दोहावली

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॥ श्रीहरिः॥
दोहावली
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥
अनुवादक—श्रद्धेय श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार
गीता सेवा ट्रस्ट

ध्यान

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर॥

मूल

राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भगवान् श्रीरामजीकी बायीं ओर श्रीजानकीजी हैं और दाहिनी ओर श्रीलक्ष्मणजी हैं—यह ध्यान सम्पूर्णरूपसे कल्याणमय है। हे तुलसी! तेरे लिये तो यह मनमाना फल देनेवाला कल्पवृक्ष ही है॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास।
हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास॥

मूल

सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास।
हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजीके सहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सुशोभित हो रहे हैं, देवतागण हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं। भगवान् का यह सगुण ध्यान सुमंगल—परम कल्याणका निवासस्थान है॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत।
सोहत तुलसीदास प्रभु सकल सुमंगल देत॥

मूल

पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत।
सोहत तुलसीदास प्रभु सकल सुमंगल देत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—पंचवटीमें वटवृक्षके नीचे श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजी-समेत प्रभु श्रीरामजी सुशोभित हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह ध्यान सब सुमंगलोंको देता है॥ ३॥

रामनाम-जपकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रकूट सब दिन बसत प्रभु सिय लखन समेत।
राम नाम जप जापकहि तुलसी अभिमत देत॥

मूल

चित्रकूट सब दिन बसत प्रभु सिय लखन समेत।
राम नाम जप जापकहि तुलसी अभिमत देत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजीसहित प्रभु श्रीरामजी चित्रकूटमें सदा-सर्वदा निवास करते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे राम-नामका जप जपनेवालेको इच्छित फल देते हैं॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पय अहार* फल खाइ जपु राम नाम षट मास।
सकल सुमंगल सिद्धि सब करतल तुलसीदास॥

मूल

पय अहार* फल खाइ जपु राम नाम षट मास।
सकल सुमंगल सिद्धि सब करतल तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—छः महीनेतक केवल दूधका आहार करके अथवा फल खाकर राम-नामका जप करो। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसा करनेसे सब प्रकारके सुमंगल और सब सिद्धियाँ करतलगत हो जायँगी (अर्थात् अपने-आप ही मिल जायँगी)॥ ५॥

पादटिप्पनी
  • किसी-किसी प्रतिमें ‘पय अह्नाइ’ पाठ मिलता है; जिसका अर्थ होगा ‘(चित्रकूटमें स्थित) पयस्विनी नदीमें स्नान करके’। ‘पय अहार’ और ‘फल खाइ’ पाठ लेनेसे ‘अहार’ और ‘खाइ’ में जो द्विरुक्ति प्रतीत होती है, उसीके निवारणके लिये सम्भवतः ‘अहार’ के स्थानमें ‘अह्नाइ’ संशोधन पीछेसे किया गया है। किंतु इस प्रकारके प्रयोग गोस्वामीजीने अन्यत्र भी किये हैं—देखिये रामचरितमानस, अयोध्याकाण्डका दोहा १८८—
    पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
    करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग॥
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥

मूल

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो मुखरूपी दरवाजेकी देहलीपर राम-नामरूपी (हवाके झोंके अथवा तेलकी कमीसे कभी न बुझनेवाला नित्य प्रकाशमय) मणिदीप रख दो (अर्थात् जीभके द्वारा अखण्डरूपसे श्रीराम-नामका जप करता रह)॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट संपुट लसत तुलसी ललित ललाम॥

मूल

हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट संपुट लसत तुलसी ललित ललाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हृदयमें निर्गुण ब्रह्मका ध्यान, नेत्रोंके सामने प्रथम तीन दोहोंमें कथित सगुण स्वरूपकी सुन्दर झाँकी और जीभसे सुन्दर राम-नामका जप करना। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह ऐसा है मानो सोनेकी सुन्दर डिबियामें मनोहर रत्न सुशोभित हो। श्रीगुसाईंजीके मतसे ‘राम’ नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण भगवान् दोनोंसे बड़ा है—‘मोरें मत बड़ नाम दुहू तें’ नामकी इसी महिमाको लक्ष्यमें रखकर यहाँ नामको रत्न कहा गया है तथा निर्गुण ब्रह्म और सगुण भगवान् को उस अमूल्य रत्नको सुरक्षित रखनेके लिये सोनेका सम्पुट (डिबियाके नीचे-ऊपरके भाग) बताया गया है॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगुन ध्यान रुचि सरस नहिं निर्गुन मन ते दूरि।
तुलसी सुमिरहु रामको नाम सजीवन मूरि॥

मूल

सगुन ध्यान रुचि सरस नहिं निर्गुन मन ते दूरि।
तुलसी सुमिरहु रामको नाम सजीवन मूरि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सगुणरूपके ध्यानमें तो प्रीतियुक्त रुचि नहीं है और निर्गुणस्वरूप मनसे दूर है (यानी समझमें नहीं आता)। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसी दशामें रामनाम-स्मरणरूपी संजीवनी बूटीका सदा सेवन करो॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥

मूल

एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं—देखो, श्रीरघुनाथजीके नाम (राम)-के दोनों अक्षरोंमें एक ‘र’ तो (रेफके रूपमें) सब वर्णोंके मस्तकपर छत्रकी भाँति विराजता है और दूसरा ‘म’ (अनुस्वारके रूपमें) सबके ऊपर मुकुट-मणिके समान सुशोभित होता है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम राम को अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गएँ कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून॥

मूल

नाम राम को अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गएँ कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीका नाम अंक है और सब साधन शून्य (०) हैं। अंक न रहनेपर तो कुछ भी हाथ नहीं लगता, परंतु शून्यके पहले अंक आनेपर वे दसगुने हो जाते हैं (अर्थात् रामनामके जपके साथ जो साधन होते हैं, वे दसगुने लाभदायक हो जाते हैं), परंतु रामनामसे हीन जो साधन होता है वह कुछ भी फल नहीं देता॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥

मूल

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगमें श्रीरामजीका नाम कल्पवृक्ष (मनचाहा पदार्थ देनेवाला) है और कल्याणका निवास (मुक्तिका घर) है, जिसको स्मरण करनेसे तुलसीदास भाँगसे (विषयमदसे भरी और दूसरोंको भी विषयमद उपजानेवाली साधुओंद्वारा त्याज्य स्थितिसे) बदलकर तुलसीके समान (निर्दोष, भगवान् का प्यारा, सबका आदरणीय और जगत् को पावन करनेवाला) हो गया॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम जपि जीहँ जन भए सुकृत सुखसालि।
तुलसी इहाँ जो आलसी गयो आजु की कालि॥

मूल

राम नाम जपि जीहँ जन भए सुकृत सुखसालि।
तुलसी इहाँ जो आलसी गयो आजु की कालि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जीभसे रामनामका जप करके लोग पुण्यात्मा और परमसुखी हो गये; परंतु इस नाम-जपमें जो आलस्य करते हैं, उन्हें तो आज या कल नष्ट ही हुआ समझो॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम गरीबनिवाज को राज देत जन जानि।
तुलसी मन परिहरत नहिं घुर बिनिआ की बानि॥

मूल

नाम गरीबनिवाज को राज देत जन जानि।
तुलसी मन परिहरत नहिं घुर बिनिआ की बानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि गरीबनिवाज (दीनबन्धु) श्रीरामजीका नाम ऐसा है, जो जपनेवालेको भगवान् का निज जन जानकर राज्य (प्रजापतिका पद या मोक्ष-साम्राज्यतक) दे डालता है। परंतु यह मन ऐसा अविश्वासी और नीच है कि घूरे (कूड़ेके ढेर)- में पड़े दाने चुगनेकी ओछी आदत नहीं छोड़ता (अर्थात् गंदे विषयोंमें ही सुख खोजता है)॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कासीं बिधि बसि तनु तजें हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम नाम अनुराग॥

मूल

कासीं बिधि बसि तनु तजें हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम नाम अनुराग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि काशीजीमें (पापोंसे बचते हुए) विधिवत् निवास करके शरीर त्यागनेपर और तीर्थराज प्रयागमें हठसे शरीर छोड़नेपर जो मोक्षरूपी फल मिलता है, वह रामनाममें अनुराग होनेसे सुगमतासे मिल जाता है। (यही नहीं; अनुरागपूर्वक रामनामके जापसे तो मोक्षके आधार साक्षात् भगवान् की प्राप्ति हो जाती है)॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मीठो अरु कठवति भरो रौंताई अरु छेम।
स्वारथ परमारथ सुलभ राम नाम के प्रेम॥

मूल

मीठो अरु कठवति भरो रौंताई अरु छेम।
स्वारथ परमारथ सुलभ राम नाम के प्रेम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(१)मीठा पदार्थ (अमृत) भी हो और कठौता भरकर मिले, (२)राज्यादि अधिकार भी प्राप्त हों और क्षेमकुशल भी रहे (अर्थात् अभिमान और भोगोंसे बचकर रहा जाय) और (३)स्वार्थ भी सधे तथा परमार्थ भी सम्पन्न हो—ऐसा होना बहुत ही कठिन है; परंतु श्रीरामनामके प्रेमसे ये परस्परविरोधी दुर्लभ बातें भी सुलभ हो जाती हैं। (अर्थात् रामनाममें प्रेम होनेसे मधुर सुख भी मिलते हैं और वे दुःखरहित भरपूर होते हैं; राज्य भी मिल सकता है और उसमें अभिमान तथा विषयासक्तिका अभाव होनेके कारण गिरनेकी भी गुंजाइश नहीं रहती, पारमार्थिक स्थितिपर अचल रहते हुए भी राज्य-शासन किया जा सकता है और परमार्थ ही स्वार्थ बन जाता है)॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम सुमिरत सुजस भाजन भए कुजाति।
कुतरुक सुरपुर राजमग लहत भुवन बिख्याति॥

मूल

राम नाम सुमिरत सुजस भाजन भए कुजाति।
कुतरुक सुरपुर राजमग लहत भुवन बिख्याति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—रामनामका स्मरण करनेसे (गणिका एवं अजामिल आदि) नीच जाति या नीच स्वभाववाले भी सुन्दर कीर्तिके पात्र हो गये। स्वर्गके राजमार्ग (गंगाजीके तट)-पर स्थित बुरे वृक्ष भी त्रिभुवनमें ख्याति पा जाते हैं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वारथ सुख सपनेहुँ अगम परमारथ न प्रबेस।
राम नाम सुमिरत मिटहिं तुलसी कठिन कलेस॥

मूल

स्वारथ सुख सपनेहुँ अगम परमारथ न प्रबेस।
राम नाम सुमिरत मिटहिं तुलसी कठिन कलेस॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिन लोगोंको सांसारिक सुख सपनेमें भी नहीं मिलते और परमार्थमें—मोक्षप्राप्तिके मार्गमें जिनका प्रवेश नहीं है, तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामनामका स्मरण करनेसे उनके भी कठिन क्लेश मिट जाते हैं (अर्थात् उनके स्वार्थ-परमार्थ दोनोंकी सिद्धि सहजहीमें हो जाती है)॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोर मोर सब कहँ कहसि तू को कहु निज नाम।
कै चुप साधहि सुनि समुझि कै तुलसी जपु राम॥

मूल

मोर मोर सब कहँ कहसि तू को कहु निज नाम।
कै चुप साधहि सुनि समुझि कै तुलसी जपु राम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तू सबको मेरा-मेरा कहता है, परंतु यह तो बता कि तू कौन है? और तेरा अपना नाम क्या है? तुलसीदासजी कहते हैं कि अब या तो तू इसको (नाम और रूपके रहस्यको) सुन और समझकर मौन हो जा (मेरा-मेरा कहना छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित हो जा) या श्रीरामजीका नाम जप॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम लखि लखहि हमार लखि हम हमार के बीच।
तुलसी अलखहि का लखहि राम नाम जप नीच॥

मूल

हम लखि लखहि हमार लखि हम हमार के बीच।
तुलसी अलखहि का लखहि राम नाम जप नीच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(एक साधनहीन ‘अलखिया’ साधु केवल ‘अलख-अलख’ चिल्लाया करता था, उसे फटकारते हुए तुलसीदासजी कहते हैं कि) तू पहले अपने स्वरूपको जान, फिर अपने यथार्थ ‘अपने’ ब्रह्मके स्वरूपका अनुभव कर। तदनन्तर अपने और ब्रह्मके बीचमें रहनेवाली मायाको पहचान। अरे नीच! (इन तीनोंको समझे बिना) तू उस अलख परमात्माको क्या समझ सकता है? अतः (‘अलख-अलख’ चिल्लाना छोड़कर) रामनामका जप कर॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस।
बरषत बारिद बूँद गहि चाहत चढ़न अकास॥

मूल

राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस।
बरषत बारिद बूँद गहि चाहत चढ़न अकास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो रामनामका सहारा लिये बिना ही परमार्थकी—मोक्षकी आशा करता है, वह तो मानो बरसते हुए बादलकी बूँदको पकड़कर आकाशमें चढ़ना चाहता है (अर्थात् जैसे वर्षाकी बूँदको पकड़कर आकाशपर चढ़ना असम्भव है, वैसे ही रामनामका जप किये बिना परमार्थकी प्राप्ति असम्भव है)॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी हठि हठि कहत नित चित सुनि हित करि मानि।
लाभ राम सुमिरन बड़ो बड़ी बिसारें हानि॥

मूल

तुलसी हठि हठि कहत नित चित सुनि हित करि मानि।
लाभ राम सुमिरन बड़ो बड़ी बिसारें हानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी नित्य-निरन्तर बड़े आग्रहके साथ कहते हैं कि हे चित! तू मेरी बात सुनकर उसे हितकारी समझ। रामका स्मरण ही बड़ा भारी लाभ है और उसे भुलानेमें ही सबसे बड़ी हानि है॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु॥

मूल

बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि तू कुसंगतिको और चित्तके सारे बुरे विचारोंको त्यागकर रामका बन जा और उनके नामका जप कर। ऐसा करनेसे तेरी अनेकों जन्मोंकी बिगड़ी हुई स्थिति आज अभी सुधर जा सकती है॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति प्रतीति सुरीति सों राम राम जपु राम।
तुलसी तेरो है भलो आदि मध्य परिनाम॥

मूल

प्रीति प्रतीति सुरीति सों राम राम जपु राम।
तुलसी तेरो है भलो आदि मध्य परिनाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि तुम प्रेम, विश्वास और विधिके साथ (नामापराधोंसे बचते हुए) राम-राम-राम जपो; इससे तुम्हारा आदि, मध्य और अन्त तीनों ही कालोंमें कल्याण है॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दंपति रस रसना दसन परिजन बदन सुगेह।
तुलसी हर हित बरन सिसु संपति सहज सनेह॥

मूल

दंपति रस रसना दसन परिजन बदन सुगेह।
तुलसी हर हित बरन सिसु संपति सहज सनेह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि रस (रामनामका उच्चारण करते समय जिस मिठासका अनुभव होता है) और रसना (जीभ) पति-पत्नी हैं, दाँत कुटुम्बी हैं, मुख सुन्दर घर है, श्रीमहादेवजीके प्यारे ‘रा’ और ‘म’—ये दोनों अक्षर दो मनोहर बालक हैं और सहज स्नेह ही सम्पत्ति है (परमार्थ-साधकको ऐसी ही गृहस्थी होनी चाहिये)॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
रामनाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥

मूल

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
रामनाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजीकी भक्ति वर्षा-ऋतु है, उत्तम सेवकगण (प्रेमी भक्त) धान हैं और रामनामके दो सुन्दर अक्षर (‘रा’ और ‘म’) सावन-भादोंके महीने हैं (अर्थात् जैसे वर्षा-ऋतुके श्रावण, भाद्रपद—इन दो महीनोंमें धान लहलहा उठता है, वैसे ही भक्तिपूर्वक श्रीरामनामका जप करनेसे भक्तोंको आत्यन्तिक सुख मिलता है)॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम नर केसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥

मूल

राम नाम नर केसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामनाम नृसिंहभगवान् हैं, कलियुग हिरण्यकशिपु है और श्रीरामनामका जप करनेवाले भक्तजन प्रह्लादजीके समान हैं, जिनकी वह (रामनामरूपी नृसिंहभगवान्) देवताओंको दुःख देनेवाले हिरण्यकशिपुको (भक्तिके बाधक कलियुगको) मारकर रक्षा करेगा॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम कलि कामतरु राम भगति सुरधेनु।
सकल सुमंगल मूल जग गुरुपद पंकज रेनु॥

मूल

राम नाम कलि कामतरु राम भगति सुरधेनु।
सकल सुमंगल मूल जग गुरुपद पंकज रेनु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगमें रामनाम मनचाहा फल देनेवाले कल्प-वृक्षके समान है, रामभक्ति मुँहमाँगी वस्तु देनेवाली कामधेनु है और श्रीसद्गुरुके चरणकमलकी रज संसारमें सब प्रकारके मंगलोंकी जड़ है॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम कलि कामतरु सकल सुमंगल कंद।
सुमिरत करतल सिद्धि सब पग पग परमानंद॥

मूल

राम नाम कलि कामतरु सकल सुमंगल कंद।
सुमिरत करतल सिद्धि सब पग पग परमानंद॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामका नाम कलियुगमें कल्पवृक्षके समान है और सब प्रकारके श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ मंगलोंका परम सार है। रामनामके स्मरणसे ही सब सिद्धियाँ वैसे ही प्राप्त हो जाती हैं, जैसे कोई चीज हथेलीमें ही रखी हो और पद-पदपर परम आनन्दकी प्राप्ति होती है॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जथा भूमि सब बीजमय नखत निवास अकास।
राम नाम सब धरममय जानत तुलसीदास॥

मूल

जथा भूमि सब बीजमय नखत निवास अकास।
राम नाम सब धरममय जानत तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जैसे सारी धरती बीजमय है, सारा आकाश नक्षत्रोंका निवास (नक्षत्रमय) है, वैसे ही रामनाम सर्वधर्ममय है—तुलसीदास इस रहस्यको जानते हैं॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥

मूल

सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो समस्त (भोग और मोक्षकी भी) कामनाओंसे रहित हैं और श्रीरामजीके भक्तिरसमें डूबे हुए हैं, उन (नारद, वसिष्ठ, वाल्मीकि, व्यास आदि) महात्माओंने भी रामनामके सुन्दर प्रेमरूपी अमृत-सरोवरमें अपने मनको मछली बना रखा है (अर्थात् नामामृतके आनन्दको वे क्षणभरके लिये भी त्यागनेमें मछलीकी भाँति व्याकुल हो जाते हैं)॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
राम चरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥

मूल

ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
राम चरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) रामसे भी रामनाम बड़ा है, वह वर देनेवाले देवताओंको भी वर देनेवाला है। महान् ईश्वर श्रीशंकरजीने इस रहस्यको मनमें समझकर ही रामचरित्रके सौ करोड़ श्लोकोंमेंसे (चुनकर दो अक्षरके इस) रामनामको ही ग्रहण किया॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥

मूल

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीने तो शबरी, (गीधराज) जटायु आदि अपने श्रेष्ठ सेवकोंको ही सुगति दी; परंतु रामनामने तो असंख्य दुष्टोंका उद्धार कर दिया। रामनामकी यह गुणगाथा वेदोंमें प्रसिद्ध है॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम पर नाम तें प्रीति प्रतीति भरोस।
सो तुलसी सुमिरत सकल सगुन सुमंगल कोस॥

मूल

राम नाम पर नाम तें प्रीति प्रतीति भरोस।
सो तुलसी सुमिरत सकल सगुन सुमंगल कोस॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो रामनामके परायण है और रामनाममें ही जिसका प्रेम, विश्वास और भरोसा है, वह रामनामका स्मरण करते ही समस्त सद्गुणों और श्रेष्ठ मंगलोंका खजाना बन जाता है॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लंक बिभीषन राज कपि पति मारुति खग मीच।
लही राम सों नाम रति चाहत तुलसी नीच॥

मूल

लंक बिभीषन राज कपि पति मारुति खग मीच।
लही राम सों नाम रति चाहत तुलसी नीच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीसे विभीषणने लंका पायी, सुग्रीवने राज्य प्राप्त किया, हनुमान् जी ने सेवककी पदवी या प्रतिष्ठा पायी और पक्षी जटायुने देवदुर्लभ उत्तम मृत्यु प्राप्त की। परंतु नीच तुलसीदास तो उन प्रभु श्रीरामसे केवल रामनाममें प्रेम ही चाहता है॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरन अमंगल अघ अखिल करन सकल कल्यान।
रामनाम नित कहत हर गावत बेद पुरान॥

मूल

हरन अमंगल अघ अखिल करन सकल कल्यान।
रामनाम नित कहत हर गावत बेद पुरान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—रामनाम सब अमंगलों और पापोंको हरनेवाला तथा सब कल्याणोंका करनेवाला है। इसीसे श्रीमहादेवजी सर्वदा श्रीरामनामको रटते रहते हैं और वेद-पुराण भी इस नामका ही गुण गाते हैं॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी प्रीति प्रतीति सों राम नाम जप जाग।
किएँ होइ बिधि दाहिनो देइ अभागेहि भाग॥

मूल

तुलसी प्रीति प्रतीति सों राम नाम जप जाग।
किएँ होइ बिधि दाहिनो देइ अभागेहि भाग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रेम और विश्वासके साथ राम-नामजपरूपी यज्ञ करनेसे विधाता अनुकूल हो जाता है और अभागे मनुष्यको भी परम भाग्यवान् बना देता है॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जल थल नभ गति अमित अति अग जग जीव अनेक।
तुलसी तो से दीन कहँ राम नाम गति एक॥

मूल

जल थल नभ गति अमित अति अग जग जीव अनेक।
तुलसी तो से दीन कहँ राम नाम गति एक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जगत् में चर-अचर अनेक प्रकारके असंख्य जीव हैं और चरोंमें कुछ ऐसे हैं, जिनकी जलमें गति है; कुछकी पृथ्वीपर गति है और कुछकी आकाशमें गति है; परंतु हे तुलसीदास! तुझ-सरीखे दीनके लिये तो रामनाम ही एकमात्र गति है॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल माँगत तुलसीदास॥

मूल

राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल माँगत तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी यही माँगते हैं कि मेरा एकमात्र रामपर ही भरोसा रहे, रामहीका बल रहे और जिसके स्मरणमात्रसे ही शुभ मंगल और कुशलकी प्राप्ति होती है, उस रामनाममें ही विश्वास रहे॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम रति राम गति राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल दुहुँ दिसि तुलसीदास॥

मूल

राम नाम रति राम गति राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल दुहुँ दिसि तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं—जिसका रामनाममें प्रेम है, राम ही जिसकी एकमात्र गति हैं और रामनाममें ही जिसका विश्वास है, उसके लिये रामनामका स्मरण करनेसे ही दोनों ओर (इस लोकमें और परलोकमें) शुभ, मंगल और कुशल है॥३९॥

रामप्रेमके बिना सब व्यर्थ है

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना साँपिनि बदन बिल जे न जपहिं हरिनाम।
तुलसी प्रेम न राम सों ताहि बिधाता बाम॥

मूल

रसना साँपिनि बदन बिल जे न जपहिं हरिनाम।
तुलसी प्रेम न राम सों ताहि बिधाता बाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो श्रीहरिका नाम नहीं जपते, उनकी जीभ सर्पिणीके समान केवल विषय-चर्चारूपी विष उगलनेवाली और मुख उसके बिलके समान है। जिसका राममें प्रेम नहीं है, उसके लिये तो विधाता बाम ही है (अर्थात् उसका भाग्य फूटा ही है)॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिय फाटहुँ फूटहुँ नयन जरउ सो तन केहि काम।
द्रवहिं स्रवहिं पुलकइ नहीं तुलसी सुमिरत राम॥

मूल

हिय फाटहुँ फूटहुँ नयन जरउ सो तन केहि काम।
द्रवहिं स्रवहिं पुलकइ नहीं तुलसी सुमिरत राम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामका स्मरण करके जो हृदय पिघल नहीं जाते वे हृदय फट जायँ, जिन आँखोंसे प्रेमके आँसू नहीं बहते वे आँखें फूट जायँ और जिस शरीरमें रोमांच नहीं होता वह जल जाय, (अर्थात् ऐसे निकम्मे अंग किस कामके?)॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामहि सुमिरत रन भिरत देत परत गुरु पायँ।
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु ते जग जीवत जायँ॥

मूल

रामहि सुमिरत रन भिरत देत परत गुरु पायँ।
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु ते जग जीवत जायँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भगवान् श्रीरामका स्मरण होनेके समय, धर्मयुद्धमें शत्रुसे भिड़नेके समय, दान देते समय और गुरुके चरणोंमें प्रणाम करते समय, जिनके शरीरमें विशेष हर्षके कारण रोमांच नहीं होता, वे जगत् में व्यर्थ ही जीते हैं॥ ४२॥

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदय सो कुलिस समान जो न द्रवइ हरिगुन सुनत।
कर न राम गुन गान जीह सो दादुर जीह सम॥

मूल

हृदय सो कुलिस समान जो न द्रवइ हरिगुन सुनत।
कर न राम गुन गान जीह सो दादुर जीह सम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीहरिके गुणोंको सुनकर जो हृदय द्रवित नहीं होता, वह हृदय वज्रके समान कठोर और जो जीभ श्रीरामका गुणगान नहीं करती, वह जीभ मेढककी जीभके समान व्यर्थ ही टर-टर करनेवाली है॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रवै न सलिल सनेहु तुलसी सुनि रघुबीर जस।
ते नयना जनि देहु राम करहु बरु आँधरो॥

मूल

स्रवै न सलिल सनेहु तुलसी सुनि रघुबीर जस।
ते नयना जनि देहु राम करहु बरु आँधरो॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि हे श्रीरामजी! मुझको भले ही अंधा बना दीजिये; परंतु ऐसी आँखें मत दीजिये, जिनसे श्रीरघुनाथजीका यश सुनते ही प्रेमके आँसू न बहने लगें॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहैं न जल भरि पूरि राम सुजस सुनि रावरो।
तिन आँखिन में धूरि भरि भरि मूठी मेलिये॥

मूल

रहैं न जल भरि पूरि राम सुजस सुनि रावरो।
तिन आँखिन में धूरि भरि भरि मूठी मेलिये॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! आपका सुयश सुनते ही जो आँखें प्रेमजलसे पूरी तरह भर न जायँ उन आँखोंमें तो मुट्ठियाँ भर-भरकर धूल झोंकनी चाहिये॥ ४५॥

उद्बोधन

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे मन सब सों निरस ह्वै सरस राम सों होहि।
भलो सिखावन देत है निसि दिन तुलसी तोहि॥

मूल

रे मन सब सों निरस ह्वै सरस राम सों होहि।
भलो सिखावन देत है निसि दिन तुलसी तोहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—रे मन! तू संसारके सब पदार्थोंसे प्रीति तोड़कर श्रीरामसे प्रेम कर। तुलसीदास तुझको रात-दिन यही सत्-शिक्षा देता है॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरे चरहिं तापहिं बरे फरें पसारहिं हाथ।
तुलसी स्वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ॥

मूल

हरे चरहिं तापहिं बरे फरें पसारहिं हाथ।
तुलसी स्वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—वृक्ष जब हरे होते हैं, तब पशु-पक्षी उन्हें चरने लगते हैं, सूख जानेपर लोग उन्हें जलाकर तापते हैं और फलनेपर फल पानेके लिये लोग हाथ पसारने लगते हैं (अर्थात् जहाँ हरा-भरा घर देखते हैं, वहाँ लोग खानेके लिये दौड़े जाते हैं, जहाँ बिगड़ी हालत होती है, वहाँ उसे और भी जलाकर सुखी होते हैं और जहाँ सम्पत्तिसे फला-फूला देखते हैं, वहाँ हाथ पसारकर माँगने लगते हैं)। तुलसीदासजी कहते हैं कि इस प्रकार जगत् में तो सब स्वार्थके ही मित्र हैं। परमार्थके मित्र तो एकमात्र श्रीरघुनाथजी ही हैं (जो सब समय ही प्रेम करते हैं और दीन-स्थितिमें तो विशेष प्रेम करते हैं)॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वारथ सीता राम सों परमारथ सिय राम।
तुलसी तेरो दूसरे द्वार कहा कहु काम॥

मूल

स्वारथ सीता राम सों परमारथ सिय राम।
तुलसी तेरो दूसरे द्वार कहा कहु काम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीसीतारामसे ही तेरे सब स्वार्थ सिद्ध हो जायँगे और श्रीसीताराम ही तेरे परमार्थ (परम ध्येय) हैं, तुलसीदासजी कहते हैं कि फिर बतला तेरा दूसरेके दरवाजेपर क्या काम है?॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वारथ परमारथ सकल सुलभ एक ही ओर।
द्वार दूसरे दीनता उचित न तुलसी तोर॥

मूल

स्वारथ परमारथ सकल सुलभ एक ही ओर।
द्वार दूसरे दीनता उचित न तुलसी तोर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जब एक श्रीरामचन्द्रजीकी ओरसे ही सब स्वार्थ और परमार्थ सुलभ हैं, तब हे तुलसी! तुझे दूसरेके दरवाजेपर दीनता दिखलाना उचित नहीं है॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी स्वारथ राम हित परमारथ रघुबीर।
सेवक जाके लखन से पवनपूत रनधीर॥

मूल

तुलसी स्वारथ राम हित परमारथ रघुबीर।
सेवक जाके लखन से पवनपूत रनधीर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजीका तो स्वार्थ भी रामके लिये है और परमार्थ भी वे श्रीरघुनाथजी ही हैं, जिनके श्रीलक्ष्मणजी और रणधीर श्रीहनुमान् जी जैसे सेवक हैं॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्यों जग बैरी मीन को आपु सहित बिनु बारि।
त्यों तुलसी रघुबीर बिनु गति आपनी बिचारि॥

मूल

ज्यों जग बैरी मीन को आपु सहित बिनु बारि।
त्यों तुलसी रघुबीर बिनु गति आपनी बिचारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जैसे जलको छोड़कर सारा जगत् ही मछलीका वैरी है, यहाँतक कि वह आप भी वैरीका काम करती है (जीभके स्वादके लिये काँटेमें अपना मुँह फँसा लेती है), वैसे ही हे तुलसीदास! एक श्रीरघुनाथजीके बिना अपनी भी यही गति समझ ले (अपना ही मन वैरी बनकर तुझे विषयोंमें फँसा देगा)॥ ५६॥

तुलसीदासजीकी अभिलाषा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम प्रेम बिनु दूबरो राम प्रेमहीं पीन।
रघुबर कबहुँक करहुगे तुलसिहि ज्यों जल मीन॥

मूल

राम प्रेम बिनु दूबरो राम प्रेमहीं पीन।
रघुबर कबहुँक करहुगे तुलसिहि ज्यों जल मीन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जैसे मछली जलके रहनेसे—जलके संयोगसे पुष्ट होती है और जलके बिना दुबली हो जाती है, जलके वियोगमें मर जाती है, वैसे ही हे श्रीरघुनाथजी! आप इस तुलसीदासको कब ऐसा करेंगे जब वह श्रीराम (आप)-के प्रेमके बिना मछलीकी भाँति दुबला जाय और श्रीराम (आप)-के प्रेमसे ही पुष्ट हो॥५७॥

रामविमुखताका कुफल

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी श्रीरघुबीर तजि करै भरोसो और।
सुख संपति की का चली नरकहुँ नाहीं ठौर॥

मूल

तुलसी श्रीरघुबीर तजि करै भरोसो और।
सुख संपति की का चली नरकहुँ नाहीं ठौर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो मनुष्य श्रीरघुनाथजीको छोड़कर दूसरा कोई भरोसा करता है—सुख-सम्पत्तिकी तो बात ही दूर है, उसे नरकमें भी जगह नहीं मिलेगी॥ ६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी परिहरि हरि हरहि पाँवर पूजहिं भूत।
अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत॥

मूल

तुलसी परिहरि हरि हरहि पाँवर पूजहिं भूत।
अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीहरि (भगवान् विष्णु) और श्रीशंकरजीको छोड़कर जो पामर भूतोंकी पूजा करते हैं, वेश्याके पुत्रोंकी तरह उनकी अन्तमें बड़ी दुर्दशा होगी॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेये सीता राम नहिं भजे न संकर गौरि।
जनम गँवायो बादिहीं परत पराई पौरि॥

मूल

सेये सीता राम नहिं भजे न संकर गौरि।
जनम गँवायो बादिहीं परत पराई पौरि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि श्रीसीतारामजीकी सेवा नहीं की और श्रीगौरीशंकरका भजन नहीं किया तो पराये दरवाजेपर पड़े रहकर वृथा ही जन्म गँवाया॥ ६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी हरि अपमान तें होइ अकाज समाज।
राज करत रज मिलि गए सदल सकुल कुरुराज॥

मूल

तुलसी हरि अपमान तें होइ अकाज समाज।
राज करत रज मिलि गए सदल सकुल कुरुराज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीहरिका अपमान करनेसे हानियोंका समाज जुट जाता है अर्थात् हानि-ही-हानि होती है (सन्धि करानेके लिये कौरवोंकी राजसभामें दूत बनकर गये हुए) भगवान् श्रीकृष्णका अपमान करनेसे राज्य करते हुए कुरुराज दुर्योधन अपनी सेना और कुटुम्बके सहित धूलमें मिल गये (नष्ट हो गये)॥ ६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी रामहि परिहरें निपट हानि सुन ओझ।
सुरसरि गत सोई सलिल सुरा सरिस गंगोझ॥

मूल

तुलसी रामहि परिहरें निपट हानि सुन ओझ।
सुरसरि गत सोई सलिल सुरा सरिस गंगोझ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि अरे पण्डित! सुनो, श्रीरामजीको छोड़ देनेसे अत्यन्त हानि होती है। श्रीगंगाजीका वही जल श्रीगंगाजीसे अलग हो जानेपर मदिराके समान हो जाता है।* (इसी प्रकार श्रीरामसे विमुख होकर विषयोंका संग करनेसे परमात्माका अंश जीव अपवित्र होकर नरकगामी हो जाता है)॥ ६८॥

पादटिप्पनी
  • शास्त्रका भी वचन है—
    गङ्गाया निःसृतं तोयं पुनर्गङ्गां न गच्छति।
    तत्तोयं मदिरातुल्यं पीत्वा चान्द्रायणं चरेत्॥
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम दूरि माया बढ़ति घटति जानि मन माँह।
भूरि होति रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छाँह॥

मूल

राम दूरि माया बढ़ति घटति जानि मन माँह।
भूरि होति रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छाँह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जैसे सूर्यको दूर देखकर छाया लम्बी हो जाती है और सूर्य जब सिरपर आ जाता है तब वह ठीक पैरोंके नीचे आ जाती है, उसी प्रकार श्रीरामजीसे दूर रहनेपर माया बढ़ती है और जब वह श्रीरामजीको मनमें विराजित जानती है, तब घट जाती है॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहिब सीतानाथ सों जब घटिहै अनुराग।
तुलसी तबहीं भालतें भभरि भागिहैं भाग॥

मूल

साहिब सीतानाथ सों जब घटिहै अनुराग।
तुलसी तबहीं भालतें भभरि भागिहैं भाग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं— जब स्वामी श्रीजानकीनाथजीसे प्रेम घट जायगा, तब उस आदमीके मस्तकसे सौभाग्य तुरंत ही विकल होकर भाग जायगा। (अर्थात् जो मनुष्य भगवान् श्रीरामसे विमुख हो जाता है, उसका सारा सुख-सौभाग्य नष्ट हो जाता है)॥ ७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करिहौ कोसलनाथ तजि जबहिं दूसरी आस।
जहाँ तहाँ दुख पाइहौ तबहीं तुलसीदास॥

मूल

करिहौ कोसलनाथ तजि जबहिं दूसरी आस।
जहाँ तहाँ दुख पाइहौ तबहीं तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि कोसलपति श्रीरामजीको छोड़कर जभी दूसरी आशा करोगे, तभी जहाँ-तहाँ दुःख ही पाओगे॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिंधि न ईंधन पाइऐ सागर जुरै न नीर।
परै उपास कुबेर घर जो बिपच्छ रघुबीर॥

मूल

बिंधि न ईंधन पाइऐ सागर जुरै न नीर।
परै उपास कुबेर घर जो बिपच्छ रघुबीर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि श्रीरघुनाथजी प्रतिकूल हो जायँ तो फिर (घनी लकड़ियोंवाले) विन्ध्याचलमें ईंधन नहीं मिलेगा, समुद्रमें जल नहीं जुड़ सकेगा और धनपति कुबेरके घर भी फाका पड़ जायगा॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरसा को गोबर भयो को चहै को करै प्रीति।
तुलसी तू अनुभवहि अब राम बिमुख की रीति॥

मूल

बरसा को गोबर भयो को चहै को करै प्रीति।
तुलसी तू अनुभवहि अब राम बिमुख की रीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि तू अब श्रीरामजीसे विमुख मनुष्यकी गतिका तो अनुभव कर; वह बरसातका गोबर हो जाता है (जो न तो लीपनेके काममें आता है, न पाथनेके) अर्थात् निकम्मा हो जाता है। उसे कौन चाहेगा? और कौन उससे प्रेम करेगा?॥ ७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबहि समरथहि सुखद प्रिय अच्छम प्रिय हितकारि।
कबहुँ न काहुहि राम प्रिय तुलसी कहा बिचारि॥

मूल

सबहि समरथहि सुखद प्रिय अच्छम प्रिय हितकारि।
कबहुँ न काहुहि राम प्रिय तुलसी कहा बिचारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(संसारकी यह दशा है कि) जो समर्थ पुरुष हैं उन सबको तो (सांसारिक) सुख देनेवाला प्रिय लगता है और असमर्थको अपना (सांसारिक) भला करनेवाला प्रिय होता है। तुलसीदासजी विचारकर ऐसा कहते हैं कि भगवान् श्रीराम (विषयी पुरुषोंमें) कभी किसीको भी प्रिय नहीं लगते॥ ७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी उद्यम करम जुग जब जेहि राम सुडीठि।
होइ सुफल सोइ ताहि सब सनमुख प्रभु तन पीठि॥

मूल

तुलसी उद्यम करम जुग जब जेहि राम सुडीठि।
होइ सुफल सोइ ताहि सब सनमुख प्रभु तन पीठि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं—जब जिसपर श्रीरामजीकी सुदृष्टि होती है, तब उसके सब उद्यम (क्रियमाण) और कर्म (प्रारब्ध) दोनों सफल हो जाते हैं और वह शरीरकी ममता छोड़कर प्रभुके सम्मुख हो जाता है॥ ७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कामतरु परिहरत सेवत कलि तरु ठूँठ।
स्वारथ परमारथ चहत सकल मनोरथ झूँठ॥

मूल

राम कामतरु परिहरत सेवत कलि तरु ठूँठ।
स्वारथ परमारथ चहत सकल मनोरथ झूँठ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो मनुष्य श्रीरामरूपी कल्पवृक्षको छोड़कर सूखे ठूँठ-जैसे (निःसार) कलियुग अर्थात् पापरूपी वृक्षका सेवन करते हैं और उससे स्वार्थ और परमार्थरूपी फल चाहते हैं, उनके सभी मनोरथ व्यर्थ होते हैं (अर्थात् स्वार्थ, परमार्थ कुछ भी सिद्ध नहीं होता)॥ ७६॥

कल्याणका सुगम उपाय

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज दूषन गुन राम के समुझें तुलसीदास।
होइ भलो कलिकाल हूँ उभय लोक अनयास॥

मूल

निज दूषन गुन राम के समुझें तुलसीदास।
होइ भलो कलिकाल हूँ उभय लोक अनयास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं—अपने दोषों (अपराधों) तथा श्रीरामके (क्षमा, दया आदि) गुणोंको समझ लेनेपर अथवा दोषोंको अपना किया और गुण भगवान् श्रीरामके दिये हुए मान लेनेसे इस कलिकालमें भी मनुष्यका इस लोक और परलोक—दोनोंमें सहज ही कल्याण हो जाता है॥ ७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कै तोहि लागहिं राम प्रिय कै तू प्रभु प्रिय होहि।
दुइ में रुचै जो सुगम सो कीबे तुलसी तोहि॥

मूल

कै तोहि लागहिं राम प्रिय कै तू प्रभु प्रिय होहि।
दुइ में रुचै जो सुगम सो कीबे तुलसी तोहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—या तो तुम्हें राम प्रिय लगने लगें या प्रभु श्रीरामका तू प्रिय बन जा। दोनोंमेंसे जो तुझे सुगम जान पड़े तथा प्रिय लगे, तुलसीदासजी कहते हैं कि तुझे वही करना चाहिये। (अर्थात् या तो सबसे प्रेम छोड़कर श्रीरामको ही अपना एकमात्र प्रियतम मान ले या प्रभुकी शरण होकर सब कुछ उन्हें समर्पण कर दे, जिससे वे तुझे अपना अत्यन्त प्रिय मान लें)॥ ७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी दुइ महँ एक ही खेल छाँड़ि छल खेलु।
कै करु ममता राम सों कै ममता परहेलु॥

मूल

तुलसी दुइ महँ एक ही खेल छाँड़ि छल खेलु।
कै करु ममता राम सों कै ममता परहेलु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि सब छोड़कर तू दोनोंमेंसे एक ही खेल—या तो केवल रामसे ही ममता कर या ममताका सर्वथा त्याग कर दे॥ ७९॥

श्रीरामजीकी प्राप्तिका सुगम उपाय

विश्वास-प्रस्तुतिः

निगम अगम साहेब सुगम राम साँचिली चाह।
अंबु असन अवलोकिअत सुलभ सबै जग माँह॥

मूल

निगम अगम साहेब सुगम राम साँचिली चाह।
अंबु असन अवलोकिअत सुलभ सबै जग माँह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो हमारे स्वामी वेदोंके लिये भी अगम हैं, (वेद भी जिनको नेति-नेति कहते हैं) वे ही श्रीराम सच्ची चाहसे ऐसे सुगम हो जाते हैं जैसे जल और अन्न जगत् में सबके लिये सुलभ देखे जाते हैं॥ ८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनमुख आवत पथिक ज्यों दिएँ दाहिनो बाम।
तैसोइ होत सु आप को त्यों ही तुलसी राम॥

मूल

सनमुख आवत पथिक ज्यों दिएँ दाहिनो बाम।
तैसोइ होत सु आप को त्यों ही तुलसी राम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि सामने आते हुए पथिकको आप दायें-बायें जिस ओर देकर चलेंगे, उसी प्रकार वह भी आपके दायें-बायें हो जायगा। ऐसे ही श्रीरामको भी जो जिस प्रकार भजता है श्रीराम भी उसे उसी प्रकार भजते हैं*॥ ८१॥

पादटिप्पनी
  • ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। (गीता ४।११)

रामप्रेमके लिये वैराग्यकी आवश्यकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम प्रेम पथ पेखिऐ दिएँ बिषय तन पीठि।
तुलसी केंचुरि परिहरें होत साँपहू दीठि॥

मूल

राम प्रेम पथ पेखिऐ दिएँ बिषय तन पीठि।
तुलसी केंचुरि परिहरें होत साँपहू दीठि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि विषयोंकी ओर पीठ देनेसे ही (विषयोंमें वैराग्य होनेसे ही) श्रीरामजीके प्रेमका पथ दिखलायी पड़ता है। साँपको भी केंचुल छोड़ देनेपर ही दिखलायी देने लगता है॥ ८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी जौ लौं बिषय की मुधा माधुरी मीठि।
तौ लौं सुधा सहस्र सम राम भगति सुठि सीठि॥

मूल

तुलसी जौ लौं बिषय की मुधा माधुरी मीठि।
तौ लौं सुधा सहस्र सम राम भगति सुठि सीठि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जबतक विषयोंकी मिथ्या माधुरी मीठी लगती है, तबतक हजार अमृतके समान मधुर होनेपर भी रामभक्ति बिलकुल फीकी प्रतीत होती है॥ ८३॥

भक्तिका स्वरूप

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति राम सों नीति पथ चलिय राग रिस जीति।
तुलसी संतन के मते इहै भगति की रीति॥

मूल

प्रीति राम सों नीति पथ चलिय राग रिस जीति।
तुलसी संतन के मते इहै भगति की रीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामजीसे प्रेम करना और राग (आसक्ति या काम) एवं क्रोधको जीतकर नीतिके मार्गपर चलना, संतोंके मतसे भक्तिकी यही रीति है॥ ८६॥

कलियुगसे कौन नहीं छला जाता?

