०७ उत्तरकाण्ड

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रकूट पय तीर सो सुरतरु बास।
लखन राम सिय सुमिरहु तुलसीदास॥ ४३॥

मूल

चित्रकूट पय तीर सो सुरतरु बास।
लखन राम सिय सुमिरहु तुलसीदास॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्रकूटमें पयस्विनी नदीके किनारे (किसी वृक्षके नीचे) रहना कल्पवृक्षके नीचे (स्वर्गमें) रहनेके समान है। तुलसीदासजी (अपने मनसे) कहते हैं—अरे मन! यहाँ श्रीराम-लक्ष्मण एवं जानकीजीका स्मरण करो॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पय नहाइ फल खाहु परिहरिय आस।
सीय राम पद सुमिरहु तुलसीदास॥ ४४॥

मूल

पय नहाइ फल खाहु परिहरिय आस।
सीय राम पद सुमिरहु तुलसीदास॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! पयस्विनी नदीमें स्नान करके फल खाकर रहो, सब प्रकारकी आशाओंको छोड़ दो और (केवल) श्रीसीतारामजीके चरणोंका स्मरण करो॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वारथ परमारथ हित एक उपाय।
सीय राम पद तुलसी प्रेम बढ़ाय॥ ४५॥

मूल

स्वारथ परमारथ हित एक उपाय।
सीय राम पद तुलसी प्रेम बढ़ाय॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! स्वार्थ (लौकिक हित) तथा परमार्थ-(आत्मकल्याण) के लिये एक ही उपाय है कि श्रीसीतारामजीके चरणोंमें प्रेम बढ़ाओ॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काल कराल बिलोकहु होइ सचेत।
राम नाम जपु तुलसी प्रीति समेत॥ ४६॥

मूल

काल कराल बिलोकहु होइ सचेत।
राम नाम जपु तुलसी प्रीति समेत॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! सावधान होकर भयंकर काल-(मृत्यु) को (समीप) देखो और प्रेमपूर्वक श्रीराम-नामका जप करो॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकट सोच बिमोचन मंगल गेह।
तुलसी राम नाम पर करिय सनेह॥ ४७॥

मूल

संकट सोच बिमोचन मंगल गेह।
तुलसी राम नाम पर करिय सनेह॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! सब प्रकारके संकट एवं शोकको नष्ट करनेवाले तथा सम्पूर्ण मंगलोंके निकेतन श्रीराम-नामसे प्रेम करना चाहिये॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि नहिं ग्यान बिराग न जोग समाधि।
राम नाम जपु तुलसी नित निरुपाधि॥ ४८॥

मूल

कलि नहिं ग्यान बिराग न जोग समाधि।
राम नाम जपु तुलसी नित निरुपाधि॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! कलियुगमें न ज्ञान सम्भव है न वैराग्य, न योग ही सध सकता है, फिर समाधिकी तो कौन कहे। (अतः इस युगमें) नित्य (सर्वदा) विघ्नरहित राम-नामका जप करो॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम दुइ आखर हियँ हितु जान।
राम लखन सम तुलसी सिखब न आन॥ ४९॥

मूल

राम नाम दुइ आखर हियँ हितु जान।
राम लखन सम तुलसी सिखब न आन॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! राम-नामके दो अक्षरोंको राम-लक्ष्मणके समान हृदयसे (अपना) हितकारी समझो और किसी शिक्षाको मनमें स्थान मत दो॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माय बाप गुरु स्वामि राम कर नाम।
तुलसी जेहि न सोहाइ ताहि बिधि बाम॥ ५०॥

मूल

माय बाप गुरु स्वामि राम कर नाम।
तुलसी जेहि न सोहाइ ताहि बिधि बाम॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! रामका नाम ही (तुम्हारे लिये) माता, पिता, गुरु और स्वामी है। जिसे यह अच्छा न लगे, उसके लिये विधाता प्रतिकूल है (जन्म-मरणके चक्रमें भटकना ही उसके भाग्यमें बदा है।)॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम जपु तुलसी होइ बिसोक।
लोक सकल कल्यान नीक परलोक॥ ५१॥

मूल

राम नाम जपु तुलसी होइ बिसोक।
लोक सकल कल्यान नीक परलोक॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! शोक (चिन्ता) रहित होकर राम-नामका जप करो। इससे इस लोकमें सब प्रकारसे कल्याण और परलोकमें भी भला होगा॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तप तीरथ मख दान नेम उपबास।
सब ते अधिक राम जपु तुलसीदास॥ ५२॥

