विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरह आगि उर ऊपर जब अधिकाइ।
ए अँखियाँ दोउ बैरिनि देहिं बुझाइ॥ ३६॥
मूल
बिरह आगि उर ऊपर जब अधिकाइ।
ए अँखियाँ दोउ बैरिनि देहिं बुझाइ॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीजानकीजी कहती हैं—) हृदयमें जब वियोगकी अग्नि भड़क उठती है, तब मेरी शत्रु ये दोनों आँखें (आँसू बहाकर) उसे बुझा देती हैं; (उस अग्निमें मुझे जल नहीं जाने देतीं।)॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
डहकनि है उजिअरिया निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लागु मोहि बिनु राम॥ ३७॥
मूल
डहकनि है उजिअरिया निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लागु मोहि बिनु राम॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह फैली हुई रात्रिकी चाँदनी नहीं है (दुःखदायिनी) धूप है। मुझे श्रीरामके बिना (समस्त) जगत् जलता-सा लगता है’॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब जीवन कै है कपि आस न कोइ।
कनगुरिया कै मुदरी कंकन होइ॥ ३८॥
मूल
अब जीवन कै है कपि आस न कोइ।
कनगुरिया कै मुदरी कंकन होइ॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान्! अब जीवित रहनेकी कोई आशा नहीं है। (तुम देखते ही हो कि) कनिष्ठिका अँगुलीकी अँगूठी अब कंगन बन गयी (उसे हाथमें कंगनके समान पहन सकती हूँ, इतना दुर्बल शरीर हो गया है।)॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम सुजस कर चहु जुग होत प्रचार।
असुरन कहँ लखि लागत जग अँधियार॥ ३९॥
मूल
राम सुजस कर चहु जुग होत प्रचार।
असुरन कहँ लखि लागत जग अँधियार॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीरामके सुयशका प्रचार चारों युगोंमें होता है, किंतु असुरोंको देखकर लगता है कि संसारमें अँधेरा (अन्याय ही व्याप्त) है (अर्थात् इस समय श्रीरामका यश राक्षसोंके अत्याचारमें छिप गया है।)’॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिय बियोग दुख केहि बिधि कहउँ बखानि।
फूल बान ते मनसिज बेधत आनि॥ ४०॥
मूल
सिय बियोग दुख केहि बिधि कहउँ बखानि।
फूल बान ते मनसिज बेधत आनि॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
(हनुमान् जी श्रीरामजीसे कहते हैं—) ‘श्रीजानकीजीके दुःखका वर्णन किस प्रकार करूँ। कामदेव आकर उन्हें (अपने) पुष्पबाणसे बींधता रहता है’॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरद चाँदनी सँचरत चहुँ दिसि आनि।
बिधुहि जोरि कर बिनवति कुलगुरु जानि॥ ४१॥
मूल
सरद चाँदनी सँचरत चहुँ दिसि आनि।
बिधुहि जोरि कर बिनवति कुलगुरु जानि॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब शरद्-ऋतुके चन्द्रमाकी चाँदनी प्रकट होकर चारों दिशाओंमें (सब ओर) फैल जाती है, तब (वह श्रीजानकीजीको सूर्यकी धूपके समान ऐसी उष्ण लगती है कि) चन्द्रमाको अपने कुल-(सूर्यवंश) का प्रवर्तक (सूर्य) समझकर हाथ जोड़कर (उससे) प्रार्थना करती है’॥ ४१॥