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्य बचन मानस बिमल कपट रहित करतूति।
तुलसी रघुबर सेवकहि सकै न कलिजुग धूति॥

मूल

सत्य बचन मानस बिमल कपट रहित करतूति।
तुलसी रघुबर सेवकहि सकै न कलिजुग धूति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जिनके वचन सत्य होते हैं, मन निर्मल होता है और क्रिया कपटरहित होती है, ऐसे श्रीरामजीके भक्तोंको कलियुग कभी धोखा नहीं दे सकता (वे मायामें नहीं फँस सकते)॥ ८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी सुखी जो राम सों दुखी सो निज करतूति।
करम बचन मन ठीक जेहि तेहि न सकै कलि धूति॥

मूल

तुलसी सुखी जो राम सों दुखी सो निज करतूति।
करम बचन मन ठीक जेहि तेहि न सकै कलि धूति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो मनुष्य श्रीरामजीसे (भगवान् श्रीरामकी कृपासे ही) अपनेको सब प्रकारसे सुखी होना और (श्रीरामजीको छोड़कर) अपनी अहंकारभरी करतूतोंसे दुःखी होना मानता है, जिसके कर्म, वचन और मन ठीक हैं, (भगवान् में लगे हैं) उसको कलियुग धोखा नहीं दे सकता॥ ८८॥

गोस्वामीजीकी प्रेम-कामना

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातो नाते राम कें राम सनेहँ सनेहु।
तुलसी माँगत जोरि कर जनम जनम सिव देहु॥

मूल

नातो नाते राम कें राम सनेहँ सनेहु।
तुलसी माँगत जोरि कर जनम जनम सिव देहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी हाथ जोड़कर वरदान माँगता है कि हे शिवजी! मुझे जन्म-जन्मान्तरोंमें यही दीजिये कि मेरा श्रीरामके नाते ही किसीसे नाता हो और श्रीरामसे प्रेमके कारण ही प्रेम हो॥ ८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब साधनको एक फल जेहिं जान्यो सो जान।
ज्यों त्यों मन मंदिर बसहिं राम धरें धनु बान॥

मूल

सब साधनको एक फल जेहिं जान्यो सो जान।
ज्यों त्यों मन मंदिर बसहिं राम धरें धनु बान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सब साधनोंका यही एकमात्र फल है कि जिस-किसी प्रकारसे भी हो, धनुष-बाण धारण करनेवाले श्रीरामजी मन-मन्दिरमें निवास करने लगें। जिसने इस रहस्यको जान लिया, वही यथार्थ जाननेवाला है॥ ९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं जगदीस तौ अति भलो जौं महीस तौ भाग।
तुलसी चाहत जनम भरि राम चरन अनुराग॥

मूल

जौं जगदीस तौ अति भलो जौं महीस तौ भाग।
तुलसी चाहत जनम भरि राम चरन अनुराग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि श्रीरामजी समस्त जगत् के स्वामी हैं तो बहुत ही अच्छी बात है और यदि वे केवल पृथ्वीके स्वामी—राजा हैं तो भी मेरा बड़ा भाग्य है। (राम कोई भी हों) तुलसीदास तो जन्मभर श्रीरामके चरणकमलोंमें प्रेम ही चाहता है॥ ९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परौं नरक फल चारि सिसु मीच डाकिनी खाउ।
तुलसी राम सनेह को जो फल सो जरि जाउ॥

मूल

परौं नरक फल चारि सिसु मीच डाकिनी खाउ।
तुलसी राम सनेह को जो फल सो जरि जाउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं, मैं चाहे नरकमें पड़ूँ, चारों फल (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) रूपी बालकोंको चाहे मृत्युरूपी डाकिनी खा जाय, श्रीरामजीसे प्रेम करनेका और कुछ भी जो फल हो वह जल जाय, (किंतु फिर भी मैं तो श्रीरामके चरणोंमें प्रेम ही करता रहूँगा)॥ ९२॥

रामभक्तके लक्षण

विश्वास-प्रस्तुतिः

हित सों हित, रति राम सों, रिपु सों बैर बिहाउ।
उदासीन सब सों सरल तुलसी सहज सुभाउ॥

मूल

हित सों हित, रति राम सों, रिपु सों बैर बिहाउ।
उदासीन सब सों सरल तुलसी सहज सुभाउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि रामभक्तका ऐसा सहज भाव होना चाहिये कि श्रीराममें उसका प्रेम हो, मित्रोंसे मैत्री हो, वैरियोंसे वैरका त्याग कर दे, किसीमें पक्षपात न हो और सबसे सरलताका व्यवहार हो॥ ९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी ममता राम सों समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख दास भए भव पार॥

मूल

तुलसी ममता राम सों समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख दास भए भव पार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जिनकी श्रीराममें ममता और सब संसारमें समता है, जिनका किसीके प्रति राग, द्वेष, दोष और दुःखका भाव नहीं है, श्रीरामके ऐसे भक्त भवसागरसे पार हो चुके हैं॥ ९४॥

उद्बोधन

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामहि डरु करु राम सों ममता प्रीति प्रतीति।
तुलसी निरुपधि राम को भएँ हारेहूँ जीति॥

मूल

रामहि डरु करु राम सों ममता प्रीति प्रतीति।
तुलसी निरुपधि राम को भएँ हारेहूँ जीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीसे डरो, श्रीराममें ही ममता, प्रेम और विश्वास करो। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामका कपटरहित सेवक हो रहनेपर हारनेमें भी जीत ही है॥ ९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी राम कृपालु सों कहि सुनाउ गुन दोष।
होय दूबरी दीनता परम पीन संतोष॥

मूल

तुलसी राम कृपालु सों कहि सुनाउ गुन दोष।
होय दूबरी दीनता परम पीन संतोष॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि तुम कृपालु श्रीरामजीसे अपने सब गुण-दोष दिल खोलकर सुना दो। इससे तुम्हारी दीनता दुबली (कम) हो जायगी और संतोष परम पुष्ट (दृढ़) हो जायगा॥ ९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमिरन सेवा राम सों साहब सों पहिचानि।
ऐसेहु लाभ न ललक जो तुलसी नित हित हानि॥

मूल

सुमिरन सेवा राम सों साहब सों पहिचानि।
ऐसेहु लाभ न ललक जो तुलसी नित हित हानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीका स्मरण हो, श्रीरामजीकी सेवाका सौभाग्य प्राप्त हो और श्रीराम-सरीखे स्वामीको तत्त्वसे पहचान लिया जाय। ऐसे परम लाभके लिये भी जो नहीं ललचाता, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसके हितकी सर्वथा हानि ही है॥ ९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानें जानन जोइऐ बिनु जाने को जान।
तुलसी यह सुनि समुझि हियँ आनु धरें धनु बान॥

मूल

जानें जानन जोइऐ बिनु जाने को जान।
तुलसी यह सुनि समुझि हियँ आनु धरें धनु बान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जाननेपर ही जानना देखा जाता है, बिना जाने कौन जान सकता है? (जब हम किसीको जानने लगते हैं, तभी क्रमशः उसका यथार्थ ज्ञान—साक्षात्कार होता है; जाननेकी चेष्टा ही न करें तो कैसे जानेंगे!) तुलसीदासजी कहते हैं कि यह बात सुनकर और समझकर धनुष-बाण धारण किये हुए श्रीरामजीको अपने हृदयमें ले आओ। (ध्यान करते-करते ही साक्षात्कार हो जायगा)॥ ९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करमठ कठमलिया कहैं ग्यानी ग्यान बिहीन।
तुलसी त्रिपथ बिहाइ गो राम दुआरें दीन॥

मूल

करमठ कठमलिया कहैं ग्यानी ग्यान बिहीन।
तुलसी त्रिपथ बिहाइ गो राम दुआरें दीन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि कर्मठ (कर्मकाण्डी) लोग तो मुझे काठकी माला धारण करनेवाला ‘कठमलिया’ कहते हैं, ज्ञानी मुझको ज्ञानविहीन बतलाते हैं (और उपासना करना मैं जानता ही नहीं) मैं तो तीनों मार्गोंको छोड़ दीन होकर श्रीरामचन्द्रजीके दरवाजेपर जा पड़ा हूँ॥ ९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाधक सब सब के भए साधक भए न कोइ।
तुलसी राम कृपालु तें भलो होइ सो होइ॥

मूल

बाधक सब सब के भए साधक भए न कोइ।
तुलसी राम कृपालु तें भलो होइ सो होइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि इस जगत् में तो सब लोग सबके बाधक ही होते हैं, साधक कोई किसीका नहीं है! कृपालु श्रीरामजीसे ही भला होता है सो होता है॥ १००॥

शिव और रामकी एकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥

मूल

संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(भगवान् श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं कि) जिनको शिवजी प्रिय हैं, किंतु जो मुझसे विरोध रखते हैं अथवा जो शिवजीसे विरोध रखते हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य एक कल्पतक घोर नरकमें पड़े रहते हैं (अतएव श्रीशंकरजीमें और श्रीरामजीमें कोई ऊँच-नीचका भेद नहीं मानना चाहिये)॥ १०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलग बिलग सुख संग दुख जनम मरन सोइ रीति।
रहिअत राखे राम कें गए ते उचित अनीति॥

मूल

बिलग बिलग सुख संग दुख जनम मरन सोइ रीति।
रहिअत राखे राम कें गए ते उचित अनीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—संसारसे दूर-दूर (आसक्तिरहित होकर) रहनेमें ही सुख है, आसक्तिमें ही दुःख है। यही बात जन्म और मृत्युमें भी है। श्रीरामके रखे अर्थात् वे रखना चाहते हैं, इसीलिये (आसक्तिरहित होकर यहाँ) रहना चाहिये। अन्यथा इस अनीतिसे (रागयुक्त संसारसे) जो चले गये, उन्होंने ही उचित किया (तात्पर्य यह कि जगत् में या तो भगवत्प्रेमी होकर रहे या ऐसी चेष्टा करे जिसमें इससे मुक्ति ही मिल जाय)॥ १०२॥

श्रीरामकी कृपा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम निकाई रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥

मूल

राम निकाई रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि हे रामजी! आपकी भलाई (सुहृद्भाव)-से सभीका भला है। अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभीका कल्याण करनेवाला है। यदि यह बात सत्य है तो तुलसीदासका भी सदा कल्याण ही है॥ १०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी राम जो आदर्यो खोटो खरो खरोइ।
दीपक काजर सिर धर्यो धर्यो सुधर्यो धरोइ॥

मूल

तुलसी राम जो आदर्यो खोटो खरो खरोइ।
दीपक काजर सिर धर्यो धर्यो सुधर्यो धरोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसको श्रीरामने आदर दे दिया (अपना लिया) वह बुरा भी भला, सदा भला ही है। दीपकने जब काजलको अपने सिरपर धारण कर लिया तो फिर कर ही लिया॥ १०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तनु बिचित्र कायर बचन अहि अहार मन घोर।
तुलसी हरि भए पच्छधर ताते कह सब मोर॥

मूल

तनु बिचित्र कायर बचन अहि अहार मन घोर।
तुलसी हरि भए पच्छधर ताते कह सब मोर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि मोरका रंग-बिरंगा विचित्र शरीर है, कायरकी-सी उसकी बोली है, साँप उसका भोजन है और कठोर मन है। इतने अवगुण होनेपर भी भगवान् श्रीकृष्णने उसकी पाँखोंको सिरपर धारण कर लिया—भगवान् उसका पक्ष रखनेवाले हो गये; तो सभी उससे प्रेम करते हुए ‘मोर, मोर’ (मेरा, मेरा) कहने लगे॥ १०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लहइ न फूटी कौड़िहू को चाहै केहि काज।
सो तुलसी महँगो कियो राम गरीब निवाज॥

मूल

लहइ न फूटी कौड़िहू को चाहै केहि काज।
सो तुलसी महँगो कियो राम गरीब निवाज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसको एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलती थी (जिसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं थी), उसको भला कौन चाहता और किसलिये चाहता। उसी तुलसीको गरीबनिवाज श्रीरामजीने आज महँगा कर दिया (उसका गौरव बढ़ा दिया)॥ १०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर घर माँगे टूक पुनि भूपति पूजे पाय।
जे तुलसी तब राम बिनु ते अब राम सहाय॥

मूल

घर घर माँगे टूक पुनि भूपति पूजे पाय।
जे तुलसी तब राम बिनु ते अब राम सहाय॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जिस समय मैं रामसे (श्रीरामके आश्रयसे) रहित था, उस समय घर-घर टुकड़े माँगता था। अब जो श्रीरामजी मेरे सहायक हो गये हैं तो फिर राजालोग मेरे पैर पूजते हैं॥ १०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी राम सुदीठि तें निबल होत बलवान।
बैर बालि सुग्रीव कें कहा कियो हनुमान॥

मूल

तुलसी राम सुदीठि तें निबल होत बलवान।
बैर बालि सुग्रीव कें कहा कियो हनुमान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामजीकी शुभदृष्टिसे निर्बल भी बलवान् हो जाते हैं। सुग्रीव और बालिके वैरमें हनुमान् जी ने भला क्या किया? (परंतु वही श्रीरामजीकी कृपासे महान् वीर हो गये)॥ ११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी रामहु तें अधिक राम भगत जियँ जान।
रिनिया राजा राम भे धनिक भए हनुमान॥

मूल

तुलसी रामहु तें अधिक राम भगत जियँ जान।
रिनिया राजा राम भे धनिक भए हनुमान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामके भक्तको रामजीसे भी अधिक समझो। राजराजेश्वर श्रीरामचन्द्रजी स्वयं ऋणी हो गये और उनके भक्त श्रीहनुमान् जी उनके साहूकार बन गये (श्रीरामजीने यहाँतक कह दिया कि मैं तुम्हारा ऋण कभी चुका ही नहीं सकता)॥ १११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कियो सुसेवक धरम कपि प्रभु कृतग्य जियँ जानि।
जोरि हाथ ठाढ़े भए बरदायक बरदानि॥

मूल

कियो सुसेवक धरम कपि प्रभु कृतग्य जियँ जानि।
जोरि हाथ ठाढ़े भए बरदायक बरदानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीहनुमान् जी ने (अधिक कुछ नहीं किया, केवल) एक अच्छे सेवकका धर्म ही निभाया। परंतु यह जानकर वर देनेवाले देवताओंके भी वरदाता महेश्वर श्रीभगवान् हृदयसे ऐसे कृतज्ञ हुए कि हाथ जोड़कर हनुमान् जी के सामने खड़े हो गये (कहने लगे कि हे हनुमान्! मैं तुम्हारे बदलेमें उपकार तो क्या करूँ, तुम्हारे सामने नजर उठाकर देख भी नहीं सकता।)॥ ११२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप॥

मूल

भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जगदीश्वर भगवान् श्रीरामजीने भक्तोंके लिये ही राजाका शरीर धारण किया और साधारण मनुष्योंकी भाँति परम पवित्र लीलाएँ कीं॥ ११३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंदघन कर नर चरित उदार॥

मूल

ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंदघन कर नर चरित उदार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो ज्ञान (बुद्धि), वाणी और इन्द्रियोंसे परे अजन्मा तथा माया, मन और गुणोंके पार हैं, वही सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रेष्ठ नरलीला करते हैं॥ ११४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान॥

मूल

हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिन कृपासिन्धु भगवान् ने भाई हिरण्यकशिपुसहित हिरण्याक्षको और बलवान् मधु-कैटभको मारा था, वे ही भगवान् (श्रीरामरूपमें) अवतरित हुए हैं॥ ११५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥

मूल

सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणोंसे रहित, मायातीत, दिव्य मंगलविग्रह), सच्चिदानन्दकन्दस्वरूप सूर्यकुलके ध्वजारूप भगवान् श्रीरामजी मनुष्योंके समान ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसार-सागरसे तारनेके लिये पुलके समान हैं (अर्थात् उन चरित्रोंको गाकर और सुनकर लोग भव-सागरसे सहज ही तर जाते हैं)॥ ११६॥

भगवान् की बाललीला

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाल बिभूषन बसन बर धूरि धूसरित अंग।
बालकेलि रघुबर करत बाल बंधु सब संग॥

मूल

बाल बिभूषन बसन बर धूरि धूसरित अंग।
बालकेलि रघुबर करत बाल बंधु सब संग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजी बालोचित सुन्दर गहने-कपड़ोंसे सजे हुए हैं; उनके श्रीअंग धूलसे मटमैले हो रहे हैं, सब बालकों तथा भाइयोंके साथ आप बालकोंके-से खेल खेल रहे हैं॥ ११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुदिन अवध बधावने नित नव मंगल मोद।
मुदित मातु पितु लोग लखि रघुबर बाल बिनोद॥

मूल

अनुदिन अवध बधावने नित नव मंगल मोद।
मुदित मातु पितु लोग लखि रघुबर बाल बिनोद॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीअयोध्याजीमें रोज बधावे बजते हैं, नित नये-नये मंगलाचार और आनन्द मनाये जाते हैं। श्रीरघुनाथजीकी बाललीला देख-देखकर माता-पिता तथा सब लोग बड़े प्रसन्न होते हैं॥ ११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज अजिर राजत रुचिर कोसलपालक बाल।
जानु पानि चर चरित बर सगुन सुमंगल माल॥

मूल

राज अजिर राजत रुचिर कोसलपालक बाल।
जानु पानि चर चरित बर सगुन सुमंगल माल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कोसलपति महाराज दशरथके लाड़ले लाल राजमहलके सुन्दर आँगनमें हाथों और घुटनोंके बल (बकैयाँ) चलते हुए ऐसी उत्तम-उत्तम लीलाएँ कर रहे हैं जो मानो सब शुभ गुण और सुमंगलोंकी माला ही है॥ ११९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम ललित लीला ललित ललित रूप रघुनाथ।
ललित बसन भूषन ललित ललित अनुज सिसु साथ॥

मूल

नाम ललित लीला ललित ललित रूप रघुनाथ।
ललित बसन भूषन ललित ललित अनुज सिसु साथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीका नाम, उनकी लीला, उनका सुन्दर रूप, उनके वस्त्र, उनके आभूषण सभी अत्यन्त सुन्दर हैं और सुन्दर छोटे भाई तथा अयोध्यावासी बालक उनके साथ (खेल रहे) हैं॥ १२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भरत लछिमन ललित सत्रु समन सुभ नाम।
सुमिरत दसरथ सुवन सब पूजहिं सब मन काम॥

मूल

राम भरत लछिमन ललित सत्रु समन सुभ नाम।
सुमिरत दसरथ सुवन सब पूजहिं सब मन काम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ऐसे जिनके सुन्दर और शुभ नाम हैं, दशरथजीके इन सब सुपुत्रोंका स्मरण करते ही सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं॥ १२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालक कोसलपाल के सेवकपाल कृपाल।
तुलसी मन मानस बसत मंगल मंजु मराल॥

मूल

बालक कोसलपाल के सेवकपाल कृपाल।
तुलसी मन मानस बसत मंगल मंजु मराल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कोसलपति श्रीदशरथजीके बालक श्रीरामजी सेवकोंकी रक्षा करनेवाले तथा बड़े ही कृपालु हैं। वे तुलसीदासके मनरूपी मानसरोवरमें कल्याणरूप सुन्दर हंसके समान निवास करते हैं॥ १२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जगजाल॥

मूल

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जगजाल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ, देवताओंके हितके लिये कृपालु श्रीरामचन्द्रजी मनुष्य-शरीर धारणकर (नाना प्रकारकी) लीलाएँ करते हैं, जिनके सुननेमात्रसे जगत् के (सारे) जंजाल कट जाते हैं॥ १२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥

मूल

निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—देवता, पृथ्वी, गौ और ब्राह्मणों (की रक्षा)-के लिये भगवान् अपनी इच्छासे ही (किसी कर्मबन्धनसे नहीं) अवतार धारण करते हैं। वहाँ सगुण स्वरूपके उपासक भक्तगण (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्ष्टि और सायुज्य) सब प्रकारके मोक्षोंका परित्याग कर (परिकररूपसे) उनके साथ रहते हैं॥ १२४॥

प्रार्थना

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥

मूल

परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे परमानन्दस्वरूप, कृपाके धाम, मनकी (सारी) कामनाओंके पूर्ण करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी! आप हमें अपनी अविचल प्रेमा भक्ति दीजिये॥ १२५॥

भजनकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥

मूल

बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जलके मथनेसे भले ही घी उत्पन्न हो जाय तथा बालूके पेरनेसे चाहे तेल निकल आवे; परंतु श्रीहरिके भजन बिना भवसागरसे पार नहीं हुआ जा सकता, यह सिद्धान्त अटल है॥ १२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम सब काम तजि अस बिचारि मन माहिं॥

मूल

हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम सब काम तजि अस बिचारि मन माहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीहरिकी मायाके द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्रीहरिके भजन बिना नष्ट नहीं होते। ऐसा मनमें विचारकर सब कामनाओंको त्यागकर श्रीरामजीका भजन ही करना चाहिये॥ १२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य॥

मूल

जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो चेतनको जड़ कर देते हैं और जड़को चेतन, ऐसे समर्थ श्रीरघुनाथजीको जो जीव भजते हैं वे धन्य हैं॥ १२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीरघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥

मूल

श्रीरघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीके प्रतापसे समुद्रमें पत्थर तर गये। अतएव वे लोग (निश्चय ही) मन्दबुद्धि हैं जो ऐसे श्रीरामजीको छोड़कर किसी दूसरे स्वामीको जाकर भजते हैं॥ १२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लव निमेष परमानु जुग बरस कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम कहँ कालु जासु कोदंड॥

मूल

लव निमेष परमानु जुग बरस कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम कहँ कालु जासु कोदंड॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मन! तू उन श्रीरामको क्यों नहीं भजता; जिनका काल तो धनुष है और लव, निमेष, परमाणु, युग, वर्ष और कल्प जिनके प्रचण्ड बाण हैं॥ १३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोकधाम तजि काम॥

मूल

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोकधाम तजि काम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जबतक यह जीव शोकके घर काम (विषयोंकी कामना)-को त्यागकर श्रीरामजीको नहीं भजता, तबतक उसके लिये न तो कुशल है और न स्वप्नमें भी (कभी) उसके मनको शान्ति मिलती है॥ १३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतसंग न हरिकथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु रामपद होइ न दृढ़ अनुराग॥

मूल

बिनु सतसंग न हरिकथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु रामपद होइ न दृढ़ अनुराग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सत्संगके बिना भगवान् की लीला-कथाएँ सुननेको नहीं मिलतीं, भगवान् की रहस्यमयी कथाओंके सुने बिना मोह नहीं भागता और मोहका नाश हुए बिना भगवान् श्रीरामजीके चरणोंमें सुदृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता॥ १३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥

मूल

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भगवान् पर श्रद्धा-विश्वास हुए बिना उनकी भक्ति नहीं होती, भक्तिके बिना श्रीरामजी पिघलते नहीं और श्रीरामजीकी कृपा बिना जीव स्वप्नमें भी विश्राम (शान्ति) नहीं पाता॥ १३३॥

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद॥

मूल

अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे धीरबुद्धि! ऐसा विचारकर सारे कुतर्कों और संशयोंको त्यागकर करुणाकी खान परम मनोहर दिव्यविग्रह, परम सुखदायक रघुवीर श्रीरामजीका भजन करिये॥ १३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन॥

मूल

भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सुखके खजाने और करुणाके धाम भगवान् भाव (प्रेम)-के वश हैं। अतएव ममता, मद और मानको त्यागकर निरन्तर सीतापति श्रीरामजीका भजन ही करना चाहिये॥ १३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहिं बिमलमति संत बेद पुरान बिचारि अस।
द्रवहिं जानकी कंत तब छूटै संसार दुख॥

मूल

कहहिं बिमलमति संत बेद पुरान बिचारि अस।
द्रवहिं जानकी कंत तब छूटै संसार दुख॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—निर्मल बुद्धिवाले संत वेद और पुराणोंका विचार करके यही कहते हैं कि जानकीनाथ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी जब कृपा करते हैं, तभी संसारके दुःखोंसे छुटकारा मिलता है॥ १३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥

मूल

बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—वेद-पुराण कहते हैं कि क्या बिना गुरुके ज्ञान हो सकता है, अथवा वैराग्यके बिना क्या ज्ञान प्राप्त हो सकता है? और श्रीहरिकी भक्ति बिना क्या कभी (सच्चे) सुखकी प्राप्ति हो सकती है?॥ १३७॥

दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥

मूल

रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीके भजन बिना ही निर्वाणपद (मोक्ष) चाहता है, वह ज्ञानवान् (समझदार) होनेपर भी बिना सींग-पूँछका (डूँडा) पशु है॥ १३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो रामपद करइ न सहस सहाइ॥

मूल

जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो रामपद करइ न सहस सहाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—वह सम्पत्ति, घर, सुख, मित्र, माता-पिता और भाई आदि सब जल जायँ (नष्ट हो जायँ), जो श्रीरामजीके चरणोंके सम्मुख होनेमें हँसते हुए (प्रसन्नतापूर्वक) सहायता नहीं करते॥ १३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेइ साधु गुरु समुझि सिखि राम भगति थिरताइ।
लरिकाई को पैरिबो तुलसी बिसरि न जाइ॥

मूल

सेइ साधु गुरु समुझि सिखि राम भगति थिरताइ।
लरिकाई को पैरिबो तुलसी बिसरि न जाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सच्चे साधु और सद्गुरुकी सेवा करके उनसे श्रीरामजीके तत्त्वको समझो और सीखो, तब श्रीरामकी भक्ति स्थिर हो जायगी; क्योंकि बचपनमें सीखा हुआ तैरना फिर नहीं भूलता॥ १४०॥

रामसेवककी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबइ कहावत राम के सबहि राम की आस।
राम कहहिं जेहि आपनो तेहि भजु तुलसीदास॥

मूल

सबइ कहावत राम के सबहि राम की आस।
राम कहहिं जेहि आपनो तेहि भजु तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सभी श्रीरामजीके भक्त कहलाते हैं और सभीको श्रीरामचन्द्रजीकी ही आशा है। परंतु हे तुलसीदास! तू तो उसीका भजन (सेवा) कर, जिसको स्वयं श्रीरामचन्द्रजी अपना भक्त कहते हैं॥ १४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान॥

मूल

जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—चतुरलोग उसी शरीरका आदर करते हैं, जिस शरीरसे श्रीरामजीमें प्रेम होता है। इस प्रेमके कारण ही हनुमान् जी ने अपने रुद्रदेहको त्यागकर वानरका शरीर धारण किया है॥ १४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान।
पुरुषा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥

मूल

जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान।
पुरुषा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीकी सेवामें परम आनन्द जानकर पितामह ब्रह्माजी सेवक (जाम्बवान्) बन गये और श्रीशिवजी हनुमान् हो गये। इस रहस्यको समझो और प्रेमकी महिमाका अनुमान लगाओ॥ १४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी रघुबर सेवकहि खल डाटत मन माखि।
बाजराज के बालकहि लवा दिखावत आँखि॥

मूल

तुलसी रघुबर सेवकहि खल डाटत मन माखि।
बाजराज के बालकहि लवा दिखावत आँखि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि दुष्ट लोग मनमें क्रोध करके श्रीरघुनाथजीके सेवकको वैसे ही डाँटा करते हैं जैसे बाजराजके बच्चेको बटेर आँख दिखाता है॥ १४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावन रिपुके दास तें कायर करहिं कुचालि।
खर दूषन मारीच ज्यों नीच जाहिंगे कालि॥

मूल

रावन रिपुके दास तें कायर करहिं कुचालि।
खर दूषन मारीच ज्यों नीच जाहिंगे कालि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कायर (नीचलोग) ही रावणारि श्रीरामजीके दासोंसे कुचाल किया करते हैं। वे नीच खर-दूषण या मारीचकी भाँति कल ही (शीघ्र ही) संसारसे कूच कर जायँगे॥ १४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुन्य पाप जस अजस के भावी भाजन भूरि।
संकट तुलसीदास को राम करहिंगे दूरि॥

मूल

पुन्य पाप जस अजस के भावी भाजन भूरि।
संकट तुलसीदास को राम करहिंगे दूरि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासका संकट तो श्रीरामजी दूर कर ही देंगे। हाँ, सहायक और बाधक लोग भविष्यमें पुण्य-पाप तथा यश-अपयशके पात्र खूब होंगे॥ १४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खेलत बालक ब्याल सँग मेलत पावक हाथ।
तुलसी सिसु पितु मातु ज्यों राखत सिय रघुनाथ*॥

मूल

खेलत बालक ब्याल सँग मेलत पावक हाथ।
तुलसी सिसु पितु मातु ज्यों राखत सिय रघुनाथ*॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जैसे साँपके साथ खेलते और अग्निमें हाथ डालते हुए बालकको उसके माता-पिता रोक लेते हैं, वैसे ही तुलसीदासरूपी शिशुको विषयरूपी विषधर सर्प अथवा विषयरूपी ज्वालाकी ओर जाते देखकर माता-पितारूप श्रीसीतारामजी बचा लेते हैं॥ १४७॥

पादटिप्पनी
  • रामचरितमानसमें इसी भावकी निम्नलिखित अर्धाली मिलती है—
    गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई।
    तहँ राखइ जननी अरगाई॥
    (अरण्य० ४२।३)
विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी दिन भल साहु कहँ भली चोर कहँ राति।
निसि बासर ता कहँ भलो मानै राम इताति॥

मूल

तुलसी दिन भल साहु कहँ भली चोर कहँ राति।
निसि बासर ता कहँ भलो मानै राम इताति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि साहूकारके लिये दिन अच्छा है और चोरके लिये रात अच्छी है; परंतु जो श्रीरामजीकी आज्ञा मानता है, उसके लिये रात-दिन दोनों कल्याणकारी हैं॥ १४८॥

राममहिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी जाने सुनि समुझि कृपासिंधु रघुराज।
महँगे मनि कंचन किए सौंधे जग जल नाज॥

मूल

तुलसी जाने सुनि समुझि कृपासिंधु रघुराज।
महँगे मनि कंचन किए सौंधे जग जल नाज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि हमने संत-महात्माओंसे सुनकर और स्वयं समझकर यह भलीभाँति जान लिया है कि श्रीरघुनाथजी कृपाके समुद्र हैं, जिन्होंने मणियोंको और सोनेको तो महँगा कर दिया; परंतु प्राण धारण करनेके लिये सबसे अधिक आवश्यक वस्तु जल और अन्नको जगत् में सस्ता (सुलभ) बना दिया॥ १४९॥

रामभजनकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवा सील सनेह बस करि परिहरि प्रिय लोग।
तुलसी ते सब राम सों सुखद सँजोग बियोग॥

मूल

सेवा सील सनेह बस करि परिहरि प्रिय लोग।
तुलसी ते सब राम सों सुखद सँजोग बियोग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जगत् के सम्बन्धी प्रियजनोंको (उनके मोहको) त्यागकर सेवा, शील और प्रेमसे श्रीरामजीको वशमें करो। श्रीरामजीके प्रति सेवा, प्रेम आदि करनेपर प्रत्येक संयोग-वियोग सुखप्रद हो जायगा (क्योंकि मोहवश ही मनुष्यको जन्म-मरणशील प्रियजनों या प्रिय पदार्थोंके संयोग-वियोगमें सुख-दुःख होता है और रामजीसे तो कभी वियोग हो ही नहीं सकता)॥ १५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारि चहत मानस अगम चनक चारि को लाहु।
चारि परिहरें चारि को दानि चारि चख चाहु॥

मूल

चारि चहत मानस अगम चनक चारि को लाहु।
चारि परिहरें चारि को दानि चारि चख चाहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारोंको मनुष्य चाहता है; परंतु ये मनसे अगम हैं मिलते नहीं। मिलते हैं चार चने ही (केवल कुछ विषय ही), अतएव इन चारोंकी चाह छोड़कर चारोंके देनेवाले भगवान् श्रीरामजीको बाहरके दो और भीतरके दो (मन-बुद्धि)—इन चारों नेत्रोंसे देखो॥ १५१॥

रामप्रेमकी प्राप्तिका सुगम उपाय

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति॥

मूल

सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसका मन सरल है, वाणी सरल है और समस्त क्रियाएँ सरल हैं, उसके लिये भगवान् श्रीरघुनाथजीके प्रेमको उत्पन्न करनेवाली सभी विधियाँ सरल हैं अर्थात् निष्कपट (दम्भरहित) मन, वाणी और कर्मसे भगवान् का प्रेम अत्यन्त सरलतासे प्राप्त हो सकता है॥ १५२॥

रामप्राप्तिमें बाधक

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेष बिसद बोलनि मधुर मन कटु करम मलीन।
तुलसी राम न पाइऐ भएँ बिषय जल मीन॥

मूल

बेष बिसद बोलनि मधुर मन कटु करम मलीन।
तुलसी राम न पाइऐ भएँ बिषय जल मीन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि ऊपरका वेष साधुओंका-सा हो और बोली भी मीठी हो, परंतु मन कठोर और कर्म भी मलिन हो—इस प्रकार विषयरूपी जलकी मछली बने रहनेसे श्रीरामजीकी प्राप्ति नहीं होती (श्रीरामजी तो सरल मनवालेको ही मिलते हैं)॥ १५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन बेष तें जो बनइ सो बिगरइ परिनाम।
तुलसी मन तें जो बनइ बनी बनाई राम॥

मूल

बचन बेष तें जो बनइ सो बिगरइ परिनाम।
तुलसी मन तें जो बनइ बनी बनाई राम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि दम्भसे भरे हुए बाहरी वेष और वचनोंसे जो काम बनता है, वह दम्भ खुलनेपर अन्तमें बिगड़ जाता है; परंतु जो काम सरल मनसे बनता है, वह तो श्रीरामकी कृपासे बना-बनाया ही है॥ १५४॥

रामकी अनुकूलतामें ही कल्याण है

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीच मीचु लै जाइ जो राम रजायसु पाइ।
तौ तुलसी तेरो भलो न तु अनभलो अघाइ॥

मूल

नीच मीचु लै जाइ जो राम रजायसु पाइ।
तौ तुलसी तेरो भलो न तु अनभलो अघाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि रे नीच! यदि श्रीरामजीकी आज्ञा पाकर तुझे मृत्यु ले जाय तो उसमें भी तेरा कल्याण ही है। परंतु मनमाने जीवनमें तो महान् अकल्याण ही है॥ १५५॥

श्रीरामकी शरणागतवत्सलता

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥

मूल

जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो नीच जातिकी और पापोंकी जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री (शबरी)-को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महामूर्ख मन! तू ऐसे प्रभु श्रीरामको भूलकर सुख चाहता है?॥ १५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंधु बधू रत कहि कियो बचन निरुत्तर बालि।
तुलसी प्रभु सुग्रीव की चितइ न कछू कुचालि॥

मूल

बंधु बधू रत कहि कियो बचन निरुत्तर बालि।
तुलसी प्रभु सुग्रीव की चितइ न कछू कुचालि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीने बालिको तो यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि तू भाईकी स्त्रीपर आसक्त है; परंतु तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभुने सुग्रीवकी वैसी ही कुचालपर कुछ भी ध्यान नहीं दिया॥ १५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालि बली बलसालि दलि सखा कीन्ह कपिराज।
तुलसी राम कृपालु को बिरद गरीब निवाज॥

मूल

बालि बली बलसालि दलि सखा कीन्ह कपिराज।
तुलसी राम कृपालु को बिरद गरीब निवाज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीने शरीरसे बली और सेना-राज्यादि बलोंसे युक्त बालिको मारकर सुग्रीवको अपना सखा और बंदरोंका राजा बना दिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि कृपालु श्रीरामचन्द्रजीका विरद ही गरीबोंकी रक्षा करना है॥ १५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहा बिभीषन लै मिल्यो कहा बिगार्यो बालि।
तुलसी प्रभु सरनागतहि सब दिन आए पालि॥

मूल

कहा बिभीषन लै मिल्यो कहा बिगार्यो बालि।
तुलसी प्रभु सरनागतहि सब दिन आए पालि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बालिने तो भगवान् का क्या बिगाड़ा था (जिससे उसको मार डाला) और विभीषण ऐसा क्या लेकर आया था (जिससे भगवान् ने उसे लंकाका राज्य देकर अभय कर दिया)? तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु सदासे ही अपने शरणागतकी रक्षा करते आये हैं॥ १५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी कोसलपाल सो को सरनागत पाल।
भज्यो बिभीषन बंधु भय भंज्यो दारिद काल॥

मूल

तुलसी कोसलपाल सो को सरनागत पाल।
भज्यो बिभीषन बंधु भय भंज्यो दारिद काल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि कोसलपति श्रीरामजीके समान शरणागतका पालन करनेवाला और कौन है? विभीषणने भाई रावणके डरसे श्रीरामजीका भजन किया था, परंतु भगवान् ने उसकी दरिद्रताको तथा कालको नष्ट कर दिया (लंकाका राज्य देकर अमर कर दिया)॥ १६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि॥

मूल

कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(श्रीकाकभुशुण्डिजी गरुड़जीसे कहते हैं कि) हे पक्षिराज! श्रीरामजीका चित्त (अपने लिये तो) वज्रसे अधिक कठोर है और (भक्तोंके लिये) फूलसे भी अधिक कोमल है। कहिये, फिर इस चित्तका रहस्य किसकी समझमें आ सकता है॥ १६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलकल भूषन फल असन तृन सज्या द्रुम प्रीति।
तिन्ह समयन लंका दई यह रघुबर की रीति॥

