राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२०१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज तैं पावस पै न टरी।
सिसिर, बसंत, सरद गत सजनी, बीती औधि करी॥
उनै-उनै घन बरसत चख, उर सरिता सलिल-भरी।
कुमकुम-कज्जल-कीच बहै जनु, कुच-जुग पारि परी॥
तामें प्रगट बिषम ग्रीषम रितु, तिहि अति ताप धरी।
सूरदास-प्रभु कुमुद-बंधु बिनु बिरहा-तरनि जरी॥
मूल
ब्रज तैं पावस पै न टरी।
सिसिर, बसंत, सरद गत सजनी, बीती औधि करी॥
उनै-उनै घन बरसत चख, उर सरिता सलिल-भरी।
कुमकुम-कज्जल-कीच बहै जनु, कुच-जुग पारि परी॥
तामें प्रगट बिषम ग्रीषम रितु, तिहि अति ताप धरी।
सूरदास-प्रभु कुमुद-बंधु बिनु बिरहा-तरनि जरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! शिशिर, वसन्त और शरद्-ऋतु (तो) अपनी अवधिको पूर्ण करके चली गयीं; किंतु व्रजसे वर्षा नहीं हटी। नेत्ररूपी बादल उमड़-उमड़कर वर्षा करते रहते हैं, (जिससे) हृदयपर (-से बहनेवाली) नदी पानीसे भरी ही रहती है। उसमें कुंकुम और काजल कीचड़-समान बहते हैं, दोनों स्तन उसके कगारे खड़े हैं। उनमें ग्रीष्म-ऋतु प्रत्यक्ष है, जिसने अत्यन्त उष्णता धारण कर रखी है। स्वामीरूपी चन्द्रमाके बिना हम वियोगरूपी सूर्यसे जली जा रही हैं।
विषय (हिन्दी)
(२०२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये दिन रूसिबे के नाहीं।
कारी घटा, पौन झकझोरै, लता तरुन लपटाहीं॥
दादुर, मोर, चकोर, मधुप, पिक बोलत अमृत-बानी।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिनु बैरिन रितु नियरानी॥
मूल
ये दिन रूसिबे के नाहीं।
कारी घटा, पौन झकझोरै, लता तरुन लपटाहीं॥
दादुर, मोर, चकोर, मधुप, पिक बोलत अमृत-बानी।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिनु बैरिन रितु नियरानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—मोहन!) ये दिन रूठनेके नहीं हैं। (देखो) काली घटा उठ रही है, वायुके (शीतल) झकोरे चल रहे हैं (और इसके कारण) लताएँ वृक्षोंसे लिपटी जा रही हैं। मेढक, मयूर, पपीहे, भौंरे और कोकिल अमृतभरी वाणी बोल रहे हैं। स्वामी! तुम्हारे दर्शनके बिना यह हमारी शत्रु (वर्षा)-ऋतु पास आ गयी है।
विषय (हिन्दी)
(२०३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब बरषा कौ आगम आयौ।
ऐसे निठुर भए नँदनंदन, संदेसौ न पठायौ॥
बादर घोर उठे चहुँ दिसि तैं, जलधर गरजि सुनायौ।
एकै सूल रही मेरें जिय, बहुरि नहीं ब्रज छायौ॥
दादुर, मोर, पपीहा बोलत, कोकिल सबद सुनायौ।
सूरदास के प्रभु सौं कहियौ, नैनन है झर लायौ॥
मूल
अब बरषा कौ आगम आयौ।
ऐसे निठुर भए नँदनंदन, संदेसौ न पठायौ॥
बादर घोर उठे चहुँ दिसि तैं, जलधर गरजि सुनायौ।
एकै सूल रही मेरें जिय, बहुरि नहीं ब्रज छायौ॥
दादुर, मोर, पपीहा बोलत, कोकिल सबद सुनायौ।
सूरदास के प्रभु सौं कहियौ, नैनन है झर लायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब वर्षा-ऋतुके लक्षण प्रकट हो गये हैं; किंतु नन्दनन्दन ऐसे निष्ठुर हो गये हैं कि उन्होंने संदेश भी नहीं भेजा। चारों ओरसे घनघोर घटाएँ उठ रही हैं, मेघोंकी गर्जना सुनायी पड़ती है; (किंतु) मेरे मनमें एक ही वेदना रह गयी है कि (मोहन) फिर व्रजमें नहीं पधारे। मेढक, मयूर और पपीहा बोल रहे हैं और कोकिल भी (अपना—पी कहाँ, पी कहाँ) बोल सुनाती है। अतएव स्वामीसे (कोई) कहना कि नेत्रोंने यहाँ झड़ी लगा दी है।
विषय (हिन्दी)
(२०४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सँदेसनि मधुबन-कूप भरे।
अपने तौ पठवत नहिं मोहन, हमरे फिरि न फिरे॥
जिते पथिक पठए मधुबन कौं, बहुरि न सोध करे।
कै वे स्याम सिखाइ प्रबोधे, कै कहुँ बीच मरे॥
कागद गरे मेघ, मसि खूटी, सर दौ लागि जरे।
सेवक सूर लिखन कौं आँधौ, पलक कपाट अरे॥
मूल
सँदेसनि मधुबन-कूप भरे।
अपने तौ पठवत नहिं मोहन, हमरे फिरि न फिरे॥
जिते पथिक पठए मधुबन कौं, बहुरि न सोध करे।
कै वे स्याम सिखाइ प्रबोधे, कै कहुँ बीच मरे॥
कागद गरे मेघ, मसि खूटी, सर दौ लागि जरे।
सेवक सूर लिखन कौं आँधौ, पलक कपाट अरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—सखी! हमारे) संदेशोंसे मथुराके कुएँ भर गये। मोहन स्वयं तो संदेश भेजते नहीं और हमने जो भेजे, वे फिर लौटे नहीं। जितने यात्री हमने मथुरा भेजे, उन्होंने फिर हमारी खोज नहीं ली। या तो उन्हें श्यामसुन्दरने सिखा-पढ़ाकर समझा दिया या (वे) बीच (मार्ग)-में ही मर गये अथवा (मथुरामें) कागज वर्षासे गल गये, स्याही समाप्त हो गयी और दावाग्नि लगनेसे सरकंडे (कलम बनानेके साधन) भस्म हो गये तथा संदेश लिखनेवाला सेवक सूरदास आँखोंका अंधा है, उसके नेत्रोंके पलकरूपी किंवाड़ अड़ गये (वह नेत्र नहीं खोल पाता है) अर्थात् वहाँ संदेश लिखनेके सब साधन समाप्त हो गये हैं!)
विषय (हिन्दी)
(२०५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
माई री, ये मेघ गाजैं।
मनहुँ काम कोपि चढ़ॺौ, कोलाहल कटक बढ़ॺौ, बरहा-पिक-
चातक जै-जै-निसान बाजैं॥
दामिनि करवारकरन, कंपत सब गात डरन, जलधर समेत
सेन इंद्र-धनुष साजैं।
अबलन अकेली करि, अपनी कुल-नीति बिसरि, अवधि संग
सकल सूर भैराइ भाजैं॥
मूल
माई री, ये मेघ गाजैं।
मनहुँ काम कोपि चढ़ॺौ, कोलाहल कटक बढ़ॺौ, बरहा-पिक-
चातक जै-जै-निसान बाजैं॥
दामिनि करवारकरन, कंपत सब गात डरन, जलधर समेत
सेन इंद्र-धनुष साजैं।
अबलन अकेली करि, अपनी कुल-नीति बिसरि, अवधि संग
सकल सूर भैराइ भाजैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) अरी सखी! ये मेघ (इस भाँति) गर्जना कर रहे हैं मानो क्रोध करके कामदेव चढ़ आया हो और उसीकी सेनाका यह (गर्जनरूप) कोलाहल बढ़ा हो तथा मयूर, कोकिल और पपीहेके शब्दरूपमें उसकी विजय-दुन्दुभि बज रही हो। बिजलीरूपी तलवार उसके हाथमें है, जिसके भयसे हमारा सब शरीर कँप रहा है तथा मेघोंकी सेनाके साथ उसका इन्द्रधनुष सजा हुआ है। (साथ ही वह काम) हम नारियोंको अकेली (श्याम-हीन) करके और अपने कुलकी नीति विस्मृतकर (यह चढ़ आया है; अतः मोहन तुम आओ!) अरे, तुम्हारे आनेकी अवधिके साथ ही ये सब शूरवीर (भी) हड़बड़ाकर (यहाँसे) भाग जायँगे।
विषय (हिन्दी)
(२०६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज पै बदरा आए गाजन।
मधुबन कोप ठए सुनि, सजनी, फौज मदन लग्यौ साजन॥
ग्रीवा रंध्र नैन चातक जल, पिक-मुख बाजे बाजन।
चहुँ दिसि तैं तन बिरहा घेरॺौ, कैसैं पावत भाजन॥
कहियत हुते स्याम पर-पीरक, आए संकट काजन।
सूरदास श्रीपति की महिमा, मथुरा लागे राजन॥
मूल
ब्रज पै बदरा आए गाजन।
मधुबन कोप ठए सुनि, सजनी, फौज मदन लग्यौ साजन॥
ग्रीवा रंध्र नैन चातक जल, पिक-मुख बाजे बाजन।
चहुँ दिसि तैं तन बिरहा घेरॺौ, कैसैं पावत भाजन॥
कहियत हुते स्याम पर-पीरक, आए संकट काजन।
सूरदास श्रीपति की महिमा, मथुरा लागे राजन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी! अब तो) व्रजपर बादल आकर गर्जने लगे हैं। सखी! श्यामसुन्दरके क्रोधवश मथुरामें बस जानेकी बात सुनकर कामदेव सेना सजाने लगा है। कण्ठ और नेत्रके छिद्रोंसे जल (अश्रु)-वर्षा हो रही है (जिससे प्राण निकलनेके ये मार्ग अवरुद्ध हो गये हैं तथा) पपीहे और कोकिलके मुखसे उसके विजय-वाद्य बज रहे हैं, चारों ओरसे शरीरको वियोगने घेर लिया है, अतः हम कैसे भाग सकती हैं। श्यामसुन्दर दूसरोंकी पीड़ा समझनेवाले कहे जाते हैं और विपत्तिमें हमारे काम भी आये हैं; किंतु अब उन श्रीपतिकी यह महिमा हो गयी कि (हमें छोड़कर) मथुरामें सुशोभित होने लगे हैं।
विषय (हिन्दी)
(२०७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखियत चहुँ दिसि तैं घन घोरे।
मानौ मत्त मदन के हथियनि बल करि बंधन तोरे॥
स्याम सुभग तन चुवत गंड मद, बरखत थोरे-थोरे।
रुकत न पवन-महावतहू पै, मुरत न अंकुस मोरे॥
मनौ निकसि बग-पंक्ति-दंत उर-अवधि सरोबर फोरे।
बिन बेला बल निकसि नैन-जल, कुच-कंचुकि-बँद बोरे॥
तब तिहिं समय आनि ऐरावति, ब्रजपति सौं कर जोरे।
अब सुनि सूर कान्ह-केहरि बिन, गरत गात ज्यौं ओरे॥
मूल
देखियत चहुँ दिसि तैं घन घोरे।
मानौ मत्त मदन के हथियनि बल करि बंधन तोरे॥
स्याम सुभग तन चुवत गंड मद, बरखत थोरे-थोरे।
रुकत न पवन-महावतहू पै, मुरत न अंकुस मोरे॥
मनौ निकसि बग-पंक्ति-दंत उर-अवधि सरोबर फोरे।
बिन बेला बल निकसि नैन-जल, कुच-कंचुकि-बँद बोरे॥
तब तिहिं समय आनि ऐरावति, ब्रजपति सौं कर जोरे।
अब सुनि सूर कान्ह-केहरि बिन, गरत गात ज्यौं ओरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) चारों ओरसे घनघोर बादल (उमड़ते) इस भाँति दिखायी पड़ रहे हैं, मानो कामदेवके मतवाले हाथियोंने बलपूर्वक अपने बन्धन तोड़ डाले हैं। उनका सुन्दर काला शरीर है, वे थोड़ी-थोड़ी (इस भाँति) वर्षा करते हैं (जैसे) उनके गण्डस्थलसे मद टपक रहा हो। वे पवनरूपी महावतके अंकुश मारकर मोड़ने (लौटाने)-पर भी न तो मुड़ते हैं और न रुकते हैं। बगुलोंकी पंक्ति ही मानो उनके दाँत हैं, जो सरोवररूपी उनके वक्षःस्थलकी सीमा फोड़कर बाहर निकल आये हैं। अस्तु, बिना समयके ही बलपूर्वक नेत्रोंका जल निकलकर वक्षःस्थलपर बँधी कंचुकीके बन्धनोंको डुबा रहा है। (जब इन्द्रने वर्षा की थी) तब तो ऐरावतके स्वामी इन्द्रने आकर व्रजराज (श्यामसुन्दर)-के हाथ जोड़े थे; किंतु अब सुनो, कन्हैयारूपी सिंहके बिना (भयसे) हमारे शरीर ऐसे गले (क्षीण होते) जाते हैं, जैसे ओले गलते हों।
विषय (हिन्दी)
(२०८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज पै सजि पावस दल आयौ।
धुरवा-धुंध उठी दसहूँ दिसि, गरज-निसान बजायौ॥
चातक, मोर, इतर पैदर गन, करत अवाजैं कोइल।
स्याम-घटा-गज, असनि बाजि-रथ, बिच बगपाँति सँजोइल॥
दामिनि-कर-करवाल, बूँद-सर, इहिं बिधि साजें सैन।
निधरक भयौ चल्यौ ब्रज आवत, अग्र फौजपति मैन॥
हम अबला जानिऐ तुमहि बल, कहौ, कौन बिधि कीजै।
सूर स्याम अब कैं या औसर आनि राखि ब्रज लीजै॥
मूल
ब्रज पै सजि पावस दल आयौ।
धुरवा-धुंध उठी दसहूँ दिसि, गरज-निसान बजायौ॥
चातक, मोर, इतर पैदर गन, करत अवाजैं कोइल।
स्याम-घटा-गज, असनि बाजि-रथ, बिच बगपाँति सँजोइल॥
दामिनि-कर-करवाल, बूँद-सर, इहिं बिधि साजें सैन।
निधरक भयौ चल्यौ ब्रज आवत, अग्र फौजपति मैन॥
हम अबला जानिऐ तुमहि बल, कहौ, कौन बिधि कीजै।
सूर स्याम अब कैं या औसर आनि राखि ब्रज लीजै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) वर्षा-ऋतु दल साजकर व्रजपर चढ़ आयी है और (उसने) दसों दिशाओंमें बादलोंके रूपमें धूलि उड़ाकर गर्जनारूपी नगारा बजा दिया है। पपीहा, मयूर तथा दूसरे पशु-पक्षी उसकी पैदल सेना हैं (जिसमें) कोयल (उसका) जयघोष कर रही है। ये काली घटाएँ (नहीं) उस सेनाके हाथी हैं, वज्रपात ही रथके घोड़े हैं, बीचमें बगुलोंकी पंक्ति ही घोड़ोंकी रासके रूपमें सँजोयी है। बिजली ही सैनिकोंके हाथकी तलवारें हैं और बूँदें ही बाण हैं। इस प्रकार सेना सजाकर उसके आगे चलनेवाला सेनापति कामदेव बिना हिचकके व्रजपर चढ़ा चला आ रहा है। श्यामसुन्दर! हम तो अबलाएँ हैं, तुम्हें ही अपना बल समझती हैं; बताओ, अब क्या उपाय करें? अबकी बार इस अवसरपर आकर व्रजको उबार लो।
विषय (हिन्दी)
(२०९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी री, पावस-सैन पलान्यौ।
पायौ बीच इंद्र अभिमानी, सूनौ गोकुल जान्यौ॥
दसहूँ दिसा सधूम देखियत, कंपति है अति देह।
मनौ चलत चतुरंग चमू नभ बाढ़ी है खुर-खेह॥
बोलत मोर सैल-द्रुम चढ़ि-चढ़ि, बग जु उड़त तरु डारैं।
मनु सहिया फरहरा फिरावत, भाजन कहत पुकारैं॥
गरजत गगन गयंद गुंजरत, दल दादुर दलकार।
सूर स्याम अपने या ब्रज की, लागत क्यौं न गुहार॥
मूल
सखी री, पावस-सैन पलान्यौ।
पायौ बीच इंद्र अभिमानी, सूनौ गोकुल जान्यौ॥
दसहूँ दिसा सधूम देखियत, कंपति है अति देह।
मनौ चलत चतुरंग चमू नभ बाढ़ी है खुर-खेह॥
बोलत मोर सैल-द्रुम चढ़ि-चढ़ि, बग जु उड़त तरु डारैं।
मनु सहिया फरहरा फिरावत, भाजन कहत पुकारैं॥
गरजत गगन गयंद गुंजरत, दल दादुर दलकार।
सूर स्याम अपने या ब्रज की, लागत क्यौं न गुहार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! व्रजपर पावस (वर्षा-ऋतु)-की सेना दौड़ती हुई चढ़ी आ रही है; क्योंकि अभिमानी इन्द्र गोकुलको (श्यामसुन्दरसे) सूना समझकर उसे (जीतनेका सुन्दर) अवसर पा गया है। दसों दिशाएँ धुएँसे भरी (इस प्रकार) दीखती हैं मानो (इन्द्रकी) चतुरंगिणी सेना चल रही हो और उसके घोड़ोंके खुरोंसे उड़ी धूलि आकाशमें छा गयी हो। (उसके भयसे हमारा) शरीर काँप रहा है। पर्वतों और वृक्षोंपर चढ़-चढ़कर मयूर बोलते हैं और वृक्षोंकी डालोंपर बगुले (इस भाँति) उड़ते हैं, मानो झंडा ले चलनेवाले झंडा उड़ा पुकारकर सबको भाग जानेको कहते हों। आकाशमें (मेघरूपी) हाथियोंके समूह गर्जना कर रहे हैं और मेढकोंके समूहका कोलाहल ही सेनाकी दलकार—पुकारना है। (ऐसी दशामें अहो) श्यामसुन्दर! अपने इस व्रजकी पुकार सुनकर तुम रक्षा करने क्यों नहीं आते?
विषय (हिन्दी)
(२१०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बदरिया बधन बिरहिनी आई।
मारू मोर ररत चातक-पिक, चढ़ि नग टेर सुनाई॥
दामिनि कर करबाल गहैं, अरु सायक बूँद बनाई।
मनमथ-फौज जोरि चहुँ दिसि तैं, ब्रज सनमुख ह्वै धाई॥
नदी सुभर, सँदेस क्यौं पठऊँ, बाट त्रिननहूँ छाई।
इक हम दीन हुतीं कान्हर बिन, औ इन्ह गरज सुनाई॥
सूनौ घोष, बैर तकि हम सौं, इन्द्र निसान बजाई।
सूरदास-प्रभु मिलहु कृपा करि, होति हमारी घाई॥
मूल
बदरिया बधन बिरहिनी आई।
मारू मोर ररत चातक-पिक, चढ़ि नग टेर सुनाई॥
दामिनि कर करबाल गहैं, अरु सायक बूँद बनाई।
मनमथ-फौज जोरि चहुँ दिसि तैं, ब्रज सनमुख ह्वै धाई॥
नदी सुभर, सँदेस क्यौं पठऊँ, बाट त्रिननहूँ छाई।
इक हम दीन हुतीं कान्हर बिन, औ इन्ह गरज सुनाई॥
सूनौ घोष, बैर तकि हम सौं, इन्द्र निसान बजाई।
सूरदास-प्रभु मिलहु कृपा करि, होति हमारी घाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) यह बदली हम वियोगिनियोंकी हत्या करने आयी है। मयूर पर्वतोंपर चढ़कर मारू (युद्धका) राग गा रहे हैं, पपीहे और कोकिल (भी) पुकार कर रहे हैं। हाथमें बिजलीरूपी तलवार पकड़कर, बूँदोंको बाण बनाकर तथा चारों ओरसे सेना एकत्र करके कामदेवने व्रजके सामने (ऊपर) धावा कर दिया है। नदियाँ अत्यन्त भरी हैं और मार्ग भी घासोंसे ढक गया है, (अतः मथुरा) संदेश कैसे भेजूँ? एक तो हम वैसे ही कन्हैयाके बिना दीन (असहाय) थीं और ऊपरसे इन (मेघों)-ने गर्जना प्रारम्भ कर दी है। (इससे ऐसा लगता है कि) व्रजको (श्यामसुन्दरसे) सूना जानकर और हमसे पुरानी शत्रुताका बदला लेनेका अवसर (आया) देखकर इन्द्रने नगारे बजा दिये हैं। स्वामी! कृपा करके (शीघ्र) मिलो, नहीं तो हमारी हत्या हुई जाती है।
राग बिहागरौ
विषय (हिन्दी)
(२११)
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्याम बिना उनए ये बदरा।
आज स्याम सपने में देखे, भरि आए नैन, ढरकि गयौ कजरा॥
चंचल, चपल अतिहिं चित चोरै, निसि जागत मोकौं भयौ पगरा।
सूरदास-प्रभु कबहिं मिलौगे, तजि गए गोकुल, मिटि गयौ झगरा॥
मूल
स्याम बिना उनए ये बदरा।
आज स्याम सपने में देखे, भरि आए नैन, ढरकि गयौ कजरा॥
चंचल, चपल अतिहिं चित चोरै, निसि जागत मोकौं भयौ पगरा।
सूरदास-प्रभु कबहिं मिलौगे, तजि गए गोकुल, मिटि गयौ झगरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दरके न रहनेसे ये बादल उमड़ आये हैं। आज मैंने स्वप्नमें श्यामको देखा (जिससे मेरे) नेत्र (आँसुओंसे) भर आये और उनका काजल बह गया। वे चंचल चपलतापूर्वक चित्तको सर्वथा चुरा लेते हैं। (इसलिये उनके स्मरणमें ही) रातमें जागते हुए मुझे सबेरा हो गया। स्वामी! आप (अब) कब मिलेंगे? आप तो व्रजको छोड़कर चले गये, अतः सब झंझट ही मिट गया (सर्वथा निश्चिन्त हो गये)।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२१२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरु ए बदरा बरषन आए।
अपनी अवधि जानि नँदनंदन, गरजि गगन घन छाए॥
कहियत हैं सुर-लोक बसत सखि! सेवक सदा पराए।
चातक, पिक की पीर जानि कैं, तेहु तहाँ तैं धाए॥
द्रुम किए हरित, हरखि बेली मिलीं, दादुर मृतक जिवाए।
साजे निबिड़ नीड़ तृन सँचि-सँचि, पछिनहूँ मन भाए॥
समझति नहीं चूक सखि! अपनी, बहुतै दिन हरि लाए।
सूरदास-प्रभु रसिक-सिरोमनि, मधुबन बसि बिसराए॥
मूल
बरु ए बदरा बरषन आए।
अपनी अवधि जानि नँदनंदन, गरजि गगन घन छाए॥
कहियत हैं सुर-लोक बसत सखि! सेवक सदा पराए।
चातक, पिक की पीर जानि कैं, तेहु तहाँ तैं धाए॥
द्रुम किए हरित, हरखि बेली मिलीं, दादुर मृतक जिवाए।
साजे निबिड़ नीड़ तृन सँचि-सँचि, पछिनहूँ मन भाए॥
समझति नहीं चूक सखि! अपनी, बहुतै दिन हरि लाए।
सूरदास-प्रभु रसिक-सिरोमनि, मधुबन बसि बिसराए॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) देखो, ये बादल तो वर्षा करने आ गये, पर हे नन्दनन्दन! (बादल तो) अपने लौटनेकी अवधि समझकर गर्जना करते हुए आकाशमें छा गये हैं (पर तुम नहीं आये)। सखी! कहा जाता है कि ये (मेघ) देवलोकमें रहते हैं और सदा दूसरेके (इन्द्रके) सेवक हैं; किंतु वे भी चातक और कोयलकी पीड़ा समझकर वहाँसे दौड़ आये हैं। उन्होंने (यहाँ आकर) वृक्षोंको हरा कर दिया, (जिससे) लताएँ हर्षित होकर उन (वृक्षोंसे) मिल गयीं और मरते हुए मेढकोंको जीवित कर दिया तथा पक्षियोंने भी अपनी इच्छानुसार तिनके एकत्र कर-करके सघन घोंसले सजा (बना) लिये। सखी! श्यामसुन्दरने अपनी भूल न समझकर ही मथुरामें उतने (अधिक) दिन लगा दिये। हमारे स्वामी (तो) रसिकशिरोमणि हैं, फिर भी मथुरामें रहकर उन्होंने हमें भुला दिया।
विषय (हिन्दी)
(२१३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरि हरि आवहिंगे किहि काम।
रितु बसंत अरु ग्रीषम बीते, बादर आए स्याम॥
छिन मंदिर, छिन द्वारें ठाढ़ी, यौं सूखति हैं घाम।
तारे गनत गगन के, सजनी! बीतैं चारौ जाम॥
औरौ कथा सबै बिसराई, लेत तुम्हारौ नाम।
सूर स्याम ता दिन तैं बिछुरे, अस्थि रहे कै चाम॥
मूल
बहुरि हरि आवहिंगे किहि काम।
रितु बसंत अरु ग्रीषम बीते, बादर आए स्याम॥
छिन मंदिर, छिन द्वारें ठाढ़ी, यौं सूखति हैं घाम।
तारे गनत गगन के, सजनी! बीतैं चारौ जाम॥
औरौ कथा सबै बिसराई, लेत तुम्हारौ नाम।
सूर स्याम ता दिन तैं बिछुरे, अस्थि रहे कै चाम॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दर फिर हमारे किस काम आयेंगे, (जब कि) वसन्त और ग्रीष्म-ऋतु बीत गयीं और काले मेघ आ गये हैं। (मैं) क्षण घर और क्षणमें द्वारपर खड़ी धूपमें सूख रही हूँ, (और यही नहीं) सखी! रात्रिमें आकाशके तारे गिनते हुए (रात्रिके) चारों प्रहर बीतते हैं। श्यामसुन्दर! तुम्हारा नाम लेते-लेते और सब चर्चाएँ हमने भुला दी हैं। (सखी!) जिस दिन श्यामसुन्दरका वियोग हुआ, उसी दिनसे (शरीरमें) हड्डी और चमड़ा-भर रह गया है (अर्थात् अत्यन्त क्षीण हो गयी हूँ)।
विषय (हिन्दी)
(२१४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
किधौं घन गरजत नहिं उन देसनि।
कै हरि हरषि इंद्र हठि बरजे, दादुर खाए सेषनि॥
कै उहिं देस बगनि मग छाँड़े, घरनि न बूँद प्रबेसनि।
चातक-मोर-कोकिला उहिं बन, बधिकनि बधे बिसेषनि॥
कै उहिं देस बाल नहिं झूलतिं, गावतिं सखि न सुदेसनि।
सूरदास-प्रभु पथिक न चलहीं, कासौं कहौं सँदेसनि॥
मूल
किधौं घन गरजत नहिं उन देसनि।
कै हरि हरषि इंद्र हठि बरजे, दादुर खाए सेषनि॥
कै उहिं देस बगनि मग छाँड़े, घरनि न बूँद प्रबेसनि।
चातक-मोर-कोकिला उहिं बन, बधिकनि बधे बिसेषनि॥
कै उहिं देस बाल नहिं झूलतिं, गावतिं सखि न सुदेसनि।
सूरदास-प्रभु पथिक न चलहीं, कासौं कहौं सँदेसनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) उन देशोंमें (जहाँ श्यामसुन्दर रहते हैं) क्या मेघ नहीं गरजते, अथवा कृष्णचन्द्रने प्रसन्नतासे इन्द्रको ही आग्रहपूर्वक (वर्षा करनेसे) मना कर दिया और सर्पोंने (वहाँके) मेढकोंको खा लिया (वहाँ मेढक नहीं बोलते)? अथवा बगुलोंने उस देशका मार्ग छोड़ दिया और वहाँके घरोंमें (वर्षाकी) बूँदोंका प्रवेश नहीं होता? क्या वहाँके वनोंमें ब्याधोंने पपीहों, मयूरों और कोयलोंको विशेष रूपसे (ढूँढ़-ढूँढ़कर) मार डाला? अथवा उन सुन्दर देशोंमें युवतियाँ झूला नहीं झूलतीं और उनको सखियाँ (उन्हें झुलाती हुई) गीत नहीं गातीं? (इनमेंसे कोई बात होती तो उससे मोहनको हमारी स्मृति हो आती।) हाय! इधर कोई पथिक भी (तो वर्षाके कारण) आता-जाता नहीं। (अब) स्वामीके (पास भेजनेके) लिये किससे (यहाँ आनेका) संदेश कहूँ।
विषय (हिन्दी)
(२१५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटा! मधुबन पै बरषै जाइ।
हरि-घन स्याम बिना सब बिरहिनि-बेलि गईं कुम्हिलाइ॥
उग्र तेज जनु भानु तपत ससि, ब्याकुल मन अकुलाइ।
करैं कहा उपचार, सखी री! नैंक न तपन बुझाइ॥
कमल-नैन की सुरति जु आवत, तबै उठति तन ताइ।
सूर सुमरि गुन स्यामसुँदर के, सखी रहीं मुरझाइ॥
मूल
घटा! मधुबन पै बरषै जाइ।
हरि-घन स्याम बिना सब बिरहिनि-बेलि गईं कुम्हिलाइ॥
उग्र तेज जनु भानु तपत ससि, ब्याकुल मन अकुलाइ।
करैं कहा उपचार, सखी री! नैंक न तपन बुझाइ॥
कमल-नैन की सुरति जु आवत, तबै उठति तन ताइ।
सूर सुमरि गुन स्यामसुँदर के, सखी रहीं मुरझाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—) घटा! तू जाकर (अब) मथुरापर वर्षा कर। यहाँ तो कृष्णचन्द्ररूपी श्याम घनके बिना सब वियोगिनी (व्रजनारीरूप) लताएँ सूख गयी हैं। चन्द्रमा (उन्हें) ऐसा लगता है मानो प्रचण्ड तेजके साथ सूर्य तप रहा हो, जिससे चित्त व्याकुल होकर घबराने लगता है। सखी! क्या उपचार (ओषधि) करें, तनिक भी जलन शान्त नहीं होती। जब-जब कमललोचन (मोहन)-की स्मृति आती है, तभी-तभी शरीर संतप्त हो उठता है। सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दरके गुणोंका बार-बार स्मरण करके सखियाँ (गोपियाँ) म्लान हो रही (सूख रही) हैं।
विषय (हिन्दी)
(२१६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखौ, माई! स्याम-सुरति अब आवै।
दादुर, मोर, कोकिला बोलैं, पावस अगम जनावै॥
देखि घटा घन-चाप-दामिनी, मदन सिंगार बनावै।
बिरहिनि देखि अनाथ नाथ बिनु, चढ़ि-चढ़ि ब्रज पै आवै॥
कासौं कहौं, जाइ को हरि पै, यह संदेस सुनावै।
सूरदास-प्रभु मिलहु कृपा करि, व्रज-बनिता सचु पावै॥
मूल
देखौ, माई! स्याम-सुरति अब आवै।
दादुर, मोर, कोकिला बोलैं, पावस अगम जनावै॥
देखि घटा घन-चाप-दामिनी, मदन सिंगार बनावै।
बिरहिनि देखि अनाथ नाथ बिनु, चढ़ि-चढ़ि ब्रज पै आवै॥
कासौं कहौं, जाइ को हरि पै, यह संदेस सुनावै।
सूरदास-प्रभु मिलहु कृपा करि, व्रज-बनिता सचु पावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) देखो, सखी! अब श्यामसुन्दरकी याद आ रही है; (क्योंकि) मेढक, मयूर और कोकिल बोल-बोलकर वर्षा-ऋतुके आनेका लक्षण प्रकट कर रहे हैं। बादलोंकी घटामें इन्द्रधनुष और बिजलीको देखो—ऐसा लगता है मानो कामदेव अपना शृंगार बनाकर स्वामीके बिना हम वियोगिनियोंको अनाथ देखकर बार-बार व्रजपर चढ़ाई करता आता है। किससे कहूँ और कौन श्यामसुन्दरके पास जाकर यह संदेश कहेगा? हे स्वामी! कृपा करके (शीघ्र) मिलो, जिससे व्रजनारियाँ सुख पायें।
विषय (हिन्दी)
(२१७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हारौ गोकुल, हो ब्रजनाथ!
घेरॺौ है अरि मनमथ, लै चतुरंगिनि सेना साथ॥
गरजत अति गंभीर गिरा, मनु मयगल मत्त अपार।
धुरवा, धूरि उड़त रथ-पायक, घोरनि की खुरतार॥
चपला चमचमाति आयुध, बग-पंगति धुजा-अकार।
परत निसाननि घाउ तमकि, घन तरपत जिहिं-जिहिं बार॥
मारू मार करत भट दादुर, पहिरें बिबिध सनाह।
हरे कवच उघरे दिखियत हैं बरहनि घाली धाह॥
कारे पट धारें चातक-पिक, कहत भाजि जनि जाहु।
उनरि, उनरि वे परत आनि कैं, जोधा परम उछाहु॥
अति घायल धीरज दुबाहियाँ, तेजहु दुरजन दालि।
टूक-टूक ह्वै सुभट मनोरथ आने झोली घालि॥
रह्यौ अहँकार सुखेत सूरमा, सकति रही उर सालि।
हबकत हाथ परै नाहीं गहि, रहे नाटसल भालि॥
निसि बासर कै बिग्रह आयौ, अति संकेतै गाउँ।
कापै करौं पुकार, नाथ! अब, नाहिंन तुम्ह बिन ठाउँ॥
नंदकुमार स्याम घन सुंदर, कमलनयन सुख धाम।
पठवहु बेगि गुहार लगावन, सूरदास जिहिं नाम॥
मूल
तुम्हारौ गोकुल, हो ब्रजनाथ!
