०३ अयोध्याकाण्ड

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात दिवस भए साजत सकल बनाउ।
का पूछहु सुठि राउर सरल सुभाउ॥ २०॥

मूल

सात दिवस भए साजत सकल बनाउ।
का पूछहु सुठि राउर सरल सुभाउ॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

(मन्थरा महारानी कैकेयीजीसे कहती है कि श्रीरामके राज्याभिषेकके लिये) सब प्रकारकी तैयारियाँ करते—साज सजाते (महाराजको) सात दिन हो गये हैं! (आप अब) क्या पूछती हैं, आपका स्वभाव बहुत ही सीधा है॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजभवन सुख बिलसत सिय सँग राम।
बिपिन चले तजि राज सो बिधि बड़ बाम॥ २१॥

मूल

राजभवन सुख बिलसत सिय सँग राम।
बिपिन चले तजि राज सो बिधि बड़ बाम॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम राजभवनमें श्रीजानकीके साथ (नाना प्रकारसे) सुख भोग रहे थे; किंतु वही राज्य छोड़कर वनके लिये चल पड़े। विधाताकी बड़ी ही विपरीत चाल है॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोउ कह नर नारायन हरि हर कोउ।
कोउ कह बिहरत बन मधु मनसिज दोउ॥ २२॥

मूल

कोउ कह नर नारायन हरि हर कोउ।
कोउ कह बिहरत बन मधु मनसिज दोउ॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

(मार्गमें श्रीराम-लक्ष्मणको देखनेपर) कोई कहता है कि ‘ये नर और नारायण ऋषि हैं’, कोई कहता है कि ‘ये विष्णु और शिव हैं’ और कोई कहता है कि ‘वनमें वसन्त और कामदेव दोनों विहार कर रहे हैं’॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी भइ मति बिथकित करि अनुमान।
राम लखन के रूप न देखेउ आन॥ २३॥

मूल

तुलसी भइ मति बिथकित करि अनुमान।
राम लखन के रूप न देखेउ आन॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि (मार्गवासियोंकी) बुद्धि अनुमान करते-करते थक गयी। श्रीराम-लक्ष्मणके समान दूसरा कोई (देवतादिका) रूप नहीं दिखायी पड़ा॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी जनि पग धरहु गंग मह साँच।
निगानाँग करि नितहि नचाइहि नाच॥ २४॥

मूल

तुलसी जनि पग धरहु गंग मह साँच।
निगानाँग करि नितहि नचाइहि नाच॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी (केवटके शब्दोंको दुहराते प्रभुसे) कहते हैं—गंगामें (खड़े होकर मैं) सच कह रहा हूँ कि (आप मेरी नौकापर) चरण मत रखें, (नहीं तो नौका स्त्रीके रूपमें बदल जायगी और मेरी स्त्री मुझे एक और स्त्रीके साथ देखकर) नित्य ही सर्वथा नंगा करके नाच नचाया करेगी॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सजल कठौता कर गहि कहत निषाद।
चढ़हु नाव पग धोइ करहु जनि बाद॥ २५॥

मूल

सजल कठौता कर गहि कहत निषाद।
चढ़हु नाव पग धोइ करहु जनि बाद॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

निषाद हाथमें जल भरा कठौता लेकर (प्रभुसे) कहता है—‘चरण धोकर नौकापर चढ़िये, तर्क-वितर्क मत कीजिये’॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कमल कंटकित सजनी कोमल पाइ।
निसि मलीन यह प्रफुलित नित दरसाइ॥ २६॥

मूल

कमल कंटकित सजनी कोमल पाइ।
निसि मलीन यह प्रफुलित नित दरसाइ॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ग्राम-नारियाँ श्रीराम-लक्ष्मण तथा जानकीजी-को मार्गमें जाते देखकर कहती हैं—) सखी! कमल तो काँटोंसे युक्त होता है; इनके चरण तो (उससे भी) कोमल हैं। (इतना ही नहीं,) वह रात्रिमें म्लान (बंद) हो जाता है, ये नित्य प्रफुल्लित दीखते हैं॥ २६॥

विषय (हिन्दी)

वाल्मीकिवचन

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वै भुज करि हरि रघुबर सुंदर बेष।
एक जीभ कर लछिमन दूसर सेष॥ २७॥

मूल

द्वै भुज करि हरि रघुबर सुंदर बेष।
एक जीभ कर लछिमन दूसर सेष॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि वाल्मीकीजीने कहा—‘सुन्दर वेषधारी श्रीरघुनाथजी द्विभुज विष्णु हैं और लक्ष्मणजी एक जिह्वावाले दूसरे शेषनाग हैं’॥ २७॥