मूल

बलकल भूषन फल असन तृन सज्या द्रुम प्रीति।
तिन्ह समयन लंका दई यह रघुबर की रीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भगवान् श्रीरामजी जिस समय स्वयं वल्कल-वस्त्रोंसे भूषित रहते थे, फल खाते थे, तिनकोंकी शय्यापर सोते थे और वृक्षोंसे प्रेम करते थे, उसी समय उन्होंने विभीषणको लंका प्रदान की। श्रीरघुनाथजीकी यही रीति है। (स्वयं त्याग करते हैं और भक्तोंको परम ऐश्वर्य दे देते हैं)॥ १६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥

मूल

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो सम्पत्ति (लंकाका राज्य) रावणको शिवजीने दस सिरोंकी बलि चढ़ानेपर दी थी, वही सम्पदा श्रीरघुनाथजीने विभीषणको बड़े संकोचके साथ दी (यह सोचते रहे कि मैंने इस शरणागत भक्तको तुच्छ वस्तु ही दी)॥ १६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबिचल राज बिभीषनहि दीन्ह राम रघुराज।
अजहुँ बिराजत लंक पर तुलसी सहित समाज॥

मूल

अबिचल राज बिभीषनहि दीन्ह राम रघुराज।
अजहुँ बिराजत लंक पर तुलसी सहित समाज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि रघुराज श्रीरामजीने विभीषणको अविचल राज्य दे दिया; इसीसे वह आज भी अपने समाज (परिवार)- सहित लंकाके राज्यपदपर विराजमान है॥ १६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहा बिभीषन लै मिल्यो कहा दियो रघुनाथ।
तुलसी यह जाने बिना मूढ़ मीजिहैं हाथ॥

मूल

कहा बिभीषन लै मिल्यो कहा दियो रघुनाथ।
तुलसी यह जाने बिना मूढ़ मीजिहैं हाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—विभीषण क्या लेकर भगवान् से मिला था और श्रीरघुनाथजीने उसे क्या दे डाला? तुलसीदासजी कहते हैं, इस बातको बिना जाने मूर्ख लोग हाथ ही मलते रह जायँगे। (खाली हाथ मिलनेवाले विभीषणको श्रीरामने लंकाका अचल राज्य और अपनी अविचल भक्ति दे दी। भगवान् श्रीरामके इस स्वभावको न जाननेवाले लोग श्रीरामकी शरण न होकर इस दुःखमय और अनित्य जगत् में ही भटकते रहेंगे)॥ १६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बैरि बंधु निसिचर अधम तज्यो न भरें कलंक।
झूठें अघ सिय परिहरी तुलसी साइँ ससंक॥

मूल

बैरि बंधु निसिचर अधम तज्यो न भरें कलंक।
झूठें अघ सिय परिहरी तुलसी साइँ ससंक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—शत्रु रावणके भाई, नीच राक्षस और (भाईको त्याग देनेके) कलंकसे भरे रहनेपर भी विभीषणको तो रामने अपनी शरणमें ले लिया और झूठे ही अपराधोंके कारण पवित्रात्मा सीताका त्याग कर दिया। तुलसीदासके स्वामी श्रीरामचन्द्रजी बड़े ही सावधान हैं (लीला-व्यवहारमें अपने अंदर किसी प्रकारका दोष नहीं आने देते)॥ १६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहि समाज कियो कठिन पन जेहिं तौल्यो कैलास।
तुलसी प्रभु महिमा कहौं सेवक को बिस्वास॥

मूल

तेहि समाज कियो कठिन पन जेहिं तौल्यो कैलास।
तुलसी प्रभु महिमा कहौं सेवक को बिस्वास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस रावणने कैलासको हाथोंसे तौला था, उसीके दरबारमें अंगदने पाँव रोपकर कठिन प्रण कर लिया (कि कोई यदि मेरा पैर हटा देगा तो मैं सीताको हार जाऊँगा और श्रीरामजी लौट जायँगे तथा प्रभुने इस प्रणको भंग नहीं होने दिया)। तुलसीदासजी कहते हैं, इसे मैं प्रभुकी महिमा कहूँ या सेवक (अंगद)-का विश्वास बतलाऊँ॥ १६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभा सभासद निरखि पट पकरि उठायो हाथ।
तुलसी कियो इगारहों बसन बेस जदुनाथ॥

मूल

सभा सभासद निरखि पट पकरि उठायो हाथ।
तुलसी कियो इगारहों बसन बेस जदुनाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस समय द्रौपदीने सभाकी और सभासदोंकी ओर देखकर (किसीसे भी रक्षाकी आशा न समझकर) एक हाथसे अपनी साड़ीको पकड़ा और दूसरे हाथको ऊँचा करके भगवान् को पुकारा, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसी समय यादवपति भगवान् श्रीकृष्णने ग्यारहवाँ वस्त्रावतार धारण कर लिया (दस अवतार भगवान् के प्रसिद्ध हैं, यह ग्यारहवाँ हुआ)॥ १६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्राहि तीनि कह्यो द्रौपदी तुलसी राज समाज।
प्रथम बढ़े पट बिय बिकल चहत चकित निज काज॥

मूल

त्राहि तीनि कह्यो द्रौपदी तुलसी राज समाज।
प्रथम बढ़े पट बिय बिकल चहत चकित निज काज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि राजसभामें (जब दुःशासन द्रौपदीका चीर खींचने लगा तब) द्रौपदीने घबड़ाकर तीन बार ‘त्राहि-त्राहि’ पुकारा। पहली त्राहि कहते ही वस्त्र बढ़ गया, (दूसरीमें) भगवान् व्याकुल हो उठे कि द्रौपदीको सतानेवालोंके लिये अब क्या किया जाय? (तीसरीमें) चकित होकर अपने (दुष्टसंहाररूपी) कार्यकी इच्छा करने लगे (अर्थात् दुःशासनादि कौरवोंके संहारका निश्चय कर लिया अर्थात् भक्तकी सच्चे मनसे की हुई एक भी पुकार व्यर्थ नहीं जाती)॥ १६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख जीवन सब कोउ चहत सुख जीवन हरि हाथ।
तुलसी दाता मागनेउ देखिअत अबुध अनाथ॥

मूल

सुख जीवन सब कोउ चहत सुख जीवन हरि हाथ।
तुलसी दाता मागनेउ देखिअत अबुध अनाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सब कोई सुखमय जीवन चाहते हैं, परंतु सुखमय जीवन श्रीहरिके हाथमें है। तुलसीदासको तो जगत् में दाता और भिखारी दोनों ही मूर्ख और अनाथ दिखायी देते हैं। (दाता इसलिये मूर्ख हैं कि वे दानके अभिमानसे बँध जाते हैं और भिखारी इसलिये अनाथ हैं कि वे सर्वलोकमहेश्वर, सबके सुहृद्, अकारण कृपालु भगवान् को छोड़कर नाशवान् लोगोंसे नाशवान् भोग माँगते हैं)॥ १७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपिन देइ पाइअ परो बिनु साधें सिधि होइ।
सीतापति सनमुख समुझि जो कीजै सुभ सोइ॥

मूल

कृपिन देइ पाइअ परो बिनु साधें सिधि होइ।
सीतापति सनमुख समुझि जो कीजै सुभ सोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कृपण दे देता है, पड़ा मिल जाता है, बिना ही साधनके सिद्धि हो जाती है। श्रीजानकीनाथको सम्मुख समझकर (उनकी कृपापर भरोसा करके) जो कुछ कीजिये, वही शुभ हो जाता है॥ १७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दंडक बन पावन करन चरन सरोज प्रभाउ।
ऊसर जामहिं खल तरहिं होइ रंक ते राउ॥

मूल

दंडक बन पावन करन चरन सरोज प्रभाउ।
ऊसर जामहिं खल तरहिं होइ रंक ते राउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—दण्डकवनको पवित्र (शापमुक्त) करनेवाले भगवान् के चरणकमलोंके प्रभावसे ऊसर भूमिमें भी अन्न उत्पन्न हो जाता है, दुष्ट तर जाते हैं और रंक (दरिद्री) भी राजा बन जाता है॥ १७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनहीं रितु तरुबर फरत सिला द्रवति जल जोर।
राम लखन सिय करि कृपा जब चितवत जेहि ओर॥

मूल

बिनहीं रितु तरुबर फरत सिला द्रवति जल जोर।
राम लखन सिय करि कृपा जब चितवत जेहि ओर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी जब कृपा करके जिसकी तरफ ताक लेते हैं तब बिना ही ऋतुके वृक्ष फलने लगते हैं और पत्थरकी शिलाओंसे बड़े जोरसे जल बहने लगता है॥ १७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिला सुतिय भइ गिरि तरे मृतक जिए जग जान।
राम अनुग्रह सगुन सुभ सुलभ सकल कल्यान॥

मूल

सिला सुतिय भइ गिरि तरे मृतक जिए जग जान।
राम अनुग्रह सगुन सुभ सुलभ सकल कल्यान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीकी कृपासे सब शुभ सद्गुण आ जाते हैं, सब प्रकारके कल्याण सुलभ हो जाते हैं (सहज ही मिल जाते हैं)। इस बातको तमाम जगत् जानता है कि श्रीरामकृपासे शिला सुन्दरी स्त्री (अहल्या) बन गयी, समुद्रमें पहाड़ तर गये और युद्धमें मरे हुए वानर-भालु पुनः जीवित हो गये॥ १७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिला साप मोचन चरन सुमिरहु तुलसीदास।
तजहु सोच संकट मिटिहिं पूजहि मनकी आस॥

मूल

सिला साप मोचन चरन सुमिरहु तुलसीदास।
तजहु सोच संकट मिटिहिं पूजहि मनकी आस॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि शिलाको (अहल्याको) शापसे मुक्त करनेवाले श्रीरामजीके चरणोंका स्मरण करो और सब चिन्ताओंका त्याग कर दो। इस प्रकार अनन्य श्रीरामचिन्तनसे तुम्हारे सब संकट दूर हो जायँगे और मनोकामना पूर्ण हो जायगी॥ १७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुए जिआए भालु कपि अवध बिप्रको पूत।
सुमिरहु तुलसी ताहि तू जाको मारुति दूत॥

मूल

मुए जिआए भालु कपि अवध बिप्रको पूत।
सुमिरहु तुलसी ताहि तू जाको मारुति दूत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिन्होंने लंकामें मरे हुए बंदर-भालुओंको जिला दिया और अयोध्यामें मरे हुए एक ब्राह्मणके बालकको जीवित कर दिया, हे तुलसीदास! तुम उनका स्मरण करो, जिनके दूत पवनपुत्र हनुमान् जी हैं(जो संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मणजीको जीवित करनेवाले हैं)॥ १७६॥

रामराज्यकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि।
राग न रोष न दोष दुख सुलभ पदारथ चारि॥

मूल

राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि।
राग न रोष न दोष दुख सुलभ पदारथ चारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—रामराज्यमें सभी नर-नारी अपने-अपने धर्ममें रत होकर शोभित हो रहे हैं। कहीं भी राग (आसक्त), क्रोध, दोष और दुःख नहीं हैं; धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—चारों पदार्थ सुलभ हो रहे हैं॥ १८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राज संतोष सुख घर बन सकल सुपास।
तरु सुरतरु सुरधेनु महि अभिमत भोग बिलास॥

मूल

राम राज संतोष सुख घर बन सकल सुपास।
तरु सुरतरु सुरधेनु महि अभिमत भोग बिलास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—रामराज्यमें सब प्रकारसे संतोष और सुख है, घरमें तथा वनमें दोनों ही जगह सब प्रकारकी सुविधाएँ हैं। वृक्ष कल्पपृक्षके समान और पृथ्वी कामधेनुके समान इच्छामात्रको पूर्ण करती है और मनोवांछित भोग-विलास सबको प्राप्त हैं॥ १८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खेती बनि बिद्या बनिज सेवा सिलिप सुकाज।
तुलसी सुरतरु सरिस सब सुफल राम कें राज॥

मूल

खेती बनि बिद्या बनिज सेवा सिलिप सुकाज।
तुलसी सुरतरु सरिस सब सुफल राम कें राज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामजीके राज्यमें खेती, मजदूरी, विद्या, व्यापार, सेवा और कारीगरी तथा अन्य सुन्दर कार्य कल्पवृक्षके समान सब सुन्दर शुभ फलोंके देनेवाले हैं॥ १८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज॥

मूल

दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामचन्द्रजीके राज्यमें दण्ड केवल संन्यासियोंके हाथोंमें रह गया था और भेद (सुर-तालके भेदके अर्थमें) केवल नाचनेवालोंके नृत्य-समाजमें था; और ‘जीतो’ शब्द केवल मनको जीतनेके प्रसंगमें ही सुन पड़ता था (राजनीतिमें साम, दान, दण्ड, भेद—ये चार शत्रुको जीतनेके उपाय कहे गये हैं। श्रीरामराज्यमें कोई शत्रु था ही नहीं, जिसके लिये इनसे काम लेना पड़ता; अतएव दण्ड और भेदके नामसे तो क्रमशः उपर्युक्त वस्तु तथा भाव रह गये थे और साम, दान, स्वाभाविक सात्त्विक गुण हैं ही)॥ १८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोपें सोच न पोच कर करिअ निहोर न काज।
तुलसी परमिति प्रीति की रीति राम कें राज॥

मूल

कोपें सोच न पोच कर करिअ निहोर न काज।
तुलसी परमिति प्रीति की रीति राम कें राज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रजीके राज्यमें प्रेमकी रीति सीमातक पहुँच गयी थी। इनसे न तो किसीके क्रोध करनेपर कोई उसकी चिन्ता ही करता और न उसका कोई अपकार ही करता। सब लोग सबका काम प्रेमसे करते। काम करनेमें कोई किसीपर अहसान नहीं जताता॥ १८६॥

श्रीरामकी दयालुता

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकुर निरखि मुख राम भ्रू गनत गुनहि दै दोष।
तुलसी से सठ सेवकन्हि लखि जनि परहिं सरोष॥

मूल

मुकुर निरखि मुख राम भ्रू गनत गुनहि दै दोष।
तुलसी से सठ सेवकन्हि लखि जनि परहिं सरोष॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजी दर्पणमें अपना श्रीमुख निरखकर अपनी टेढ़ी भौंहोंको जो एक गुण है, दोष देते हैं और सोचते हैं कि तुलसी-सरीखे दुष्ट सेवकोंको कहीं इन टेढ़ी भ्रुकुटियोंमें क्रोध न दिखायी देने लगे॥ १८७॥

श्रीरामकी धर्मधुरन्धरता

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहसनाम मुनि भनित सुनि तुलसी बल्लभ नाम।
सकुचित हियँ हँसि निरखि सिय धरम धुरंधर राम॥

मूल

सहसनाम मुनि भनित सुनि तुलसी बल्लभ नाम।
सकुचित हियँ हँसि निरखि सिय धरम धुरंधर राम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मुनिके कहे हुए रामसहस्रनाममें ‘तुलसीवल्लभ’ अपना नाम सुनकर धर्मधुरंधर भगवान् श्रीरामजी हँसकर सीताजीकी ओर देखते हैं और मन-ही-मन सकुचाते हैं॥ १८८॥

श्रीसीताजीका अलौकिक प्रेम

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहँसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥

मूल

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहँसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(जनकपुरीमें सखियोंके कहनेपर भी) मुनि गौतमकी पत्नी अहल्याकी गतिको याद करके (जो चरणस्पर्श करते ही देवी बनकर आकाशमें उड़ गयी थी) श्रीसीताजी अपने हाथोंसे भगवान् श्रीरामजीके पैर नहीं छूतीं। रघुवंशविभूषण श्रीरामजी सीताजीके इस अलौकिक प्रेमको जानकर मन-ही-मन हँसने लगे॥ १८९॥

श्रीरामकी कीर्ति

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी बिलसत नखत निसि सरद सुधाकर साथ।
मुकुता झालरि झलक जनु राम सुजसु सिसु हाथ॥

मूल

तुलसी बिलसत नखत निसि सरद सुधाकर साथ।
मुकुता झालरि झलक जनु राम सुजसु सिसु हाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके साथ रात्रिमें नक्षत्रावली ऐसी शोभा देती है, मानो श्रीरामजीके सुयशरूपी शिशुके हाथमें मोतियोंकी झालर झलमला रही हो॥ १९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुपति कीरति कामिनी क्यों कहै तुलसीदासु।
सरद अकास प्रकास ससि चारु चिबुक तिल जासु॥

मूल

रघुपति कीरति कामिनी क्यों कहै तुलसीदासु।
सरद अकास प्रकास ससि चारु चिबुक तिल जासु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीकी कीर्तिरूपी कामिनीका तुलसीदास कैसे बखान कर सकता है? शरत्पूर्णिमाके आकाशमें प्रकाशित होनेवाला चन्द्रमा मानो उस कीर्ति-कामिनीकी ठुड्डीका तिल है॥ १९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु गुन गन भूषन बसन बिसद बिसेष सुबेस।
राम सुकीरति कामिनी तुलसी करतब केस॥

मूल

प्रभु गुन गन भूषन बसन बिसद बिसेष सुबेस।
राम सुकीरति कामिनी तुलसी करतब केस॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—प्रभु श्रीरामजीके गुणोंके समूह श्रीरामजीकी सुन्दर कीर्तिरूपी कामिनीके वस्त्र और आभूषण हैं, जिनसे उसका वेष बहुत ही स्वच्छ और सुन्दर जान पड़ता है। और तुलसीदासकी (उस कीर्तिका वर्णन करनारूपी) जो करतूत है, वह (अनधिकार प्रयास होनेके कारण अत्यन्त काली है, इसलिये) उसके केश हैं॥ १९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम चरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥

मूल

राम चरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामचन्द्रजीके चरित्र पूर्णिमाके चन्द्रमाकी किरणोंके समान सभीको सुख देनेवाले हैं, परंतु सज्जनरूपी कुमुद और चकोरोंके चित्तके लिये तो वे विशेषरूपसे हितकारी और महान् लाभरूप हैं॥ १९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुबर कीरति सज्जननि सीतल खलनि सुताति।
ज्यों चकोर चय चक्कवनि तुलसी चाँदनि राति॥

मूल

रघुबर कीरति सज्जननि सीतल खलनि सुताति।
ज्यों चकोर चय चक्कवनि तुलसी चाँदनि राति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस प्रकार चाँदनी रात चकोरोंके समूहके लिये शान्तिदायिनी और चकवोंके लिये विशेष ताप देनेवाली होती है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसी प्रकार श्रीरघुनाथजीकी कीर्ति सज्जनोंके लिये शीतल (सुख देनेवाली) और दुर्जनोंको विशेष जलानेवाली होती है॥ १९४॥

रामकथाकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥

मूल

राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामजीकी कथा मन्दाकिनी नदी है, सुन्दर (भक्तिसे पूर्ण निर्दोष) चित्त चित्रकूट है और स्नेह ही सुन्दर वन है, जिसमें श्रीसीतारामजी विहार करते हैं॥ १९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥

मूल

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्यामा (कजली) गौ काली होनेपर भी उसका दूध बहुत उज्ज्वल और गुणदायक होता है, इसीसे लोग उसे (बड़े चावसे) पीते हैं। इसी प्रकार बुद्धिमान् संतजन श्रीसीतारामजीके यशको गँवारू भाषामें होनेपर भी (बड़े चावसे) गाते और सुनते हैं॥ १९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हर जस सुर नर गिरहुँ बरनहिं सुकबि समाज।
हाँड़ी हाटक घटित चरु राँधे स्वाद सुनाज॥

मूल

हरि हर जस सुर नर गिरहुँ बरनहिं सुकबि समाज।
हाँड़ी हाटक घटित चरु राँधे स्वाद सुनाज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सुकविगण भगवान् श्रीहरि और भगवान् श्रीशंकरके यशको संस्कृत और भाषा दोनोंमें ही वर्णन करते हैं। उत्तम अनाजको चाहे मिट्टीकी हाँड़ीमें पकाया जाय, चाहे सोनेके पात्रमें, वह स्वादिष्ट ही होता है॥ १९७॥

राममहिमाकी अज्ञेयता

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिल पर राखेउ सकल जग बिदित बिलोकत लोग।
तुलसी महिमा राम की कौन जानिबे जोग॥

मूल

तिल पर राखेउ सकल जग बिदित बिलोकत लोग।
तुलसी महिमा राम की कौन जानिबे जोग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामजीकी महिमाको (पूर्णरूपसे) जाननेका अधिकारी कौन है? (अर्थात् कोई नहीं है।) उन्होंने आँखके काले तिल (पुतली) पर सारे जगत् को रख दिया है, इस बातको सब लोग जानते हैं और प्रत्यक्ष देखते हैं (आँखोंका छोटा-सा तिल यदि बिगड़ जाय तो इतना भारी विस्तृत जगत् जरा-सा भी नहीं दीख पड़ता)॥ १९८॥

श्रीरामजीके स्वरूपकी अलौकिकता

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह॥

मूल

राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रामजी! आपका स्वरूप वाणीके अगोचर और बुद्धिसे परे है। इस स्वरूपको न कोई जान पाया है, न बखान कर सकता है, न उसका पार ही पा सकता है; इसलिये वेद सदा ‘नेति-नेति’ कहकर उसका वर्णन करते हैं॥ १९९॥

श्रीरामजीकी भक्तवत्सलता

विश्वास-प्रस्तुतिः

हित उदास रघुबर बिरह बिकल सकल नर नारि।
भरत लखन सिय गति समुझि प्रभु चख सदा सुबारि॥

मूल

हित उदास रघुबर बिरह बिकल सकल नर नारि।
भरत लखन सिय गति समुझि प्रभु चख सदा सुबारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीके विरहमें उनके मित्र उदासीन, सभी स्त्री-पुरुष व्याकुल थे; परंतु श्रीभरतजी, श्रीलक्ष्मणजी और श्रीसीताजीकीदशाको समझकर तो प्रभु श्रीरामजीके नेत्रोंमें भी सदा आँसू भरे रहते थे (अर्थात् समस्त अवधवासी तो श्रीरामजीके कष्टसे दुःखी थे; परंतु स्वयं श्रीरामजी भरतजी, लक्ष्मणजी और सीताजीके दुःखसे दुःखित रहते थे)॥ २०१॥

सीता, लक्ष्मण और भरतके रामप्रेमकी अलौकिकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीय सुमित्रा सुवन गति भरत सनेह सुभाउ।
कहिबे को सारद सरस जनिबे को रघुराउ॥

मूल

सीय सुमित्रा सुवन गति भरत सनेह सुभाउ।
कहिबे को सारद सरस जनिबे को रघुराउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीसीताजी तथा श्रीलक्ष्मणजीकी अनन्य प्रेमकी चाल और श्रीभरतजीके प्रेम और स्वभावको कहनेके लिये केवल सरस्वतीजी ही समर्थ हैं और जाननेके लिये केवल श्रीरघुनाथजी ही॥ २०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानी राम न कहि सके भरत लखन सिय प्रीति।
सो सुनि गुनि तुलसी कहत हठ सठता की रीति॥

मूल

जानी राम न कहि सके भरत लखन सिय प्रीति।
सो सुनि गुनि तुलसी कहत हठ सठता की रीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीभरतजी, श्रीलक्ष्मणजी और श्रीसीताजीके प्रेमको श्रीरामचन्द्रजी ही जान सके; पर वे भी उसका वर्णन नहीं कर सके। इस बातको सुनकर और विचारकर भी तुलसीदास हठवश उनके प्रेमका वर्णन करने चला है, यह उसकी दुष्टता और मूर्खताकी ही निशानी है॥ २०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब बिधि समरथ सकल कह सहि साँसति दिन राति।
भलो निबाहेउ सुनि समुझि स्वामिधर्म सब भाँति॥

मूल

सब बिधि समरथ सकल कह सहि साँसति दिन राति।
भलो निबाहेउ सुनि समुझि स्वामिधर्म सब भाँति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—प्रेमके तत्त्वको जानने और निबाहनेमें श्रीरामजी ही सब प्रकारसे समर्थ हैं, सब लोग यही कहते हैं। इसीके अनुसार उन्होंने सब कुछ सुन-समझकर दिन-रात कष्ट सहते हुए अपने स्वामिधर्मको सब प्रकारसे भलीभाँति निबाहा। (सीताको वन-वन ढूँढ़ते फिरे, लक्ष्मणके लिये कितना विलाप किया और भरतको तो कभी चित्तसे हटाया ही नहीं—भरतकी प्रशंसा स्वयं निम्नलिखित शब्दोंमें की)॥ २०४॥

भरत-महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥

मूल

भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(अयोध्याके राज्यकी तो बात ही क्या है) ब्रह्मा, विष्णु और महेशका पद पाकर भी भरतको राजमद नहीं हो सकता। काँजीकी बूँदोंसे भला क्या कभी क्षीरसागर नष्ट हो सकता है (फट सकता है)?॥ २०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संपति चकई भरत चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार॥

मूल

संपति चकई भरत चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(भरद्वाजजीके योगबलसे जुटायी हुई) भोग-विलासकी सामग्री मानो चकवी है और भरतजी चकवा हैं तथा भरद्वाज मुनिकी आज्ञा खिलाड़ी है, जिसने उस रातको आश्रमरूपी पिंजड़ेमें दोनों (चकवी-चकवा)-को बंद कर रखा और वैसे ही सबेरा हो गया; परंतु दोनोंका मिलन नहीं हुआ। (श्रीरामजीसे मिलनेके लिये जब भरतजी सब अयोध्यावासियोंको साथ लेकर चित्रकूट जा रहे थे, तब रास्तेमें भरद्वाजजीने उनका आतिथ्य—सत्कार किया और तपोबलसे नाना प्रकारकी ऐश्वर्यपूर्ण भोग-सामग्रियाँ उत्पन्न कर दीं, परंतु भरतजीने समीप रहनेपर भी उस सम्पत्तिकी ओर—भोग-सामग्रियोंकी ओर मनसे भी नहीं ताका, जैसे चकवा-चकवी रातको एक पिंजरेमें बंद रहनेपर भी एक-दूसरेकी ओर नहीं देखते।)॥ २०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सधन चोर मग मुदित मन धनी गही ज्यों फेंट।
त्यों सुग्रीव बिभीषनहि भई भरतकी भेंट॥

मूल

सधन चोर मग मुदित मन धनी गही ज्यों फेंट।
त्यों सुग्रीव बिभीषनहि भई भरतकी भेंट॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जैसे धन लेकर प्रसन्न-मनसे रास्तेमें जाते हुए चोरको धनी आकर पकड़ ले, उस समय उस चोरकी जैसी हालत होती है, वैसी ही हालत भरतसे मिलनेपर सुग्रीव और विभीषणकी हुई (सुग्रीव और विभीषणने अपनेको भगवान् का प्रेमी सखा समझ रखा था और इस प्रेमरूपी धनको लिये ही वे फूलते हुए भरतजीके सामने पहुँचे; परंतु वहाँ प्रेममूर्ति भरतजीको देखते ही वे दोनों यह समझकर सकुचा गये कि वास्तवमें प्रेमके धनी तो भरतजी ही हैं, जिन्होंने बड़े भाईके लिये यह दशा स्वीकार की है। हम तो नामके ही प्रेमी हैं, जो राज्यके लिये भाइयोंको मरवाकर भगवान् के सखा कहलानेका दावा करते हैं।)॥ २०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सराहे भरत उठि मिले राम सम जानि।
तदपि बिभीषन कीसपति तुलसी गरत गलानि॥

मूल

राम सराहे भरत उठि मिले राम सम जानि।
तदपि बिभीषन कीसपति तुलसी गरत गलानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि यद्यपि श्रीरामजीने विभीषण और सुग्रीवकी बड़ी प्रशंसा की और भरतजी भी उन्हें श्रीरामजीके समान समझकर ही उठकर उनसे मिले, तथापि वे ग्लानिसे गले ही जाते थे (मन-ही-मन सोचते थे कि कहाँ तो भरत-सरीखे निःस्वार्थ प्रेमी भाई और कहाँ हम अपने बड़े भाइयोंको मरवानेवाले स्वार्थी भाई!)॥ २०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरत स्याम तन राम सम सब गुन रूप निधान।
सेवक सुखदायक सुलभ सुमिरत सब कल्यान॥

मूल

भरत स्याम तन राम सम सब गुन रूप निधान।
सेवक सुखदायक सुलभ सुमिरत सब कल्यान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीभरतजीका श्रीरामजीके समान ही श्याम-शरीर है और उन्हींके समान वे रूप-गुणके खजाने तथा सेवकोंको सुख देनेवाले हैं। इनका स्मरण करते ही सब कल्याण सहज ही मिल जाते हैं॥ २०९॥

लक्ष्मणमहिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ललित लखन मूरति मधुर सुमिरहु सहित सनेह।
सुख संपति कीरति बिजय सगुन सुमंगल गेह॥

मूल

ललित लखन मूरति मधुर सुमिरहु सहित सनेह।
सुख संपति कीरति बिजय सगुन सुमंगल गेह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो सुख, सम्पत्ति, कीर्ति, विजय, सद्गुण और सुन्दर कल्याणके घर हैं, उन परम मनोहर श्रीलक्ष्मणजीकी मधुर मूर्तिका प्रेमसहित स्मरण करो॥ २१०॥

शत्रुघ्नमहिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम सत्रुसूदन सुभग सुषमा सील निकेत।
सेवत सुमिरत सुलभ सुख सकल सुमंगल देत॥

मूल

नाम सत्रुसूदन सुभग सुषमा सील निकेत।
सेवत सुमिरत सुलभ सुख सकल सुमंगल देत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—शोभा और शीलके धाम श्रीशत्रुघ्नजीके सुन्दर नामका भजन और स्मरण करनेसे सब सुख सुलभ हो जाते हैं और वह भजन-स्मरण सब सुन्दर मंगलोंको देनेवाला है॥ २११।

कौसल्यामहिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौसल्या कल्यानमइ मूरति करत प्रनाम।
सगुन सुमंगल काज सुभ कृपा करहिं सियराम॥

मूल

कौसल्या कल्यानमइ मूरति करत प्रनाम।
सगुन सुमंगल काज सुभ कृपा करहिं सियराम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीकौसल्याजी कल्याणमयी मूर्ति हैं, उन्हें प्रणाम करनेपर सब शुभ सगुन और सुन्दर मंगल होते हैं और सब कार्य सफल होते हैं तथा श्रीसीतारामजी कृपा करते हैं॥ २१२॥

सुमित्रामहिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमिरि सुमित्रा नाम जग जे तिय लेहिं सनेम।
सुअन लखन रिपुदवन से पावहिं पति पद प्रेम॥

मूल

सुमिरि सुमित्रा नाम जग जे तिय लेहिं सनेम।
सुअन लखन रिपुदवन से पावहिं पति पद प्रेम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जगत् में जो स्त्रियाँ सुमित्राजीके नामको स्मरणकर (पातिव्रत) नियम लेती हैं, वे लक्ष्मण और शत्रुघ्न-जैसे पुत्र तथा पतिके चरणोंमें प्रेम करती हैं॥ २१३॥

रामचरित्रकी पवित्रता

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी केवल कामतरु रामचरित आराम।
कलितरु कपि निसिचर कहत हमहिं किए बिधि बाम॥

मूल

तुलसी केवल कामतरु रामचरित आराम।
कलितरु कपि निसिचर कहत हमहिं किए बिधि बाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामचरितरूपी बगीचेमें केवल कल्पवृक्ष ही हैं (अर्थात् उसमें केवल पुण्यपुरुषोंको ही स्थान है)। सुग्रीवादि बंदर और विभीषणादि राक्षस कहते हैं कि विधाता हमारे लिये विपरीत था, जिसने हमलोगोंको कलितरु (पापदेह) बनाया, परंतु कृपामय श्रीरघुनाथजीने हमें भी अपने उस चरित्ररूप पावन उद्यानमें स्थान दे दिया॥ २१५॥

दशरथमहिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

दसरथ नाम सुकामतरु फलइ सकल कल्यान।
धरनि धाम धन धरम सुत सदगुन रूप निधान॥

मूल

दसरथ नाम सुकामतरु फलइ सकल कल्यान।
धरनि धाम धन धरम सुत सदगुन रूप निधान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—दशरथजीका नाम सुन्दर कल्पवृक्ष है; (सेवन करनेपर यानी ‘दशरथ’ नामका जप करनेपर) उसमें पृथ्वी, घर, धन, धर्म, सद्गुणी और रूपनिधान पुत्र—इस प्रकार सभी कल्याणमय फल फलते हैं॥ २१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी जान्यो दसरथहिं धरमु न सत्य समान।
रामु तजे जेहि लागि बिनु राम परिहरे प्रान॥

मूल

तुलसी जान्यो दसरथहिं धरमु न सत्य समान।
रामु तजे जेहि लागि बिनु राम परिहरे प्रान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि दशरथजीने ही इस तत्त्वको समझा था कि सत्यके समान कोई भी धर्म नहीं है। जिस सत्यके लिये उन्होंने श्रीरामको त्याग दिया और श्रीरामके विरहमें प्राण त्याग दिये॥ २१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम बिरहँ दसरथ मरन मुनि मन अगम सुमीचु।
तुलसी मंगल मरन तरु सुचि सनेह जल सींचु॥

मूल

राम बिरहँ दसरथ मरन मुनि मन अगम सुमीचु।
तुलसी मंगल मरन तरु सुचि सनेह जल सींचु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीके विरहमें दशरथजी मर गये, ऐसी शुभ मृत्युतक मुनियोंके मन भी नहीं पहुँच सकते। तुलसीदासजी कहते हैं, ऐसे मंगलमय मृत्युरूपी वृक्षको पवित्र (अनन्य और निष्काम) श्रीरामप्रेमरूपी जलसे सींचते रहो। (अर्थात् श्रीराममें तुम्हारा प्रेम होगा तो तुम्हारी भी ऐसी ही दुर्लभ मृत्यु होगी)॥ २२०॥

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवन मरन सुनाम जैसें दसरथ राय को।
जियत खिलाए राम राम बिरहँ तनु परिहरेउ॥

मूल

जीवन मरन सुनाम जैसें दसरथ राय को।
जियत खिलाए राम राम बिरहँ तनु परिहरेउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जीवन और मृत्यु दोनोंमें ही जिस प्रकार महाराज दशरथजीका नाम हुआ (वैसा किसीके लिये भी सम्भव नहीं है)। जीवनकालमें उन्होंने भगवान् श्रीरामको गोद खिलाया और शरीर छोड़ा तो श्रीरामके विरहमें॥ २२१॥

जटायुका भाग्य

दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभुहि बिलोकत गोद गत सिय हित घायल नीचु।
तुलसी पाई गीधपति मुकुति मनोहर मीचु॥

मूल

प्रभुहि बिलोकत गोद गत सिय हित घायल नीचु।
तुलसी पाई गीधपति मुकुति मनोहर मीचु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि गृध्रराज जटायुको धन्य है, जो सीताके (छुड़ानेके) लिये घायल हुए और नीच शरीर होनेपर भी प्रभुकी गोदमें उनके मधुर मुखारविन्दको निरखते हुए ही मनोहर मृत्यु और मुक्ति प्राप्त की॥ २२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरत करम रत भगत मुनि सिद्ध ऊँच अरु नीचु।
तुलसी सकल सिहात सुनि गीधराज की मीचु॥

मूल

बिरत करम रत भगत मुनि सिद्ध ऊँच अरु नीचु।
तुलसी सकल सिहात सुनि गीधराज की मीचु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि गृध्रराजकी (इस प्रकारकी दुर्लभ) मृत्युका समाचार सुनकर विरक्त, कर्मयोगी, भक्त, ज्ञानी, मुनि, सिद्ध, ऊँच और नीच—सभी उनकी ईर्ष्या करने लगे (सबने चाहा कि हमें भी ऐसी ही मृत्यु मिले)॥ २२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुए मरत मरिहैं सकल घरी पहरके बीचु।
लही न काहूँ आजु लौं गीधराज की मीचु॥

मूल

मुए मरत मरिहैं सकल घरी पहरके बीचु।
लही न काहूँ आजु लौं गीधराज की मीचु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—आजतक कितने मर गये, वर्तमानमें कितने मर रहे हैं और भविष्यमें घड़ी-पहरके अन्तरसे सभी मरेंगे ही; परंतु आजतक जटायुकी-सी सुन्दर मौत किसीने नहीं पायी॥ २२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुएँ मुकुत जीवत मुकुत मुकुत मुकुत हूँ बीचु।
तुलसी सबही तें अधिक गीधराज की मीचु॥

मूल

मुएँ मुकुत जीवत मुकुत मुकुत मुकुत हूँ बीचु।
तुलसी सबही तें अधिक गीधराज की मीचु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कोई मरनेपर मुक्त होता है, कोई जीता ही मुक्त (जीवन्मुक्त) हो जाता है; मुक्त-मुक्तमें भी भेद होता है। तुलसीदासजी कहते हैं, इन सभी मुक्तियोंसे बढ़कर गृध्रराजकी मृत्यु हुई॥ २२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुबर बिकल बिहंग लखि सो बिलोकि दोउ बीर।
सिय सुधि कहि सिय राम कहि देह तजी मति धीर॥

मूल

रघुबर बिकल बिहंग लखि सो बिलोकि दोउ बीर।
सिय सुधि कहि सिय राम कहि देह तजी मति धीर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीने (पीड़ासे) व्याकुल (घायल) जटायुको देखा, उस धीरबुद्धि जटायुने भी दोनों भाइयोंको (नेत्र भरकर) देखा, (देखते ही पीड़ामुक्त होकर) उन्हें सीताजीका समाचार सुनाकर, ‘सीताराम’, ‘सीताराम’ कहते हुए (और भगवान् को देखते हुए ही उनकी गोदमें) शरीर छोड़ दिया॥ २२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दसरथ तें दसगुन भगति सहित तासु करि काजु।
सोचत बंधु समेत प्रभु कृपासिंधु रघुराजु॥

मूल

दसरथ तें दसगुन भगति सहित तासु करि काजु।
सोचत बंधु समेत प्रभु कृपासिंधु रघुराजु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कृपाके समुद्र श्रीरघुनाथजीने अपने पिता श्रीदशरथजीसे दसगुनी भक्तिसहित उसका मृतकसंस्कार किया और भाई लक्ष्मणजी-सहित उसकी मृत्युके लिये शोक करने लगे॥ २२७॥

हनुमत् स्मरणकी महत्ता

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंजुल मंगल मोदमय मूरति मारुत पूत।
सकल सिद्धि कर कमल तल सुमिरत रघुबर दूत॥

मूल

मंजुल मंगल मोदमय मूरति मारुत पूत।
सकल सिद्धि कर कमल तल सुमिरत रघुबर दूत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीके दूत वायुपुत्र श्रीहनुमान् जी मनोहर मंगल और आनन्दकी मूर्ति हैं। उनका स्मरण करते ही समस्त सिद्धियाँ करतलगत (सुलभ) हो जाती हैं॥ २२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धीर बीर रघुबीर प्रिय सुमिरि समीर कुमारु।
अगम सुगम सब काज करु करतल सिद्धि बिचारु॥

मूल

धीर बीर रघुबीर प्रिय सुमिरि समीर कुमारु।
अगम सुगम सब काज करु करतल सिद्धि बिचारु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—धीर, वीर श्रीरघुवीरके प्यारे पवनकुमार श्रीहनुमान् जी का स्मरण करके चाहे जैसे दुर्लभ या सुलभ सब काम करो; निश्चय रखो क उनकी सफलता तुम्हारे हाथमें ही रखी है॥ २३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुख मुद मंगल कुमुद बिधु सुगुन सरोरुह भानु।
करहु काज सब सिद्धि सुभ आनि हिेएँ हनुमानु॥

मूल

सुख मुद मंगल कुमुद बिधु सुगुन सरोरुह भानु।
करहु काज सब सिद्धि सुभ आनि हिेएँ हनुमानु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सुख, आनन्द और मंगलरूपी कुमुदिनीके खिलानेके लिये चन्द्रमाके सदृश और सुन्दर गुणरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिये सूर्यके समान श्रीहनुमान् जी का हृदयमें ध्यान करके कार्य आरम्भ करो; फिर सब शुभ और सिद्ध ही होगा॥ २३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल काज सुभ समउ भल सगुन सुमंगल जानु।
कीरति बिजय बिभूति भलि हियँ हनुमानहि आनु॥

मूल

सकल काज सुभ समउ भल सगुन सुमंगल जानु।
कीरति बिजय बिभूति भलि हियँ हनुमानहि आनु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीहनुमान् जी का हृदयमें ध्यान करो और यह निश्चय समझ लो कि तुम्हारे सभी कार्य सिद्ध होंगे, दिन अच्छे आवेंगे, सभी सद्गुण, सुमंगल, कीर्ति, विजय और विमल विभूतिकी प्राप्ति होगी॥ २३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर सिरोमनि साहसी सुमति समीर कुमार।
सुमिरत सब सुख संपदा मुद मंगल दातार॥

मूल

सूर सिरोमनि साहसी सुमति समीर कुमार।
सुमिरत सब सुख संपदा मुद मंगल दातार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—शूरोंके शिरोमणि, साहसी, सुबुद्धिमान् श्रीपवनकुमारका स्मरण करते ही स्मरण करनेवालेको सब सुख, सम्पत्ति, आनन्द और मंगल देनेवाले हैं॥ २३३॥

काशीमहिमा

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर।
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न॥

