राग नट
विषय (हिन्दी)
(१६०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सपनेहू में देखिऐ, जौ नैन नींद परै।
बिरहिनी ब्रजनाथ बिनु कहि, कहा उपाइ करै॥
चंद, मंद समीर सीतल, सेज सदा जरै।
कहा करौं, किहुँ भाँति मेरौ मन न धीर धरै॥
करै जतन अनेक बिरहिनि, कछु न चाड़ सरै।
सूर सीतल कृष्न बिनु तन कौन ताप हरै॥
मूल
सपनेहू में देखिऐ, जौ नैन नींद परै।
बिरहिनी ब्रजनाथ बिनु कहि, कहा उपाइ करै॥
चंद, मंद समीर सीतल, सेज सदा जरै।
कहा करौं, किहुँ भाँति मेरौ मन न धीर धरै॥
करै जतन अनेक बिरहिनि, कछु न चाड़ सरै।
सूर सीतल कृष्न बिनु तन कौन ताप हरै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—सखी!) यदि नेत्रोंमें नींद आ जाय तो स्वप्नमें ही (श्यामसुन्दरको) देख लूँ; (किंतु) (नींद आती नहीं, अतः) वियोगिनी व्रजनाथके बिना, बताओ, क्या उपाय करे। चन्द्रमाकी चाँदनी है, शीतल-मन्द वायु चलता है, फिर भी शय्या सदा जलती रहती है। क्या करूँ, किसी प्रकार मेरा मन धैर्य धारण नहीं करता। सूरदासजी कहते हैं कि वियोगिनी अनेक उपाय करती है, किंतु उसके मनकी इच्छा पूरी होती नहीं। परम शीतल श्रीकृष्णचन्द्रके बिना इसके शरीरका संताप कौन दूर कर सकता है।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१६१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतनी दूरि गोपालहि माई, नहिं कबहूँ मिलि आई।
कहिऐ कहा, दोष किहिं दीजै, अपनी ही जड़ताई॥
सोवत मैं सपनें सुनि सजनी, ज्यौं निधनीं निधि पाई।
गनतै आनि अचानक कोकिल उपबन बोलि जगाई॥
जौ जागौं तौ कहा उठि देखौं, बिकल भई अधिकाई।
नूतन किसलै-कुसुम दसौं दिसि मधुकर मदन-दुहाई॥
बिछुरत तन न तज्यौ तेही छिन, सँग न गई हठि माई।
समुझि न परी सूर तिहिं औसर, कीन्ही प्रीति हँसाई॥
मूल
इतनी दूरि गोपालहि माई, नहिं कबहूँ मिलि आई।
कहिऐ कहा, दोष किहिं दीजै, अपनी ही जड़ताई॥
सोवत मैं सपनें सुनि सजनी, ज्यौं निधनीं निधि पाई।
गनतै आनि अचानक कोकिल उपबन बोलि जगाई॥
जौ जागौं तौ कहा उठि देखौं, बिकल भई अधिकाई।
नूतन किसलै-कुसुम दसौं दिसि मधुकर मदन-दुहाई॥
बिछुरत तन न तज्यौ तेही छिन, सँग न गई हठि माई।
समुझि न परी सूर तिहिं औसर, कीन्ही प्रीति हँसाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! गोपालके इतनी-सी (अल्प) दूर रहनेपर भी मैं कभी उनसे मिलकर नहीं आयी, इसके लिये क्या कहा—किसे दोष दिया जाय। यह तो अपनी ही मूर्खता है। सखी! सुनो, सोते समय स्वप्नमें (मैंने) कंगालिनीके समान (श्यामसुन्दररूपी) सम्पत्ति प्राप्त की। किंतु उसे गिन ही रही थी (देख ही रही थी) कि अचानक उपवनमें आकर कोकिलने बोलकर (मुझे) जगा दिया। जो जागती हूँ तो फिर क्या देखूँ, उलटे अधिक व्याकुल हो गयी; क्योंकि कामदेवकी दुहाई—विजयघोष दसों दिशाओंमें नवीन पल्लव, पुष्प और भौंरोंने (गुंजार करके) फैला दी। सखी! (मोहनका) वियोग होते समय उसी क्षण मैंने शरीर नहीं छोड़ा और न हठपूर्वक उनके साथ ही गयी। उस समय तो (यह दशा होगी ऐसी बात) समझमें नहीं आयी। (अब) प्रेमका उपहास (मिथ्या प्रेम प्रकट) कर रही हूँ।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(१६२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब ह्याँ हेत है कहाँ।
जहँ वे स्याम मदन-मूरति, चलि मोहि लिवाइ तहाँ॥
कुटिल अलक, मकराकृत कुंडल, सुंदर नैन बिसाल।
अरुन अधर, नासिका मनोहर, तिलक-तरनि ससि भाल॥
दसन-ज्योति दामिनि ज्यौं दमकति, बोलत बचन रसाल।
उर बिचित्र बनमाल बनी, ज्यौं कंचन-लता तमाल॥
घन-तन पीत बसन सोभित अति, जनु अलि कमल-पराग।
बिपुल बाहु भरि कृत परिरंभन, मनहुँ मलय-द्रुम नाग॥
सोवत ही सुपने में अति सुख सत्य जानि जिय जागी।
सूरदास प्रभु प्रगट मिलन कौं चातक ज्यौं रट लागी॥
मूल
अब ह्याँ हेत है कहाँ।
जहँ वे स्याम मदन-मूरति, चलि मोहि लिवाइ तहाँ॥
कुटिल अलक, मकराकृत कुंडल, सुंदर नैन बिसाल।
अरुन अधर, नासिका मनोहर, तिलक-तरनि ससि भाल॥
दसन-ज्योति दामिनि ज्यौं दमकति, बोलत बचन रसाल।
उर बिचित्र बनमाल बनी, ज्यौं कंचन-लता तमाल॥
घन-तन पीत बसन सोभित अति, जनु अलि कमल-पराग।
बिपुल बाहु भरि कृत परिरंभन, मनहुँ मलय-द्रुम नाग॥
सोवत ही सुपने में अति सुख सत्य जानि जिय जागी।
सूरदास प्रभु प्रगट मिलन कौं चातक ज्यौं रट लागी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) अब यहाँ प्रेम कहाँ है। जहाँ कामदेवके समान सुन्दर मूर्तिवाले श्यामसुन्दर हैं, वहीं मुझे लिवा चल। उनकी घुँघराली अलकें, कानोंमें मकराकृत कुण्डल और सुन्दर बड़े-बड़े नेत्र हैं, लाल ओष्ठ हैं, मनोहर नासिका है तथा चन्द्रमाके समान ललाटपर सूर्य-सा (गोरोचनका) तिलक लगा है। जब वे रसमय वाणी बोलते हैं, तब (उनके) दाँतोंकी कान्ति बिजलीके समान चमकती है तथा वक्षःस्थलपर वनमाला (इस प्रकार) अद्भुत शोभा दे रही है, जैसे तमाल-वृक्षपर स्वर्णलता चढ़ी हो। मेघके समान शरीरपर पीताम्बर (इस भाँति) अत्यन्त सुशोभित है, मानो कमलके परागसे मण्डित भ्रमर हो। उन्होंने विशाल भुजाओंसे वेष्टितकर (मुझे इस प्रकार) आलिंगन दिया, मानो चन्दनके वृक्षमें साँप लिपट गया हो। यह महान् सुख (मुझे) सोते समय स्वप्नमें मिला, (जिसे) मैं मनमें सत्य समझकर जाग गयी। (अब) स्वामीसे प्रत्यक्ष मिलनेके लिये चातकके समान रट लग रही है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१६३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सपनें हरि आए, हौं किलकी।
नींद जु सौत भई रिपु हम कौं, सहि न सकी रति तिल की॥
जौ जागौं तौ कोऊ नाहीं, रोकें रहति न हिलकी।
तन फिरि जरनि भई नख-सिख तैं, दिया-बाति जनु मिलकी॥
पहिली दसा पलटि लीन्ही है, तुचा तचकि तन पिलकी।
अब कैसैं सहि जाति हमारी, भई सूर गति सिल की॥
मूल
सपनें हरि आए, हौं किलकी।
नींद जु सौत भई रिपु हम कौं, सहि न सकी रति तिल की॥
जौ जागौं तौ कोऊ नाहीं, रोकें रहति न हिलकी।
तन फिरि जरनि भई नख-सिख तैं, दिया-बाति जनु मिलकी॥
पहिली दसा पलटि लीन्ही है, तुचा तचकि तन पिलकी।
अब कैसैं सहि जाति हमारी, भई सूर गति सिल की॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) स्वप्नमें (ज्यों ही मेरे पास) श्यामसुन्दर आये, त्यों ही मैं (आनन्दसे) किलक उठी (अत्यन्त प्रसन्न हो गयी)। किंतु (उस समय) मेरी सौत निद्रा मेरे लिये शत्रु बन गयी, तनिक देरकी भी उनके साथ प्रीति सह न सकी। जब जागी तो (देखती हूँ कि मेरे पास) कोई नहीं, अतः (अब) रोकनेपर भी हिलकियाँ बंद नहीं होतीं और शरीरमें नखसे चोटीतक फिर ऐसी जलन हो गयी, जैसे दीपकके साथ बत्तीका संयोग कर दिया गया हो। संतप्त होकर शरीरका चमड़ा पीला हो पहलेकी दशामें ही बदल गया है। अब (यह पीड़ा) कैसे सही जायगी। हमारी दशा (तो) पत्थरके समान (सदा धूपमें जलते पड़े रहने-जैसी) हो गयी है।
राग कान्हरौ
विषय (हिन्दी)
(१६४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैं जान्यौ री आए हैं हरि, चौंकि परे तैं पुनि पछितानी।
इते मान तलफत तनु बहुतै, जैसैं मीन तपति बिनु पानी॥
सखि सुदेह तौ जरति बिरह-जुर, जतनन नहिं प्रकृती ह्वै आनी।
कहा करौं अब अपथ भए मिलि, बाढ़ी बिथा, दुःख दुहरानी॥
पठवौं पथिक सब समाचार लिखि, बिपति बिरह बपु अति अकुलानी।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, कैसैं घटत कठिन यह कानी॥
मूल
मैं जान्यौ री आए हैं हरि, चौंकि परे तैं पुनि पछितानी।
इते मान तलफत तनु बहुतै, जैसैं मीन तपति बिनु पानी॥
सखि सुदेह तौ जरति बिरह-जुर, जतनन नहिं प्रकृती ह्वै आनी।
कहा करौं अब अपथ भए मिलि, बाढ़ी बिथा, दुःख दुहरानी॥
