०२ बालकाण्ड

विश्वास-प्रस्तुतिः

बड़े नयन कुटि भृकुटी भाल बिसाल।
तुलसी मोहत मनहि मनोहर बाल॥ १॥

मूल

बड़े नयन कुटि भृकुटी भाल बिसाल।
तुलसी मोहत मनहि मनोहर बाल॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि (बालक श्रीरामके) नेत्र बड़े-बड़े हैं, भौंहें टेढ़ी हैं, ललाट विशाल (चौड़ा) है, यह मनोहर बालक मनको मोह लेता है॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुंकुम तिलक भाल श्रुति कुंडल लोल।
काकपच्छ मिलि सखि कस लसत कपोल॥ २॥

मूल

कुंकुम तिलक भाल श्रुति कुंडल लोल।
काकपच्छ मिलि सखि कस लसत कपोल॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अयोध्याके राजभवनकी स्त्रियाँ कहती हैं—) सखी! श्रीरामके ललाटपर केसरका तिलक है, कानोंमें चंचल कुण्डल हैं और जुल्फोंसे मिलकर गोल-गोल गाल कैसे सुशोभित हो रहे हैं॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाल तिलक सर सोहत भौंह कमान।
मुख अनुहरिया केवल चंद समान॥ ३॥

मूल

भाल तिलक सर सोहत भौंह कमान।
मुख अनुहरिया केवल चंद समान॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मस्तकपर तिलककी रेखा बाणके समान शोभा दे रही है और भौंहें धनुषके समान हैं। मुखकी तुलनामें तो अकेला (पूर्णिमाका) चन्द्रमा ही आ सकता है॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसी बंक बिलोकनि मृदु मुसकानि।
कस प्रभु नयन कमल अस कहौं बखानि॥ ४॥

मूल

तुलसी बंक बिलोकनि मृदु मुसकानि।
कस प्रभु नयन कमल अस कहौं बखानि॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि (श्रीरामकी) चितवन तिरछी है, मन्द-मन्द मुसकान उनके ओठोंपर खेल रही है। प्रभुके नेत्रोंको कमलके समान कहकर कैसे वर्णन करूँ, (क्योंकि ये नेत्र तो नित्य प्रफुल्लित रहते हैं और कमल रात्रिमें कुम्हला जाता है।)॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चढ़त दसा यह उतरत जात निदान।
कहौं न कबहूँ करकस भौंह कमान॥ ५॥

मूल

चढ़त दसा यह उतरत जात निदान।
कहौं न कबहूँ करकस भौंह कमान॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामकी) भौंहोंको मैं कभी भी कठोर धनुषके समान नहीं कहूँगा; क्योंकि उस धनुषकी दशा यह है कि वह एक बार (शत्रुके साथ मुठभेड़ होनेपर) तो तन जाता है और अन्तमें (काम होनेपर—प्रत्यंचासे हाथ हटा लिये जानेपर क्रमशः) उतरता जाता (ढीला कर दिया जाता) है (इधर प्रभुकी भौंहें कोमल हैं तथा सदा बाँकी रहती हैं)॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम रूप सम तुलसी राम सरूप।
को कबि समसरि करै परै भवकूप॥ ६॥

मूल

काम रूप सम तुलसी राम सरूप।
को कबि समसरि करै परै भवकूप॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसा कौन कवि है, जो श्रीरामके स्वरूपकी तुलना कामदेवके रूपसे करके (इस अपराधसे) संसाररूपी कुएँ (आवागमनके चक्र)-में पड़ेगा॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधु सुसील सुमति सुचि सरल सुभाव।
राम नीति रत काम कहा यह पाव॥ ७॥