मूल

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर।
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जहाँ भगवान् श्रीशिवजी और माता पार्वतीजी रहते हैं; उस काशीको पापोंको नष्ट करनेवाली, ज्ञानकी खान और मुक्तिको उत्पन्न करनेवाली जानकर क्यों न उसका सेवन किया जाय?॥ २३७॥

शंकरमहिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपालु संकर सरिस॥

मूल

जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपालु संकर सरिस॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस भयंकर विष (की ज्वाला)-से सारे देवतागण जल रहे थे, उसको जिन्होंने स्वयं पान कर लिया, रे मन्द मन! तू उन श्रीशिवजीको क्यों नहीं भजता? उसके समान कृपालु (और) कौन है?॥ २३८॥

शंकरजीसे प्रार्थना

दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बासर ढासनि के ढका रजनीं चहुँ दिसि चोर।
संकर निज पुर राखिऐ चितै सुलोचन कोर॥

मूल

बासर ढासनि के ढका रजनीं चहुँ दिसि चोर।
संकर निज पुर राखिऐ चितै सुलोचन कोर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—दिनमें तो मुझे ठगोंके धक्के खाने पड़ते हैं और रातको मुझे चारों ओरसे चोर सताते हैं, अतएव हे शंकरजी! कृपा दृष्टिकी कोरसे मेरी ओर देखकर अपनी काशीपुरीमें इनसे मेरी रक्षा कीजिये॥ २३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपनी बीसीं आपुहीं पुरिहिं लगाए हाथ।
केहि बिधि बिनती बिस्व की करौं बिस्व के नाथ॥

मूल

अपनी बीसीं आपुहीं पुरिहिं लगाए हाथ।
केहि बिधि बिनती बिस्व की करौं बिस्व के नाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे विश्वनाथजी! आपने अपनी ‘बीसी’* में स्वयं अपनी पुरीमें कार्य आरम्भ कर दिया। (संहारलीला शुरू कर दी), फिर मैं विश्वकी ओरसे किस प्रकार आपसे (उसकी रक्षाके लिये) विनय करूँ?॥ २४०॥

पादटिप्पनी
  • विंशति—बीसी एक ग्रहदशा होती है। रुद्रकी बीसीमें संहार ही अधिक हुआ करता है। कहते हैं एक बार तुलसीदासजीके समयमें काशीमें बड़ी भारी महामारी फैल गयी थी। यह दोहा उसी समयका बतलाया जाता है।

भगवल्लीलाकी दुर्ज्ञेयता

विश्वास-प्रस्तुतिः

और करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥

मूल

और करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अपराध करे कोई और उसके फलका भोग पावे कोई और ही। भगवान् की लीला अति विचित्र है, उसे जाननेयोग्य जगत् में कौन है (अर्थात् कोई नहीं)॥ २४१॥

प्रेममें प्रपंच बाधक है

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेम सरीर प्रपंच रुज उपजी अधिक उपाधि।
तुलसी भली सुबैदई बेगि बाँधिऐ ब्याधि॥

मूल

प्रेम सरीर प्रपंच रुज उपजी अधिक उपाधि।
तुलसी भली सुबैदई बेगि बाँधिऐ ब्याधि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—प्रेमरूपी शरीरमें यदि विषय-आसक्तिका रोग लग जाता है तो बड़ी भारी पीड़ा उत्पन्न हो जाती है। तुलसीदासजी कहते हैं कि अच्छी वैद्यता इसीमें है कि व्याधिको तुरंत रोक दिया जाय (यानी विषयासक्ति आने ही न दे)॥ २४२॥

अभिमान ही बन्धनका मूल है

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम हमार आचार बड़ भूरि भार धरि सीस।
हठि सठ परबस परत जिमि कीर कोस कृमि कीस॥

मूल

हम हमार आचार बड़ भूरि भार धरि सीस।
हठि सठ परबस परत जिमि कीर कोस कृमि कीस॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—‘हम बड़े हैं और हमारा आचार श्रेष्ठ है’ ऐसे अभिमानका भारी बोझ सिरपर रखकर मूर्खलोग तोते, रेशमके कीड़े और बंदरकी तरह बलात् पराधीन हो जाते हैं*॥ २४३॥

पादटिप्पनी
  • तोता फिरनेवाली लकड़ीपर बैठकर लकड़ी घूमते ही उलट जाता है और पंजोंसे लकड़ीको पकड़े रखकर अपनेको बँधा मानता है और पकड़ा जाता है। रेशमका कीड़ा आप ही कोश बनाकर उसमें बँध जाता है और मारा जाता है। इसी प्रकार बंदर छोटे मुँहकी हँडियामें चनेके लोभसे हाथ डालकर चने मुट्ठीमें भरकर मुट्ठी बंद कर लेता है, चनोंके लालचसे मुट्ठी खोलता नहीं और फलस्वरूप पकड़ा जाता है।

जीव और दर्पणके प्रतिबिम्बकी समानता

विश्वास-प्रस्तुतिः

केहिं मग प्रबिसति जाति केहिं कहु दरपनमें छाहँ।
तुलसी ज्यों जग जीव गति करी जीव के नाहँ॥

मूल

केहिं मग प्रबिसति जाति केहिं कहु दरपनमें छाहँ।
तुलसी ज्यों जग जीव गति करी जीव के नाहँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भला बतलाओ तो दर्पणमें छाया किस रास्तेसे घुसती है और किस रास्तेसे निकल जाती है? तुलसीदासजी कहते हैं कि जीवोंके नाथ परमात्माने संसारमें जीवोंकी भी ऐसी ही चाल बनायी है (कौन किस रास्तेसे कहाँसे आता है और किस मार्गसे कहाँ चला जाता है, इस बातको कोई नहीं बतला सकता)॥ २४४॥

जीवकी तीन दशाएँ

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीव सीव सम सुख सयन सपनें कछु करतूति।
जागत दीन मलीन सोइ बिकल बिषाद बिभूति॥

मूल

जीव सीव सम सुख सयन सपनें कछु करतूति।
जागत दीन मलीन सोइ बिकल बिषाद बिभूति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जीव सुखसे सोनेके समय (सुषुप्तिमें) शिव (परमात्मा)- के समान है, स्वप्नमें कुछ कार्य करता है (अनेक प्रकारकी सृष्टि रचता है) और जागतेमें (जाग्रदवस्थामें) वही दीन-मलीन हो जाता है और विषाद (अनेक प्रकारके शोक)-की सम्पत्ति (सामग्री)-से व्याकुल रहता है॥ २४६॥

हमारी मृत्यु प्रतिक्षण हो रही है

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी देखत अनुभवत सुनत न समुझत नीच।
चपरि चपेटे देत नित केस गहें कर मीच॥

मूल

तुलसी देखत अनुभवत सुनत न समुझत नीच।
चपरि चपेटे देत नित केस गहें कर मीच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि रे नीच! हाथोंसे तेरी चोटी पकड़कर मृत्यु नित्य ही झपटकर तेरे चपत जमा रही है। यह दशा देखकर, सुनकर और अनुभव करके भी तू नहीं समझता। (प्रतिक्षण शरीरका क्षय हो रहा है; यह देखते-सुनते हुए भी जीव अपनी मौतको भुलाकर विषय-सेवनमें ही लगा रहता है। उसीको चेतावनी देते हैं)॥ २४८॥

कालकी करतूत

विश्वास-प्रस्तुतिः

करम खरी कर मोह थल अंक चराचर जाल।
हनत गुनत गनि गुनि हनत जगत ज्यौतिषी काल॥

मूल

करम खरी कर मोह थल अंक चराचर जाल।
हनत गुनत गनि गुनि हनत जगत ज्यौतिषी काल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जगत् में कालरूपी ज्योतिषी हाथमें कर्मरूपी खड़िया लेकर मोहरूपी पट्टीपर चराचर जीवरूपी अंकोंको मिटाता है, हिसाब लगाता है, फिर गिन-गिनकर मिटाता है॥ २४९॥

इन्द्रियोंकी सार्थकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहिबे कहँ रसना रची सुनिबे कहँ किये कान।
धरिबे कहँ चित हित सहित परमारथहि सुजान॥

मूल

कहिबे कहँ रसना रची सुनिबे कहँ किये कान।
धरिबे कहँ चित हित सहित परमारथहि सुजान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—चतुर परमात्माने परमार्थ (भगवत्-चर्चा) कहनेके लिये जीभ बनायी, भगवद्गुणानुवाद सुननेके लिये कान रचे और प्रेमसहित भगवान् का ध्यान धरनेके लिये चित्त बनाया॥ २५०॥

सगुणके बिना निर्गुणका निरूपण असम्भव है

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्यान कहै अग्यान बिनु तम बिनु कहै प्रकास।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु सो गुरु तुलसीदास॥

मूल

ग्यान कहै अग्यान बिनु तम बिनु कहै प्रकास।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु सो गुरु तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो अज्ञानका कथन किये बिना ज्ञानका प्रवचन करे, अन्धकारका ज्ञान कराये बिना ही प्रकाशका स्वरूप बतला दे और सगुणको समझाये बिना ही निर्गुणका निरूपण कर दे, तुलसीदासजी कहते हैं कि वह मेरा गुरु है (तात्पर्य यह है कि अज्ञानके बिना ज्ञान, अन्धकारके बिना प्रकाश और सगुणके बिना निर्गुणकी सिद्धि नहीं हो सकती; निर्गुण कहते ही सगुणकी सिद्धि हो जाती है। अतएव जो सगुणोपासना छोड़कर निर्गुणोपासना करना चाहते हैं, उनको यथार्थ निर्गुणतत्त्वका ज्ञान होना बहुत ही कठिन है)॥ २५१॥

निर्गुणकी अपेक्षा सगुण अधिक प्रामाणिक है

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंक अगुन आखर सगुन समुझिअ उभय प्रकार।
खोएँ राखें आपु भल तुलसी चारु बिचार॥

मूल

अंक अगुन आखर सगुन समुझिअ उभय प्रकार।
खोएँ राखें आपु भल तुलसी चारु बिचार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म (१,२,३) अंकके समान है और सगुण भगवान् अक्षर (एक, दो, तीन)-के समान हैं; अब दोनों प्रकारोंको समझना चाहिये और फिर किसके न रखनेसे और किसके रखनेसे अपना कल्याण है, इस बातको भी भलीभाँति विचारना चाहिये (व्यापारी लोग हुंडीमें पहले अंकोंमें संख्या-जैसे १००० लिखकर फिर अक्षरोंमें—‘अखरे एक हजार’ ऐसा लिख देते हैं। दोनों ही ठीक है, परंतु अक्षरोंमें लिख देनेसे न तो किसी तरहका भ्रम रह सकता है और न एक शून्य घटा-बढ़ाकर कोई हजारको सौ या दस हजार ही बना सकता है। इसी प्रकार निर्गुण और सगुण दोनों सत्य हैं, एक ही दो रूपोंमें हैं; परंतु निर्गुणकी अपेक्षा सगुण अधिक प्रामाणिक है। निर्गुणमें तो किसी तरहका भ्रम भी रह सकता है, परंतु सगुणमें न तो कोई भ्रम रह सकता है और न किसी प्रकारसे कोई छल ही चल सकता है।)॥ २५२॥

विषयासक्तिका नाश हुए बिना ज्ञान अधूरा है

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमारथ पहिचानि मति लसति बिषयँ लपटानि।
निकसि चिता तें अधजरित मानहुँ सती परानि॥

मूल

परमारथ पहिचानि मति लसति बिषयँ लपटानि।
निकसि चिता तें अधजरित मानहुँ सती परानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—परमार्थ (सत्य वस्तु)-की पहचान हो जानेपर भी विषयोंमें लिपटी हुई बुद्धि ऐसी लगती है, मानो चितासे निकलकर भागी हुई कोई अधजली सती हो॥ २५३॥

विषयासक्त साधुकी अपेक्षा वैराग्यवान् गृहस्थ अच्छा है

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीस उघारन किन कहेउ बरजि रहे प्रिय लोग।
घरहीं सती कहावती जरती नाह बियोग॥

मूल

सीस उघारन किन कहेउ बरजि रहे प्रिय लोग।
घरहीं सती कहावती जरती नाह बियोग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अधजली भागनेवाली ऐसी सतीको सिर खोलनेके लिये किसने कहा था? प्यारे सगे-सम्बन्धी तो सब रोक रहे थे। इससे तो यही अच्छा था कि स्वामीके वियोगकी अग्निमें सदा जला करती और घर बैठी ही सती कहलाती। (तात्पर्य यह है कि साधु होकर फिर विषयोंकी ओर ललचानेसे तो घर बैठे भजन करना ही अच्छा है।)॥ २५४॥

भगवत्प्रेममें आसक्ति बाधक है, गृहस्थाश्रम नहीं

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर कीन्हें घर जात है घर छाँड़े घर जाइ।
तुलसी घर बन बीचहीं राम प्रेम पुर छाइ॥

मूल

घर कीन्हें घर जात है घर छाँड़े घर जाइ।
तुलसी घर बन बीचहीं राम प्रेम पुर छाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि घर करनेसे (गृहस्थीमें रहनेसे) अपना असली घर (परलोक) नष्ट हो जाता है और घर छोड़नेसे (संन्यास ग्रहण करनेसे) यहाँका घर (गृहस्थी) नष्ट होता है। अतएव तू घर और वनके बीचमें ही (अर्थात् घरहीमें गृहत्यागीकी भाँति रहकर) श्रीरामजीके प्रेमकी पुरी बसा॥ २५६॥

विषयोंकी आशा ही दुःखका मूल है

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी अद्भुत देवता आसा देवी नाम।
सेएँ सोक समर्पई बिमुख भएँ अभिराम॥

मूल

तुलसी अद्भुत देवता आसा देवी नाम।
सेएँ सोक समर्पई बिमुख भएँ अभिराम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि आशादेवी नामकी एक अद्भुत देवी है; यह सेवा करनेपर तो शोक (दुःख) देती है और इससे विमुख होनेपर सुख मिलता है॥ २५८॥

विषय-सुखकी हेयता

विश्वास-प्रस्तुतिः

करत न समुझत झूठ गुन सुनत होत मति रंक।
पारद प्रगट प्रपंचमय सिद्धिउ नाउँ कलंक॥

मूल

करत न समुझत झूठ गुन सुनत होत मति रंक।
पारद प्रगट प्रपंचमय सिद्धिउ नाउँ कलंक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(बार-बार धोखा खानेपर भी) विषयी मनुष्य विषयोंके लिये चेष्टा करते हुए यह नहीं समझते कि इनमें कहीं भी सुख नहीं है; विषयोंके झूठे गुणोंको सुनते ही उनकी बुद्धिका दिवाला निकल जाता है (उनका मन विषयोंके लिये ललचा उठता है)। यह प्रपंचमय विषय-सुख प्रत्यक्ष पारेके समान है, जिसके सिद्ध होनेपर भी उसका नाम ‘कलंक’ ही होता है॥ २६०॥

लोभकी प्रबलता

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥

मूल

ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, पण्डित और गुणोंका धाम इस संसारमें ऐसा कौन मनुष्य है, जिसकी लोभने मिट्टी पलीद न की हो?॥ २६१॥

धन और ऐश्वर्यके मद तथा कामकी व्यापकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥

मूल

श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—धनके मदने किसको टेढ़ा नहीं कर दिया, प्रभुताने किसको बहरा नहीं बना दिया और मृगलोचनी (सुन्दर स्त्री)-के नयन-बाण ऐसा कौन है, जिनको नहीं लगे?॥ २६२॥

मायाकी फौज

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड॥

मूल

ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मायाकी प्रचण्ड सेना संसारभरमें फैल रही है; कामादि (काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर) वीर इस सेनाके सेनापति हैं और दम्भ, कपट, पाखण्ड उसके योद्धा हैं॥ २६३॥

काम, क्रोध, लोभकी प्रबलता

विश्वास-प्रस्तुतिः

तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥

मूल

तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे तात! काम, क्रोध, और लोभ—ये तीन दुष्ट बड़े ही बलवान् हैं, ये विज्ञान-सम्पन्न मुनिके मनमें भी पलक मारते-मारते क्षोभ उत्पन्न कर देते हैं॥ २६४॥

काम, क्रोध, लोभके सहायक

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥

मूल

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रेष्ठ मुनि विचारकर कहते हैं कि लोभके इच्छा और दम्भका बल है, कामके केवल कामिनीका बल है और क्रोधके कठोर वचनका बल है॥ २६५॥

मोहकी सेना

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि॥

मूल

काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—काम, क्रोध, मद और लोभ आदि मोहकी प्रबल सेना है। इनमें स्त्री जो मायाकी साक्षात् मूर्ति है वह तो बहुत ही भयानक दुःख देनेवाली है॥ २६६॥

अग्नि, समुद्र, प्रबल स्त्री और कालकी समानता

विश्वास-प्रस्तुतिः

काह न पावक जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥

मूल

काह न पावक जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अग्नि क्या नहीं जला सकती? समुद्रमें कौन वस्तु नहीं डूब सकती, प्रबल होनेपर अबला कहलानेवाली स्त्री क्या नहीं कर सकती? और जगत् में काल किसको नहीं खाता?॥ २६७॥

उद्बोधन

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीपसिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥

मूल

दीपसिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—युवती स्त्रियोंका (सुन्दर) शरीर दीपककी लौके समान है, मन! तू उसमें पतंग मत बन (नहीं तो भस्म हो जायगा)। काम और मदको त्यागकर श्रीरामका भजन कर और सदा सत्संग कर॥ २६९॥

गृहासक्ति श्रीरघुनाथजीके स्वरूपके ज्ञानमें बाधक है

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे भव कूप॥

मूल

काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे भव कूप॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो काम, क्रोध, मद और लोभके परायण हैं और जो दुःखरूप गृहमें आसक्त हैं, वे संसाररूपी कुएँमें पड़े हुए मूढ़ श्रीरघुनाथजीको कैसे जान सकते हैं?॥ २७०॥

किसके मनको शान्ति नहीं मिलती?

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥

मूल

ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो मनुष्य मोहके वशीभूत होकर भूतप्राणियोंके द्रोहमें तत्पर है, श्रीरामसे विमुख है और भोगोंमें आसक्त हो रहा है; उसको क्या स्वप्नमें भी (दैवी) सम्पत्ति, शुभ शकुन या चित्तकी शान्ति प्राप्त हो सकती है?॥ २७२॥

ज्ञानमार्गकी कठिनता

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥

मूल

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—ज्ञान कहने (समझाने)-में कठिन है, समझनेमें कठिन है और साधन करनेमें भी कठिन है। यदि ‘घुणाक्षर’ न्यायसे* कहीं ज्ञान प्राप्त भी हो जाय तो फिर भी उस (के बचाये रखने)-में अनेकों विघ्न आते रहते हैं। (तात्पर्य यह है कि कहीं गुरुकृपासे परोक्ष ज्ञान हो ही जाता है, तो फिर भी अपरोक्षतक पहुँचनेमें बहुत-सी बाधाएँ आती हैं)॥ २७३॥

पादटिप्पनी
  • काठमें जब घुन लग जाता है और उसे काटता है, तब उसमें कई तरहकी रेखाएँ बन जाती हैं। संयोगसे कोई रेखा अक्षर-जैसी बन जाय तो उसे ‘घुणाक्षर’ कहते हैं। इसी प्रकार बिना प्रयत्नके संयोगवश कोई घटना हो जाय तो उसे ‘घुणाक्षर-न्याय’ कहते हैं।

भगवद्भजनके अतिरिक्त और सब प्रयत्न व्यर्थ हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

खल प्रबोध जग सोध मन को निरोध कुल सोध।
करहिं ते फोकट पचि मरहिं सपनेहुँ सुख न सुबोध॥

मूल

खल प्रबोध जग सोध मन को निरोध कुल सोध।
करहिं ते फोकट पचि मरहिं सपनेहुँ सुख न सुबोध॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो लोग दुष्टोंको ज्ञानका उपदेश देना, संसारका सुधार करना, मनका निरोध करना और कुलको शुद्ध करना चाहते हैं, वे व्यर्थ ही परिश्रम करते हुए मर जाते हैं; उन्हें स्वप्नमें भी सुख या सुन्दर ज्ञान नहीं मिलता। (अतएव इन सब कार्योंके पीछे न पड़कर संतोषपूर्वक श्रीभगवान् का भजन करना चाहिये)॥ २७४॥

मायाकी प्रबलता और उसके तरनेका उपाय

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥

मूल

सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसे भगवान् की प्रबल माया मोहित न कर दे ऐसा देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी नहीं है। यों मनमें विचारकर उस महामायाके स्वामी (प्रेरक) श्रीरामका भजन करना चाहिये॥ २७६॥

गोस्वामीजीकी अनन्यता

दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास॥

मूल

एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—एक ही भरोसा है, एक ही बल है, एक ही आशा है और एक ही विश्वास है। एक रामरूपी श्यामघन (मेघ)-के लिये ही तुलसीदास चातक बना हुआ है॥ २७७॥

प्रेमकी अनन्यताके लिये चातकका उदाहरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं घन बरषै समय सिर जौं भरि जनम उदास।
तुलसी या चित चातकहि तऊ तिहारी आस॥

मूल

जौं घन बरषै समय सिर जौं भरि जनम उदास।
तुलसी या चित चातकहि तऊ तिहारी आस॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि हे रामरूपी मेघ! चाहे तुम ठीक समयपर बरसो (कृपाकी वृष्टि करो) चाहे जन्मभर उदासीन रहो—कभी न बरसो, परंतु इस चित्तरूपी चातकको तो तुम्हारी ही आशा है॥ २७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चातक तुलसी के मतें स्वातिहुँ पिऐ न पानि।
प्रेम तृषा बाढ़ति भली घटें घटैगी आनि॥

मूल

चातक तुलसी के मतें स्वातिहुँ पिऐ न पानि।
प्रेम तृषा बाढ़ति भली घटें घटैगी आनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे चातक! तुलसीदासके मतसे तो तू स्वाति नक्षत्रमें बरसा हुआ जल भी न पीना! क्योंकि प्रेमकी प्यासका बढ़ते रहना ही अच्छा है; घटनेसे तो प्रेमकी निष्ठा ही घट जायगी॥ २७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गे अंग।
तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रुचि रंग॥

मूल

रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गे अंग।
तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रुचि रंग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अपने प्यारे मेघका नाम रटते-रटते चातककी जीभ लट गयी और प्यासके मारे सब अंग सूख गये। तुलसीदासजी कहते हैं कि तो भी चातकके प्रेमका रंग तो नित्य नया और सुन्दर ही होता जाता है॥ २८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चढ़त न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोष।
तुलसी प्रेम पयोधि की ताते नाप न जोख॥

मूल

चढ़त न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोष।
तुलसी प्रेम पयोधि की ताते नाप न जोख॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—चातकके चित्तमें अपने प्रियतम मेघका दोष कभी आता ही नहीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि इसीलिये प्रेमके अथाह समुद्रका कोई माप-तौल नहीं हो सकता (उसका थाह नहीं लगाया जा सकता)॥ २८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरषि परुष पाहन पयद पंख करौ टुक टूक।
तुलसी परी न चाहिऐ चतुर चातकहि चूक॥

मूल

बरषि परुष पाहन पयद पंख करौ टुक टूक।
तुलसी परी न चाहिऐ चतुर चातकहि चूक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि मेघ (बादल) कठोर ओले बरसाकर भले ही चातककी पाँखोंके टुकड़े-टुकड़े कर दे, पर प्रेमके प्रणमें चतुर चातकको अपने प्रेमका प्रण निबाहनेमें कभी भूल नहीं करनी चाहिये॥ २८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपल बरसि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर।
चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर॥

मूल

उपल बरसि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर।
चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मेघ कड़क-कड़ककर गर्जता हुआ ओले बरसाता है और कठोर बिजली भी गिरा देता है; इतनेपर भी प्रेमी पपीहा मेघको छोड़कर क्या कभी किसी दूसरी ओर ताकता है?॥ २८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पबि पाहन दामिनि गरज झरि झकोर खरि खीझि।
रोष न प्रीतम दोष लखि तुलसी रागहि रीझि॥

मूल

पबि पाहन दामिनि गरज झरि झकोर खरि खीझि।
रोष न प्रीतम दोष लखि तुलसी रागहि रीझि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि मेघ वज्र गिराकर, ओले बरसाकर, बिजली चमकाकर, कड़क-कड़ककर, वर्षाकी झड़ी लगाकर और आँधीके झकोरे देकर अपना बड़ा भारी रोष प्रकट करता है; परंतु चातकको अपने प्रियतमका दोष देखकर क्रोध नहीं होता (उसे दोष दीखता ही नहीं,) बल्कि इसमें भी वह अपने प्रति मेघका अनुराग देखकर उसपर रीझ जाता है॥ २८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मान राखिबो माँगिबो पिय सों नित नव नेहु।
तुलसी तीनिउ तब फबैं जौ चातक मत लेहु॥

मूल

मान राखिबो माँगिबो पिय सों नित नव नेहु।
तुलसी तीनिउ तब फबैं जौ चातक मत लेहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि आत्मसम्मानकी रक्षा करना, माँगना और फिर भी प्रियतमसे प्रेमका नित्य नवीन होना (बढ़ना)—ये तीनों बातें तभी शोभा देती हैं जब चातकके मतका अनुसरण किया जाय॥ २८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी चातक ही फबै मान राखिबो प्रेम।
बक्र बुंद लखि स्वातिहू निदरि निबाहत नेम॥

मूल

तुलसी चातक ही फबै मान राखिबो प्रेम।
बक्र बुंद लखि स्वातिहू निदरि निबाहत नेम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रेमके मानकी रक्षा करना और प्रेमको भी निबाहना चातकको ही शोभा देता है। स्वाती नक्षत्रमें भी यदि बूँद (मेघकी ओर निहारते हुए उसके मुखमें सीधी न पड़कर) टेढ़ी पड़ती है तो वह उसका निरादर करके प्रेमके नियमको निबाहता है (चोंचको टेढ़ी करनेमें दूसरी ओर ताकना हो जायगा और इससे उसके प्रेममें व्यभिचार होगा, इसलिये वह प्यासा ही रह जाता है, परंतु मुँह टेढ़ा नहीं करता। दूसरी बात यह है कि वह टेढ़ी चोंच करके पीता है तो उसका मान घटता है, वह मँगता नहीं है, प्रेमी है; देना हो तो सीधे दो, नहीं तो न सही)॥ २८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी चातक माँगनो एक एक घन दानि।
देत जो भू भाजन भरत लेत जो घूँटक पानि॥

मूल

तुलसी चातक माँगनो एक एक घन दानि।
देत जो भू भाजन भरत लेत जो घूँटक पानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि चातक एक ही (अद्वितीय) माँगनेवाला है और बादल भी एक ही (अद्वितीय) दानी है। बादल इतना देता है कि पृथ्वीके सब बर्तन (झील, तालाब आदि) भर जाते हैं; परंतु चातक केवल एक घूँट ही पानी लेता है॥ २८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीनि लोक तिहुँ काल जस चातक ही कें माथ।
तुलसी जासु न दीनता सुनी दूसरे नाथ॥

मूल

तीनि लोक तिहुँ काल जस चातक ही कें माथ।
तुलसी जासु न दीनता सुनी दूसरे नाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि तीनों लोकोंमें और तीनों कालोंमें कीर्ति तो केवल अनन्य प्रेमी चातकके ही भाग्यमें है, जिसकी दीनता संसारमें किसी भी दूसरे स्वामीने नहीं सुन पायी॥ २८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति पपीहा पयद की प्रगट नई पहिचानि।
जाचक जगत कनाउड़ो कियो कनौड़ा दानि॥

मूल

प्रीति पपीहा पयद की प्रगट नई पहिचानि।
जाचक जगत कनाउड़ो कियो कनौड़ा दानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—पपीहा और मेघके प्रेमका परिचय प्रत्यक्ष ही नये ही ढंगका है; याचक (मँगता) तो संसारभरका ऋणी होता है, परंतु इस प्रेमी पपीहेने दानी मेघको अपना ऋणी बना डाला॥ २८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नहिं जाचत नहिं संग्रही सीस नाइ नहिं लेइ।
ऐसे मानी मागनेहि को बारिद बिन देइ॥

मूल

नहिं जाचत नहिं संग्रही सीस नाइ नहिं लेइ।
ऐसे मानी मागनेहि को बारिद बिन देइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—पपीहा न तो मुँहसे माँगता है, न जलका संग्रह करता है और न सिर झुकाकर लेता ही है (ऊँचा सिर किये ही ‘पिउ’, ‘पिउ’ की टेर लगाया करता है) ऐसे मानी माँगनेवाले चातकको मेघके अतिरिक्त और कौन दे सकता है?॥ २९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को को न ज्यायो जगत में जीवन दायक दानि।
भयो कनौड़ो जाचकहि पयद प्रेम पहिचानि॥

मूल

को को न ज्यायो जगत में जीवन दायक दानि।
भयो कनौड़ो जाचकहि पयद प्रेम पहिचानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जगत् में इस जीवनदाता दानी मेघने किस-किसको नहीं जिलाया? परंतु अपने प्रेमी—याचक चातकके प्रेमको पहचानकर तो यह मेघ उलटा स्वयं उसीका ऋणी हो गया॥ २९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधन साँसति सब सहत सबहि सुखद फल लाहु।
तुलसी चातक जलद की रीझि बूझि बुध काहु॥

मूल

साधन साँसति सब सहत सबहि सुखद फल लाहु।
तुलसी चातक जलद की रीझि बूझि बुध काहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—साधनमें सभी कष्ट सहते हैं और फलकी प्राप्ति सभीके लिये सुखदायिनी होती है; परंतु तुलसीदासजी कहते हैं कि चातककी-सी रीझ(प्रेम) और मेघकी-सी बुद्धि बिरले ही बुद्धिमान् की होती है (चातक मेघपर इतना रीझा रहता है कि कष्ट सहनेपर भी उससे प्रेम बढ़ाता ही है और मेघकी ऐसी बुद्धिगुणज्ञता है कि वह दाता होकर भी ऋणी बन जाता है।)॥ २९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चातक जीवन दायकहि जीवन समयँ सुरीति।
तुलसी अलख न लखि परै चातक प्रीति प्रतीति॥

मूल

चातक जीवन दायकहि जीवन समयँ सुरीति।
तुलसी अलख न लखि परै चातक प्रीति प्रतीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—चातकके जीवनदाता मेघके प्रेमकी सुन्दर रीति तो उसके जीवनकालमें ही देखनेमें आती है; परंतु (अनन्यप्रेमी) चातकका प्रेम एवं विश्वास तो अलख (अज्ञेय) है, तुलसीदासजी कहते हैं, वह तो किसीके दीखनेमें ही नहीं आता (अर्थात् उसका प्रेम तो मरते समय भी बना रहता है)—(देखिये० दो ३०२, ३०४, ३०५)॥ २९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीव चराचर जहँ लगें है सब को हित मेह।
तुलसी चातक मन बस्यो घन सों सहज सनेह॥

मूल

जीव चराचर जहँ लगें है सब को हित मेह।
तुलसी चातक मन बस्यो घन सों सहज सनेह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—संसारमें जितने चर-अचर जीव हैं, मेघ उन सभीका हितकारी है; परंतु तुलसीदासजी कहते हैं कि उस मेघके प्रति स्वाभाविक स्नेह तो एक चातकके ही चित्तमें बसा हुआ है॥ २९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

डोलत बिपुल बिहंग बन पिअत पोखरिन बारि।
सुजस धवल चातक नवल तुही भुवन दस चारि॥

मूल

डोलत बिपुल बिहंग बन पिअत पोखरिन बारि।
सुजस धवल चातक नवल तुही भुवन दस चारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—वनमें बहुत-से पक्षी डोलते हैं और वे पोखरियोंका जल पिया करते हैं; परंतु हे नित्य नवीन प्रेमी चातक! चौदहों लोकोंको अपने निर्मल यशसे उज्ज्वल तो एक तू ही करता है॥ २९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुख मीठे मानस मलिन कोकिल मोर चकोर।
सुजस धवल चातक नवल रह्यो भुवन भरि तोर॥

मूल

मुख मीठे मानस मलिन कोकिल मोर चकोर।
सुजस धवल चातक नवल रह्यो भुवन भरि तोर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कोयल, मोर और चकोर मुँहके तो मीठे होते हैं; परंतु मनके बड़े मैले होते हैं (बोली तो बड़ी मीठी बोलते हैं, पर कीट-सर्पादि जीवोंको खा जाते हैं), परंतु हे नवल चातक! विश्वभरमें निर्मल यश तो तेरा ही छाया हुआ है॥ २९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बास बेस बोलनि चलनि मानस मंजु मराल।
तुलसी चातक प्रेम की कीरति बिसद बिसाल॥

मूल

बास बेस बोलनि चलनि मानस मंजु मराल।
तुलसी चातक प्रेम की कीरति बिसद बिसाल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि हंसका निवासस्थान (मानसरोवर), वेष (रंग-रूप), बोली, चाल और (नीर-क्षीरका विवेक रखनेवाला तथा मोती चुगनेकी टेकवाला) मन सभी सुन्दर हैं, परंतु प्रेमकी कीर्ति तो सबसे बढ़कर विस्तृत और निर्मल चातककी ही है॥ २९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेम न परखिअ परुषपन पयद सिखावन एह।
जग कह चातक पातकी ऊसर बरसै मेह॥

मूल

प्रेम न परखिअ परुषपन पयद सिखावन एह।
जग कह चातक पातकी ऊसर बरसै मेह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—संसारके लोग (विषयीजन) कहते हैं कि चातक पापी है, क्योंकि मेघ ऊसरतकमें बरसता है (परंतु चातकके मुँहमें नहीं बरसता); पर मेघ इससे यह शिक्षा देता है कि प्रेमकी परीक्षा कठोरतासे नहीं करनी चाहिये (अर्थात् कठोरतामें प्रेम नहीं है, ऐसा नहीं मानना चाहिये; कहीं-कहीं कठोरतामें ही प्रेमका प्रकाश होता है। चातक पापी नहीं है, महान् प्रेमी है; उसके प्रेमका यश मेघकी कठोरतासे बढ़ता है)॥ २९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

होइ न चातक पातकी जीवन दानि न मूढ़।
तुलसी गति प्रहलाद की समुझि प्रेम पथ गूढ़॥

मूल

होइ न चातक पातकी जीवन दानि न मूढ़।
तुलसी गति प्रहलाद की समुझि प्रेम पथ गूढ़॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—न तो चातक ही पापी है और न जीवनदाता मेघ ही मूर्ख है। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रह्लादकी दशापर विचार करके समझो कि प्रेमका मार्ग कितना गूढ़ (सूक्ष्म) है। (प्रह्लादके पद-पदपर कष्ट मिलता है और भगवान् उसके कष्टको जानते हुए भी बहुत विलम्बसे प्रकट होते हैं। यह उनकी प्रेमलीला ही है।)॥ २९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गरज आपनी सबन को गरज करत उर आनि।
तुलसी चातक चतुर भो जाचक जानि सुदानि॥

मूल

गरज आपनी सबन को गरज करत उर आनि।
तुलसी चातक चतुर भो जाचक जानि सुदानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि अपनी-अपनी गरज सभीको होती है और उसी गरजको (कामनाको) हृदयमें रखकर लोग जहाँ-तहाँ गरज करते (सबसे विनती करते) फिरते हैं। परंतु चतुर (अनन्य प्रेमी) चातक तो एक मेघको ही सर्वोत्तम दानी समझकर केवल उसीका याचक बना॥ ३००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरग चंगु गत चातकहि नेम प्रेम की पीर।
तुलसी परबस हाड़ पर परिहैं पुहुमी नीर॥

मूल

चरग चंगु गत चातकहि नेम प्रेम की पीर।
तुलसी परबस हाड़ पर परिहैं पुहुमी नीर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि बाजके पंजेमें फँसनेपर चातकको अपने प्रेमके नियमकी पीड़ा (चिन्ता) होती है। (उसे यह चिन्ता नहीं होती कि मैं मर जाऊँगा, पर इस बातकी बड़ी पीड़ा होती है कि बाजके द्वारा मारे जानेपर) मेरी हड्डियाँ और पाँख (स्वाती-नक्षत्रमें मेघ-जलमें न पड़कर) पृथ्वीके साधारण जलमें पड़ेगा॥ ३०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बध्यो बधिक पर्यो पुन्य जल उलटि उठाई चोंच।
तुलसी चातक प्रेमपट मरतहुँ लगी न खोंच॥

मूल

बध्यो बधिक पर्यो पुन्य जल उलटि उठाई चोंच।
तुलसी चातक प्रेमपट मरतहुँ लगी न खोंच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—किसी बहेलियेने चातकको मार दिया, वह पुण्यसलिला गंगाजीमें गिर पड़ा; परंतु गिरते ही उस अनन्य प्रेमी चातकने चोंचको उलटकर ऊपर उठा लिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि चातकके प्रेमरूपी वस्त्रपर मरते दमतक कोई खरोंच नहीं लगी (वह कहींसे फटा नहीं)॥ ३०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंड फोरि कियो चेटुवा तुष पर्यो नीर निहारि।
गहि चंगुल चातक चतुर डार्यो बाहिर बारि॥

मूल

अंड फोरि कियो चेटुवा तुष पर्यो नीर निहारि।
गहि चंगुल चातक चतुर डार्यो बाहिर बारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—किसी चातकने अंडेको फोड़कर उसमेंसे बच्चा निकाला, परंतु अंडेके छिलकेको पानीमें पड़ा हुआ देखकर उस (प्रेमराज्यके) चतुर चातकने तुरंत उसे पंजेसे पकड़कर जलसे बाहर फेंक दिया॥ ३०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी चातक देत सिख सुतहि बारहीं बार।
तात न तर्पन कीजिऐ बिना बारिधर धार॥

मूल

तुलसी चातक देत सिख सुतहि बारहीं बार।
तात न तर्पन कीजिऐ बिना बारिधर धार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि चातक अपने पुत्रको बारंबार यही सीख देता है कि हे तात! (मेरे मरनेपर) प्यारे मेघकी धाराको छोड़कर अन्य किसी जलसे मेरा तर्पण न करना॥ ३०४॥

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिअत न नाई नारि चातक घन तजि दूसरहि।
सुरसरिहू को बारि मरत न माँगेउ अरध जल॥

मूल

जिअत न नाई नारि चातक घन तजि दूसरहि।
सुरसरिहू को बारि मरत न माँगेउ अरध जल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जीते-जी तो चातकने (प्यारे) मेघको छोड़कर दूसरेके सामने गर्दन नहीं झुकायी (याचना नहीं की) और मरते समय भी गंगाजलमें* अर्धजलीतक न माँगी (मुक्तिका भी निरादर कर दिया)॥ ३०५॥

पादटिप्पनी
  • मरते हुए आदमीको आधा गंगाजीमें और आधा बाहर रखते हैं, इसको ‘अर्धजल’ क्रिया कहते हैं। इस अवस्थामें जिसके प्राण छूटते हैं, उसकी सहज मुक्ति हो जाती है—ऐसा शास्त्रोंमें वर्णन आता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु रे तुलसीदास प्यास पपीहहि प्रेम की।
परिहरि चारिउ मास जो अँचवै जल स्वाति को॥

मूल

सुनु रे तुलसीदास प्यास पपीहहि प्रेम की।
परिहरि चारिउ मास जो अँचवै जल स्वाति को॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—रे तुलसीदास! सुन, पपीहेको तो केवल प्रेमकी ही प्यास है (जलकी नहीं); इसीलिये वह बरसातके चारों महीनोंके जलको छोड़कर केवल स्वाति-नक्षत्रका ही जल पीता है॥ ३०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाचै बारह मास पिऐ पपीहा स्वाति जल।
जान्यो तुलसीदास जोगवत नेही मेह मन॥

मूल

जाचै बारह मास पिऐ पपीहा स्वाति जल।
जान्यो तुलसीदास जोगवत नेही मेह मन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—चातक बारहों महीने मेघसे (उसे देखते ही, ‘पिउ’ ‘पिउ’ की पुकार मचाकर) जल माँगा करता है, परंतु पीता है केवल स्वाति-नक्षत्रका ही जल। तुलसीदासजी कहते हैं कि मैंने इससे यह समझा है कि चातक ऐसा करके अपने स्नेही मेघका मन रखता है (जिससे मेघको यह कहनेका मौका न मिले कि तू तो स्वार्थी है, जब प्यास लगती है, तभी मुझे पुकारता है, फिर सालभर मेरा नाम भी नहीं लेता)॥ ३०७॥

दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसीं के मत चातकहि केवल प्रेम पिआस।
पिअत स्वाति जल जान जग जाँचत बारह मास॥

मूल

तुलसीं के मत चातकहि केवल प्रेम पिआस।
पिअत स्वाति जल जान जग जाँचत बारह मास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासके मतसे तो चातकको केवल प्रेमकी ही प्यास है (जलकी नहीं); क्योंकि सारा जगत् इस बातको जानता है कि चातक पीता तो है केवल स्वाति-नक्षत्रका जल, परंतु याचक बना रहता है बारहों महीने॥ ३०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आलबाल मुकुताहलनि हिय सनेह तरु मूल।
होइ हेतु चित चातकहि स्वाति सलिलु अनुकूल॥