पठवौं पथिक सब समाचार लिखि, बिपति बिरह बपु अति अकुलानी।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, कैसैं घटत कठिन यह कानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—) सखी! मैंने समझा था कि श्यामसुन्दर (सचमुच) आये हैं। पर (अपने) चौंक पड़नेसे फिर पछता रही हूँ। इससे शरीर इतना अधिक तड़प रहा है, जैसे पानीके बिना मछली तड़फड़ाती हो। सखी! (यह) सुन्दर शरीर (तो) वियोगके ज्वरमें जल रहा है, (अब) इसे उपायोंके द्वारा स्वाभाविक (स्वस्थ) दशामें नहीं लाया जा सकता। क्या करूँ, अब (देहके सारे अंग) मिलकर बिना पथके चलने (कुमार्गपर जाने)-वाले हो गये हैं। (जिससे) वेदना बढ़ गयी और दुःख दूना हो गया। (अब ये) सब समाचार लिखकर किसी यात्रीको (मथुरा) भेजूँ कि ‘वियोगरूपी विपत्तिसे (आपके प्रेमीका) शरीर अत्यन्त व्याकुल हो गया है, अतः स्वामी! तुम्हारे दर्शनके बिना (मेरा) यह दुःख कैसे कम हो।’
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१६५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौ जागौं तौ कोऊ नाहीं, अंत लगी पछितान।
जानौं साँच मिले मनमोहन, भूली या अभिमान॥
नींदहि में मुरझाइ रही हौं, प्रथम पंच-संधान।
अब उर-अंतर, मेरी माई, सपन छुटे छल-बान॥
सूर सकति जैसैं लछिमन-तन बिह्वल ह्वै मुरझान।
ल्याउ सजीवन मूरि स्याम कौं, तौ रहिहैं ये प्रान॥
मूल
जौ जागौं तौ कोऊ नाहीं, अंत लगी पछितान।
जानौं साँच मिले मनमोहन, भूली या अभिमान॥
नींदहि में मुरझाइ रही हौं, प्रथम पंच-संधान।
अब उर-अंतर, मेरी माई, सपन छुटे छल-बान॥
सूर सकति जैसैं लछिमन-तन बिह्वल ह्वै मुरझान।
ल्याउ सजीवन मूरि स्याम कौं, तौ रहिहैं ये प्रान॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) जो (नींदसे) जगती हूँ तो (देखती हूँ कि) कोई (वहाँ) नहीं है, इससे अन्तमें पश्चात्ताप करने लगी। मैंने (स्वप्नमें देखकर) समझा कि मनमोहन सचमुच मिल गये और इसी अभिमानमें भूल गयी। निद्रामें ही मैं कामदेवके प्रथम आघातसे ही म्लान हो रही थी; किंतु मेरी सखी! यह बात अब मेरे मनमें आ गयी कि वह स्वप्न भी छलसे छोड़े (मारे) गये बाणके समान (अधिक पीड़ा देनेवाला) था। जैसे लक्ष्मणके हृदयमें (मेघनादद्वारा छोड़ी) शक्तिके लगनेपर उनका हाल बेहाल हो गया था, उसी प्रकार मेरा शरीर व्याकुल हो मूर्छित (चेतनाहीन) हो गया है। अब तो तू श्यामसुन्दररूपी संजीवनी जड़ीको ले आ, तभी ये प्राण रहेंगे।
राग कल्यान
विषय (हिन्दी)
(१६६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि-बिछुरन निसि नींद गई री।
बन पिक, बरह, सिलीमुख मधुब्रत बचनन हौं अकुलाइ लई री॥
वह जु हुती प्रतिमा समीप की, सुख-संपत्ति दुरित चितई री।
तातैं सदा रहति सुनि सजनी, सेज सजल दृग नीर मई री॥
अवधि-अधार जु प्रान रहत हैं, इन्ह सबहिन मिलि कठिन ठई री।
सूरदास प्रभु सुधा-दरस बिनु भई सकल तन बिरह रई री॥
मूल
हरि-बिछुरन निसि नींद गई री।
बन पिक, बरह, सिलीमुख मधुब्रत बचनन हौं अकुलाइ लई री॥
वह जु हुती प्रतिमा समीप की, सुख-संपत्ति दुरित चितई री।
तातैं सदा रहति सुनि सजनी, सेज सजल दृग नीर मई री॥
अवधि-अधार जु प्रान रहत हैं, इन्ह सबहिन मिलि कठिन ठई री।
सूरदास प्रभु सुधा-दरस बिनु भई सकल तन बिरह रई री॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! श्यामसुन्दरका वियोग होनेसे रातमें नींद आना (भी) बंद हो गया। वनमें कोकिल, मयूर और पुष्पोंका मधु पीनेवाले भौंरे हैं। उन्होंने अपने शब्दोंसे मुझे व्याकुल कर दिया है। वह जो अपने पासमें (मोहनरूप) सुख और सम्पत्तिकी मूर्ति थी, उसपर मेरे पापोंकी दृष्टि पड़ गयी (मेरे पापोंके फलसे वह दूर चली गयी)। इससे सुन सखी! आँखोंके जलसे भीगती मेरी (वह) शय्या सदा गीली रहती है। (श्यामने लौटनेका जो समय दिया है, उस) अवधिके आधारसे (किसी प्रकार) प्राण (देहमें) टिके हुए हैं। पर इन (कोकिल, मयूरादि) सबोंने मिलकर (मुझे वध—दुःख देनेका) कठोर निश्चय कर लिया है। अतः स्वामीके अमृतमय दर्शनके बिना पूरे शरीरसे वियोगमें लीन हो गयी हूँ—डूब गयी हूँ।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(१६७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरौ भूलि न आँखि लगी।
सुपनेहू के सुख न सहि सकी, नींद जगाइ भगी॥
बहुत प्रकार निमेष लगाए, छुटी नहीं सुठगी।
जनु हीरा हरि लियौ हाथ तैं, ढोल बजाइ ठगी॥
कर मींड़ति पछिताति बिचारति, इहिं बिधि निसा जगी।
वह मूरति वह सुख दिखरावै, सोई सूर सगी॥
मूल
बहुरौ भूलि न आँखि लगी।
सुपनेहू के सुख न सहि सकी, नींद जगाइ भगी॥
बहुत प्रकार निमेष लगाए, छुटी नहीं सुठगी।
जनु हीरा हरि लियौ हाथ तैं, ढोल बजाइ ठगी॥
कर मींड़ति पछिताति बिचारति, इहिं बिधि निसा जगी।
वह मूरति वह सुख दिखरावै, सोई सूर सगी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी! उनके मथुरा जानेके बाद) फिर भूलकर भी मेरी आँख (कभी) नहीं लगी और (निद्रा आयी भी तो) स्वप्नका सुख वह सह न सकी, मुझे जगाकर (वह) भाग गयी। अनेक प्रकारसे मैंने पलकें बंद कीं; किंतु (निद्राकी) शठता छूटी नहीं, जिससे (उसने मेरे) हाथसे श्यामसुन्दररूपी हीरा लेकर मुझे ढोल बजाकर (घोषणा करके) ठग लिया। मैं हाथ मलती, पश्चात्ताप करती और विचार करती इसी प्रकार पूरी रात जागती रही। (अब तो जो कोई मोहनकी) वह मूर्ति और वह आनन्द दिखला दे, वही मेरी अपनी (आत्मीय) है।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(१६८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब, सखि, नींदौ तौ जु गई।
भागी जिय अपमान जानि जनु सकुचनि ओट लई॥
तब अति रस करि कंत बिमोह्यौ, आगम अटक दई।
सुपनेहूँ संजोग सहति नहिं, सहचरि सौति भई॥
कहतहिं पोच, सोच मनहीं-मन, करत न बनत खई।
सूरदास तन तजें भलें बनै, बिधि बिपरीति ठई॥
मूल
अब, सखि, नींदौ तौ जु गई।
भागी जिय अपमान जानि जनु सकुचनि ओट लई॥
तब अति रस करि कंत बिमोह्यौ, आगम अटक दई।
सुपनेहूँ संजोग सहति नहिं, सहचरि सौति भई॥
कहतहिं पोच, सोच मनहीं-मन, करत न बनत खई।
सूरदास तन तजें भलें बनै, बिधि बिपरीति ठई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! अब नींद भी तो (इस भाँति) चली गयी, जैसे अपने चित्तमें (मेरे पास रहनेमें) अपना अपमान समझकर वह संकोचकी आड़ ले भाग गयी हो। तब (मिलनके समय तो इस निद्राने) अत्यन्त प्रेम करके प्रियतमको विमुग्ध किया (उन्हें निद्रित कर दिया) तथा (इस प्रकार) आगे मिलनमें बाधा डाल दी और अब (यह) स्वप्नमें भी उनका मिलना सहती नहीं, साथ रहनेवाली होकर (भी) सौत बन गयी है। मैं मन-ही-मन चिन्ता करती हुई (इसे) बुरी कहती ही हूँ किंतु (इसके साथ) झगड़ा करते बनता नहीं। अब तो शरीर छोड़ देनेपर ही भले कुछ हो, (दूसरे जन्ममें मोहन मिलें तो मिलें, इस जन्ममें तो) विधाताने ही उलटा विधान रच दिया है।
विषय (हिन्दी)
(१६९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी री, काहे रहति मलीन।
तन सिंगार कछू देखति नहिं, बुधि-बल-आनँद-हीन॥
मुख तमोर, नैननि नहिं अंजन, तिलक ललाट न दीन।
कुचिल बस्त्र, अलकैं अति रूखी, दिखियत है तन छीन॥
प्रेम-तृषा तीनौं जन जानैं—बिरही, चातक, मीन।
सूरदास बीतत जु हृदय में, जिन्ह जिय परबस कीन॥
मूल
सखी री, काहे रहति मलीन।
तन सिंगार कछू देखति नहिं, बुधि-बल-आनँद-हीन॥
मुख तमोर, नैननि नहिं अंजन, तिलक ललाट न दीन।
कुचिल बस्त्र, अलकैं अति रूखी, दिखियत है तन छीन॥
प्रेम-तृषा तीनौं जन जानैं—बिरही, चातक, मीन।
सूरदास बीतत जु हृदय में, जिन्ह जिय परबस कीन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) ‘सखी! तू मलिन (उदास) क्यों रहती है। मैं (तेरे) शरीरपर कोई शृंगार नहीं देखती, किंतु बुद्धि, बल और आनन्दसे रहित (देखती) हूँ। मुखमें पान और आँखोंमें अंजन नहीं है, ललाटपर तिलक (भी) नहीं लगाया है, कपड़े मैले हैं, केश अत्यन्त रूखे हैं और शरीर अत्यन्त कृश दिखायी पड़ता है।’ (इसपर दूसरी गोपी कहती है—) प्रेमकी प्यासको तीन प्रकारके प्राणी ही जानते हैं—वियोगी, चातक और मछलियाँ। जिन्होंने (अपना) मन दूसरेके अधीन कर दिया है, उसके हृदयपर जो बीतती है, उसे वह ही समझ सकता है (दूसरा नहीं)।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१७०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम कौं सपनेहू मैं सोच।