घेरॺौ है अरि मनमथ, लै चतुरंगिनि सेना साथ॥
गरजत अति गंभीर गिरा, मनु मयगल मत्त अपार।
धुरवा, धूरि उड़त रथ-पायक, घोरनि की खुरतार॥
चपला चमचमाति आयुध, बग-पंगति धुजा-अकार।
परत निसाननि घाउ तमकि, घन तरपत जिहिं-जिहिं बार॥
मारू मार करत भट दादुर, पहिरें बिबिध सनाह।
हरे कवच उघरे दिखियत हैं बरहनि घाली धाह॥
कारे पट धारें चातक-पिक, कहत भाजि जनि जाहु।
उनरि, उनरि वे परत आनि कैं, जोधा परम उछाहु॥
अति घायल धीरज दुबाहियाँ, तेजहु दुरजन दालि।
टूक-टूक ह्वै सुभट मनोरथ आने झोली घालि॥
रह्यौ अहँकार सुखेत सूरमा, सकति रही उर सालि।
हबकत हाथ परै नाहीं गहि, रहे नाटसल भालि॥
निसि बासर कै बिग्रह आयौ, अति संकेतै गाउँ।
कापै करौं पुकार, नाथ! अब, नाहिंन तुम्ह बिन ठाउँ॥
नंदकुमार स्याम घन सुंदर, कमलनयन सुख धाम।
पठवहु बेगि गुहार लगावन, सूरदास जिहिं नाम॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) हे व्रजनाथ! शत्रु कामदेवने चतुरंगिणी सेना साथ लेकर तुम्हारे गोकुलको घेर लिया है। (मेघ) अत्यन्त गम्भीर ध्वनिमें (इस भाँति) गर्जना करते हैं, मानो अपार मतवाले हाथी (गर्जना कर रहे) हों। रथों, पैदल सैनिकों और घोड़ोंके (इधर-उधर) पदाघातसे उड़ी धूलिके समान बादल उड़ रहे हैं। शस्त्रोंके समान बिजली चमक रही है और बगुलोंकी पंक्ति ध्वजाके समान उड़ रही है। जब-जब मेघ तड़तड़ाते हैं, (तब-तब ऐसा लगता है) मानो आवेशमें आकर नगारोंपर चोटें की जा रही हों। अनेक प्रकारके कवच पहने (रंग-बिरंगे) मेढकरूपी योद्धा मारू राग गाते हुए ‘मार-मार’ पुकार रहे हैं, मयूरोंके हरे रंगके (पंखरूप) कवच खुले दिखलायी पड़ते हैं। (अर्थात् नाच रहे हैं) और उच्च स्वरसे बोल रहे हैं। काले वस्त्र पहने हुए पपीहे और कोकिलरूपी योद्धा ‘भागो मत’, ‘भागो मत’ कहते हुए अत्यन्त उत्साहसे बार-बार उमड़े पड़ते हैं। हमारा दो हाथोंवाला (सहायक) धैर्य (रूपी योद्धा) अत्यन्त घायल हो गया है, तेज (गर्व)-को भी (इन) दुर्जनोंने दलित कर दिया है और (हमारा) मनोरथ (कामना)-रूपी जो उत्तम योद्धा था, (वह भी) टुकड़े-टुकड़े होकर (हृदयकी) झोलीमें (स्ट्रेचरपर) डालकर उठा लाया गया है। अहंकाररूपी शूर युद्धमें मारा गया, उसके हृदयको अब भी शक्ति बेधे है, भयसे उसका हाथ पकड़ा नहीं जाता; क्योंकि भालोंकी नोंकोंसे (उसका सारा शरीर) छिद रहा था। यह रात-दिनका युद्ध सिरपर आ पड़ा है, जिसे अत्यन्त संक्षिप्तरूपसे वर्णन कर रही हूँ। हे नाथ! किससे पुकार करूँ, तुम्हारे अतिरिक्त (मेरे लिये कहीं शरण) स्थान नहीं है। इसलिये जिनका नाम नन्दनन्दन है और जो सुन्दर तथा काले बादलों-जैसे सुखके धाम हैं, कमललोचन हैं, उन्हें हमारी सहायता करनेके लिये शीघ्र भेज दो।
विषय (हिन्दी)
(२१८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी जो पावस रितु प्रथम सुरति करि माधौ जू आवहिं॥
बरन-बरन अनेक जलधर, अति मनोहर भेष।
तिहिं समै सखि गगन सोभा, सबहिं तैं सुबिसेष॥
उड़त खग, बग-बृंद राजत, रटत चातक-मोर।
बहुत बिधि चित रुचि बढ़ावत दामिनी घन घोर॥
धरनि तन तृन-रौंम पुलकित, पिय-समागम जानि।
द्रुमनि बर बल्ली बियोगिनि मिलतिं पति पहिचानि॥
हंस, सुक, पिक, सारिका, अलि गुंज नाना नाद।
मुदित मंडल मेघ बरखत, गत बिहंग बिषाद॥
कुटज, कुंद, कदंब, कोबिद, करनिकार सुकंजु।
केतकी, करबीर, बेला, बिमल बहु बिधि मंजु॥
सघन दल, कलिका अलंकृत, सुमन सुकृत सुबास।
निरखि नैनन होत मन माधौ मिलन की आस॥
मनुज, मृग, पसु, पंछि परिमित, और अमित जु नाम।
सुमिरि देस, बिदेस परिहरि, सकल आवैं धाम॥
यहै चित्त उपाय सोचति, कछु न परत विचार।
कौन हित ब्रज-बास बिसरॺौ, निकट नंदकुमार॥
परम सुहृद सुजान सुंदर, ललित गति, मृदु हास।
चारु लोल कपोल कुंडल डोल ललित प्रकास॥
बेनु कर बहु बिधि बजावत, गोप-सिसु चहुँ पास।
सुदिन कब जब आँखि देखैं बहुरि बाल-बिलास॥
बार-बार सु बिरहिनी अति बिरह-ब्याकुल होति।
बात-बेग बिलोल जैसैं दीन दीपक जोति॥
सुनि बिलाप कृपालु सूरजदास करि परतीति।
दरस दै दुख दूरि कीजै, प्रेम की यह रीति॥
मूल
ऐसी जो पावस रितु प्रथम सुरति करि माधौ जू आवहिं॥
बरन-बरन अनेक जलधर, अति मनोहर भेष।
तिहिं समै सखि गगन सोभा, सबहिं तैं सुबिसेष॥
उड़त खग, बग-बृंद राजत, रटत चातक-मोर।
बहुत बिधि चित रुचि बढ़ावत दामिनी घन घोर॥
धरनि तन तृन-रौंम पुलकित, पिय-समागम जानि।
द्रुमनि बर बल्ली बियोगिनि मिलतिं पति पहिचानि॥
हंस, सुक, पिक, सारिका, अलि गुंज नाना नाद।
मुदित मंडल मेघ बरखत, गत बिहंग बिषाद॥
कुटज, कुंद, कदंब, कोबिद, करनिकार सुकंजु।
केतकी, करबीर, बेला, बिमल बहु बिधि मंजु॥
सघन दल, कलिका अलंकृत, सुमन सुकृत सुबास।
निरखि नैनन होत मन माधौ मिलन की आस॥
मनुज, मृग, पसु, पंछि परिमित, और अमित जु नाम।
सुमिरि देस, बिदेस परिहरि, सकल आवैं धाम॥
यहै चित्त उपाय सोचति, कछु न परत विचार।
कौन हित ब्रज-बास बिसरॺौ, निकट नंदकुमार॥
परम सुहृद सुजान सुंदर, ललित गति, मृदु हास।
चारु लोल कपोल कुंडल डोल ललित प्रकास॥
बेनु कर बहु बिधि बजावत, गोप-सिसु चहुँ पास।
सुदिन कब जब आँखि देखैं बहुरि बाल-बिलास॥
बार-बार सु बिरहिनी अति बिरह-ब्याकुल होति।
बात-बेग बिलोल जैसैं दीन दीपक जोति॥
सुनि बिलाप कृपालु सूरजदास करि परतीति।
दरस दै दुख दूरि कीजै, प्रेम की यह रीति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—सखी!) यदि ऐसी वर्षा-ऋतुमें श्यामसुन्दर पूर्वका स्मरण करके आ जाते! (ये) विविध रंगोंके मनोहर वेशवाले अनेक बादल आकाशमें सबसे अधिक शोभा देते हैं और इसी समय (ये) उड़ते हुए पक्षी, बगुलोंका समूह तथा बोलते हुए पपीहे और मयूर अति शोभावान् लगते हैं। बिजली और बादलका शब्द भी अनेक प्रकारसे चित्तमें रुचि (उमंग) उत्पन्न करते हैं। (देखो, आज मेघरूपी) प्रियतमका मिलन समझकर पृथ्वीके शरीरपर तृणरूपी रोम पुलकित हो रहे हैं और वियोगिनी श्रेष्ठ लताएँ भी वृक्ष (-रूप) अपने पतियोंको पहचानकर मिल रही हैं। हंस, तोता, कोकिल, मैना तथा भौंरे आदि नाना प्रकारके शब्द करते हैं; (क्योंकि आज) प्रसन्नतासे मेघमण्डलद्वारा वर्षा होनेके कारण इन पक्षियोंका शोक दूर हो गया है। कुटज, कुन्द, कदम्ब, कचनार, पीला कनैर, सुन्दर कमल, केतकी, लाल कनैर, बेला आदि अनेक प्रकारके निर्मल पुष्प सुन्दर लग रहे हैं; क्योंकि उनमें (आज) घने पत्ते कलियोंसे भूषित हैं, उनके पुष्पोंसे उत्तम सुगन्ध आ रही है। उन्हें निकटसे नेत्रोंद्वारा देखकर चित्तमें श्यामसुन्दरके मिलनेकी आशा (उमंग) उठती है। मनुष्य (ही नहीं), हिरन, पशु-पक्षी आदि और भी जो बहुत-से नामोंवाले प्राणी अपने स्थानसे च्युत हैं—पृथक् हैं, वे भी (वर्षामें) अपने देशको स्मरणकर और विदेश (दूसरे देशों)-को छोड़कर सभी अपने-अपने घर आ जाते हैं; किंतु नन्दनन्दन पास (मथुरामें) रहते हुए भी किस कारणसे अपना निवासस्थान व्रज भूल गये। उसका कारण मनमें सोचती हैं, पर वह विचारमें नहीं आता। वे सुन्दर हैं, सब कुछ जाननेवाले हैं तथा हमारे परम सुहृद् (हितैषी भी) हैं। वे मनोहर गतिवाले हैं, (हमेशा उनके मुख-कमलपर) मन्द-मन्द हास्य खिला करता है और कपोलोंपर हिलते हुए चंचल कुण्डलोंकी आभा भी बहुत सुन्दर लगती थी। (वे) हाथमें वंशी लेकर अनेक प्रकारसे बजाते थे, उनके चारों ओर गोप-बालक रहते थे। वह शुभ दिन कब होगा, जब हम नेत्रोंसे फिर उनकी वही बालक्रीड़ा देखेंगी? इस प्रकार (वे) विरहिणी गोपियाँ वियोगसे (इस भाँति) बार-बार अत्यन्त व्याकुल होती हैं, जैसे वायुके वेगसे चंचल दीपककी फीकी ज्योति हो। सूरदासजी कहते हैं—हे कृपालु! उनका विलाप विश्वासपूर्वक सुनकर दर्शन दे (उनका) दुःख दूर कीजिये। यही प्रेमकी रीति है।
विषय (हिन्दी)
(२१९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज बन बोलन लागे मोर।
कारी घटा घुमड़ि बादर की बरखति है घनघोर॥
आधी रात कोकिला बोली, बिछुरें नंद-किसोर।
पीउ सु रटत पपीहा बैरी, कीन्हौ मनमथ जोर॥
दिन प्रति दहत, रहत नहिं कबहूँ, हा-हा किऐं निहोर।
सूर स्याम बिनु जियत मूढ़ मन, जिऐं जाइ सो थोर॥
मूल
आज बन बोलन लागे मोर।
कारी घटा घुमड़ि बादर की बरखति है घनघोर॥
आधी रात कोकिला बोली, बिछुरें नंद-किसोर।
पीउ सु रटत पपीहा बैरी, कीन्हौ मनमथ जोर॥
दिन प्रति दहत, रहत नहिं कबहूँ, हा-हा किऐं निहोर।
सूर स्याम बिनु जियत मूढ़ मन, जिऐं जाइ सो थोर॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) आज वनमें मयूर बोलने लगे और बादलोंकी काली घटाएँ उमड़कर घनघोर (खूब तीव्र) वर्षा कर रही हैं। श्रीनन्दकुमारसे वियोग हो जानेपर आधी रातको (यह वैरिन) कोकिल बोलती है और वैरी पपीहा भी पीउ-पीउकी रट लगा रहा है, जिससे कामदेव बलवान् हो उठा है। वह मुझे प्रतिदिन जलाता रहता है, हाहाकारपूर्वक अनुनय करनेपर भी विराम नहीं लेता। यह मूर्ख मन श्यामसुन्दरके बिना जी रहा है; इस प्रकार जीवित रहनेपर जो कुछ चला जाय, वही कम है।
विषय (हिन्दी)
(२२०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मेरे नैननहीं झरि लाई, बालम कान्ह बिदेसी।
तब तौ निबही बाल सनेही, अब निबहै धौं कैसी॥
घर-घर सखी हिंडोला झूलैं, गावैं गीत सुदेसी।
हम अधीन ब्याकुल भइ डोलैं, बनी जोगनी-भेषी॥
भरि गइँ ताल, तलैया, सागर, बोलन लागे देसी।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं को घर सहै अँदेसी॥
मूल
अब मेरे नैननहीं झरि लाई, बालम कान्ह बिदेसी।
तब तौ निबही बाल सनेही, अब निबहै धौं कैसी॥
घर-घर सखी हिंडोला झूलैं, गावैं गीत सुदेसी।
हम अधीन ब्याकुल भइ डोलैं, बनी जोगनी-भेषी॥
भरि गइँ ताल, तलैया, सागर, बोलन लागे देसी।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस कौं को घर सहै अँदेसी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) प्रियतम कन्हैया विदेशमें रहने लगे हैं और अब (अर्थात् इस वर्षा-ऋतुके समय) मेरे नेत्रोंने झड़ी लगा रखी है। अरे बचपनके प्रेमी (मोहन!) उस समय तो (तुम्हारे पास रहनेके कारण हमारा भली प्रकार) निर्वाह हो गया; किंतु पता नहीं अब निर्वाह कैसे होगा। अन्यत्र घर-घरमें सखियाँ झूला झूलती हैं और सुन्दर स्वरसे गीत गाती हैं; किंतु हम (तुम्हारे प्रेमके) विवश हुई योगिनी-सा वेश बनाये व्याकुल होकर घूम रही हैं। (वर्षासे) तालाब, तलैयाँ (पोखर) और समुद्र भी भर गये तथा देश (समाज)-के लोग (मुझपर) व्यंग करने लगे। स्वामी! तुम्हारे मिलनेके लिये घरमें कौन (इतनी) चिन्ता (दुःख) सहेगा।
विषय (हिन्दी)
(२२१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी री, बूँद अचानक लागी।
सोवत हुती मदन-मद-माती, घन गरजत हौं जागी॥
बोलत मुरवा, बरषत धुरवा, राग करत अनुरागी।
सूरदास-प्रभु कब जु मिलौगे, हौंहूँ होउँ सभागी॥
मूल
सखी री, बूँद अचानक लागी।
सोवत हुती मदन-मद-माती, घन गरजत हौं जागी॥
बोलत मुरवा, बरषत धुरवा, राग करत अनुरागी।
सूरदास-प्रभु कब जु मिलौगे, हौंहूँ होउँ सभागी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! (मेरे शरीरपर) अचानक (वर्षाकी) बूँद आ लगी। मैं कामदेवके मदसे मतवाली (श्यामके प्रेममें निमग्न) होकर सो रही थी कि मेघोंके गर्जना करते ही जग पड़ी। मयूर बोल रहे हैं, मेघ वर्षा कर रहे हैं और प्रेमी (जन अपने-अपने प्रेमास्पदोंसे) प्रेम कर रहे हैं। स्वामी! तुम मुझे कब मिलोगे, जिससे मैं भी सौभाग्यवती हो जाऊँ।
विषय (हिन्दी)
(२२२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावन (माई), स्याम बिना कैसैं भरिऐ।
बादर देखि बिथा उपजति है, चतुर कान्ह बिन मरिऐ॥
काजर, तिलक, तँबोर, तेल सखि, ये सबहीं परिहरिऐ।
सूनी सेज सिंघ सम लागत, बिनहीं पावक जरिऐ॥
आजु सखी उपजति जिय ऐसी, घोस-देस परिहरिऐ।
सूरदास-प्रभु के मिलिबे कौं कोटि भाँति जिय धरिऐ॥
मूल
सावन (माई), स्याम बिना कैसैं भरिऐ।
बादर देखि बिथा उपजति है, चतुर कान्ह बिन मरिऐ॥
काजर, तिलक, तँबोर, तेल सखि, ये सबहीं परिहरिऐ।
सूनी सेज सिंघ सम लागत, बिनहीं पावक जरिऐ॥
आजु सखी उपजति जिय ऐसी, घोस-देस परिहरिऐ।
सूरदास-प्रभु के मिलिबे कौं कोटि भाँति जिय धरिऐ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामके बिना श्रावणका महीना कैसे बिताया जायगा? (इन) बादलोंको देखकर (मनमें) पीड़ा उत्पन्न होती है और चतुर कन्हैयाके बिना मैं मरी जा रही हूँ। सखी! काजल, तिलक (चन्दन), ताम्बूल और तेल—इन सबका उपयोग छोड़ देना चाहिये; क्योंकि सूनी शय्या सिंहके समान (भयानक) लगती है और (उसे देख-देखकर) बिना अग्निके ही मैं जली जाती हूँ। सखी! आज मनमें ऐसी बात आती है कि इस ग्राम और इस देशको छोड़ दूँ। स्वामीसे मिलनेके लिये करोड़ों प्रकारसे मनको समझा रही हूँ।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२२३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
गगन सघन गरजत भयौ दंद।
पसरॺौ भूमंडल केतकि जुत, मारुत मनु मकरंद॥
पर पथ अपथ भयौ सुनि सजनी, कियौ बासव तित खेत।
कोइ न जाइ कान्ह परदेसैं, दोउ तजि निबह अनेत॥
विपति बिचारि जानि जदुनंदन, दीजै दरस उदार।
सूर स्याम भैंटैं, अरु भैंटैं, बिरह-बिथा भरि भार॥
मूल
गगन सघन गरजत भयौ दंद।
पसरॺौ भूमंडल केतकि जुत, मारुत मनु मकरंद॥
पर पथ अपथ भयौ सुनि सजनी, कियौ बासव तित खेत।
कोइ न जाइ कान्ह परदेसैं, दोउ तजि निबह अनेत॥
विपति बिचारि जानि जदुनंदन, दीजै दरस उदार।
सूर स्याम भैंटैं, अरु भैंटैं, बिरह-बिथा भरि भार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) आकाशमें मेघोंके गर्जना करते ही युद्ध प्रारम्भ हो गया और केवड़ेके पुष्पकी सुगन्धके साथ वायु पृथ्वीपर ऐसे फैल गयी मानो पुष्पोंका रस बिखर गया हो। सखी! सुनो, मार्ग-कुमार्ग (बीहड़ स्थल) जितने भी (स्थान) थे, उन सबको इन्द्रने अपनी युद्धभूमि बना लिया है। कोई यहाँसे (संदेश लेकर) जाता नहीं और श्यामसुन्दर परदेशमें हैं; (इसलिये इन्द्र) लोक-परलोक दोनोंका विचार छोड़कर अन्याय करनेपर उतर आया है। उदार यदुनाथ! हमारी विपत्तिका विचार करके तथा उसको समझकर दर्शन दीजिये! श्यामसुन्दर मिल जायँ और इस वियोगकी पीड़ाका भारी भार दूर कर दें।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२२४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज घन स्याम की अनुहारि।
आए उनै साँवरे सजनी, देखि रूप की आरि॥
इंद्र-धनुष मनु पीत बसन छबि, दामिनि दसन बिचारि।
जनु बगपाँति माल मोतिन की, चितवत चित्त निहारि॥
गरजत गगन गिरा गोबिंद मनु, सुनत नैन भरि बारि।
सूरदास गुन सुमिरि स्याम के, बिकल भईं ब्रजनारि॥
मूल
आज घन स्याम की अनुहारि।
आए उनै साँवरे सजनी, देखि रूप की आरि॥
इंद्र-धनुष मनु पीत बसन छबि, दामिनि दसन बिचारि।
जनु बगपाँति माल मोतिन की, चितवत चित्त निहारि॥
गरजत गगन गिरा गोबिंद मनु, सुनत नैन भरि बारि।
सूरदास गुन सुमिरि स्याम के, बिकल भईं ब्रजनारि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—सखी!) ‘आज मेघ श्यामके रूपके समान हैं। सखी! देख, उनके साँवले रूपसे तुलना करते हुए ये उमड़ आये हैं। (यह) इन्द्रधनुष ऐसा लगता है मानो उनका पीताम्बर शोभा दे रहा हो। बिजलीको उनकी दन्त-पंक्ति समझो तथा बगुलोंकी पंक्ति मानो मोतियोंकी माला है, जिसे चित्त एकाग्र होकर देख रहा है। मेघ (भी) आकाशमें (इस भाँति) गरजते हैं, मानो गोविन्दकी वाणी हो, जिसे सुनकर नेत्रोंमें जल भर आता है। सूरदासजी कहते हैं कि इस प्रकार श्यामसुन्दरके गुणोंका स्मरण करके व्रजस्त्रियाँ व्याकुल हो गयीं।
राग मलार (२२५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैसैं कैं भरिहैं री दिन सावन के।
हरित भूमि, भरे सलिल सरोबर, मिटे मग मोहन-आवन के॥
दादुर, मोर सोर चातक पिक, सूही, निसा सिरावन के।
गरज चहूँ घन घुमड़ि दामिनी, मदन धनुष धरि धावन के॥
पहिरि कुसुम सारी कंचुकि तन, झुंडनि-झुंडनि गावन के।
सूरदास-प्रभु दुसह घटत क्यौं सोक त्रिगुन सिर रावन के॥
मूल
कैसैं कैं भरिहैं री दिन सावन के।
हरित भूमि, भरे सलिल सरोबर, मिटे मग मोहन-आवन के॥
दादुर, मोर सोर चातक पिक, सूही, निसा सिरावन के।
गरज चहूँ घन घुमड़ि दामिनी, मदन धनुष धरि धावन के॥
पहिरि कुसुम सारी कंचुकि तन, झुंडनि-झुंडनि गावन के।
सूरदास-प्रभु दुसह घटत क्यौं सोक त्रिगुन सिर रावन के॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! ये श्रावण (-मास)-के दिन किस प्रकार बीतेंगे; (क्योंकि) पृथ्वी (घाससे) हरी हो गयी, तालाबोंमें जल भर गया, (इसलिये) मोहनके आनेके मार्ग भी बंद हो गये (घास और जलसे ढक गये)। मेढक, मयूर, पपीहे और कोकिल कोलाहल कर रहे हैं। अरी इनकी प्रसन्नताकी यही तो (श्रावणकी) रातें हैं। चारों ओर बादल गरजते हुए उमड़ रहे हैं (तथा) बिजली चमक रही है, कामदेवके धनुष लेकर दौड़नेके ये ही दिन हैं। (सखियोंके) कुसुम्भी (गहरी लाल) रंगकी साड़ियाँ तथा चोलियाँ शरीरमें पहनकर झुंड बनाकर गानेके भी ये ही दिन हैं। (ऐसी अवस्थामें) हे स्वामी! यह असहनीय शोक कैसे कम हो सकता है, जो रावणके मस्तकके समान (जो कटनेपर फिर निकल आते थे, यह) तिगुना होता जाता है।
विषय (हिन्दी)
(२२६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरषा रितु आई, हरि न मिले माई!
गगन गरजि घन, दइ दामिनी दिखाई॥
मोरन बन बुलाइ, दादुरहु जगाई।
पपिहा-पुकार, सखि! सुनतहिं बिकलाई॥
इंद्र धनुष सायक लै, छाँड़ॺौ रिसाई।
बिषम बूँद तातैं री, सहि नहिं जाई॥
पथिक लिखाइ पाति, बेगिहिं पहुँचाई।
सूर बिथा जानैं, तौ आवैं जदुराई॥
मूल
बरषा रितु आई, हरि न मिले माई!
गगन गरजि घन, दइ दामिनी दिखाई॥
मोरन बन बुलाइ, दादुरहु जगाई।
पपिहा-पुकार, सखि! सुनतहिं बिकलाई॥
इंद्र धनुष सायक लै, छाँड़ॺौ रिसाई।
बिषम बूँद तातैं री, सहि नहिं जाई॥
पथिक लिखाइ पाति, बेगिहिं पहुँचाई।
सूर बिथा जानैं, तौ आवैं जदुराई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! वर्षा-ऋतु आ गयी, पर श्यामसुन्दर नहीं मिले। (अब) आकाशमें मेघ गरज रहे हैं, बिजली (भी) चमकती दीख रही है। (इस वर्षाने) मयूरोंको वनमें बुला लिया है और मेढकोंको भी (वर्षा-ऋतुने निद्रासे) जगा दिया है (वे टर्रा रहे हैं)। सखी! पपीहेका शब्द सुनते ही मैं व्याकुल हो गयी। इन्द्रने धनुष लेकर क्रोध करके बाण छोड़े हैं, वे ही जलती हुई दारुण बूँदें हैं, जो सही नहीं जातीं। पत्र लिखवाकर यात्रीके द्वारा शीघ्र भिजवा दो। श्रीयदुनाथ यदि मेरी पीड़ा जान लेंगे तो आ जायँगे।
विषय (हिन्दी)
(२२७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
घन गरजत माधौ बिन माई!
इंद्र कोप करि पहिलैं दाव लियौ, पावस रितु ब्रज खबरि जनाई॥
पिय-पिय सब्द चातकहु बोल्यौ, मधुर बचन कोकिला सुनाई।
हरि-सँदेस सुनि हमहि निदरि पुनि, चमकि दामिनी देत दिखाई॥
बाल-चरित्र भावते जी के सुमरि स्याम की सुरति जु आई।
सूरदास-प्रभु बेगि मिलौ किन, बिरह-सूल कैसैं करि जाई॥
मूल
घन गरजत माधौ बिन माई!
इंद्र कोप करि पहिलैं दाव लियौ, पावस रितु ब्रज खबरि जनाई॥
पिय-पिय सब्द चातकहु बोल्यौ, मधुर बचन कोकिला सुनाई।
हरि-सँदेस सुनि हमहि निदरि पुनि, चमकि दामिनी देत दिखाई॥
बाल-चरित्र भावते जी के सुमरि स्याम की सुरति जु आई।
सूरदास-प्रभु बेगि मिलौ किन, बिरह-सूल कैसैं करि जाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! श्यामसुन्दरकी अनुपस्थितिमें ये बादल गरज रहे हैं। (इसी बहाने) वर्षा-ऋतुने व्रजको यह संवाद (तो नहीं) दिया है कि इन्द्र क्रोध करके पहला दाव (बदला) लिया (चाहता) है। पपीहा भी ‘पी कहाँ, पी कहाँ’ बोल रहा है, कोकिल भी मीठे स्वर सुनाती है और मोहनका संदेश सुनकर (उनका व्रज न आना जानकर) हमारी उपेक्षा करके बिजली चमकती दिखायी देती है। चित्तको प्रिय लगनेवाले बाल-चरित्रोंका स्मरण करके श्यामसुन्दरकी सुधि आ रही है। स्वामी! शीघ्र क्यों नहीं मिलते? (तुम्हारे बिना) यह वियोगकी वेदना किस प्रकार दूर हो सकती है।
विषय (हिन्दी)
(२२८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे बादर ता दिन आए, जा दिन स्याम गोबरधन धारॺौ।
गरजि-गरजि घन बरषन लागे, मानौ सुरपति बैर सँभारॺौ॥
सबै सँजोग जुरे हैं सजनी, चाहत हठ करि घोष उजारॺौ।
अब को सात दिवस राखैगौ, दूरि गयौ ब्रज कौ रखवारौ॥
जब बलराम हुते या ब्रज में, काहू देव न ऐसौ डारॺौ।
अब यह भूमि भयानक लागै, बिधना बहुरि कंस अवतारॺौ॥
अब वह सुरति करै को हमरी, या ब्रज में कोउ नाहिं हमारौ।
सूरदास अति बिकल बिरहिनी, गोपिन पिछलौ प्रेम सँभारॺौ॥
मूल
ऐसे बादर ता दिन आए, जा दिन स्याम गोबरधन धारॺौ।
गरजि-गरजि घन बरषन लागे, मानौ सुरपति बैर सँभारॺौ॥
सबै सँजोग जुरे हैं सजनी, चाहत हठ करि घोष उजारॺौ।
अब को सात दिवस राखैगौ, दूरि गयौ ब्रज कौ रखवारौ॥
जब बलराम हुते या ब्रज में, काहू देव न ऐसौ डारॺौ।
अब यह भूमि भयानक लागै, बिधना बहुरि कंस अवतारॺौ॥
अब वह सुरति करै को हमरी, या ब्रज में कोउ नाहिं हमारौ।
सूरदास अति बिकल बिरहिनी, गोपिन पिछलौ प्रेम सँभारॺौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—सखी!) ऐसे बादल उस दिन (भी) आये थे, जिस दिन श्यामसुन्दरने गोवर्धन पर्वत उठाया था। बार-बार गर्जना करते हुए मेघ (इस भाँति) वर्षा करने लगे हैं, मानो इन्द्रने अपनी पहली शत्रुता याद कर ली है। सखी! सभी संयोग एकत्र हो गये हैं। ये हठ करके व्रजको उजाड़ देना चाहते हैं। व्रजका रक्षक तो दूर चला गया, अब (बता) सात दिनतक (उसकी) कौन रक्षा करेगा। जब श्रीबलराम इस व्रजमें थे, तब किसी देवताने ऐसा संकट नहीं डाला था। अब यह (व्रजकी) भूमि भयानक लगती है, जिससे ज्ञात होता है कि ब्रह्माने फिरसे कंसको जन्म दे दिया। अब उस प्रकार हमारी सुधि कौन लेगा! इस व्रजमें अब हमारा कोई नहीं है। सूरदासजी कहते हैं कि पिछले प्रेमका स्मरण करके वियोगिनी गोपियाँ अत्यन्त व्याकुल हो रही हैं!