मूल

आलबाल मुकुताहलनि हिय सनेह तरु मूल।
होइ हेतु चित चातकहि स्वाति सलिलु अनुकूल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—चातकको हृदयरूपी मोतियोंकी (बहुमूल्य) क्यारीमें प्रेमरूपी वृक्षकी जड़ लगी है। ईश्वर करे स्वाति-नक्षत्रका जल चातकके चित्तमें रहनेवाले प्रेमके लिये अनुकूल हो जाय। (अर्थात् स्वाति-नक्षत्रके जलसे हृदयमें लगी हुई प्रेम-वृक्षकी जड़ भलीभाँति सींची जाय, जिससे प्रेम-वृक्ष फूल-फलकर लहलहा उठे)॥ ३०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उष्न काल अरु देह खिन मग पंथी तन ऊख।
चातक बतियाँ न रुचीं अन जल सींचे रूख॥

मूल

उष्न काल अरु देह खिन मग पंथी तन ऊख।
चातक बतियाँ न रुचीं अन जल सींचे रूख॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—गर्मियोंके दिन थे, चातक शरीरसे खिन्न था (थका हुआ था,) रास्ते चल रहा था, उसका शरीर बहुत गरम हो रहा था (इतनेमें उसे कुछ पेड़ दीख पड़े, मनमें आया कि जरा विश्राम कर लूँ) परंतु अनन्य प्रेमी चातकको मनकी यह बात अच्छी नहीं लगी; क्योंकि वे वृक्ष (स्वाति-नक्षत्रके जलसे सींचे हुए न होकर) दूसरे ही जलसे सींचे हुए थे॥ ३१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन जल सींचे रूख की छाया तें बरु घाम।
तुलसी चातक बहुत हैं यह प्रबीन को काम॥

मूल

अन जल सींचे रूख की छाया तें बरु घाम।
तुलसी चातक बहुत हैं यह प्रबीन को काम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि यों चातक (चातक-प्रेमका दम भरनेवाले) बहुत हैं, परंतु ‘स्वातीके जलके अतिरिक्त अन्य जलसे सींचे हुए वृक्षकी छायासे तो धूप ही अच्छी’ ऐसा मानना तो किसी (प्रेम-प्रणको निबाहनेमें) चतुर चातक (सच्चे प्रेमी)-का ही काम है॥ ३११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक अंग जो सनेहता निसि दिन चातक नेह।
तुलसी जासों हित लगै वहि अहार वहि देह॥

मूल

एक अंग जो सनेहता निसि दिन चातक नेह।
तुलसी जासों हित लगै वहि अहार वहि देह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—चातकका जो रात-दिनका (नित्य—चौबीसों घंटेका) प्रेम है, वही एकांगी प्रेम है।* तुलसीदासजी कहते हैं, ऐसा एकांगी प्रेम जिसके साथ लग जाता है, वही उसका आहार है, (वह खाना-पीना सब भूलकर उसीकी स्मृतिसे जीता रहता है) और वही उसका शरीर है (वह अपने शरीरकी सुधि भुलाकर उसीके शरीरमें तन्मय हुआ रहता है)॥ ३१२॥

पादटिप्पनी
  • एकांगी प्रेम उसे कहते हैं, जिसमें प्रेमी यह नहीं देखता कि प्रेमास्पद उसके बदलेमें प्रेम करता है या नहीं।

एकांगी अनुरागके अन्य उदाहरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिबि रसना तनु स्याम है बंक चलनि बिष खानि।
तुलसी जस श्रवननि सुन्यो सीस समरप्यो आनि॥

मूल

बिबि रसना तनु स्याम है बंक चलनि बिष खानि।
तुलसी जस श्रवननि सुन्यो सीस समरप्यो आनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसके दो जीभे हैं, काला शरीर और टेढ़ी चाल है तथा जो विषकी खान है, ऐसा सर्प भी कानोंसे अपनी प्रशंसा सुनते ही (प्रेमवश) आकर अपना सिर सौंप देता है*॥ ३१३॥

पादटिप्पनी
  • सँपेरा मन्त्र पढ़कर साँपकी बड़ी प्रशंसा करता है और पूँगी बजाता है। प्रशंसा सुनकर सर्प प्रसन्न होकर तुरंत दौड़कर उसके पास आ पहुँचता है और सँपेरेके द्वारा पकड़ा जाता है।

सर्पका उदाहरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी मनि निज दुति फनिहि ब्याधहि देउ दिखाइ।
बिछुरत होइ न आँधरो ताते प्रेम न जाइ॥

मूल

तुलसी मनि निज दुति फनिहि ब्याधहि देउ दिखाइ।
बिछुरत होइ न आँधरो ताते प्रेम न जाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि (मणिके लोभसे सर्पको मारनेके लिये आये हुए) ब्याधको मणि अपने प्रकाशसे भले ही सर्प दिखला दे, (और इस प्रकार उसकी मृत्युमें सहायक बनकर शत्रुका काम करे) परंतु (इससे क्या मणिके प्रति सर्पका अनुराग कम हो जाता है?) क्या मणिके वियोगमें सर्प अन्धा नहीं हो जाता* (अर्थात् वह अन्धा हो जाता है) और मणिसे उसका प्रेम नहीं हटता॥ ३१५॥

पादटिप्पनी
  • कहा जाता है कि रातको मणिधर सर्प अपनी मणि निकालकर जमीनपर रख देता है और उसके प्रकाशसे ओस चाटा करता है और आहारकी खोज किया करता है। ब्याध आकर उस मणिपर गोबर डाल देता है, जिससे मणिका प्रकाश ढक जाता है और सर्प मणिको न पाकर अन्धा हो जाता है और सिर पटक-पटककर मर जाता है।

कमलका उदाहरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरत तुहिन लखि बनज बन रबि दै पीठि पराउ।
उदय बिकस अथवत सकुच मिटै न सहज सुभाउ॥

मूल

जरत तुहिन लखि बनज बन रबि दै पीठि पराउ।
उदय बिकस अथवत सकुच मिटै न सहज सुभाउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कमलोंके वनको पालेसे जलते हुए देखकर भी सूर्य उनकी ओर पीठ देकर (उनकी अवहेलना करके) चाहे भाग जाय, परंतु सूर्यके उदय होनेपर खिल जाना और अस्त होनेपर सिकुड़ जाना—कमलोंका यह सहज स्वभाव (स्वाभाविक प्रेम) नहीं मिट सकता॥ ३१६॥

मछलीका उदाहरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

देउ आपनें हाथ जल मीनहि माहुर घोरि।
तुलसी जिऐ जो बारि बिनु तौ तु देहि कबि खोरि॥

मूल

देउ आपनें हाथ जल मीनहि माहुर घोरि।
तुलसी जिऐ जो बारि बिनु तौ तु देहि कबि खोरि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जल चाहे स्वयं अपने हाथसे विष घोलकर मछलीको दे दे, पर यदि मछली बिना जलके (जलसे बाहर निकलनेपर) जीवित रह जाय तो तुम कवियोंको दोष दे सकते हो (यह कह सकते हो कि यह सब कवियोंकी झूठी कल्पना है)। तात्पर्य यह कि जलके द्वारा चाहे जैसी नीचता होनेपर भी एकांगी प्रेमका पालन करनेवाली मछली जलके वियोगमें नहीं जी सकती॥ ३१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मकर उरग दादुर कमठ जल जीवन जल गेह।
तुलसी एकै मीन को है साँचिलो सनेह॥

मूल

मकर उरग दादुर कमठ जल जीवन जल गेह।
तुलसी एकै मीन को है साँचिलो सनेह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि मगर, पानीके साँप, मेढक और कछुए आदि जलचर जीवोंका भी जल ही जीवन है और जल ही घर है, परंतु जलके साथ सच्चा प्रेम तो एक मछलीका ही है। (और सब जीव जलके बिना स्थलपर भी जीवित रह जाते हैं, परंतु मछली तो जलका वियोग होते ही प्राण त्याग कर देती है)॥ ३१८॥

मयूरशिखा बूटीका उदाहरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी मिटे न मरि मिटेहुँ साँचो सहज सनेह।
मोरसिखा बिनु मूरिहूँ पलुहत गरजत मेह॥

मूल

तुलसी मिटे न मरि मिटेहुँ साँचो सहज सनेह।
मोरसिखा बिनु मूरिहूँ पलुहत गरजत मेह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि सच्चा और स्वाभाविक प्रेम मर मिटनेपर भी नहीं मिटता। बादलोंके गरजते ही (मेघके प्रति प्रेम करनेवाली सूखी हुई) मयूरशिखा बूटी बिना जड़की होनेपर भी (तुरंत) पनप उठती है॥ ३१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुलभ प्रीति प्रीतम सबै कहत करत सब कोइ।
तुलसी मीन पुनीत ते त्रिभुवन बड़ो न कोइ॥

मूल

सुलभ प्रीति प्रीतम सबै कहत करत सब कोइ।
तुलसी मीन पुनीत ते त्रिभुवन बड़ो न कोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सभी यह कहते हैं कि प्रेम और प्रियतम दोनों ही सुलभ (सस्ते) हैं और सब ऐसा करते भी हैं (किसीको प्रियतम बनाकर उससे प्रेम करते हैं), परंतु तुलसीदासजी कहते हैं कि (सच्चे प्रेमके नाते) मछलीसे बढ़कर पवित्र तीनों लोकोंमें दूसरा कोई नहीं है (मछली जलसे निष्काम प्रेम करती है और वियोग होते ही प्राण त्याग देती है; दूसरे ऐसा नहीं करते)॥ ३२०॥

अनन्यताकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी जप तप नेम ब्रत सब सबहीं तें होइ।
लहै बड़ाई देवता इष्टदेव जब होइ॥

मूल

तुलसी जप तप नेम ब्रत सब सबहीं तें होइ।
लहै बड़ाई देवता इष्टदेव जब होइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जप, तप, नेम तथा व्रत आदि सब साधन सभीसे बन सकते हैं, परंतु मनुष्य बड़ाई तब पाता है, जब वह देवता (भगवान्)-को अपना (एकमात्र) इष्टदेव-प्रेमका देवता बना लेता है॥ ३२१॥

गाढ़े दिनका मित्र ही मित्र है

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुदिन हितू सो हित सुदिन हित अनहित किन होइ।
ससि छबि हर रबि सदन तउ मित्र कहत सब कोइ॥

मूल

कुदिन हितू सो हित सुदिन हित अनहित किन होइ।
ससि छबि हर रबि सदन तउ मित्र कहत सब कोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सुखके दिनोंमें चाहे कोई मित्र या शत्रु कुछ भी क्यों न हो (कोई महत्त्वकी बात नहीं है), सच्चा मित्र तो वही है जो बुरे (विपत्तिके) दिनोंमें प्रेम करता है। सूर्य अपने घरमें (अमावस्याके* दिन) चन्द्रमाकी शोभाको हरण कर लेता है, फिर भी उसको सब ‘मित्र’ ही कहते हैं (क्योंकि वह विपत्तिमें चन्द्रमाका हित करता है, अपनी किरणोंसे सदा उसे प्रकाश देता रहता है)॥ ३२२॥

पादटिप्पनी
  • अमावस्याके दिन सूर्य और चन्द्र एक साथ रहते हैं। ‘मित्र’ सूर्यका नाम भी है।

बराबरीका स्नेह दुःखदायक होता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

कै लघुकै बड़ मीत भल सम सनेह दुख सोइ।
तुलसी ज्यों घृत मधु सरिस मिलें महाबिष होइ॥

मूल

कै लघुकै बड़ मीत भल सम सनेह दुख सोइ।
तुलसी ज्यों घृत मधु सरिस मिलें महाबिष होइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि मित्र अपनेसे या तो छोटा हो या बड़ा हो, तभी कल्याण है; बराबरीका प्रेम तो दुःखदायक ही होता है। जैसे घी और मधु बराबर परिमाणमें मिल जानेसे भयंकर विष हो जाता है॥ ३२३॥

मित्रतामें छल बाधक है

विश्वास-प्रस्तुतिः

मान्य मीत सों सुख चहैं सो न छुऐ छल छाहँ।
ससि त्रिसंकु कैकेइ गति लखि तुलसी मन माहँ॥

मूल

मान्य मीत सों सुख चहैं सो न छुऐ छल छाहँ।
ससि त्रिसंकु कैकेइ गति लखि तुलसी मन माहँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो कोई अपने सम्मान्य मित्रसे सुख चाहता हो तो उसे चाहिये कि वह चन्द्रमा१, त्रिशंकु२ और कैकेयीकी३ गतिको मनमें विचारकर छलकी छायाको भी न छुवे (अर्थात् किसी भी प्रकारसे छल न करे)॥ ३२४॥

पादटिप्पनी

१-चन्द्रमाने गुरुपत्नी-गमन किया, जिससे वह अबतक बदनाम है। चन्द्रको सभी कलंकी कहते हैं।
२-त्रिशंकुको गुरु वसिष्ठका अपमान करनेके कारण पहले चाण्डाल होना पड़ा और तत्पश्चात् विश्वामित्रजीके तपोबलसे सदेह स्वर्ग जाते हुए वापस उलटे मुँह गिरना और अधःलटकना पड़ा।
३-कैकेयीने अपने स्वामी दशरथसे छल करके तुरंत ही वैधव्य और सदाके लिये अपयश अपने सिर ले लिया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहिअ कठिन कृत कोमलहुँ हित हठि होइ सहाइ।
पलक पानि पर ओड़िअत समुझि कुघाइ सुघाइ॥

मूल

कहिअ कठिन कृत कोमलहुँ हित हठि होइ सहाइ।
पलक पानि पर ओड़िअत समुझि कुघाइ सुघाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सच्चा हितैषी उसीको कहना चाहिये, जो नरम (साधारण) या कठिन—कैसा भी काम पड़नेपर (हलकी या भारी विपत्तिके समय) स्वयं (बिना किसी अनुरोधके) हठ करके सहायता करे। जैसे आँखोंपर कोमल चोट होते हुए देखकर उसे पलकोंपर ओड़ लिया (रोक लिया) जाता है और शरीरपर भारी चोट होते हुए देखकर उसे हाथोंपर ओड़ लिया जाता है (आँखोंपर जरा-सा भी कोई आघात होनेको होता है तो पलकें तुरंत स्वाभाविक ही बंद होकर आँखोंको ढक लेती हैं और आघात स्वयं सह लेती हैं और सिरपर आघात लगनेकी आशंका होते ही हाथ स्वयमेव उसे बचानेके लिये ऊपर उठ जाते हैं और स्वयं चोट सह लेते हैं)॥ ३२५॥

वैर और प्रेम अंधे होते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी बैर सनेह दोउ रहित बिलोचन चारि।
सुरा सेवरा आदरहिं निंदहिं सुरसरि बारि॥

मूल

तुलसी बैर सनेह दोउ रहित बिलोचन चारि।
सुरा सेवरा आदरहिं निंदहिं सुरसरि बारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि वैर और प्रेम चारों आँखोंसे (अन्तर्दृष्टि एवं बाह्यदृष्टि दोनोंसे रहित) अंधे होते हैं। वैरी अपने द्वेषीके गुणोंको नहीं देखता और प्रेमी अपने प्रेमास्पदका दोष नहीं देखता) और न इनको उचित-अनुचितका ज्ञान होता है। जैसे सेवड़ा (वाममार्गी साधक) शराबका (अत्यन्त निन्दनीय और त्याज्य होनेपर भी) आदर करते हैं और पवित्र गंगाजलकी निन्दा करते हैं॥ ३२६॥

दानी और याचकका स्वभाव

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुचै मागनेहि मागिबो तुलसी दानिहि दानु।
आलस अनख न आचरज प्रेम पिहानी जानु॥

मूल

रुचै मागनेहि मागिबो तुलसी दानिहि दानु।
आलस अनख न आचरज प्रेम पिहानी जानु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि भिखमंगेको माँगना और देनेवालेको दान देना ही अच्छा लगता है; अपने-अपने काममें (माँगने और देनेमें) न तो दोनोंको आलस्य आता है, न उद्वेग अथवा झुँझलाहट ही होती है और न आश्चर्य ही होता है; क्योंकि प्रेमको ही इन सब भावोंका ढक्कन समझो (माँगनेवालेको माँगनेसे तथा देनेवालेको दानसे स्वाभाविक प्रेम हो जाता है, जिससे ये सब बातें उनमें नहीं आ पातीं)॥ ३२७॥

प्रेम और वैर ही अनुकूलता और प्रतिकूलतामें हेतु हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमिअ गारि गारेउ गरल गारि कीन्ह करतार।
प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुध न गवाँर॥

मूल

अमिअ गारि गारेउ गरल गारि कीन्ह करतार।
प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुध न गवाँर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—ब्रह्माजीने अमृत और विषको निचोड़कर (उनके साररूपमें) गालीको रचा है। इसलिये गाली, प्रेम और वैर दोनोंकी जननी (पैदा करनेवाली) है। इस बातको बुद्धिमान् पुरुष जानते हैं, गँवार नहीं (हँसी-मजाक या विवाहके समय दी जानेवाली गाली प्रेम उत्पन्न करती है और द्वेष, वैमनस्य या क्रोधसे दी हुई वैर पैदा करती है)॥ ३२८॥

स्मरण और प्रिय भाषण ही प्रेमकी निशानी है

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा न जे सुमिरत रहहिं मिलि न कहहिं प्रिय बैन।
ते पै तिन्ह के जाहिं घर जिन्ह के हिएँ न नैन॥

मूल

सदा न जे सुमिरत रहहिं मिलि न कहहिं प्रिय बैन।
ते पै तिन्ह के जाहिं घर जिन्ह के हिएँ न नैन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो न तो सदा (कभी) याद करते हैं और न कभी मिलनेपर मीठे वचन ही बोलते हैं; उनके घर वे ही जाते हैं जिनके हियेकी आँखें फूटी होती हैं (अर्थात् जो महान् मूर्ख होते हैं)॥ ३२९॥

संसारमें प्रेममार्गके अधिकारी बिरले ही हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

माखी काक उलूक बक दादुर से भए लोग।
भले ते सुक पिक मोरसे कोउ न प्रेम पथ जोग॥

मूल

माखी काक उलूक बक दादुर से भए लोग।
भले ते सुक पिक मोरसे कोउ न प्रेम पथ जोग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—संसारमें अधिकांश लोग तो मक्खी, कौए, उल्लू,बगुले और मेढकके सदृश (बिना ही कारण हानि करनेवाले, पर-निन्दारूपी मल भक्षण करनेवाले, भगवान् की ओरसे आँख मुँदे रखनेवाले, ऊपरसे सुन्दर वेष धारण कर अंदरसे छलनेकी इच्छा रखनेवाले और व्यर्थका बकवाद करनेवाले) हो गये हैं और जो कुछ भले लोग हैं, वे भी तोते, कोयल और मोरके सदृश (देखनेमें अच्छे, पर पलमें प्रेम तोड़कर भाग जानेवाले, बोलनेमें मधुर, परंतु स्वार्थी, शरीरसे सुन्दर परंतु कठोर-हृदय) हैं, प्रेमपथपर चलनेयोग्य तो कोई भी नहीं है॥ ३३१॥

कलियुगमें कपटकी प्रधानता

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदयँ कपट बर बेष धरि बचन कहहिं गढ़ि छोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिए मन खोलि॥

मूल

हृदयँ कपट बर बेष धरि बचन कहहिं गढ़ि छोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिए मन खोलि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—आजकलके लोग तो मोरके समान हैं; वे सुन्दर वेश धारण करते हैं (ऊपरसे बहुत ही अच्छा, शिष्टतापूर्ण व्यवहार करते हैं) और अच्छी तरह बना-बनाकर बातें करते हैं; परंतु उनके हृदयमें कपट रहता है। ऐसे लोगोंसे दिल खोलकर कैसे मिला जाय? (तात्पर्य यह है कि आजकल लोग ऊपरसे चिकनी-चुपड़ी बातें बनाना और देखनेमें सभ्यताका व्यवहार करना तो सीख गये हैं, परंतु उनके हृदयमें सरल प्रेम नहीं है, वे उस मयूरके समान हैं, जिसका शरीर बड़ा ही मनोहर और वाणी अत्यन्त मधुर होती है; परंतु जो हृदयका इतना कठोर होता है कि बड़े-बड़े जहरीले साँपोंको निगल जाता है)॥ ३३२॥

कपट अन्ततक नहीं निभता

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन चोंच लोचन रँगौ चलौ मराली चाल।
छीर नीर बिबरन समय बक उघरत तेहि काल॥

मूल

चरन चोंच लोचन रँगौ चलौ मराली चाल।
छीर नीर बिबरन समय बक उघरत तेहि काल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बगुला चाहे अपने चरण, चोंच और आँखोंको हंसकी तरह रँग ले और हंसकी-सी चाल भी चलने लगे; परंतु जिस समय दूध और जलको अलग-अलग करनेका अवसर आता है, उस समय उसकी पोल खुल जाती है॥ ३३३॥

कुटिल मनुष्य अपनी कुटिलताको नहीं छोड़ सकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलै जो सरलहि सरल ह्वै कुटिल न सहज बिहाइ।
सो सहेतु ज्यों बक्र गति ब्याल न बिलहिं समाइ॥

मूल

मिलै जो सरलहि सरल ह्वै कुटिल न सहज बिहाइ।
सो सहेतु ज्यों बक्र गति ब्याल न बिलहिं समाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कुटिल मनुष्य अपने स्वभावको नहीं छोड़ सकता। यदि वह किसी सरलहृदय पुरुषसे सरल होकर मिलता भी है तो समझ लेना चाहिये कि उसके ऐसा करनेमें कोई-न-कोई हेतु अवश्य है। जैसे साँप टेढ़ी चालसे बिलमें नहीं घुस सकता (इसलिये बिलमें घुसनेके लिये वह उस समय टेढ़ी चाल छोड़कर सीधा हो जाता है, परंतु वास्तवमें उसकी स्वाभाविक टेढ़ी चाल नहीं मिटती)॥ ३३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृसधन सखहि न देब दुख मुएहुँ न मागब नीच।
तुलसी सज्जन की रहनि पावक पानी बीच॥

मूल

कृसधन सखहि न देब दुख मुएहुँ न मागब नीच।
तुलसी सज्जन की रहनि पावक पानी बीच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि सज्जनोंकी स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे आग और पानीके बीचमें रहना। वे थोड़ी पूँजीवाले मित्रसे तो धन माँगकर उसे कष्ट नहीं देंगे (ऐसा करनेमें उन्हें अग्निमें जलनेके समान पीड़ा होती है) और धनवान् नीच मनुष्यसे वे मरनेपर भी (अत्यन्त विपत्तिमें भी) नहीं माँगेंगे (क्योंकि उससे माँगना उन्हें जलमें डूब जानेके समान प्राणघातक प्रतीत होता है। अतः वे अभावका कष्ट ही सहते रहते हैं)॥ ३३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संग सरल कुटिलहि भएँ हरि हर करहिं निबाहु।
ग्रह गनती गनि चतुर बिधि कियो उदर बिनु राहु॥

मूल

संग सरल कुटिलहि भएँ हरि हर करहिं निबाहु।
ग्रह गनती गनि चतुर बिधि कियो उदर बिनु राहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सरल (सज्जन) और कुटिल (दुष्ट)-का साथ हो जानेपर भगवान् विष्णु और शिव ही निर्वाह (रक्षा) करते हैं। राहुके ग्रहोंकी गणनामें गिने जानेपर चतुर ब्रह्माने उसको बिना पेटका बना दिया (यदि वह पेटहीन न होता तो उसका तथा अन्य ग्रहका संग मिलता ही नहीं; क्योंकि वह दुष्ट ग्रह होनेके कारण साथी सरल ग्रहोंको कभी खा डाले होता)॥ ३३६॥

सत्संग और असत्संगका परिणामगत भेद

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥

मूल

संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—संतोंका संग मोक्ष (भवबन्धनसे छूटने)-का और विषयी पुरुषोंका संग संसारबन्धनमें पड़नेका मार्ग है। इस बातको संत, कवि, ज्ञानी और वेद-पुराणादि सद्‍ग्रन्थ सभी कहते हैं॥ ३४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकृत न सुकृती परिहरइ कपट न कपटी नीच।
मरत सिखावन देइ चले गीधराज मारीच॥

मूल

सुकृत न सुकृती परिहरइ कपट न कपटी नीच।
मरत सिखावन देइ चले गीधराज मारीच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—पुण्यात्मा पुरुष अपने पुण्यको और नीच, कपटी मनुष्य अपने कपटको मरते दमतक नहीं छोड़ते। जटायु और मारीच मरते-मरते इसी बातकी सीख दे गये हैं (जटायुने सीताके छुड़ानेके प्रयत्नमें परोपकारार्थ प्राण छोड़े और मारीचने मरते समय भी रामके-से स्वरमें ‘हा लक्ष्मण’ कहकर सीताजीको धोखा दिया)॥ ३४१॥

सज्जन और दुर्जनका भेद

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुजन सुतरु बन ऊख सम खल टंकिका रुखान।
परहित अनहित लागि सब साँसति सहत समान॥

मूल

सुजन सुतरु बन ऊख सम खल टंकिका रुखान।
परहित अनहित लागि सब साँसति सहत समान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सज्जन पुरुष सुन्दर (लाभकारी) कपास और ऊखके पौधेके समान हैं और दुर्जन टाँकी और रुखानीके* समान। सज्जन और दुर्जन दोनों ही समानरूपसे कष्ट सहते हैं; परंतु सज्जन सहते हैं पराये हितके लिये और दुष्ट दूसरोंके अहितके लिये॥ ३४२॥

पादटिप्पनी
  • बढ़इयोंका लोहेका एक औजार।
विश्वास-प्रस्तुतिः

पिअहिं सुमन रस अलि बिटप काटि कोल फल खात।
तुलसी तरुजीवी जुगल सुमति कुमति की बात॥

मूल

पिअहिं सुमन रस अलि बिटप काटि कोल फल खात।
तुलसी तरुजीवी जुगल सुमति कुमति की बात॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि (भ्रमर और भील दोनों ही वृक्षोंके सहारे जीते हैं, किंतु) भ्रमर फूलोंका रस ही पीते हैं (फूलोंको भी नहीं चुनते) और कोल-भील वृक्षको काटकर उसका फल खाते हैं। यह सुबुद्धि और कुबुद्धिकी बात है॥ ३४३॥

अवसरकी प्रधानता

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवसर कौड़ी जो चुकै बहुरि दिएँ का लाख।
दुइज न चंदा देखिऐ उदौ कहा भरि पाख॥

मूल

अवसर कौड़ी जो चुकै बहुरि दिएँ का लाख।
दुइज न चंदा देखिऐ उदौ कहा भरि पाख॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—आवश्यकताके समय मनुष्य यदि कौड़ी देनेमें भी चूक जाय तो फिर (अनावश्यक बिना मौके) लाख रुपया देनेसे भी क्या होता है? द्वितीयाके चन्द्रमाको न देखा जाय तो फिर पक्षभर चन्द्रमा उदय होता रहे, उससे क्या होगा?॥ ३४४॥

भलाई करना बिरले ही जानते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्यान अनभले को सबहि भले भलेहू काउ।
सींग सूँड़ रद लूम नख करत जीव जड़ घाउ॥

मूल

ग्यान अनभले को सबहि भले भलेहू काउ।
सींग सूँड़ रद लूम नख करत जीव जड़ घाउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बुराई करनेका ज्ञान तो सभीको है, परंतु भलाईका ज्ञान तो कभी किसी भलेको ही होता है। मूर्ख जानवर (गैंडा, हाथी, सिंह, चँवरी गाय, बंदर आदि) अपने सींग, सूँड़, दाँत, पूँछ तथा नख इत्यादिसे दूसरोंको चोट ही पहुँचाते हैं (उनसे भलाई करना नहीं जानते)॥ ३४५॥

संसारमें हित करनेवाले कम हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी जग जीवन अहित कतहुँ कोउ हित जानि।
सोषक भानु कृसानु महि पवन एक घन दानि॥

मूल

तुलसी जग जीवन अहित कतहुँ कोउ हित जानि।
सोषक भानु कृसानु महि पवन एक घन दानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जगत् में जीवोंका अहित करनेवाले बहुत हैं, हित करनेवाला तो कहीं कोई एकाध ही जानो। सूर्य, अग्नि, पृथ्वी, पवन सभी जलको सुखानेवाले हैं, देनेवाला तो एक बादल ही है॥ ३४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल॥

मूल

सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अमृत तो केवल सुननेमें ही आता है; परंतु विष जहाँ-तहाँ प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। विधाताके सभी कार्य विकराल हैं। कौए, उल्लू और बगुले जहाँ-तहाँ (सर्वत्र) दिखायी देते हैं; परंतु हंस तो केवल एक मानसरोवरमें ही मिलते हैं (दूसरोंकी बुराई करनेवाले नीच सभी जगह मिलते हैं, परंतु परहितमें लगे हुए संत तो सत्संगमें ही मिलते हैं)॥ ३४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलचर थलचर गगनचर देव दनुज नर नाग।
उत्तम मध्यम अधम खल दस गुन बढ़त बिभाग॥

मूल

जलचर थलचर गगनचर देव दनुज नर नाग।
उत्तम मध्यम अधम खल दस गुन बढ़त बिभाग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जलमें रहनेवाले, स्थलपर रहनेवाले और आकाशमें विचरनेवाले जीवों तथा देवता, राक्षस, मनुष्य और नाग—इन सब योनियोंमें उत्तमकी अपेक्षा मध्यम, मध्यमकी अपेक्षा अधम और अधमकी अपेक्षा नीच—दुष्ट प्राणियोंकी संख्या दसगुनी अधिक हो जाती है (उत्तमसे मध्यम दसगुने, मध्यमसे अधम दसगुने और अधमसे नीच दसगुने हैं, उत्तम बहुत ही थोड़े हैं)॥ ३४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलि मिस देखे देवता कर मिस मानव देव।
मुए मार सुबिचार हत स्वारथ साधन एव॥

मूल

बलि मिस देखे देवता कर मिस मानव देव।
मुए मार सुबिचार हत स्वारथ साधन एव॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बलिदानके बहाने देवताओंको और राज्य-कर (दण्ड)-के बहाने राजाओंको देख लिया। दोनों ही स्वार्थ साधनेवाले विचार-शून्य और मरेको ही मारनेवाले हैं॥ ३४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुजन कहत भल पोच पथ पापि न परखइ भेद।
करमनास सुरसरित मिस बिधि निषेध बद बेद॥

मूल

सुजन कहत भल पोच पथ पापि न परखइ भेद।
करमनास सुरसरित मिस बिधि निषेध बद बेद॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कर्मनाशा और गंगाजीके बहाने जैसे वेद विधि और निषेध दोनों तरहके कर्मोंका वर्णन करते हैं (कर्मनाशामें नहानेका निषेध है और गंगास्नानकी विधि है) वैसे ही सत्पुरुष (ग्रहण और त्यागके लिये) भले-बुरे दोनों ही मार्ग बतलाते हैं, परंतु पापी मनुष्य इस भेदको नहीं समझते हैं॥ ३५०॥

प्रीति और वैरकी तीन श्रेणियाँ

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तम मध्यम नीच गति पाहन सिकता पानि।
प्रीति परिच्छा तिहुन की बैर बितिक्रम जानि॥

मूल

उत्तम मध्यम नीच गति पाहन सिकता पानि।
प्रीति परिच्छा तिहुन की बैर बितिक्रम जानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—प्रीतिकी परीक्षामें उत्तम, मध्यम और नीच—इन तीनोंकी स्थिति क्रमशः पत्थर, बालू और जलके समान है (अर्थात् उत्तम पुरुषकी प्रीति पत्थरकी लीकके समान अमिट है, मध्यम मनुष्यकी प्रीति बालूकी रेखाके समान—दूसरी हवा न लगनेतक ही है और नीचकी प्रीति तो जलकी लकीरके समान है। जैसे अँगुलीसे जलमें लकीर करते जाइये, साथ-ही-साथ वह मिटती चली जायगी, ऐसे ही नीचकी प्रीति तत्काल नष्ट हो जाती है); परंतु वैर इसके विपरीत (उत्तमपुरुषका जलकी लकीरके समान तत्काल नष्ट होनेवाला, मध्यमका बालूकी रेखाके समान कुछ समयतक रहनेवाला और नीचका पत्थरकी लकीरके सदृश चिरस्थायी होता है)॥ ३५२॥

जिसे सज्जन ग्रहण करते हैं, उसे दुर्जन त्याग देते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुन्य प्रीति पति प्रापतिउ परमारथ पथ पाँच।
लहहिं सुजन परिहरहिं खल सुनहु सिखावन साँच॥

मूल

पुन्य प्रीति पति प्रापतिउ परमारथ पथ पाँच।
लहहिं सुजन परिहरहिं खल सुनहु सिखावन साँच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—पुण्य, प्रेम, प्रतिष्ठा, प्राप्ति (लौकिक लाभ) और परमार्थका पथ—इन पाँचोंको सज्जनगण तो ग्रहण करते हैं और दुष्टलोग त्याग देते हैं। इस सच्ची सीखको सुनो॥ ३५३॥

प्रकृतिके अनुसार व्यवहारका भेद भी आवश्यक है

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीच निरादरहीं सुखद आदर सुखद बिसाल।
कदरी बदरी बिटप गति पेखहु पनस रसाल॥

मूल

नीच निरादरहीं सुखद आदर सुखद बिसाल।
कदरी बदरी बिटप गति पेखहु पनस रसाल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—नीच लोग निरादर करनेसे और बड़े लोग आदर करनेसे सुखदायी होते हैं। इस बातको समझनेके लिये केले और बेर तथा कटहल और आमके पेड़ोंकी दशा देखो (केला तथा बेर काटे जानेपर अधिक फल देते हैं, परंतु कटहल और आम सींचने और सेवा करनेपर ही फलते हैं)॥ ३५४॥

भाग्यवान् कौन है?

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुध सो बिबेकी बिमलमति जिन्ह कें रोष न राग।
सुहृद सराहत साधु जेहि तुलसी ताको भाग॥

मूल

बुध सो बिबेकी बिमलमति जिन्ह कें रोष न राग।
सुहृद सराहत साधु जेहि तुलसी ताको भाग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—वे पुरुष निर्मल बुद्धिवाले, ज्ञानवान् और बुद्धिमान् हैं जिनका न किसीमें राग (आसक्ति) है, न किसीके प्रति क्रोध (द्वेष) है; किंतु साधुजन जिन्हें सुहृद् (सबका अकारण हितू) कहकर सराहना करते हैं, तुलसीदासजी कहते हैं वे बड़े ही भाग्यशाली हैं॥ ३५६॥

साधुजन किसकी सराहना करते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपु आपु कहँ सब भलो अपने कहँ कोइ कोइ।
तुलसी सब कहँ जो भलो सुजन सराहिअ सोइ॥

मूल

आपु आपु कहँ सब भलो अपने कहँ कोइ कोइ।
तुलसी सब कहँ जो भलो सुजन सराहिअ सोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—स्वयं अपने लिये सभी भले हैं (सभी अपनी भलाई करना चाहते हैं), कोई-कोई अपनोंकी (मित्र-बान्धवोंकी) भी भलाई करनेवाले होते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि जो सबकी भलाई करनेवाला (सुहृद्) है, साधुजनोंके द्वारा उसीकी सराहना होती है॥ ३५७॥

संगकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी भलो सुसंग तें पोच कुसंगति सोइ।
नाउ किंनरी तीर अति लोह बिलोकहु लोइ॥

मूल

तुलसी भलो सुसंग तें पोच कुसंगति सोइ।
नाउ किंनरी तीर अति लोह बिलोकहु लोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि अच्छी संगतिसे मनुष्य अच्छा और बुरी संगतिसे बुरा हो जाता है। हे लोगो! देखो, जो लोहा नावमें लगनेसे सबको पार उतारनेवाला और सितारमें लगनेसे मधुर संगीत सुनाकर सुख देनेवाला बन जाता है, वही तलवार और तीरमें लगनेसे जीवोंका प्राणघातक हो जाता है॥ ३५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु संगति गुरु होइ सो लघु संगति लघु नाम।
चार पदारथ में गनैं नरक द्वारहू काम॥

मूल

गुरु संगति गुरु होइ सो लघु संगति लघु नाम।
चार पदारथ में गनैं नरक द्वारहू काम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बड़ोंकी संगतिसे मनुष्य बड़ा (सम्मान्य) हो जाता है और छोटोंकी संगतिसे उसीका नाम छोटा हो जाता है। अर्थ, धर्म और मोक्षके साथ रहनेसे नरकके साक्षात् द्वार कामकी भी गिनती चार पदार्थोंमें होती है॥ ३५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी गुरु लघुता लहत लघु संगति परिनाम।
देवी देव पुकारिअत नीच नारि नर नाम॥

मूल

तुलसी गुरु लघुता लहत लघु संगति परिनाम।
देवी देव पुकारिअत नीच नारि नर नाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि नीच मनुष्योंकी संगतिका यह परिणाम होता है कि बड़े महत्त्ववाले पुरुष भी लघुताको प्राप्त हो जाते हैं। नीच स्त्री-पुरुषोंके नाम होनेसे देवी-देवता भी लघुतासे ही पुकारे जाते हैं॥ ३६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी किएँ कुसंग थिति होहिं दाहिने बाम।
कहि सुनि सकुचिअ सूम खल गत हरि संकर नाम॥

मूल

तुलसी किएँ कुसंग थिति होहिं दाहिने बाम।
कहि सुनि सकुचिअ सूम खल गत हरि संकर नाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि कुसंगतिमें स्थित रहनेसे अच्छे भी बुरे हो जाते हैं। हरि, शंकर आदि भगवान् के नाम परम कल्याणकारी हैं, परंतु वही नाम कंजूस और दुष्ट पुरुषोंके रख दिये जाते हैं तो लोग उन नामोंको कहते-सुनते सकुचाते हैं॥ ३६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बसि कुसंग चह सुजनता ताकी आस निरास।
तीरथहू को नाम भो गया मगह के पास॥

मूल

बसि कुसंग चह सुजनता ताकी आस निरास।
तीरथहू को नाम भो गया मगह के पास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कुसंगतिमें निवास करके जो सज्जनताकी आशा करता है, उसकी आशा निराशामात्र है। मगधके पास बसनेसे पवित्र विष्णुपद तीर्थका नाम भी ‘गया’ (गया-बीता) पड़ गया॥ ३६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कृपाँ तुलसी सुलभ गंग सुसंग समान।
जो जल परै जो जन मिलै कीजै आपु समान॥

मूल

राम कृपाँ तुलसी सुलभ गंग सुसंग समान।
जो जल परै जो जन मिलै कीजै आपु समान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि गंगाजी और सत्संगति दोनों समान हैं। गंगाजीमें कैसा भी जल पड़े और सत्संगतिमें कैसा भी दुर्जन मनुष्य जाय, उसको ये दोनों अपने ही समान पवित्र बना देती हैं। परंतु इनकी प्राप्ति श्रीरामकृपासे ही सुलभ है॥ ३६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥

मूल

ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—ग्रह, ओषधि, जल, वायु और वस्त्र—ये सभी बुरा या अच्छा संग पाकर जगत् में बुरे या अच्छे पदार्थ बन जाते हैं। इस रहस्यको अच्छे लक्षणवाले बुद्धिमान् लोग ही जान पाते हैं॥ ३६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम जोग में जानिअत जग बिचित्र गति देखि।
तुलसी आखर अंक रस रंग बिभेद बिसेषि॥

मूल

जनम जोग में जानिअत जग बिचित्र गति देखि।
तुलसी आखर अंक रस रंग बिभेद बिसेषि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जैसे अक्षर (क, ख, ग आदि), अंक (१, २, ३ आदि), रस (मीठामें खट्टा आदि) और रंग (नीला, लाल, पीला आदि)-में (इनके परस्पर संयोगके भेदसे) विशेष भेद हो जाता है, ऐसे ही मनुष्यके जन्मकालमें भिन्न-भिन्न ग्रहोंका योग होता है; उसीको देखकर जगत् की विचित्र गति जानी जाती है॥ ३६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आखर जोरि बिचार करु सुमति अंक लिखि लेखु।
जोग कुजोग सुजोग मय जग गति समुझि बिसेषु॥

मूल

आखर जोरि बिचार करु सुमति अंक लिखि लेखु।
जोग कुजोग सुजोग मय जग गति समुझि बिसेषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अक्षरोंको जोड़कर विचार करो और हे सुमति! अंकोंको लिखकर हिसाब लगाओ तो भलीभाँति समझ जाओगे कि जगत् की गति योगसे कुयोग और सुयोगमयी हो जाती है (‘धर्म’ के पहले ‘अ’ अक्षर जोड़ दो, अधर्म हो जायगा और अधर्मके आगे ‘हीन’ ये दो अक्षर जोड़ दो तो ‘अधर्म’ से रहित अर्थ हो जायगा; इसी प्रकार १ अंकके आगे ०० दो शून्य लगा दो तो १०० हो जायगा, वही शून्य पहले लगा दो तो उस एकको भी कोई नहीं गिनेगा। इसी तरह कुसंगति-सुसंगतिसे जगत् में मनुष्य बुरा-भला हो जाता है)॥ ३६६॥