जा दिन तैं बिछुरे नँदनंदन, ता दिन तैं यह पोच॥
मनु गुपाल आए मेरें गृह, हँसि करि भुजा गही।
कहा कहौं बैरिनि भई निद्रा, निमिष न और रही॥
ज्यौं चकई प्रतिबिंब देखि कैं, आनंदै पिय जानि।
सूर पवन मिलि निठुर बिधाता चपल कियौ जल आनि॥
मूल
हम कौं सपनेहू मैं सोच।
जा दिन तैं बिछुरे नँदनंदन, ता दिन तैं यह पोच॥
मनु गुपाल आए मेरें गृह, हँसि करि भुजा गही।
कहा कहौं बैरिनि भई निद्रा, निमिष न और रही॥
ज्यौं चकई प्रतिबिंब देखि कैं, आनंदै पिय जानि।
सूर पवन मिलि निठुर बिधाता चपल कियौ जल आनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) मुझे स्वप्नमें भी सोच (चिन्ता) रहता है। जिस दिनसे नन्दनन्दनका वियोग हुआ है, उसी दिनसे यह बुरी दशा हो गयी है। (स्वप्नमें ऐसा लगता है) मानो गोपाल मेरे घर आये और हँसकर उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा; पर क्या करूँ, निद्रा मेरी शत्रु हो गयी, वह एक पल भी और नहीं रही (उसी क्षण टूट गयी)। जैसे चक्रवाकी (जलमें अपना ही) प्रतिबिम्ब देख और उसे (ही) प्रियतम समझकर आनन्दित हो जाती है, किंतु निष्ठुर विधातासे मिला हुआ वायु जलको चंचल कर देता है (जिससे प्रतिबिम्ब लुप्त हो जानेपर वह दुःखित होती है, वही मेरी दशा है)।
राग बिहागरौ
विषय (हिन्दी)
(१७१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिन बैरिन नींद बढ़ी।
हौं अपराधिन चतुर बिधाता, काह बनाइ गढ़ी॥
तन, मन, धन, जोबन, सुख, संपति बिरहा-अनल डढ़ी।
नंदनँदन कौ रूप निहारति, अह-निसि अटा चढ़ी॥
जिहिं गुपाल मेरे बस होते, सो बिद्या न पढ़ी।
सूरदास प्रभु हरि न मिलैं तौ घर तैं भली मढ़ी॥
मूल
हरि बिन बैरिन नींद बढ़ी।
हौं अपराधिन चतुर बिधाता, काह बनाइ गढ़ी॥
तन, मन, धन, जोबन, सुख, संपति बिरहा-अनल डढ़ी।
नंदनँदन कौ रूप निहारति, अह-निसि अटा चढ़ी॥
जिहिं गुपाल मेरे बस होते, सो बिद्या न पढ़ी।
सूरदास प्रभु हरि न मिलैं तौ घर तैं भली मढ़ी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दरके बिना (यह) निद्रा भी (मेरी) अधिक शत्रु हो गयी है। (ऐसी दशामें) मुझ अपराधिनी (पापिनी)-को चतुर विधाताने क्यों सँभालकर बनाया? शरीर, मन, धन, युवावस्था, सुख तथा सम्पत्ति—सब वियोगकी अग्निमें भस्म हो गये। अब रात-दिन अटारीपर चढ़कर नन्दनन्दनका रूप देखा करती हूँ (किंतु वह दिखायी नहीं देता)। जिससे गोपाल मेरे वशमें हो जाते, वह विद्या मैंने पढ़ी ही नहीं (ऐसा गुण मुझमें नहीं आया)। स्वामी श्याम यदि न मिलें तो इस हमारे भवनसे तो (वह साधुकी) कुटिया ही भली (जहाँ वह अपने प्रियतमको ध्यानमें देखा करता है)।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१७२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनौ सखी, ते धन्य नारि।
जे आपने प्रान-बल्लभ की सपनेहूँ देखति अनुहारि॥
कहा करौं री चलत स्याम के, पहिलेंहि नींद गई दिन चारि।
देखि, सखी! कछु कहत न आवै, झीखि रही अपमाननि मारि॥
जा दिन तैं नैननि अंतर भए, अनुदिन अति बाढ़त है बारि।
मनौं सूर दोउ सुभग सरोवर उँमगि चले मरजादा टारि॥
मूल
सुनौ सखी, ते धन्य नारि।
जे आपने प्रान-बल्लभ की सपनेहूँ देखति अनुहारि॥
कहा करौं री चलत स्याम के, पहिलेंहि नींद गई दिन चारि।
देखि, सखी! कछु कहत न आवै, झीखि रही अपमाननि मारि॥
जा दिन तैं नैननि अंतर भए, अनुदिन अति बाढ़त है बारि।
मनौं सूर दोउ सुभग सरोवर उँमगि चले मरजादा टारि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! सुनो, वे स्त्रियाँ धन्य हैं, जो स्वप्नमें अपने प्राणवल्लभकी मूर्ति देखती हैं। मैं क्या करूँ, श्यामसुन्दरके जाते समय मेरी निद्रा उनसे चार दिन पहले ही चली गयी। देखो, सखी! कुछ कहते नहीं बनता, (रात-दिन) अपमानोंके मारे मनमें कुढ़ती रहती हूँ। जिस दिनसे मेरे मोहन नेत्रोंसे ओझल हुए (उसी दिनसे) दिनोदिन (नेत्रोंमें) अत्यन्त जल (इस भाँति) बढ़ता जाता है, मानो दो सुन्दर सरोवर मर्यादा (सीमा)-को तोड़कर उमड़ पड़े हों।
विषय (हिन्दी)
(१७३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम कौं जागत रैनि बिहानी।
कमल-नैन, जग-जीवन की, सखि, गावत अकथ कहानी॥
बिरहँ अथाह होत निसि हम कौं, बिनु हरि समुद समानी।
क्यौं करि पावै बिरहिनि पारहि, बिनु केवट अगवानी॥
उदित सूर चकई मिलाप, निसि अलि जु मिलै अरबिंदहि।
सूर हमैं दिन-राति दुसह दुख, कहा कहैं गोबिंदहि॥
मूल
हम कौं जागत रैनि बिहानी।
कमल-नैन, जग-जीवन की, सखि, गावत अकथ कहानी॥
बिरहँ अथाह होत निसि हम कौं, बिनु हरि समुद समानी।
क्यौं करि पावै बिरहिनि पारहि, बिनु केवट अगवानी॥
उदित सूर चकई मिलाप, निसि अलि जु मिलै अरबिंदहि।
सूर हमैं दिन-राति दुसह दुख, कहा कहैं गोबिंदहि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) मुझे जागते रहकर, जगत् के जीवन (स्वरूप) कमललोचनकी अकथनीय कथा गाते हुए ही रात बीतती है। श्यामसुन्दरके बिना मेरे लिये रात वियोगका अथाह समुद्र हो जाती है और मैं उस (समुद्र)-में डूब जाती हूँ। भला, वियोगिनी (श्यामसुन्दररूपी) केवटके मार्गदर्शनके बिना उस (विरह-सागर)-का पार कैसे पा सकती है। सूर्यके उदय होनेपर चकोरीका (अपने प्रियतमसे) मिलाप हो जाता है और रातमें भौंरे कमलसे मिलते (उसीमें निवास करते) हैं; किंतु हमें तो रात-दिन असहनीय दुःख-ही-दुःख है, गोविन्दको क्या कहें।
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(१७४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिय बिनु नागिन कारी रात।
जौ कहुँ जामिनि उवति जुन्हैया, डसि उलटी ह्वै जात॥
जंत्र न फुरत, मंत्र नहिं लागत, प्रीति सिरानी जात।
सूर स्याम बिनु बिकल बिरहिनी मुरि-मुरि लहरैं खात॥
मूल
पिय बिनु नागिन कारी रात।
जौ कहुँ जामिनि उवति जुन्हैया, डसि उलटी ह्वै जात॥
जंत्र न फुरत, मंत्र नहिं लागत, प्रीति सिरानी जात।
सूर स्याम बिनु बिकल बिरहिनी मुरि-मुरि लहरैं खात॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कहती है—सखी!) प्रियतमके बिना काली रात सर्पिणी-सी हो गयी है। यदि कहीं रात्रिमें चाँदनी उग आती है तो वह डँसकर उलटी (विपरीत, अत्यन्त दुःख देनेवाली) हो जाती है। इसपर कोई यन्त्र स्मरण नहीं आता और न मन्त्र ही प्रभाव करता है, केवल प्रेमसे ही (यह) सिरायी (विषहीन) की जाती है। सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दरके बिना (व्रजकी) वियोगिनी (गोपियाँ) मुड़-मुड़कर (करवट ले-लेकर) लहरें-सी खाती (मूर्छित हुई जाती) हैं।
विषय (हिन्दी)
(१७५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिरिया रैन घटें सचु पावै।
अंचल लिखत स्वान की मूरति, उडुगन पथहि दिखावै॥
हँसत कुमोदिनि, बिहँसत पदमिनि, भँवर निकट गुन गावै।
तजत भोग चकई-चकवा, जल सारँग बदन छिपावै॥
अपने सुख संपति के काजैं कस्यप-सुतै मनावै।
सूरदास कंकन द्यौं तबहीं, तमचुर बचन सुनावै॥
मूल
तिरिया रैन घटें सचु पावै।
अंचल लिखत स्वान की मूरति, उडुगन पथहि दिखावै॥
हँसत कुमोदिनि, बिहँसत पदमिनि, भँवर निकट गुन गावै।
तजत भोग चकई-चकवा, जल सारँग बदन छिपावै॥
अपने सुख संपति के काजैं कस्यप-सुतै मनावै।
