राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(८७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलत गुपाल के सब चले।
यह प्रीतम सौं प्रीति निरंतर, रहे न अरध-पले॥
धीरज पहिल करी चलिबे की, जैसी करत भले।
धीर चलत मेरे नैननि देखे, तिहिं छिन आँसु हले॥
आँसु चलत मेरे बलयनि देखे, भए अंग सिथिले॥
मन चलि रह्यौ हुतौ पहलैहीं, चले सबै बिमले।
एक न चले प्रान सूरज-प्रभु, असलेहु साल सले॥
मूल
चलत गुपाल के सब चले।
यह प्रीतम सौं प्रीति निरंतर, रहे न अरध-पले॥
धीरज पहिल करी चलिबे की, जैसी करत भले।
धीर चलत मेरे नैननि देखे, तिहिं छिन आँसु हले॥
आँसु चलत मेरे बलयनि देखे, भए अंग सिथिले॥
मन चलि रह्यौ हुतौ पहलैहीं, चले सबै बिमले।
एक न चले प्रान सूरज-प्रभु, असलेहु साल सले॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) गोपालके जाते ही सब चले गये, यह प्रियतमसे निरन्तर रहनेवाला प्रेम आधे पल भी नहीं रहा। चलनेमें धैर्यने पहले (प्रथमता प्राप्त) की (वह पहले गया) जैसा कि भले (चतुर) लोग करते हैं; और नेत्रोंने धैर्यको जाते देखा तो उसी क्षण (उनसे) आँसू चल पड़े। मेरे हस्त-पाद-कटकादिने आँसुओंको चलते देखा तो वे सारे-के-सारे शिथिल (ढीले) हो गये। मन तो पहले ही चल पड़ा था, (शेष) सब भी निर्मल भावसे चले गये; किंतु स्वामीके जानेपर भी एकमात्र प्राण नहीं चला और (नित्य) असहनीय (सहनेके अयोग्य) वियोगके शूलसे विद्ध होता रहता है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(८८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोग सब कहत सयानी बातैं।
कहतहिं सुगम, करत नहिं आवैं, सोचि रहति हैं तातैं॥
कहत आगि चंदन-सी सीरी, सती जानि उमहै।
समाचार ताते अरु सीरे, पाछैं जाइ लहै॥
कहत सबै संग्राम सुगम अति, कुसुम लता करबार।
सूरदास सिर देत सूरमा, सोइ जानै ब्यौहार॥
मूल
लोग सब कहत सयानी बातैं।
कहतहिं सुगम, करत नहिं आवैं, सोचि रहति हैं तातैं॥
कहत आगि चंदन-सी सीरी, सती जानि उमहै।
समाचार ताते अरु सीरे, पाछैं जाइ लहै॥
कहत सबै संग्राम सुगम अति, कुसुम लता करबार।
सूरदास सिर देत सूरमा, सोइ जानै ब्यौहार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) लोग (तो) सब चतुराईकी बातें कहते हैं; पर वे बातें कहनेमें ही सुगम हैं, करनेमें नहीं आतीं, इसीलिये (वे) मनमें सोची जा सकती हैं। कहते हैं कि पतिव्रता स्त्री अग्निको चन्दन-सी शीतल समझकर उमंगमें भर जाती है; किंतु वह उष्ण है या शीतल, इसका पता तो पीछे जाकर पाती है। सभी कहते हैं कि युद्ध करना अत्यन्त सरल है और तलवार तो पुष्पलताके समान है; किंतु जो योद्धा (युद्धमें) अपना मस्तक देता है, वही (युद्धका) व्यवहार (वास्तविक रूप) जानता है।
विषय (हिन्दी)
(८९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बातन सब कोउ जिय समुझावै।
जिहि बिधि मिलनि मिलैं वे माधो, सो बिधि कोउ न बतावै॥
जद्यपि जतन अनेक सोचि-पचि, तिरिया मन बिरमावै।
तद्यपि हठी हमारे नैना, और न देख्यौ भावै॥
बासर-निसा प्रान-बल्लभ तजि, रसना और न गावै।
सूरदास-प्रभु प्रेमहिं लगि कैं, कहिऐ जो कहि आवै॥
मूल
बातन सब कोउ जिय समुझावै।
जिहि बिधि मिलनि मिलैं वे माधो, सो बिधि कोउ न बतावै॥
जद्यपि जतन अनेक सोचि-पचि, तिरिया मन बिरमावै।
तद्यपि हठी हमारे नैना, और न देख्यौ भावै॥
बासर-निसा प्रान-बल्लभ तजि, रसना और न गावै।
सूरदास-प्रभु प्रेमहिं लगि कैं, कहिऐ जो कहि आवै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) सब लोग बातोंसे हमारे मनको समझाते हैं; किंतु जिस विधिसे वे माधव मिलें वह विधि (रास्ता) कोई नहीं बतलाता। यद्यपि हम स्त्रियाँ अनेक उपाय सोच-सोचकर थक जाती हैं तथा मनको अनेक कामोंमें लगाकर बहलाती हैं; फिर भी हमारे हठी नेत्रोंको दूसरेका देखना अच्छा नहीं लगता। रात-दिन प्राणवल्लभ (श्यामसुन्दर)-को छोड़कर हमारी जीभ किसी दूसरेका गुणगान नहीं करती। अस्तु, स्वामीके प्रेममें लगनेपर (हमें) जिससे जो कहा जाय, (वह) कह ले।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(९०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि गए थोरे दिन की प्रीति।