मार्ग-भेदसे फल-भेद

विश्वास-प्रस्तुतिः

करु बिचार चलु सुपथ भल आदि मध्य परिनाम।
उलटि जपें ‘जारा मरा’ सूधें ‘राजा राम’॥

मूल

करु बिचार चलु सुपथ भल आदि मध्य परिनाम।
उलटि जपें ‘जारा मरा’ सूधें ‘राजा राम’॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—विचार करके सुमार्गपर चलो, ऐसा करनेसे आदि, मध्य और परिणाममें भला-ही-भला है। जैसे बिना विचारे उलटा जपनेसे जो शब्द ‘जारा’ और ‘मरा’ हो जाता है वही विचारपूर्वक सीधा जपनेसे ‘राजा राम’ हो जाता है (जो कल्याणमय है)॥ ३६७॥

विवेककी आवश्यकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

जड़ चेतन गुन दोष मय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥

मूल

जड़ चेतन गुन दोष मय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—विधाताने इस जड़-चेतन विश्वको गुण-दोषमय रचा है; परंतु संतरूपी हंस दोषरूपी जलको त्यागकर गुणरूपी दूधको ग्रहण करते हैं॥ ३६९॥

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम॥

मूल

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—रेशम कीड़ेसे होता है, उससे सुन्दर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसीलिये अत्यन्त अपवित्र कीड़ोंको भी सब लोग प्राणोंके समान पालते हैं॥ ३७०॥

दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जो जेहिं जेहिं रस मगन तहँ सो मुदित मन मानि।
रसगुन दोष बिचारिबो रसिक रीति पहिचानि॥

मूल

जो जो जेहिं जेहिं रस मगन तहँ सो मुदित मन मानि।
रसगुन दोष बिचारिबो रसिक रीति पहिचानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो-जो जिस-जिस रसमें मग्न होता है, वह उसीमें संतोष मानकर आनन्दित होता है। परंतु रसके गुण-दोषका विचार करना तो रसिकोंकी रीतिकी पहचान है (अर्थात् रसके गुण-दोषका विचार तो रसिकजन ही करते हैं)॥ ३७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥

मूल

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यद्यपि शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षोंमें उजियाला और अँधेरा बराबर रहता है, तो भी विधाताने उनके नाममें भेद कर दिया है। शुक्लपक्षको चन्द्रमाका पोषक (कलाको बढ़ानेवाला) जानकर उसे जगत् में यश दिया अर्थात् यशरूप ‘शुक्लपक्ष’ नाम रखा और कृष्णपक्षको चन्द्रमाका शोषक (कलाओंको घटानेवाला) जानकर उसे अयश दिया अर्थात् कलंकरूप ‘कृष्णपक्ष’ नाम रखा॥ ३७२॥

कभी-कभी भलेको बुराई भी मिल जाती है

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोक बेदहू लौं दगो नाम भले को पोच।
धर्मराज जम गाज पबि कहत सकोच न सोच॥

मूल

लोक बेदहू लौं दगो नाम भले को पोच।
धर्मराज जम गाज पबि कहत सकोच न सोच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—लोक और वेदतकमें भी भलेका बुरा नाम प्रसिद्ध है। धर्मराजको यम और बिजलीको वज्र कहनेमें किसीको सोच अथवा संकोच नहीं होता॥ ३७३॥

सज्जन और दुर्जनकी परीक्षाके भिन्न-भिन्न प्रकार

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरुचि परखिऐ सुजन जन राखि परखिऐ मंद।
बड़वानल सोषत उदधि हरष बढ़ावत चंद॥

मूल

बिरुचि परखिऐ सुजन जन राखि परखिऐ मंद।
बड़वानल सोषत उदधि हरष बढ़ावत चंद॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—संतोंकी परख तो हमारी रुचिके बिना ही हो जाती है (उनके सरल पवित्र स्वभावसे और उनकी कृपासे हमारे बिना ही प्रयत्न उनका परिचय मिल जाता है), परंतु दुष्ट मनुष्यकी परीक्षा कुछ दिन पास रखकर करनी पड़ती है (सहज ही उसके कपटको पहचानना कठिन होता है)। बड़वानल समुद्रमें बहुत दिन रहनेके बाद समुद्रके जलको सोखता है, परंतु चन्द्रमा दर्शन देते ही समुद्रके हर्षको बढ़ाता है॥ ३७४॥

नीच पुरुषकी नीचता

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु सनमुख भएँ नीच नर होत निपट बिकराल।
रबिरुख लखि दरपन फटिक उगिलत ज्वालाजाल॥

मूल

प्रभु सनमुख भएँ नीच नर होत निपट बिकराल।
रबिरुख लखि दरपन फटिक उगिलत ज्वालाजाल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मालिकके अनुकूल होनेपर नीच मनुष्य (अभिमानके मारे) एकदम भयंकर बन जाते हैं। जैसे दर्पण और स्फटिक सूर्यका रुख अपनी तरफ देखकर आगकी लपटें उगलने लगते हैं॥ ३७५॥

सज्जनकी सज्जनता

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु समीप गत सुजन जन होत सुखद सुबिचार।
लवन जलधि जीवन जलद बरषत सुधा सुबारि॥

मूल

प्रभु समीप गत सुजन जन होत सुखद सुबिचार।
लवन जलधि जीवन जलद बरषत सुधा सुबारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मालिकके पास रहनेसे सज्जन पुरुष सबको सुख देनेवाले हो जाते हैं, इस बातको अच्छी तरह विचार लो। बादलका जीवन खारे समुद्रका जल है; परंतु वह दूसरोंके लिये (खारा जल न देकर) सुन्दर अमृतके समान जल बरसाता है॥ ३७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीच निरावहिं निरस तरु तुलसी सींचहिं ऊख।
पोषत पयद समान सब बिष पियूष के रूख॥

मूल

नीच निरावहिं निरस तरु तुलसी सींचहिं ऊख।
पोषत पयद समान सब बिष पियूष के रूख॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि नीच मनुष्य रसहीन (सूखे) वृक्षोंको तो खेतसे उखाड़ फेंकते हैं और रसवाले ऊखको सींचते हैं; परंतु बादल (जल बरसाकर) विष और अमृत दोनों प्रकारके वृक्षोंका समानरूपसे पोषण करता है॥ ३७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरषि बिस्व हरषित करत हरत ताप अघ प्यास।
तुलसी दोष न जलद को जो जल जरै जवास॥

मूल

बरषि बिस्व हरषित करत हरत ताप अघ प्यास।
तुलसी दोष न जलद को जो जल जरै जवास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बादल तो बरसकर समस्त विश्वको प्रसन्न करता है और सबके ताप (गर्मी), दुःख और प्यासको हरण करता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि उसके जलसे जवासा जल जाय तो इसमें बादलका कोई दोष नहीं है॥ ३७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमर दानि जाचक मरहिं मरि मरि फिरि फिरि लेहिं।
तुलसी जाचक पातकी दातहि दूषन देहिं॥

मूल

अमर दानि जाचक मरहिं मरि मरि फिरि फिरि लेहिं।
तुलसी जाचक पातकी दातहि दूषन देहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि दाता अमर रहते हैं (उनकी कीर्ति संसारमें बनी रहती है) और याचक मरते हैं (माँगना मरनेके तुल्य ही है), बार-बार मरते हैं और बार-बार दान लेते हैं। फिर भी वे पापी याचक दाताको सदा दोष ही देते रहते हैं॥ ३७९॥

नीच-निन्दा

विश्वास-प्रस्तुतिः

लखि गयंद लै चलत भजि स्वान सुखानो हाड़।
गज गुन मोल अहार बल महिमा जान कि राड़॥

मूल

लखि गयंद लै चलत भजि स्वान सुखानो हाड़।
गज गुन मोल अहार बल महिमा जान कि राड़॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हाथीको देखकर कुत्ता सूखे हाड़को लेकर दौड़ जाता है (समझता है, कहीं हाथी इस हाड़को छीन न ले)। वह मूर्ख हाथीके गुण, मूल्य, आहार और बलकी महिमाको क्या जाने?॥ ३८०॥

सज्जनमहिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कै निदरहुँ कै आदरहुँ सिंघहि स्वान सिआर।
हरष बिषाद न केसरिहि कुंजर गंजनिहार॥

मूल

कै निदरहुँ कै आदरहुँ सिंघहि स्वान सिआर।
हरष बिषाद न केसरिहि कुंजर गंजनिहार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कुत्ते और सियार सिंहका निरादर करें, चाहे आदर करें, हाथीको पछाड़नेवाले सिंहको इसमें कोई हर्ष या शोक नहीं होता (वह कुत्ते-सियारोंकी ओर ताकता ही नहीं)॥ ३८१॥

दुर्जनोंका स्वभाव

विश्वास-प्रस्तुतिः

ठाढ़ो द्वार न दै सकैं तुलसी जे नर नीच।
निंदहिं बलि हरिचंद को का कियो करन दधीच॥

मूल

ठाढ़ो द्वार न दै सकैं तुलसी जे नर नीच।
निंदहिं बलि हरिचंद को का कियो करन दधीच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो मनुष्य नीच प्रकृतिके हैं, वे स्वयं तो द्वारपर खड़े हुए भिक्षुकको कुछ भी नहीं दे सकते, परंतु बलि और हरिश्चन्द्रकी निन्दा करते हैं और कहते हैं कि कर्ण और दधीचिने कौन बड़ा काम किया था?॥ ३८२॥

नीचकी निन्दासे उत्तम पुरुषोंका कुछ नहीं घटता

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईस सीस बिलसत बिमल तुलसी तरल तरंग।
स्वान सरावग के कहें लघुता लहै न गंग॥

मूल

ईस सीस बिलसत बिमल तुलसी तरल तरंग।
स्वान सरावग के कहें लघुता लहै न गंग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जिन श्रीगंगाजीकी निर्मल और तरल तरंगें भगवान् श्रीशंकरके मस्तकपर शोभा पाती हैं, उन श्रीगंगाजीकी महिमामें कुत्ते और सरावगियोंके कहनेसे कुछ कमी नहीं हो जाती॥ ३८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी देवल देव को लागे लाख करोरि।
काक अभागें हगि भर्यो महिमा भई कि थोरि॥

मूल

तुलसी देवल देव को लागे लाख करोरि।
काक अभागें हगि भर्यो महिमा भई कि थोरि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि—जिस देवमन्दिरके बनवानेमें लाखों-करोड़ों रुपये लगे हों, उसमें यदि अभागे कौएने बीट कर दी तो इससे उस मन्दिरकी महिमा थोड़े ही घट गयी। वह तो ज्यों-की-त्यों बनी रहती है॥ ३८४॥

गुणोंका ही मूल्य है, दूसरोंके आदर-अनादरका नहीं

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज गुन घटत न नाग नग परखि परिहरत कोल।
तुलसी प्रभु भूषन किए गुंजा बढ़े न मोल॥

मूल

निज गुन घटत न नाग नग परखि परिहरत कोल।
तुलसी प्रभु भूषन किए गुंजा बढ़े न मोल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जंगली कोल लोग गजमुक्ताको परखकर फेंक देते हैं, इससे उसका गुण घट नहीं जाता। इसके विपरीत भगवान् श्रीकृष्णने गुंजा (घुँघची)-के गहने बनाकर पहने, परंतु इससे उनकी कीमत बढ़ नहीं गयी॥३८५॥

श्रेष्ठ पुरुषोंकी महिमाको कोई नहीं पा सकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

राकापति षोड़स उअहिं तारा गन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥

मूल

राकापति षोड़स उअहिं तारा गन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—चाहे चन्द्रमा समस्त तारागणको साथ लेकर और सोलह कलाओंसे पूर्ण होकर उदय हो जाय और साथ ही सभी पहाड़ोंमें आग भी लगा दी जाय, तो भी सूर्यके उदय हुए बिना रात्रि नहीं जा सकती॥ ३८६॥

दुष्ट पुरुषोंद्वारा की हुई निन्दा-स्तुतिका कोई मूल्य नहीं है

विश्वास-प्रस्तुतिः

भलो कहहिं बिनु जानेहूँ बिनु जानें अपबाद।
ते नर गादुर जानि जियँ करिय न हरष बिषाद॥

मूल

भलो कहहिं बिनु जानेहूँ बिनु जानें अपबाद।
ते नर गादुर जानि जियँ करिय न हरष बिषाद॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो लोग बिना ही जाने-सुने किसीको भला बताने लगते हैं और बिना ही जाने किसीकी निन्दा करने लगते हैं, उन मनुष्योंको (उसी मुखसे खाने और उसीसे मलत्याग करनेवाले) चमगादड़ समझकर उनके कहनेसे अपने मनमें हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिये॥ ३८७॥

डाह करनेवालोंका कभी कल्याण नहीं होता

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर सुख संपति देखि सुनि जरहिं जे जड़ बिनु आगि।
तुलसी तिन के भागते चलै भलाई भागि॥

मूल

पर सुख संपति देखि सुनि जरहिं जे जड़ बिनु आगि।
तुलसी तिन के भागते चलै भलाई भागि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—दूसरेकी सुख-सम्पत्तिको देख-सुनकर जो मूर्ख मनुष्य बिना ही आगके जलने लगते हैं, तुलसीदासजी कहते हैं कि उनके भाग्यसे भलाई भागकर चली जाती है (उनका कभी भला नहीं होता)॥ ३८८॥

दूसरोंकी निन्दा करनेवालोंका मुँह काला होता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी जे कीरति चहहिं पर की कीरति खोइ।
तिनके मुँह मसि लागिहैं मिटिहि न मरिहै धोइ॥

मूल

तुलसी जे कीरति चहहिं पर की कीरति खोइ।
तिनके मुँह मसि लागिहैं मिटिहि न मरिहै धोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो दूसरोंकी कीर्तिको मिटाकर अपनी कीर्ति चाहते हैं, उनके मुखपर ऐसी कालिख लगेगी, जो चाहे वे उसे धो-धोकर मर जायँ, कभी नहीं छूटेगी॥ ३८९॥

नीचा बनकर रहना ही श्रेष्ठ है

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासु ससुर गुरु मातु पितु प्रभु भयो चहै सब कोइ।
होनी दूजी ओर को सुजन सराहिअ सोइ॥

मूल

सासु ससुर गुरु मातु पितु प्रभु भयो चहै सब कोइ।
होनी दूजी ओर को सुजन सराहिअ सोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सास, ससुर, गुरु, माता-पिता और मालिक इत्यादि होना (बड़े बनकर हुक्म चलाना और सेवा कराना) तो सभी चाहते हैं; परंतु जो लोग इनके दूसरी तरफके अर्थात् बहू, दामाद, शिष्य, कन्या, पुत्र और सेवक बनना (नीचे पदमें रहकर आज्ञा मानना और सेवा करना) चाहते हैं, वही सज्जन सराहनेयोग्य हैं॥ ३९१॥

सज्जन स्वाभाविक ही पूजनीय होते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

सठ सहि साँसति पति लहत सुजन कलेस न कायँ।
गढ़ि गुढ़ि पाहन पूजिऐ गंडकि सिला सुभायँ॥

मूल

सठ सहि साँसति पति लहत सुजन कलेस न कायँ।
गढ़ि गुढ़ि पाहन पूजिऐ गंडकि सिला सुभायँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—दुष्टलोग बड़े-बड़े कष्ट सहकर तब कहीं प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं; परंतु सज्जनोंको (प्रतिष्ठाप्राप्तिमें) कुछ भी शारीरिक क्लेश नहीं होता। जैसे साधारण पत्थर जब गढ़-छुलकर मूर्तिके रूपमें आते हैं तब पूजे जाते हैं; परंतु गण्डकी नदीके पत्थर (शालग्रामशिला) स्वाभाविक ही पूजनीय होते हैं॥ ३९२॥

भूप-दरबारकी निन्दा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बड़े बिबुध दरबार तें भूमि भूप दरबार।
जापक पूजत पेखिअत सहत निरादर भार॥

मूल

बड़े बिबुध दरबार तें भूमि भूप दरबार।
जापक पूजत पेखिअत सहत निरादर भार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—देवताओंके दरबारसे भी पृथ्वीके राजाओंके दरबार बड़े हैं; क्योंकि इनमें (राजाओंके दरबारमें) भगवान् के नामका जप करनेवाले और भगवान् की पूजा करनेवाले भी बड़ा भारी अपमान सहते देखे जाते हैं (जो देवताओंके दरबारमें असम्भव है)॥ ३९३॥

जगत् में सब सीधोंको तंग करते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरल बक्र गति पंच ग्रह चपरि न चितवत काहु।
तुलसी सूधे सूर ससि समय बिडंबित राहु॥

मूल

सरल बक्र गति पंच ग्रह चपरि न चितवत काहु।
तुलसी सूधे सूर ससि समय बिडंबित राहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि सीधी-टेढ़ी (दोनों प्रकारकी) चाल चलनेवाले (मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि—इन) पाँच ग्रहोंमेंसे तो किसीको राहु जल्दी आँख उठाकर देखता भी नहीं, परंतु सीधी चालवाले सूर्य और चन्द्रमाको समयपर वही राहु त्रास देता है (भाव यह कि टेढ़ोंसे सभी डरते हैं और सीधोंको सभी खानेको तैयार रहते हैं)॥ ३९७॥

दुष्ट-निन्दा

विश्वास-प्रस्तुतिः

खल उपकार बिकार फल तुलसी जान जहान।
मेढुक मर्कट बनिक बक कथा सत्य उपखान॥

मूल

खल उपकार बिकार फल तुलसी जान जहान।
मेढुक मर्कट बनिक बक कथा सत्य उपखान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि इस बातको तमाम दुनिया जानती है कि दुष्टोंके साथ उपकार करनेका फल बुरा होता है। सत्योपाख्यान नामक ग्रन्थमें लिखी हुई मेढक, बंदर, वणिक् और बगुलेकी कथाएँ इसके उदाहरण हैं॥ ३९८॥
१-एक मेढकने अपने विरोधी कुटुम्बियोंका नाश करानेके लिये एक साँपको बुलाया। उसने सोचा कि साँपको पेटभर भोजन मिलेगा तो वह मेरा उपकार मानेगा और विरोधियोंका नाश हो जायगा। साँपने आकर उसके सब कुटुम्बियोंको खा डाला और फिर उस मेढकको भी खानेके लिये तैयार हो गया। उसने किसी तरह अपनी जान बचायी।
२-एक बंदरकी किसी मगरसे दोस्ती थी। बंदर अपने दोस्त मगरको जंगलसे ला-लाकर मीठे फल खिलाया करता था। एक दिन मगर अपनी स्त्रीके कहनेसे बंदरको पीठपर चढ़ाकर छलसे पानीमें ले आया और उसका कलेजा निकालना चाहा। बुद्धिमान् बंदरने उसके कपटको जानकर मगरसे कहा कि ‘भाई! मैं तो कलेजा घर छोड़ आया।’ मूर्ख मगरने उससे कहा—‘अच्छा जाओ, उसे ले आओ।’ मगर उसे पीठपर चढ़ाकर किनारे ले गया। बंदरने पानीसे बाहर कूदकर अपनी जान बचायी।
३-एक वणिक् की राजासे मित्रता थी। राजाको किसी मन्त्रसिद्धिके लिये एक स्त्रीकी पूजा करनी थी। राजाने इसके लिये वणिक् से उसकी स्त्रीको माँगा। वणिक् ने विश्वास करके स्त्रीको राजाके महलमें भेज दिया। राजाके मनमें पाप आ गया और उसने स्त्रीपर बलात्कार किया। वणिक् को इससे बड़ा ही दुःख पहुँचा।
४-एक बगुलेने किसी आदमीको धनका खजाना बतलाया। परंतु उसने उपकार न मानकर उलटे उसीको मार डाला।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी खल बानी मधुर सुनि समुझिअ हियँ हेरि।
राम राज बाधक भई मूढ़ मंथरा चेरि॥

मूल

तुलसी खल बानी मधुर सुनि समुझिअ हियँ हेरि।
राम राज बाधक भई मूढ़ मंथरा चेरि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि दुष्टकी (कपटभरी) मीठी वाणी सुनकर अपने हृदयमें अच्छी तरह विचारकर उसका मतलब समझना चाहिये (सहसा उसपर विश्वास नहीं कर लेना चाहिये)। मूढ़ दासी मंथरा छलभरी मीठी वाणीसे ही (कैकेयीको निमित्त बनाकर) रामजीके राज्याभिषेकमें बाधक हुई थी॥ ३९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोंक सूधि मन कुटिल गति खल बिपरीत बिचारु।
अनहित सोनित सोष सो सो हित सोषनहारु॥

मूल

जोंक सूधि मन कुटिल गति खल बिपरीत बिचारु।
अनहित सोनित सोष सो सो हित सोषनहारु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जोंककी चाल टेढ़ी होती है, परंतु वह मनसे सीधी होती है; क्योंकि वह हानिकारक रक्तको ही चूसती है। परंतु दुष्टोंको इससे विपरीत समझना चाहिये (वे बाहरी चाल-ढालसे तो बड़े ही सीधे दीखते हैं, परंतु मनके अत्यन्त कपटी होते हैं)। क्योंकि वे तो दूसरोंके हितका ही शोषण (नाश) करनेवाले होते हैं॥ ४००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीच गुड़ी ज्यों जानिबो सुनि लखि तुलसीदास।
ढीलि दिएँ गिरि परत महि खैंचत चढ़त अकास॥

मूल

नीच गुड़ी ज्यों जानिबो सुनि लखि तुलसीदास।
ढीलि दिएँ गिरि परत महि खैंचत चढ़त अकास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि नीच आदमियोंको अच्छी तरह जान-सुनकर गुड्डीके समान समझना चाहिये। जैसे गुड्डी ढील देनेसे पृथ्वीपर गिर पड़ती है और खींचनेसे आकाशमें चढ़ जाती है (इसी प्रकार दुरदुरा देनेसे नीच आदमी सीधे हो जाते हैं; पर अपनानेसे उलटे सिर चढ़ते हैं)॥ ४०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरदर बरसत कोस सत बचैं जे बूँद बराइ।
तुलसी तेउ खल बचन सर हए गए न पराइ॥

मूल

भरदर बरसत कोस सत बचैं जे बूँद बराइ।
तुलसी तेउ खल बचन सर हए गए न पराइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो सौ कोसतक बरसती हुई घनी वर्षामें भी जलकी बूँदोंसे बिना भीगें बच निकलते हैं, वे भी दुष्टोंके वचन-बाणोंसे मारे जाते हैं, भाग नहीं सकते। (घनी वर्षामें बिना भीगे निकला जा सकता है, परंतु दुष्टोंकी निन्दासे कोई नहीं बच सकता)॥ ४०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेरत कोल्हू मेलि तिल तिली सनेही जानि।
देखि प्रीति की रीति यह अब देखिबी रिसानि॥

मूल

पेरत कोल्हू मेलि तिल तिली सनेही जानि।
देखि प्रीति की रीति यह अब देखिबी रिसानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तेली तिलोंको स्नेही (इनमें तेल है यह) जानकर भी उन्हें कोल्हूमें डालकर पेरता है। यह तो प्रेम (स्नेह)-की रीति देखी, अब क्रोधकी रीति देखनी है (अर्थात् जब प्रेममें भी कोल्हूमें पेरता है, तब क्रोधमें तो जाने क्या करेगा?)॥ ४०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहबासी काचो गिलहिं पुरजन पाक प्रबीन।
कालछेप केहि मिलि करहिं तुलसी खग मृग मीन॥

मूल

सहबासी काचो गिलहिं पुरजन पाक प्रबीन।
कालछेप केहि मिलि करहिं तुलसी खग मृग मीन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि बेचारे पक्षी, हिरन और मछली किसके साथ मिल-जुलकर अपना जीवन बितायें? एक स्थानमें रहनेवाले—एक ही आकाशमें उड़नेवाले बाज, एक ही वनमें रहनेवाले सिंह और एक ही जलमें रहनेवाली बड़ी मछलियाँ या ग्राह आदि तो इन्हें कच्चे ही निगल जाते हैं और पुरजन (गाँवों तथा नगरोंके निवासी) पाकविद्यामें निपुण होनेके कारण इन्हें पकाकर खा जाते हैं (तात्पर्य यह कि दुर्बलोंके लिये कहीं ठौर नहीं है)॥ ४०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जासु भरोसें सोइऐ राखि गोद में सीस।
तुलसी तासु कुचाल तें रखवारो जगदीस॥

मूल

जासु भरोसें सोइऐ राखि गोद में सीस।
तुलसी तासु कुचाल तें रखवारो जगदीस॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि विश्वास करके जिसकी गोदमें सिर रखकर सोया जाय, वही (विश्वासघात करके) कुचाल करे तो फिर उस कुचालसे भगवान् ही रक्षा कर सकते हैं॥ ४०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार खोज लै सौंह करि करि मत लाज न त्रास।
मुए नीच ते मीच बिनु जे इन कें बिस्वास॥

मूल

मार खोज लै सौंह करि करि मत लाज न त्रास।
मुए नीच ते मीच बिनु जे इन कें बिस्वास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो शपथें खा-खाकर मित्र बन जाते हैं और फिर घरका भेद जानकर एकमत करके (आपसमें साजिश करके) मित्रको मार डालते हैं, जिन्हें अपने ऐसे कुकर्मोंसे न तो लज्जा आती है और न जिन्हें ईश्वर या धर्मका डर ही लगता है—ऐसे नीचोंका जो विश्वास करते हैं, वे नीच (मन्दबुद्धि) बिना मौत मारे जाते हैं॥ ४०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परद्रोही परदार रत परधन पर अपबाद।
ते नर पावँर पापमय देह धरें मनुजाद॥

मूल

परद्रोही परदार रत परधन पर अपबाद।
ते नर पावँर पापमय देह धरें मनुजाद॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो मनुष्य दूसरोंसे वैर रखते हैं तथा जिनकी परायी स्त्रीमें, पराये धनमें और परनिन्दामें आसक्ति है, वे पामर पापमय मनुष्य नर-देह धारण किये हुए राक्षस ही हैं॥ ४०७॥

कपटीको पहचानना बड़ा कठिन है

विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन बेष क्यों जानिए मन मलीन नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना दसमुख प्रमुख बिचारि॥

मूल

बचन बेष क्यों जानिए मन मलीन नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना दसमुख प्रमुख बिचारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—किसी भी पुरुष या स्त्रीके बाहरी वेष और वचनसे कैसे पता लग सकता है कि इसका मन मलिन है? शूर्पणखा, मारीच, पूतना और रावण आदिके उदाहरणोंपर विचार करो (इनके हृदयमें कपट भरा था; परंतु ऊपरसे बड़े ही सुन्दर वेषधारी और मीठी वाणी बोलनेवाले थे, इसलिये ये पहचाने नहीं जा सके। इस प्रकार संसारमें दम्भी लोगोंको उनके वेष-भूषा और बातचीतसे पहचानना कठिन है)॥ ४०८॥

कपटीसे सदा डरना चाहिये

विश्वास-प्रस्तुतिः

हँसनि मिलनि बोलनि मधुर कटु करतब मन माँह।
छुवत जो सकुचइ सुमति सो तुलसी तिन्ह की छाँह॥

मूल

हँसनि मिलनि बोलनि मधुर कटु करतब मन माँह।
छुवत जो सकुचइ सुमति सो तुलसी तिन्ह की छाँह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसका हँसना, मिलना और बोलना बड़ा ही मधुर है, परंतु जिनके मनमें कड़ुए कारनामें (कपटभरे कर्म) भरे हुए हैं—तुलसीदासजी कहते हैं—उन नीचोंकी छायाको छूनेमें भी जो सकुचाता है, वही बुद्धिमान् है (अर्थात् मनके कपटी और ऊपरसे सज्जन बने हुए लोगोंसे सर्वथा अलग रहनेमें ही बुद्धिमानी है)॥ ४०९॥

कपट ही दुष्टताका स्वरूप है

विश्वास-प्रस्तुतिः

कपट सार सूची सहस बाँधि बचन परबास।
कियो दुराउ चहौ चातुरीं सो सठ तुलसीदास॥

मूल

कपट सार सूची सहस बाँधि बचन परबास।
कियो दुराउ चहौ चातुरीं सो सठ तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो कपटरूपी लोहेकी हजारों सूइयोंको वचनरूपी ऊपरके कपड़े (बेठन)-में चतुराईसे बाँधकर छिपाना चाहता है, तुलसीदासजी कहते हैं कि वह दुष्ट है॥ ४१०॥

कपटी कभी सुख नहीं पाता

विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन बिचार अचार तन मन करतब छल छूति।
तुलसी क्यों सुख पाइऐ अंतरजामिहि धूति॥

मूल

बचन बिचार अचार तन मन करतब छल छूति।
तुलसी क्यों सुख पाइऐ अंतरजामिहि धूति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसके वचनोंमें, विचारमें, आचरणमें, शरीरमें, मनमें और कर्मोंमें छूत लगी हुई है, (अर्थात् जो सब प्रकारसे कपटी है) वह इस प्रकार अन्तर्यामी परमात्माको ठगकर कैसे सुख पा सकता है?॥ ४११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारदूल को स्वाँग करि कूकर की करतूति।
तुलसी तापर चाहिऐ कीरति बिजय बिभूति॥

मूल

सारदूल को स्वाँग करि कूकर की करतूति।
तुलसी तापर चाहिऐ कीरति बिजय बिभूति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि लोग सिंहका-सा स्वाँग रचकर कुत्तोंके-से काम करते हैं तथा इसपर भी कीर्ति, विजय और ऐश्वर्य चाहते हैं!॥ ४१२॥

पाप ही दुःखका मूल है

विश्वास-प्रस्तुतिः

बड़े पाप बाढ़े किए छोटे किए लजात।
तुलसी ता पर सुख चहत बिधि सों बहुत रिसात॥

मूल

बड़े पाप बाढ़े किए छोटे किए लजात।
तुलसी ता पर सुख चहत बिधि सों बहुत रिसात॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बड़े-बड़े पाप तो बढ़-बढ़कर किये और छोटे पाप करनेमें लजाता है (सूईकी चोरीको पाप समझकर नहीं करता, परंतु दूसरेका धन व्यापारके नामपर हरनेमें जिसे आपत्ति नहीं है; अथवा जो नहाये बिना खानेमें तो पाप मानता है; परंतु दिन-रात कपट-छल, चोरी-हिंसा, वेश्यागमन आदिमें रचा-पचा रहता है)—तुलसीदासजी कहते हैं कि इसपर भी मनुष्य (अपनेको धर्मात्मा मानकर) सुख चाहता है और (न मिलनेपर) विधातापर क्रोध करता है॥ ४१३॥

विपरीत बुद्धि विनाशका लक्षण है

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभा सुयोधन की सकुनि सुमति सराहन जोग।
द्रोन बिदुर भीषम हरिहि कहहिं प्रपंची लोग॥

मूल

सभा सुयोधन की सकुनि सुमति सराहन जोग।
द्रोन बिदुर भीषम हरिहि कहहिं प्रपंची लोग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—दुर्योधनकी सभामें (अत्यन्त नीच स्वभाववाला) शकुनि ही श्रेष्ठ, बुद्धिमान् और सराहनीय माना जाता था। गुरु द्रोणाचार्य, महात्मा विदुर, पितामह भीष्म और भगवान् श्रीकृष्णको तो (उस सभाके) लोग प्रपंची कहते थे॥ ४१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पांडु सुअन की सदसि ते नीको रिपु हित जानि।
हरि हर सम सब मानिअत मोह ग्यान की बानि॥

मूल

पांडु सुअन की सदसि ते नीको रिपु हित जानि।
हरि हर सम सब मानिअत मोह ग्यान की बानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—और पाण्डवोंकी सभामें सब लोग उन्हीं द्रोण और भीष्मको, यह भलीभाँति जानते हुए भी कि ये हमारे शत्रु कौरवोंके मित्र हैं, भगवान् विष्णु और शिवके समान मानते थे। अज्ञान और ज्ञानकी बानिका यही भेद है। (भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष ही पाण्डवोंके सहायक और पूज्य थे, महात्मा विदुरजी युद्धसे अलग थे ही। द्रोण और भीष्म कौरवोंकी ओरसे सेनानायक थे, तथापि यथार्थ ज्ञानके अभ्यासी पाण्डवोंकी सभामें सब लोग उन्हें यथार्थमें ही पूज्य समझते थे)॥ ४१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हित पर बढ़इ बिरोध जब अनहित पर अनुराग।
राम बिमुख बिधि बाम गति सगुन अघाइ अभाग॥

मूल

हित पर बढ़इ बिरोध जब अनहित पर अनुराग।
राम बिमुख बिधि बाम गति सगुन अघाइ अभाग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जब अपने हित करनेवालेके प्रति शत्रुता और हितका नाश करनेवालेपर प्रेम बढ़ जाता है, तब समझना चाहिये कि भगवान् श्रीरामजी उसके विमुख हैं, विधाताकी गति उसके प्रतिकूल है और यह उसके पूर्णरूपसे अभागी होनेका शकुन (चिह्न) है॥ ४२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥

मूल

सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—स्वभावसे ही हित करनेवाले मित्र, गुरु और स्वामीकी सीखको जो सिर चढ़ाकर उसके अनुसार कार्य नहीं करता, वह हृदयमें भरपेट पछताता है और उसके हितकी अवश्य ही हानि होती है॥ ४२१॥

जोशमें आकर अनधिकार कार्य करनेवाला पछताता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरुहाए नट भाँट के चपरि चढ़े संग्राम।
कै वै भाजे आइहैं कै बाँधे परिनाम॥

मूल

भरुहाए नट भाँट के चपरि चढ़े संग्राम।
कै वै भाजे आइहैं कै बाँधे परिनाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भाटोंके भड़कानेमें जोशमें आकर यदि नट (नाचनेवाले) लोग सहसा लड़ाईमें चले जायँ तो उसका यही परिणाम होगा कि या तो वे रणसे भाग आवेंगे या कैद कर लिये जायँगे॥ ४२२॥

समयपर कष्ट सह लेना हितकर होता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोक रीति फूटी सहहिं आँजी सहइ न कोइ।
तुलसी जो आँजी सहइ सो आँधरो न होइ॥

मूल

लोक रीति फूटी सहहिं आँजी सहइ न कोइ।
तुलसी जो आँजी सहइ सो आँधरो न होइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—लोगोंकी यह रीति है कि वे आँखोंके फूटनेका कष्ट तो सह लेते हैं; परंतु अंजन (सुरमा) लगानेका कष्ट नहीं सहते। तुलसीदासजी कहते हैं—जो अंजन लगानेका कष्ट सह लेता है, वह अंधा नहीं होता॥ ४२३॥

भगवान् सबके रक्षक हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

भागें भल ओड़ेहुँ भलो भलो न घालें घाउ।
तुलसी सब के सीस पर रखवारो रघुराउ॥

मूल

भागें भल ओड़ेहुँ भलो भलो न घालें घाउ।
तुलसी सब के सीस पर रखवारो रघुराउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि कोई तुमपर वार करे तो भाग जानेमें ही तुम्हारी भलाई है अथवा आत्मरक्षाके लिये डटकर उस वारको रोकना भी अच्छा है; परंतु बदलेमें उसपर चोट करना अच्छा नहीं है; क्योंकि रक्षा करनेवाले श्रीरघुनाथजी तो सबके सिरपर मौजूद ही हैं॥ ४२४॥

लड़ना सर्वथा त्याज्य है

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमति बिचारहिं परिहरहिं दल सुमनहुँ संग्राम।
सकुल गए तनु बिनु भए साखी जादौ काम॥

मूल

सुमति बिचारहिं परिहरहिं दल सुमनहुँ संग्राम।
सकुल गए तनु बिनु भए साखी जादौ काम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—पत्तों और फूलोंके द्वारा भी लड़ाई करना बुरा है, यह विचारकर बुद्धिमान् लोग उसे बिलकुल त्याग देते हैं। इस बातके साक्षी यादव और कामदेव हैं। पत्तों (तिनकों)-के द्वारा परस्पर लड़कर यादवोंका सारा कुल नष्ट हो गया और पुष्प-बाणोंसे शिवजीपर प्रहार करनेवाला कामदेव शरीरहीन (अनंग) हो गया॥ ४२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलह न जानब छोट करि कलह कठिन परिनाम।
लगति अगिनि लघु नीच गृह जरत धनिक धन धाम॥

मूल

कलह न जानब छोट करि कलह कठिन परिनाम।
लगति अगिनि लघु नीच गृह जरत धनिक धन धाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलहको छोटी बात नहीं जानना चाहिये; कलहका परिणाम बहुत भयंकर होता है। गरीबकी छोटी-सी झोंपड़ीमें आग लगती है, परंतु परिणाममें उससे बड़े-बड़े धनियोंके धन-धाम जल जाते हैं॥ ४२६॥

क्रोधकी अपेक्षा प्रेमके द्वारा वशमें करना ही जीत है

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोल न मोटे मारिऐ मोटी रोटी मारु।
जीति सहस सम हारिबो जीतें हारि निहारु॥

मूल

बोल न मोटे मारिऐ मोटी रोटी मारु।
जीति सहस सम हारिबो जीतें हारि निहारु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—किसीको मोटे बोल न मारो (हृदयको छेद डालनेवाले तीखे वचन न कहो), परंतु रोटीकी मोटी मार मारो (उसकी खूब पेट भरकर सेवा और सहायता करके उसे वशमें करो)। इस तरहकी अपनी हारको हजारों जीतके समान समझो और उस तरहके वाक्य-बाणोंके प्रहारसे—गाली-गलौजसे जीत जानेपर भी हार ही समझो॥ ४२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो परि पायँ मनाइए तासों रूठि बिचारि।
तुलसी तहाँ न जीतिऐ जहँ जीतेहूँ हारि॥

मूल

जो परि पायँ मनाइए तासों रूठि बिचारि।
तुलसी तहाँ न जीतिऐ जहँ जीतेहूँ हारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिन (माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों)-को उनके पैरोंपर पड़कर मनाना कर्तव्य है, उनसे बहुत ही सोच-विचारकर रूठना चाहिये। तुलसीदासजी कहते हैं कि जहाँ जीतनेमें भी हार ही होती है, वहाँ जीतना नहीं चाहिये॥ ४३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जूझे ते भल बूझिबो भली जीति तें हार।
डहकें तें डहकाइबो भलो जो करिअ बिचार॥

मूल

जूझे ते भल बूझिबो भली जीति तें हार।
डहकें तें डहकाइबो भलो जो करिअ बिचार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि विचार किया जाय तो यही प्रतीत होता है कि लड़नेकी अपेक्षा आपसमें समझौता कर लेना अच्छा है, जीतसे हार अच्छी है और किसीको ठगनेकी अपेक्षा ठगाना अच्छा है॥ ४३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा रिपु सों हारेहुँ हँसी जिते पाप परितापु।
तासों रारि निवारिऐ समयँ सँभारिअ आपु॥

मूल

जा रिपु सों हारेहुँ हँसी जिते पाप परितापु।
तासों रारि निवारिऐ समयँ सँभारिअ आपु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस शत्रुसे हारनेमें हँसी हो तथा जीतनेमें पाप और दुःख हो, उससे मौका पड़नेपर स्वयं ही सँभलकर झगड़ा मिटा लेना चाहिये॥ ४३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो मधु मरै न मारिऐ माहुर देइ सो काउ।
जग जिति हारे परसुधर हारि जिते रघुराउ॥

मूल

जो मधु मरै न मारिऐ माहुर देइ सो काउ।
जग जिति हारे परसुधर हारि जिते रघुराउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो शहदसे ही मर जाय उसे जहर देकर कभी नहीं मारना चाहिये। परशुरामजी सारे जगत् को जीतकर भी श्रीरामचन्द्रजीकी मधुमयी वाणीसे हार गये और श्रीरघुनाथजी परशुरामजीके सामने अपनी हार मानकर भी जीत गये॥ ४३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बैर मूल हर हित बचन प्रेम मूल उपकार।
दो हा सुभ संदोह सो तुलसी किएँ बिचार॥

मूल

बैर मूल हर हित बचन प्रेम मूल उपकार।
दो हा सुभ संदोह सो तुलसी किएँ बिचार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि हितके वचन वैरकी जड़को काटनेवाले हैं और हित करना तो प्रेमकी जड़ ही है। एवं विचार करनेपर जान पड़ता है कि हाहा खाना (विनती करना) यह तो शुभका समूह ही है॥ ४३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोष न रसना खोलिऐ बरु खोलिअ तरवारि।
सुनत मधुर परिनाम हित बोलिअ बचन बिचारि॥

मूल

रोष न रसना खोलिऐ बरु खोलिअ तरवारि।
सुनत मधुर परिनाम हित बोलिअ बचन बिचारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—क्रोधमें आकर जबान नहीं खोलनी चाहिये, इससे तो तलवार खींचना बल्कि अच्छा है। (कहावत है, ‘तलवारका घाव मिट जाता है, पर जबानका कभी नहीं मिटता।’) विचार-विचारकर ऐसे वचन बोलने चाहिये, जो सुननेमें मीठे हों और परिणाममें हितकारी हों॥ ४३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधुर बचन कटु बोलिबो बिनु श्रम भाग अभाग।
कुहू कुहू कलकंठ रव का का कररत काग॥

मूल

मधुर बचन कटु बोलिबो बिनु श्रम भाग अभाग।
कुहू कुहू कलकंठ रव का का कररत काग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मधुर बोलना और कड़वा बोलना बिना ही श्रमके भाग्य और अभाग्यको बुलाना (निमन्त्रण देना) है। कोयल ‘कुहू’, ‘कुहू’ की ध्वनि करती है। (तो सब उसका आदर करते हैं) और कौवा ‘काँव’, ‘काँव’ कर्राता है (तो लोग उसे पत्थर मारकर उड़ा देते हैं)॥ ४३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेट न फूलत बिनु कहें कहत न लागइ ढेर।
सुमति बिचारें बोलिऐ समुझि कुफेर सुफेर॥

मूल

पेट न फूलत बिनु कहें कहत न लागइ ढेर।
सुमति बिचारें बोलिऐ समुझि कुफेर सुफेर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—किसी बातके न कहनेसे तो पेट नहीं फूल जाता और कहनेसे सामने बातोंका ढेर नहीं लग जाता। अतएव समय-असमयको समझकर और पवित्र बुद्धिके द्वारा विचार करके ही यथायोग्य वचन बोलने चाहिये॥ ४३७॥

शूरवीर करनी करते हैं, कहते नहीं

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

मूल

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—शूरवीर तो युद्धमें करनी (शूरवीरताका कार्य) करते हैं, कहकर अपनेको नहीं जनाते। शत्रुको युद्धमें उपस्थित पाकर कायर लोग ही अपने प्रतापकी डींग मारा करते हैं॥ ४३९॥

अभिमानके वचन कहना अच्छा नहीं

विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन कहे अभिमान के पारथ पेखत सेतु।
प्रभु तिय लूटत नीच भर जय न मीचु तेहिं हेतु॥

मूल

बचन कहे अभिमान के पारथ पेखत सेतु।
प्रभु तिय लूटत नीच भर जय न मीचु तेहिं हेतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—एक समय (श्रीरामचन्द्रजीकृत रामेश्वरके पत्थरके) सेतुबन्धको देखकर अर्जुनने अभिमानके वचन कहे (कि श्रीरामजीने इतना प्रयास क्यों किया? मैं उस समय होता तो सारा पुल बाणोंसे ही बाँध देता। इस अभिमानका फल यह हुआ कि) भगवान् श्रीकृष्णके परिवारकी स्त्रियोंको (हस्तिनापुर ले जाते समय) नीच भरोंने (उनको) लूट लिया, अर्जुन उनको जीत नहीं सके और इस अपमानसे उनका मरण हो गया (अतएव अभिमानके वचन किसीसे नहीं कहने चाहिये)॥ ४४०॥

दीनोंकी रक्षा करनेवाला सदा विजयी होता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम लखन बिजई भए बनहुँ गरीब निवाज।
मुखर बालि रावन गए घरहीं सहित समाज॥

मूल

राम लखन बिजई भए बनहुँ गरीब निवाज।
मुखर बालि रावन गए घरहीं सहित समाज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—गरीबोंपर कृपा करनेवाले श्रीराम-लक्ष्मण वनमें रहते हुए भी विजयी हुए, परंतु बकवादी बालि और रावण अपने घरमें ही सारे समाजसहित नष्ट हो गये॥ ४४१॥

सराहनेयोग्य कौन है

विश्वास-प्रस्तुतिः

लखइ अघानो भूख ज्यों लखइ जीतिमें हारि।
तुलसी सुमति सराहिऐ मग पग धरइ बिचारि॥

मूल

लखइ अघानो भूख ज्यों लखइ जीतिमें हारि।
तुलसी सुमति सराहिऐ मग पग धरइ बिचारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो भूखमें (अभावमें) भी अपनेको तृप्तके समान समझता है और जीतमें भी अपनी हार मानता है—इस प्रकार जो खूब विचार-विचारकर मार्गपर पैर रखता है, वह बुद्धिमान् ही सराहनेयोग्य है। (अभावका अनुभव करनेसे ही कामना होती है और कामना ही पापकी जड़ है; अतएव जो सदा अपनेको तृप्त, पूर्णकाम मानता है, उसके द्वारा पाप नहीं होते। इसी प्रकार अपनी विजय माननेसे अभिमान बढ़ता है, जो पतनका हेतु होता है। अतएव जो पुरुष प्रत्येक क्रियामें और फलमें अभिमानका त्यागकर विचारपूर्वक दोषोंसे बचता रहता है, वही बुद्धिमान् है और वही प्रशंसनीय है)॥ ४४३॥

अवसर चूक जानेसे बड़ी हानि होती है

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाभ समय को पालिबो हानि समय की चूक।
सदा बिचारहिं चारुमति सुदिन कुदिन दिन दूक॥

मूल

लाभ समय को पालिबो हानि समय की चूक।
सदा बिचारहिं चारुमति सुदिन कुदिन दिन दूक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अनुकूल समय आनेपर काम बना लेना ही लाभ है और समयपर चूक जाना ही हानि है। इसीलिये सुन्दर बुद्धिवाले लोग इस बातका सदा विचार किया करते हैं, क्योंकि अच्छा और बुरा समय दो ही दिनका होता है। (अतएव समयपर चूक जाना बुद्धिमानी नहीं है तात्पर्य यह है कि मनुष्य-जीवनका यह अवसर भगवद्भजनके लिये ही मिला है। इस समय जो चूक जायगा—भगवान् को नहीं भजेगा, उसे मनुष्य-जीवनके परम लाभसे वंचित होकर बड़ी हानि सहनी पड़ेगी)॥ ४४४॥

विपत्तिकालके मित्र कौन हैं?