सूरदास कंकन द्यौं तबहीं, तमचुर बचन सुनावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) यदि रात्रि घटे (समाप्त हो) तो (व्रज-) नारी शान्ति पाये। वह अंचलपर कुत्तेकी मूर्ति बनाती है और उसे तारोंका मार्ग दिखलाती है (कि उन तारोंको दौड़कर खा ले) कुमुदिनी (चन्द्रको सामने पाकर) हँसती (खिलती) है, पद्मिनी भी प्रसन्न होती है; क्योंकि उसके पास (उसमें बंद होकर) भौंरा (उसके) गुण गा रहा (गुंजार कर रहा) है। (हाँ) चकोरी और चकोर अपना (सुख-) भोग छोड़ देते (वियुक्त हो जाते) हैं, जब कि सूर्य पानीमें अपना मुख छिपा लेता (अस्त हो जाता) है। अतः (गोपी) अपनी सुख-सम्पत्ति (शान्ति)-के लिये कश्यपजीके पुत्र अरुणकी मनौती मानती है कि (मैं तुम्हें) उसी समय अपना कंगन दे दूँगी (अथवा कुंकुमसे कंगनके आकारका मंडल बनाकर तुम्हारी पूजा करूँगी) जब (अरुणोदय देखकर) मुर्गे बोलने लगें।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१७६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोकौं, माई, जमुना जम ह्वै रही।
कैसैं मिलौं स्यामसुंदर कौं, बैरिन बीच बही॥
कितक बीच मथुरा औ गोकुल, आवत हरि जु नहीं।
हम अबला कछु मरम न जान्यौ, चलत न फेंट गही॥
अब पछितात, प्रान दुख पावत, जाति न बात कही।
सूरदास-प्रभु सुमरि-सुमरि गुन, दिन-दिन सूल सही॥
मूल
मोकौं, माई, जमुना जम ह्वै रही।
कैसैं मिलौं स्यामसुंदर कौं, बैरिन बीच बही॥
कितक बीच मथुरा औ गोकुल, आवत हरि जु नहीं।
हम अबला कछु मरम न जान्यौ, चलत न फेंट गही॥
अब पछितात, प्रान दुख पावत, जाति न बात कही।
सूरदास-प्रभु सुमरि-सुमरि गुन, दिन-दिन सूल सही॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! मेरे लिये यमुना यमराज हो रही है। मैं श्यामसुन्दरसे कैसे मिलूँ, यह शत्रु होकर (व्रज और मथुराके) बीचमें बह रही है। (अरे) मथुरा और गोकुलमें दूरी ही कितनी है, जो श्यामसुन्दर (यहाँ) नहीं आते। हम अबलाओंने (उनके जानेका) कुछ रहस्य समझा नहीं, इसलिये जाते समय उनकी फेंट (धोतीका बन्धन) पकड़कर रोका नहीं। अब पश्चात्ताप करते प्राण दुःख पा रहे हैं, कोई बात कही नहीं जाती। (केवल) स्वामीके गुणोंका बार-बार स्मरण करके (हम) दिनोदिन (अधिकाधिक) वेदना सह रही हैं।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(१७७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैन सलोने स्याम, बहुरि कब आवैंगे।
वे जो देखत राते-राते फूलन फूली डार।
हरि बिन फूलझरी-सी लागत, झरि-झरि परत अँगार॥
फूल बिनन नहिं जाउँ सखी री, हरि बिन कैसे फूल।
सुनि री सखि! मोहि राम-दुहाई, लागत फूल त्रिसूल॥
जब मैं पनघट जाउँ सखी री, वा जमुना कें तीर।
भरि-भरि जमुना उमड़ि चलति है, इन्ह नैनन कें नीर॥
इन नैनन कें नीर सखी री, सेज भई घरनाउ।
चाहति हौं ताही पै चढ़ि कैं, हरि जू कें ढिग जाउँ॥
लाल पियारे प्रान हमारे, रहे अधर पै आइ।
सूरदास-प्रभु कुंज-बिहारी, मिलत नहीं क्यौं धाइ॥
मूल
नैन सलोने स्याम, बहुरि कब आवैंगे।
वे जो देखत राते-राते फूलन फूली डार।
हरि बिन फूलझरी-सी लागत, झरि-झरि परत अँगार॥
फूल बिनन नहिं जाउँ सखी री, हरि बिन कैसे फूल।
सुनि री सखि! मोहि राम-दुहाई, लागत फूल त्रिसूल॥
जब मैं पनघट जाउँ सखी री, वा जमुना कें तीर।
भरि-भरि जमुना उमड़ि चलति है, इन्ह नैनन कें नीर॥
इन नैनन कें नीर सखी री, सेज भई घरनाउ।
चाहति हौं ताही पै चढ़ि कैं, हरि जू कें ढिग जाउँ॥
लाल पियारे प्रान हमारे, रहे अधर पै आइ।
सूरदास-प्रभु कुंज-बिहारी, मिलत नहीं क्यौं धाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) सलोने नेत्रवाले श्यामसुन्दर कब फिर (यहाँ) लौटकर आयेंगे? वे जो (पलाशके) लाल-लाल फूलोंसे फूली डालें दिखायी पड़ती हैं, वे श्यामसुन्दरके बिना फुलझड़ी-जैसी लगती हैं, जिनसे बार-बार अंगारे झड़ रहे हैं। सखी! मैं फूल चुनने नहीं जाऊँगी, श्यामसुन्दरके बिना ये फूल कैसे। अरी सखी! सुन, मुझे श्रीरामकी शपथ, वे फूल तो मुझे त्रिशूल-जैसे (वेधक) लगते हैं। सखी! जब उस यमुनाके किनारे मैं जल भरने जाती हूँ, तब मेरे इन नेत्रोंके जलसे (वह) यमुना बार-बार पूर्ण हो उमड़कर बहने लगती है। अरी सखी! इन नेत्रोंके जलके कारण शय्या घरमें नौकाके समान हो गयी (तैरने लगी) है; मैं चाहती हूँ कि उसीपर बैठकर (अब) श्यामसुन्दरके पास चली जाऊँ। लाल! हमारे प्यारे प्राण अब ओष्ठोंपर आ गये हैं (निकलनेवाले ही हैं); अतः कुंजविहारी स्वामी! (तुम) दौड़कर मिल क्यों नहीं जाते?
विषय (हिन्दी)
(१७८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
वे नहिं आए प्रान-पियारे।
मुरलि बजाइ मन हरे हमारे॥
तब तैं गोकुल गाँव बिसारे।
जब लै क्रूर अक्रूर सिधारे॥
तब तैं ये तन परे जु कारे।
जब तैं लागी हृदय दवा रे॥
सूरदास-प्रभु जग-उजियारे।
निसि-दिन पपिहा रटत पुकारे॥
मूल
वे नहिं आए प्रान-पियारे।
मुरलि बजाइ मन हरे हमारे॥
तब तैं गोकुल गाँव बिसारे।
जब लै क्रूर अक्रूर सिधारे॥
तब तैं ये तन परे जु कारे।
जब तैं लागी हृदय दवा रे॥
सूरदास-प्रभु जग-उजियारे।
निसि-दिन पपिहा रटत पुकारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) वे प्राणप्यारे नहीं आये, जिन्होंने वंशी बजाकर हमारे चित्त चुरा लिये हैं। जबसे क्रूर-हृदय अक्रूर उन्हें लेकर चले गये, तभीसे उन्होंने (इस) गोकुल ग्रामको भुला दिया है। जबसे (मेरे) हृदयमें विरहरूप अग्नि लगी है, तभीसे यह (मेरा) शरीर (श्यामसुन्दरके रंगमें रँगकर) काला पड़ गया है। स्वामी! तुम तो विश्वको प्रकाशित करनेवाले हो। (देखो तो सही कि यहाँ मैं) पपीहाके समान (तुम्हारे नामकी) रट लगाये रात-दिन (तुम्हें) पुकारती हूँ (फिर भी तुम नहीं आते)।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१७९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरौ गोपाल मिलैं, सुख, सनेह कीजै।
नैनन-मग निरखि बदन, सोभा-रस पीजै॥
मदन-मोहन हिरदैं धरि, आसन उर दीजै।
परैं न पलक आँखिनि की, देखि-देखि जीजै॥
मान छाँड़ि प्रेम-भजन, अपनौ करि लीजै।
सूर सोइ सुहागि नारि, जासौं मन भींजै॥
मूल
बहुरौ गोपाल मिलैं, सुख, सनेह कीजै।
नैनन-मग निरखि बदन, सोभा-रस पीजै॥
मदन-मोहन हिरदैं धरि, आसन उर दीजै।
परैं न पलक आँखिनि की, देखि-देखि जीजै॥
मान छाँड़ि प्रेम-भजन, अपनौ करि लीजै।
सूर सोइ सुहागि नारि, जासौं मन भींजै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) यदि फिर गोपाल मिल जायँ तो उनसे आनन्दपूर्वक प्रेम किया जाय और उनके मुखको देखकर नेत्रोंके मार्गसे उनकी शोभाके रसको पिया जाय। मदनमोहनको हृदयमें धारण करके उन्हें वक्षःस्थलका ही आसन दिया जाय तथा आँखोंकी पलकें भी न गिरते हुए उन्हें देख-देखकर जीवन-धारण किया जाय। मानको छोड़कर (उनका) प्रेमपूर्वक भजन करके (उन्हें) अपना बना लिया जाय। सौभाग्यवती स्त्री वही है, जिसके प्रति उनका चित्त स्नेहार्द्र हो।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(१८०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी री, हरि आवहिं किहिं हेत।
वे राजा, तुम ग्वारि बुलावत, यहै परेखौ लेत॥
अब सिर कनक-छत्र राजत है, मोर-पंख नहिं भावत।
सुनि ब्रजराज पीठि दै बैठत, जदुकुल-बिरद बुलावत॥
द्वारपाल अति पौरि बिराजत, दासी सहस अपार।
गोकुल गाइ दुहत दुख कौ लौं, सूर सहे इक बार॥
मूल
सखी री, हरि आवहिं किहिं हेत।
वे राजा, तुम ग्वारि बुलावत, यहै परेखौ लेत॥
अब सिर कनक-छत्र राजत है, मोर-पंख नहिं भावत।
सुनि ब्रजराज पीठि दै बैठत, जदुकुल-बिरद बुलावत॥
द्वारपाल अति पौरि बिराजत, दासी सहस अपार।
गोकुल गाइ दुहत दुख कौ लौं, सूर सहे इक बार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! श्यामसुन्दर किसलिये (गोकुल) आयें। वे राजा हैं और तुम ग्वालिनी उन्हें बुलाती हो, यही तो वे दुःख ले (समझ) रहे हैं। अब (उनके) मस्तकपर सोनेका छत्र शोभा देता है, मयूरपिच्छ (उन्हें) प्रिय नहीं लगता। ‘व्रजराज’ सम्बोधन सुनकर पीठ फेरकर बैठ जाते हैं तथा यदुकुलका सुयश-गान कराते हैं। (अब) उनके द्वारपर बहुत-से द्वारपाल शोभा देते हैं, (भवनमें) हजारों—अपार दासियाँ हैं। भला गोकुलमें गायें दुहनेका कष्ट वे कबतक सहते, एक बार (किसी प्रकार) सह लिया (सो सह लिया)।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१८१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलत न माधौ की गही बाहैं।