विषय (हिन्दी)
(२२९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो पै नंद-सुवन ब्रज होते।
तौ पै नृप पावस! सुनि बिनती, कहत न डरतीं तोते॥
अब हम अबला जानि स्याम बिनु , हय, गय, रथ बर जोते।
हम पै गरजि-गरजि घन पठवत, मदन मनावत पोते॥
जो पै गोकुल कर लागत है, लेत न सकल सबोते।
सूरदास-प्रभु सैल-धरन बिनु, कहा सिराइ अब मोतैं॥
मूल
जो पै नंद-सुवन ब्रज होते।
तौ पै नृप पावस! सुनि बिनती, कहत न डरतीं तोते॥
अब हम अबला जानि स्याम बिनु , हय, गय, रथ बर जोते।
हम पै गरजि-गरजि घन पठवत, मदन मनावत पोते॥
जो पै गोकुल कर लागत है, लेत न सकल सबोते।
सूरदास-प्रभु सैल-धरन बिनु, कहा सिराइ अब मोतैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) हे वर्षाके राजा (इन्द्र)! हमारी प्रार्थना सुन। यदि श्रीनन्दनन्दन व्रजमें होते तो तुमसे कुछ कहते (प्रार्थना करते) हम डरतीं नहीं। तुमने श्यामसुन्दरसे रहित हमें अबला समझकर (ये) अच्छे घोड़े, हाथी और रथ जोतकर हमपर चढ़ाई कर दी। हमपर बार-बार गर्जना करके मेघ भेजते हो और स्वयं (हमपर आक्रमण करनेके लिये) कामदेवसे प्रार्थना करते हो। यदि गोकुलपर तुम्हारा कुछ कर (लगान) लगता है तो सब-का-सब (एक समय ही) क्यों नहीं चुका लेते। श्रीगिरिधरके बिना अब मुझसे क्या हो सकता है।
विषय (हिन्दी)
(२३०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब ब्रज नाहिंन नंद-कुमार।
इहै जानि अजान मघवा करी गोकुल आर॥
नैन जलद, निमेष दामिनि, आँसु बरषत धार।
दरस रबि-ससि दुरॺौ धीरज, स्वास पवन अकार॥
उरज गिरि में भरत भारी, असम काम अपार।
गरज बिकल बियोग बानी, रहति अवधि अधार॥
पथिक! हरि सौं, जाइ मथुरा, कहौ बात बिचार।
सत्रु-सेन सुधाम घेरॺौ, सूर लगौ गुहार॥
मूल
अब ब्रज नाहिंन नंद-कुमार।
इहै जानि अजान मघवा करी गोकुल आर॥
नैन जलद, निमेष दामिनि, आँसु बरषत धार।
दरस रबि-ससि दुरॺौ धीरज, स्वास पवन अकार॥
उरज गिरि में भरत भारी, असम काम अपार।
गरज बिकल बियोग बानी, रहति अवधि अधार॥
पथिक! हरि सौं, जाइ मथुरा, कहौ बात बिचार।
सत्रु-सेन सुधाम घेरॺौ, सूर लगौ गुहार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब व्रजमें नन्दनन्दन नहीं हैं, यही समझकर अज्ञानी इन्द्रने गोकुलपर चढ़ाईकी हठ की है। (अब तो मेरे ये) नेत्र ही बादल बन गये हैं, पलकोंका गिरना विद्युत् के समान है और (मेरे) आँसू भी वर्षाकी धाराके समान बरस रहे हैं, (जिससे मोहनका) दर्शन और धैर्यरूपी सूर्य-चन्द्रमा छिप गये हैं तथा श्वास (वर्षा-ऋतुकी) वायुके समान चल रही है। वक्षःस्थलरूपी पर्वतोंमें कामदेव भारी विषमता भर रहा है। वियोगकी व्याकुलताभरी वाणी (रुदन ही) गर्जना है, (ऐसी अवस्थामें भी श्यामसुन्दरके लौटनेकी) अवधिके सहारे ही जी रही हूँ। पथिक! मथुरा जाकर श्यामसुन्दरसे यह बात समझाकर कहना कि शत्रुकी सेनाने (उनका) उत्तम धाम घेर लिया है। अब तो आप हमारी पुकार सुनकर सहायक हों।
विषय (हिन्दी)
(२३१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानौ, माई! सबनि यहै है भावत।
अब उहिं देस स्यामसुंदर कहँ, कोउ न समौ सुनावत॥
धरत न बन, नव पत्र-फूल-फल, पिक बसंत नहिं गावत।
मुदित न सर-सरोज अलि गुंजत, पवन पराग उड़ावत॥
पावस बिबिध बरन बर बादर उमड़ि न अंबर छावत।
दादुर, मोर, कोकिला, चातक, बोलत बचन दुरावत॥
ह्याँ ही प्रगट निरंतर निसि-दिन, हठ करि बिरह बढ़ावत।
सूर स्याम पर-पीर न जानत, कत सरबग्य कहावत॥
मूल
मानौ, माई! सबनि यहै है भावत।
अब उहिं देस स्यामसुंदर कहँ, कोउ न समौ सुनावत॥
धरत न बन, नव पत्र-फूल-फल, पिक बसंत नहिं गावत।
मुदित न सर-सरोज अलि गुंजत, पवन पराग उड़ावत॥
पावस बिबिध बरन बर बादर उमड़ि न अंबर छावत।
दादुर, मोर, कोकिला, चातक, बोलत बचन दुरावत॥
ह्याँ ही प्रगट निरंतर निसि-दिन, हठ करि बिरह बढ़ावत।
सूर स्याम पर-पीर न जानत, कत सरबग्य कहावत॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) मानो सखी! सबको यही अच्छा लगता है कि अब मोहन व्रजमें न आवें; क्योंकि अब उस देशमें (जहाँ वे हैं) कोई भी श्यामसुन्दरको इस संकटके समयकी सूचना नहीं देता। (क्या वहाँ) वन नये पत्ते, फूल और फल नहीं धारण करता? क्या वहाँ वसन्तमें (भी) कोकिल गाती नहीं? सरोवरोंमें कमलपर प्रसन्न होकर भौंरे गुंजार नहीं करते? वायु (फूलोंकी) पराग उड़ाता नहीं? (क्या वहाँ) वर्षा-ऋतुमें अनेक रंगोंके सुन्दर बादल उमड़कर आकाशमें नहीं छा जाते अथवा मेढक, मोर, कोकिल और चातक वहाँ बोलनेमें अपनी वाणी छिपा लेते हैं (बोलते नहीं, अन्यथा इनको देख-सुनकर मोहनको हमारी स्मृति अवश्य आ जाती)? ये सब तो यहीं हठपूर्वक रात-दिन निरन्तर, प्रत्यक्ष रहते हमारे वियोग-दुःखको बढ़ाते हैं; किंतु (इन निमित्तोंके बिना भी) यदि श्यामसुन्दर दूसरेकी पीड़ा नहीं जानते तो (वे) सर्वज्ञ क्यों कहलाते हैं।
विषय (हिन्दी)
(२३२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखि कोउ नई बात सुनि आई।
यह ब्रजभूमि सकल सुरपति सौं मदन मिलकियत पाई॥
घन धावन, बग-पाँति पटौ सिर, बैरख तड़ित सुहाई।
बोलत पिक-चातक ऊँचे सुर, फेरत मनौ दुहाई॥
दादुर, मोर, चकोर, मधुप, सुक, सुमन, समीर सुहाई।
चाहत बास कियौ बृंदाबन, बिधि सौं कछु न बसाई॥
सींव न चाँपि सक्यौ तब कोऊ, हुते बल, कुँवर कन्हाई।
सूरदास गिरिधर बिनु गोकुल ये करिहैं ठकुराई॥
मूल
सखि कोउ नई बात सुनि आई।
यह ब्रजभूमि सकल सुरपति सौं मदन मिलकियत पाई॥
घन धावन, बग-पाँति पटौ सिर, बैरख तड़ित सुहाई।
बोलत पिक-चातक ऊँचे सुर, फेरत मनौ दुहाई॥
दादुर, मोर, चकोर, मधुप, सुक, सुमन, समीर सुहाई।
चाहत बास कियौ बृंदाबन, बिधि सौं कछु न बसाई॥
सींव न चाँपि सक्यौ तब कोऊ, हुते बल, कुँवर कन्हाई।
सूरदास गिरिधर बिनु गोकुल ये करिहैं ठकुराई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी! आज) कोई सखी (व्रजमें) यह नयी चर्चा सुन आयी है कि देवराज इन्द्रसे कामदेवने यह सम्पूर्ण व्रजभूमि जागीरके रूपमें पायी है। मेघ उसके दूत हैं, जिनके मस्तकपर बगुलोंकी पंक्तिरूपी पट्टा बँधा है तथा (जिनके हाथोंमें) बिजलीरूपी झंडा शोभा दे रहा है और उच्च स्वरमें कोकिल तथा पपीहे (इस भाँति) बोलते हैं, मानो उसकी विजय घोषणा कर रहे हों (अब वह कामदेव) मेढक, मयूर, चकोर, भौंरे, तोते, पुष्प और सुहावनी वायुके साथ वृन्दावनमें ही निवास करना चाहता है। (किया क्या जाय) विधातासे कुछ वश नहीं चलता। जब यहाँ श्रीबलराम और नन्दकुमार कृष्णचन्द्र थे, तब तो कोई (व्रजकी) सीमा दबा नहीं सका; किंतु अब उन गिरिधरके बिना गोकुलमें ये (सब) स्वामित्व करेंगे।
विषय (हिन्दी)
(२३३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरि बन बोलन लागे मोर।
करत सँभार नंद-नंदन की, सुनि बादर की घोर॥
जिनके पिय परदेस सिधारे, सो तिय परीं निठोर।
मोहि बहुत दुख हरि बिछुरे कौ, रहत बिरह कौ जोर॥
चातक, पिक, दादुर, चकोर ये, सबै मिले हैं चोर।
सूरदास-प्रभु बेगि न मिलहू, जनम परत है ओर॥
मूल
बहुरि बन बोलन लागे मोर।
करत सँभार नंद-नंदन की, सुनि बादर की घोर॥
जिनके पिय परदेस सिधारे, सो तिय परीं निठोर।
मोहि बहुत दुख हरि बिछुरे कौ, रहत बिरह कौ जोर॥
चातक, पिक, दादुर, चकोर ये, सबै मिले हैं चोर।
सूरदास-प्रभु बेगि न मिलहू, जनम परत है ओर॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी! अब) वनमें फिरसे मोर बोलने लगे, (जिससे ऐसा जान पड़ता है) ये बार-बार बादलोंकी गर्जना सुनकर श्रीनन्दनन्दनका स्मरण करते हैं। किंतु (ऐसे समय) जिनके प्रियतम विदेश चले गये हैं, वे नारियाँ बुरी दशामें पड़ गयी हैं। मुझे श्यामसुन्दरसे वियोग होनेका बहुत दुःख है, बलवान् विरह बना ही रहता है। पपीहा, कोकिल, मेढक, चकोर (आदि) सब चोर (आज) परस्पर मिल गये हैं। स्वामी! शीघ्र क्यों नहीं मिलते, (मेरे) जीवनका किनारा (अन्त) आ रहा है।
विषय (हिन्दी)
(२३४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
(इहिं बन) मोर नहीं ये काम-बान।
बिरह खेत, धनु पुहुप, भृंग गुन, करि लतरैयाँ रिपु समान॥
लयौ घेरि मन-मृग चहुँ दिसि तैं, अचुक अहेरी नहिं अजान।
पुहुप सेज घन रचित जुगल बन, क्रीड़त कैसौ बन बिधान॥
महा मुदित मन मदन प्रेम-रस, उमँग भरे मैमंत जान।
इहीं अवस्था मिलैं सूर-प्रभु नाना गद दै जीव दान॥
मूल
(इहिं बन) मोर नहीं ये काम-बान।
बिरह खेत, धनु पुहुप, भृंग गुन, करि लतरैयाँ रिपु समान॥
लयौ घेरि मन-मृग चहुँ दिसि तैं, अचुक अहेरी नहिं अजान।
पुहुप सेज घन रचित जुगल बन, क्रीड़त कैसौ बन बिधान॥
महा मुदित मन मदन प्रेम-रस, उमँग भरे मैमंत जान।
इहीं अवस्था मिलैं सूर-प्रभु नाना गद दै जीव दान॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) इस (व्रजरूपी) वनमें (ये) मयूर नहीं हैं, ये तो कामदेवके बाण हैं। (यहाँ) वियोग युद्धभूमि है, पुष्प (उस कामके) धनुष हैं और भौंरोंको (अपने धनुषकी) रस्सी (प्रत्यंचा) बनाकर उसने शत्रुके समान आघात किया है। (अब उसने) मेरे मनरूपी हिरनको चारों दिशाओंसे घेर लिया है। (वह) अचूक (निपुण) शिकारी है, मूर्ख नहीं है; (देख न, पृथ्वीपर इसने) पुष्पोंकी शय्या और (आकाशमें) बादल बनाकर वन और गगन दोनों जगह (शिकार) खेलनेका कैसा विधान (उपाय) बनाया है। उमंगमें भरे मत्त हाथियोंके समान प्रेमरससे भरे (मेरे) मनको समझकर कामदेव (शिकार करनेमें) अत्यन्त आनन्दित हो रहा है। स्वामी! इस अवस्थामें इन नाना प्रकारके रोगोंसे जीवनदान देते हुए आ मिलो।
विषय (हिन्दी)
(२३५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज बन मोरन गायौ आइ।
जब तैं स्रवन परॺौ सुनि सजनी, तब तैं रह्यौ न जाइ॥
ब्रज तैं बिछुरे मुरली-मनोहर, मनौं ब्याल गयौ खाइ।
औषद बैद गारुड़ी हरि नहिं, मानै मंत्र दुहाइ॥
चातक, पिक दुख देत रैन-दिन, पिय-पिय बचन सुनाइ।
सूरदास हम तौ पै जीवैं, जौ मिलिहैं हरि आइ॥
मूल
आज बन मोरन गायौ आइ।
जब तैं स्रवन परॺौ सुनि सजनी, तब तैं रह्यौ न जाइ॥
ब्रज तैं बिछुरे मुरली-मनोहर, मनौं ब्याल गयौ खाइ।
औषद बैद गारुड़ी हरि नहिं, मानै मंत्र दुहाइ॥
चातक, पिक दुख देत रैन-दिन, पिय-पिय बचन सुनाइ।
सूरदास हम तौ पै जीवैं, जौ मिलिहैं हरि आइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी! सुनो,) आज वनमें मोरोंने आकर गाया। सखी! सुन, जबसे (उनका शब्द) कानोंमें पड़ा है, तबसे रहा नहीं जाता। व्रजसे मुरलीमनोहर श्यामसुन्दर क्या बिछुड़े मानो हमें सर्पने खा लिया। अब इसकी औषध जाननेवाले वैद्य वा ओझा श्यामसुन्दर तो हैं नहीं और यह विष (उनकी) मन्त्रकी ही दुहाई मानता है। पपीहा और कोकिल ‘पी, पी,’ की वाणी सुनाकर रात-दिन दुःख देते रहते हैं। (ऐसी दशामें) हम तो तभी जीवित रहेंगी, जब श्याम आकर मिलें।
विषय (हिन्दी)
(२३६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिखिनि सिखर चढ़ि टेर सुनायौ।
बिरहिन सावधान ह्वै रहियौ, सजि पावस दल आयौ॥
नव बादर बानैत, पवन ताजी चढ़ि, चुटक दिखायौ।
चमकत बीजु सेल्ह कर मंडित, गरज निसान बजायौ॥
चातक, पिक, झिल्ली-गन, दादुर, सब मिलि मारू गायौ।
मदन सुभट कर बान पंच लै ब्रज सनमुख ह्वै धायौ॥
जानि बिदेस नंदनंदन कौं, अबलनि त्रास दिखायौ।
सूर स्याम पहिले गुन सुमिरें प्रान जात बिरमायौ॥
मूल
सिखिनि सिखर चढ़ि टेर सुनायौ।
बिरहिन सावधान ह्वै रहियौ, सजि पावस दल आयौ॥
नव बादर बानैत, पवन ताजी चढ़ि, चुटक दिखायौ।
चमकत बीजु सेल्ह कर मंडित, गरज निसान बजायौ॥
चातक, पिक, झिल्ली-गन, दादुर, सब मिलि मारू गायौ।
मदन सुभट कर बान पंच लै ब्रज सनमुख ह्वै धायौ॥
जानि बिदेस नंदनंदन कौं, अबलनि त्रास दिखायौ।
सूर स्याम पहिले गुन सुमिरें प्रान जात बिरमायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब तो मोरोंने पर्वतके शिखरोंपर चढ़कर (यह) पुकार सुनायी है कि ‘वियोगिनियो! सावधान होकर रहना’ पावस (ऋतु) अपना दल बटोरकर आ पहुँचा है! (देखो, ये) नवीन मेघ उसके योद्धा हैं; (उन योद्धाओंका) वायु घोड़ा है, जिसपर चढ़कर उन्होंने कोड़ा लगाया है। हाथमें सुशोभित बिजलीरूपी भाला चमक रहा है और गर्जनारूपी नगारा उसने बजा दिया है। पपीहा, कोकिल, झींगुर तथा मेढकोंके समूह—सब मिलकर मारू (युद्धका) राग गा रहे हैं और महान् योद्धा कामदेव भी (उनके साथ) हाथमें (अपने) पाँच बाण लेकर व्रजके सम्मुख दौड़ पड़ा है। श्रीनन्दनन्दनको विदेशमें समझकर अबलाओं (नारियों)-को (इन्होंने) भयभीत कर दिया है। (ऐसी दशामें) श्यामसुन्दरके पहले गुणों (चरितों)-का स्मरण करके (ही) मैं प्राणोंको जानेसे रोक रही हूँ।
विषय (हिन्दी)
(२३७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमारे, माई! मुरवा बैर परे।
घन गरजत, बरज्यौ नहिं मानत, त्यौं-त्यौं रटत खरे॥
करि-करि प्रगट पंख हरि इन्ह के, लै-लै सीस धरे।
याही तैं न बदत बिरहिनि कौं, मोहन ढीठ करे॥
को जानै काहे तैं, सजनी! हम सौं रहत अरे।
सूरदास परदेस बसे हरि, ये बन तैं न टरे॥
मूल
हमारे, माई! मुरवा बैर परे।
घन गरजत, बरज्यौ नहिं मानत, त्यौं-त्यौं रटत खरे॥
करि-करि प्रगट पंख हरि इन्ह के, लै-लै सीस धरे।
याही तैं न बदत बिरहिनि कौं, मोहन ढीठ करे॥
को जानै काहे तैं, सजनी! हम सौं रहत अरे।
सूरदास परदेस बसे हरि, ये बन तैं न टरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! (इन) मयूरोंने (तो) हमसे शत्रुता ठान ली है; (ज्यों-ज्यों) मेघ गरजते हैं, त्यों-त्यों ये (मयूर) हठपूर्वक बोलते हैं (और) रोकनेपर भी (ये) नहीं मानते। श्यामसुन्दरने इनके पंख ले-लेकर सबको दिखा-दिखाकर मस्तकपर धारण किये, इसीलिये ये (अब) हम वियोगिनियोंको कुछ समझते ही नहीं। मोहनने इन्हें ढीठ बना दिया है। सखी! कौन जाने किसलिये ये हमसे हठ करते हैं। श्यामसुन्दर तो विदेशमें जा बसे, किंतु ये वन (व्रज)-से (अब भी) हटते नहीं हैं।
विषय (हिन्दी)
(२३८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोउ, माई! बरजै री इन्ह मोरनि।
टेरत बिरह रह्यौ न परै छिन, सुनि दुख होत करोरनि॥
चमकत चपल चहूँ दिसि दामिनि, अंबर घन की घोरनि।
बरषत बूँद बान-सम लागत, क्यौं जीवैं इह जोरनि॥
चंद-किरन नैनन भरि पीवत, नाहिन तृप्ति चकोरनि।
सूरदास तौ ही पै जीवैं, मिलिहैं नंद किसोरनि॥
मूल
कोउ, माई! बरजै री इन्ह मोरनि।
टेरत बिरह रह्यौ न परै छिन, सुनि दुख होत करोरनि॥
चमकत चपल चहूँ दिसि दामिनि, अंबर घन की घोरनि।
बरषत बूँद बान-सम लागत, क्यौं जीवैं इह जोरनि॥
चंद-किरन नैनन भरि पीवत, नाहिन तृप्ति चकोरनि।
सूरदास तौ ही पै जीवैं, मिलिहैं नंद किसोरनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! कोई तो इन मोरोंको मना करे; इनके बोलनेपर (श्यामसुन्दरके) वियोगके कारण एक क्षण (भी स्थिर) नहीं रहा जाता, (साथ ही) उनका शब्द सुनकर (वियोग) दुःख करोड़ों गुना बढ़ जाता है। चंचल बिजली चारों दिशाओंमें चमक रही है और आकाशमें मेघोंकी गर्जना हो रही है। वर्षा होते समय बूँदें बाणके समान लगती हैं। (हाय! अब) इन सबोंका प्राबल्य रहते हम कैसे जीवित रह सकती हैं। (जिस भाँति) नेत्र भरकर (भली प्रकार) चन्द्रमाकी किरणें पीते हुए भी चकोरोंको तृप्ति नहीं होती, उसी प्रकार हम तो तभी जीवित रह सकती हैं, जब श्रीनन्दकिशोर मिलेंगे।
विषय (हिन्दी)
(२३९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहु, रहु रे, बिहँग बनवासी।
तेरें बोलत रजनी बाढ़ति, स्रवनन सुनत नींदहू नासी॥
कहा कहौं, कोउ मानत नाहीं, इक चंदन औ चंद तरासी।
सूरदास-प्रभु जौ न मिलैंगे, तौ अब लैहौं करवट कासी॥
मूल
रहु, रहु रे, बिहँग बनवासी।
तेरें बोलत रजनी बाढ़ति, स्रवनन सुनत नींदहू नासी॥
कहा कहौं, कोउ मानत नाहीं, इक चंदन औ चंद तरासी।
सूरदास-प्रभु जौ न मिलैंगे, तौ अब लैहौं करवट कासी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) अरे, वनमें रहनेवाले पक्षी (पपीहे)! ठहर, ठहर; (क्योंकि) तेरे बोलनेसे रात्रि बढ़ जाती है और (उसे) कानोंसे सुनते-सुनते (मेरी) निद्रा भी नष्ट हो जाती है। क्या करूँ, कोई (मेरा रोकना) मानता ही नहीं। मैं तो चन्दन और चन्द्रमाद्वारा पहले ही काटी (बेधी) गयी हूँ। यदि स्वामी अब नहीं मिलेंगे तो काशी-करवट लूँगी (काशी जाकर देहत्याग करूँगी)।
विषय (हिन्दी)
(२४०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरि पपीहा बोल्यौ माई।
नींद गई, चिंता चित बाढ़ी, सुरति स्याम की आई॥
सावन मास मेघ की बरषा, हौं उठि आँगन आई।
चहुँ दिसि गगन दामिनी कौंधति, तिहिं जिय अधिक डराई॥
काहू राग मलार अलाप्यौ, मुरलि मधुर सुर गाई।
सूरदास बिरहिन भई ब्याकुल, धरनि परी मुरझाई॥
मूल
बहुरि पपीहा बोल्यौ माई।
नींद गई, चिंता चित बाढ़ी, सुरति स्याम की आई॥
सावन मास मेघ की बरषा, हौं उठि आँगन आई।
चहुँ दिसि गगन दामिनी कौंधति, तिहिं जिय अधिक डराई॥
काहू राग मलार अलाप्यौ, मुरलि मधुर सुर गाई।
सूरदास बिरहिन भई ब्याकुल, धरनि परी मुरझाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) ‘सखी! पपीहा फिर बोला, जिससे (मेरी) निद्रा टूट गयी (और नींदके टूट जानेसे) चित्तमें चिन्ता बढ़ गयी तथा श्यामसुन्दरका स्मरण हो आया। मैं श्रावणमासकी मेघ-वर्षामें उठकर आँगनमें आयी, (तो देखती हूँ) चारों ओर आकाशमें बिजली चमक रही है, उससे मैं मनमें बहुत डर गयी।’ (तभी) किसीने मधुर स्वरमें वंशी बजाकर मलार रागका अलाप छेड़ा, जिससे वह वियोगिनी गोपी व्याकुल हो गयी और पृथ्वीपर मूर्छित होकर गिर पड़ी।
विषय (हिन्दी)
(२४१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारँग! स्यामहि सुरति कराइ।
पौढ़े होहिं जहाँ नँदनंदन, ऊँचे टेरि सुनाइ॥
गइ ग्रीषम, पावस-रितु आई, सब काहू चित चाइ।
तुम्ह बिन ब्रजबासी यौं डोलैं, ज्यौं करिया बिनु नाइ॥
तुम्हरौ कह्यौ मानिहैं मोहन, चरन पकरि लै आइ।
अब की बेर सूर के प्रभु कौं नैननि आन दिखाइ॥
मूल
सारँग! स्यामहि सुरति कराइ।
पौढ़े होहिं जहाँ नँदनंदन, ऊँचे टेरि सुनाइ॥
गइ ग्रीषम, पावस-रितु आई, सब काहू चित चाइ।
तुम्ह बिन ब्रजबासी यौं डोलैं, ज्यौं करिया बिनु नाइ॥
तुम्हरौ कह्यौ मानिहैं मोहन, चरन पकरि लै आइ।
अब की बेर सूर के प्रभु कौं नैननि आन दिखाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) पपीहे! इस बार श्यामसुन्दरको (व्रजका) स्मरण कराना। जहाँ नन्दनन्दन सोये हुए हों, वहाँ उच्च स्वरसे (पी कहाँ) बोलकर उन्हें सुनाना कि ‘गर्मी बीत गयी, वर्षा-ऋतु आ गयी और सबके चित्तमें उमंग है; किंतु आपके बिना व्रजवासी लोग ऐसे घूमते (भटकते) हैं, जैसे केवटके बिना नौका।’ मोहन तुम्हारा कहना मान लेंगे। उनके चरण पकड़कर (प्रार्थना करके) ले आओ। अबकी बार हमारे स्वामीको लाकर आँखोंसे दिखला दो (उनका दर्शन करा दो)।
विषय (हिन्दी)
(२४२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी री, चातक मोहि जियावत।
जैसैंहि रैनि रटति हौं पिय-पिय, तैसैंहि वह पुनि गावत॥
अतिहिं सुकंठ, दाह प्रीतम कें, तारू जीभ न लावत।
आपुन पियत सुधा-रस अमृत, बोलि बिरहिनी प्यावत॥
यह पंछी जु सहाइ न होतौ, प्रान महा-दुख पावत।
जीवन सुफल सूर ताही कौ, काज पराए आवत॥
मूल
सखी री, चातक मोहि जियावत।
जैसैंहि रैनि रटति हौं पिय-पिय, तैसैंहि वह पुनि गावत॥
अतिहिं सुकंठ, दाह प्रीतम कें, तारू जीभ न लावत।
आपुन पियत सुधा-रस अमृत, बोलि बिरहिनी प्यावत॥
यह पंछी जु सहाइ न होतौ, प्रान महा-दुख पावत।
जीवन सुफल सूर ताही कौ, काज पराए आवत॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) ‘सखी! चातक मुझे जीवित रखता है; जैसे रातमें मैं बार-बार ‘पिय-पिय’ पुकारती हूँ, वैसे ही वह भी बार-बार गाता है। उसका कण्ठ अत्यन्त सुन्दर (सुरीला) है, पर प्रियतमके वियोगकी जलनके कारण (उसकी) जीभ तालूसे लगती ही नहीं (कभी चुप नहीं होता)। वह स्वयं भी (प्रियतमके नामरूपी) अमृतरसको पीता है और अपनी वाणीसे वियोगिनियोंको भी पिलाता है। यदि यह पक्षी सहायक न होता तो मेरे प्राण अत्यन्त दुःख पाते। उसीका जीवन सफल है, जो दूसरेके काम आता है।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२४३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातक न होइ, कोउ बिरहिनि नारि।
अजहूँ पिय-पिय रजनि सुरति करि, झूंठैंही मुख माँगत बारि॥
अति कृस गात देखि सखि! याकौ, अह-निसि बानी रटत पुकारि।
देखौ प्रीति बापुरे पसु की, आन जनम मानत नहिं हारि॥
अब पति बिनु ऐसौ लागत है, ज्यौं सरबर सोभित बिनु बारि।
त्यौंही सूर जानिऐ गोपी, जौ न कृपा करि मिलहु मुरारि॥
मूल
चातक न होइ, कोउ बिरहिनि नारि।
अजहूँ पिय-पिय रजनि सुरति करि, झूंठैंही मुख माँगत बारि॥
अति कृस गात देखि सखि! याकौ, अह-निसि बानी रटत पुकारि।
देखौ प्रीति बापुरे पसु की, आन जनम मानत नहिं हारि॥
अब पति बिनु ऐसौ लागत है, ज्यौं सरबर सोभित बिनु बारि।
त्यौंही सूर जानिऐ गोपी, जौ न कृपा करि मिलहु मुरारि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) यह पपीहा नहीं है, (इस रूपमें) यह तो कोई वियोगिनी स्त्री है, जो अब भी रातमें अपने प्रियतमका स्मरण करके ‘पी कहाँ, पी कहाँ’ करती झूठ-मूठ (अपने) मुखमें (वर्षाका) जल माँगती है। सखी! देखो, इसका शरीर अत्यन्त दुर्बल है, (फिर भी) रात-दिन यही शब्द पुकारकर रटती रहती है। इस विचारे पशु (पक्षी)-का प्रेम तो देखो कि दूसरे जन्ममें भी हार नहीं मानता। अब पतिके बिना यह ऐसी लगती है, जैसे जलके बिना सरोवर शोभित (शून्य) दिखायी पड़ता हो। हे मुरारी! यदि कृपा करके आप न मिले तो समझ लो कि यही दशा गोपियोंकी भी होगी (हम भी जन्म-जन्म इसी प्रकार तुम्हारा नाम रटेंगी)।
राग आसावरी
विषय (हिन्दी)
(२४४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मेरी को बोलै साखि।
कैसैं हरि के संग सिधारैं, अब लौं यह तन राखि॥
प्रान-उदान फिरैं बन-बीथिनि, अवलोकन-अभिलाषि।
रूप-रंग रस-रासि परान्यौ, बचन न आवै भाषि॥
सूर सजीवन-मूरि मुकुंदहि, लै आई ही आँखि।
अब सोइ अंजन देति सुरुचि करि, जिहिं जीजै मुख चाखि॥
मूल
अब मेरी को बोलै साखि।
कैसैं हरि के संग सिधारैं, अब लौं यह तन राखि॥
प्रान-उदान फिरैं बन-बीथिनि, अवलोकन-अभिलाषि।
रूप-रंग रस-रासि परान्यौ, बचन न आवै भाषि॥
सूर सजीवन-मूरि मुकुंदहि, लै आई ही आँखि।
अब सोइ अंजन देति सुरुचि करि, जिहिं जीजै मुख चाखि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब (मोहनके पास) मेरी (प्रीतिकी) साक्षी कौन दे। अबतक यह शरीर रखे रही (वियोग होते ही देहत्याग नहीं किया), अब श्यामके साथ कैसे जा सकूँगी? उन्हें देखनेकी लालसासे प्राण उतावले होकर वनके मार्गोंमें भटकते हैं। साथ ही रूप, रंग और रस भी उनको देखनेकी लालसासे भाग गये, (मुझसे उनकी कोई) बात नहीं कही जाती। ये आँखें संजीवनी जड़ीके (रूपमें) उन मुकुन्दको ले आयी थीं, अब अत्यन्त रुचि (उमंग)-पूर्वक वही अंजन लगाऊँगी, जिससे (उनके) मुखका दर्शन करके जीवित रहा जाय।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२४५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुत दिन जीवौ, पपिहा प्यारौ।
बासर-रैनि नाम लै बोलत, भयौ बिरह जरि कारौ॥
आपु दुखित, पर दुखित जानि जिय, चातक नाम तुम्हारौ।
देख्यौ सकल बिचारि सखी जिय, बिछुरन कौ दुख न्यारौ॥
जाहि लगै सोई पै जानै, प्रेम-बान अनियारौ।
सूरदास-प्रभु स्वाति-बूँद लगि, तज्यौ सिंधु करि खारौ॥
मूल
बहुत दिन जीवौ, पपिहा प्यारौ।
बासर-रैनि नाम लै बोलत, भयौ बिरह जरि कारौ॥
आपु दुखित, पर दुखित जानि जिय, चातक नाम तुम्हारौ।
देख्यौ सकल बिचारि सखी जिय, बिछुरन कौ दुख न्यारौ॥
जाहि लगै सोई पै जानै, प्रेम-बान अनियारौ।
सूरदास-प्रभु स्वाति-बूँद लगि, तज्यौ सिंधु करि खारौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) प्यारे पपीहा! (तुम) बहुत दिनोंतक जीवित रहो; (क्योंकि तुम) दिन-रात (प्रियका) नाम लेकर बोलते हो और उनके वियोगमें जलकर काले हो गये हो। स्वयं दुःखित हो और दूसरोंका दुःख (भी) मनमें समझते हो, इसीसे तुम्हारा नाम चातक है। सखी! सब बातें सोचकर देख लीं, किंतु (प्रियसे) वियोगका दुःख तो (सब दुःखोंसे) अलग ही है। यह प्रेमका तीक्ष्ण बाण जिसे लगता है, वही उसे समझ सकता है (अन्य नहीं। अतएव इस चातकके समान) स्वामीरूपी स्वातीकी बूँदके लिये (मैंने भी) इस संसाररूपी खारे समुद्रको (दुःखद मानकर) छोड़ दिया है।
विषय (हिन्दी)
(२४६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
(हौं तौ मोहन के) बिरह जरी रे, तू कत जारत।
रे पापी तू पंखि पपीहा, पिय-पिय करि अध-राति पुकारत॥
करी न कछु करतूति सुभट की, मूठि मृतक अबलनि सर मारत।
रे सठ, तू जु सतावत औरनि, जानत नहिं अपने जिय आरत॥
सब जग सुखी, दुखी तू जल बिनु, तहू न उर की बिथा बिचारत।
सूर स्याम बिनु ब्रज पै बोलत, काहें अगिलौ जनम बिगारत॥
मूल
(हौं तौ मोहन के) बिरह जरी रे, तू कत जारत।
रे पापी तू पंखि पपीहा, पिय-पिय करि अध-राति पुकारत॥
करी न कछु करतूति सुभट की, मूठि मृतक अबलनि सर मारत।
रे सठ, तू जु सतावत औरनि, जानत नहिं अपने जिय आरत॥
सब जग सुखी, दुखी तू जल बिनु, तहू न उर की बिथा बिचारत।
सूर स्याम बिनु ब्रज पै बोलत, काहें अगिलौ जनम बिगारत॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) अरे पपीहे! मैं तो श्यामके वियोगमें दग्ध हूँ, तू जली हुईको क्यों जलाता है? अरे पक्षी पपीहे! तू बड़ा पापी है जो आधी रातको ‘पी कहाँ, पी कहाँ’ करके पुकारता है। उत्तम योद्धाका-सा कोई काम तो तूने किया नहीं, किंतु मरी हुई अबलाओंको बाणोंकी मूठसे मारता है। अरे दुष्ट! तू जो दूसरोंको सताता है तो क्या अपने मनमें यह नहीं जानता कि ये दुःखी हैं? सारा संसार सुखी है, पर तू जलके बिना दुःखी रहता है; फिर भी दूसरेके हृदयकी पीड़ाका विचार नहीं करता। श्यामसुन्दरके वियोगी व्रजमें तू बोलता है! (अरे, इस जन्ममें तो दुःखी है ही, यह पाप करके) अपना अगला जन्म भी क्यों बिगाड़ता है?