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी असमय के सखा धीरज धरम बिबेक।
साहित साहस सत्यब्रत राम भरोसो एक॥

मूल

तुलसी असमय के सखा धीरज धरम बिबेक।
साहित साहस सत्यब्रत राम भरोसो एक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि धीरज, धर्म, विवेक, सत्साहित्य, साहस और सत्यका व्रत अथवा एकमात्र श्रीरामका भरोसा—बुरे समयके (विपत्तिकालके) यही मित्र हैं॥ ४४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समरथ कोउ न राम सों तीय हरन अपराधु।
समयहिं साधे काज सब समय सराहहिं साधु॥

मूल

समरथ कोउ न राम सों तीय हरन अपराधु।
समयहिं साधे काज सब समय सराहहिं साधु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके समान तो कोई सामर्थ्यवान् नहीं (जो होनी-अनहोनी सब कुछ कर सकते हैं) और सीताहरणके समान भयंकर अपराध कोई क्या करेगा? इसपर भी श्रीरामजीने उस समय रावणको न मारकर उचित समयपर ही सब काम किये। इसीलिये साधुलोग समयकी सराहना करते हैं॥ ४४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी तीरहु के चलें समय पाइबी थाह।
धाइ न जाइ थहाइबी सर सरिता अवगाह॥

मूल

तुलसी तीरहु के चलें समय पाइबी थाह।
धाइ न जाइ थहाइबी सर सरिता अवगाह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि नदी या सरोवरके किनारे-किनारे चलनेसे ही समयपर उनकी थाह मिल जायगी; अगाध तालाब या नदियोंकी थाह लेनेके लिये दौड़कर उनके अंदर घुस नहीं जाना चाहिये (समयकी प्रतीक्षा करनी चाहिये)॥ ४४९॥

होनहारकी प्रबलता

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पै ताहि तहाँ लै जाइ॥

मूल

तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पै ताहि तहाँ लै जाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जैसी होनहार होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह स्वयं उसके पास आती है या उसे वहाँ ले जाती है॥ ४५०॥

विवेककी आवश्यकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

पात पात को सींचिबो न करु सरग तरु हेत।
कुटिल कटुक फर फरैगो तुलसी करत अचेत॥

मूल

पात पात को सींचिबो न करु सरग तरु हेत।
कुटिल कटुक फर फरैगो तुलसी करत अचेत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कल्पवृक्ष (-से फल) पानेके लिये, पत्ते-पत्तेको (हर किसी पेड़को) मत सींचा करो, ऐसा करोगे तो ऐसा टेढ़ा और कड़ुआ फल फलेगा जो तुमको अचेत कर देगा (अर्थात् परम सुखरूप मनोरथकी पूर्तिके लिये बिना समझे-सोचे जैसे-तैसे कर्म मत किया करो; ऐसा करनेसे सुख तो मिलेगा ही नहीं, उलटे बुरे कर्मोंके फलस्वरूप महान् दुःखोंकी प्राप्ति होगी, जिससे रहा-सहा विवेक भी नष्ट हो जायगा)॥ ४५२॥

विश्वासकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

गठिबँध ते परतीति बड़ि जेहिं सबको सब काज।
कहब थोर समुझब बहुत गाड़े बढ़त अनाज॥

मूल

गठिबँध ते परतीति बड़ि जेहिं सबको सब काज।
कहब थोर समुझब बहुत गाड़े बढ़त अनाज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—गठबन्धनसे भी विश्वास बड़ा है, जिससे सब लोगोंके सब काम होते हैं। कहनेमें सब बात छोटी-सी है, परंतु समझनेमें बहुत बड़ी है। जिस प्रकार अनाजके थोड़े-से दाने मिट्टीमें गाड़ दिये जाते हैं, परंतु वही अनाज पैदा होनेपर बहुत बढ़ जाता है॥ ४५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपनो ऐपन निज हथा तिय पूजहिं निज भीति।
फरइ सकल मन कामना तुलसी प्रीति प्रतीति॥

मूल

अपनो ऐपन निज हथा तिय पूजहिं निज भीति।
फरइ सकल मन कामना तुलसी प्रीति प्रतीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि स्त्रियाँ अपने घरकी दीवारपर अपने ऐपनके (चावल और हल्दीको एक साथ पीसकर बनाये हुए रंगके) अपने ही हाथे छापकर उनको पूजती हैं और उसीसे उनकी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो जाती हैं। यह प्रेम और विश्वासका ही फल है॥ ४५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरषत करषत आपु जल हरषत अरघनि भानु।
तुलसी चाहत साधु सुर सब सनेह सनमानु॥

मूल

बरषत करषत आपु जल हरषत अरघनि भानु।
तुलसी चाहत साधु सुर सब सनेह सनमानु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सूर्य स्वयं (पृथ्वीपर अपार) जल बरसाता है और सोखता है; परंतु लोगोंके दिये हुए अर्घ्य (थोड़े-से-जल)-से बड़ा प्रसन्न होता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि साधु और देवता सब स्नेह और सम्मान ही चाहते हैं॥ ४५५॥

बारह नक्षत्र व्यापारके लिये अच्छे हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुति गुन कर गुन पु जुग मृग हय रेवती सखाउ।
देहि लेहि धन धरनि धरु गएहुँ न जाइहि काउ॥

मूल

श्रुति गुन कर गुन पु जुग मृग हय रेवती सखाउ।
देहि लेहि धन धरनि धरु गएहुँ न जाइहि काउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रवण नक्षत्रसे तीन नक्षत्र (श्रवण, धनिष्ठा, शतभिष), हस्त नक्षत्रसे तीन नक्षत्र (हस्त, चित्रा, स्वाती), ‘पु’ से आरम्भ होनेवाले दो नक्षत्र (पुष्य, पुनर्वसु) और मृगशिरा, अश्विनी, रेवती तथा अनुराधा—इन बारह नक्षत्रोंमें धन, जमीन और धरोहरका लेन-देन करो; ऐसा करनेसे धन जाता हुआ प्रतीत होनेपर भी नहीं जायगा॥ ४५६॥

चौदह नक्षत्रोंमें हाथसे गया हुआ धन वापस नहीं मिलता

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊगुन पूगुन बि अज कृ म आ भ अ मू गुनु साथ।
हरो धरो गाड़ो दियो धन फिरि चढ़इ न हाथ॥

मूल

ऊगुन पूगुन बि अज कृ म आ भ अ मू गुनु साथ।
हरो धरो गाड़ो दियो धन फिरि चढ़इ न हाथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—‘उ’ से आरम्भ होनेवाले तीन नक्षत्र (उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद), ‘पू’ से आरम्भ होनेवाले तीन नक्षत्र (पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद), वि (विशाखा), अज (रोहिणी), कृ (कृत्तिका), म (मघा), आ (आर्द्रा), भ (भरणी), अ (अश्लेषा) और मू (मूल)-को भी इन्हींके साथ समझ लो—इन चौदह नक्षत्रोंमें हरा हुआ (चोरी गया हुआ), धरोहर रखा हुआ, गाड़ा हुआ तथा उधार दिया हुआ धन फिर लौटकर हाथ नहीं आता॥ ४५७॥

कौन-सी तिथियाँ कब हानिकारक होती हैं?

विश्वास-प्रस्तुतिः

रबि हर दिसि गुन रस नयन मुनि* प्रथमादिक बार।
तिथि सब काज नसावनी होइ कुजोग बिचार॥

मूल

रबि हर दिसि गुन रस नयन मुनि* प्रथमादिक बार।
तिथि सब काज नसावनी होइ कुजोग बिचार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—द्वादशी, एकादशी, दशमी, तृतीया, षष्ठी, द्वितीया, सप्तमी—ये सातों तिथियाँ यदि क्रमसे रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनिवारको पड़ें तो ये सब कामोंको बिगाड़नेवाली होती हैं और यह कुयोग समझा जाता है॥ ४५८॥

पादटिप्पनी
  • रवि बारह, हर (रुद्र) ग्यारह, दिशाएँ दस, गुण तीन, रस छः, नेत्र दो और ऋषि-मुनि सात हैं। इन्हींसे तिथियोंका वर्णन है।

कौन-सा चन्द्रमा घातक समझना चाहिये?

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससि सर नव दुइ छ दस गुन मुनि फल बसु हर भानु*।
मेषादिक क्रम तें गनहि घात चंद्र जियँ जानु॥

मूल

ससि सर नव दुइ छ दस गुन मुनि फल बसु हर भानु*।
मेषादिक क्रम तें गनहि घात चंद्र जियँ जानु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मेषके प्रथम, वृषके पाँचवें, मिथुनके नवें, कर्कके दूसरे, सिंहके छठे, कन्याके दसवें, तुलाके तीसरे, वृश्चिकके सातवें, धनके चौथे, मकरके आठवें, कुम्भके ग्यारहवें और मीन राशिके बारहवें चन्द्रमा पड़ जायँ तो उसे घातक समझो॥ ४५९॥

पादटिप्पनी
  • शशि—चन्द्रमा एक, सर—बाण पाँच, फल चार, वसु आठ होते हैं।

सात वस्तुएँ सदा मंगलकारी हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुधा साधु सुरतरु सुमन सुफल सुहावनि बात।
तुलसी सीतापति भगति सगुन सुमंगल सात॥

मूल

सुधा साधु सुरतरु सुमन सुफल सुहावनि बात।
तुलसी सीतापति भगति सगुन सुमंगल सात॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि अमृत, साधु, कल्पवृक्ष, पुष्प, सुन्दर फल, सुहावनी बात और श्रीजानकीनाथजीकी भक्ति—ये सात सुन्दर मंगलकारी शकुन हैं॥ ४६१॥

श्रीरघुनाथजीका स्मरण सारे मंगलोंकी जड़ है

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरत सत्रुसूदन लखन सहित सुमिरि रघुनाथ।
करहु काज सुभ साज सब मिलिहि सुमंगल साथ॥

मूल

भरत सत्रुसूदन लखन सहित सुमिरि रघुनाथ।
करहु काज सुभ साज सब मिलिहि सुमंगल साथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मणसहित श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके सब शुभ साधनोंके द्वारा कार्य करो तो साथ-ही-साथ सुन्दर मंगल भी मिलता जायगा (अर्थात् मनोरथ सफल होते जायँगे)॥ ४६२॥

यात्राके समयका शुभ स्मरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम लखन कौसिक सहित सुमिरहु करहु पयान।
लच्छि लाभ लै जगत जसु मंगल सगुन प्रमान॥

मूल

राम लखन कौसिक सहित सुमिरहु करहु पयान।
लच्छि लाभ लै जगत जसु मंगल सगुन प्रमान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीविश्वामित्रजीसहित श्रीराम-लक्ष्मणका स्मरण करके यात्रा करो और लक्ष्मीका लाभ लेकर जगत् में यश लो। यह शकुन सच्चा मंगलमय है॥ ४६३॥

धर्मका परित्याग किसी भी हालतमें नहीं करना चाहिये

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहि कुबोल साँसति सकल अँगइ अनट अपमान।
तुलसी धरम न परिहरिअ कहि करि गए सुजान॥

मूल

सहि कुबोल साँसति सकल अँगइ अनट अपमान।
तुलसी धरम न परिहरिअ कहि करि गए सुजान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि बुरे वचनोंको और सब प्रकारके कष्टोंको सह लो तथा मिथ्या अपमानको भी अंगीकार कर लो, परंतु धर्मको मत छोड़ो। श्रेष्ठ बुद्धिमान् पुरुष ऐसा ही उपदेश और आचरण कर गये हैं॥ ४६६॥

दूसरेका हित ही करना चाहिये, अहित नहीं

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनहित भय परहित किएँ पर अनहित हित हानि।
तुलसी चारु बिचारु भल करिअ काज सुनि जानि॥

मूल

अनहित भय परहित किएँ पर अनहित हित हानि।
तुलसी चारु बिचारु भल करिअ काज सुनि जानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—दूसरेका हित करनेमें तो अपने अहितका केवल भय ही रहता है; परंतु दूसरेका अहित करनेमें अपने हितका नाश होता ही है। इसलिये तुलसीदासजी कहते हैं कि यहाँ यही विचार सुन्दर और मंगलकारक है कि जान-सुनकर (सोच-समझकर) काम करना चाहिये (पराये हितका ही काम करना चाहिये, अहितका नहीं)॥ ४६७॥

प्रत्येक कार्यकी सिद्धिमें तीन सहायक होते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषारथ पूरब करम परमेस्वर परधान।
तुलसी पैरत सरित ज्यों सबहिं काज अनुमान॥

मूल

पुरुषारथ पूरब करम परमेस्वर परधान।
तुलसी पैरत सरित ज्यों सबहिं काज अनुमान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि पुरुषार्थ, पूर्वकर्म (प्रारब्ध)और प्रधानतया परमात्माकी कृपा—इन्हीं तीनोंके अवलम्बनसे जैसे नदीको तैरकर पार किया जाता है, वैसे ही सभी कामोंमें अनुमान कर लेना चाहिये॥ ४६८॥

विवेकपूर्वक व्यवहार ही उत्तम है

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी सो समरथ सुमति सुकृती साधु सयान।
जो बिचारि ब्यवहरइ जग खरच लाभ अनुमान॥

मूल

तुलसी सो समरथ सुमति सुकृती साधु सयान।
जो बिचारि ब्यवहरइ जग खरच लाभ अनुमान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि वही पुरुष सामर्थ्यवान्, बुद्धिमान्, पुण्यात्मा, साधु और चतुर है जो आयके अनुमानसे ही व्यय करता है और जगत् में विचारपूर्वक व्यवहार करता है॥ ४७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाय जोग जग छेम बिनु तुलसी के हित राखि।
बिनुऽपराध भृगुपति नहुष बेनु बृकासुर साखि॥

मूल

जाय जोग जग छेम बिनु तुलसी के हित राखि।
बिनुऽपराध भृगुपति नहुष बेनु बृकासुर साखि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जगत् में योगकी (अर्थात् प्राप्त हुए धन, ऐश्वर्य, शक्ति या अधिकारकी) रक्षा किये बिना अर्थात् उसका सदुपयोग न करके दुरुपयोग करनेसे वह नष्ट हो जाता है। (जिनके प्रति दुरुपयोग होता है उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता, क्योंकि) तुलसीदासके हितैषी श्रीरामजी निरपराधोंकी रक्षा करते ही हैं। इसमें परशुराम, नहुष, वेन और वृकासुर (भस्मासुर) साक्षी हैं। (परशुरामजीने अपने बलका क्षत्रियोंके नाशमें दुरुपयोग किया; परंतु अन्तमें क्षत्रियवंश बच गया और परशुरामजीका बल क्षत्रियशरीरधारी भगवान् श्रीरामजीद्वारा हरा गया। राजा नहुषको पुण्यबलसे जब इन्द्रका सिंहासन प्राप्त हुआ, तब इन्द्रपत्नी शचीके साथ सम्भोगकी इच्छा करके नहुषने अधिकारका दुरुपयोग किया, जिसके फलस्वरूप सप्तर्षियोंके शापसे उनको स्वर्गसे नीचे गिरना पड़ा और निरपराध शचीके सतीत्वकी रक्षा हो गयी। वेनने अपने अधिकारका दुरुपयोग करके धर्मका नाश करना आरम्भ किया; परंतु धर्म तो नष्ट नहीं हुआ; ऋषियोंके शापसे स्वयं वेनको ही मरना पड़ा। वृकासुर (भस्मासुर) शिवजीसे वरदान पाकर ऐसा बौराया कि उसने अपने वरदाता शिवजीको ही जला देना चाहा। अन्तमें भगवान् विष्णुकी चतुराईसे वह स्वयं जल गया।)॥ ४७२॥

नेमसे प्रेम बड़ा है

विश्वास-प्रस्तुतिः

बड़ि प्रतीति गठिबंध तें बड़ो जोग तें छेम।
बड़ो सुसेवक साइँ तें बड़ो नेम तें प्रेम॥

मूल

बड़ि प्रतीति गठिबंध तें बड़ो जोग तें छेम।
बड़ो सुसेवक साइँ तें बड़ो नेम तें प्रेम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बाहरी ग्रन्थि-बन्धनकी अपेक्षा विश्वास बड़ा है। योगसे क्षेम बड़ा है। स्वामीकी अपेक्षा श्रेष्ठ सेवक बड़ा है और नियमोंसे प्रेम बड़ा है॥ ४७३॥

किस-किसका परित्याग कर देना चाहिये

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिष्य सखा सेवक सचिव सुतिय सिखावन साँच।
सुनि समुझिअ पुनि परिहरिअ पर मन रंजन पाँच॥

मूल

सिष्य सखा सेवक सचिव सुतिय सिखावन साँच।
सुनि समुझिअ पुनि परिहरिअ पर मन रंजन पाँच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि सब बात सुननेमें आवे कि अपना शिष्य, मित्र, नौकर, मन्त्री और सुन्दरी स्त्री—ये पाँचों मुझको छोड़कर दूसरेके मनको प्रसन्न करने लगे हैं तो पहले तो इसकी जाँच करनी चाहिये और (जाँच करनेपर यदि बात सत्य निकले तो) फिर इन्हें छोड़ देना चाहिये॥ ४७४॥

सात वस्तुओंको रस बिगड़नेसे पहले ही छोड़ देना चाहिये

विश्वास-प्रस्तुतिः

नगर नारि भोजन सचिव सेवक सखा अगार।
सरस परिहरें रंग रस निरस बिषाद बिकार॥

मूल

नगर नारि भोजन सचिव सेवक सखा अगार।
सरस परिहरें रंग रस निरस बिषाद बिकार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—नगर, स्त्री, भोजन, मन्त्री, सेवक, मित्र और घर—इनकी सरसता नष्ट होनेसे पहले ही इन्हें छोड़ देनेमें शोभा और आनन्द है। नीरस होनेपर इनका त्याग करनेमें तो शोक और अशान्ति ही होती है॥ ४७५॥

मनके चार कण्टक हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूठहिं निज रुचि काज करि रूठहिं काज बिगारि।
तीय तनय सेवक सखा मन के कंटक चारि॥

मूल

तूठहिं निज रुचि काज करि रूठहिं काज बिगारि।
तीय तनय सेवक सखा मन के कंटक चारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—स्त्री, पुत्र, सेवक और मित्र जब अपनी रुचिके अनुसार कार्य करनेमें संतुष्ट होते हैं (अपनी रुचिके प्रतिकूल किसीकी बात नहीं सुनते) और मनमानी करके आप ही काम बिगाड़ लेते हैं तथा फिर रूठ भी जाते हैं, तब ये चारों मनको काँटेके समान चुभने लगते हैं॥ ४७६॥

कौन निरादर पाते हैं?

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीरघ रोगी दारिदी कटुबच लोलुप लोग।
तुलसी प्रान समान तउ होहिं निरादर जोग॥

मूल

दीरघ रोगी दारिदी कटुबच लोलुप लोग।
तुलसी प्रान समान तउ होहिं निरादर जोग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि प्राणके समान प्यारे होनेपर भी बहुत दिनोंके रोगी, दरिद्र, कटु वचन बोलनेवाले और लालची—ये चारों निरादरके योग्य ही हो जाते हैं॥ ४७७॥

पाँच दुःखदायी होते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाही खेती लगन बट रिन कुब्याज मग खेत।
बैर बड़े सों आपने किए पाँच दुख हेत॥

मूल

पाही खेती लगन बट रिन कुब्याज मग खेत।
बैर बड़े सों आपने किए पाँच दुख हेत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—पाही खेती (जिस गाँवमें रहते हों उससे दूर जाकर दूसरे गाँवमें खेती करना), राह चलते मनुष्यमें आसक्ति, बुरे (बहुत अधिक) ब्याजकी कर्जदारी, रास्तेपरका खेत और अपनी अपेक्षा बड़ेसे वैर—ये पाँचों काम करनेसे (अवश्य ही) दुःखके कारण होते हैं॥ ४७८॥

समर्थ पापीसे वैर करना उचित नहीं

विश्वास-प्रस्तुतिः

धाइ लगै लोहा ललकि खैंचि लेइ नइ नीचु।
समरथ पापी सों बयर जानि बिसाही मीचु॥

मूल

धाइ लगै लोहा ललकि खैंचि लेइ नइ नीचु।
समरथ पापी सों बयर जानि बिसाही मीचु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस तरह लोहा चावसे दौड़कर चुम्बकके लग जाता है, उसी तरह नीच मनुष्य (कपटभरी) नम्रता प्रदर्शित कर खींच लेता है। इसी प्रकार समर्थ पापीसे वैर करनेको खरीदी हुई मौत समझो॥ ४७९॥

शोचनीय कौन है

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग॥

मूल

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—वह गृहस्थ शोचनीय है, जो मोहवश शास्त्रोक्त कर्ममार्गका त्याग कर देता है और वह संन्यासी शोचनीय है, जो संसारमें आसक्त और ज्ञान-वैराग्यसे हीन है॥ ४८०॥

परमार्थसे विमुख ही अंधा है

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी स्वारथ सामुहो परमारथ तन पीठि।
अंध कहें दुख पाइहै डिठिआरो केहि डीठि॥

मूल

तुलसी स्वारथ सामुहो परमारथ तन पीठि।
अंध कहें दुख पाइहै डिठिआरो केहि डीठि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो मनुष्य स्वार्थके तो (सम्मुख) शरण हो रहा है और परमार्थकी ओर जिसने पीठ कर रखी है (अर्थात् भगवान् से विमुख होकर जो केवल विषयोंमें रत है), वह अन्धा कहनेपर तो मनमें दुःख पायेगा, परंतु किस आँखको लेकर उसे आँखवाला कहा जाय? (अर्थात् आँख हुए बिना उसे आँखवाला कहें भी कैसे? हृदयमें विवेकरूपी असली आँख होती तो वह भगवान् के सम्मुख होनेमें ही अपना कल्याण देखता और भयंकर विषयोंका मोह छोड़ देता)॥ ४८१॥

मनुष्य आँख होते हुए भी मृत्युको नहीं देखते

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिन आँखिन की पानहीं पहिचानत लखि पाय।
चारि नयन के नारि नर सूझत मीचु न माय॥

मूल

बिन आँखिन की पानहीं पहिचानत लखि पाय।
चारि नयन के नारि नर सूझत मीचु न माय॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बिना आँखवाली जूती पैरको देखकर पहचान लेती है; किंतु इन नर-नारियोंके चार-चार आँखें (दो बाहरकी और मन-बुद्धिरूप दो भीतरकी) होनेपर भी इन्हें मौत और माया नहीं सूझती॥ ४८२॥

मूढ़ उपदेश नहीं सुनते

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौ पै मूढ़ उपदेस के होते जोग जहान।
क्यों न सुजोधन बोध कै आए स्याम सुजान॥

मूल

जौ पै मूढ़ उपदेस के होते जोग जहान।
क्यों न सुजोधन बोध कै आए स्याम सुजान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि मूर्ख मनुष्य संसारमें उपदेशके योग्य होते तो परम चतुर भगवान् श्रीकृष्ण दुर्योधनको क्यों न समझा सके?॥ ४८३॥

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥

मूल

फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यद्यपि बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं तो भी बेंत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार यदि ब्रह्माके समान भी (ज्ञानी) गुरु मिल जायँ तो भी मूर्खके हृदयमें ज्ञान नहीं होता॥४८४॥

दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रीझि आपनी बूझि पर खीझि बिचार बिहीन।
ते उपदेस न मानहीं मोह महोदधि मीन॥

मूल

रीझि आपनी बूझि पर खीझि बिचार बिहीन।
ते उपदेस न मानहीं मोह महोदधि मीन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अपनी ही समझ (बुद्धि)-पर जिनकी प्रीति है (अपनी ही समझको सबसे उत्तम मानते हैं) और जिनका रोष नासमझीको लिये हुए होता है; वे मोहके महान् समुद्रमें मछली बने हुए लोग किसीका उपदेश नहीं मानते॥ ४८५॥

मूर्खशिरोमणि कौन हैं?

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूप खनत मंदिर जरत आएँ धारि बबूर।
बवहिं नवहिं निज काज सिर कुमति सिरोमनि कूर॥

मूल

कूप खनत मंदिर जरत आएँ धारि बबूर।
बवहिं नवहिं निज काज सिर कुमति सिरोमनि कूर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो लोग घर जलनेपर कुँआ खोदते हैं, शत्रुके चढ़ आनेपर (किलेकी रक्षाके लिये चारों ओर) बबूलके वृक्ष रोपना शुरू करते हैं और स्वार्थसाधनके लिये (भगवान् को छोड़कर जहाँ-तहाँ) सिर नवाते फिरते हैं, वे मूर्खोंके शिरोमणि और निकम्मे (दीर्घसूत्री और प्रमादी) हैं॥ ४८७॥

जान-बूझकर अनीति करनेवालेको

उपदेश देना व्यर्थ है

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो सुनि समुझि अनीति रत जागत रहै जु सोइ।
उपदेसिबो जगाइबो तुलसी उचित न होइ॥

मूल

जो सुनि समुझि अनीति रत जागत रहै जु सोइ।
उपदेसिबो जगाइबो तुलसी उचित न होइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो (सब बात) सुन-समझकर भी (जान-बूझकर) अनीतिमें लगा रहता है और जागते हुए भी सो रहता है, उसको उपदेश देना या जगाना उचित नहीं है अर्थात् व्यर्थ है॥ ४८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु सुत बहु रुचि बहु बचन बहु अचार ब्यवहार।
इनको भलो मनाइबो यह अग्यान अपार॥

मूल

बहु सुत बहु रुचि बहु बचन बहु अचार ब्यवहार।
इनको भलो मनाइबो यह अग्यान अपार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिनके बहुत पुत्र हों, जिनकी (भाँति-भाँतिकी) अनेकों इच्छाएँ हों, जो तरह-तरहकी बातें बनाते हों, जिनके आचरण और व्यवहार अनेकों प्रकारके हों, उनकी भलाई चाहना महान् मूर्खता है (अर्थात् उनका कल्याण होना बहुत ही कठिन है)॥ ४९०॥

जगत् के लोगोंको रिझानेवाला मूर्ख है

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोगनि भलो मनाव जो भलो होन की आस।
करत गगन को गेंडुआ सो सठ तुलसीदास॥

मूल

लोगनि भलो मनाव जो भलो होन की आस।
करत गगन को गेंडुआ सो सठ तुलसीदास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो आदमी (दूसरेके द्वारा) अपना भला होनेकी आशासे (भगवान् को छोड़कर जगत् के) लोगोंको रिझाता रहता है, वह मूर्ख आकाशका तकिया बनाना चाहता है॥ ४९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपजस जोग कि जानकी मनि चोरी की कान्ह।
तुलसी लोग रिझाइबो करषि कातिबो नान्ह॥

मूल

अपजस जोग कि जानकी मनि चोरी की कान्ह।
तुलसी लोग रिझाइबो करषि कातिबो नान्ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—क्या श्रीजानकीजी अपयशके योग्य थीं और क्या श्रीकृष्णने मणिकी चोरी की थी? कदापि नहीं! अतएव तुलसीदासजी कहते हैं कि सब लोगोंको प्रसन्न करना उतना ही कठिन है, जितना जोरसे खींचकर बारीक सूत कातना!॥ ४९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी जु पै गुमान को होतो कछू उपाउ।
तौ कि जानकिहि जानि जियँ परिहरते रघुराउ॥

मूल

तुलसी जु पै गुमान को होतो कछू उपाउ।
तौ कि जानकिहि जानि जियँ परिहरते रघुराउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि लोगोंके संदेहको दूर करनेका कोई उपाय होता तो क्या श्रीरघुनाथजी श्रीजानकीजीको अपने मनमें (सर्वथा निष्कलंक) जानते हुए भी उनका त्याग करते?॥ ४९३॥

भेड़ियाधँसानका उदाहरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

लही आँखि कब आँधरे बाँझ पूत कब ल्याइ।
कब कोढ़ी काया लही जग बहराइच जाइ॥

मूल

लही आँखि कब आँधरे बाँझ पूत कब ल्याइ।
कब कोढ़ी काया लही जग बहराइच जाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—दुनिया बहराइचको दौड़ी जाती है, परंतु कोई इस बातका पता नहीं लगाता कि वहाँ जाकर कब किस अंधेने आँख पायी, कौन बाँझ कब लड़का लेकर आयी और कब किस कोढ़ीने कंचन-सी काया प्राप्त की?
नोट—बहराइचमें सैयद सालारजंग मसऊद गाजी (गाजीमियाँ)-की दरगाह है। वहाँ जेठके महीनेमें हर साल मेला होता है। वहाँ लोग अन्धविश्वासके कारण तरह-तरहकी कामनाओंको लेकर जाते हैं। कहते हैं कि यह गाजीमियाँ महमूद गजनीका भानजा था। यह गाजी होनेकी इच्छासे अवधकी ओर बढ़ आया था और श्रावस्तीके राजा सुहृददेवके हाथों मारा गया था॥ ४९६॥

ऐश्वर्य पाकर मनुष्य अपनेको निडर मान बैठते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी निरभय होत नर सुनिअत सुरपुर जाइ।
सो गति लखि ब्रत अछत तनु सुख संपति गति पाइ॥

मूल

तुलसी निरभय होत नर सुनिअत सुरपुर जाइ।
सो गति लखि ब्रत अछत तनु सुख संपति गति पाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि सुना जाता है, स्वर्गमें जाकर जीव निर्भय हो जाता है (समझता है कि मैं बुढ़ापे और बीमारीसे रहित होकर सदा ही भोग भोगता रहूँगा; क्योंकि स्वर्गमें बुढ़ापा और बीमारी नहीं है)। परंतु ऐसी दशा तो यहाँ इस शरीरके रहते भी सुख-सम्पत्ति और ऊँची पदवी पानेपर देखी जाती है (क्योंकि सुख-सम्पत्ति और ऊँचे पदको प्राप्त मनुष्य भी अभिमानवश अपनेको निर्भय ही मानता है) (परंतु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है।)॥ ४९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी तोरत तीर तरु बक हित हंस बिडारि।
बिगत नलिन अलि मलिन जल सुरसरिहू बढ़िआरि॥

मूल

तुलसी तोरत तीर तरु बक हित हंस बिडारि।
बिगत नलिन अलि मलिन जल सुरसरिहू बढ़िआरि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि गंगाजी भी बढ़ जानेपर अपने किनारेके (आश्रित) वृक्षोंको तोड़ डालती हैं, बगुलों (दम्भियों)-के लिये हंसोंको (सच्चे ज्ञानियोंको) भगा देती हैं, कमल और भौंरोंसे (सद्गुणोंसे) रहित और मलिन जलवाली (मलिनहृदया) हो जाती हैं। (अर्थात् पार्थिव ऐश्वर्य बढ़ जानेपर सज्जनोंमें भी दोष आ जाते हैं। वे अभिमानमें भरकर पड़ोसी आश्रितोंको मिटा देते हैं, मूर्खतावश सच्चे पुरुषोंको अपने पाससे हटाकर दम्भियोंको आश्रय देते हैं और कुसंगतिके कारण सद्गुणोंसे रहित और पापजीवी हो जाते हैं।)॥ ४९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिकारी बस औसरा भलेउ जानिबे मंद।
सुधा सदन बसु बारहें चउथें चउथिउ चंद॥

मूल

अधिकारी बस औसरा भलेउ जानिबे मंद।
सुधा सदन बसु बारहें चउथें चउथिउ चंद॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बुरा समय आनेपर भले अधिकारियोंको भी बुरा ही समझिये। चन्द्रमा अमृतका भण्डार होनेपर भी आठवें, बारहवें और चौथे स्थानमें पड़नेपर एवं भादों सुदी चौथके दिन देखनेपर हानिकारक हो जाता है॥ ४९९॥

नौकर स्वामीकी अपेक्षा अधिक अत्याचारी होते हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिबिध एक बिधि प्रभु अनुग अवसर करहिं कुठाट।
सूधे टेढ़े सम बिषम सब महँ बारहबाट॥

मूल

त्रिबिध एक बिधि प्रभु अनुग अवसर करहिं कुठाट।
सूधे टेढ़े सम बिषम सब महँ बारहबाट॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अवसर पड़नेपर मालिक यदि एक प्रकारसे बुराई करता है तो उसके अनुगामी सेवक तीन प्रकारसे करते हैं। वे सीधे सज्जनोंसे भी टेढ़ा बर्ताव करते हैं, समतामें भी विषमता करते हैं और सब कामोंको नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं॥ ५००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु तें प्रभु गन दुखद लखि प्रजहिं सँभारै राउ।
कर तें होत कृपानको कठिन घोर घन घाउ॥

मूल

प्रभु तें प्रभु गन दुखद लखि प्रजहिं सँभारै राउ।
कर तें होत कृपानको कठिन घोर घन घाउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मालिककी अपेक्षा मालिकके परिचारकवर्ग विशेष दुःखदायी होते हैं; इस बातको विचारकर राजाको चाहिये कि वह स्वयं अपनी प्रजाकी सँभाल करे। क्योंकि हाथकी चोटकी अपेक्षा हाथमें पकड़ी हुई तलवारकी चोट बहुत ही कठिन और भयंकर होती है॥ ५०१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्यालहु तें बिकराल बड़ ब्यालफेन जियँ जानु।
वहि के खाए मरत है वहि खाए बिनु प्रानु॥

मूल

ब्यालहु तें बिकराल बड़ ब्यालफेन जियँ जानु।
वहि के खाए मरत है वहि खाए बिनु प्रानु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अपने हृदयमें अहिफेन (अफीम)-को साँप (अहि)-से भी अधिक भयंकर समझो। साँपके काटनेसे तो आदमी मरता ही है, परंतु अफीमको खाकर वह (जीता हुआ भी) प्राणहीन (मुर्देकी भाँति) हो जाता है॥ ५०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहिं मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर॥

मूल

कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहिं मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(श्रीभरतजी महाराज अपनी कठोरताका विवेचन करते हुए कहते हैं कि मैं जो इतना कठोर हूँ, इसमें) मेरा दोष नहीं है; क्योंकि कार्य कारणसे कठोर होता ही है, जैसे (दधीचिकी) हड्डीसे बना हुआ वज्र हड्डीसे अधिक कठोर और पत्थरसे उत्पन्न लोहा पत्थरसे भी भयानक और कठोर होता है॥ ५०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काल बिलोकत ईस रुख भानु काल अनुहारि।
रबिहि राउ राजहि प्रजा बुध ब्यवहरहिं बिचारि॥

मूल

काल बिलोकत ईस रुख भानु काल अनुहारि।
रबिहि राउ राजहि प्रजा बुध ब्यवहरहिं बिचारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—काल (समय) ईश्वरका रुख देखता है (ईश्वरके इच्छानुसार बदलता रहता है); सूर्य कालका अनुगमन करता है (यथासमय कार्य करता है), राजा सूर्यका अनुसरण करता है (सूर्यके यथायोग्य समयपर जल खींचने और बरसानेकी भाँति राजा प्रजासे कररूपमें धन लेकर उसीके हितमें लगा देता है), प्रजा राजाका अनुकरण करती है (जैसा राजा वैसी प्रजा) और बुद्धिमान् पुरुष सब व्यवहार विचारकर करते हैं (वे अपनी बुद्धिका ही अनुसरण करते हैं)॥ ५०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जथा अमल पावन पवन पाइ कुसंग सुसंग।
कहिअ कुबास सुबास तिमि काल महीस प्रसंग॥

मूल

जथा अमल पावन पवन पाइ कुसंग सुसंग।
कहिअ कुबास सुबास तिमि काल महीस प्रसंग॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जैसे निर्मल और पवित्र वायु बुरी (दुर्गन्धयुक्त) और अच्छी (सुगन्धयुक्त) वस्तुओंके संसर्गसे दुर्गन्धित और सुगन्धित कही जाती है, वैसे ही अच्छे या बुरे राजाके संसर्गसे काल भी अच्छा या बुरा कहा जाता है॥ ५०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भलेहु चलत पथ पोच भय नृप नियोग नय नेम।
सुतिय सुभूपति भूषिअत लोह सँवारित हेम॥

मूल

भलेहु चलत पथ पोच भय नृप नियोग नय नेम।
सुतिय सुभूपति भूषिअत लोह सँवारित हेम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस प्रकार (सर्वोत्तम धातु) सोना लोहे (-के हथौड़े)- से पीट-पीटकर सँवारा जानेपर ही (गहना बनकर) सुन्दर स्त्री और सुन्दर राजाको भी भूषित करता है, उसी प्रकार राजाकी (निष्पक्ष) आज्ञा, (स्वार्थरहित) नीति तथा (कड़ाईसे बर्ते जानेवाले न्यायपूर्ण) कानूनके कारण ही भले लोगोंको भी बुरे मार्गमें चलनेमें डर लगता है॥ ५०६॥

राजाको कैसा होना चाहिये?