बार-बार पछिताति तबहि तें, यहै सूल मन माहैं॥
घर, बन कछु न सुहाइ रैनि-दिन, मनहुँ मृगी दव दाहैं।
मिटति न तपति बिना घनस्यामहि, कोटि घनी घन छाहैं॥
बिलपति अति पछिताति मनहिं-मन, चंद गहैं जनु राहैं।
सूरदास-प्रभु दूर सिधारे, दुख कहिऐ किहि पाहैं॥
मूल
चलत न माधौ की गही बाहैं।
बार-बार पछिताति तबहि तें, यहै सूल मन माहैं॥
घर, बन कछु न सुहाइ रैनि-दिन, मनहुँ मृगी दव दाहैं।
मिटति न तपति बिना घनस्यामहि, कोटि घनी घन छाहैं॥
बिलपति अति पछिताति मनहिं-मन, चंद गहैं जनु राहैं।
सूरदास-प्रभु दूर सिधारे, दुख कहिऐ किहि पाहैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) जाते समय (मैंने) माधवकी बाँह न पकड़ ली—यही वेदना मनमें है और तभीसे बार-बार पश्चात्ताप करती हूँ। (मुझे) रात-दिन घर अथवा वन—कुछ भी (उसी प्रकार) अच्छा नहीं लगता, जैसे दावाग्निसे जलने (झुलसने)-पर हरिणीको करोड़ों-गुनी सघन छाया होते हुए भी श्यामघनके बिना तपन (शरीरकी जलन) मिटती नहीं। विलाप करती हूँ, मन-ही-मन(इस प्रकार) अत्यन्त पछताती हूँ, जैसे चन्द्रमाको राहुने पकड़ लिया हो। हमारे स्वामी (तो) दूर चले गये; अब बताओ, यह दुःख किससे कहा जाय।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१८२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन की मन ही माँझ रही।
जब हरि रथ चढ़ि चले मधुपुरी, सब अग्यान भरी॥
मति-बुधि हरी, परी धरनी पै, अति बेहाल खरी।
अंकुस अलक कुटिल भइ आसा, तातैं अवधि बरी॥
ज्यौं बिनु मनि अहि मूक फिरत है, बिधि बिपरीत करी।
मन तौ रह्यौ पंखि सूरज-प्रभु, माटी रही धरी॥
मूल
मन की मन ही माँझ रही।
जब हरि रथ चढ़ि चले मधुपुरी, सब अग्यान भरी॥
मति-बुधि हरी, परी धरनी पै, अति बेहाल खरी।
अंकुस अलक कुटिल भइ आसा, तातैं अवधि बरी॥
ज्यौं बिनु मनि अहि मूक फिरत है, बिधि बिपरीत करी।
मन तौ रह्यौ पंखि सूरज-प्रभु, माटी रही धरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) मनकी बात मनमें ही रह गयी। श्यामसुन्दर जब रथपर बैठकर मथुरा जाने लगे (तब हम) सब मूढ़तासे भरी (देखती) ही रह गयीं। (हमारी) सोचने-विचारनेकी शक्ति हरी जानेके कारण अत्यन्त व्याकुल होकर खड़ी-खड़ी (सीधे) पृथ्वीपर गिर पड़ीं। किंतु (मोहनकी) घुँघराली अलकें (ही हमारी) आशाके लिये अंकुश (रोकथाम करनेवाली) हो गयीं, (अर्थात् हमें मार न सकीं), इसीसे अवधिको मान लिया (श्याम इतने दिनोंमें आ जायँगे, यह उनका आश्वासन स्वीकार कर लिया)। जैसे मणिके बिना गूँगा (बोलनेकी शक्तिसे रहित) सर्प (व्याकुल) घूमता है, वैसी ही उलटी दशा विधाताने हमारी कर दी। मन तो हमारा स्वामीके साथ पक्षी बनकर उड़ गया और यह (देहकी) मिट्टी (यहाँ) रखी रह गयी।
विषय (हिन्दी)
(१८३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरौ मन वैसिऐ सुरति करै।
मृदु मुसकानि, बंक अवलोकनि, हिरदै तैं न टरै॥
जब गुपाल गोधन सँग आवत, मुरली अधर धरैं।
मुख की रेनु झारि अंचल सौं, जसुमति अंक भरै॥
संध्या समय घोष की डोलनि, वह सुधि क्यौं बिसरै।
सूरदास प्रभु-दरसन कारन, नैनन नीर ढरै॥
मूल
मेरौ मन वैसिऐ सुरति करै।
मृदु मुसकानि, बंक अवलोकनि, हिरदै तैं न टरै॥
जब गुपाल गोधन सँग आवत, मुरली अधर धरैं।
मुख की रेनु झारि अंचल सौं, जसुमति अंक भरै॥
संध्या समय घोष की डोलनि, वह सुधि क्यौं बिसरै।
सूरदास प्रभु-दरसन कारन, नैनन नीर ढरै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) मेरा मन वैसी ही झाँकीका स्मरण करता है, (मोहनकी) मन्द मुसकान और तिरछी चितवन हृदयसे हटती नहीं। गायोंके साथ (शामको) गोपाल जब ओष्ठोंपर वंशी रखे (घर) आते थे, तब माता यशोदा अपने अंचलसे उनके मुखपर पड़ी धूलि झाड़ (पोंछ) कर उन्हें गोदमें ले लेती थीं। संध्याके समय व्रजमें उनका घूमना—उस शोभाकी स्मृति कैसे भूल सकती है। (अब तो) स्वामीके दर्शनोंके लिये नेत्रोंसे अश्रु ढुलकते रहते हैं।
राग नट नारायण
विषय (हिन्दी)
(१८४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन की मन ही में नहिं माति।
सहियत कठिन सूल निसि-बासर, कहें कही नहिं जाति॥
हरि के संग किए सुख जेते, ते अब रिपु भए गात।
स्वाति-बूँद इक सीप सु मोती, बिष भयौ कदली-पात॥
यहई ब्रज, येई ब्रजसुंदरि, औरै अब रस-रीति।
सूर कौन जानै यह बिपदा, जौ भरियत करि प्रीति॥
मूल
मन की मन ही में नहिं माति।
सहियत कठिन सूल निसि-बासर, कहें कही नहिं जाति॥
हरि के संग किए सुख जेते, ते अब रिपु भए गात।
स्वाति-बूँद इक सीप सु मोती, बिष भयौ कदली-पात॥
यहई ब्रज, येई ब्रजसुंदरि, औरै अब रस-रीति।
सूर कौन जानै यह बिपदा, जौ भरियत करि प्रीति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) मनका दुःख मनमें समाता नहीं। रात-दिन कठोर वेदना सह रही हूँ, जिसका वर्णन करनेकी चेष्टा करनेपर भी हो नहीं पाता। श्यामसुन्दरके साथ जितने सुख भोगे थे, वे सब अब इस शरीरके शत्रु हो गये हैं। स्वातीकी बूँद तो एक है, परंतु सीपमें पड़कर उत्तम मोती और केलेके पत्तोंमें पड़कर विष हो जाती है। (ऐसे ही) मोहनकी स्मृति उनके मिलनमें सुखद थी और वियोगमें घोर दुःखदायी हो गयी। वही व्रज है, वे ही व्रजसुन्दरियाँ हैं; किंतु आनन्दकी क्रीड़ा कुछ और ही (दुःखमयी) हो गयी है। प्रेम करके हम जो विपत्ति भोग रही हैं उसे दूसरा कौन समझ सकता है।
राग मारू
विषय (हिन्दी)
(१८५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कमल-नैन अपनै गुन, मन हमार बाँध्यौ।
लागत तौ जान्यौ नहिं, बिषम बान साध्यौ॥
कठिन पीर बेध्यौ सर, मारि गयौ माई।
लागत तौ जान्यौ नहिं, अब न सह्यौ जाई॥
मंत्र-तंत्र केतिक करौ, पीर नाहिं जाई।
है कोउ, उपचार करै, कठिन दरद माई॥
कैसैंहु नँदलाल पाउँ नैंक, मिलौं धाई।
सूरदास प्रेम-फंद तोरॺौ नहिं जाई॥
मूल
कमल-नैन अपनै गुन, मन हमार बाँध्यौ।
लागत तौ जान्यौ नहिं, बिषम बान साध्यौ॥
कठिन पीर बेध्यौ सर, मारि गयौ माई।
लागत तौ जान्यौ नहिं, अब न सह्यौ जाई॥
मंत्र-तंत्र केतिक करौ, पीर नाहिं जाई।
है कोउ, उपचार करै, कठिन दरद माई॥
कैसैंहु नँदलाल पाउँ नैंक, मिलौं धाई।
सूरदास प्रेम-फंद तोरॺौ नहिं जाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) कमललोचन (श्यामसुन्दर)-ने अपने गुणोंकी डोरीसे (हमारा) मन बाँध लिया है। उन्होंने (प्रेमका) जो कठोर बाण संधान किया, उसे लगते तो (हमने) जाना नहीं। किंतु सखी! वे तो बाणसे बींधकर चले गये और अब हमें दारुण पीड़ा हो रही है। (उस बाणके) लगते समय तो हमने जाना नहीं, पर अब (पीड़ा) सही नहीं जाती। कितना ही मन्त्र-तन्त्र करो, यह पीड़ा दूर नहीं होती। सखी! कोई ऐसा नहीं, जो इस कठिन दर्दकी दवा कर सके। (इसका उपचार तो यही है कि) किसी प्रकार भी नन्दलाल थोड़ी देरको भी मिल जायँ तो दौड़कर उनसे जा मिलूँ। यह प्रेमका पाश (फंदा) मुझसे तोड़ा नहीं जाता।
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(१८६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जु हम सौं करी, माई! मीन-जल की प्रीति।
कितिकि दूरि दयालु माधौ, गई अवधि बितीति॥
तरफि कैं उन प्रान दीन्हौ, प्रेम की परतीति।
नीर निकट न पीर जानी, बृथा गए दिन बीति॥
चलत मोहन कह्यौ हम सौं, आइहैं रिपु जीति।
सूर श्री ब्रजनाथ कीन्ही सबै उलटी रीति॥
मूल
हरि जु हम सौं करी, माई! मीन-जल की प्रीति।
कितिकि दूरि दयालु माधौ, गई अवधि बितीति॥
तरफि कैं उन प्रान दीन्हौ, प्रेम की परतीति।
नीर निकट न पीर जानी, बृथा गए दिन बीति॥
चलत मोहन कह्यौ हम सौं, आइहैं रिपु जीति।