राग नट
विषय (हिन्दी)
(२४७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौ तू नैंकहूँ उड़ि जाहि।
कहा निसि-बासर बकत बन, बिरहिनी तन चाहि॥
बिबिध बचन सुदेस बानी इहाँ रिझवत काहि।
पति-बिमुख पिक परुष पसु लौं इतौ कहा रिसाहि॥
नाहिनैं कोउ सुनत-समुझत, बिकल बिरह-बिथाहि।
राखि लै तन वा अवधि लौं, मदन-मुख जनि खाहि॥
तुहू तौ तन दग्ध दिखियत, बहुरि कह समुझाहि।
करि कृपा ब्रज सूर-प्रभु बिनु मौन मोहि बिसाहि॥
मूल
जौ तू नैंकहूँ उड़ि जाहि।
कहा निसि-बासर बकत बन, बिरहिनी तन चाहि॥
बिबिध बचन सुदेस बानी इहाँ रिझवत काहि।
पति-बिमुख पिक परुष पसु लौं इतौ कहा रिसाहि॥
नाहिनैं कोउ सुनत-समुझत, बिकल बिरह-बिथाहि।
राखि लै तन वा अवधि लौं, मदन-मुख जनि खाहि॥
तुहू तौ तन दग्ध दिखियत, बहुरि कह समुझाहि।
करि कृपा ब्रज सूर-प्रभु बिनु मौन मोहि बिसाहि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—‘अरे पपीहा!) काश तू (यहाँसे) तनिक भी उड़ जाता (तो कितना उत्तम होता)। अरे! (जरा तो) वियोगिनीके शरीर (दशा)-का विचार कर, रात-दिन वनमें क्या बकता (बोलता) है? मीठे स्वरोंमें नाना प्रकारकी बोली बोलकर यहाँ किसे रिझाता (प्रसन्न करता) है? अरे कोकिल! क्रूर पशुके समान अपने प्रियतमसे विमुख (वियुक्त) हमपर इतना क्यों रुष्ट होता है? यहाँ (तेरी बात) कोई सुनता-समझता नहीं, सब वियोगकी पीड़ासे व्याकुल हैं। अरे श्यामके लौटनेकी अवधितक हमारे शरीरको रख ले, मदन-मुख बनकर (कामदेवको उत्तेजित करनेवाले शब्द बोलकर) हमें खा मत। तेरा शरीर भी तो जला दिखायी पड़ता है, फिर (तुझे) समझाकर क्या कहूँ? कृपा करके स्वामीसे वियुक्त व्रजमें चुप रहनेके बदले (मूल्य)-में मुझे खरीद ले (कृतज्ञ बना ले)।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२४८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोकिल! हरि कौ बोल सुनाउ।
मधुबन तैं उपहारि स्याम कौं, या ब्रज कौं लै आउ॥
जा जस कारन देत सयाने तन, मन, धन—सब साज।
सुजस बिकात बचन के बदलें, क्यौं न बिसाहत आज॥
कीजै कछु उपकार परायौ, यहै सयानौ काज।
सूरदास पुनि कहँ यह अवसर, बिनु बसंत रितुराज॥
मूल
कोकिल! हरि कौ बोल सुनाउ।
मधुबन तैं उपहारि स्याम कौं, या ब्रज कौं लै आउ॥
जा जस कारन देत सयाने तन, मन, धन—सब साज।
सुजस बिकात बचन के बदलें, क्यौं न बिसाहत आज॥
कीजै कछु उपकार परायौ, यहै सयानौ काज।
सूरदास पुनि कहँ यह अवसर, बिनु बसंत रितुराज॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—अरी) कोकिल! तू श्यामसुन्दरकी-सी वाणी सुना, यह (स्वररूपी) उपहार देकर श्यामसुन्दरको मथुरासे इस व्रजमें ले आ। जिस सुयशको पानेके लिये चतुर लोग तन, मन, धन और सारी सम्पत्ति दे देते हैं, वह सुयश केवल शब्दके मोल बिक रहा है, उसे तू आज क्यों नहीं खरीद लेती? चतुर व्यक्तिका काम यही है कि कुछ दूसरेका उपकार किया जाय। फिर यह सुअवसर कहाँ मिलेगा कि बिना वसन्त-ऋतुके ही ऋतुराज हो जाय (श्यामका आना तो वसन्तके बिना ही ऋतुराजका सुख देगा)।
विषय (हिन्दी)
(२४९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि री सखी! समुझि सिख मेरी।
जहाँ बसत जदुनाथ, जगत-मनि, बारक तहाँ आउ दै फेरी॥
तू, कोकिला! कुलीन, कुसल-मति, जानति बिथा बिरहिनी केरी।
उपबन बैसि, बोलि बर बानी, बचन सुनाइ हमहि करि चेरी॥
कहियौ प्रगट सुनाइ स्याम सौं, अबला आनि अनँग अरि घेरी।
तो सी नाहिं और उपकारिन, यह बसुधा सब बुधि करि हेरी॥
प्राननि के बदलें न पाइयत, सैंत बिकाइ सुजस की ढेरी।
ब्रज लै आउ सूर के प्रभु कों, गाऊँगी कल कीरति तेरी॥
मूल
सुनि री सखी! समुझि सिख मेरी।
जहाँ बसत जदुनाथ, जगत-मनि, बारक तहाँ आउ दै फेरी॥
तू, कोकिला! कुलीन, कुसल-मति, जानति बिथा बिरहिनी केरी।
उपबन बैसि, बोलि बर बानी, बचन सुनाइ हमहि करि चेरी॥
कहियौ प्रगट सुनाइ स्याम सौं, अबला आनि अनँग अरि घेरी।
तो सी नाहिं और उपकारिन, यह बसुधा सब बुधि करि हेरी॥
प्राननि के बदलें न पाइयत, सैंत बिकाइ सुजस की ढेरी।
ब्रज लै आउ सूर के प्रभु कों, गाऊँगी कल कीरति तेरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी (कोकिल)! तू मेरी शिक्षा सुन और समझ ले। जहाँ जगत् के शिरोमणि श्रीयदुनाथ निवास करते हैं, वहाँ एक बार फेरी लगा आ। (अरी) कोकिल! तू उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई है, बुद्धिकी चतुर है और वियोगिनियोंकी पीड़ा जानती है; (अतएव वहाँ) उपवनमें बैठकर, उत्तम वाणी बोलकर और उनको अपना शब्द सुनाकर हमें दासी (कृतज्ञ) बना ले। तू श्यामसुन्दरको सुनाकर यह प्रत्यक्ष (स्पष्ट) कहना कि (व्रजकी) अबलाओंको शत्रु कामदेवने घेर लिया है। यह पूरी पृथ्वी हमने बुद्धिकी आँखसे देख ली, (यहाँ) तेरे समान (दूसरी) कोई उपकार करनेवाली नहीं है। (जो) प्राणोंके मूल्यपर भी नहीं मिलती, वह सुयशकी ढेरी बिना मूल्यके बिक रही है। हमारे स्वामीको तू व्रजमें ले आ, (मैं) तेरी मनोहर कीर्ति (सदा) गाती रहूँगी।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२५०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब यह बरषौ बीति गई।
जनि सोचै, सुख मानि सयानी, भलि रितु सरद भई॥
फुल्ल सरोज सरोवर सुंदर, नव बिधि नलिनि नई।
उदित चारु चंद्रिका किरन, उर अंतर अमृतमई॥
घटी घटा अभिमान मोह मद, तमिता तेज हई।
सरिता संजम स्वच्छ सलिल सब, फाटी काम कई॥
यहै सरद-संदेस, सूर! सुनि, करुनाँ कहि पठई।
यह सुनि सखी सयानी आई, हरि-रति अवधि हई॥
मूल
अब यह बरषौ बीति गई।
जनि सोचै, सुख मानि सयानी, भलि रितु सरद भई॥
फुल्ल सरोज सरोवर सुंदर, नव बिधि नलिनि नई।
उदित चारु चंद्रिका किरन, उर अंतर अमृतमई॥
घटी घटा अभिमान मोह मद, तमिता तेज हई।
सरिता संजम स्वच्छ सलिल सब, फाटी काम कई॥
यहै सरद-संदेस, सूर! सुनि, करुनाँ कहि पठई।
यह सुनि सखी सयानी आई, हरि-रति अवधि हई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) ‘अब यह वर्षा-ऋतु भी बीत गयी। (इसलिये) चतुर सखी! (अब) चिन्ता मत कर, प्रसन्न हो जा; क्योंकि उत्तम ऋतु शरद् आ गयी है। सुन्दर सरोवरोंमें कमल खिल गये हैं, नये ढंगसे नवीन कमलपत्र आ गये हैं तथा सुन्दर चन्द्रमाकी किरणें (भी) उदय होने लगी हैं, जो हृदयके भीतर अमृतमय जान पड़ती हैं। अभिमान, मोह और मदकी घटाएँ घट गयीं (क्षीण हो गयीं) जिससे तमोगुणका तेज नष्ट हो गया तथा संयमरूपी सब नदियोंका जल स्वच्छ हो गया है, कामरूपी काई फट गयी (दूर हो गयी) है। शरद्-ऋतुका यही संदेश है, जिसे दया करके (श्यामसुन्दरने) कहला भेजा है।’ यह सुनकर सब चतुर सखियाँ (वहाँ) आ गयीं, जो श्यामसुन्दरके प्रेममें (उनके लौटनेकी) अवधि (देखती) मृतप्राय हो रही थीं।
राग मारू
विषय (हिन्दी)
(२५१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरद-समैं हू स्याम न आए।
को जानै काहे तैं सजनी, किहिं बैरिनि बिरमाए॥
अमल अकास, कास कुसुमित छिति, लच्छन स्वच्छ जनाए।
सर-सरिता-सागर-जल उज्जल, अति कुल कमल सुहाए॥
अहि मयंक, मकरंद कंज, अलि, दाहक गरल जिवाए।
प्रीतम रंग संग मिलि सुंदरि, रचि सचि सींचि सिराए॥
सूनी सेज तुषार जमत चिर, बिरह-सिंधु उपजाए।
अब गइ आस सूर मिलिबे की, भए ब्रजनाथ पराए॥
मूल
सरद-समैं हू स्याम न आए।
को जानै काहे तैं सजनी, किहिं बैरिनि बिरमाए॥
अमल अकास, कास कुसुमित छिति, लच्छन स्वच्छ जनाए।
सर-सरिता-सागर-जल उज्जल, अति कुल कमल सुहाए॥
अहि मयंक, मकरंद कंज, अलि, दाहक गरल जिवाए।
प्रीतम रंग संग मिलि सुंदरि, रचि सचि सींचि सिराए॥
सूनी सेज तुषार जमत चिर, बिरह-सिंधु उपजाए।
अब गइ आस सूर मिलिबे की, भए ब्रजनाथ पराए॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) शरद्-ऋतुके समय भी श्यामसुन्दर नहीं आये। सखी! कौन जाने किसलिये नहीं आये, (हमारी) किस वैरिनने (उन्हें) रोक रखा है। आकाश निर्मल हो गया है, पृथ्वीपर कास फूल रहा है, स्वच्छताके सभी लक्षण प्रकट हो गये हैं; सरोवरों, नदियों और समुद्रका जल निर्मल हो गया है और उनमें बहुत अधिक कमल (फूले हुए) शोभा देने लगे हैं। चन्द्रमाने साँपोंको (अपनी किरणें पिलाकर) उनको जलानेवाले विषसे* तथा कमलोंने अपना मकरन्द देकर भौंरोंको जिलाया है। सुन्दरियाँ (भी) अपने प्रियतमके साथ अनुरागपूर्वक मिलकर, आमोद-प्रमोद द्वारा अपनेको (स्नेहसे) सिंचित करके (हृदय) शीतल करती हैं; किंतु (वही चन्द्रमा) हमारी सूनी शय्यापर देरतक पाला जमाकर हमारे लिये वियोगका समुद्र उत्पन्न करता है। अब मिलनकी आशा नष्ट हो गयी, श्रीव्रजनाथ दूसरोंके हो गये।
पादटिप्पनी
- शरद्-ऋतुमें चन्द्रमाकी किरणोंसे शीतल पत्तोंपर पड़ी ओस सर्प चाटते हैं—ऐसी जनश्रुति है।
विषय (हिन्दी)
(२५२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद बिनु कौन हरै नैनन की जरनि।
सरद-निसा अनल भई, चंद भयौ तरनि॥
तन में संताप भयौ, दुरॺौ अनंद घरनि।
प्रेम-पुलक बार-बार, अँसुअन की ढरनि॥
वे दिन जौ सुरति करौं, पाइन की परनि।
सूर स्याम क्यौं बिसारि लीला बन करनि॥
मूल
गोबिंद बिनु कौन हरै नैनन की जरनि।
सरद-निसा अनल भई, चंद भयौ तरनि॥
तन में संताप भयौ, दुरॺौ अनंद घरनि।
प्रेम-पुलक बार-बार, अँसुअन की ढरनि॥
वे दिन जौ सुरति करौं, पाइन की परनि।
सूर स्याम क्यौं बिसारि लीला बन करनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) गोविन्दके बिना हमारे नेत्रोंकी जलन कौन दूर करे? हमारे लिये (यह) शरद्की रात्रि अग्नि बन गयी है और चन्द्रमा सूर्य (-के समान उष्ण) हो गया है। शरीरमें संताप उत्पन्न होनेके कारण घरोंका आनन्द छिप गया (नष्ट हो गया) है; (फिर भी) बार-बार प्रेमके कारण रोमांच होता है और आँसू ढुलकने लगते हैं। (मुझे) उन दिनोंकी याद आती है, जब वे (मोहन) पाँवों पड़ते थे (और मनाते थे)। (अब) श्यामसुन्दरने वनमें (उन अनेकों) लीलाएँ करनेकी सुधि क्यों विस्मृत कर दी?
राग देसकार
विषय (हिन्दी)
(२५३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबै रितु औरै लागति आहि।
सुनि, सखि! वा ब्रजराज बिना सब फीकौ लागत चाहि॥
वे घन देखि नैन बरसत हैं, पावस गऐं सिरात।
सरद सनेह सँचै सरिता उर, मारग ह्वै जल जात॥
हिम हिमकर देखैं उपजत अति, निसा रहति इहिं जोग।
सिसिर बिकल काँपत जु कमल-उर, सुमिरि स्याम-रस-भोग॥
निरखि बसंत बिरह-बेली तन, वे सुख, दुख ह्वै फूलत।
ग्रीषम काम निमिष छाँड़त नहिं, देह-दसा सब भूलत॥
षट् रितु ह्वै इक ठाम कियौ तन, उठै त्रिदोष जुरै।
सूर अवधि उपचार आज लौं, राखे प्रान भुरै॥
मूल
सबै रितु औरै लागति आहि।
सुनि, सखि! वा ब्रजराज बिना सब फीकौ लागत चाहि॥
वे घन देखि नैन बरसत हैं, पावस गऐं सिरात।
सरद सनेह सँचै सरिता उर, मारग ह्वै जल जात॥
हिम हिमकर देखैं उपजत अति, निसा रहति इहिं जोग।
सिसिर बिकल काँपत जु कमल-उर, सुमिरि स्याम-रस-भोग॥
निरखि बसंत बिरह-बेली तन, वे सुख, दुख ह्वै फूलत।
ग्रीषम काम निमिष छाँड़त नहिं, देह-दसा सब भूलत॥
षट् रितु ह्वै इक ठाम कियौ तन, उठै त्रिदोष जुरै।
सूर अवधि उपचार आज लौं, राखे प्रान भुरै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) सभी ऋतुएँ अब दूसरी ही भाँतिकी लगती हैं। सखी! सुन, उन श्रीव्रजराजके बिना सब उमंगें फीकी लगती हैं। वर्षा-ऋतुके मेघोंको देखकर नेत्र वर्षा करने (अश्रु गिराने) लगते हैं और (उसके) बीतनेपर (वे) शीतल होते हैं; (क्योंकि श्यामसुन्दरके) प्रेमकी जो नदी हृदयमें एकत्र है, वह शरद्-ऋतुमें नेत्रोंके मार्गसे जल बनकर बहने लगा है। (हेमन्तकी) शीतलता और चन्द्रमाको देखकर (तो) यह (वेदना) और (भी) उत्पन्न होती (बढ़ जाती) है। मैं रात्रिमें इसी प्रकार व्याकुल रहती हूँ तथा शिशिर-ऋतुमें श्यामसुन्दरके साथ (किये गये उन) आनन्दोपभोगोंका स्मरण करके हृदय व्याकुल होकर कमलके समान काँपता है। वसन्त-ऋतुको देखकर शरीरमें (जो) वियोगकी लता पनप रही है, उसमें वे (पहलेके) सुख (अब) दुःख बनकर फूलने लगे हैं और ग्रीष्म-ऋतुमें कामदेव एक क्षणको भी छोड़ता नहीं, (जिससे) शरीरकी सब सुधि भूल जाती है। इस प्रकार छहों ऋतुओंने एकत्र होकर मेरे शरीरमें ही स्थान बना लिया है और त्रिदोष (वात, कफ, पित्तके समान वियोग, वेदना एवं काम)-का ज्वर उत्पन्न कर दिया है। अस्तु, अबतक तो अवधि (मोहनके लौटनेके समय)-रूपी उपचार (दवा)-से किसी प्रकार प्राणोंको भुलावा देकर (बहकाकर) रोक रखा है (पर आगे क्या होगा, समझमें नहीं आता)।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(२५४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैं सब लिखि सोभा जु बनाई।
सजल जलद तन, बसन कनक-रुचि, उर बहु दाम रुराई॥
उन्नत कँध, कटि खीन, बिसद भुज, अंग-अंग सुखदाई।
सुभग कपोल, नासिका की छबि, अलक हिलत दुति पाई॥
जानति ही यह लोल लेख करि, ऐसैंहिं दिन बिरमाई।
सूरदास मृदु बचन स्रवन कौं अति आतुर अकुलाई॥
मूल
मैं सब लिखि सोभा जु बनाई।
सजल जलद तन, बसन कनक-रुचि, उर बहु दाम रुराई॥
उन्नत कँध, कटि खीन, बिसद भुज, अंग-अंग सुखदाई।
सुभग कपोल, नासिका की छबि, अलक हिलत दुति पाई॥
जानति ही यह लोल लेख करि, ऐसैंहिं दिन बिरमाई।
सूरदास मृदु बचन स्रवन कौं अति आतुर अकुलाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) मैंने चित्रमें अंकित करके (श्यामसुन्दरकी) सब शोभा सजायी, जल-भरे मेघके समान शरीर तथा स्वर्णकी-सी कान्तिवाला वस्त्र बनाकर (उनके) वक्षःस्थलपर बहुत-सी मालाएँ लटकती बनायीं। उन्नत (चौड़े) कंधे, पतली कटि, विशाल भुजाएँ और अंग-प्रत्यंग सुखदायक बनाये। (अरी, क्या कहूँ, उस समय उनके) मनोहर कपोल, शोभा देती हुई नासिका और हिलती हुई अलकें (कैसी) छटा दे रही थीं। जानती थी कि यह चंचल लेखनीद्वारा बनाया गया (चित्र) है, (फिर भी मैंने उसे ही निरख-निरखकर किसी प्रकार) दिन बिताया; किंतु (श्यामसुन्दरके) कोमल वचन कानोंसे सुननेके लिये (मैं) अत्यन्त आतुर (उत्सुक) होकर व्याकुल हो उठी।
विषय (हिन्दी)
(२५५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुरली कौन बजावै आज।
वे अक्रूर क्रूर करनी करि, लै जु गए ब्रजराज॥
कंस, केसि, मुष्टिक संहारॺौ, कियौ सुरन कौ काज।
उग्रसेन राजा करि थापे, सबहिन के सिरताज॥
कृष्नहि छाँड़ि नंद गृह आए, क्यौंऽब जिऐं उन बाज।
सूरज-प्रभु बिष-मूरि खाइहैं, यहै हमारौ साज॥
मूल
मुरली कौन बजावै आज।
वे अक्रूर क्रूर करनी करि, लै जु गए ब्रजराज॥
कंस, केसि, मुष्टिक संहारॺौ, कियौ सुरन कौ काज।
उग्रसेन राजा करि थापे, सबहिन के सिरताज॥
कृष्नहि छाँड़ि नंद गृह आए, क्यौंऽब जिऐं उन बाज।
सूरज-प्रभु बिष-मूरि खाइहैं, यहै हमारौ साज॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) आज (वह) वंशी कौन बजाये? वे अक्रूर, जो क्रूर—निष्ठुर नहीं थे, क्रूर (निष्ठुर) कर्म करके (यहाँसे) व्रजराजको ले गये। (मथुरा जाकर श्रीकृष्णने) कंस, केशी और मुष्टिकका वध किया और (इस प्रकार) देवताओंका कार्य सिद्ध किया तथा उग्रसेनको राजा बनाकर सब (राजाओं)-के मुकुटरूपसे (सर्वश्रेष्ठ करके) स्थापित कर दिया। नन्दजी (भी) श्रीकृष्णचन्द्रको छोड़कर घर आ गये, (पर) हम उनके बिना (अब) कैसे जीवित रहें? अब हमारे लिये तो यही साज (उपाय) है कि अपने स्वामीके लिये हम कोई विषैली जड़ी खा लें।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२५६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिनु मुरली कौन बजावै।
सुंदर स्याम कमल-लोचन बिनु, को मधुरे सुर गावै॥
ये दोउ स्रवन सुधा-रस पोषै, को ब्रज फेरि बसावै।
ऐसो निठुर कियौ हरि जू मन, पंथी पंथ न आवै॥
छाँड़ी सुरति नंद-जसुमति की, हमारी कौन चलावै।
सूर-स्याम कौं प्रीति पाछिली को अब सुरति करावै॥
मूल
हरि बिनु मुरली कौन बजावै।
सुंदर स्याम कमल-लोचन बिनु, को मधुरे सुर गावै॥
ये दोउ स्रवन सुधा-रस पोषै, को ब्रज फेरि बसावै।
ऐसो निठुर कियौ हरि जू मन, पंथी पंथ न आवै॥
छाँड़ी सुरति नंद-जसुमति की, हमारी कौन चलावै।
सूर-स्याम कौं प्रीति पाछिली को अब सुरति करावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब मोहनके बिना वंशी कौन बजाये और उन कमल-दल-लोचन श्यामसुन्दरके बिना मधुर स्वरसे कौन गाये। ये दोनों कान तो उस अमृत-रससे पुष्ट हुए हैं, अब व्रजको फिर (इस प्रकार) कौन बसाये (व्रज तो मोहनके बिना उजड़गया)। अरी, श्यामसुन्दरने तो अपना मन ऐसा निष्ठुर बना लिया है कि इस मार्गसे (उनका संदेश लेकर) कोई यात्री भी नहीं आता। जब उन्होंने (बाबा) नन्द और (मैया) यशोदाकी सुधि लेना ही छोड़ दिया, तब हमारी कौन चर्चा—क्या बात है। अब श्यामसुन्दरको (हमारी) पिछली प्रीतिका स्मरण कौन कराये?
विषय (हिन्दी)
(२५७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
माई! बहुरि न बाजी बेन।
को जैहै मेरे खिरक दुहावन गाइन, रही फिरि ऐन॥
सूनौ घर, सूनी सुख-सिज्जा, जहाँ करत सुख-सैन।
सूने ग्वाल-बाल सब गोपी, नहीं कहूँ उन चैन॥
ब्रज की मनि, गोकुल कौ नायक, कियौ मधुपुरी गैन।
सूरदास प्रभु के दरसन बिनु तृप्ति न मानत नैन॥
मूल
माई! बहुरि न बाजी बेन।
को जैहै मेरे खिरक दुहावन गाइन, रही फिरि ऐन॥
सूनौ घर, सूनी सुख-सिज्जा, जहाँ करत सुख-सैन।
सूने ग्वाल-बाल सब गोपी, नहीं कहूँ उन चैन॥
ब्रज की मनि, गोकुल कौ नायक, कियौ मधुपुरी गैन।
सूरदास प्रभु के दरसन बिनु तृप्ति न मानत नैन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! (श्यामसुन्दरके व्रजसे पधारनेके बाद) वंशी फिर नहीं बजी। अब मेरी गोशालामें गायें दुहवाने कौन जायगा? वे (गायें) तो (अपने) स्थानोंपर घूम रही हैं (खड़ी नहीं होतीं)। जहाँ (मोहन) सुखपूर्वक सोते थे, वह घर और शय्या सूनी पड़ी है तथा सब गोपबालक और गोपियाँ (भी) सूनी (उदास) हो रही हैं, उन्हें कहीं शान्ति नहीं है। (ओह!) व्रजकी मणि (एवं) गोकुलके नायक श्यामसुन्दर मथुरा चले गये, अब उन स्वामीके दर्शनके बिना ये मेरे नेत्र तृप्ति नहीं मानते (बेचैन रहते) हैं।
राग कान्हरौ
विषय (हिन्दी)
(२५८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
छूटि गई ससि-सीतलताई।
मनु मोहि जारि भसम कियौ चाहत, साजत सोइ कलंक तन काई॥
याही तैं स्याम अकास देखियत, मानौं धूम रह्यौ लपटाई।
ता ऊपर दै देति किरनि उर, उडुगन-कनी उचटि इत आई॥
राहु-केतु दोउ जोरि एक करि, नींद समै जुरि आवैं माई।
ग्रसे तैं न पचि जात तापमय, कहत सूर बिरहिनि दुखदाई॥
मूल
छूटि गई ससि-सीतलताई।
मनु मोहि जारि भसम कियौ चाहत, साजत सोइ कलंक तन काई॥
याही तैं स्याम अकास देखियत, मानौं धूम रह्यौ लपटाई।
ता ऊपर दै देति किरनि उर, उडुगन-कनी उचटि इत आई॥
राहु-केतु दोउ जोरि एक करि, नींद समै जुरि आवैं माई।
ग्रसे तैं न पचि जात तापमय, कहत सूर बिरहिनि दुखदाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) चन्द्रमाकी शीतलता दूर हो गयी है, मानो वह मुझे जलाकर भस्म कर देना चाहता है, वही (क्रोधरूपी) कालिमाका कलंक अपने शरीरमें सजा रहा है। इसीसे आकाश भी काला दिखायी पड़ता है, मानो धुआँ उससे लिपटा हुआ हो। इतनेपर भी (वह) किरणोंके द्वारा हमारे हृदयमें दावाग्नि लगाता है, जिसकी चिनगारियाँ ही तारागणोंके रूपमें उछलकर आकाशमें छा गयी हैं। सखी! निद्राके समय (तो) राहु और केतु दोनों जुड़ (एक हो)-कर एक साथ आते हैं; किंतु (उनके द्वारा) निगल लिये जानेपर भी यह तापमय (उष्ण चन्द्रमा उनके पेटमें) पच नहीं पाता (निद्राके समय अदृश्य होनेके बाद जागनेपर फिर दीखने लगता है)! यह (तो) वियोगिनियोंके लिये दुःख देनेवाला कहा ही जाता है।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(२५९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह ससि, सीतल काहें कहियत।
मीनकेत अंबुज आनंदित, तातैं ता हित लहियत॥
एक कलंक मिट्यौ नहिं अजहूँ, मनौं दूसरौ चहियत।
याही दुख तैं घटत-बढ़त नित, निसा नींद रिपु गहियत॥
बिरहिनि अरु कमलिनि त्रासत कहुँ, अपकारी रथ नहियत।
सूरदास-प्रभु मधुबन गौने, तौ इतनौ दुख सहियत॥
मूल
यह ससि, सीतल काहें कहियत।
मीनकेत अंबुज आनंदित, तातैं ता हित लहियत॥
एक कलंक मिट्यौ नहिं अजहूँ, मनौं दूसरौ चहियत।
याही दुख तैं घटत-बढ़त नित, निसा नींद रिपु गहियत॥
बिरहिनि अरु कमलिनि त्रासत कहुँ, अपकारी रथ नहियत।
सूरदास-प्रभु मधुबन गौने, तौ इतनौ दुख सहियत॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) यह चन्द्रमा किस कारणसे शीतल कहा जाता है? (कुछ समझमें नहीं आता।) कामदेव और कुमुदिनी इससे प्रसन्न होती हैं, इसलिये उनका प्रेम यह पाता है। किंतु इसका एक कलंक तो अभीतक मिटा नहीं और मानो दूसरा (कलंक) इसे और चाहिये; (कहीं) इसी दुःखसे (तो यह) नित्य (नहीं) घटता-बढ़ता (अथवा) रात्रिमें निद्रारूपी शत्रु इसे पकड़कर अदृश्य कर देता है? यह वियोगिनियों और कमलिनियोंको पीड़ा देता है, (और इस प्रकार) अपकार (बुराई)-रूपी रथ जोड़कर (उसपर) बैठा है। हमारे स्वामी मथुरा चले गये, इसीसे इतना दुःख हम सहन कर रही हैं।
विषय (हिन्दी)
(२६०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखि! कर धनु लै चंदहि मारि।
तब तो पै कछुवै न सरैहै, जब अति जुर जैहै तन जारि॥
उठि हरुवाइ जाइ मंदिर चढ़ि, ससि सनमुख दरपन बिस्तारि।
ऐसी भाँति बुलाइ मुकुर मैं, अति बल खंड-खंड करि डारि॥
सोई अवधि निकट आई है, चलत मोहि जो दई मुरारि।
सूरदास बिरहिनि यौं तलफति, जैसैं मीन दीन बिनु बारि॥
मूल
सखि! कर धनु लै चंदहि मारि।
तब तो पै कछुवै न सरैहै, जब अति जुर जैहै तन जारि॥
उठि हरुवाइ जाइ मंदिर चढ़ि, ससि सनमुख दरपन बिस्तारि।
ऐसी भाँति बुलाइ मुकुर मैं, अति बल खंड-खंड करि डारि॥
सोई अवधि निकट आई है, चलत मोहि जो दई मुरारि।
सूरदास बिरहिनि यौं तलफति, जैसैं मीन दीन बिनु बारि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—) सखी! हाथमें धनुष लेकर चन्द्रमाको मार दे; नहीं तो उस समय तुझसे कुछ करते नहीं बनेगा, जब यह अपनी तीव्र ज्वालासे मेरे शरीरको जलाकर चला जायगा। अरी, जल्दीसे उठकर भवनके ऊपर चढ़ जा और चन्द्रमाके सम्मुख दर्पण रख दे और इस प्रकार उसे दर्पणमें बुलाकर अत्यन्त बलपूर्वक पटककर (दर्पणसहित उसे) टुकड़े-टुकड़े कर डाल। चलते समय मुरारीने (लौटनेका) जो समय तुझे दिया था, वही समय पास आ गया है (अतः उनके आनेतक मुझे बचा ले)। सूरदासजी कहते हैं कि (वह) वियोगिनी इस प्रकार तड़फड़ा रही है, जैसे जलके बिना मछली दुःखी हो।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२६१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर कौ तिलक हरि बिनु दहत।
वै कहियत उडुराज अमृत-मय, तजि सुभाव सो मोहि निबहत॥
कत रथ थकित भयौ पच्छिम दिसि, राहु गहन लौं मोहि गहत।
छपौ न छीन होत, सुनि सजनी! भूमि-भवन-रिपु कहाँ रहत॥
सीतल सिंधु जनम जा केरौ, तरनि-तेज होइ कह धौं चहत।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु प्रान तजतिं, यह नाहिं सहत॥
मूल
हर कौ तिलक हरि बिनु दहत।
वै कहियत उडुराज अमृत-मय, तजि सुभाव सो मोहि निबहत॥
कत रथ थकित भयौ पच्छिम दिसि, राहु गहन लौं मोहि गहत।
छपौ न छीन होत, सुनि सजनी! भूमि-भवन-रिपु कहाँ रहत॥
सीतल सिंधु जनम जा केरौ, तरनि-तेज होइ कह धौं चहत।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु प्रान तजतिं, यह नाहिं सहत॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दरके बिना यह शंकरका तिलक (चन्द्रमा) मुझे जला रहा है। वह चन्द्रमा कहा तो अमृतमय (शीतल) जाता है; किंतु अपना स्वभाव छोड़कर (वह) मेरे साथ (यह कैसा जलानेका) व्यवहार कर रहा है। इसका रथ पश्चिम दिशामें क्यों रुक गया है (यह शीघ्र अस्त क्यों नहीं होता)? क्या राहु जैसे इसे ग्रस लेता है, वैसे ही यह मुझे ग्रस लेना (अपना ग्रास बना लेना) चाहता है? सखी! सुन, रात्रि भी घट नहीं रही है, (आज) भूमि-भवन-रिपु मुर्गा (भी) कहाँ रह गया, जो बोलता नहीं (और इस प्रकार सबेरा नहीं हो पाता)। जिस (चन्द्रमा)-का जन्म शीतल समुद्रसे हुआ है, वह सूर्यके समान प्रखर होकर पता नहीं क्या (करना) चाहता है। स्वामी! तुम्हारे दर्शनके बिना हम प्राण त्याग देंगी। अब यह (कष्ट) सहा नहीं जाता।*
पादटिप्पनी
- भूमि-भवन-रिपु (भूमि भवन-सर्प, उनके शत्रु)—अरुण अथवा भूमि-भवन—कीड़े, उनका शत्रु—मुर्गा। यह पद—मूलरूपसे—सभा (काशी), नवल कि० प्रे० लखनऊ (मुद्रित) पो० हनुमानप्रसाद तथा भरतपुरस्टेटकी प्रतिके अतिरिक्त बालकृष्ण और सरदार कविकृत सटीक सूरके कूटोंमें आया है। दोनोंमें ‘भूमि-भवन-रिपु’ का अर्थ भिन्न है, अतः बालकृष्णकृत अर्थ मुर्गा ही यहाँ उपयुक्त है।
राग मारू
विषय (हिन्दी)
(२६२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
या बिनु होत कहा ह्याँ सूनौ।
लै किन्ह प्रगट कियौ प्राची दिसि, बिरहिनि कौं दुख दूनौ॥
सब निरदै सुर, असुर, सैल, सखि, सायर, सर्प समेत।
काहु न कृपा करी इतननि में, तिय-तन बन दव देत॥
धन्य कुहू, बरषा रितु, तमचुर, अरु कमलनि कौ हेत।
जुग-जुग जीवै जरा बापुरी, मिलैं राहु औ केत॥
चितै चंद तन सुरति स्याम की बिकल भई ब्रज-बाल।
सूरदास अजहूँ इहिं औसर काहे न मिलत गुपाल॥
मूल
या बिनु होत कहा ह्याँ सूनौ।
लै किन्ह प्रगट कियौ प्राची दिसि, बिरहिनि कौं दुख दूनौ॥
सब निरदै सुर, असुर, सैल, सखि, सायर, सर्प समेत।
काहु न कृपा करी इतननि में, तिय-तन बन दव देत॥
धन्य कुहू, बरषा रितु, तमचुर, अरु कमलनि कौ हेत।
जुग-जुग जीवै जरा बापुरी, मिलैं राहु औ केत॥
चितै चंद तन सुरति स्याम की बिकल भई ब्रज-बाल।
सूरदास अजहूँ इहिं औसर काहे न मिलत गुपाल॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—‘सखी!) इस (चन्द्रमा)-के बिना यहाँ क्या सूना हुआ जाता था। इसे लेकर पूर्व दिशामें किसने प्रकट किया जो यह वियोगिनियोंके दुःखको द्विगुणित करता रहता है। सखी! देवता, असुर, पर्वत, सागर और सर्पसहित सब निर्दय हैं। इनमेंसे इतनी कृपा तो किसीने नहीं की, जैसी स्त्रियोंके शरीररूपी वनमें यह दावाग्नि लगा रहा है। अमावास्याकी रात्रि, वर्षा-ऋतु, मुर्गे और कमलोंका प्रेम धन्य है (जो इस चन्द्रमासे प्रीति नहीं रखते); बेचारी जरा (एक राक्षसी) युग-युग जीये (जो) राहु तथा केतुको परस्पर मिला देती है।’ सूरदासजी कहते हैं—(वे) व्रज-बालाएँ चन्द्रमाकी ओर देखकर तथा श्यामसुन्दरका स्मरण करके व्याकुल हो गयीं। हे गोपाल! आज इस अवसरपर भी (इनसे) क्यों नहीं मिलते?
विषय (हिन्दी)
(२६३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंधु-मथत काहें बिधु काढ़ौ।
गिरि अरु नाग, असुर-सुर मिलि कैं, गरजि-गरजि किन्ह बाढ़ौ॥
टोटौ हतौ रतन तेरह तौ, कियौ चौदहौ पूरौ।
कला सौंपि दीन्ही अमरनि क्यौं, बिरहिनि पै भयौ सूरौ॥
उपजत बैर जदपि काहू सौं, निकट आइ करि मारै।
यह नभ पै भूपर क्यौं चितकै, उहही तैं अरि जारै॥
दोष कहा सुनि कैं बड़वानल, अंसु जु बिष-से भाई।
क्रोधी ईस सीस बैठारॺौ, तातैं यह मति पाई॥
मथुरा कौ प्रभु मोहन नागर, किए सगुन जग जातैं।
ताकी प्रिया सूर निसि-बासर, सहति बिरह-दुख गातैं॥
मूल
सिंधु-मथत काहें बिधु काढ़ौ।
गिरि अरु नाग, असुर-सुर मिलि कैं, गरजि-गरजि किन्ह बाढ़ौ॥
टोटौ हतौ रतन तेरह तौ, कियौ चौदहौ पूरौ।
कला सौंपि दीन्ही अमरनि क्यौं, बिरहिनि पै भयौ सूरौ॥
उपजत बैर जदपि काहू सौं, निकट आइ करि मारै।
यह नभ पै भूपर क्यौं चितकै, उहही तैं अरि जारै॥
दोष कहा सुनि कैं बड़वानल, अंसु जु बिष-से भाई।
क्रोधी ईस सीस बैठारॺौ, तातैं यह मति पाई॥
मथुरा कौ प्रभु मोहन नागर, किए सगुन जग जातैं।
ताकी प्रिया सूर निसि-बासर, सहति बिरह-दुख गातैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—‘सखी!) समुद्र-मन्थन करते समय चन्द्रमाको क्यों निकाला? पर्वत (मन्दराचल), नाग (वासुकि), दैत्यों और देवताओंने मिलकर और बार-बार गर्जना करते हुए इस चन्द्रमाको बढ़ा दिया। क्या तेरह रत्न निकलनेपर भी कुछ कमी रह गयी थी, जो (इसे निकालकर) चौदह पूरे किये गये। इसने अपनी (अमृतमयी) कलाएँ तो देवताओंको दे दीं और वियोगिनियोंके लिये शूरमाँ बन गया। यदि (किसीकी) किसीसे शत्रुता हो जाती है तो वह पास आकर मारता है; किंतु यह न जाने क्यों आकाशपर रहकर वहींसे संकल्प करके पृथ्वीपरके शत्रुको जलाता है। इसमें इसका दोष भी क्या है, सुनो! यह तो बड़वानलका अंश है और हलाहल विष-जैसे इसके भाई हैं; फिर परम क्रोधी शंकरके मस्तकपर इसे बैठा दिया गया। इसलिये इसने ऐसी (दूसरोंको पीड़ा देनेवाली) बुद्धि पायी है।’ सूरदासजी कहते हैं (कितने आश्चर्यकी बात है कि) जिन मथुराके स्वामी नटनागर मोहनसे यह सगुणात्मक सम्पूर्ण जगत् प्रकट हुआ है, (आज) उन्हींकी प्रियतमाएँ शरीरपर रात-दिन वियोगके कष्ट सह रही हैं।
विषय (हिन्दी)
(२६४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूरि करहि बीना कर धरिबौ।
रथ थाक्यौ, मानौ मृग मोहे, नाहिंन होत चंद्र कौ ढरिबौ॥
बीतै जाहि, सोइ पै जानै, कठिन सु प्रेम-फाँस कौ परिबौ।
प्राननाथ संगहि तैं बिछुरे, रहत न नैन नीर कौ झरिबौ॥
सीतल चंद अगिन-सम लागत, कहिए, धीर कौन बिधि धरिबौ।
सूर सु कमलनैन के बिछुरें, झूठौ सब जतननि कौ करिबौ॥
मूल
दूरि करहि बीना कर धरिबौ।
रथ थाक्यौ, मानौ मृग मोहे, नाहिंन होत चंद्र कौ ढरिबौ॥
बीतै जाहि, सोइ पै जानै, कठिन सु प्रेम-फाँस कौ परिबौ।
प्राननाथ संगहि तैं बिछुरे, रहत न नैन नीर कौ झरिबौ॥
सीतल चंद अगिन-सम लागत, कहिए, धीर कौन बिधि धरिबौ।
सूर सु कमलनैन के बिछुरें, झूठौ सब जतननि कौ करिबौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) हाथमें (अब) वीणा लेना छोड़ दे (उसे त्याग दे); (क्योंकि उसके बजनेसे चन्द्रमाका) रथ (इस भाँति) थक (चलते-चलते रुक) गया है, मानो (उसके वाहन) मृग मोहित हो गये हों और इस कारण (उस) चन्द्रका ढलना (अस्त होना) नहीं हो रहा हो। प्रेमके फंदेमें पड़ना बड़ा दारुण होता है; जिसपर यह बीतती है, वही (इसकी पीड़ा) जानता है। जिसके प्राणनाथ वियुक्त हो जाते हैं, उसके नेत्रोंसे आँसू गिरना नहीं रुकता। उसे शीतल चन्द्रमा अग्निके समान (दाहक) लगता है। (फिर) बतलाओ तो किस प्रकार धैर्य धारण किया जाय। उन सुन्दर कमल-लोचनका वियोग हो जानेपर (सुखके) सब उपायोंका करना झूठा (व्यर्थ) है।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(२६५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिधु बैरी सिर पै बसै, निसि नींद न परई।
हरि सुरभानु सुभट बिना, इहि को बस करई?
