैठहिं॥ ११॥ रंग भूमि पुर कौतुक एक निहारहिं। ललकि सुभाहिं नयन मन फेरि न पावहिं॥ १२॥मूल
एक चलहिं एक बीच एक पुर पैठहिं।
एक धरहिं धनु धाय नाइ सिरु बैठहिं॥ ११॥
रंग भूमि पुर कौतुक एक निहारहिं।
ललकि सुभाहिं नयन मन फेरि न पावहिं॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई चल रहे हैं, कोई मार्गके बीचमें हैं, कोई नगरमें घुस रहे हैं और कोई दौड़कर धनुषको पकड़ते हैं और फिर सिर नीचा करके—लज्जित हो बैठ जाते हैं (क्योंकि उनसे धनुष टस-से-मस नहीं होता)॥ ११॥ कोई रंगभूमि और नगरकी सजावट बड़े चावसे देखते हैं और बड़े भले जान पड़ते हैं, वे अपने मन और नयनोंको वहाँसे फेर नहीं पाते॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुति
जनकहि एक सिहाहिं देखि सनमानत। बाहर भीतर भीर न बनै बखानत॥ १३॥ गान निसान कोलाहल कौतुक जहँ तहँ। सीय-बिबाह उछाह जाइ कहि का पहँ॥ १४॥मूल
जनकहि एक सिहाहिं देखि सनमानत।
बाहर भीतर भीर न बनै बखानत॥ १३॥
गान निसान कोलाहल कौतुक जहँ तहँ।
सीय-बिबाह उछाह जाइ कहि का पहँ॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई राजा जनकको अतिथियोंका सम्मान करते देखकर उनसे ईर्ष्या करते हैं। इस समय बाहर-भीतर सर्वत्र इतनी भीड़ हो रही है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता॥ १३॥ जहाँ-तहाँ गान और नगारोंका कोलाहल एवं चहल-पहल हो रही है। भला जानकीजीके विवाहका आनन्द किससे कहा जा सकता है॥ १४॥