विश्वास-प्रस्तुतिः

माली भानु किसान सम नीति निपुन नरपाल।
प्रजा भाग बस होहिंगे कबहुँ कबहुँ कलिकाल॥

मूल

माली भानु किसान सम नीति निपुन नरपाल।
प्रजा भाग बस होहिंगे कबहुँ कबहुँ कलिकाल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—माली, सूर्य और किसानके समान नीतिमें निपुण राजा इस कलियुगमें प्रजाके सौभाग्यसे कभी-कभी होंगे (सदा नहीं)।
१-माली मुरझाये हुए पौधोंको सींचता है, बढ़े हुए जबरदस्तोंको काट-छाँटकर अलग कर देता है, झुके हुए (कमजोर) पौधोंको लकड़ीका टेका देकर गिरनेसे बचा लेता है और फिर फल-फूलोंका संग्रह करता है।
२-सूर्य किसीको भी प्रत्यक्षमें दुःख न देकर समुद्र और नदीसे जल खींच लेता है, उसीको अमृत-सा बनाकर यथायोग्य बरसा देता है।
३-किसान खेत तैयार करता है, खाद देता है, बीज बोता है, सींचता है, रक्षा करता है फिर फसल पकनेपर काटता है॥ ५०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरषत हरषत लोग सब करषत लखै न कोइ।
तुलसी प्रजा सुभाग ते भूप भानु सो होइ॥

मूल

बरषत हरषत लोग सब करषत लखै न कोइ।
तुलसी प्रजा सुभाग ते भूप भानु सो होइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि सूर्य जब जलको खींचता है, तब किसीको भी पता नहीं लगता, परंतु जब बरसाता है, तब सब लोग प्रसन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार (प्रजाको बिना सताये—यहाँतक कि कर देनेमें प्रजाको कुछ भी कष्ट न हो; इतना-सा कर उगाहकर—समयपर उसी धनसे व्यवस्थितरूपसे प्रजाका हित करनेवाला) सूर्य-सरीखा (कोई) राजा प्रजाके सौभाग्यसे ही होता है॥ ५०८॥

राजनीति

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुधा सुनाज कुनाज फल आम असन सम जानि।
सुप्रभु प्रजा हित लेहिं कर सामादिक अनुमानि॥

मूल

सुधा सुनाज कुनाज फल आम असन सम जानि।
सुप्रभु प्रजा हित लेहिं कर सामादिक अनुमानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सुन्दर दूध, घी आदि अमृत, उत्तम अन्न, कुत्सित अन्न, लताओंके फल, आम आदि पेड़ोंके फल—इन सबको खाद्यरूपमें समान जानकर अच्छे राजा साम, दान आदि नीतियोंके अनुसार प्रजाके हितकी इच्छासे प्रजासे ‘कर’ के रूपमें ग्रहण कर लेते हैं॥ ५०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाके पकए बिटप दल उत्तम मध्यम नीच।
फल नर लहैं नरेस त्यों करि बिचारि मन बीच॥

मूल

पाके पकए बिटप दल उत्तम मध्यम नीच।
फल नर लहैं नरेस त्यों करि बिचारि मन बीच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—उत्तम वह है जो वृक्षोंके पके फल लेता है, मध्यम वह है जो (पकनेतककी बाट न देखकर) अधपके फल ही तोड़कर घरमें पकाता है और नीच वह है जो अधीर होकर पत्तोंको ही नोच डालता है। इसी प्रकार उत्तम राजाको भी मनमें विचारकर तभी कर वसूल करना चाहिये, जब फसल पक जाय, जिससे कि किसान आसानीसे दे सके; जो बिना ही फसल पके कर उगाहता है, वह मध्यम है और अकाल पड़नेपर भी पीड़ा पहुँचाकर किसानसे कर उगाहनेवाला स्वार्थी राजा नीच है॥ ५१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रीझि खीझि गुरु देत सिख सखा सुसाहिब साधु।
तोरि खाइ फल होइ भल तरु काटें अपराधु॥

मूल

रीझि खीझि गुरु देत सिख सखा सुसाहिब साधु।
तोरि खाइ फल होइ भल तरु काटें अपराधु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—गुरु, मित्र, अच्छे मालिक और साधुजन प्रसन्न होकर या (न माननेपर हमारे हितके लिये) क्रुद्ध होकर यही उपदेश देते हैं कि पका फल ही पेड़से तोड़कर खाना अच्छा है, पेड़को काट डालना अपराध है (राजाको कर उगाहनेके समय यह उपदेश ध्यानमें रखना चाहिये)॥ ५११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरनि धेनु चारितु चरत प्रजा सुबच्छ पेन्हाइ।
हाथ कछू नहिं लागिहै किएँ गोड़ की गाइ॥

मूल

धरनि धेनु चारितु चरत प्रजा सुबच्छ पेन्हाइ।
हाथ कछू नहिं लागिहै किएँ गोड़ की गाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—पृथ्वीरूपी गौ जब राजाके प्रजावत्सलता तथा धर्मयुक्त उत्तम चरित्ररूपी चारेको चरकर दुग्धवती होती है और जब प्रजारूपी सुन्दर बछड़ेके द्वारा चोखे जानेपर पेन्हाती है (तभी उत्तम और अधिक दूध मिलता है), सिर्फ पैर बाँधकर दुहनेसे कुछ भी दूध हाथ नहीं लगता॥ ५१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चढ़े बधूरें चंग ज्यों ग्यान ज्यों सोक समाज।
करम धरम सुख संपदा त्यों जानिबे कुराज॥

मूल

चढ़े बधूरें चंग ज्यों ग्यान ज्यों सोक समाज।
करम धरम सुख संपदा त्यों जानिबे कुराज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो दशा बवंडरमें पड़ी हुई पतंगकी और शोकोंके समूहमें पड़े हुए विवेककी होती है (अर्थात् वे नष्ट हो जाते हैं) वही दशा बुरे राज्यमें (सत् ) कर्म, (सनातन) धर्म और सुख-सम्पत्तिकी भी समझनी चाहिये॥ ५१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंटक करि करि परत गिरि साखा सहस खजूरि।
मरहिं कुनृप करि करि कुनय सों कुचालि भव भूरि॥

मूल

कंटक करि करि परत गिरि साखा सहस खजूरि।
मरहिं कुनृप करि करि कुनय सों कुचालि भव भूरि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जैसे खजूरकी हजारों शाखाएँ वृक्षमें बहुतेरे काँटे बना-बनाकर (स्वयं टूट-टूटकर) गिर पड़ती हैं, इसी प्रकार दुष्ट राजा भी अपनी दुष्ट नीतिसे कुचाल कर-करके संसारमें बार-बार जन्मते-मरते हैं॥ ५१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काल तोपची तुपक महि दारू अनय कराल।
पाप पलीता कठिन गुरु गोला पुहुमी पाल॥

मूल

काल तोपची तुपक महि दारू अनय कराल।
पाप पलीता कठिन गुरु गोला पुहुमी पाल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—काल (समय) ही गोलंदाज है, पृथ्वी ही तोप है, विकराल अनीति ही बारूद है, पाप ही पलीता है और राजा ही कठोर तथा भारी गोला है (अर्थात् बुरा समय ही दुष्ट राजाके द्वारा प्रजाका नाश कराता है)॥ ५१५॥

किसका राज्य अचल हो जाता है?

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमि रुचिर रावन सभा अंगद पद महिपाल।
धरम राम नय सीय बल अचल होत सुभ काल॥

मूल

भूमि रुचिर रावन सभा अंगद पद महिपाल।
धरम राम नय सीय बल अचल होत सुभ काल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—पृथ्वी ही रावणकी सुन्दर सभा है, इसमें राजा ही अंगदका पैर है, धर्मरूपी राम और नीतिरूपी सीताके बलसे ही वह राजारूपी अंगदका पैर शुभ समयमें अचल हो जाता है॥ ५१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति राम पद नीति रति धरम प्रतीति सुभायँ।
प्रभुहि न प्रभुता परिहरै कबहुँ बचन मन कायँ॥

मूल

प्रीति राम पद नीति रति धरम प्रतीति सुभायँ।
प्रभुहि न प्रभुता परिहरै कबहुँ बचन मन कायँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें जिसकी प्रीति है, (प्रजाहितकी) नीतिमें जो सदा रत है और धर्ममें जिसका स्वाभाविक ही विश्वास है, उस राजाको प्रभुता मन, वचन और शरीरसे कभी नहीं छोड़ती (अर्थात् उसका राज्य सदा बना रहता है)॥ ५१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर के कर मन के मनहिं बचन बचन गुन जानि।
भूपहि भूलि न परिहरै बिजय बिभूति सयानि॥

मूल

कर के कर मन के मनहिं बचन बचन गुन जानि।
भूपहि भूलि न परिहरै बिजय बिभूति सयानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस राजाके हाथमें हाथके गुण (रक्षा करना, दान देना आदि) हों, मनमें मनके गुण (प्रजावत्सलता, उदारता आदि) हों और वचनमें वचनके गुण (मधुरता, सत्यता, हितवादिता आदि) हों उस राजाको विजय, ऐश्वर्य और बुद्धिमत्ता भूलकर भी नहीं छोड़ते॥ ५१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोली बान सुमंत्र सर समुझि उलटि मन देखु।
उत्तम मध्यम नीच प्रभु बचन बिचारि बिसेषु॥

मूल

गोली बान सुमंत्र सर समुझि उलटि मन देखु।
उत्तम मध्यम नीच प्रभु बचन बिचारि बिसेषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—गोली, साधारण बाण और सुमन्त्रित बाण (-के गुणों)-को मनमें समझकर और फिर इनके क्रमको उलटकर देखो और विचार करो कि उत्तम, मध्यम और नीच राजाके वचन क्रमशः ऐसे ही होते हैं, (अर्थात् उत्तम राजाके वचन सुमन्त्रित बाणके समान अमोघ हैं, जो कभी व्यर्थ नहीं जाते; मध्यम राजाके वचन साधारण बाणके समान हैं, जो व्यर्थ भी जा सकते हैं और नीच राजाके वचन गोलीके समान होते हैं—उनका शब्द तो बहुत विकराल होता है, परंतु निशाना चूक गया तो काम कुछ भी नहीं होता)॥ ५१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्रु सयानो सलिल ज्यों राख सीस रिपु नाव।
बूड़त लखि पग डगत लखि चपरि चहूँ दिसि धाव॥

मूल

सत्रु सयानो सलिल ज्यों राख सीस रिपु नाव।
बूड़त लखि पग डगत लखि चपरि चहूँ दिसि धाव॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—चतुर शत्रु पानीके समान शत्रुरूपी नावको सिरपर रखता है (शत्रुका ऊपरसे बड़ा सत्कार करता है,) परंतु उसको डूबते हुए देखकर या पैर डगमगाते हुए देखकर तुरंत ही चारों ओरसे उसपर धावा कर देता है॥ ५२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रैअत राज समाज घर तन धन धरम सुबाहु।
सांत सुसचिवन सौंपि सुख बिलसइ नित नरनाहु॥

मूल

रैअत राज समाज घर तन धन धरम सुबाहु।
सांत सुसचिवन सौंपि सुख बिलसइ नित नरनाहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—प्रजा, राजसमाज, घर, अपना शरीर, धन, धर्म और सेना आदिको शान्त और सुयोग्य मन्त्रियोंके हाथोंमें सौंप कर ही राजा नित्य सुखसे रह सकता है (अर्थात् जहाँ मन्त्री शान्त और योग्य नहीं होते, वहाँ राजा सुखसे नहीं रह सकता)॥ ५२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥

मूल

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रधान (राजा)-को मुखके समान होना चाहिये, जो खाने-पीनेके लिये तो एक ही है; परंतु विवेकके साथ समस्त अंगोंका पालन-पोषण करता है॥ ५२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥

मूल

सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि सेवक हाथ, पैर और नेत्रोंके समान होने चाहिये और मालिक मुखके समान होना चाहिये। सेवक-स्वामीकी प्रीतिकी रीतिको सुनकर सुकवि उसकी सराहना करते हैं। (अर्थात् जैसे हाथ, पैर, आँख आदि खाद्य सामग्रियोंके संग्रहमें और विपत्ति पड़नेपर रक्षा करनेमें सहायता करते हैं, उसी प्रकार सेवककी मालिकको सहायता करनी चाहिये। और जैसे मुख सब पदार्थोंको खाता है, परंतु खाकर सब अंगोंको यथायोग्य रस पहुँचाता है और उन्हें पुष्ट करता है, उसी प्रकार मालिकको सबका पेट भरकर उन्हें शक्तिमान् बनाना चाहिये)॥ ५२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥

मूल

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि मन्त्री, वैद्य और गुरु (अप्रसन्नताके) भयसे या (स्वार्थसाधनकी) आशासे (हितकी बात न कहकर) ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाने लगते हैं तो राज्य, धर्म और शरीर—इन तीनोंका शीघ्र ही नाश हो जाता है॥ ५२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना मन्त्री दसन जन तोष पोष निज काज।
प्रभु कर सेन पदादिका बालक राज समाज॥

मूल

रसना मन्त्री दसन जन तोष पोष निज काज।
प्रभु कर सेन पदादिका बालक राज समाज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—राजा पेट है, मन्त्री जीभ है और अन्य कर्मचारी दाँत हैं। जैसे दाँत भोजनको कुचलकर और जीभ उसका स्वाद लेकर तथा अपनी लार साथ लेकर उसे पेटमें पहुँचा देती है और पेट रस बनाकर सारे अंगोंको पुष्ट और संतुष्ट करता है, उसी प्रकार मन्त्री और अन्य राजकर्मचारी राजाके लिये सब अपना-अपना काम ठीक करते हैं और बदलेमें राजा उन सबका पोषण करता है और उन्हें संतुष्ट करता है। सेना और पदातिजन राजाके हाथ और पैर हैं। जैसे हाथ-पैर पेटकी रक्षा करते हैं और पेट हाथ-पैरको पालता-पोषता है, उसी प्रकार सेना-पदाति राजाकी रक्षा करते हैं और राजा उनका पालन-पोषण करता है। फिर राजा माता-पिताके समान है और सारा राज-समाज राजाका बालक है। जैसे माता-पिता बालकका पालन-पोषण करते हैं, वैसे ही राजा सारे राजसमाजको पालता-पोषता है॥ ५२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लकड़ी डौआ करछुली सरस काज अनुहारि।
सुप्रभु संग्रहहिं परिहरहिं सेवक सखा बिचारि॥

मूल

लकड़ी डौआ करछुली सरस काज अनुहारि।
सुप्रभु संग्रहहिं परिहरहिं सेवक सखा बिचारि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस तरह कामकी सरसताके अनुसार लकड़ीके चम्मच या धातुकी करछुलका यथायोग्य संग्रह और त्याग किया जाता है (कहीं लकड़ीके चम्मचसे काम लिया जाता है तो कहीं उसका त्याग करके धातुकी करछुलीकी ही जरूरत पड़ती है) उसी प्रकार अच्छे स्वामी भी विचार करके सब प्रकारके सेवकों तथा सखाओंका यथायोग्य संग्रह और त्याग करते हैं॥ ५२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु समीप छोटे बड़े रहत निबल बलवान।
तुलसी प्रगट बिलोकिऐ कर अँगुली अनुमान॥

मूल

प्रभु समीप छोटे बड़े रहत निबल बलवान।
तुलसी प्रगट बिलोकिऐ कर अँगुली अनुमान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि मालिकके निकट छोटे, बड़े, निर्बल और बलवान्—सभी प्रकारके लोग रहते हैं। हाथकी अँगुलियोंसे अनुमान करके इस बातको प्रत्यक्ष देख लेना चाहिये (पाँचों अँगुलियाँ एक ही हाथमें हैं, परंतु बराबरकी नहीं हैं)॥ ५२७॥

आज्ञाकारी सेवक स्वामीसे बड़ा होता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहब तें सेवक बड़ो जो निज धरम सुजान।
राम बाँधि उतरे उदधि लाँघि गए हनुमान॥

मूल

साहब तें सेवक बड़ो जो निज धरम सुजान।
राम बाँधि उतरे उदधि लाँघि गए हनुमान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—वह सेवक स्वामीसे बड़ा है, जो अपने धर्मपालनमें निपुण है। भगवान् श्रीरामचन्द्रजी तो पुल बाँधकर समुद्रके पार उतरे, परंतु हनुमान् जी उसी समुद्रको लाँघकर चले गये॥ ५२८॥

मूलके अनुसार बढ़नेवाला और बिना अभिमान किये सबको सुख देनेवाला पुरुष ही श्रेष्ठ है

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी भल बरतरु बढ़त निज मूलहि अनुकूल।
सबहि भाँति सब कहँ सुखद दलनि फलनि बिनु फूल॥

मूल

तुलसी भल बरतरु बढ़त निज मूलहि अनुकूल।
सबहि भाँति सब कहँ सुखद दलनि फलनि बिनु फूल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि बड़का वृक्ष उत्तम है, जो अपनी जड़ (बुनियाद)- के अनुसार ही बढ़ता है और बिना ही फूले (घमंड किये बिना ही) अपने पत्तों और फलोंद्वारा सबको सब प्रकारसे सुख देता है॥ ५२९॥

त्रिभुवनके दीप कौन हैं?

विश्वास-प्रस्तुतिः

सधन सगुन सधरम सगन सबल सुसाइँ महीप।
तुलसी जे अभिमान बिनु ते तिभुवन के दीप॥

मूल

सधन सगुन सधरम सगन सबल सुसाइँ महीप।
तुलसी जे अभिमान बिनु ते तिभुवन के दीप॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि जो पुरुष धनवान्, गुणवान्, धर्मात्मा सेवकोंसे युक्त, बलवान् और सुयोग्य स्वामी तथा राजा होते हुए भी अभिमानरहित होते हैं, वे ही तीनों लोकोंके उजागर होते हैं॥ ५३०॥

कीर्ति करतूतिसे ही होती है

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी निज करतूति बिनु मुकुत जात जब कोइ।
गयो अजामिल लोक हरि नाम सक्यो नहिं धोइ॥

मूल

तुलसी निज करतूति बिनु मुकुत जात जब कोइ।
गयो अजामिल लोक हरि नाम सक्यो नहिं धोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि कोई जीव अपने पुरुषार्थके बिना ही मुक्त हो जाता है (तो उसकी कीर्ति नहीं होती) अजामिल श्रीहरिके लोकको चला गया, परंतु वह अपनी बदनामीको नहीं धो सका (अब भी उसकी उपमा लोग पापियोंसे ही देते हैं)॥ ५३१॥

बड़ोंका आश्रय भी मनुष्यको बड़ा बना देता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

बड़ो गहे ते होत बड़ ज्यों बावन कर दंड।
श्रीप्रभु के सँग सों बढ़ो गयो अखिल ब्रह्मंड॥

मूल

बड़ो गहे ते होत बड़ ज्यों बावन कर दंड।
श्रीप्रभु के सँग सों बढ़ो गयो अखिल ब्रह्मंड॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बड़ेके अपनानेसे भी मनुष्य बड़ा हो जाता है, जैसे वामनभगवान् के हाथका दण्ड उनके साथ ही बढ़कर अखिल ब्रह्माण्डतक पहुँच गया॥ ५३२॥

कपटी दानीकी दुर्गति

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी दान जो देत हैं जल में हाथ उठाइ।
प्रतिग्राही जीवै नहीं दाता नरकै जाइ॥

मूल

तुलसी दान जो देत हैं जल में हाथ उठाइ।
प्रतिग्राही जीवै नहीं दाता नरकै जाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं—जो लोग हाथ उठाकर (मछलियोंको फाँसनेके लिये) जलमें दान देते हैं (चारा डालते हैं) उस दानको ग्रहण करनेवाली मछली तो जीती नहीं और वह दाता भी नरकमें जाता है॥ ५३३॥

साधनसे मनुष्य ऊपर उठता है और साधन बिना गिर जाता है

विश्वास-प्रस्तुतिः

उरबी परि कलहीन होइ ऊपर कलाप्रधान।
तुलसी देखु कलाप गति साधन घन पहिचान॥

मूल

उरबी परि कलहीन होइ ऊपर कलाप्रधान।
तुलसी देखु कलाप गति साधन घन पहिचान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मोरकी पाँख जब जमीनकी ओर नीचे पड़ी रहती है, तो वह कलाहीन हो जाती है और वही जब ऊपरकी ओर होती है तो कलाप्रधान हो जाती है (जगमगा उठती है)। तुलसीदासजी कहते हैं कि मोरकी पाँखकी गति देखो और समझो कि मेघ ही इसमें प्रधान साधन है (तात्पर्य यह कि मोर-पंखकी गतिको समझकर तुम भी प्रेमघन घनश्याम श्रीरामजीके प्रेमको पहचानकर नाच उठो)॥ ५३५॥

कलियुगमें कुटिलताकी वृद्धि

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि कुचालि सुभ मति हरनि सरलै दंडै चक्र।
तुलसी यह निहचय भई बाढ़ि लेति नव बक्र॥

मूल

कलि कुचालि सुभ मति हरनि सरलै दंडै चक्र।
तुलसी यह निहचय भई बाढ़ि लेति नव बक्र॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगकी कुचाल शुभ बुद्धिको हरनेवाली है, इसीलिये राजचक्र भी सरलस्वभावके साधुओंको ही दण्ड देता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह निश्चय हो गया कि कलियुगमें कुटिलता नित नयी-नयी बढ़ रही है॥ ५३७॥

आपसमें मेल रखना उत्तम है

विश्वास-प्रस्तुतिः

गो खग खे खग बारि खग तीनों माहिं बिसेक।
तुलसी पीवैं फिरि चलैं रहैं फिरैं सँग एक॥

मूल

गो खग खे खग बारि खग तीनों माहिं बिसेक।
तुलसी पीवैं फिरि चलैं रहैं फिरैं सँग एक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि पृथ्वी, आकाश और जलमें रहनेवाले तीनों प्रकारके पक्षियोंमें यह विशेषता है कि वे सब अपने-अपने दल बनाकर एक ही साथ पानी पीते हैं, चलते-फिरते हैं और रहते हैं (मनुष्योंको इनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये)॥ ५३८॥

सब समय समतामें स्थित रहनेवाले पुरुष ही श्रेष्ठ हैं

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधन समय सुसिद्धि लहि उभय मूल अनुकूल।
तुलसी तीनिउ समय सम ते महि मंगल मूल॥

मूल

साधन समय सुसिद्धि लहि उभय मूल अनुकूल।
तुलसी तीनिउ समय सम ते महि मंगल मूल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि वे ही लोग इस पृथ्वीपर मंगल-मूल होते हैं, जो (मनोरथ-सिद्धिके) अनुकूल साधन और अनुकूल समय तथा इन दोनोंके मूल उद्देश्यरूप सुन्दर सिद्धिको प्राप्त करके तीनों कालमें एकरस—समतायुक्त रहते हैं॥ ५३९॥

पिताकी आज्ञाका पालन सुखका मूल है

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥

मूल

अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो पुरुष अनुचित-उचितका विचार छोड़कर (श्रद्धापूर्वक) पिताके वचनोंका पालन करते हैं, वे (यहाँ) सुख और सुकीर्तिके पात्र होकर (शरीर छोड़नेके पश्चात् ) इन्द्रपुरीमें निवास करते हैं॥ ५४१॥

कलियुगका वर्णन

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामायन अनुहरत सिख जग भयो भारत रीति।
तुलसी सठ की को सुनै कलि कुचालि पर प्रीति॥

मूल

रामायन अनुहरत सिख जग भयो भारत रीति।
तुलसी सठ की को सुनै कलि कुचालि पर प्रीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि कलिकालमें लोगोंकी प्रीति कुचालपर ही रहती है; मुझ-जैसे मूर्खकी कौन सुनता है। लोगोंको सीख तो यही दी जाती है कि रामायणके अनुसार चलो (अर्थात् स्वार्थत्यागपूर्वक भाई-भाईमें प्रेम रखो), परंतु संसारमें लोग अनुकरण करते हैं महाभारतका (अर्थात् स्वार्थवश परस्पर कलहमें ही लगे रहते हैं)॥ ५४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पात पात कै सींचिबो बरी बरी कै लोन।
तुलसी खोटें चतुरपन कलि डहके कहु को न॥

मूल

पात पात कै सींचिबो बरी बरी कै लोन।
तुलसी खोटें चतुरपन कलि डहके कहु को न॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुगमें लोग पेड़के एक-एक पत्तेको अलग-अलग सींचना और एक-एक बरीमें अलग-अलग नमक मिलाना चाहते हैं (जिससे न तो पेड़की जड़में जल पहुँचता है और न सब बरियोंमें समान नमक पड़ता है) ऐसी हालतमें कहिये अपनी इस खोटी चतुराईसे कलियुगमें कौन नहीं ठगे गये (अपनी ही करनीसे आप ही दुःख पाते हैं)॥ ५४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति सगाई सकल बिधि बनिज उपायँ अनेक।
कल बल छल कलि मल मलिन डहकत एकहि एक॥

मूल

प्रीति सगाई सकल बिधि बनिज उपायँ अनेक।
कल बल छल कलि मल मलिन डहकत एकहि एक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगके पापोंसे मलिन-मन हुए लोग प्रीति करके नाता जोड़कर वाणिज्य आदि अनेक उपायोंसे सब प्रकार कल-बल-छल करके परस्पर एक-दूसरेको ठगा करते हैं॥ ५४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दंभ सहित कलि धरम सब छल समेत ब्यवहार।
स्वारथ सहित सनेह सब रुचि अनुहरत अचार॥

मूल

दंभ सहित कलि धरम सब छल समेत ब्यवहार।
स्वारथ सहित सनेह सब रुचि अनुहरत अचार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलिके धर्म सब दम्भयुक्त हैं, व्यवहार कपटयुक्त हैं, प्रेम स्वार्थयुक्त हैं और आचरण मनमाना है (अर्थात् सच्चा धर्म, निष्कपट व्यवहार, निःस्वार्थ प्रेम और शास्त्रोक्त आचरण नहीं है)॥ ५४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चोर चतुर बटमार नट प्रभु प्रिय भँडुआ भंड।
सब भच्छक परमारथी कलि सुपंथ पाषंड॥

मूल

चोर चतुर बटमार नट प्रभु प्रिय भँडुआ भंड।
सब भच्छक परमारथी कलि सुपंथ पाषंड॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगमें चोर ही चतुर माने जाते हैं (अर्थात् जो सफाईसे दूसरोंका स्वत्व हरण कर लेते हैं, उन्हींको लोग चतुर कहते हैं), लुटेरे ही खिलाड़ी (कलावन्त) गिने जाते हैं (जो मार-पीटकर धन छीन लेते हैं, उनको खिलाड़ी कहा जाता है); भाँड़ और भड़ुए ही राजाओं या मालिकोंको प्रिय होते हैं (जो खुशामद करके या तरह-तरहकी भाव-भंगियोंसे मूर्ख मालिकोंको रिझाते रहते हैं, वे ही उन्हें प्रिय होते हैं; सत्यवादी-सदाचारी नहीं); खान-पानका विचार त्यागकर सब कुछ खानेवाले ही महात्मा माने जाते हैं और पाखण्ड ही सन्मार्ग समझा जाता है अर्थात् सभी विपरीत हो रहा है॥ ५४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥

मूल

असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो लोग अशुभ वेष बनाये रहते हैं—अशुभ अलंकार धारण करते हैं तथा खानेयोग्य और न खानेयोग्य सब कुछ खा जाते हैं—इस कलियुगमें वे ही मनुष्य योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही पूज्य हैं॥ ५५०॥

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार ते बकता कलिकाल महुँ॥

मूल

जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार ते बकता कलिकाल महुँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो अपने आचरणसे दूसरोंका बुरा करनेवाले हैं, कलियुगमें उन्हींका गौरव है और वे ही मानके योग्य हैं एवं जो मन, वचन तथा कर्मसे झूठे होते हैं, वे ही वक्ता माने जाते हैं॥ ५५१॥

दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥

मूल

ब्रह्मग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—इस कलियुगमें स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञानको छोड़कर दूसरी चर्चा ही नहीं करते, किंतु वे ही (मिथ्या ब्रह्मज्ञानी) लोभवश एक कौड़ीके लिये ब्राह्मण और गुरुजनोंका घात कर डालते हैं (और कहते हैं कि कौन मरता है, कौन मारता है)॥ ५५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥

मूल

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगमें शूद्रलोग ब्राह्मणोंसे वाद-विवाद करते हैं और आँख दिखाकर डाँटते हुए कहते हैं कि ‘क्या हम तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्मको जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है’॥ ५५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भगति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं बेद पुरान॥

मूल

साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भगति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं बेद पुरान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगमें (कलियुगी) भक्तलोग मनमानी साखी, सबद, दोहा, कहानी और उपाख्यान कह-कहकर भक्तिका निरूपण करते हैं और प्रामाणिक वेद-पुराणोंकी निन्दा करते हैं॥ ५५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुति संमत हरिभगति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहि परिहरहिं बिमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥

मूल

श्रुति संमत हरिभगति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहि परिहरहिं बिमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—वैराग्य और ज्ञानसे युक्त वेदोक्त हरिभक्तिके मार्गको तो लोग विशेषरूपसे मोहके वशमें होकर छोड़ देते हैं और नये-नये (ज्ञान-वैराग्यहीन) मनमाने मार्गोंकी कल्पना करते हैं॥ ५५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल धरम बिपरीत कलि कल्पित कोटि कुपंथ।
पुन्य पराय पहार बन दुरे पुरान सुग्रन्थ॥

मूल

सकल धरम बिपरीत कलि कल्पित कोटि कुपंथ।
पुन्य पराय पहार बन दुरे पुरान सुग्रन्थ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगमें सभी कुछ धर्मके प्रतिकूल हो गया, नये-नये करोड़ों कुमार्ग कल्पित हो गये (वास्तवमें वे मार्ग नहीं हैं, मनमानी कल्पनामात्र हैं) इससे पुण्य तो पहाड़ोंमें भाग गया और पुराणादि सद्‍ग्रन्थ वनोंमें जाकर छिप गये (अर्थात् वनोंमें और पर्वतोंकी गुहाओंमें एकान्तवास करनेवाले कुछ महात्माओंमें ही पुण्य और सद्‍ग्रन्थोंका पठन-पाठन रह गया है)॥ ५५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धातुबाद निरुपाधि बर सदगुरु लाभ सुमीत।
देव दरस कलिकाल में पोथिन दुरे सभीत॥

मूल

धातुबाद निरुपाधि बर सदगुरु लाभ सुमीत।
देव दरस कलिकाल में पोथिन दुरे सभीत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगमें रसायनविद्या, उपाधिरहित (अबाधित) वरदान, सद्गुरुकी प्राप्ति, सच्चे मित्र और देवताके प्रत्यक्ष दर्शन—ये पाँचों बातें डरके मारे पुस्तकोंमें छिप गयी हैं (अर्थात् पुस्तकोंमें ही इनके वर्णन मिलते हैं, प्रत्यक्षमें ये दिखलायी नहीं देते)॥ ५५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुर सदननि तीरथ पुरिन निपट कुचालि कुसाज।
मनहुँ मवा से मारि कलि राजत सहित समाज॥

मूल

सुर सदननि तीरथ पुरिन निपट कुचालि कुसाज।
मनहुँ मवा से मारि कलि राजत सहित समाज॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—देवालय (मन्दिर), तीर्थ और पवित्र पुरियोंमें सर्वत्र ही अत्यन्त भ्रष्टाचार और भ्रष्ट वातावरण फैल गया है। मानो उन स्थानोंमें कलियुग अपने सारे समाजके (काम, क्रोध, दम्भ, लोभ, कपट, दुराग्रह, असत्य, हिंसा, स्तेय, व्यभिचार आदि दोषों एवं दुर्गुणोंके) साथ किलेबंदी करके विराजमान रहता है॥ ५५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोंड़ गवाँर नृपाल महि जमन महा महिपाल।
साम न दान न भेद कलि केवल दंड कराल॥

मूल

गोंड़ गवाँर नृपाल महि जमन महा महिपाल।
साम न दान न भेद कलि केवल दंड कराल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगमें गोंड़ (जंगली लोग) और गँवार तो पृथ्वीके राजा हो रहे हैं और यवन-म्लेच्छादि बादशाह। इनकी राजनीतिमें साम, दान, भेदका प्रयोग न होकर केवल कठोर दण्डका ही प्रयोग होताहै॥ ५५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फोरहिं सिल लोढ़ा सदन लागें अढुक पहार।
कायर कूर कुपूत कलि घर घर सहस डहार॥

मूल

फोरहिं सिल लोढ़ा सदन लागें अढुक पहार।
कायर कूर कुपूत कलि घर घर सहस डहार॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जैसे पहाड़की ठोकर लगनेपर (उसपर कुछ भी वश न चलनेसे) मूर्ख लोग (पहाड़के बदले) घरके सिल-लोढ़ेको फोड़ डालते हैं। इस प्रकार अपने ही घरवालोंको तंग करनेवाले कायर, क्रूर और कुपूत कलियुगमें सहस्रोंकी संख्यामें घर-घर होंगे॥ ५६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥

मूल

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सत्य, अहिंसा, शौच और दान—धर्मके ये चार चरण प्रसिद्ध हैं, जिनमेंसे कलियुगमें एक (दान) ही प्रधान रह गया है, जिस-किसी भी प्रकारसे दिये जानेपर दान कल्याण ही करता है॥ ५६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥

मूल

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि मनुष्य विश्वास करे तो कलियुगके समान और कोई भी युग नहीं है; क्योंकि इसमें केवल श्रीरामचन्द्रजीके निर्मल गुणसमूहोंका गान करके ही मनुष्य बिना ही किसी परिश्रमके भवसागरसे तर जाता है॥ ५६२॥

और चाहे जो भी घट जाय, भगवान् में प्रेम नहीं घटना चाहिये

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रवन घटहुँ पुनि दृग घटहुँ घटउ सकल बल देह।
इते घटें घटिहै कहा जौं न घटै हरिनेह॥

मूल

श्रवन घटहुँ पुनि दृग घटहुँ घटउ सकल बल देह।
इते घटें घटिहै कहा जौं न घटै हरिनेह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कानोंसे चाहे कम सुनायी पड़े, आँखोंकी रोशनी भी चाहे घट जाय, सारे शरीरका बल भी चाहे क्षीण हो जाय; किंतु यदि श्रीहरिमें प्रेम नहीं घटे तो इनके घटनेसे हमारा क्या घट जायगा?॥ ५६३॥

कुसमयका प्रभाव

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं हमें पूछिहै कौन॥

मूल

तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं हमें पूछिहै कौन॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि बरसातकी मौसममें कोयल यह समझकर मौन हो जाती है कि अब तो मेढक टर्रायेंगे, हमें कौन पूछेगा? (बुरा समय आनेपर दुर्जनोंकी ही चलती है, इस समय सज्जन चुप हो रहते हैं)॥ ५६४॥

श्रीरामजीके गुणोंकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि ईंधन अनल प्रचंड॥

मूल

कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि ईंधन अनल प्रचंड॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगके कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल, कपट, दम्भ और पाखण्डको जलानेके लिये श्रीरामचन्द्रजीके गुणसमुदाय वैसे ही हैं, जैसे ईंधनको जलानेके लिये प्रचण्ड अग्नि॥ ५६५॥

कलियुगमें दो ही आधार हैं

सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि पाषंड प्रचार प्रबल पाप पावँर पतित।
तुलसी उभय अधार राम नाम सुरसरि सलिल॥

मूल

कलि पाषंड प्रचार प्रबल पाप पावँर पतित।
तुलसी उभय अधार राम नाम सुरसरि सलिल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुगमें केवल पाखण्डका प्रचार है; संसारमें पाप बहुत प्रबल हो गया है, सब ओर पामर और पतित ही नजर आते हैं। ऐसी स्थितिमें दो ही आधार हैं—एक श्रीरामनाम और दूसरा देवनदी श्रीगंगाजीका पवित्र जल॥ ५६६॥

भगवत्प्रेम ही सब मंगलोंकी खान है

दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामचंद्र मुख चंद्रमा चित चकोर जब होइ।
राम राज सब काज सुभ समय सुहावन सोइ॥

मूल

रामचंद्र मुख चंद्रमा चित चकोर जब होइ।
राम राज सब काज सुभ समय सुहावन सोइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिस समय भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके मुखचन्द्रको निरखनेके लिये चित्त चकोर बन जाता है, वही समय रामराज्यकी भाँति सुहावना होता है और तभी सब काम शुभ होते हैं॥ ५६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीज राम गुन गन नयन जल अंकुर पुलकालि।
सुकृती सुतन सुखेत बर बिलसत तुलसी सालि॥

मूल

बीज राम गुन गन नयन जल अंकुर पुलकालि।
सुकृती सुतन सुखेत बर बिलसत तुलसी सालि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जब परम पुण्यात्मा पुरुषके (पापरहित) निर्मल तनुरूपी सुन्दर और श्रेष्ठ खेतमें श्रीरामचन्द्रजीके गुणसमूहरूपी बीज बोये जायँ और प्रेमाश्रुओंके (पवित्र) जलसे उन्हें सींचा जाय, तुलसीदासजी कहते हैं कि तब उनमेंसे (आनन्दातिरेकके कारण) पुलकावलिरूपी (शुभ) अंकुर उत्पन्न होते हैं और तभी उसमें (भगवत्प्रेमरूपी) धानकी खेती लहराती है॥ ५६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी सहित सनेह नित सुमिरहु सीता राम।
सगुन सुमंगल सुभ सदा आदि मध्य परिनाम॥

मूल

तुलसी सहित सनेह नित सुमिरहु सीता राम।
सगुन सुमंगल सुभ सदा आदि मध्य परिनाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तुलसीदासजी कहते हैं कि नित्य-निरन्तर भगवान् श्रीसीतारामजीके सुन्दर सगुण स्वरूपका प्रेमसहित स्मरण-ध्यान करते रहो; इससे आदि, मध्य और अन्तमें सदा ही अच्छे शकुन, परम मंगल और कल्याण होगा॥ ५६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषारथ स्वारथ सकल परमारथ परिनाम।
सुलभ सिद्धि सब साहिबी सुमिरत सीता राम॥

मूल

पुरुषारथ स्वारथ सकल परमारथ परिनाम।
सुलभ सिद्धि सब साहिबी सुमिरत सीता राम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीसीतारामजीका स्मरण करते ही मनुष्यके लिये सभी सिद्धियाँ और सबपर स्वामित्व सुलभ हो जाते हैं तथा सभी तरहके स्वार्थ (लौकिक कार्य), पुरुषार्थ (आध्यात्मिक कार्य) सफल होते हैं और अन्तमें परमार्थ (श्रीभगवान्)-की प्राप्ति होती है॥ ५७०॥

दोहावलीके दोहोंकी महिमा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनिमय दोहा दीप जहँ उर घर प्रगट प्रकास।
तहँ न मोह तम भय तमी कलि कज्जली बिलास॥

मूल

मनिमय दोहा दीप जहँ उर घर प्रगट प्रकास।
तहँ न मोह तम भय तमी कलि कज्जली बिलास॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसके हृदयरूपी घरमें इन दोहोंरूपी मणिमय दीपकका प्रकाश प्रकट होगा, वहाँ मोहरूपी अन्धकार, भयरूपी रात्रि और कलिकालरूपी कालिमाका विलास नहीं हो सकता॥ ५७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

का भाषा का संसकृत प्रेम चाहिऐ साँच।
काम जु आवै कामरी का लै करिअ कुमाच॥

मूल

का भाषा का संसकृत प्रेम चाहिऐ साँच।
काम जु आवै कामरी का लै करिअ कुमाच॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—क्या भाषा, क्या संस्कृत, (श्रीभगवान् के गुण गानेके लिये तो) सच्चा प्रेम चाहिये। जहाँ कम्बलसे ही काम चल जाता हो, वहाँ बढ़िया दुशाला लेकर क्या करना है?॥ ५७२॥

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