गगन सिखर उतरै-चढ़ै, गरबहि जिय धरई।
किरनि-सकति भुज भरि हनै, उर तैं न निकरई॥
उडु-परिवार पिसुन-सभा अपजसहि न डरई।
सोइ परपंच करै सखी, अबला ज्यौं बरई॥
घटै-बढ़ै इहि पाप तैं, कालिमा न टरई।
सूरदास समुझावहीं, त्यौं-त्यौं जिय खरई॥
मूल
बिधु बैरी सिर पै बसै, निसि नींद न परई।
हरि सुरभानु सुभट बिना, इहि को बस करई?
गगन सिखर उतरै-चढ़ै, गरबहि जिय धरई।
किरनि-सकति भुज भरि हनै, उर तैं न निकरई॥
उडु-परिवार पिसुन-सभा अपजसहि न डरई।
सोइ परपंच करै सखी, अबला ज्यौं बरई॥
घटै-बढ़ै इहि पाप तैं, कालिमा न टरई।
सूरदास समुझावहीं, त्यौं-त्यौं जिय खरई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) इस शत्रु चन्द्रमाके सिरपर निवास करनेके कारण (मुझे) रात्रिमें नींद नहीं आती। श्यामसुन्दर या राहुके बिना इस (चन्द्रमा)-को कौन वशमें कर सकता है? यह आकाशरूपी शिखरपरसे उतरने-चढ़नेके कारण बड़ा गर्वीला हो गया है, अतः अपनी किरणरूपी शक्तिको भुजाके पूरे बलसे (ऐसी) मारता है, (जो) हृदयमें (चुभकर) निकलती नहीं। (इसका) तारागणोंका परिवार तो मानो परनिन्दकोंकी सभा है, जिसमें बैठा यह अपकीर्तिसे डरता नहीं। सखी! यह वही प्रपंच किया करता है, जिससे स्त्रियाँ जलती रहें। इसी पापसे घटता-बढ़ता रहता है और इसकी कालिमा दूर नहीं होती। जैसे-जैसे (हम) इसे समझाती हैं, वैसे-वैसे यह चित्तमें और क्रोध करता है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२६६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोउ, माई! बरजै री या चंदहि।
अतिहीं क्रोध करत है हम पै, कुमुदिनि-कुल आनंदहि॥
कहाँ कहौं बरषा-रबि-तमचुर, कमल बलाहक कारे।
चलत न चपल रहत थिर कै रथ, बिरहिनि के तन जारे॥
निंदति सैल उदधि पंनग कौं, श्रीपति कमठ कठोरहि।
देति असीस जरा देबी कौ, राहु-केतु किन जोरहि॥
ज्यौं जल-हीन मीन तन तलफति, ऐसी गति ब्रजबालहि।
सूरदास अब आनि मिलावहु, मोहन मदन-गुपालहि॥
मूल
कोउ, माई! बरजै री या चंदहि।
अतिहीं क्रोध करत है हम पै, कुमुदिनि-कुल आनंदहि॥
कहाँ कहौं बरषा-रबि-तमचुर, कमल बलाहक कारे।
चलत न चपल रहत थिर कै रथ, बिरहिनि के तन जारे॥
निंदति सैल उदधि पंनग कौं, श्रीपति कमठ कठोरहि।
देति असीस जरा देबी कौ, राहु-केतु किन जोरहि॥
ज्यौं जल-हीन मीन तन तलफति, ऐसी गति ब्रजबालहि।
सूरदास अब आनि मिलावहु, मोहन मदन-गुपालहि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) ‘सखी! कोई इस चन्द्रमाको मना तो करो, यह हमपर तो अत्यन्त क्रोध करता है और कुमुदिनीके कुलको आनन्द देता है। क्या कहूँ, वर्षा, सूर्य, मुर्गे, कमल और काले बादल—सभीको बुलाकर (हार गयी—कोई नहीं आया और यह) चंचल चलता ही नहीं, अपने रथको स्थिर बनाये वियोगिनियोंके शरीरको जला रहा है।’ वह (गोपी) पर्वत (मन्दराचल), क्षीरसागर, वासुकि नाग, भगवान् विष्णु और कठोर कच्छपकी (जिनके सहयोगसे चन्द्रमा उत्पन्न हुआ) निन्दा करती है। जरा देवीको आशीर्वाद देती (और प्रार्थना करती) है कि वे राहु-केतुको क्यों नहीं जोड़ देतीं (जिससे वह इसे ग्रस ले)। जैसे पानीसे रहित मछलियाँ तड़पती हैं, ऐसी दशा व्रजनारियोंकी हो रही है। इसलिये वे कहती हैं कि ‘अब तो (मन) मोहनेवाले मदनगोपालको लाकर मिला दो।’
राग बिहागरौ
विषय (हिन्दी)
(२६७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
माई, मोकौं चंद लग्यौ दुख दैन।
कहँ वे स्याम, कहाँ वे बतियाँ, कहँ वे सुख की रैन॥
तारे गनत-गनत हौं हारी, टपकन लागे नैन।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिनु बिरहिनि कौं नहिं चैन॥
मूल
माई, मोकौं चंद लग्यौ दुख दैन।
कहँ वे स्याम, कहाँ वे बतियाँ, कहँ वे सुख की रैन॥
तारे गनत-गनत हौं हारी, टपकन लागे नैन।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिनु बिरहिनि कौं नहिं चैन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! मुझे चन्द्रमा दुःख देने लगा है। वे श्यामसुन्दर कहाँ हैं, (उनके मिलनकी) वे बातें कहाँ हैं और वे सुखद रात्रियाँ कहाँ हैं। मैं तारे गिनते-गिनते थक गयी, नेत्रोंसे अश्रु टपकने लगे। स्वामी! तुम्हारे दर्शनके बिना (मुझ) वियोगिनीको शान्ति नहीं है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२६८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब हरि कौन सौं रति जोरी।
काके भए, कौन के ह्वैहैं, बँधे कौन की डोरी॥
त्रेता जुग इक पतिनी-ब्रत कियौ, सोऊ बिलपत छोरी।
सूपनखा बन ब्याहन आई, नाक निपाति बहोरी॥
पय पीवत जिन्ह हती पूतना, स्रुति-मरजादा फोरी।
बहुतै प्रीति बढ़ाइ महरि सौं, छिनक माँझ दै तोरी॥
आरजपंथ छिड़ाइ गोपिकनि, अपने स्वारथ भोरी।
सूरदास करि काज आपनौ, गुडी-डोर ज्यौं तोरी॥
मूल
अब हरि कौन सौं रति जोरी।
काके भए, कौन के ह्वैहैं, बँधे कौन की डोरी॥
त्रेता जुग इक पतिनी-ब्रत कियौ, सोऊ बिलपत छोरी।
सूपनखा बन ब्याहन आई, नाक निपाति बहोरी॥
पय पीवत जिन्ह हती पूतना, स्रुति-मरजादा फोरी।
बहुतै प्रीति बढ़ाइ महरि सौं, छिनक माँझ दै तोरी॥
आरजपंथ छिड़ाइ गोपिकनि, अपने स्वारथ भोरी।
सूरदास करि काज आपनौ, गुडी-डोर ज्यौं तोरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी! सच-सच बता,) श्यामसुन्दरने अब किससे प्रीति जोड़ी है? वे भला, किसके हुए हैं, (आगे) किसके होंगे और किसके प्रेमकी रस्सीमें बँधे हैं। त्रेतायुगमें उन्होंने एकपत्नीव्रत किया; पर उस (पत्नी)-को भी विलाप करती छोड़ दिया तथा शूर्पणखा वनमें उनसे विवाह करने आयी तो उसकी नाक काटकर उसे लौटा दिया। जिन्होंने वेदोंकी मर्यादा तोड़कर दूध पीते हुए (धायके समान) पूतनाको मार दिया और व्रजरानी यशोदाजीसे बहुत ही प्रीति बढ़ाकर उसे भी एक क्षणमें तोड़ दिया। गोपियोंको आर्यपथ (कुलीनताके मार्ग)-से हटाकर अपने स्वार्थके लिये भुलावा दिया और (उनसे) अपना काम पूरा करके पतंगकी डोरीके समान (उनके प्रेमकी डोरी भी) तोड़ दी।
विषय (हिन्दी)
(२६९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब या तनहि राखि का कीजै।
सुनि री सखी, स्यामसुंदर बिनु, बाँटि बिषम बिष पीजै॥
कै गिरिऐ गिरि चढ़ि, सुनि, सजनी, सीस संकरहि दीजै।
कै दहिऐ दारुन दावानल, जाइ जमुन धँसि लीजै॥
दुसह बियोग बिरह माधौ के, को दिन-ही-दिन छीजै।
सूर स्याम प्रीतम बिन राधे सोचि-सोचि कर मींजै॥
मूल
अब या तनहि राखि का कीजै।
सुनि री सखी, स्यामसुंदर बिनु, बाँटि बिषम बिष पीजै॥
कै गिरिऐ गिरि चढ़ि, सुनि, सजनी, सीस संकरहि दीजै।
कै दहिऐ दारुन दावानल, जाइ जमुन धँसि लीजै॥
दुसह बियोग बिरह माधौ के, को दिन-ही-दिन छीजै।
सूर स्याम प्रीतम बिन राधे सोचि-सोचि कर मींजै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—‘सखी!) अब इस शरीरको रखकर क्या करूँगी? अरी सुन! श्यामसुन्दरके बिना अब हम परस्पर बाँटकर क्यों न दारुण विष पी लें। अथवा सखी! सुन, पर्वतपर चढ़कर भृगु-पतन कर लें, (रावणकी तरह) शंकरजीको अपने मस्तक (काटकर) अर्पित कर दें, अथवा भयानक दावाग्निमें जल जायँ या फिर जाकर यमुनामें कूद पड़ें। माधवके असह्य वियोगरूप विरहकी इस पीड़ामें कौन दिनोंदिन क्षीण होता रहे।’ सूरदासजी कहते हैं कि इस प्रकार श्रीराधा अपने प्रियतम श्यामसुन्दरका बार-बार चिन्तन करती हुई हाथ मलती (पश्चात्ताप करती) हैं।
राग भोपाल
विषय (हिन्दी)
(२७०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमहि कहा, सखि, तन के जतन की, अब या जसहि मनोहर लीजै।
सकल त्रास सुख याही बपु लौं, छाँड़ि दिए तैं कछू न छीजै॥
कुसुमित सेज कुसुम-सर-सर बर, हरि कें प्रान प्रानपति जीजै।
बिरह-थाह जदुनाथ सबनि दै, निधरक सकल मनोरथ कीजै॥
सबनि कहति मन रीस रिसाऐं नहिंन बसाइ, प्रान तजि दीजै।
सूर सुपति सौं चरचि चतुरई तुम्ह यह जाइ बधाई लीजै॥
मूल
हमहि कहा, सखि, तन के जतन की, अब या जसहि मनोहर लीजै।
सकल त्रास सुख याही बपु लौं, छाँड़ि दिए तैं कछू न छीजै॥
कुसुमित सेज कुसुम-सर-सर बर, हरि कें प्रान प्रानपति जीजै।
बिरह-थाह जदुनाथ सबनि दै, निधरक सकल मनोरथ कीजै॥
सबनि कहति मन रीस रिसाऐं नहिंन बसाइ, प्रान तजि दीजै।
सूर सुपति सौं चरचि चतुरई तुम्ह यह जाइ बधाई लीजै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! इस शरीरको रखनेके प्रयत्नसे हमें क्या लाभ? अब (हमारी मृत्युके) इस सुयशको वे सुन्दर (श्याम) ही लें। सभी यातनाएँ और सुख इसी शरीरतक हैं और इसे छोड़ देनेसे (हमारी) कुछ भी हानि होती नहीं। पुष्पोंकी शय्या तो कामदेवके श्रेष्ठ (तीखे) बाणके समान लगती है, अतः हमारे प्राण हरण करके वे हमारे प्राणनाथ जीवित रहें। हम सबोंको अथाह वियोग देकर स्वयं संकोचहीन बने श्रीयदुनाथ अपनी सब अभिलाषाएँ बिना किसी भयके पूरी कर लें। सबसे कहती हूँ कि क्रोध करके मनमें रुष्ट होनेसे कुछ काम नहीं चलेगा। अतः अच्छा है, प्राण त्याग कर दें। सखी! उन उत्तम स्वामीसे इस (हमारी प्राण-त्यागकी) चतुरताकी चर्चा करके तुम उनके पास जाकर बधाई ले लेना (हमारे प्राण-त्यागके बाद उन्हें जाकर यह समाचार सुना देना)।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(२७१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जियहिं क्यौं कमलिनि काँदौ-हीन।
जिन सौं प्रीति हुती री सजनी, तिनहुँ बिछुरि दुख-दीन॥
सागर-कूल मीन तरफति है, हुलस होत जल जीन।
स्याम बारि-बिधि लई किरद तजि, हम जु मरतिं लव-लीन॥
ससि-चंदन औ अंभ छाँड़ि गुन, बपु जु दहत मिलि तीन।
सूरदास-प्रभु मौन सबै ब्रज, बिनु जंत्री ज्यौं बीन॥
मूल
जियहिं क्यौं कमलिनि काँदौ-हीन।
जिन सौं प्रीति हुती री सजनी, तिनहुँ बिछुरि दुख-दीन॥
सागर-कूल मीन तरफति है, हुलस होत जल जीन।
स्याम बारि-बिधि लई किरद तजि, हम जु मरतिं लव-लीन॥
ससि-चंदन औ अंभ छाँड़ि गुन, बपु जु दहत मिलि तीन।
सूरदास-प्रभु मौन सबै ब्रज, बिनु जंत्री ज्यौं बीन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) भला कमलिनी कीचड़से (जलसे) रहित होकर कैसे जीवित रह सकती है। अरी सखी! जिनसे प्रीति थी, उन्होंने भी बिछुड़कर (मुझे अत्यन्त) दुःख ही दिया। (जिस भाँति) समुद्रके किनारे मछली तड़पती है, किंतु जलके हृदयमें (उससे) मिलनेका उल्लास नहीं होता, उसी प्रकार श्यामसुन्दरने भी प्रेमका व्रत छोड़कर (उस) जल (सागर)-की विधि अपना ली और हम उनके प्रेममें निमग्न हो मर रही हैं। चन्द्रमा, चन्दन और जल—ये तीनों अपना गुण (शीतलता) छोड़ परस्पर मिलकर मेरे शरीरको जलाते हैं। स्वामी! (तुम्हारे बिना) सम्पूर्ण व्रज ऐसा मौन (शब्दहीन) हो रहा है, जैसे बजानेवालेके बिना वीणा (मौन हो)।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२७२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसौ सुनियत है द्वै माह।
इतने में सब बात समुझबी चतुर-सिरोमनि नाह॥
आवन कह्यौ, बहुत दिन लाए, करी पाछिली गाह।
हमहि छाँड़ि, कुबिजा मन बाँध्यौ, कौन बेद की राह॥
एतेहुँ पै संतोष न मानत, परे हमारे डाह।
सूरदास-प्रभु पूरौ दीजै, दिन दस मानी साह॥
मूल
ऐसौ सुनियत है द्वै माह।
इतने में सब बात समुझबी चतुर-सिरोमनि नाह॥
आवन कह्यौ, बहुत दिन लाए, करी पाछिली गाह।
हमहि छाँड़ि, कुबिजा मन बाँध्यौ, कौन बेद की राह॥
एतेहुँ पै संतोष न मानत, परे हमारे डाह।
सूरदास-प्रभु पूरौ दीजै, दिन दस मानी साह॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) ऐसा सुना जाता है कि इस वर्ष (एक नामके) दो महीने (पुरुषोत्तममास) हैं, हे चतुरशिरोमणि स्वामी! इतनेमें ही सब बात समझ लेना। आपने आनेको कहा था, पर बहुत दिन लगा दिये, (यह तो) पीछेसे पकड़ना (छल) हुआ। इतना ही नहीं, हमको छोड़ आपने कुब्जामें मन लगा लिया, यह कौन-सा वैदिक मार्ग है? इतनेपर भी संतोष नहीं, सतानेके लिये पीछे पड़ गये हो। अतः स्वामी! अपनी बात पूरी कीजिये, दस दिन (हमने आपकी) शाख मान ली (आपकी प्रामाणिकतापर विश्वास कर लिया)।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२७३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसौ सुनियत है द्वै सावन।
वहै सूल फिरि-फिरि सालत जिय, स्याम कह्यौ हो आवन॥
तब कत प्रीति करी, अब त्यागी, अपनौ कीन्हौ पावन।
इहिं दुख, सखी! निकसि तहँ जइऐ, जहँ सुनिऐ कोउ नावँ न॥
एकहिं बेर तजी मधुकर ज्यौं, लागे नेह बढ़ावन।
सूर सुरति क्यौं होति हमारी, लागी नीकी भावन॥
मूल
ऐसौ सुनियत है द्वै सावन।
वहै सूल फिरि-फिरि सालत जिय, स्याम कह्यौ हो आवन॥
तब कत प्रीति करी, अब त्यागी, अपनौ कीन्हौ पावन।
इहिं दुख, सखी! निकसि तहँ जइऐ, जहँ सुनिऐ कोउ नावँ न॥
एकहिं बेर तजी मधुकर ज्यौं, लागे नेह बढ़ावन।
सूर सुरति क्यौं होति हमारी, लागी नीकी भावन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) ऐसा सुना जाता है कि (इस वर्ष) दो श्रावण महीने हैं, वही वेदना बार-बार चित्तको पीड़ा देती है कि श्यामसुन्दरने सावनमें ही आनेके लिये कहा था। उन दिनों (उन्होंने हमसे) प्रेम क्यों किया और (क्यों) अब छोड़ दिया। उन्होंने स्वयं ही तो हमें अपनाकर पवित्र किया था। सखी! इस दुःखसे तो (जीमें आता है कि) कहीं ऐसे स्थानपर यहाँसे निकलकर चला जाना चाहिये, जहाँ कोई (हमारा) नाम न सुन पाये (पहले तो वे) स्नेह बढ़ाने लगे थे; पर अब उन्होंने हमें भ्रमरके समान एक ही बार (सर्वथा) छोड़ दिया। अब भला उन्हें हमारी स्मृति क्यों होने लगी, उन्हें तो (नगरकी) अच्छी (नारियाँ प्रिय) लगने लगी हैं।
राग कान्हरौ
विषय (हिन्दी)
(२७४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे कौं पिय-पियहि रटति हौ, पिय कौ प्रेम तेरौ प्रान हरैगौ।
काहे कौं लेति नैन जल भरि-भरि, नैन भरें कैसैं सूल टरैगौ॥
काहे कौं स्वास-उसास लेति हौ, बैरी बिरह कौ दवा बरैगौ।
छार सुगंध सेज पुहुपावलि, हार छुऐं हिय हार जरैगौ॥
बदन दुराइ बैठि मंदिर में, बहुरि निसापति उदय करैगौ।
सूर सखी अपने इन नैननि, चंद चितै जनि, चंद जरैगौ॥
मूल
काहे कौं पिय-पियहि रटति हौ, पिय कौ प्रेम तेरौ प्रान हरैगौ।
काहे कौं लेति नैन जल भरि-भरि, नैन भरें कैसैं सूल टरैगौ॥
काहे कौं स्वास-उसास लेति हौ, बैरी बिरह कौ दवा बरैगौ।
छार सुगंध सेज पुहुपावलि, हार छुऐं हिय हार जरैगौ॥
बदन दुराइ बैठि मंदिर में, बहुरि निसापति उदय करैगौ।
सूर सखी अपने इन नैननि, चंद चितै जनि, चंद जरैगौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई अन्य गोपी कह रही है—सखी!) बार-बार ‘प्रियतम! प्रियतम!’ (कहकर) क्यों पुकारती है, (यह) प्रियतमका प्रेम तेरा प्राण ले लेगा। बार-बार नेत्रोंमें जल (अश्रु) क्यों भर लेती है, (इस प्रकार) नेत्र भर लेनेसे वेदना कैसे दूर होगी? बार-बार दीर्घश्वास क्यों लेती है? इससे शत्रु विरहकी दावाग्नि प्रज्वलित होगी। सुगन्ध और पुष्पोंसे सजी शय्या तथा माला छूनेसे (तो तेरा) हृदय हताश होकर उसी प्रकार जल जायगा जैसे गर्म राखको छूनेसे। अब मुख छिपाकर घरके भीतर बैठ जा; क्योंकि फिर चन्द्रमा उदय होगा। अरी सखी! अपने इन नेत्रोंसे चन्द्रमाको मत देखना; नहीं तो चन्द्रमा जल जायगा।
विषय (हिन्दी)
(२७५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब हरि निपटहिं निठुर भए।
फिरि नहिं सुरति करी गोकुल की, जिहि दिन तैं मधुपुरी गए॥
कबहुँ न सुन्यौ सँदेस स्रवन हम, करत फिरत नित नेह नए।
ऐसी बधू चतुर वा पुर की, छल-बल करि मोहन रिझए॥
हम जानतिं हैं स्याम हमारे, कहा भयौ जौ अनत रए।
सूरदास हरि कछू न लागै, छंद-बंद कुबिजा सिखए॥
मूल
अब हरि निपटहिं निठुर भए।
फिरि नहिं सुरति करी गोकुल की, जिहि दिन तैं मधुपुरी गए॥
कबहुँ न सुन्यौ सँदेस स्रवन हम, करत फिरत नित नेह नए।
ऐसी बधू चतुर वा पुर की, छल-बल करि मोहन रिझए॥
हम जानतिं हैं स्याम हमारे, कहा भयौ जौ अनत रए।
सूरदास हरि कछू न लागै, छंद-बंद कुबिजा सिखए॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब श्यामसुन्दर अत्यन्त निष्ठुर हो गये हैं। जिस दिन वे मथुरा गये, तबसे फिर गोकुलका स्मरण (ही) नहीं किया। हमने कभी कानोंसे भी उनका संदेश नहीं सुना, (वे तो) नित्य नया प्रेम करते फिरते हैं। उस नगरकी बहुएँ (नायिकाएँ) ऐसी चतुर हैं कि उन्होंने छल-बल करके मोहनको रिझा लिया (मोहित कर लिया) है। हम जानती हैं कि श्यामसुन्दर हमारे हैं, क्या हो गया जो वे अन्यत्र अनुरक्त हो गये। श्यामसुन्दरका तो कोई दोष नहीं है, उन्हें यह छल-कपट कुब्जाने सिखाया है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२७६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हौं कछु बोलति नाहीं लाजन।
एक दाउँ मारिबौ पै, मरिबौ नंद-नँदन के काजन॥
तजि ब्रज-बाल, आपनौ गोकुल, अब भाए सुख राजन।
कागद लिखि पतियौ नहिं पठवत, पायौ जिय कौ माजन॥
जे गृह देखि परम सुख होतौ, बिनु गोपाल भय-भाजन।
कासौं कहौं, सुनै को यह दुख, दूरि स्याम-सौ साजन॥
कारी घटा देखि धुरवा जनु, बिरह लयौ कर ताजन।
सूर स्याम नागर बिनु अब यह कौन सहै सिर गाजन॥
मूल
हौं कछु बोलति नाहीं लाजन।
एक दाउँ मारिबौ पै, मरिबौ नंद-नँदन के काजन॥
तजि ब्रज-बाल, आपनौ गोकुल, अब भाए सुख राजन।
कागद लिखि पतियौ नहिं पठवत, पायौ जिय कौ माजन॥
जे गृह देखि परम सुख होतौ, बिनु गोपाल भय-भाजन।
कासौं कहौं, सुनै को यह दुख, दूरि स्याम-सौ साजन॥
कारी घटा देखि धुरवा जनु, बिरह लयौ कर ताजन।
सूर स्याम नागर बिनु अब यह कौन सहै सिर गाजन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) मैं लज्जाके मारे कुछ बोलती नहीं; पर एक दाव (अवश्य) लगाऊँगी (एक बार अन्तिम प्रयत्न करूँगी), चाहे नन्दनन्दनके लिये मर ही जाऊँ। व्रजनारियों और अपने गोकुलको छोड़कर उन्हें राज्य-सुख सुन्दर लगने लगे हैं। (और तो और, वे) कागजपर लिखकर पत्र भी नहीं भेजते, अपने मनकी मौज (जो उन्होंने) पा ली है। जिन घरोंको देखकर हमें आनन्द होता था, वे ही गोपालके बिना भयके पात्र (भयानक) हो गये। किससे कहूँ, मेरा यह दुःख कौन सुने, श्यामसुन्दर-जैसे (मनकी सुननेवाले) प्रियतम (तो) दूर हैं। काली घटाके बादलोंको देखकर (ऐसा) लगता है, मानो वियोगने (हमें मारनेके लिये) हाथमें कोड़ा ले रखा हो। (उन) परम चतुर श्यामसुन्दरके बिना अब यह सिरपर (नित-प्रति) (वियोगरूपी मेघका) गरजना कौन सहे?
राग गौरी
विषय (हिन्दी)
(२७७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
वहु दिन ऐसौइ हौ री।
ह्वै जाते मेरे आँगन मोहन, यह बिरियाँ सो री॥
बाल-दसा की प्रीति निरंतर, परी रहति ही ढौरी।
राधा-राधा नंद-नँदन मुख लागि रहति यह लौ री॥
बेनु पानि गहि मोहि सिखावत, मोहन गावत गौरी।
सूरजदास स्याम-सारँग तजि, वह सुख बहुरि न भौरी॥
मूल
वहु दिन ऐसौइ हौ री।
ह्वै जाते मेरे आँगन मोहन, यह बिरियाँ सो री॥
बाल-दसा की प्रीति निरंतर, परी रहति ही ढौरी।
राधा-राधा नंद-नँदन मुख लागि रहति यह लौ री॥
बेनु पानि गहि मोहि सिखावत, मोहन गावत गौरी।
सूरजदास स्याम-सारँग तजि, वह सुख बहुरि न भौरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें श्रीराधा कह रही हैं—सखी!) वह दिन भी ऐसा ही था; यह समय (भी) वही है, जब मोहन मेरे आँगन (द्वारपर)-से होकर जाते थे। बचपनसे प्रेम होनेके कारण निरन्तर (सर्वदा उन्हींकी) धुन लगी रहती थी, (उस समय) नन्दनन्दनके मुखसे भी ‘राधा, राधा’ यही रट लगी रहती थी। वे मोहन हाथमें वंशी लेकर मुझे (बजाना) सिखलाते थे और स्वयं गौरी राग गाते थे। उन प्यारे श्यामसुन्दररूपी चन्द्रमाके छोड़कर चले जानेके बाद वह आनन्द फिर कभी नहीं मिला।
विषय (हिन्दी)
(२७८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
माधौ, दरसन की अवसेरि।
लै जु गए मन संग आपने, बहुरि न दीन्हौ फेरि॥
तुम्हरे बिना भवन नहिं भावै, मन राखैं अवढेरि।
कमलिनि हतीं हेम ज्यौं हम, अति कासौं कहैं दुख टेरि॥
तुम्ह बिछुरें सुख कबहुँ न पायौ, सब जग देखतिं हेरि।
सूरदास सब नातौ ब्रज कौ आए नंद निबेरि॥
मूल
माधौ, दरसन की अवसेरि।
लै जु गए मन संग आपने, बहुरि न दीन्हौ फेरि॥
तुम्हरे बिना भवन नहिं भावै, मन राखैं अवढेरि।
कमलिनि हतीं हेम ज्यौं हम, अति कासौं कहैं दुख टेरि॥
तुम्ह बिछुरें सुख कबहुँ न पायौ, सब जग देखतिं हेरि।
सूरदास सब नातौ ब्रज कौ आए नंद निबेरि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) माधव! तुम्हारे दर्शनके लिये हम व्यग्र रहती हैं। तुम अपने साथ जो हमारा मन ले गये, उसे फिर तुमने लौटाया नहीं। तुम्हारे बिना हमें घर अच्छा नहीं लगता फिर भी मनको (उसमें) हम फँसाये रखती हैं। जिस भाँति कमलिनियोंको पाला नष्ट कर देता है, उसी भाँति आपने हमारे प्रति किया, यह अत्यन्त (महान्) दुःख किससे पुकारकर कहें। सारा संसार हमने ढूँढ़कर देख लिया; फिर भी तुम्हारा वियोग होनेके बादसे हमने सुख कभी नहीं पाया। (क्या श्यामसुन्दरके साथ) व्रजका सारा सम्बन्ध नन्दजी सदाके लिये निबटा (तोड़)आये।
राग आसावरी
विषय (हिन्दी)
(२७९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखि री, बिरह यह बिपरीति।
बिरहिनी ब्रज-बास क्यौं करैं, पावसहि परतीति॥
नित्य नवला साजि नव-सत, अरु सु भावक राखि।
नाहिं जान्यौ नृपति प्रानन-पति, कहा रुचि आँखि॥
सूरदास गुपाल की सब अवधि गई बितीति।
बहुरि कब वह देखिबौ मुख, यह तुम्हारी नीति॥
मूल
सखि री, बिरह यह बिपरीति।
बिरहिनी ब्रज-बास क्यौं करैं, पावसहि परतीति॥
नित्य नवला साजि नव-सत, अरु सु भावक राखि।
नाहिं जान्यौ नृपति प्रानन-पति, कहा रुचि आँखि॥
सूरदास गुपाल की सब अवधि गई बितीति।
बहुरि कब वह देखिबौ मुख, यह तुम्हारी नीति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! इस वियोगकी बड़ी उलटी दशा है। इस वर्षा-ऋतुका (कि इसी समय श्यामसुन्दर अवश्य आ जायँगे) विश्वास कर (हम) वियोगिनियाँ व्रजमें कैसे निवास करें? नवयुवतियाँ नित्य सोलहों शृंगार किये अपनेको अत्यन्त सुरुचिपूर्ण रखती हैं; क्योंकि वे नहीं जानतीं कि उनके राजा—प्राणनाथके नेत्रोंको क्या प्रिय लगे। गोपालकी (लौटकर आनेकी) सब अवधियाँ बीत गयीं, (हम) फिर कब उस मुखको देखेंगी? यह तुम्हारी नीति (उचित) नहीं।
राग बिलावल
विषय (हिन्दी)
(२८०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तउ गुपाल गोकुल के बासी।
ऐसी बातैं बहुतै कहि-कहि, लोग करत हैं हाँसी॥
मथि-मथि सिंधु सुरनि कौं पोषे, संभु भए बिष-आसी।
इन्हि हति कंस राज औरहि दै, चाहि लई इक दासी॥
बिसरौ हमैं बिरह-दुख अपनौ, चलीं चाल औरासी।
ऐसी बिहँगम प्रीति न देखी, प्रगट न परखी-खासी॥
आरज-पंथ छुड़ाइ गोपिका कुल-मरजादा नासी।
आजु करत सुख-राज सूर-प्रभु हमैं देत दुख-गाँसी॥
मूल
तउ गुपाल गोकुल के बासी।
ऐसी बातैं बहुतै कहि-कहि, लोग करत हैं हाँसी॥
मथि-मथि सिंधु सुरनि कौं पोषे, संभु भए बिष-आसी।
इन्हि हति कंस राज औरहि दै, चाहि लई इक दासी॥
बिसरौ हमैं बिरह-दुख अपनौ, चलीं चाल औरासी।
ऐसी बिहँगम प्रीति न देखी, प्रगट न परखी-खासी॥
आरज-पंथ छुड़ाइ गोपिका कुल-मरजादा नासी।
आजु करत सुख-राज सूर-प्रभु हमैं देत दुख-गाँसी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—‘सखी! कैसे भी हैं) फिर भी गोपाल गोकुलके निवासी हैं—लोग ऐसी बातें अनेकों बार कहकर हँसी उड़ाते हैं। जैसे (नारायणने) समुद्र-मन्थन करके (अमृत पिलाकर) देवताओंको पुष्ट किया और शंकरजीको विष-भोजन करनेवाला (हलाहलपायी) बना दिया, इसी प्रकार इन्होंने कंसको मारकर राज्य तो दूसरे (उग्रसेन)-को दे दिया और स्वयं इच्छा करके एक दासी (कुब्जा)-को ले लिया। (श्यामसुन्दरने मथुरा जाकर) ऐसी विचित्र चाल चली कि हमें अपना वियोग—दुःख भूल गया; ऐसी अस्थिर प्रीति तो पक्षियोंमें भी नहीं देखी गयी और न प्रत्यक्षमें भली प्रकार परखी गयी। उन्होंने गोपियोंसे कुलीनताका श्रेष्ठ मार्ग छुड़ाकर (उनके) कुलकी मर्यादा नष्ट कर दी और अब हमारे स्वामी (स्वयं) सुखपूर्वक राज्य करते हैं तथा हमें दुःखकी बर्छी मारते हैं।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२८१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्ह ब्रजदेव नैकु चित करते।
कछु जिय आस रहति बिधि बस जौ बहुरहु फिरि-फिरि मिलते॥
का कहिऐ, हरि सब जानत हैं, या तन की गति ऐसी।
सूरदास-प्रभु हित चित मिलियौ, नातरु हम गरिऐ-सी॥
मूल
उन्ह ब्रजदेव नैकु चित करते।
कछु जिय आस रहति बिधि बस जौ बहुरहु फिरि-फिरि मिलते॥
का कहिऐ, हरि सब जानत हैं, या तन की गति ऐसी।
सूरदास-प्रभु हित चित मिलियौ, नातरु हम गरिऐ-सी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—‘सखी! यदि) वे व्रजदेव (व्रजेश) तनिक भी (हमारी ओर) ध्यान देते (हमारा कुछ खयाल करते) तो हमारे चित्तमें कुछ आशा रहती कि वे लौटेंगे अथवा बार-बार अवसर पानेपर आकर मिल जाया करेंगे। क्या कहा जाय, वे हृदयहारी (श्यामसुन्दर) सब जानते हैं कि इस शरीरकी ऐसी (दुःखद) दशा हो रही है। हे स्वामी। आपसे (हमने) हितके सहित चित्त मिला दिया (एकाकार कर दिया) है, नहीं तो (हम) नष्ट हुई-सी तो हैं ही।’
राग बिलावल
विषय (हिन्दी)
(२८२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्याम बिनोदी रे मधुबनियाँ।
अब हरि गोकुल काहे कौं आवत, भावति नव-जोबनियाँ॥
वे दिन माधौ भूलि गए, जब लिऐं फिरावति कनियाँ।
अपने कर जसुमति पहिरावति तनक काँच की मनियाँ॥
दिना चारि तैं पहिरन सीखे पट पीतांबर तनियाँ।
सूरदास-प्रभु वाकें बस परि, अब हरि भए चिकनियाँ॥
मूल
स्याम बिनोदी रे मधुबनियाँ।
अब हरि गोकुल काहे कौं आवत, भावति नव-जोबनियाँ॥
वे दिन माधौ भूलि गए, जब लिऐं फिरावति कनियाँ।
अपने कर जसुमति पहिरावति तनक काँच की मनियाँ॥
दिना चारि तैं पहिरन सीखे पट पीतांबर तनियाँ।
सूरदास-प्रभु वाकें बस परि, अब हरि भए चिकनियाँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—‘सखी!) अब मथुरामें श्यामसुन्दर आमोद-प्रमोद करनेवाले हो गये हैं। अब वे मोहन गोकुल किसलिये आने लगे, उन्हें तो (मथुराकी) नवयुवतियाँ प्रिय लगने लगी हैं। माधव वे दिन भूल गये, जब यशोदाजी उन्हें गोदमें लेकर घुमाती थीं और अपने हाथोंसे काँचकी छोटे दानोंवाली माला पहनाती थीं। अरे, अभी चार दिनों (थोड़े समय)-से (ही) तो (उन्होंने) पीताम्बर ओढ़ना और तनियाँ बाँधना सीखा है; और अब हमारे वे स्वामी उस (कुब्जा)-के चक्करमें आकर छैल चिकनियाँ (सजीले) बन गये?’