सूर श्री ब्रजनाथ कीन्ही सबै उलटी रीति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! श्यामसुन्दरने हमसे मछली और जलके समान प्रेम किया। वे दयालु माधव कितनी दूर हैं; परंतु (उन्होंने लौटनेकी जो) अवधि (दी थी, वह) भी बीत गयी। उन (मछलियों)-ने तो प्रेमपर विश्वास करके तड़फड़ाकर प्राण दे दिये; किंतु पास रहनेपर भी जलने उनकी पीड़ा नहीं समझी। (इसी प्रकार हमारे) दिन व्यर्थ बीत गये। चलते समय मोहनने हमसे कहा था कि शत्रुको जीतकर वे लौट आयेंगे; किंतु व्रजनाथने तो सब उलटी ही रीति की।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(१८७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मति कोउ प्रीति कें फंग परै।
सादर स्वाति देखि मन मानै, पंखी-प्रान हरै॥
देखि पतंग कहा क्रम कीन्हौ, जीव कौ त्याग करै।
अपने मरिबे तैं न डरत है, पावक पैठि जरै॥
भौंर सनेही तोहि बताऊँ, केतकि प्रेम धरै।
सारँग सुनत नाद-रस मोह्यौ, मरिबे तैं न डरै॥
जैसैं चकोर चंद कौं चाहत, जल बिनु मीन मरै।
सूरदास-प्रभु सौं ऐसैं करि, मिलै तौ काज सरै॥
मूल
मति कोउ प्रीति कें फंग परै।
सादर स्वाति देखि मन मानै, पंखी-प्रान हरै॥
देखि पतंग कहा क्रम कीन्हौ, जीव कौ त्याग करै।
अपने मरिबे तैं न डरत है, पावक पैठि जरै॥
भौंर सनेही तोहि बताऊँ, केतकि प्रेम धरै।
सारँग सुनत नाद-रस मोह्यौ, मरिबे तैं न डरै॥
जैसैं चकोर चंद कौं चाहत, जल बिनु मीन मरै।
सूरदास-प्रभु सौं ऐसैं करि, मिलै तौ काज सरै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) कोई प्रेमके फंदेमें न पड़े। (चातक) बड़े आदरसे स्वाती नक्षत्रको देखकर चित्तमें संतुष्ट होता है, पर वह (मेघ) उस पक्षीके प्राण (ओले गिराकर) ले लेता है। देखो तो, पतिंगेने क्या ढंग अपनाया है। वह अपने जीवनको ही छोड़ देता है। अपने मरनेसे भी डरता नहीं, (दीपककी) अग्निमें प्रवेश करके जल जाता है। तुम्हें बतलाती हूँ, प्रेमी भौंरा कितना प्रेम (मनमें) रखता है और (इसी प्रकार) मृग संगीतकी ध्वनि सुनकर उसके सुखमें मोहित हो जाता है तथा मरनेसे भी डरता नहीं। जैसे चकोर चन्द्रमाको चाहता है, जैसे जलके बिना मछलियाँ मर जाती हैं, ऐसा ही प्रेम (हमने) स्वामीसे किया; अतः वे मिलें तो काम सफल हो।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१८८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति करि काहू सुख न लह्यौ।
प्रीति पतंग करी पावक सौं, आपै प्रान दह्यौ॥
अलि-सुत प्रीति करी जल-सुत सौं, संपुट माँझ गह्यौ।
सारँग प्रीति करी जु नाद सौं, सनमुख बान सह्यौ॥
हम जो प्रीति करी माधव सौं, चलत न कछू कह्यौ।
सूरदास-प्रभु बिनु दुख पावत, नैनन नीर बह्यौ॥
मूल
प्रीति करि काहू सुख न लह्यौ।
प्रीति पतंग करी पावक सौं, आपै प्रान दह्यौ॥
अलि-सुत प्रीति करी जल-सुत सौं, संपुट माँझ गह्यौ।
सारँग प्रीति करी जु नाद सौं, सनमुख बान सह्यौ॥
हम जो प्रीति करी माधव सौं, चलत न कछू कह्यौ।
सूरदास-प्रभु बिनु दुख पावत, नैनन नीर बह्यौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) प्रेम करके किसीने भी सुख नहीं पाया। पतिंगेने अग्निसे प्रेम किया और (उसमें गिरकर) अपने प्राणोंको जला डाला। (जन्मसे ही) भौंरोंने कमलसे प्रेम किया तो (उसने रात्रिमें अपने) सम्पुटमें (उसे) पकड़ लिया (बंद कर लिया)। इसी प्रकार मृगने संगीत-ध्वनिसे प्रेम किया तो उसे सम्मुख (छातीपर) बाण सहना पड़ा। इसी प्रकार हमने जो माधवसे प्रेम किया तो जाते समय भी उन्होंने हमसे कुछ कहा नहीं। प्रभुके बिना हम दुःख भोग रही हैं, जिससे हमारे नेत्रोंद्वारा आँसू बहते रहते हैं।
विषय (हिन्दी)
(१८९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेली, हिलग की पहिचानि।
जौ पै हिलग हिए मैं है री, कहा करै कुल-कानि॥
हिलग पतंग करी दीपक सौं, तन सौंप्यौ है आनि।
कसक्यौ नहीं जरत ज्वाला में, सही प्रान की हानि॥
हिलग चकोर करी है ससि सौं, पावक चुगत न मानि।
हिलगहिं नाद-स्वाद मृग मोह्यौ, बिंध्यौ पारधी तानि॥
हिलग आनि बाँध्यौ सब गुन बिच, मधुप कमल हित जानि।
सोई हिलग लाल गिरिधर सौं, सूरदास सुख-दानि॥
मूल
हेली, हिलग की पहिचानि।
जौ पै हिलग हिए मैं है री, कहा करै कुल-कानि॥
हिलग पतंग करी दीपक सौं, तन सौंप्यौ है आनि।
कसक्यौ नहीं जरत ज्वाला में, सही प्रान की हानि॥
हिलग चकोर करी है ससि सौं, पावक चुगत न मानि।
हिलगहिं नाद-स्वाद मृग मोह्यौ, बिंध्यौ पारधी तानि॥
हिलग आनि बाँध्यौ सब गुन बिच, मधुप कमल हित जानि।
सोई हिलग लाल गिरिधर सौं, सूरदास सुख-दानि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! (सच्ची) लगनकी यही पहचान (स्वरूप) है, यदि हृदयमें लगन (प्रेम) है तो कुलका संकोच क्या करेगा। पतिंगेने दीपकसे प्रेम किया तो आकर उसे अपना शरीर सौंप दिया तथा उसकी ज्वालामें जलते समय भी हिचका नहीं, प्राणोंकी हानि सहन कर ली। चकोरने चन्द्रमासे प्रीति की तो उसने अंगारे चुगनेमें भी कुछ (पीड़ा) नहीं मानी। (अरे) प्रेमके कारण ही मृग संगीत-ध्वनिके रसमें मोहित होकर ब्याधके बाणोंसे बिद्ध हो जाता है। (जिस प्रेमने) भौंरेको कमलके प्रति प्रेम जानकर (उसे) सब गुणोंके बीच आकर बाँधा, वही सुख देनेवाला प्रेम (हमारा) श्रीगिरधरलालसे है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१९०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति तौ मरिबौई न बिचारै।
निरखि पतंग ज्योति पावक ज्यौं, जरत न आपु सँभारै॥
प्रीति कुरंग नाद मन मोहत, बधिक निकट ह्वै मारै।
प्रीति परेबा उड़त गगन तैं, गिरत न आपु सँभारै॥
सावन-मास पपीहा बोलत, पिय-पिय करि जु पुकारै।
सूरदास प्रभु-दरसन कारन, ऐसी भाँति बिचारै॥
मूल
प्रीति तौ मरिबौई न बिचारै।
निरखि पतंग ज्योति पावक ज्यौं, जरत न आपु सँभारै॥
प्रीति कुरंग नाद मन मोहत, बधिक निकट ह्वै मारै।
प्रीति परेबा उड़त गगन तैं, गिरत न आपु सँभारै॥
सावन-मास पपीहा बोलत, पिय-पिय करि जु पुकारै।
सूरदास प्रभु-दरसन कारन, ऐसी भाँति बिचारै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) प्रेम तो मरनेका भी विचार नहीं करता। जैसे पतिंगा अग्निकी लौ देखकर उसमें जलते हुए भी अपनेको सँभालता (बचाता) नहीं है। संगीत-प्रेमके कारण मृगका मन मोहित हो जानेके कारण (ही) ब्याध पास जाकर उसे बाणसे मार देता है और प्रेमके कारण (ही) आकाशमें उड़ता हुआ कबूतर (नीचे कबूतरीको देखकर) गिरते हुए भी अपनेको सँभालता नहीं। श्रावणके महीनेमें पपीहा बोलता है और ‘पी कहाँ, पी कहाँ’ करता पुकारता ही रहता है। स्वामीके दर्शनके लिये इसी प्रकारकी दशा (हमारी) है, यह समझ लो।
विषय (हिन्दी)
(१९१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति बटाऊ सौं कित करिऐ।
हिलि-मिलि चले कान्ह परदेसी, फिरि पछिताऐं मरिऐ॥
सुनियत कथा स्रवन सीता की, का बिचारि अनुसरिऐ।
बिन अपराध तजै सेवक कौं, ता ठाकुर सौं डरिऐ॥
एक बार बसुद्यौ कौ ढोटा बातन गोकुल छरिऐ।
बाल-बिनोद जसोदा आगैं सबहिन कौ मन हरिऐ॥
जाति-पाँति बलि सरबस दीन्हौ, तिन कि पीठि पग धरिऐ।
सूरदास ऐसे लोगनि तैं, पार न क्यौंहूँ परिऐ॥
मूल
प्रीति बटाऊ सौं कित करिऐ।
हिलि-मिलि चले कान्ह परदेसी, फिरि पछिताऐं मरिऐ॥
सुनियत कथा स्रवन सीता की, का बिचारि अनुसरिऐ।
बिन अपराध तजै सेवक कौं, ता ठाकुर सौं डरिऐ॥
एक बार बसुद्यौ कौ ढोटा बातन गोकुल छरिऐ।
बाल-बिनोद जसोदा आगैं सबहिन कौ मन हरिऐ॥
जाति-पाँति बलि सरबस दीन्हौ, तिन कि पीठि पग धरिऐ।