मूल

तप तीरथ मख दान नेम उपबास।
सब ते अधिक राम जपु तुलसीदास॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! जो तपस्या, तीर्थयात्रा, यज्ञ, दान, नियम-पालन, उपवास आदि सबसे अधिक (फलदाता) हैं, उस राम-नामका जप करो॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महिमा राम नाम कै जान महेस।
देत परम पद कासीं करि उपदेस॥ ५३॥

मूल

महिमा राम नाम कै जान महेस।
देत परम पद कासीं करि उपदेस॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम-नामकी महिमा शंकरजी जानते हैं, जो काशीमें (मरते हुए प्राणीको) उसका उपदेश करके परम पद (मोक्ष) देते हैं॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जान आदि कबि तुलसी नाम प्रभाउ।
उलटा जपत कोल ते भए रिषि राउ॥ ५४॥

मूल

जान आदि कबि तुलसी नाम प्रभाउ।
उलटा जपत कोल ते भए रिषि राउ॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि आदिकवि वाल्मीकिजीने राम-नामका प्रभाव जाना था, जिसका उलटा जप करके वे कोल-(ब्याध) से ऋषिराज हो गये॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलसजोनि जियँ जानेउ नाम प्रतापु।
कौतुक सागर सोखेउ करि जियँ जापु॥ ५५॥

मूल

कलसजोनि जियँ जानेउ नाम प्रतापु।
कौतुक सागर सोखेउ करि जियँ जापु॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि अगस्त्यने हृदयसे (राम) नामका प्रताप जाना, जिन्होंने मनमें ही उसका जप करके खेल-ही-खेलमें समुद्रको सोख लिया॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी सुमिरत राम सुलभ फल चारि।
बेद पुरान पुकारत कहत पुरारि॥ ५६॥

मूल

तुलसी सुमिरत राम सुलभ फल चारि।
बेद पुरान पुकारत कहत पुरारि॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामका स्मरण करनेसे ही (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) चारों फल सुलभ हो जाते हैं। (यह बात) वेद-पुराण पुकारकर कहते हैं और शंकरजी भी कहते हैं॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम पर तुलसी नेह निबाहु।
एहि ते अधिक न एहि सम जीवन लाहु॥ ५७॥

मूल

राम नाम पर तुलसी नेह निबाहु।
एहि ते अधिक न एहि सम जीवन लाहु॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! राम-नामसे प्रेमका निर्वाह करो। इससे अधिक तो क्या इसके बराबर भी जीवनका कोई (दूसरा) लाभ नहीं है॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोस दुरित दुख दारिद दाहक नाम।
सकल सुमंगल दायक तुलसी राम॥ ५८॥

मूल

दोस दुरित दुख दारिद दाहक नाम।
सकल सुमंगल दायक तुलसी राम॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! राम-नाम समस्त दोषों, पापों, दुःखों और दरिद्रताको जला डालनेवाला तथा सम्पूर्ण श्रेष्ठ मंगलोंको देनेवाला है॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केहि गिनती मह गिनती जस बन घास।
राम जपत भए तुलसी तुलसीदास॥ ५९॥

मूल

केहि गिनती मह गिनती जस बन घास।
राम जपत भए तुलसी तुलसीदास॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि मैं किस गिनतीमें था, मेरी तो वह दशा थी जो वनकी घासकी होती है, किंतु राम-नामका जप करनेसे वही मैं तुलसी (के समान पवित्र एवं आदरणीय) हो गया!॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगम निगम पुरान कहत करि लीक।
तुलसी राम नाम कर सुमिरन नीक॥ ६०॥

मूल

आगम निगम पुरान कहत करि लीक।
तुलसी राम नाम कर सुमिरन नीक॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—तन्त्रशास्त्र, वेद तथा पुराण रेखा खींचकर (निश्चयपूर्वक कहते हैं कि) राम-नाम-स्मरण (सबसे) उत्तम है॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमिरहु नाम राम कर सेवहु साधु।
तुलसी उतरि जाहु भव उदधि अगाधु॥ ६१॥