राग धमार
विषय (हिन्दी)
(२८३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहौ री! जो कहिबे की होइ।
प्राननाथ बिछुरे की बेदन और न जानै कोइ॥
तब हम अधर-सुधा-रस लै-लै, मगन रहीं मुख जोइ।
जो रस सिव-सनकादिक दुरलभ, सो रस बैठीं खोइ॥
कहा कहौं, कछु कहत न आवै, सुख सपनौ भौ सोइ।
हम सौं कठिन भए कमलापति, काहि सुनाऊँ रोइ॥
बिरह-बिथा, अंतर की बेदन सो जानै जिहि होइ।
सूरदास सुख-मूरि मनोहर लै जु गए मन गोइ॥
मूल
कहौ री! जो कहिबे की होइ।
प्राननाथ बिछुरे की बेदन और न जानै कोइ॥
तब हम अधर-सुधा-रस लै-लै, मगन रहीं मुख जोइ।
जो रस सिव-सनकादिक दुरलभ, सो रस बैठीं खोइ॥
कहा कहौं, कछु कहत न आवै, सुख सपनौ भौ सोइ।
हम सौं कठिन भए कमलापति, काहि सुनाऊँ रोइ॥
बिरह-बिथा, अंतर की बेदन सो जानै जिहि होइ।
सूरदास सुख-मूरि मनोहर लै जु गए मन गोइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कहने लगी—) सखियो! जो बात कहनेयोग्य हो (कही जा सके) वह कहो। प्राणनाथके वियोगकी पीड़ा दूसरा कोई नहीं जान सकता। उस (मिलनके) समय तो हम उनके अधर-सुधारसको ले (पी)-ले (पी), उनका मुख देखकर आनन्दमग्न रहती थीं, किंतु जो आनन्द शंकरजी और सनकादि ऋषियोंको भी दुर्लभ था, (आज हम) उसी आनन्दको खो बैठी हैं। क्या कहूँ, कुछ कहा नहीं जाता; वह सुख तो स्वप्न हो गया। वे लक्ष्मीनाथ हमारे प्रति निष्ठुर हो गये, किससे रोकर यह (दुःख) सुनाऊँ। यह वियोगकी पीड़ा (और) हृदयकी वेदना तो जिसे होती है, वही समझता है; (वे) आनन्दके मूल परम सुन्दर हमारा मन चुरा जो ले गये।
राग सानुत
विषय (हिन्दी)
(२८४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिछुरे री! मेरे बाल-सँघाती।
निकसि न जात प्रान ए पापी, फाटत नाहिंन छाती॥
हौं अपराधिनि दही मथति ही, भरि जोबन मदमाती।
जो हौं जानति हरि कौ चलिबौ, लाज छाँड़ि सँग जाती॥
ढरकत नीर नैन भरि सुंदरि! कछु न सोह दिन-राती।
सूरदास-प्रभु-दरसन कारन, सखियनि मिलि लिखि पाती॥
मूल
बिछुरे री! मेरे बाल-सँघाती।
निकसि न जात प्रान ए पापी, फाटत नाहिंन छाती॥
हौं अपराधिनि दही मथति ही, भरि जोबन मदमाती।
जो हौं जानति हरि कौ चलिबौ, लाज छाँड़ि सँग जाती॥
ढरकत नीर नैन भरि सुंदरि! कछु न सोह दिन-राती।
सूरदास-प्रभु-दरसन कारन, सखियनि मिलि लिखि पाती॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) ‘सखी! मेरे बाल्यकालके साथी (मुझसे) वियुक्त हो गये, (फिर भी) ये पापी प्राण निकल नहीं जाते और न यह छाती ही फट जाती है। मैं ही दोषी हूँ, युवावस्थाके मदसे मतवाली हुई दही मथती रही (जाते समय मोहनसे मिली नहीं)। यदि मैं श्यामके जानेकी बात जान पाती तो लज्जा छोड़कर उनके साथ (चली) जाती।’ (इस भाँति कहती हुई वह) सुन्दरी (अब तो) नेत्र भर लेती है तथा आँसू ढुलकाती रहती है, दिन-रात कुछ अच्छा नहीं लगता। (तब) स्वामीके दर्शनोंके लिये सखियोंसे मिलकर (सलाह करके) पत्र लिखा।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२८५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि! परदेस बहुत दिन लाए।
कारी घटा देखि बादर की, नैन नीर भरि आए॥
बीर बटाऊ! पंथी हौ तुम्ह कौन देस तैं आए।
यह पाती हमरी लै दीजौ, जहाँ साँवरे छाए॥
दादुर-मोर-पपीहा बोलत, सोवत मदन जगाए।
सूर स्याम गोकुल तैं बिछुरे, आपन भए पराए॥
मूल
हरि! परदेस बहुत दिन लाए।
कारी घटा देखि बादर की, नैन नीर भरि आए॥
बीर बटाऊ! पंथी हौ तुम्ह कौन देस तैं आए।
यह पाती हमरी लै दीजौ, जहाँ साँवरे छाए॥
दादुर-मोर-पपीहा बोलत, सोवत मदन जगाए।
सूर स्याम गोकुल तैं बिछुरे, आपन भए पराए॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपीने पत्रमें लिखा—) ‘श्यामसुन्दर! (तुमने) परदेशमें बहुत दिन लगा दिये, यहाँ बादलोंकी काली घटा देखकर मेरे नेत्रोंमें जल भर आया है (मैं रो रही हूँ)।’ (यह पत्र लिखकर उसने पथिकसे कहा—) ‘भैया पथिक! तुम तो यात्री हो, (यहाँ) किस देशसे आये हो? यह हमारा पत्र ले जाकर जहाँ श्यामसुन्दर निवास करते हैं, वहाँ उन्हें देना (और कहना वहाँ) मेढक, मोर और पपीहोंने बोल-बोलकर सोते हुए मदन (काम)-को जगा दिया है। श्यामसुन्दर गोकुल छोड़कर चले गये—(आज) अपने (भी) पराये (दूसरोंके) हो गये।’
विषय (हिन्दी)
(२८६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमारे हिरदैं कुलिसहु जीत्यौ।
फटत न सखी! अजहुँ उहि आसा, बरष-दिवस परि बीत्यौ॥
हमहू समुझि परी नीकैं करि, यह असितन की रीत्यौ।
बहुरि न जीवन-मरन सौं साझौ, करी मधुप की प्रीत्यौ॥
अब तौ बात घरी पहरन की, ज्यौं उदवस की भीत्यौ।
सूर स्याम-दासी सुख सोवहु, भयौ उभै मन-चीत्यौ॥
मूल
हमारे हिरदैं कुलिसहु जीत्यौ।
फटत न सखी! अजहुँ उहि आसा, बरष-दिवस परि बीत्यौ॥
हमहू समुझि परी नीकैं करि, यह असितन की रीत्यौ।
बहुरि न जीवन-मरन सौं साझौ, करी मधुप की प्रीत्यौ॥
अब तौ बात घरी पहरन की, ज्यौं उदवस की भीत्यौ।
सूर स्याम-दासी सुख सोवहु, भयौ उभै मन-चीत्यौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! हमारे हृदयोंने (कठोरतामें) व्रजको भी जीत लिया है। (मोहनके लौटनेकी) उस आशामें अब भी यह फटता नहीं, (एक-एक दिन करके) पूरा वर्ष बीत गया। अब हमारी समझमें भी यह बात भली प्रकार आ गयी कि कालोंकी यही रीति है। उन्होंने फिर (हमारे) जीवन-मरणसे कोई सम्बन्ध नहीं रखा, भौंरेकी-सी प्रीति की। खँडहरकी दीवालकी तरह हमारे नष्ट होनेकी बात तो अब घड़ी-प्रहरोंकी है (उसमें अधिक देर नहीं)। अब श्यामसुन्दर और दासी (कुब्जा) दोनों सुखपूर्वक सोयें, उन दोनोंके मनकी चाही बात (कि हम नष्ट हो जायँ) हो गयी।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२८७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक द्यौस कुंजन में माई।
नाना कुसुम लै जु अपने कर दिए मोहि, सो सुरति न जाई॥
इतने में घन गरजि बृष्टि करि, तन भींज्यौ मो, भई जुड़ाई।
काँपत देखि उढ़ाइ पीत पट, लै करुनामय कंठ लगाई॥
कहँ वह प्रीति-रीति मोहन की, कहँ अब धौं एती निठुराई।
अब बलबीर सूर-प्रभु, सखि री! मधुबन बसि सब रति बिसराई॥
मूल
एक द्यौस कुंजन में माई।
नाना कुसुम लै जु अपने कर दिए मोहि, सो सुरति न जाई॥
इतने में घन गरजि बृष्टि करि, तन भींज्यौ मो, भई जुड़ाई।
काँपत देखि उढ़ाइ पीत पट, लै करुनामय कंठ लगाई॥
कहँ वह प्रीति-रीति मोहन की, कहँ अब धौं एती निठुराई।
अब बलबीर सूर-प्रभु, सखि री! मधुबन बसि सब रति बिसराई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें श्रीराधा कहती हैं—) सखी! एक दिन कुंजमें मोहनने अपने हाथसे अनेक प्रकारके पुष्प लेकर (तोड़कर) मुझे दिये, (उस दिनकी) वह स्मृति (मुझे) भूलती नहीं। इतनेमें (ही) बादल गर्जना करके वर्षा करने लगे, (जिससे) मेरा शरीर भीग गया और मुझे ठंड लगने लगी। उन करुणामयने मुझे काँपते देखकर अपना पीताम्बर ओढ़ा दिया तथा (मुझे) लेकर गलेसे लगा लिया। कहाँ तो मोहनकी वह प्रीतिकी रीति और कहाँ अब (उनकी) यह इतनी निष्ठुरता! अरी सखी! हमारे स्वामी (उन) बलरामजीके छोटे भाईने अब मथुरामें निवास करके हमारा सब प्रेम विस्मृत कर दिया।
राग कान्हरौ
विषय (हिन्दी)
(२८८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हौं जानौं, माधौ हित कियौ।
अति आदर आतुर अलि ज्यौं मिलि, मुख-मकरंद पियौ॥
बरु वह भली पूतना, जाकौ पय सँग प्रान लियौ।
मनु मधु अँचै निपट सूने तन, यह दुख अधिक दियौ॥
देखि अचेत, अमृत अवलोकन चले जु सींचि हियौ।
सूरदास-प्रभु वा अधार तैं, अब लौं परत जियौ॥
मूल
हौं जानौं, माधौ हित कियौ।
अति आदर आतुर अलि ज्यौं मिलि, मुख-मकरंद पियौ॥
बरु वह भली पूतना, जाकौ पय सँग प्रान लियौ।
मनु मधु अँचै निपट सूने तन, यह दुख अधिक दियौ॥
देखि अचेत, अमृत अवलोकन चले जु सींचि हियौ।
सूरदास-प्रभु वा अधार तैं, अब लौं परत जियौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) मैंने तो समझा था कि माधवने (मुझसे) प्रेम किया था, जब उन्होंने भ्रमरकी भाँति मिलकर अत्यन्त आदरपूर्वक उत्सुकता (आतुरता)-के साथ (मेरे) मुखका मकरन्द पान किया था। इससे तो वह पूतना अच्छी थी, जिसका दूध पीनेके साथ (उन्होंने) प्राण ले लिये; (किंतु हमारी तो ऐसी दशा बना दी) मानो (भ्रमरने पुष्पका सारा) मधु पी लिया और सर्वथा शून्य देह करके छोड़ दिया हो, यह दुःख ऊपरसे उन्होंने दे दिया। (श्यामसुन्दर अपने जाते समय) हमें अचेत (मूर्छित) होते देखकर अपनी अमृतभरी दृष्टिसे हमारे हृदयको सिक्त करके चले गये। प्रभु! उसी आधारपर अबतक (हमको) जीना पड़ रहा है।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२८९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहिंनैं अब ब्रज नंद-कुमार।
परम चतुर सुंदर सुजान, सखि! या तनु के प्रतिहार॥
रूप-लकुट रोके जु रहत अलि, अनु-दिन नैननि-द्वार।
ता दिन तैं उर-भवन भयौ सखि! सिव-रिपु कौ संचार॥
दुख आवत कछु अटक न मानत, सूनौ देखि अगार।
अंसु उसास जात अंतर तैं, करत न कछू बिचार॥
निसा निमेष कपाट लगे बिनु, ससि मूसत सत सार।
सूर प्रान लटि लाज न छाँड़त, सुमिरि अवधि-आधार॥
मूल
नाहिंनैं अब ब्रज नंद-कुमार।
परम चतुर सुंदर सुजान, सखि! या तनु के प्रतिहार॥
रूप-लकुट रोके जु रहत अलि, अनु-दिन नैननि-द्वार।
ता दिन तैं उर-भवन भयौ सखि! सिव-रिपु कौ संचार॥
दुख आवत कछु अटक न मानत, सूनौ देखि अगार।
अंसु उसास जात अंतर तैं, करत न कछू बिचार॥
निसा निमेष कपाट लगे बिनु, ससि मूसत सत सार।
सूर प्रान लटि लाज न छाँड़त, सुमिरि अवधि-आधार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! इस शरीरके द्वार-रक्षक परम चतुर, सुन्दर और समझदार श्रीनन्दकुमार अब व्रजमें नहीं हैं, जो सखी! अपने सौन्दर्यरूपी डंडेको हाथमें लिये सर्वदा नेत्ररूपी द्वार रोके रहते थे। (किंतु अब जिस दिनसे वे गये) सखी! उसी दिनसे (मेरे) हृदयरूपी भवनमें कामदेवका प्रवेश हो गया। भवनको सूना देखकर (उसमें आते हुए अब) दुःख भी कोई रुकावट नहीं मानता तथा आँसू और निःश्वास (हृदयके) भीतरसे (निकलकर) चले जाते हैं, (वे भी जानेमें) कुछ विचार नहीं करते। रात्रिमें पलकरूपी किंवाड़ोंके लगे बिना (निद्रा आये बिना) चन्द्रमा (हमारे) सत्त्वका सार (धैर्य) चुरा लेता है; किंतु फिर भी (हमारे) प्राण (श्यामसुन्दरके लौटनेकी) अवधिके आधारका स्मरण करके (इस क्षीण शरीरमें) लटके हुए लज्जाके कारण साथ नहीं छोड़ते।
विषय (हिन्दी)
(२९०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे समय जो हरि जू आवहिं।
निरखि-निरखि वह रूप मनोहर, नैन बहुत सुख पावहिं॥
तैसिय स्याम घटा घन-घोरनि बिच बगपाँति दिखावहिं।
तैसेइ मोर-कुलाहल सुनि-सुनि, हरषि हिंडोरन गावहिं॥
तैसीऐ दमकति दामिनि, अरु मुरलि मलार बजावहिं।
कबहूँ संग जु हिलि-मिलि खेलहिं, कबहूँ कुंज बुलावहिं॥
बिछुरे प्रान रहत नहिं घट में, सो पुनि आनि जियावहिं।
अब कैं चलत जानि सूरज-प्रभु, सब पहिलें उठि धावहिं॥
मूल
ऐसे समय जो हरि जू आवहिं।
निरखि-निरखि वह रूप मनोहर, नैन बहुत सुख पावहिं॥
तैसिय स्याम घटा घन-घोरनि बिच बगपाँति दिखावहिं।
तैसेइ मोर-कुलाहल सुनि-सुनि, हरषि हिंडोरन गावहिं॥
तैसीऐ दमकति दामिनि, अरु मुरलि मलार बजावहिं।
कबहूँ संग जु हिलि-मिलि खेलहिं, कबहूँ कुंज बुलावहिं॥
बिछुरे प्रान रहत नहिं घट में, सो पुनि आनि जियावहिं।
अब कैं चलत जानि सूरज-प्रभु, सब पहिलें उठि धावहिं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) ऐसे समयमें यदि श्यामसुन्दर आ जायँ तो उनका वह मनोहर रूप बार-बार देखकर हमारे नेत्र बहुत सुखी हों। (पहलेके समान) वैसी ही काली घटा है, बादल गर्जना कर रहे हैं और बीच-बीचमें बगुलोंकी पंक्ति दीख रही है। हम (भी) उसी भाँति बारम्बार (उनके) मयूरोंका कोलाहल सुनकर और हर्षित होकर झूलोंपर (झूलती हुई) गावें। वैसी ही बिजली चमक रही है और वे (वैसे ही) वंशीमें मलार राग गायें, कभी हमारे साथ भली प्रकार मिलकर क्रीडा करें तथा कभी हमें कुंजोंमें बुलायें। हमारे प्राण उनका वियोग होनेसे शरीरमें रहते नहीं दीखते, उन्हें आकर वे जीवित करें। इस बार (हम उन) अपने स्वामीको जाते जानकर सब (-की-सब) पहले ही उठकर (उनके साथ) दौड़ पड़ेंगी।
राग रामकली
विषय (हिन्दी)
(२९१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज कहा खोरी।
छत अरु अछत एक रस अंतर मिटत नहीं, कोउ करौ करोरी॥
बालक ही अभिलाषनि लीला, चकित भई कुल लाजनि छोरी।
बिरुध बिबेक गोप-रस परि करि, बिरह-सिंधु मारत तैं ओरी॥
जद्यपि हौ त्रैलोक के ईस्वर, परसि दृष्टि चितवत न बहोरी।
सूरदास-प्रभु प्रीति-रीति कत, ते तुम सबै अब रहे तोरी॥
मूल
ब्रज कहा खोरी।
छत अरु अछत एक रस अंतर मिटत नहीं, कोउ करौ करोरी॥
बालक ही अभिलाषनि लीला, चकित भई कुल लाजनि छोरी।
बिरुध बिबेक गोप-रस परि करि, बिरह-सिंधु मारत तैं ओरी॥
जद्यपि हौ त्रैलोक के ईस्वर, परसि दृष्टि चितवत न बहोरी।
सूरदास-प्रभु प्रीति-रीति कत, ते तुम सबै अब रहे तोरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) व्रजमें क्या दोष है, जो मोहन इसे छोड़कर चल दिये। (माना कि उनके लिये) लाभ और हानि समान हैं; किंतु कोई करोड़ों प्रयत्न करे तो भी उनका अन्तर तो मिटेगा नहीं। बचपनमें ही उन्होंने ऐसी अभिलाषापूर्ण लीलाएँ कीं (कि हम सब) कुल-मर्यादा और लज्जा छोड़कर आश्चर्यमें पड़ गयीं। (यही नहीं) हमारे ज्ञानरूपी बिरवे (नन्हें पौदे)-को (अपने गोपवेशकी) क्रीडाके आनन्दमें निमग्नकर वियोगरूपी समुद्रमें डूबनेसे बचा लिया था। यद्यपि (आप) त्रिलोकीके स्वामी हैं, तथापि (अब) एक बार (भी) हमारा दृष्टिसे स्पर्श करनेके लिये फिर हमारी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। हमारे स्वामी! प्रेमकी जो रीति है, उसे पूरी-की-पूरी तुम अब क्यों तोड़ रहे हो।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२९२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिन कौन सौं कहिऐ।
मनसिज-बिथा अरनि लौं जारति, उर-अंतर दहिऐ॥
कानन-भवन रैनि अरु बासर, कहूँ न सचु लहिऐ।
मूक जु भई जग्य के पसु लौं, कौलौं दुख सहिऐ॥
कबहूँ उपजै जिय में ऐसी, जाइ जमुन बहिऐ।
सूरदास-प्रभु कमलनैन बिनु, कैसें ब्रज रहिऐ॥
मूल
हरि बिन कौन सौं कहिऐ।
मनसिज-बिथा अरनि लौं जारति, उर-अंतर दहिऐ॥
कानन-भवन रैनि अरु बासर, कहूँ न सचु लहिऐ।
मूक जु भई जग्य के पसु लौं, कौलौं दुख सहिऐ॥
कबहूँ उपजै जिय में ऐसी, जाइ जमुन बहिऐ।
सूरदास-प्रभु कमलनैन बिनु, कैसें ब्रज रहिऐ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दरके बिना (यह मनकी बात) किससे कही जाय कि कामदेवकी पीड़ा अरणि (यज्ञमें अग्नि उत्पन्न करनेवाला काष्ठ)-के समान जल रही है। (अब तो) हृदयके भीतर-ही-भीतर जलते रहना है। वनमें या घरमें, रातमें या दिनमें—कहीं भी शान्ति नहीं मिलती। यज्ञके (बलिदान होनेवाले) पशुके समान (मैं) मूक होकर कबतक (यह) दुःख सहूँ? कभी ऐसी बात मनमें उठती है कि जाकर यमुनामें डूब जाऊँ। कमललोचन स्वामीके बिना व्रजमें कैसे रहूँ?
राग मारू
विषय (हिन्दी)
(२९३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
किते दिन हरि-दरसन बिनु बीते।
एक न फुरत स्यामसुंदर बिनु, बिरह सबै सुख जीते॥
मदनगुपाल बैठि कंचन-रथ, चितै किए तन रीते।
सुफलक-सुत लै गए दगा दै, प्राननिहू तैं प्रीते॥
कहि धौं घोष कबहिं आवैंगे, हरि-बलभद्र सहीते।
सूरदास-प्रभु बहुरि कृपा करि, मिलहु सुदामा मीते॥
मूल
किते दिन हरि-दरसन बिनु बीते।
एक न फुरत स्यामसुंदर बिनु, बिरह सबै सुख जीते॥
मदनगुपाल बैठि कंचन-रथ, चितै किए तन रीते।
सुफलक-सुत लै गए दगा दै, प्राननिहू तैं प्रीते॥
कहि धौं घोष कबहिं आवैंगे, हरि-बलभद्र सहीते।
सूरदास-प्रभु बहुरि कृपा करि, मिलहु सुदामा मीते॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) हरिके दर्शन बिना कितने दिन बीत गये! श्यामसुन्दरके बिना (वियोग-निवारणका) एक भी उपाय तो (मेरी) समझमें नहीं आता। (इस) वियोगने हमारे सारे सुख जीत लिये (समाप्त कर दिये)। मदनगोपालने (जाते समय) सोनेके रथमें बैठकर और (हमारी ओर) देखकर हमारे शरीर सूने बना दिये तथा हमें धोखा देकर हमारे प्राणोंसे भी प्रिय मोहनको अक्रूर ले गये। (अब) बतलाओ, श्यामसुन्दर श्रीबलरामके साथ व्रजमें कब आयेंगे? स्वामी! फिर कृपा करके हमसे वैसे ही मिलो, जैसे (आगे चलकर द्वारकामें) अपने मित्र सुदामासे मिलोगे।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२९४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरह भरॺौ घर-आँगन-कौंने।
दिन-दिन बाढ़त जात सखी री! ज्यौं कुरुखेत के सोने॥
तब वह दुख दीन्हौ, जब बाँधे, ताहू कौ फल जानि।
निज कृत चूक समझि मन-ही-मन, लेति परस्पर मानि॥
हम अबला अति दीन हीन-मति, तुम सबही बिधि जोग।
सूर बदन देखते अहूठै, यह सरीर कौ रोग॥
मूल
बिरह भरॺौ घर-आँगन-कौंने।
दिन-दिन बाढ़त जात सखी री! ज्यौं कुरुखेत के सोने॥
तब वह दुख दीन्हौ, जब बाँधे, ताहू कौ फल जानि।
निज कृत चूक समझि मन-ही-मन, लेति परस्पर मानि॥
हम अबला अति दीन हीन-मति, तुम सबही बिधि जोग।
सूर बदन देखते अहूठै, यह सरीर कौ रोग॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! मेरे घरमें आँगनमें (ही नहीं) प्रत्येक कोनेमें वियोग भर गया है। जैसे कुरुक्षेत्रका स्वर्ण बढ़ता जाता था* वैसे ही यह (वियोग-दुःख) दिनोदिन बढ़ता ही जाता है। जब माताने उन्हें (ऊखलसे) बाँधा था, तब तो वह (एक) दुःख (व्रजमें उन्हें) दिया गया था। माना कि यह (वियोग-दुःख) उसीका फल है और उसे अपनी की हुई भूल समझकर हम परस्पर मन-ही-मन उसे मान लेती हैं। किंतु (श्यामसुन्दर!) हम तो अत्यन्त दीन-हीन अबलाएँ हैं और तुम सभी प्रकारसे योग्य (समर्थ) हो। इसलिये यह हमारे शरीरका (विरहरूपी) रोग (उनके) श्रीमुख-अवलोकन करते ही नष्ट हो जायगा।
पादटिप्पनी
- कुरुक्षेत्रमें जैसे-जैसे योद्धा काम आते-जाते थे, वैसे-वैसे उनके आभूषणोंके रूपमें स्वर्णराशि बढ़ती जाती थी।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२९५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौ पै कोउ माधौ सौं कहै।
तौ यह बिथा सुनत नँदनंदन कित मधुपुरी रहै॥
पहिलेंहीं सब दसा बतावै, पुनि कर-चरन गहै।
यह प्रतीति मेरे चित अंतर, सुनत न प्रेम सहै॥
यहै सँदेस सूर के प्रभु सौं को कहि जसहि लहै।
अब की बेर दयाल दरस दै, यह दुख आनि दहै॥
मूल
जौ पै कोउ माधौ सौं कहै।
तौ यह बिथा सुनत नँदनंदन कित मधुपुरी रहै॥
पहिलेंहीं सब दसा बतावै, पुनि कर-चरन गहै।
यह प्रतीति मेरे चित अंतर, सुनत न प्रेम सहै॥
यहै सँदेस सूर के प्रभु सौं को कहि जसहि लहै।
अब की बेर दयाल दरस दै, यह दुख आनि दहै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) यदि कोई माधवके पास जाकर कहे तो हमारी यह पीड़ा सुनते ही श्रीनन्दनन्दन मथुरा कैसे रह सकते हैं (अर्थात् नहीं रह सकते)। वह संदेशवाहक पहले हमारी सब दशा बताये और फिर हाथोंसे उनके चरण पकड़ ले तो मेरे हृदयमें यह विश्वास है कि उसे सुनकर (मोहनका वह) प्रेम सहन नहीं कर सकेगा। (अरी!) स्वामीसे यह संदेश कहकर कौन यश ले कि दयालु! अबकी बार दर्शन देकर यह दुःख भस्म कर दो।
राग गौरी
विषय (हिन्दी)
(२९६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरति करि ह्वाँ की रोइ दियौ।
पंथी एक देखि मारग में, राधा बोलि लियौ॥
कहि धौं बीर! कहाँ तैं आयौ, हम जु प्रनाम कियौ।
पा लागौं, मंदिर पग धारौ, सुनि दुखियान लियौ॥
गदगद कंठ, हियौ भरि आयौ, बचन कह्यौ न दियौ।
सूर स्याम अभिराम ध्यान मन, भरि-भरि लेत हियौ॥
मूल
सुरति करि ह्वाँ की रोइ दियौ।
पंथी एक देखि मारग में, राधा बोलि लियौ॥
कहि धौं बीर! कहाँ तैं आयौ, हम जु प्रनाम कियौ।
पा लागौं, मंदिर पग धारौ, सुनि दुखियान लियौ॥
गदगद कंठ, हियौ भरि आयौ, बचन कह्यौ न दियौ।
सूर स्याम अभिराम ध्यान मन, भरि-भरि लेत हियौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कहने लगी—तू ठीक कह रही है, सखी!) सचमुच प्राण-प्रीतम एक दिन यहाँ (व्रज)-की याद करके रो पड़े। एक यात्रीको मार्गमें जाते देखकर श्रीराधाने जो बुलवा लिया था, उससे वे बोलीं—‘भैया! बतलाओ तो कि तुम कहाँसे आये हो, जो तुमने हमें प्रणाम किया। मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, भवनमें पधारो! हम दुःखिनी नारियोंकी बात सुन लो!’ (इतना सुनते ही उनका) कण्ठ गद्गद हो गया, हृदय भर आया, कोई बात कह नहीं सके। मनसे परमसुन्दर श्याम (व्रज)-का ध्यान करके बार-बार हृदय भर लेते (व्याकुल हो जाते) हैं।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(२९७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि! कहँ इते दिन लाए।
आवन कौं कहि गए सु तौ, अजहूँ नहिं आए॥
चलत चितै मुसकाइ कैं, मृदु बचन सुनाए।
तेही ठग मोदक भए, धीरज छिटकाए॥
जग-मोहन जदुनाथ के गुन जानि न पाए।
मनहुँ सूर इहि लाज तैं, नहिं चरन दिखाए॥
मूल
हरि! कहँ इते दिन लाए।
आवन कौं कहि गए सु तौ, अजहूँ नहिं आए॥
चलत चितै मुसकाइ कैं, मृदु बचन सुनाए।
तेही ठग मोदक भए, धीरज छिटकाए॥
जग-मोहन जदुनाथ के गुन जानि न पाए।
मनहुँ सूर इहि लाज तैं, नहिं चरन दिखाए॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) श्यामसुन्दर! इतने दिन (तुमने) कहाँ लगा दिये? आनेके लिये (तुम) कह गये थे, वह तो अबतक आये नहीं। चलते समय (हमारी ओर) देखते हुए तुमने जो मुसकराकर मधुर वाणी सुनायी थी, वह (अन्तिम शब्द हमारे लिये भुलावा देनेवाले) ठगके लड्डू (-के समान) हो गयी है और उसने हमारे धैर्यको अस्त-व्यस्त कर दिया है। समस्त विश्वको मोहित करनेवाले श्रीयदुनाथके गुण जाने नहीं गये, मानो इसी लज्जासे (उन्होंने) यहाँ अपने चरणोंका दर्शन नहीं दिया (मथुरामें जो उलटे-सीधे कार्य किये, उसी लज्जासे वे नहीं आते)।
विषय (हिन्दी)
(२९८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह दुख कौन सौं कहौं।
जोइ बीतति, सोइ कहति, सयानी! नित नव सूल सहौं॥
जे सुख स्याम संग सब कीन्हे, गहि राखे इहिं गात।
ते अब भए सीत या तनु कौं, साखा ज्यौं द्रुम-पात॥
जो हुति निकट मिलन की आसा, सो तौ दूरि गई।
जथा-जोग ज्यौं होत रोगिया, कुपथी करत नई॥
यह तन-त्यागि मिलन यौं बनिहै, गंगा-सागर-संग।
अब सुनि सूर ध्यान ऐसौ है, स्याम-राम इक रंग॥
मूल
यह दुख कौन सौं कहौं।
जोइ बीतति, सोइ कहति, सयानी! नित नव सूल सहौं॥
जे सुख स्याम संग सब कीन्हे, गहि राखे इहिं गात।
ते अब भए सीत या तनु कौं, साखा ज्यौं द्रुम-पात॥
जो हुति निकट मिलन की आसा, सो तौ दूरि गई।
जथा-जोग ज्यौं होत रोगिया, कुपथी करत नई॥
यह तन-त्यागि मिलन यौं बनिहै, गंगा-सागर-संग।
अब सुनि सूर ध्यान ऐसौ है, स्याम-राम इक रंग॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) यह दुःख किससे कहूँ? चतुर सखी! मुझपर जो बीत रही है, वही कहती हूँ—(अब) नित्य नवीन वेदना सहती हूँ। श्यामसुन्दरके साथ जितने आनन्द किये, उन सबको इस शरीरने (स्मृतिरूपमें) पकड़ रखा था। वे ही सब इस शरीरके लिये ऐसे शीतप्रद (दुःखद) हो गये हैं, जैसे वृक्षकी शाखा एवं पत्तोंको (जलानेवाला पाला) होता है। जो (मोहनके) समीप रहनेके कारण मिलनेकी आशा थी, वह (इस भाँति) दूर चली गयी, जैसे रोगी व्यक्ति नित्य नवीन कुपथ्य करनेसे यथायोग्य (स्वास्थ्य-लाभ समझकर) अधिक रोगी होता जाता है। (अब) इस शरीरको छोड़कर उनसे ऐसे मिलना होगा, जैसे समुद्रमें गंगा। सुनो, अब मेरा ऐसा ध्यान (विचार) है कि श्याम और बलराम—दोनों भाई एक ही रंगके (एक समान निष्ठुर) हैं।
विषय (हिन्दी)
(२९९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद अजहूँ नहिं आए री, जान एहू दिन लागे।
उन्ह कौं दोष कहा, सखि! दीजै, ब्रज के लोग अभागे॥
प्रीतिहि के माते जे सोए, सरबस हरत न जागे।
अब कहि सूर कहा बस्याइ हम, अनत कहूँ अनुरागे॥
मूल
गोबिंद अजहूँ नहिं आए री, जान एहू दिन लागे।
उन्ह कौं दोष कहा, सखि! दीजै, ब्रज के लोग अभागे॥
प्रीतिहि के माते जे सोए, सरबस हरत न जागे।
अब कहि सूर कहा बस्याइ हम, अनत कहूँ अनुरागे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) ये दिन भी बीतने लगे, पर गोविन्द (अब भी) नहीं आये। सखी! उनको क्या दोष दिया जाय, (हम) व्रजके लोग ही भाग्यहीन हैं। (हम) प्रेमके मदसे मतवाले होकर (ऐसे) सो गये (असावधान रहे) कि अपना सर्वस्व-हरण होते समय भी जागे नहीं। अब बतलाओ, हमारा क्या वश चल सकता है। वे तो कहीं अन्यत्र प्रेम कर चुके हैं।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३००)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम सरघा ब्रजनाथ सुधानिधि,
राखे बहुत जतन करि सचि-सचि॥
मन-मुख भरि-भरि, नैन-ऐन ह्वै,
उर प्रति कमल-कोस लौं खचि-खचि॥
सुभग सुमन सब अंग अमृतमय,
तहाँ-तहाँ राखति चित रचि-रचि॥
मोहन मदन सुरूप सुजस-रस,
करत सु गुप्त प्रेम रस पचि-पचि॥
सूरदास पीयूष लागि तिहि,
पठयौ नृपति, तेहु गए बचि-बचि॥
अब सोई मधु हरॺौ सुफलक-सुत,
दुसह दाह जु उठत तन तचि-तचि॥
मूल
हम सरघा ब्रजनाथ सुधानिधि,
राखे बहुत जतन करि सचि-सचि॥
मन-मुख भरि-भरि, नैन-ऐन ह्वै,
उर प्रति कमल-कोस लौं खचि-खचि॥
सुभग सुमन सब अंग अमृतमय,
तहाँ-तहाँ राखति चित रचि-रचि॥
मोहन मदन सुरूप सुजस-रस,
करत सु गुप्त प्रेम रस पचि-पचि॥
सूरदास पीयूष लागि तिहि,
पठयौ नृपति, तेहु गए बचि-बचि॥
अब सोई मधु हरॺौ सुफलक-सुत,
दुसह दाह जु उठत तन तचि-तचि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) हम (गोपीरूप) मधुमक्खियोंने श्रीव्रजनाथरूप अमृतकोषको बहुत प्रयत्नसे संचित करके रखा था, मनरूपी मुखमें (उनकी शोभा) बार-बार भरकर नेत्ररूपी मार्गसे हृदयरूपी प्रत्येक कोषमें उसे ठूँस-ठूँसकर रखा था। उनके सभी मनोहर अंग अमृतमय पुष्पोंके समान थे, उन-उन अंगोंमें हम अपना चित्त भली प्रकार लगाये रखती थीं और उनके कामदेवको भी मोहित करनेवाले उत्तम सौन्दर्य एवं सुयश (रूपी) रस (मकरन्द)-में (हम) बार-बार प्रयत्नपूर्वक अत्यन्त गुप्त प्रेम करके आनन्द लेती थीं। इस अमृतके लिये राजा (कंस)-ने (जिन-जिनको यहाँ) भेजा, वे (सब उससे) वंचित रहे; किंतु वही हमारा मधु (-रूपी मोहनका आधार) अक्रूरने हरण कर लिया, अब असहनीय संतापसे (हमारा) शरीर बार-बार संतप्त होता रहता है।
राग बिलावल
विषय (हिन्दी)
(३०१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हरी प्रीति, हरि! पूरब जनम की,
अब जु भए मेरे जियहु के गरजी।
बहुत दिनन तैं बिरमि रहे हौ,
संग बिछोहि हमैं गए बरजी॥
जा दिन तैं तुम्ह प्रीति करी ही,
घटति न बढ़ति तौल लेहु नरजी।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु,
तन भयौ ब्यौंत, बिरह भयौ दरजी॥
मूल
तुम्हरी प्रीति, हरि! पूरब जनम की,
अब जु भए मेरे जियहु के गरजी।
बहुत दिनन तैं बिरमि रहे हौ,
संग बिछोहि हमैं गए बरजी॥
जा दिन तैं तुम्ह प्रीति करी ही,
घटति न बढ़ति तौल लेहु नरजी।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु,
तन भयौ ब्यौंत, बिरह भयौ दरजी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) श्यामसुन्दर! (हमसे) तुम्हारा प्रेम (आजका नहीं) पूर्वजन्मका है; किंतु (पता नहीं, अब क्यों तुम) मेरे प्राणोंके ग्राहक हो गये हो। बहुत दिनोंसे (तुम मथुरामें) हमारा साथ छोड़कर रम रहे हो और हमें (वहाँ आनेसे) रोक गये हो। जिस दिनसे (हमने) तुमसे प्रेम किया, तबसे वह घटा है, बढ़ा नहीं है; भले ही (तराजू लेकर) उसे तौल लो। हे स्वामी! तुम्हारे मिलनके बिना हमारा शरीर विरहरूप दर्जीके द्वारा सिया जानेवाला वस्त्र बन गया है।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३०२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
(माई) वै दिन इहिं देह अछत, बिधिना जौ आनै री।
स्यामसुँदर संग रंग जुबति-बृंद ठानै री॥
जद्यपि अक्रूर मूर परम गति पठावै री।
प्रान-नाथ कमल-नैन बाँसुरी बजावै री॥
कहा कहौं, कहत कठिन, कहें कौन मानै री।
सूरदास प्रेम-पीर बिरहि मिलें जानै री॥
मूल
(माई) वै दिन इहिं देह अछत, बिधिना जौ आनै री।
स्यामसुँदर संग रंग जुबति-बृंद ठानै री॥
जद्यपि अक्रूर मूर परम गति पठावै री।
प्रान-नाथ कमल-नैन बाँसुरी बजावै री॥
कहा कहौं, कहत कठिन, कहें कौन मानै री।
सूरदास प्रेम-पीर बिरहि मिलें जानै री॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! इस शरीरके रहते कहीं विधाता वह दिन ला दे कि श्यामसुन्दरके साथ हम युवतियोंका समूह आनन्दक्रीडा करता हो। (उस समय) यदि अक्रूर आ जायँ तो (हम) उन्हें जड़सहित परमगतिको भेज दें, (क्योंकि) हमारे प्राणनाथ कमललोचन वंशी जो बजाते होंगे। क्या कहूँ, कहनेमें बहुत कठिन बात है और मेरा कहना मानेगा कौन? यह प्रेमकी पीड़ा तो वियोग प्राप्त होनेपर ही जानी जाती है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(३०३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कौ मारग दिन प्रति जोवति।
चितवत रहत चकोर चंद ज्यौं,
सुमिरि-सुमिरि गुन रोवति॥
पतियाँ पठवति, मसि नहिं खूटति,
लिखि-लिखि मानहुँ धोवति।
भूख न दिन, निसि नींद हिरानी,
एकौ पल नहिं सोवति॥
जे-जे बसन स्याम सँग पहिरे,
ते अजहूँ नहिं धोवति।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिनु,
बृथा जनम सुख खोवति॥
मूल
हरि कौ मारग दिन प्रति जोवति।
चितवत रहत चकोर चंद ज्यौं,
सुमिरि-सुमिरि गुन रोवति॥
पतियाँ पठवति, मसि नहिं खूटति,
लिखि-लिखि मानहुँ धोवति।
भूख न दिन, निसि नींद हिरानी,
एकौ पल नहिं सोवति॥
जे-जे बसन स्याम सँग पहिरे,
ते अजहूँ नहिं धोवति।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिनु,
बृथा जनम सुख खोवति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) राधा प्रतिदिन श्यामसुन्दरका मार्ग ही देखती है। जैसे चन्द्रमाको चकोर देखता है, उसी प्रकार (वह उनके लौटनेका मार्ग) देखती और उनके गुणोंका बार-बार स्मरण करके रोती रहती है। चिट्ठियाँ भेजती है, पर स्याही समाप्त नहीं होती। (पत्र ऐसे आँसूसे भीग जाते हैं) मानो बार-बार उन्हें लिखकर धो देती है। (उसे) दिनमें न तो भूख लगती है और रातमें निद्रा खो गयी है, एक पल भी सोती नहीं। श्यामसुन्दरके साथ रहनेपर जो-जो वस्त्र (उसने) पहने थे, उन्हें अब भी धोती नहीं। स्वामी! आपके दर्शनके बिना वह जीवनके समस्त आनन्द व्यर्थ खो रही है।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३०४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु माधौ राधा-तन, सजनी! सब बिपरीत भई।
गई छपाइ छपाकर की छबि, रही कलंकमई॥
अलक जु हुती भुवंगमहू-सी, बट लट मनहुँ भई।
तनु-तरु लाइ बियोग लग्यौ जनु, तनुता सकल हई॥
अँखियाँ हुतीं कमल-पँखुरी-सी, सुछबि निचोरि लई।
आँच लगें च्योनो सोनौ-सौ, यौं तनु धातु धई॥
कदली-दल-सी पीठि मनोहर, मानौ उलटि ठई।
संपति सब हरि हरी सूर-प्रभु, बिपदा देह दई॥
मूल
बिनु माधौ राधा-तन, सजनी! सब बिपरीत भई।
गई छपाइ छपाकर की छबि, रही कलंकमई॥
अलक जु हुती भुवंगमहू-सी, बट लट मनहुँ भई।
तनु-तरु लाइ बियोग लग्यौ जनु, तनुता सकल हई॥
अँखियाँ हुतीं कमल-पँखुरी-सी, सुछबि निचोरि लई।
आँच लगें च्योनो सोनौ-सौ, यौं तनु धातु धई॥
कदली-दल-सी पीठि मनोहर, मानौ उलटि ठई।
संपति सब हरि हरी सूर-प्रभु, बिपदा देह दई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! माधवके बिना श्रीराधाके शरीरकी सब उलटी दशा हो गयी—उनकी चन्द्रमाके समान शोभा तो छिप गयी (दूर हो गयी)। केवल कलंककी कालिमामय रह गयी है। उनकी अलकें, जो सर्पके समान (काली एवं लहरदार) थीं, वे (आज) उलझकर मानो लटें (जटाएँ) हो गयी हैं और (वे लटें) शरीररूपी वृक्षमें (इस भाँति ज्ञात होती हैं) मानो (उस तनरूपी वृक्षमें) वियोगरूपी लपट लग गयी हो। उसकी दुर्बलताने सब शक्ति नष्ट कर दी है। आँखें जो कमलकी पंखुड़ियोंके समान थीं, उनकी सुन्दरता (मानो किसीने) निचोड़ ली है। जैसे अग्निका ताप लगनेपर सोना पिघल जाता है, उस प्रकार उनके शरीरकी धातुएँ जल गयी हैं। (वियोगमें अस्थि, मांस सब गल जाता है।) केलेके पत्तेके समान उनकी मनोहर पीठ अब ऐसी हो गयी है मानो उसे (पत्तेको) उलटकर रख दिया हो (क्योंकि अब उसमें रीढ़की हड्डी दीखने लगी है)। हमारे स्वामीने उसकी सब सुख-सम्पत्ति छीनकर (उसके) शरीरके लिये विपत्ति दे दी।
राग कान्हरौ
विषय (हिन्दी)
(३०५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर कपोल, भुज धरि जंघा पै
लेखति माइ! नखनि की रेखनि।
सोच-बिचार करति वह कामिनि,
धरति जु ध्यान मदन-मुख-भेषनि॥
नैन नीर भरि-भरि जु लेति है,
धिक-धिक जे दिन जात अलेखनि।
कमल-नैन मधुपुरी सिधारे,
जाने गुन न सहस-मुख सेषनि॥
अवधि झुठाइ कान्ह, सुनु री, सखि!