सूरदास ऐसे लोगनि तैं, पार न क्यौंहूँ परिऐ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) पथिकसे क्यों प्रेम करना चाहिये। परदेशी कन्हैया हमसे हेल-मेल (प्रेम-परिचय बढ़ा) कर चले गये और (हम) पश्चात्ताप करके मरी जा रही हैं। कानोंसे श्रीसीताजीकी कथा सुनती हैं (कि उन्हें बिना अपराधके ही रामने त्याग दिया। वे ही तो ये हैं, अतः) क्या सोचकर इनका अनुगमन किया जाय (इनसे स्नेह किया जाय)। जो बिना अपराधके ही अपने सेवकको छोड़ दे, ऐसे स्वामीसे डरना चाहिये। एक बार (उन) वसुदेवजीके कुमारने (अपनी) बातोंसे गोकुलको ठग लिया और यशोदाजीके सम्मुख बाल-क्रीड़ाके द्वारा सभीके चित्तको चुरा लिया। (अब) जिन्होंने अपनी जाति-पाँति और सर्वस्व दे दिया, उन्हीं बलि राजाकी पीठपर इन्होंने (वामनरूपसे) पैर रखा। अतः ऐसे लोगोंसे किसी प्रकार पार नहीं पाया जा सकता।
विषय (हिन्दी)
(१९२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिछुरन जनि काहू सौं होइ।
बिछुरन भयौ राम-सीता कौ, क्रम छत देखे धोइ॥
बिछुरन भयौ मीन अरु जल कौ, तलफि-तलफि तन खोइ।
बिछुरन भयौ चकवा अरु चकई, रैन गँवाई रोइ॥
रुदन करत बैठी बन महियाँ, बात न बूझत कोइ।
सूरदास-स्वामी कौ बिछुरन, बनत उपाइ न कोइ॥
मूल
बिछुरन जनि काहू सौं होइ।
बिछुरन भयौ राम-सीता कौ, क्रम छत देखे धोइ॥
बिछुरन भयौ मीन अरु जल कौ, तलफि-तलफि तन खोइ।
बिछुरन भयौ चकवा अरु चकई, रैन गँवाई रोइ॥
रुदन करत बैठी बन महियाँ, बात न बूझत कोइ।
सूरदास-स्वामी कौ बिछुरन, बनत उपाइ न कोइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) किसीका किसी (प्रिय)-से वियोग न हो। श्रीराम और सीताका वियोग हुआ था, उस (वियोग)-का घाव धीरे-धीरे धोने (दूर करने)-पर भी क्या हुआ यह सबने देखा? (श्रीजानकीका मिलन नहीं हुआ, वे भूमिमें प्रविष्ट हो गयीं।) मछली और पानीका वियोग हुआ, जिससे तड़प-तड़पकर (मछलीने) शरीर खो दिया (वह मर गयी)। चकोर और चकोरीका वियोग हुआ तो उन्होंने पूरी रात रोते हुए व्यतीत कर दी। (हम भी उनके वियोगमें) रोती हुई वन (व्रज)-में बैठी हैं, कोई हमारी बाततक नहीं पूछता। स्वामीका वियोग हो जानेसे कोई उपाय (मिलनका) करते नहीं बनता।
विषय (हिन्दी)
(१९३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब काहे कौं भए उपकारी लिखि-लिखि पठवत चीठी।
आपुन जाइ मधुपुरी छाए, हम कौं जोग-बसीठी॥
ढाढ़े ऊपर लोन लगावत, हम जु भई मति हीठी।
सूरदास-प्रभु बिकल बिरहिनी, जरि-बरि भई अँगीठी॥
मूल
तब काहे कौं भए उपकारी लिखि-लिखि पठवत चीठी।
आपुन जाइ मधुपुरी छाए, हम कौं जोग-बसीठी॥
ढाढ़े ऊपर लोन लगावत, हम जु भई मति हीठी।
सूरदास-प्रभु बिकल बिरहिनी, जरि-बरि भई अँगीठी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) तब (पहले मोहन हमारे लिये) किसलिये उपकार करनेवाले हो गये (कि अब आते नहीं), पत्र लिख-लिखकर भेज रहे हैं। स्वयं तो जाकर मथुरामें बस गये और हमें योगका संदेश भेजते हैं और इस प्रकार जलेपर नमक लगाते हैं। हम उनकी समझसे ऐसी तुच्छ हो गयी हैं। स्वामीके वियोगमें व्याकुल (हम) वियोगिनियाँ जलती-जलती प्रज्वलित हो अँगीठी (-की राख)-जैसी हो गयी हैं।
राग रामकली
विषय (हिन्दी)
(१९४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरियत देखिबे की हौंसनि।
तब सत कलप पलक-सम जाते, अब सो रहीं दुख मैं सनि॥
पलक भरे की ओट न सहतीं, अब लागे दिन जान।
इतनेहू पै बिन साखन घर, घट निकसत नहिं प्रान॥
जदपि मोहि बहुतै समुझावत, सकुचनि लीजत मानि।
अंतहकरन जरत बिन देखें, कौन बुझावै आनि॥
कुबिजा पै आवन क्यौं पावत, अब तौ परिहै जानि।
लीन बड़ी यहऊँ की बातैं पाछिलि वह सब गानि॥
आए सूर दिना द्वै तौ कहा, तौ मानिबौ समौसौ।
कोटि बेर जल औंटि सिरावै, तऊ कहा पहिलौ सौ॥
मूल
मरियत देखिबे की हौंसनि।
तब सत कलप पलक-सम जाते, अब सो रहीं दुख मैं सनि॥
पलक भरे की ओट न सहतीं, अब लागे दिन जान।
इतनेहू पै बिन साखन घर, घट निकसत नहिं प्रान॥
जदपि मोहि बहुतै समुझावत, सकुचनि लीजत मानि।
अंतहकरन जरत बिन देखें, कौन बुझावै आनि॥
कुबिजा पै आवन क्यौं पावत, अब तौ परिहै जानि।
लीन बड़ी यहऊँ की बातैं पाछिलि वह सब गानि॥
आए सूर दिना द्वै तौ कहा, तौ मानिबौ समौसौ।
कोटि बेर जल औंटि सिरावै, तऊ कहा पहिलौ सौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) हम (मोहनको) देखनेकी उमंगमें ही मरी जाती हैं। पहले जिन्हें देखते हुए सौ कल्प एक पलके समान बीत जाते थे, अब वे ही (हम) दुःखसे पूर्ण हो रही हैं। (जो हम पहले) एक पलके लिये भी (श्यामसुन्दरका) ओटमें होना नहीं सह पाती थीं, अब (उन्हें देखे बिना) दिन-पर-दिन बीतते जा रहे हैं। घरमें भी हम बिना सम्मानकी (अपमानित) हैं; किंतु इतनेपर भी शरीरसे (पापी) प्राण निकलते नहीं हैं। यद्यपि (लोग) मुझे बहुत समझाते हैं और उनके संकोचके कारण (सब कुछ) मान (भी) लिया जाता है; किंतु (मोहनको) देखे बिना अन्तःकरण जलता रहता है, कौन आकर उसे बुझाये। (श्यामसुन्दर भला) कुब्जाके पाससे कैसे आने पायेंगे, उन्हें अब (हमारे प्रेमका महत्त्व) जान पड़ेगा; क्योंकि (उसने) यहाँकी भी वे पिछली (प्रेमकी) गायी हुई बड़ी (लम्बी-चौड़ी) बातें जान ली होंगी। (जैसे यहाँ प्रेमकी बड़ी बातें बनाते थे, वैसी ही वहाँ भी बनाते हैं।) यदि दो दिनके लिये (वे) आ भी गये तो क्या (पहले) समयके समान हम (उन्हें) मानेंगी? (कभी नहीं। अरे,) जलको कोई करोड़ों बार खौलाकर ठंढा करे, किंतु वह पहलेके समान (स्वादिष्ट) नहीं बन पाता।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१९५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनि कोउ काहू कें बस होहि।
ज्यौं चकई दिनकर बस डोलत, मोहि फिरावत मोहि॥
हम तौ रीझि लटू भइँ लालन, महा प्रेम तिय जानि।
बंधन अवधि भ्रमति निसि-बासर, को सुरझावत आनि॥
उरझे संग अंग-अंगन प्रति बिरह, बेलि की नाईं।
मुकुलित कुसुम नैन निद्रा तजि, रूप-सुधा सियराईं॥
अति आधीन हीन-मति ब्याकुल, कहँ लौं कहौं बनाई।
ऐसी प्रीति-रीति-रचना पै सूरदास बलि जाई॥
मूल
जनि कोउ काहू कें बस होहि।
ज्यौं चकई दिनकर बस डोलत, मोहि फिरावत मोहि॥
हम तौ रीझि लटू भइँ लालन, महा प्रेम तिय जानि।
बंधन अवधि भ्रमति निसि-बासर, को सुरझावत आनि॥
उरझे संग अंग-अंगन प्रति बिरह, बेलि की नाईं।
मुकुलित कुसुम नैन निद्रा तजि, रूप-सुधा सियराईं॥
अति आधीन हीन-मति ब्याकुल, कहँ लौं कहौं बनाई।
ऐसी प्रीति-रीति-रचना पै सूरदास बलि जाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) कोई (भूलकर भी) किसीके भी वशमें न हो; क्योंकि जैसे चक्रवाकी सूर्यके वश हुई घूमती है, उसी प्रकार वह (श्यामसुन्दरका प्रेम भी) मुझे मोहित कर घुमा रहा है। हम स्त्रियाँ तो उनका महान् प्रेम समझकर (गिरधारी) लालपर रीझकर लट्टू (मोहित) हो गयीं, अतः उस अवधिकी आशारूप बन्धनमें रात-दिन घूमती रहती हैं, कौन आकर (इस बन्धनको) सुलझाये। (उनके) साथ हमारे अंग-अंग विरहके कारण (उनके) अंग-अंगके प्रति (तरुमें) बेलकी भाँति उलझ गये हैं। अतः हमारे नेत्र निद्रा छोड़कर अधखिले पुष्पके समान सदा खुले रहते हैं, जो उनकी सौन्दर्यसुधासे ही शीतल हो सकते हैं। कहाँतक बनाकर वर्णन करूँ, हम उनके अत्यन्त अधीन हैं, इससे बुद्धिहीन होकर व्याकुल हो रही हैं। सूरदासजी कहते हैं—‘ऐसी प्रीतिकी रीति एवं प्रेम करनेकी पद्धतिपर मैं बलिहारी जाता हूँ।’
राग नट
विषय (हिन्दी)
(१९६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिन-ही-दिन को सहै बियोग।
यह सरीर नाहिन मेरौ, सखि! इते बिरह-जुर-जोग॥
रचि स्रक कुसुम, सुगंध सेज सजि, बसन कुंकुमा बोरि।
नलिनी-दलनि दूरि करि उर तैं, कंचुकि के बँद छोरि॥
बन-बन जाइ, मोर, चातक, पिक, मधुपनि टेरि सुनाइ।
उदित चंद, चंदन चढ़ाइ उर, त्रिबिध समीर बहाइ॥
रटि मुख नाम स्यामसुंदर कौ, तोहि सुनाइ-सुनाइ।
तो देखत तन होमि मदन-मख, मिलौं माधवहिं जाइ॥
सूरदास स्वामी कृपालु भए, जानि जुबति-रस-रीति।
तिहि छिन प्रगट भए मनमोहन, सुमरि पुरातन प्रीति॥
मूल
दिन-ही-दिन को सहै बियोग।
यह सरीर नाहिन मेरौ, सखि! इते बिरह-जुर-जोग॥