मूल

साधु सुसील सुमति सुचि सरल सुभाव।
राम नीति रत काम कहा यह पाव॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम साधु (परम सज्जन), उत्तम शीलसम्पन्न, उत्तम बुद्धिवाले, पवित्र, सरल स्वभावके तथा न्यायपरायण हैं, भला कामदेव यह (सब) कहाँ पा सकता है॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सींक धनुष हित सिखन सकुचि प्रभु लीन।
मुदित माँगि इक धनुही नृप हँसि दीन॥ ८॥

मूल

सींक धनुष हित सिखन सकुचि प्रभु लीन।
मुदित माँगि इक धनुही नृप हँसि दीन॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

संकोचके साथ प्रभुने (धनुष चलाना) सीखनेके लिये (हाथमें) एक तिनकेका धनुष लिया। (यह देख) प्रसन्न होकर महाराज दशरथने एक धनुही (नन्हा धनुष) मँगाकर हँसकर उन्हें दिया॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केस मुकुत सखि मरकत मनिमय होत।
हाथ लेत पुनि मुकुता करत उदोत॥ ९॥

मूल

केस मुकुत सखि मरकत मनिमय होत।
हाथ लेत पुनि मुकुता करत उदोत॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामरूपका वर्णन करनेके अनन्तर अब श्रीजानकीजीके रूपका वर्णन करते हैं। जनकपुर-की स्त्रियाँ परस्पर कह रही हैं—) सखी! (श्रीजनककुमारीके) केशोंमें गूँथे जानेपर (उनका नीले रंगकी झाईं पड़नेसे) मोती मरकतमणि (पन्ने)-के बने हुए (हरे) प्रतीत होते हैं, किन्तु फिर हाथमें लिये जानेपर वे श्वेत आभा बिखेरने लगते हैं॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम सुबरन सुषमाकर सुखद न थोर।
सिय अंग सखि कोमल कनक कठोर॥ १०॥

मूल

सम सुबरन सुषमाकर सुखद न थोर।
सिय अंग सखि कोमल कनक कठोर॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखी! स्वर्ण शोभा (कान्ति)-में तो श्रीजानकीके श्रीअंगोंके समान है, किन्तु उनकी तुलनामें थोड़ा भी सुखदायी (शीतल) नहीं है और श्रीजानकीके अंग कोमल हैं, पर स्वर्ण कठोर है॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिय मुख सरद कमल जिमि किमि कहि जाइ।
निसि मलीन वह निसि दिन यह बिगसाइ॥ ११॥

मूल

सिय मुख सरद कमल जिमि किमि कहि जाइ।
निसि मलीन वह निसि दिन यह बिगसाइ॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीसीताजीका मुख शरद्-ऋतुके कमलके समान कैसे कहा जाय, क्योंकि वह (कमल) तो रात्रिमें म्लान होता है, किंतु यह (श्रीमुख) रात-दिन (समानरूपसे) प्रफुल्लित रहता है॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सोहाइ।
जानि परै सिय हिवरें जब कुँभिलाइ॥ १२॥

मूल

चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सोहाइ।
जानि परै सिय हिवरें जब कुँभिलाइ॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

चम्पाके पुष्पकी माला श्रीजानकीजीके अंगसे सटकर बहुत शोभा देती है, किंतु (वह उनके शरीरकी कान्तिमें ऐसी मिल जाती है कि) उनके हृदयपर माला है, यह पता तब लगता है, जब वह कुम्हला जाती (कुछ सूख जाती) है॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिय तुव अंग रंग मिलि अधिक उदोत।
हार बेल पहिरावौं चंपक होत॥ १३॥

मूल

सिय तुव अंग रंग मिलि अधिक उदोत।
हार बेल पहिरावौं चंपक होत॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सखी श्रीजानकीजीसे ही कहती है—) जानकी! तुम्हारे शरीरके रंगसे मिलकर पुष्पहार अधिक प्रकाशित होता है और तो और (तुम्हारे अंगकी स्वर्णकान्तिके कारण) बेला (मोगरा)-के पुष्पोंकी माला मैं (तुम्हें) पहनाती हूँ तो वह भी चम्पाके पुष्पकी माला जान पड़ती है॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्य नेम कृत अरुन उदय जब कीन।
निरखि निसाकर नृप मुख भए मलीन॥ १४॥