क्यौं जीवैं निसि दामिनि देखनि।
सूरदास-प्रभु चेटक करि गए,
नाना बिधि नाचति नट-पेषनि॥
मूल
कर कपोल, भुज धरि जंघा पै
लेखति माइ! नखनि की रेखनि।
सोच-बिचार करति वह कामिनि,
धरति जु ध्यान मदन-मुख-भेषनि॥
नैन नीर भरि-भरि जु लेति है,
धिक-धिक जे दिन जात अलेखनि।
कमल-नैन मधुपुरी सिधारे,
जाने गुन न सहस-मुख सेषनि॥
अवधि झुठाइ कान्ह, सुनु री, सखि!
क्यौं जीवैं निसि दामिनि देखनि।
सूरदास-प्रभु चेटक करि गए,
नाना बिधि नाचति नट-पेषनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक सखी दूसरी सखीसे श्रीराधाके सम्बन्धमें कह रही है—) सखी! वह कामिनी (मिलनकी चाह रखनेवाली) हथेलीपर कपोल और भुजा (कुहनी) जंघापर रखकर पृथ्वीपर नखोंसे रेखाएँ लिखती (बनाती) और सोच-विचार (चिन्ता) करती है। उन कामदेवके समान सुन्दर मुख एवं वेशवाले मोहनका ध्यान धरती रहती है। (वह) बार-बार नेत्रोंमें जल भर लेती है (और कहती है—) ‘बिना गणनाके ये जो दिन (श्यामके वियोगके कारण व्यर्थ) बीत रहे हैं, उन्हें धिक्कार है, धिक्कार है; (क्योंकि) जिनके गुण सहस्रमुखवाले शेषनाग भी नहीं जान सके, वे कमललोचन मथुरा चले गये।’ सखी! सुन, कन्हैयाने (लौटनेकी) जो अवधि दी थी, वह झूठी निकली; अब रात्रिमें बिजली देखकर (वह) कैसे जीवित रहे। अरी, हमारे स्वामी (तो उसपर) कुछ ऐसा टोटका (जादू) कर गये हैं कि नटके समान अनेक प्रकारसे नाचती (व्याकुल होती) दिखायी पड़ती है।
विषय (हिन्दी)
(३०६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबै सुख लै जु गए ब्रजनाथ।
बिलख बदन चितवति मधुबन तन, हम न गईं उठि साथ॥
वह मूरति चित तैं बिसरति नहिं, देखि साँवरे गात।
मदनगुपाल ठगौरी मेली, कहत न आवै बात॥
नंद-नँदन जु बिदेस गवन कियौ, बैसी मींजति हाथ।
सूरदास-प्रभु! तुम्हरे बिछुरें, हम सब भईं अनाथ॥
मूल
सबै सुख लै जु गए ब्रजनाथ।
बिलख बदन चितवति मधुबन तन, हम न गईं उठि साथ॥
वह मूरति चित तैं बिसरति नहिं, देखि साँवरे गात।
मदनगुपाल ठगौरी मेली, कहत न आवै बात॥
नंद-नँदन जु बिदेस गवन कियौ, बैसी मींजति हाथ।
सूरदास-प्रभु! तुम्हरे बिछुरें, हम सब भईं अनाथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) व्रजनाथ हमारे सभी सुख ले गये। हम उदास मुखसे मथुराकी ओर देखती रहीं, पर उठकर उनके साथ नहीं गयीं। (अरी, उनके) श्याम शरीरको (एक बार) देख लेनेपर हृदयसे वह मूर्ति भूलती (हटती) नहीं; क्योंकि उन मदनगोपालने (अपने सौन्दर्यका) कुछ ऐसा जादू डाल दिया है कि कोई बात कहते नहीं बनती। नन्दनन्दन तो विदेश चले गये और हम हाथ मलती बैठी रह गयीं। हे स्वामी! तुम्हारे वियुक्त होनेसे हम सब अनाथ हो गयी हैं।
विषय (हिन्दी)
(३०७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
करिहौ, मोहन! कहूँ सँभारि, गोकुल-जन-सुखहारे।
खग, मृग, तृन, बेली बृंदाबन, गैया, ग्वाल बिसारे॥
नंद-जसोदा मारग जोवैं, निसि-दिन दीन-दुखारे।
छिन-छिन सुरति करत चरनन की, बाल-बिनोद तुम्हारे॥
दीन-दुखी ब्रज रह्यौ न परिहै, सुंदर स्याम लला रे।
दीनानाथ, कृपा के सागर, सूरदास-प्रभु प्यारे॥
मूल
करिहौ, मोहन! कहूँ सँभारि, गोकुल-जन-सुखहारे।
खग, मृग, तृन, बेली बृंदाबन, गैया, ग्वाल बिसारे॥
नंद-जसोदा मारग जोवैं, निसि-दिन दीन-दुखारे।
छिन-छिन सुरति करत चरनन की, बाल-बिनोद तुम्हारे॥
दीन-दुखी ब्रज रह्यौ न परिहै, सुंदर स्याम लला रे।
दीनानाथ, कृपा के सागर, सूरदास-प्रभु प्यारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) गोकुलके लोगोंको सुख देनेवाले मोहन! कभी इनकी सँभाल करोगे? (ओह!) तुमने तो वृन्दावनके पशु-पक्षी, तृण-लता, गायें और गोपोंको विस्मृत (ही) कर दिया। (अत्यन्त) दीन एवं दुःखी होकर बाबा नन्द और मैया यशोदा तुम्हारा मार्ग देखती हैं और क्षण-क्षणमें तुम्हारे चरणोंका तथा तुम्हारी बालोचित क्रीडाओंका स्मरण करती हैं। सुन्दर श्यामलाल! (तुम्हारे बिना) दीन-दुःखी होकर व्रजमें रहा नहीं जाता; हमारे प्यारे स्वामी! (तुम) दीनोंके नाथ और कृपाके समुद्र हो (कभी तो कृपा करोगे ही)।
विषय (हिन्दी)
(३०८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्ह कौं ब्रज बसिबौ नहिं भावै।
ह्वाँ वे भूप भए त्रिभुवन के, ह्याँ कित ग्वाल कहावै॥
ह्वाँ वे छत्र-सिंघासन राजत, को बछरन सँग धावै।
ह्वाँ तौ बिबिध बस्त्र पाटंबर, को कमरी सचु पावै॥
नंद-जसोदा हू कौं बिसरॺौ, हमरी कौन चलावै।
सूरदास-प्रभु निठुर भए री, पातिहु लिखि न पठावै॥
मूल
उन्ह कौं ब्रज बसिबौ नहिं भावै।
ह्वाँ वे भूप भए त्रिभुवन के, ह्याँ कित ग्वाल कहावै॥
ह्वाँ वे छत्र-सिंघासन राजत, को बछरन सँग धावै।
ह्वाँ तौ बिबिध बस्त्र पाटंबर, को कमरी सचु पावै॥
नंद-जसोदा हू कौं बिसरॺौ, हमरी कौन चलावै।
सूरदास-प्रभु निठुर भए री, पातिहु लिखि न पठावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) उनको (अब) व्रजमें रहना अच्छा नहीं लगता; क्योंकि वहाँ वे तीनों लोकोंके राजा हो गये हैं। यहाँ (व्रजमें आकर) गोप क्यों कहलायें। वहाँ तो वे छत्र लगाकर सिंहासनपर शोभित होते हैं; (भला, अब) बछड़ोंके साथ कौन दौड़े। (साथ ही) वहाँ तो अनेक प्रकारके रेशमी वस्त्र हैं, (तब) कंबलपर कौन संतोष करे। वे तो नन्द-यशोदाको भी भूल गये, फिर हमारी कौन चर्चा है। (सखी!) हमारे स्वामी ऐसे निष्ठुर हो गये हैं कि (अब) पत्र लिखकर भी (यहाँ) नहीं भेजते।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(३०९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब तैं बहुरि न कोऊ आयौ।
वहै जु एक बेर ऊधौ सौं कछु संदेसौ पायौ॥
छिन-छिन सुरति करत जदुपति की, परत न मन समझायौ।
गोकुलनाथ हमारे हित लगि लिखिहू क्यौं न पठायौ॥
यहै बिचार करौं धौं, सजनी! इतौ गहरु क्यौं लायौ।
सूर स्याम अब बेगि न मिलहू, मेघन अंबर छायौ॥
मूल
तब तैं बहुरि न कोऊ आयौ।
वहै जु एक बेर ऊधौ सौं कछु संदेसौ पायौ॥
छिन-छिन सुरति करत जदुपति की, परत न मन समझायौ।
गोकुलनाथ हमारे हित लगि लिखिहू क्यौं न पठायौ॥
यहै बिचार करौं धौं, सजनी! इतौ गहरु क्यौं लायौ।
सूर स्याम अब बेगि न मिलहू, मेघन अंबर छायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) जबसे श्यामसुन्दर मथुरा गये, तबसे फिर कोई (मथुरासे) नहीं आया। वही एक बार उद्धवके हाथ (उनका) कुछ संदेश मिला था। बार-बार (उन) श्रीयदुनाथका स्मरण करती हूँ, (फिर भी) मन समझानेसे भी नहीं मानता। उन गोकुलके स्वामीने हमारे प्रेमके लिये (हमारे प्रेमका ध्यान करके कुछ भी तो) लिखकर नहीं भेजा। सखी! यही विचार करती हूँ कि उन्होंने इतनी देर क्यों लगायी। हे श्यामसुन्दर! अब जल्दी आकर क्यों नहीं मिलते? (देखो) आकाशमें मेघ छा रहे हैं।
राग गौरी
विषय (हिन्दी)
(३१०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरौ हो ब्रज बात न चाली।
वहै सु एक बेर ऊधौ कर कमल-नैन पाती दै घाली॥
पथिक तिहारे पा लागति हौं, मथुरा जाहु, जहाँ बनमाली।
कहियो प्रगट पुकारि द्वार ह्वै, कालिंदी फिरि आयौ काली॥
तब वह कृपा हुती, नँदनंदन रुचि-रुचि रसिक प्रीति प्रतिपाली।
माँगत कुसुम देखि ऊँचे द्रुम, लेत उछंग गोद करि आली॥
जब वह सुरति होति उर अंतर, लागति काम-बान की भाली।
सूरदास-प्रभु प्रीति पुरातन सुमिरत दुसह सूल उर साली॥
मूल
बहुरौ हो ब्रज बात न चाली।
वहै सु एक बेर ऊधौ कर कमल-नैन पाती दै घाली॥
पथिक तिहारे पा लागति हौं, मथुरा जाहु, जहाँ बनमाली।
कहियो प्रगट पुकारि द्वार ह्वै, कालिंदी फिरि आयौ काली॥
तब वह कृपा हुती, नँदनंदन रुचि-रुचि रसिक प्रीति प्रतिपाली।
माँगत कुसुम देखि ऊँचे द्रुम, लेत उछंग गोद करि आली॥
जब वह सुरति होति उर अंतर, लागति काम-बान की भाली।
सूरदास-प्रभु प्रीति पुरातन सुमिरत दुसह सूल उर साली॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) व्रजमें (श्यामसुन्दरका संदेश आनेकी) फिर कोई चर्चा नहीं चली। वही एक बार उद्धवके हाथ कमललोचन (श्यामसुन्दर)-ने पत्र देकर भेजा था। पथिक! मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ; तुम मथुरा, जहाँ श्रीवनमाली हैं, जाओ और उनके द्वारपर जाकर तथा पुकारकर प्रत्यक्ष (जोरसे) कहना—‘यमुनामें फिर कालिय (नाग) आ गया है।’ नन्दनन्दन! तब (पहले) तो (हमपर) तुम्हारी वह (प्रेममयी) कृपा थी और अत्यन्त रुचिपूर्वक रसिक बनकर हमारे प्रेमको (भी) तुमने पुष्ट किया था तथा सखियोंके (मुझसे) पुष्प माँगनेपर (वे) वृक्षको ऊँचा देखकर मुझे गोदमें उठा लेते थे (कि मैं स्वयं पुष्प तोड़ लूँ)। किंतु (अब) जो (सखी!) वह स्मृति हृदयमें होती है तो कामदेवके बाणकी नोक (-सी) चुभ जाती है। हमारे स्वामीकी (तुम्हारी) उस पुरानी प्रीतिका स्मरण करते ही असहनीय वेदना हृदयको पीड़ित करती है।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(३११)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हरे देस कागद-मसि खूटी।
भूख-प्यास अरु नींद गई सब, बिरह लयौ तन लूटी॥
दादुर, मोर, पपीहा बोले, अवधि भई सब झूठी।
पाछें आइ तुम कहा करौगे, जब तन जैहै छूटी॥
राधा कहति सँदेस स्याम सौं, भई प्रीति की टूटी।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, सखी करति हैं कूटी॥
मूल
तुम्हरे देस कागद-मसि खूटी।
भूख-प्यास अरु नींद गई सब, बिरह लयौ तन लूटी॥
दादुर, मोर, पपीहा बोले, अवधि भई सब झूठी।
पाछें आइ तुम कहा करौगे, जब तन जैहै छूटी॥
राधा कहति सँदेस स्याम सौं, भई प्रीति की टूटी।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, सखी करति हैं कूटी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मोहन! क्या) तुम्हारे देशमें कागज और स्याही समाप्त हो गयी? (कि एक पत्र भी यहाँ नहीं भेजते।) (यहाँ तो) भूख, प्यास और निद्रा (भी) चली गयी; वियोगने शरीरसे (इन) सबको लूट लिया है। मेढक, मोर और पपीहा बोल रहे हैं और (तुम्हारे लौटनेकी) सब अवधि (भी) झूठी हो गयी। अरे, ‘जब शरीर छूट जायगा (हम मर जायँगी), तब पीछे आकर तुम क्या करोगे।’ (इस प्रकार सूरदासजीके शब्दोंमें) श्रीराधा श्यामसुन्दरसे संदेश कहती हैं (उन्हें संदेश भेजती हैं कि—) क्या तुम्हारे पास प्रेमकी कमी पड़ गयी? स्वामी! तुम्हारे मिलनके बिना सखियाँ (मुझपर) व्यंग करती हैं।
विषय (हिन्दी)
(३१२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
पथिक कह्यौ ब्रज जाइ, सुने हरि जात सिंधु-तट।
सुनि सब अँग भए सिथिल, गयौ नहिं बज्र हियौ फट॥
नर-नारी घर-घरनि सबै यह करतिं बिचारा।
मिलिहैं कैसी भाँति हमें अब नंद-कुमारा॥
निकट बसत हुति आस, कियौ अब दूरि पयाना।
बिना कृपा भगवान उपाइ न सूरज आना॥
मूल
पथिक कह्यौ ब्रज जाइ, सुने हरि जात सिंधु-तट।
सुनि सब अँग भए सिथिल, गयौ नहिं बज्र हियौ फट॥
नर-नारी घर-घरनि सबै यह करतिं बिचारा।
मिलिहैं कैसी भाँति हमें अब नंद-कुमारा॥
निकट बसत हुति आस, कियौ अब दूरि पयाना।
बिना कृपा भगवान उपाइ न सूरज आना॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें) किसी यात्रीने व्रजमें जाकर कहा—‘सुना जाता है कि श्यामसुन्दर (अब) समुद्र-किनारे जा रहे हैं।’ यह सुनते ही (व्रजके लोगोंके) सारे अंग शिथिल हो गये; पर वज्रके समान (उनका) हृदय फट नहीं गया। सभी पुरुष-स्त्री घर-घरमें यही विचार (चिन्ता) करने लगे कि अब हमें श्रीनन्दनन्दन कैसे मिलेंगे! समीप रहते तो (मिलनकी कुछ) आशा थी, पर अब तो (वे) दूर जा रहे हैं। भगवान् की कृपाके बिना अब (मिलनका) दूसरा कोई उपाय नहीं है।
राग गौरी
विषय (हिन्दी)
(३१३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमारे हरि चलन कहत हैं दूरि।
मधुबन बसत आस हुति, सजनी! अब तौ मरिहै झूरि॥
कौने कह्यौ, कौन सुनि आई, किहिं रुख रथ की धूरि।
संगहिं सबै चलौ माधौ के, ना तरु मरहु बिसूरि॥
दच्छिन दिसि इक नगर द्वारिका, सिंधु रह्यौ भरि पूरि।
सूरदास अबला क्यौं जीवैं, जात सजीवन मूरि॥
मूल
हमारे हरि चलन कहत हैं दूरि।
मधुबन बसत आस हुति, सजनी! अब तौ मरिहै झूरि॥
कौने कह्यौ, कौन सुनि आई, किहिं रुख रथ की धूरि।
संगहिं सबै चलौ माधौ के, ना तरु मरहु बिसूरि॥
दच्छिन दिसि इक नगर द्वारिका, सिंधु रह्यौ भरि पूरि।
सूरदास अबला क्यौं जीवैं, जात सजीवन मूरि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) हमारे (हृदय-हरण करनेवाले) हरि दूर जानेके लिये कहते हैं। (ठीक है; किंतु) सखी! मथुरामें रहते थे तो (मिलनकी) आशा थी, अब तो (हम उनके वियोगमें) सूख-सूखकर मर जायँगी। किंतु यह बात किसने कही? कौन सुनकर आयी है? और (उनके) रथकी धूलि किस ओर उड़ रही है? (अब) या तो सब माधवके साथ चलो, नहीं तो (यहीं) रोती हुई मरो। दक्षिण दिशामें एक द्वारका नगरी है, जिसके चारों ओर समुद्र पूर्णतः भरा है। (जब हमें जिलानेवाली) संजीवनी जड़ी (श्याम ही) जा रहे हैं, (तब हम) अबलाएँ कैसे जीवित रहेंगी!