मूल

सुमिरहु नाम राम कर सेवहु साधु।
तुलसी उतरि जाहु भव उदधि अगाधु॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं—अरे मन! राम-नामका स्मरण करो और सत्पुरुषोंकी सेवा करो। (इस प्रकार) अपार संसार-सागरके पार उतर जाओ॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामधेनु हरि नाम कामतरु राम।
तुलसी सुलभ चारि फल सुमिरत नाम॥ ६२॥

मूल

कामधेनु हरि नाम कामतरु राम।
तुलसी सुलभ चारि फल सुमिरत नाम॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामका नाम कामधेनु है और उनका रूप कल्पवृक्षके समान है। श्रीराम-नामका स्मरण करनेसे ही चारों फल सुलभ हो जाते (सरलतासे मिल जाते) हैं॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी कहत सुनत सब समुझत कोय।
बड़े भाग अनुराग राम सन होय॥ ६३॥

मूल

तुलसी कहत सुनत सब समुझत कोय।
बड़े भाग अनुराग राम सन होय॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि (श्रीरामसे प्रेम करनेकी बात) कहते-सुनते तो सब हैं, किंतु समझता (आचरणमें लाता) कोई ही है। बड़ा सौभाग्य (उदय) होनेपर श्रीरामसे प्रेम होता है॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकहि एक सिखावत जपत न आप।
तुलसी राम प्रेम कर बाधक पाप॥ ६४॥

मूल

एकहि एक सिखावत जपत न आप।
तुलसी राम प्रेम कर बाधक पाप॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(लोग) एक-दूसरेको (नाम-जपकी) शिक्षा तो देते हैं, किंतु स्वयं जप नहीं करते। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामके प्रेममें बाधा देनेवाला उनका पाप ही है॥ ६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरत कहत सब सब कहँ सुमिरहु राम।
तुलसी अब नहिं जपत समुझि परिनाम॥ ६५॥

मूल

मरत कहत सब सब कहँ सुमिरहु राम।
तुलसी अब नहिं जपत समुझि परिनाम॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि सब लोग सभी मरणासन्न व्यक्तियोंसे कहते हैं—‘रामका स्मरण करो’, किंतु सबका परिणाम (निश्चित मृत्यु है, यह) समझकर अभी (जीवनकालमें ही नामका) जप नहीं करते॥ ६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी राम नाम जपु आलस छाँडु।
राम बिमुख कलि काल को भयो न भाँडु॥ ६६॥

मूल

तुलसी राम नाम जपु आलस छाँडु।
राम बिमुख कलि काल को भयो न भाँडु॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि आलस्यको छोड़ दो और राम-नामका जप करो। रामसे विमुख होकर इस कलियुगमें कौन भाँड़ (नाना रूप बनाकर बहुरूपियेके समान घूमनेको विवश) नहीं हुआ॥ ६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी राम नाम सम मित्र न आन।
जो पहुँचाव राम पुर तनु अवसान॥ ६७॥

मूल

तुलसी राम नाम सम मित्र न आन।
जो पहुँचाव राम पुर तनु अवसान॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि राम-नामके समान दूसरा कोई मित्र नहीं है, जो शरीरका अन्त होनेपर (जीवको) श्रीरामके धाममें पहुँचा देता है॥ ६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भरोस नाम बल नाम सनेहु।
जनम जनम रघुनंदन तुलसी देहु॥ ६८॥

मूल

राम भरोस नाम बल नाम सनेहु।
जनम जनम रघुनंदन तुलसी देहु॥ ६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

(प्रार्थना करते हुए गोस्वामीजी कहते हैं—) हे रघुनाथजी! इस तुलसीदासको तो जन्म-जन्ममें अपना भरोसा, अपने नामका बल और अपने नाममें प्रेम दीजिये॥ ६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम जनम जहँ जहँ तनु तुलसिहि देहु।
तहँ तहँ राम निबाहिब नाथ सनेहु॥ ६९॥

मूल

जनम जनम जहँ जहँ तनु तुलसिहि देहु।
तहँ तहँ राम निबाहिब नाथ सनेहु॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप जन्म-जन्ममें जहाँ-जहाँ (जिस-जिस योनिमें) तुलसीदासको शरीर-धारण करायें, वहाँ-वहाँ हे मेरे स्वामी श्रीराम! मेरे साथ स्नेहका निर्वाह करें (मुझपर स्नेह रखें।)॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरवै रामायण समाप्त

मूलम् (समाप्तिः)

बरवै रामायण समाप्त

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