मूल

नित्य नेम कृत अरुन उदय जब कीन।
निरखि निसाकर नृप मुख भए मलीन॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अब श्रीजानकी-स्वयंवरका वर्णन करते हैं। जनकपुरमें स्वयंवरके दिन प्रातःकाल श्रीराम-लक्ष्मणने) जब अरुणोदय हुआ तब नित्य-नियम (संध्यादि) किया। उन्हें देखकर चन्द्रमाके समान (दूसरे आगत) राजाओंके मुख कान्तिहीन हो गये॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कमठ पीठ धनु सजनी कठिन अँदेस।
तमकि ताहि ए तोरिहिं कहब महेस॥ १५॥

मूल

कमठ पीठ धनु सजनी कठिन अँदेस।
तमकि ताहि ए तोरिहिं कहब महेस॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

(स्वयंवरसभामें जनकपुरकी नारियाँ श्रीरामको देखकर परस्पर कह रही हैं—) सखी! यही संदेहकी बात है कि धनुष कछुएकी पीठके समान कठोर है। (तब दूसरी सखी कहती है—) उसे ये बड़े तपाकके साथ तोड़ देंगे, स्वयं शंकरजी (अपने धनुषके टूट जानेको) कह देंगे॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृप निरास भए निरखत नगर उदास।
धनुष तोरि हरि सब कर हरेउ हरास॥ १६॥

मूल

नृप निरास भए निरखत नगर उदास।
धनुष तोरि हरि सब कर हरेउ हरास॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त नरेश (धनुष तोड़नेमें असफल होकर) निराश हो गये। (इससे) पूरा नगर (समस्त जनकपुरवासियोंका समुदाय) उदास दिखायी देने लगा। तब श्रीरामने धनुषको तोड़कर सबका दुःख (चिन्ता) दूर कर दिया॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

का घूँघट मुख मूदहु नवला नारि।
चाँद सरग पर सोहत यहि अनुहारि॥ १७॥

मूल

का घूँघट मुख मूदहु नवला नारि।
चाँद सरग पर सोहत यहि अनुहारि॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

(विवाहके अनन्तर राजभवनमें सखियाँ श्रीजानकीजी और श्रीरामके मिलनके समय श्रीजानकीजीसे कहती हैं—) ‘हे नवीना (मुग्धा) नारी! घूँघटसे मुख क्यों छिपा रही हो, इसीके-जैसा चन्द्रमा आकाशमें शोभित है (उसे तो सब देखते ही हैं)॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गरब करहु रघुनंदन जनि मन माहँ।
देखहु आपनि मूरति सिय कै छाहँ॥ १८॥

मूल

गरब करहु रघुनंदन जनि मन माहँ।
देखहु आपनि मूरति सिय कै छाहँ॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर सखियाँ श्रीरामसे विनोद करती कहती हैं—) रघुनन्दन! तुम अपने मनमें (अपने सौन्दर्यका) गर्व मत करो। तुम्हारी मूर्ति (साँवली होनेके कारण) श्रीजानकीजीकी छायाके समान है, यह देख लो॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उठीं सखीं हँसि मिस करि कहि मृदु बैन।
सिय रघुबर के भए उनीदे नैन॥ १९॥

मूल

उठीं सखीं हँसि मिस करि कहि मृदु बैन।
सिय रघुबर के भए उनीदे नैन॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

(विनोदके अनन्तर) सखियाँ हँसकर यह कोमल वाणी कहती हुई जानेका बहाना बनाकर उठीं कि श्रीजानकी और रघुनाथजीके नेत्र अब नींदसे भर गये हैं। (इन्हें अब सोने देना चाहिये।)॥ १९॥