विषय (हिन्दी)
(३१४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम तैं कमल-नैन भए दूरि।
चलन कहत मधुबनहु तैं, सजनी! इन नैनन की मूरि॥
चलत कान्ह सब देखन लागीं, उड़त न रथ की धूरि।
सूरदास प्रभु उतर न आवै, नैन रहे जल-पूरि॥
मूल
हम तैं कमल-नैन भए दूरि।
चलन कहत मधुबनहु तैं, सजनी! इन नैनन की मूरि॥
चलत कान्ह सब देखन लागीं, उड़त न रथ की धूरि।
सूरदास प्रभु उतर न आवै, नैन रहे जल-पूरि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—सखी!) हमसे कमललोचन (श्यामसुन्दर) दूर हो गये और सखी! इन नेत्रोंकी ओषधि (रूप वे अब) मथुरासे भी जाना कहते हैं। श्यामसुन्दरके जानेकी बात सुनकर सब देखने लगीं कि उनके रथकी धूलि उड़ती तो नहीं है! सूरदासजी कहते हैं—‘मेरे स्वामी! उनसे कुछ उत्तर देते नहीं बनता, उनके नेत्रोंमें जल (अश्रु) भरा हुआ है।’
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(३१५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैना भए अनाथ हमारे।
मदनगुपाल उहाँ तैं, सजनी! सुनियत दूरि सिधारे॥
वे समुद्र, हम मीन बापुरी, कैसे जीवैं न्यारे।
हम चातक, वे जलद स्याम-घन, पियतिं सुधा-रस प्यारे॥
मथुरा बसत आस दरसन की, जोइ नैन मग हारे।
सूरदास हम कौं उलटी बिधि, मृतकहु तैं पुनि मारे॥
मूल
नैना भए अनाथ हमारे।
मदनगुपाल उहाँ तैं, सजनी! सुनियत दूरि सिधारे॥
वे समुद्र, हम मीन बापुरी, कैसे जीवैं न्यारे।
हम चातक, वे जलद स्याम-घन, पियतिं सुधा-रस प्यारे॥
मथुरा बसत आस दरसन की, जोइ नैन मग हारे।
सूरदास हम कौं उलटी बिधि, मृतकहु तैं पुनि मारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) हमारे नेत्र अब (और) अनाथ हो गये; (क्योंकि) सखी! सुना जाता है कि मदनगोपाल वहाँ (मथुरा)-से भी दूर चले गये हैं। वे समुद्र और हम बिचारी (असहाय) मछलियाँ हैं, उनसे पृथक् होकर (हम) कैसे जीवित रह सकती हैं! हम सब चातक हैं और वे घनश्याम मेघ हैं; हम (उन) प्रियतमके अमृत-रसको (ही) पीती हैं। जबतक (वे) मथुरामें रहते थे, तबतक दर्शनकी आशा थी। (हमारे) नेत्र उनका रास्ता देखते थक गये; किंतु हमारे लिये तो विधाता उलटा हो गया है। हम मृतकोंको (भी) उसने फिरसे मारा है।
विषय (हिन्दी)
(३१६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब निज नैन अनाथ भए।
मधुबन तैं माधौ, सखि! सुनियत, औरौ दूरि गए॥
मथुरा बसत हुती जिय आसा, औ लगतौ ब्यौहार।
अब मन भयौ भीम के हाथी, सुनियत अगम अपार॥
सिंधु-कूल इक नगर बसायौ, ताहि द्वारिका नाउँ।
यह तन सौंपि सूर के प्रभु कौं, और जनम धरि जाउँ॥
मूल
अब निज नैन अनाथ भए।
मधुबन तैं माधौ, सखि! सुनियत, औरौ दूरि गए॥
मथुरा बसत हुती जिय आसा, औ लगतौ ब्यौहार।
अब मन भयौ भीम के हाथी, सुनियत अगम अपार॥
सिंधु-कूल इक नगर बसायौ, ताहि द्वारिका नाउँ।
यह तन सौंपि सूर के प्रभु कौं, और जनम धरि जाउँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) अब हमारे नेत्र (एकदम) अनाथ हो गये। सखी! सुना जाता है कि माधव मथुरासे और दूर चले गये। उनके मथुरा रहनेपर चित्तमें (मिलनकी) आशा थी और (व्रजसे उनका) सम्बन्ध भी चलता था; अब तो हमारे मनसे वे भीमके (द्वारा फेंके गये) हाथी* हो गये। सुना जाता है कि वे अपार दूर अगम्य स्थानपर गये हैं। (उन्होंने) समुद्रके किनारे एक नगर बसाया है, जिसका नाम द्वारिका है। (अब तो मैं) यह शरीर अपने स्वामीको सौंप (उनके निमित्त त्याग)-कर और दूसरा जन्म लेकर वहाँ (द्वारिका) जाऊँगी।
पादटिप्पनी
- एक कथा ऐसी आती है कि भीमसेनने महाभारत-युद्धके समय बहुत-से हाथियोंको आकाशमें इतने जोरसे फेंक दिया कि वे पृथ्वीपर गिरे ही नहीं।
विषय (हिन्दी)
(३१७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
उती दूर तैं को आवै री।
जासौं कहि संदेस पठाऊँ, सो, कहि, कहन कहा पावै री॥
सिंधु-कूल इक देस बसत है, देख्यौ-सुन्यौ न मन धावै री।
तहँ नव-नगर जु रच्यौ नंद-सुत, द्वारावति पुरि जो कहावै री॥
कंचन के बहु भवन मनोहर, रंक तहाँ नहिं त्रिन छावै री।
ह्वाँ के बासी लोगन कौं क्यौं ब्रज कौ बसिबौ मन भावै री॥
बहु बिधि करति बिलाप बिरहिनी, बहुत उपायनि चित लावै री।
कहा करौं, कहँ जाउँ, सूर प्रभु! को हरि पिय पै पहुँचावै री॥
मूल
उती दूर तैं को आवै री।
जासौं कहि संदेस पठाऊँ, सो, कहि, कहन कहा पावै री॥
सिंधु-कूल इक देस बसत है, देख्यौ-सुन्यौ न मन धावै री।
तहँ नव-नगर जु रच्यौ नंद-सुत, द्वारावति पुरि जो कहावै री॥
कंचन के बहु भवन मनोहर, रंक तहाँ नहिं त्रिन छावै री।
ह्वाँ के बासी लोगन कौं क्यौं ब्रज कौ बसिबौ मन भावै री॥
बहु बिधि करति बिलाप बिरहिनी, बहुत उपायनि चित लावै री।
कहा करौं, कहँ जाउँ, सूर प्रभु! को हरि पिय पै पहुँचावै री॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) उतनी दूरसे अब (यहाँ) कौन आता है। जिसके द्वारा संदेश कहलाकर भेजूँ, वह बता तो, वहाँ क्या कहने पायेगा? (वहाँ वह पहुँच भी गया तो उस राजदरबारमें जाकर कह कैसे सकेगा।) समुद्रके किनारे एक देश है, जिसे न देखा है न (उसका वर्णन) सुना है और न मनकी ही (वहाँ) पहुँच है (मनमें उसकी कल्पना भी नहीं आती)। वहाँ नन्दकुमारने एक नवीन नगरका निर्माण किया है, जो द्वारकापुरी कहलाती है। (वहाँ) सोनेके बहुत-से सुन्दर भवन हैं, (इसलिये) वहाँ कोई गरीब फूसकी झोपड़ी नहीं छाता। अतएव वहाँके निवास करनेवाले लोगोंको (भला) व्रजमें रहना कैसे अच्छा लग सकता है। इस प्रकार वियोगिनी अनेक प्रकारसे विलाप करती (मोहनसे मिलनके) अनेक उपायोंको चित्तमें लाती है (तथा कहती है—) ‘कहाँ जाऊँ, क्या करूँ और कौन (हमें) हमारे स्वामी प्रियतम हरिके पास पहुँचाये।’
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३१८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हौं कैसें कै दरसन पाऊँ।
सुनौ, पथिक! उहिं देस द्वारिका जौ तुम्हरे सँग जाऊँ॥
बाहर भीर बहुत भूपनि की, बूझत बदन दुराऊँ।
भीतर भीर भोग भामिनि की, तिहि ठाँ काहि पठाऊँ॥
बुधि बल जुक्ति जतन करि उहिं पुर हरि पिय पै पहुँचाऊँ।
अब बन बसि निसि कुंज रसिक बिनु कौनै दसा सुनाऊँ॥
स्रम कै सूर जाउँ प्रभु पासहिं, मन में भलें मनाऊँ।
नव-किसोर मुख मुरलि बिना इन्ह नैनन कहा दिखाऊँ॥
मूल
हौं कैसें कै दरसन पाऊँ।
सुनौ, पथिक! उहिं देस द्वारिका जौ तुम्हरे सँग जाऊँ॥
बाहर भीर बहुत भूपनि की, बूझत बदन दुराऊँ।
भीतर भीर भोग भामिनि की, तिहि ठाँ काहि पठाऊँ॥
बुधि बल जुक्ति जतन करि उहिं पुर हरि पिय पै पहुँचाऊँ।
अब बन बसि निसि कुंज रसिक बिनु कौनै दसा सुनाऊँ॥
स्रम कै सूर जाउँ प्रभु पासहिं, मन में भलें मनाऊँ।
नव-किसोर मुख मुरलि बिना इन्ह नैनन कहा दिखाऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) ‘हे पथिक! सुनो, यदि मैं तुम्हारे साथ उस द्वारिकादेशमें जाऊँ भी तो कैसे श्यामसुन्दरके दर्शन पाऊँगी?’ (क्योंकि वहाँ) बाहर (तो) राजाओंकी बहुत भीड़ होगी, इसलिये किसीके पूछनेपर (कि तुम कौन हो) मैं अपना मुख छिपा लूँगी और (राजभवनके) भीतर भी अपार (सुख-) भोगों तथा रानियोंकी भीड़ होगी, उस स्थानपर किसे भेजूँगी? (फिर भी) यदि बुद्धि-बलसे (कुछ) उपाय और प्रयत्न करके उस नगरमें प्रियतम श्यामसुन्दरके पास (अपना संदेश) पहुँचाऊँ भी तो अब (वे) वृन्दावनमें रहकर रात्रिमें कुंजोंमें क्रीडा करनेके रसिक (श्याम तो हैं नहीं, उन)-के बिना किसे अपनी दशा सुनाऊँ! परिश्रम करके यदि स्वामीके पास चली जाऊँ तो अपने मनको (उनका राजसी ठाट दिखला-कर) भले मना लूँ ; किंतु मुखपर वंशी रखे नवल-किशोरके बिना इन नेत्रोंको क्या दिखाऊँगी (नेत्र तो केवल वंशीधर श्यामको ही देखना चाहते हैं)।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(३१९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानौ बिधि अब उलटि रची री।
जानति नहीं, सखी! काहे तैं उहीं न तेज तची री॥
बूड़ि न मुई नीर नैननि के, प्रेम न प्रजरि पची री।
बिरह-अगिनि अरु जल-प्रबाह तैं, क्यौं दुहुँ बीच बची री॥
जो कछु सकल लोक की सोभा, लै द्वारिका सची री।
ह्वाँ के बारिधि बड़वानल में, रेतनि आनि खची री॥
कहिऐ संकरषन के भ्राता कीरति कित न मची री।
सूर स्याम-माया जग मोह्यौ, सोइ मुख निरखि नची री॥
मूल
मानौ बिधि अब उलटि रची री।
जानति नहीं, सखी! काहे तैं उहीं न तेज तची री॥
बूड़ि न मुई नीर नैननि के, प्रेम न प्रजरि पची री।
बिरह-अगिनि अरु जल-प्रबाह तैं, क्यौं दुहुँ बीच बची री॥
जो कछु सकल लोक की सोभा, लै द्वारिका सची री।
ह्वाँ के बारिधि बड़वानल में, रेतनि आनि खची री॥
कहिऐ संकरषन के भ्राता कीरति कित न मची री।
सूर स्याम-माया जग मोह्यौ, सोइ मुख निरखि नची री॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) विधाताने अब मुझे मानो फिरसे बना दिया है। सखी! नहीं जानती कि किस कारणसे उसी (वियोगकी) ज्वालामें जल नहीं गयी, नेत्रोंके जलमें डूबकर मर नहीं गयी और न प्रेमकी अग्निमें प्रज्वलित होकर समाप्त हुई। वियोगकी अग्नि और (नेत्रोंके) जल-प्रवाह—इन दोनोंके बीचमें पड़कर भी कैसे बच गयी! सम्पूर्ण लोकोंकी जो कुछ शोभा थी, (वह सब) लेकर श्यामने द्वारिकामें एकत्र कर दी है। (मैं) वहींके समुद्र और बड़वानलमें (जाकर) रेतके समान आकर अटक गयी हूँ। क्या कहा जाय, (उन) श्रीबलरामके छोटे भाईका सुयश कहाँ नहीं हो रहा है। श्यामसुन्दरकी मायाने सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर लिया है। (मैं उनका) वही मुख देखकर विमुग्ध हुई हूँ।
राग मारू
विषय (हिन्दी)
(३२०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयौ नहिं, माई! कोइ तौ।
सुनि री, सखी! सँदेसहु दुरलभ, नैन थके, मग जोइ तौ॥
मथुरा छाँड़ि निवास सिंधु कियौ, प्रान-जिवन-धन सोइ तौ।
द्वारावती कठिन अति मारग, क्यौं करि पहुँचैं लोइ तौ॥
मिटी मिलन की आस, अवधि गइ, ब्रजबनिता कहि रोइ तौ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, तृपति कहूँ नहिं होइ तौ॥
मूल
आयौ नहिं, माई! कोइ तौ।
सुनि री, सखी! सँदेसहु दुरलभ, नैन थके, मग जोइ तौ॥
मथुरा छाँड़ि निवास सिंधु कियौ, प्रान-जिवन-धन सोइ तौ।
द्वारावती कठिन अति मारग, क्यौं करि पहुँचैं लोइ तौ॥
मिटी मिलन की आस, अवधि गइ, ब्रजबनिता कहि रोइ तौ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, तृपति कहूँ नहिं होइ तौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) ‘सखी! (मोहनका संदेश लेकर) कोई भी तो नहीं आया। अरी सखी! सुन! उनका संदेश भी (अब) दुर्लभ हो गया है। उनका मार्ग देखते-देखते नेत्र थक गये। जिन्होंने मथुरा छोड़कर (अब) समुद्र (-के भीतर द्वारिका)-में निवास बनाया है, वही हमारे प्राण तथा जीवनधन हैं। (उस) द्वारिकाका मार्ग (तो) अत्यन्त कठिन है, वहाँ लोग कैसे पहुँच सकते हैं! (आपके) लौटनेकी अवधि बीत गयी और आपके मिलनेकी आशा भी समाप्त हो गयी।’ यह कहकर व्रजवनिता रोने लगी और कहने लगी—‘हे प्रभु! तुम्हारे मिले बिना कहीं भी (हमें) तृप्ति नहीं होती है।’
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(३२१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तातैं अति मरियत अपसोसनि।
मथुराहू तैं गए सखी री, अब हरि कारे कोसनि॥
यह अचरज सु बड़ौ मेरें जिय, यह छाँड़नि, वह पोषनि।
निपट निकाम जानि हम छाँड़ीं, ज्यौं कमान बिन गोसनि॥
इक हरि के दरसन बिन मरियत, अरु कुबिजा के ठोसनि।
सूर सुजरनि कहा उपजी जो, दूरि होति करि ओसनि॥
मूल
तातैं अति मरियत अपसोसनि।
मथुराहू तैं गए सखी री, अब हरि कारे कोसनि॥
यह अचरज सु बड़ौ मेरें जिय, यह छाँड़नि, वह पोषनि।
निपट निकाम जानि हम छाँड़ीं, ज्यौं कमान बिन गोसनि॥
इक हरि के दरसन बिन मरियत, अरु कुबिजा के ठोसनि।
सूर सुजरनि कहा उपजी जो, दूरि होति करि ओसनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! इसलिये हम सब चिन्तासे मरी जाती हैं कि श्यामसुन्दर अब मथुरासे भी काले कोस (अत्यधिक) दूर चले गये। मेरे चित्तमें यही बड़ा आश्चर्य है कि उनका यह (निष्ठुरतापूर्वक हमें) छोड़ देना और वह (पहले प्रेमपूर्वक) पोषण करना (दोनों स्थितियोंमें क्या मेल!) हमें (तो उन्होंने) सर्वथा अनुपयोगी समझकर छोड़ दिया, जैसे नोकरहित धनुषको लोग छोड़ देते हैं। एक तो हम श्यामसुन्दरके दर्शन बिना मरी जाती हैं, दूसरे कुब्जाकी ठसक (पीड़ा देती है)। यह जो अत्यन्त संताप उत्पन्न हो गया है, (वह क्या) ओसके द्वारा दूर हो सकता है?
राग मारू
विषय (हिन्दी)
(३२२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौ पै लै जाइ कोउ मोहि द्वारिका के देस।
संग ताके चलौं सजनी, जटाहू करि केस॥
बोलि धौं हरवाइ पूछें, आपनें सनमेष।
जैसेंही जो कहै कोऊ, बनौं तैतौ भेष॥
जदपि हम ब्रजनारि, जुबती-जूथ-नाथ, नरेस।
तदपि सूर कुमोदिनी ससि बढ़ें प्रीति-प्रबेस॥
मूल
जौ पै लै जाइ कोउ मोहि द्वारिका के देस।
संग ताके चलौं सजनी, जटाहू करि केस॥
बोलि धौं हरवाइ पूछें, आपनें सनमेष।
जैसेंही जो कहै कोऊ, बनौं तैतौ भेष॥
जदपि हम ब्रजनारि, जुबती-जूथ-नाथ, नरेस।
तदपि सूर कुमोदिनी ससि बढ़ें प्रीति-प्रबेस॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! यदि कोई मुझे (इतनेपर भी) द्वारिकाके देश ले चले तो मैं अपने केशोंकी जटा बनाकर भी उसके साथ चलनेके लिये तैयार हूँ। (यदि कोई) अस्त-व्यस्त (बात) बोलकर (कुछ) पूछेगा तो अपने जान ठीक ही उत्तर दूँगी; जो कोई जैसा भी कहेगा, वैसा ही वेश बना लूँगी। यद्यपि हम व्रजकी नारियाँ (ग्रामीणा) हैं और वे (श्यामसुन्दर) युवतियोंके झुंड (सोलह सहस्र रानियों)-के स्वामी हैं तथा राजा हैं (वहाँ हमारी कोई पूछ नहीं है)। फिर भी कुमुदिनी तो चन्द्रमाके बढ़नेपर ही प्रेमसे प्रफुल्लित होती है (उनके वैभवकी वृद्धिसे हमें दुःख नहीं, प्रसन्नता ही है)।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३२३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
उघरि आयौ परदेसी कौ नेहु।
तब जु सबै मिलि कान्ह-कान्ह करि फूलति हीं, अब लेहु॥
काहे कौं सखि अपनौ सरबस हाथ पराऐं देहु।
उन्ह जु महा ठग मथुरा छाँड़ी, जाइ समुद कियौ गेहु॥
का अब करौं, अगिनि तन उपजी, बाढ़ॺौ अति संदेहु।
सूरदास बिहवल भइ गोपी, नैनन बरषत मेहु॥
मूल
उघरि आयौ परदेसी कौ नेहु।
तब जु सबै मिलि कान्ह-कान्ह करि फूलति हीं, अब लेहु॥
काहे कौं सखि अपनौ सरबस हाथ पराऐं देहु।
उन्ह जु महा ठग मथुरा छाँड़ी, जाइ समुद कियौ गेहु॥
का अब करौं, अगिनि तन उपजी, बाढ़ॺौ अति संदेहु।
सूरदास बिहवल भइ गोपी, नैनन बरषत मेहु॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—सखी!) ‘परदेशीका प्रेम (उसके प्रेमकी वास्तविकता) प्रकट हो गया। उस समय जो सब मिलकर ‘कन्हैया! कन्हैया!’ कहकर प्रसन्न होती थीं, अब उसका फल चखो। सखी! अपना सर्वस्व दूसरेके हाथ क्यों देती हो? उन महाठगने अब मथुरा (भी) छोड़ दी और समुद्रमें जाकर घर बना लिया। अब क्या करूँ, शरीरमें अग्नि (संताप) उत्पन्न हो गयी और संदेह अत्यन्त बढ़ गया। सूरदासजी कहते हैं—(वह) गोपी इतना (कहते-कहते) अत्यन्त व्याकुल हो गयी और (उसके) नेत्रोंसे (आँसूकी) वर्षा होने लगी।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(३२४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
माई री! कैसैं बनै हरि कौ ब्रज अवन।
कहियत है, मधुबन तैं, सजनी!
कियौ स्याम कहुँ अनत गवन॥
अगम जु पंथ दूरि दच्छिन दिसि,
तहँ सुनियत, सखि! सिंधु लवन।
अब हरि ह्वाँ परिवार सहित गए,
मग में मारॺौ कालजवन॥
निकट बसत मतिहीन भईं हम,
मिलिहु न आइँ सु त्यागि भवन।
सूरदास तरसत मन निसि-दिन,
जदुपति लौं लै जाइ कवन॥
मूल
माई री! कैसैं बनै हरि कौ ब्रज अवन।
कहियत है, मधुबन तैं, सजनी!
कियौ स्याम कहुँ अनत गवन॥
अगम जु पंथ दूरि दच्छिन दिसि,
तहँ सुनियत, सखि! सिंधु लवन।
अब हरि ह्वाँ परिवार सहित गए,
मग में मारॺौ कालजवन॥
निकट बसत मतिहीन भईं हम,
मिलिहु न आइँ सु त्यागि भवन।
सूरदास तरसत मन निसि-दिन,
जदुपति लौं लै जाइ कवन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दरका (अब) व्रजमें आना कैसे बने? सखी! कहा जाता है कि श्यामसुन्दर मथुरासे कहीं अन्यत्र चले गये हैं। दूर दक्षिण दिशामें, जहाँका मार्ग अगम्य है, सखी! सुना जाता है कि एक क्षार समुद्र है। अब श्यामसुन्दर वहाँ परिवारके साथ चले गये और (जाते समय) मार्गमें उन्होंने कालयवनको समाप्त कर दिया। जब वे समीप रहते थे, तब हम ऐसी बुद्धिहीन हो गयीं कि घर छोड़कर उनसे मिल भी नहीं आयीं। अब तो मन रात-दिन तरसता (लालायित) रहता है। हमें यदुनाथके पासतक (अब) कौन ले जाय!
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(३२५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनियत कहुँ द्वारिका बसाई।
दच्छिन दिसा, तीर सागर के, कंचन कोट, गोमती खाई॥
पंथ न चलै, सँदेस न आवै, इती दूरि नर कोउ न जाई।
सत जोजन मथुरा तैं कहियत, यह सुधि एक पथिक पै पाई॥
सब ब्रज दुखी, नंद-जसुदाहू, इकटक स्याम-राम लौ लाई।
सूरदास-प्रभु के दरसन बिनु, भई बिदित ब्रज काम-दुहाई॥
मूल
सुनियत कहुँ द्वारिका बसाई।
दच्छिन दिसा, तीर सागर के, कंचन कोट, गोमती खाई॥
पंथ न चलै, सँदेस न आवै, इती दूरि नर कोउ न जाई।
सत जोजन मथुरा तैं कहियत, यह सुधि एक पथिक पै पाई॥
सब ब्रज दुखी, नंद-जसुदाहू, इकटक स्याम-राम लौ लाई।
सूरदास-प्रभु के दरसन बिनु, भई बिदित ब्रज काम-दुहाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) सुना जाता है कि (श्यामसुन्दरने) कहीं द्वारिका (नगरी) बसायी है। वह दक्षिण दिशामें समुद्रके किनारे है, सोनेकी उसकी चहारदीवारी है और गोमती नदी उसे चारों ओरसे खाईंकी तरह घेरे हुए है। वहाँका मार्ग चलता नहीं, (इसीसे) कोई संदेश नहीं आता और न उतनी दूर कोई मनुष्य जाता ही है। कहा जाता है कि वह मथुरासे सौ योजन (चार सौ कोस) दूर है, (मैंने) यह समाचार एक यात्रीसे पाया है। सारा व्रज (इस बातसे) दुःखी है और श्रीनन्दजी तथा यशोदाजी भी (दुःखी हैं); (सब) श्याम-बलराममें चित्त लगाये (उन्हें देखनेको) अपलक बने हुए हैं। स्वामीके दर्शनोंके बिना व्रजमें (तो) कामदेवकी विजय-घोषणा हो रही है।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(३२६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
दधि-सुत! जात हौ उहिं देस।
द्वारिका हैं स्याम सुंदर, सकल भुवन नरेस॥
परम सीतल अमृत-दाता, करहु यह उपदेस।
कमलनैन बियोगिनी कौ, कह्यौ इक संदेस॥
नंदनंदन जगत-बंदन, धरे नटवर-भेष।
काज अपनौ सारि, स्वामी रहे जाइ बिदेस॥
भक्तबच्छल बिरद तुम्हरौ, मोहि यह अंदेस।
एक बेर मिलौ कृपा करि, कहै सूर सुदेस॥
मूल
दधि-सुत! जात हौ उहिं देस।
द्वारिका हैं स्याम सुंदर, सकल भुवन नरेस॥
परम सीतल अमृत-दाता, करहु यह उपदेस।
कमलनैन बियोगिनी कौ, कह्यौ इक संदेस॥
नंदनंदन जगत-बंदन, धरे नटवर-भेष।
काज अपनौ सारि, स्वामी रहे जाइ बिदेस॥
भक्तबच्छल बिरद तुम्हरौ, मोहि यह अंदेस।
एक बेर मिलौ कृपा करि, कहै सूर सुदेस॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—) मेघ! (क्या) तुम उस देश जा रहे हो, जहाँ श्रीकृष्ण द्वारिकामें सम्पूर्ण लोकोंके नरेश हैं। तुम तो अत्यन्त शीतल हो, अमृत (-के समान जल)-के देनेवाले हो। (वहाँ जाकर मोहनको) यह उपदेश करो कि कमललोचन! वियोगिनी (व्रज-गोपियों)-ने एक संदेश कहा है—‘हे सम्पूर्ण जगत् के वन्दनीय श्रीनन्दनन्दन! आप श्रेष्ठ नटके समान वेश धारणकर और स्वामी! अपना काम बनाकर (अब) विदेशमें जाकर रह गये हो। आपका जो भक्त-वत्सलताका सुयश है, वह झूठा न पड़ जाय—मुझे इसीकी चिन्ता है, अतः एक बार कृपा करके मिल जाओ।’ यही बात भली प्रकारसे सूरदासजी भी कहते हैं।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(३२७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीर बटाऊ, पाती लीजो।
जब तुम्ह जाहु द्वारिका नगरी, हमरे रसाल गुपालहि दीजो॥
रंगभूमि रमनीक मधुपुरी रजधानी, ब्रज की सुधि कीजो।
छार समुद्र छाँड़ि किन आवत, निरमल जल जमुना कौ पीजो॥
या गोकुल की सकल ग्वालिनीं देति असीस, बहुत जुग जीजो।
सूरदास-प्रभु हमरे कोतैं नंद-नँदन के पाइँ परीजो॥
मूल
बीर बटाऊ, पाती लीजो।
जब तुम्ह जाहु द्वारिका नगरी, हमरे रसाल गुपालहि दीजो॥
रंगभूमि रमनीक मधुपुरी रजधानी, ब्रज की सुधि कीजो।
छार समुद्र छाँड़ि किन आवत, निरमल जल जमुना कौ पीजो॥
या गोकुल की सकल ग्वालिनीं देति असीस, बहुत जुग जीजो।
सूरदास-प्रभु हमरे कोतैं नंद-नँदन के पाइँ परीजो॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) भैया यात्री! यह पत्र ले लो, जब तुम द्वारिका नगरीमें जाओ तो (इसे) हमारे रसिक श्रीगोपालको दे देना। (उनसे कहना) रंगभूमि (नाटकके रंगमंच)-के समान सजी हुई अत्यन्त मनोहर मथुरा और अपनी (निजी) राजधानी व्रजका स्मरण कीजिये तथा (उस) खारे समुद्रको छोड़कर यहाँ चले क्यों नहीं आते? (यहाँ आकर) यमुनाका निर्मल जल पीजिये। इस गोकुलकी सभी गोपियाँ बहुत आशीर्वाद दे रही हैं कि ‘तुम युगोंतक जीवित रहो!’ (यह कहकर पथिक!) हमारी ओरसे (तुम) हमारे स्वामी श्रीनन्दनन्दनके पैर पड़ना।
विषय (हिन्दी)
(३२८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्याम बिनु भई सरद-निसि भारी।
हमैं छाँड़ि प्रभु गए द्वारिका, ब्रज की भूमि बिसारी॥
निरमल जल जमुना कौ छाँड़ॺौ, सेव समुद्र-जल खारी।
कहियो जाइ पथिक जैसैं आवैं, चरनन की बलिहारी॥
अबला कहा जोग की जानैं, ब्रजवासिनि जु बिचारी।
सूरदास-प्रभु! तुम्हरे दरस कौं रटति राधिका प्यारी॥
मूल
स्याम बिनु भई सरद-निसि भारी।
हमैं छाँड़ि प्रभु गए द्वारिका, ब्रज की भूमि बिसारी॥
निरमल जल जमुना कौ छाँड़ॺौ, सेव समुद्र-जल खारी।
कहियो जाइ पथिक जैसैं आवैं, चरनन की बलिहारी॥
अबला कहा जोग की जानैं, ब्रजवासिनि जु बिचारी।
सूरदास-प्रभु! तुम्हरे दरस कौं रटति राधिका प्यारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) ‘श्यामसुन्दरके बिना शरद्-ऋतुकी रात भारी (कष्टदायिनी) हो गयी। वे स्वामी व्रजभूमिको विस्मृत कर तथा हमें छोड़कर द्वारिका चले गये। (उन्होंने) यमुनाका निर्मल जल तो छोड़ दिया और समुद्रके खारे पानीका सेवन करते हैं। अतः पथिक! जिस भाँति वे आयें, वैसी ही बात जाकर कहना, हम तो उनके चरणोंपर न्योछावर हैं। (उनसे यह भी कहना—) हम बेचारी व्रजवासिनी अबलाएँ योगकी बातें क्या जानें (जो तुमने उद्धवसे यहाँ योगका संदेश भेजा था)। स्वामी! तुम्हारे दर्शनके लिये (तुम्हारी यह) प्रिया राधा क्रन्दन करती रहती है।’
विषय (हिन्दी)
(३२९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज पै मँडर करत है काम।
कहियो, पथिक! स्याम सौं, राखैं आइ आपनौ धाम॥
जलद कमान बारि दारू भरि, तड़ित पलीता देत।
गरजन अरु तड़पन मनु गोला, पहरक में गढ़ लेत॥
लेहु-लेहु सब करत बंदि-जन, कोकिल, चातक, मोर।
दादुर-निकर करत जो टोवा, पल-पल पै चहुँ ओर॥
ऊधौ मधुप जसूस देखि गयौ, टूट्यौ धीरज पानि।
राखिबौ होइ तौ आनि राखिऐ, सूर लोक निज जानि॥
मूल
ब्रज पै मँडर करत है काम।
कहियो, पथिक! स्याम सौं, राखैं आइ आपनौ धाम॥
जलद कमान बारि दारू भरि, तड़ित पलीता देत।
गरजन अरु तड़पन मनु गोला, पहरक में गढ़ लेत॥
लेहु-लेहु सब करत बंदि-जन, कोकिल, चातक, मोर।
दादुर-निकर करत जो टोवा, पल-पल पै चहुँ ओर॥
ऊधौ मधुप जसूस देखि गयौ, टूट्यौ धीरज पानि।
राखिबौ होइ तौ आनि राखिऐ, सूर लोक निज जानि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) कामदेव (अब तो) व्रजपर मँडराता (चक्कर काटता) रहता है, अतः पथिक! श्यामसुन्दरसे (जाकर) कहना कि आकर अपने (इस) धामकी रक्षा करें। वह कामदेव मेघरूपी कमान (तोप)-में जलरूपी बारूद भरकर (उसमें) बिजलीरूपी पलीता देता है और (उन मेघोंका) गर्जना और तड़कना (ही) मानो गोला हैं। अब थोड़े समयमें ही (वह इस) किलेको (जीत) लेगा। ‘ले लो! ले लो!’ (यह पुकार) उसके सब बंदीजन—कोकिल, पपीहे और मयूर कर रहे हैं तथा मेढकोंका समुदाय जो क्षण-क्षणपर चारों ओर शब्द कर रहा है, वह भी मानो वही संकेत-ध्वनि कर रहा है। उद्धवरूपी भौंरा (तो उसी कामदेवका) जासूस (बनकर प्रथम ही) यहाँ (सब दशा) देख गया कि हमारे हाथसे अब धैर्य छूट गया है। अब यदि वे हमको अपना समझकर (रक्षा करना) चाहें तो आकर रक्षा करें।
विषय (हिन्दी)
(३३०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज पै बहुरौ लागे गाजन।
ज्यौं क्यौंहू पति जात बड़े की, मुख न दिखावत लाजन॥
चहुँ-दिसि तैं दल बादर उमड़े, सूनें लागे बाजन।
ब्रज के लोग कान्ह-बल बिनु अब जित-तित लागे भाजन॥
आपुन जाइ द्वारिका छाए लागे स्याम बिराजन।
सूरदास गोपी क्यौं जीवैं, बिछुरे हरि-से साजन॥
मूल
ब्रज पै बहुरौ लागे गाजन।
ज्यौं क्यौंहू पति जात बड़े की, मुख न दिखावत लाजन॥
चहुँ-दिसि तैं दल बादर उमड़े, सूनें लागे बाजन।
ब्रज के लोग कान्ह-बल बिनु अब जित-तित लागे भाजन॥
आपुन जाइ द्वारिका छाए लागे स्याम बिराजन।
सूरदास गोपी क्यौं जीवैं, बिछुरे हरि-से साजन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) व्रजपर फिर (मेघ) गर्जना करने लगे हैं। जैसे किसी बड़े (सम्मानित) व्यक्तिका (किसी प्रकार) सम्मान नष्ट हो जाता है तो फिर वह लज्जाके मारे मुख नहीं दिखलाता, इसी प्रकार मोहन व्रज नहीं आ रहे हैं। चारों ओरसे मेघोंके समूह उमड़ आये हैं और इस सूने व्रजपर बजने (शब्द करने) लगे हैं और व्रजके लोग कन्हैयाके बलके बिना (अब) जहाँ-कहीं (इधर-उधर) भागने लगे हैं। श्यामसुन्दर स्वयं तो द्वारिका जाकर बस गये और वहीं सुशोभित (भी) होने (सुख मनाने) लगे हैं; किंतु श्यामसुन्दर-जैसे प्रियतमका वियोग हो जानेपर (हम) गोपियाँ कैसे जीवित रहें?
राग मारू
विषय (हिन्दी)
(३३१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मोहि निसि देखत डर लागै।
बार-बार अकुलाइ देह तैं, निकसि-निकसि मन भागै॥
प्राची दिसा देखि पूरन ससि, ह्वै आयौ तन तातौ।
मानौ मदन बदन बिरहिनि पै, करि लीन्हौ रिस रातौ॥
भृकुटी कुटिल कलंक चाप मनु, अति रिस सौं सर साँध्यौ।
चहुँधा किरनि पसारि फाँसि लै, चाहत बिरहिनि बाँध्यौ॥
सुनि सठ सोइ प्रानपति मेरौ, जाकौ जस जग जानै।
सूर सिंधु बूड़त तैं राख्यौ, ताहू कृतहि न मानै॥
मूल
अब मोहि निसि देखत डर लागै।
बार-बार अकुलाइ देह तैं, निकसि-निकसि मन भागै॥
प्राची दिसा देखि पूरन ससि, ह्वै आयौ तन तातौ।
मानौ मदन बदन बिरहिनि पै, करि लीन्हौ रिस रातौ॥
भृकुटी कुटिल कलंक चाप मनु, अति रिस सौं सर साँध्यौ।
चहुँधा किरनि पसारि फाँसि लै, चाहत बिरहिनि बाँध्यौ॥
सुनि सठ सोइ प्रानपति मेरौ, जाकौ जस जग जानै।
सूर सिंधु बूड़त तैं राख्यौ, ताहू कृतहि न मानै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब मुझे रात्रि देखते ही डर लगता है और (इस कारण) मेरा मन बार-बार शरीरसे व्याकुल होकर निकल-निकलकर भागता है। (मेरा) शरीर पूर्व दिशामें पूर्ण चन्द्रमाको (उदित) देखकर (इस भाँति) संतप्त हो उठा है, मानो कामदेवने वियोगिनियोंपर क्रोधकर (अपना मुख) लाल बना लिया है। (उस चन्द्रमाकी) कालिमा ही मानो धनुषके समान टेढ़ी भौंहें हैं, (जिनपर) अत्यन्त क्रोधपूर्वक उसने बाण चढ़ा लिया है और चारों ओर किरणोंका फंदा फैलाकर वियोगिनियोंको बाँध लेना चाहता है। अरे दुष्ट (चन्द्र)! सुन, हमारे प्राणपति वे ही हैं, जिनका सुयश सारा विश्व जानता है। जिसने (इसे) समुद्रमें डूबनेसे बचाया (समुद्र-मन्थनके समय निकाला) उस उपकारको भी यह नहीं मानता।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(३३२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
माधौ! या लगि है जग जीजत।
जातैं हरि सौं प्रेम पुरातन, बहुरि नयौ करि लीजत॥
कहँ ह्वाँ तुम्ह जदुनाथ सिंधु-तट, कहँ हम गोकुल-बासी।
वह बियोग, यह मिलन कहाँ अब, काल-चाल-औरासी॥
कहँ रबि-राहु कहाँ यह औसर, बिधि संजोग बनायौ।
उहिं उपकार आज इन्ह नैनन हरि-दरसन सचु पायौ॥
तब अरु अब यह कठिन परम अति, निमिषहुँ पीर न जानी।
सूरदास-प्रभु जानि आपने, सबहिन सौं रुचि मानी॥
मूल
माधौ! या लगि है जग जीजत।
जातैं हरि सौं प्रेम पुरातन, बहुरि नयौ करि लीजत॥
कहँ ह्वाँ तुम्ह जदुनाथ सिंधु-तट, कहँ हम गोकुल-बासी।
वह बियोग, यह मिलन कहाँ अब, काल-चाल-औरासी॥
कहँ रबि-राहु कहाँ यह औसर, बिधि संजोग बनायौ।
उहिं उपकार आज इन्ह नैनन हरि-दरसन सचु पायौ॥
तब अरु अब यह कठिन परम अति, निमिषहुँ पीर न जानी।
सूरदास-प्रभु जानि आपने, सबहिन सौं रुचि मानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) माधव! इसीलिये हम इस संसारमें जी रही हैं कि (अपने) मोहनसे (अपने) पुराने प्रेमको फिरसे नया कर लें (फिर तुम्हारा सांनिध्य पायें)। कहाँ तो तुम वहाँ समुद्र-किनारे (द्वारिकामें) यदुकुलके स्वामी (बनकर रहते हो) और कहाँ हम सब गोकुलमें रहनेवाली; कहाँ हमारा वह वियोग और कहाँ यह अब (अकल्पित) मिलन। समयकी गति (ही) चक्रके समान घूमनेवाली है। कहाँ सूर्य और राहु; कहाँ उनके मिलन (ग्रहण)-का यह अवसर; किंतु (इस ग्रहणके बहाने हमारे तुमसे मिलनका) यह संयोग विधाताने बना दिया। (विधाताके) उसी (ग्रहणके योग बनानेरूपी) उपकारके कारण आज इन नेत्रोंने श्यामसुन्दरका दर्शन करके शान्ति पायी। तब (वियोगके समय) और अब (मिलनके समय) यह अत्यन्त कठिन (भेदकी) स्थिति है कि उस (अपार) पीड़ाको (यहाँ) एक पलके लिये भी हमने अनुभव नहीं किया। स्वामीने हमें अपना समझकर सबसे (समान) प्रियत्व माना (प्रेम व्यक्त किया)।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३३३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम तौ इतनें ही सचु पायौ।
सुंदर स्याम कमल-दल-लोचन, बहुरौ दरस दिखायौ॥
कहा भयौ जो लोग कहत हैं, कान्ह द्वारिका छायौ।
सुनि कैं बिरह-दसा गोकुल की, अति आतुर ह्वै धायौ॥
रजक, धेनु, गज, कंस मारि कैं, कीन्हौ जन कौ भायौ।
महाराज ह्वै मात-पिता मिलि, तऊ न ब्रज बिसरायौ॥
गोपी गोपऽरु नंद चले मिलि, प्रेम-समुद्र बढ़ायौ।
अपने बाल-गुपाल निरखि मुख, नैननि नीर बहायौ॥
जद्यपि हम सकुचे जिय अपने, हरि हित अधिक जनायौ।
वैसैंहिं सूर बहुरि नँदनंदन, घर-घर माखन खायौ॥
मूल
हम तौ इतनें ही सचु पायौ।
सुंदर स्याम कमल-दल-लोचन, बहुरौ दरस दिखायौ॥
कहा भयौ जो लोग कहत हैं, कान्ह द्वारिका छायौ।
सुनि कैं बिरह-दसा गोकुल की, अति आतुर ह्वै धायौ॥
रजक, धेनु, गज, कंस मारि कैं, कीन्हौ जन कौ भायौ।
महाराज ह्वै मात-पिता मिलि, तऊ न ब्रज बिसरायौ॥
गोपी गोपऽरु नंद चले मिलि, प्रेम-समुद्र बढ़ायौ।
अपने बाल-गुपाल निरखि मुख, नैननि नीर बहायौ॥
जद्यपि हम सकुचे जिय अपने, हरि हित अधिक जनायौ।
वैसैंहिं सूर बहुरि नँदनंदन, घर-घर माखन खायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें व्रजवासी लोग कह रहे हैं—) हमने तो इतनेमें ही परम सुख पा लिया कि कमलदललोचन श्यामसुन्दरने फिरसे हमें दर्शन दिया। क्या हुआ जो लोग कहते हैं कि कन्हैया (अब) द्वारिकामें रहने लगे हैं; किंतु गोकुलकी वियोग (व्याकुल) दशा सुनकर वे अत्यन्त आतुर (चंचल) होकर दौड़ पड़े। (कंसके) धोबी, धेनुकासुर, कुवलयापीड हाथी तथा कंसको मारकर उन्होंने अपने भक्तोंका प्रिय कार्य किया और (यदुकुलके) महाराज हो गये तथा अपने माता-पिता (श्रीदेवकी-वसुदेव)-से मिले; फिर भी (उन्होंने) व्रजको विस्मृत नहीं किया। (जब) गोपियाँ, गोप और नन्दजी (सब) मिलकर (मोहनसे मिलने) चले, (तब) उनके मनमें प्रेमका समुद्र उमड़ रहा था और अपने बाल-गोपालके श्रीमुखको देखकर सबके नेत्रोंसे जल बहने लगा। यद्यपि (श्यामसुन्दरके वैभवको देखकर) हम अपने मनमें संकुचित हुए, किंतु श्यामसुन्दरने अधिक प्रेम प्रकट किया। उन श्रीनन्दनन्दनने वैसे ही (पहलेके समान फिरसे) प्रत्येक घरका मक्खन खाया।
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