रचि स्रक कुसुम, सुगंध सेज सजि, बसन कुंकुमा बोरि।
नलिनी-दलनि दूरि करि उर तैं, कंचुकि के बँद छोरि॥
बन-बन जाइ, मोर, चातक, पिक, मधुपनि टेरि सुनाइ।
उदित चंद, चंदन चढ़ाइ उर, त्रिबिध समीर बहाइ॥
रटि मुख नाम स्यामसुंदर कौ, तोहि सुनाइ-सुनाइ।
तो देखत तन होमि मदन-मख, मिलौं माधवहिं जाइ॥
सूरदास स्वामी कृपालु भए, जानि जुबति-रस-रीति।
तिहि छिन प्रगट भए मनमोहन, सुमरि पुरातन प्रीति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें श्रीराधा कह रही हैं—सखी!) दिन-प्रतिदिन (यह) वियोगका (दुःख) कौन सहन करे। सखी! मेरा यह शरीर वियोगका इतना ज्वर सहन करनेयोग्य नहीं है। पुष्पोंकी माला बना, सुगन्धित शय्या सजा और वस्त्रोंको कुंकुम (केसर)-में डुबाकर दुःख मत दे। अरी! हृदयपरसे कमलदलोंको दूर कर दे और कंचुकी (चोली)-के बन्धन भी खोल दे। प्रत्येक वनमें जाकर मयूरों, पपीहों, कोयलों और भौंरोंको बोलकर कह दे (कि अब वे शोर न मचायें)। चन्द्रमाके उदय होनेपर मेरे हृदयपर चन्दन लगा शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु बहा दे। (अब तो मैं) तुझे सुना-सुनाकर अपने मुखसे बार-बार श्यामसुन्दरका नाम रटती हुई तेरे देखते-देखते कामरूपी यज्ञमें शरीरका हवन करके माधवसे जा मिलूँगी। इस प्रकार युवतीके प्रेमकी रीति (उत्कट प्रेम)-को जानकर सूरदासके स्वामी कृपालु हो गये (उन्होंने कृपा की) और वे मनमोहन पुराने प्रेमका स्मरण करके उसी क्षण (वहाँ) प्रकट हो गये।
विषय (हिन्दी)
(१९७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिथा, माई! कौन सौं कहिऐ।
हम तौ भईं जग्य के पसु ज्यौं, केतेक दुख सहिऐ॥
कामिनि भामिनि निसि अरु बासर कहूँ न सुख लहिऐ।
मन में बिथा, मथति लागै यौं, उर-अंतर दहिऐ॥
कबहुँक जिय ऐसी उपजति है, जाइ जमुन बहिऐ।
सूरदास-प्रभु हरि नागर बिनु काकी ह्वै रहिऐ॥
मूल
बिथा, माई! कौन सौं कहिऐ।
हम तौ भईं जग्य के पसु ज्यौं, केतेक दुख सहिऐ॥
कामिनि भामिनि निसि अरु बासर कहूँ न सुख लहिऐ।
मन में बिथा, मथति लागै यौं, उर-अंतर दहिऐ॥
कबहुँक जिय ऐसी उपजति है, जाइ जमुन बहिऐ।
सूरदास-प्रभु हरि नागर बिनु काकी ह्वै रहिऐ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! यह पीड़ा किससे कही जाय। हम तो यज्ञके (बलि-) पशुके समान हो गयी हैं, कहाँतक (कितना) दुःख सहा जाय। हम कामिनियाँ (श्यामसुन्दरकी) प्रियतमा होनेपर भी दिन-रात कहीं सुख नहीं पातीं। हाय! मनमें रहनेवाली पीड़ा इस प्रकार मनको मथने लगती है कि हृदयके भीतर (ही) हम जलती रहती हैं। कभी मनमें ऐसी बात आती है कि जाकर यमुनामें बह जाना चाहिये। अपने स्वामी परम चतुर श्यामसुन्दरके बिना हम किसकी होकर रहें।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१९८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोलि, सखी! चातक, पिक, मधुकर अरु मोर।
दिन-ही-दिन कौन सहै बिरह-बिथा घोर॥
सजि सुगंध सुमन सेज, ससि सौं कहि जाइ।
जैसै यह बीर कर्म, देखैं सब आइ॥
लाउ मलय-मारुत अरु रितु बसंत संग।
पूजौं सखि! कमल-नैन सनमुख रति-रंग॥
नलिनी-दल दूरि करै, मृग-मद कौ पंक।
अब जनि तन राखि लेउँ, मनसिज-सर-संक॥
सूरदास-प्रभु कृपालु, कोमल चित-गात।
ताही छिन प्रगट भए, सुनत प्रिया बात॥
मूल
बोलि, सखी! चातक, पिक, मधुकर अरु मोर।
दिन-ही-दिन कौन सहै बिरह-बिथा घोर॥
सजि सुगंध सुमन सेज, ससि सौं कहि जाइ।
जैसै यह बीर कर्म, देखैं सब आइ॥
लाउ मलय-मारुत अरु रितु बसंत संग।
पूजौं सखि! कमल-नैन सनमुख रति-रंग॥
नलिनी-दल दूरि करै, मृग-मद कौ पंक।
अब जनि तन राखि लेउँ, मनसिज-सर-संक॥
सूरदास-प्रभु कृपालु, कोमल चित-गात।
ताही छिन प्रगट भए, सुनत प्रिया बात॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीराधा कह रही हैं—) ‘सखी! (अब) चातक, कोकिल, भौंरों और मयूरोंको बुला ले; दिन-पर-दिन यह वियोगकी दारुण पीड़ा कौन सहन करे। सुगन्धित पुष्पोंसे शय्या सजा और जाकर चन्द्रमासे कह दे, जिससे सब आकर यह (मेरे शरीर-त्यागका) वीर कर्म देखें। मलयाचलके सुगन्धित पवन (-के साथ) वसन्त-ऋतुको (भी) साथ ले आ। सखी! आज प्रेमक्रीड़ामें कमललोचन श्यामसुन्दरकी सम्मुख होकर (देह त्यागकर) पूजा करूँगी। (हृदयपरसे) कमलदल और कस्तूरीका लेप दूर कर दे; क्योंकि अब मदनके बाणोंकी चितापर स्थिर बैठकर इस शरीरको नहीं रखूँगी।’ सूरदासके स्वामी कृपामय हैं, शरीर एवं चित्तसे भी अत्यन्त कोमल हैं, अपनी प्रियतमाकी यह बात सुनते ही (वे) उसी क्षण वहाँ प्रकट हो गये।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(१९९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरि न कबहूँ, सखी! मिले हरि।
कमल-नैन के दरसन कारन अपनौ सो जतन रही बहुतै करि॥
जेइ-जेइ पथिक जात मधुबन तन, तिन सौं बिथा कहत पाइनि परि।
काहुँ न प्रगट करी जदुपति सौं, दुसह दुरासा गई अवधि टरि॥
धीर न धरत प्रेम-ब्याकुल चित, लेत उसास नीर लोचन भरि।
सूरदास तन थकित भई अब, इहि बियोग-सागर न सकत तरि॥
मूल
बहुरि न कबहूँ, सखी! मिले हरि।
कमल-नैन के दरसन कारन अपनौ सो जतन रही बहुतै करि॥
जेइ-जेइ पथिक जात मधुबन तन, तिन सौं बिथा कहत पाइनि परि।
काहुँ न प्रगट करी जदुपति सौं, दुसह दुरासा गई अवधि टरि॥
धीर न धरत प्रेम-ब्याकुल चित, लेत उसास नीर लोचन भरि।
सूरदास तन थकित भई अब, इहि बियोग-सागर न सकत तरि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! क्या श्यामसुन्दर फिर कभी नहीं मिलेंगे? उन कमललोचनके दर्शनके लिये अपनी शक्तिभर मैंने बहुत अधिक प्रयत्न कर लिया। जो-जो यात्री मथुराकी ओर जाते हैं, उनके पैरों पड़कर (उनसे) अपनी वेदना कहती हूँ; किंतु किसीने यदुनाथसे (मेरी पीड़ा) प्रकट नहीं की और असह्य दुराशा (भरी) जो लौटनेकी अवधि की थी, वह भी बीत गयी। प्रेमसे व्याकुल चित्त धैर्य नहीं रख पाता और बार-बार नेत्रोंमें अश्रु भरके लम्बी साँसें लेती हूँ। अब तो शरीर थकित हो गया, इस वियोगरूपी समुद्रको हम पार नहीं कर सकेंगी।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(२००)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज में दोउ बिधि हानि भई।
इक हरि गए कलपतरु, दूजें उपजी बिरह-जई॥
जैसैं हाटक लै रसाइनी पारहि आगि दई।
जब मन लग्यौ दृष्टि तब बोल्यौ, सीसी फूटि गई॥
जैसैं बिन मल्लाह सुंदरी एक नाउ चढ़ई।
बूड़त देह थाह नहिं चितवत, मिलनहुँ पति न दई॥
लरि-मरि-झगरि भूमि कछु पाई, जस-अपजस बितई।
अब लै सूर कहति है उपजी, सब ककरी करुई॥
मूल
ब्रज में दोउ बिधि हानि भई।
इक हरि गए कलपतरु, दूजें उपजी बिरह-जई॥
जैसैं हाटक लै रसाइनी पारहि आगि दई।
जब मन लग्यौ दृष्टि तब बोल्यौ, सीसी फूटि गई॥
जैसैं बिन मल्लाह सुंदरी एक नाउ चढ़ई।
बूड़त देह थाह नहिं चितवत, मिलनहुँ पति न दई॥
लरि-मरि-झगरि भूमि कछु पाई, जस-अपजस बितई।
अब लै सूर कहति है उपजी, सब ककरी करुई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) मेरी व्रजमें दोनों प्रकारसे हानि हुई—प्रथम तो कल्पवृक्ष-रूप श्यामसुन्दर (यहाँसे) चले गये और दूसरे वियोग (-रूपी बेला)-का अंकुर उत्पन्न हो गया। जैसे रसायन बनानेवाला स्वर्णके लिये पारेको अग्नि लगा देता है। जब (सोना बनवानेवाला) मन लगाकर (उत्साहसे उसे) देखने लगता है, तब (झट) कह देता है—(हाय!) शीशी फूट गयी। (अथवा) जैसे मल्लाहके बिना कोई सुन्दरी (पति-गृह जाते समय) किसी एक नौकामें बैठ जाय और डूबने लगे, उस समय उसका शरीर थाह न देख सके और इस प्रकार पतिसे भी दैव उसे मिलने न दे। इसी प्रकार लड़-मरकर (बड़े कष्टसे) झगड़ा करके (लोगोंकी बातें अनसुनी करके) कुछ भूमि (श्यामसुन्दररूपी आधार) पायी और यश तथा अपयश (लोगोंकी निन्दा-प्रशंसा)-में समय बिताया; पर अब फल (परिणाम) पाकर कहती हैं—सब ककड़ियाँ कड़वी ही उत्पन्न हुई हैं (अन्ततः दुःख ही मिला है)।