कहँ वह प्रीति, कहाँ यह बिछुरनि, कह मधुबन की रीति॥
अब की बेर मिलौ मनमोहन, बहुत भई बिपरीति।
कैसैं प्रान रहत दरसन बिन, मनौ गए जुग बीति॥
कृपा करौ गिरिधर हम ऊपर, प्रेम रह्यौ तन जीति।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिन, भइ भुस पर की भीति॥
मूल
करि गए थोरे दिन की प्रीति।
कहँ वह प्रीति, कहाँ यह बिछुरनि, कह मधुबन की रीति॥
अब की बेर मिलौ मनमोहन, बहुत भई बिपरीति।
कैसैं प्रान रहत दरसन बिन, मनौ गए जुग बीति॥
कृपा करौ गिरिधर हम ऊपर, प्रेम रह्यौ तन जीति।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन बिन, भइ भुस पर की भीति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—मोहन! तुम) थोड़े दिनका प्रेम करके चले गये। कहाँ तो (आपका) वह प्रेम और कहाँ यह वियोग, क्या मथुराकी (यही) रीति है? मनमोहन! अबकी बार मिल जाओ! (यह) उलटी बात (प्रेमके विरुद्ध निष्ठुरता) बहुत हो गयी। (तुम्हारे) दर्शन बिना (हमारे) प्राण इस प्रकार छटपटाते रहते हैं मानो (दर्शन किये) युग बीत गये। गिरधरलाल! हमारे ऊपर (अब) कृपा करो; (क्योंकि तुम्हारे प्रेमने हमारे शरीरपर विजय प्राप्त कर ली (उसे जर्जर कर दिया) है, अतः तुम्हारे मिलनके बिना हम भूसेपर उठायी दीवालके (समान) अब गिरीं, तब गिरीं-जैसी हो गयी हैं।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(९१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति करि दीन्ही गरें छुरी।
जैसैं बधिक चुगाइ कपट-कन, पाछैं करत बुरी॥
मुरली मधुर चेप काँपा करि, मोर-चंद फँदवारि।
बंक बिलोकन लगीं लोभ-बस, सकीं न पंख पसारि॥
तरफत छाँड़ि गए मधुबन कौं, बहुरि न कीन्ही सार।
सूरदास-प्रभु संग कलपतरु, उलटि न बैठी डार॥
मूल
प्रीति करि दीन्ही गरें छुरी।
जैसैं बधिक चुगाइ कपट-कन, पाछैं करत बुरी॥
मुरली मधुर चेप काँपा करि, मोर-चंद फँदवारि।
बंक बिलोकन लगीं लोभ-बस, सकीं न पंख पसारि॥
तरफत छाँड़ि गए मधुबन कौं, बहुरि न कीन्ही सार।
सूरदास-प्रभु संग कलपतरु, उलटि न बैठी डार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) प्रेम करके (मोहनने हमारे) गलेपर (इस भाँति) छुरी फेर दी, जैसे व्याध पहले कपटपूर्वक दाना चुगाकर पीछे (पक्षीके साथ) घात करता है। (श्यामसुन्दरने) मधुर वंशीध्वनिरूपी गोंद लगी छड़ी (पक्षी फँसानेका बाँस)-में मयूरपिच्छकी चन्द्रिकाका फंदा बनाया। अतः हम उनकी तिरछी चितवनके लोभवश (पक्षीके समान उसमें) फँस गयीं, पंख भी फैला नहीं सकीं। (इस प्रकार फँसाकर वे हमें) तड़पती छोड़कर मथुरा चले गये और फिर देखभाल (-तक) नहीं की, जिससे हम अपने स्वामीके समागमरूपी कल्पवृक्षकी डालपर फिर न बैठ सकीं (उनका साथ फिर नहीं मिला)।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(९२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखौ, माधौ की मित्राइ।
आई उघरि कनक-कलई-सी, दै निजु गए दगाइ॥
हम जाने हरि हितू हमारे, उनके चित्त ठगाइ।
छाँड़ी सुरति सबै ब्रज-कुल की, निठुर लोग भए माइ॥
प्रेम निबाहि कहा वे जानैं, साँचे ही अहिराइ।
सूरदास बिरहिनी बिकल-मति, कर मींजै पछिताइ॥
मूल
देखौ, माधौ की मित्राइ।
आई उघरि कनक-कलई-सी, दै निजु गए दगाइ॥
हम जाने हरि हितू हमारे, उनके चित्त ठगाइ।
छाँड़ी सुरति सबै ब्रज-कुल की, निठुर लोग भए माइ॥
प्रेम निबाहि कहा वे जानैं, साँचे ही अहिराइ।
सूरदास बिरहिनी बिकल-मति, कर मींजै पछिताइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—सखी!) माधवकी मित्रता (तो) देखो, (किसी वस्तुपर चढ़ी) सोनेकी कलई (मुलम्मे)-के उतर जानेपर (असली वस्तु)-के प्रकट हो जानेके समान उसका वास्तविक रूप सामने आ गया। वे स्वयं हमें धोखा दे गये। हम तो समझती थीं कि श्यामसुन्दर हमारे हितैषी हैं; किंतु उनके चित्तमें (हमें) ठगनेका भाव था। अस्तु, सखी! वे दोनों निष्ठुर हो गये और सभी व्रजकुलका ध्यान (उन्होंने) छोड़ दिया। वे, भला, प्रेमका निर्वाह करना क्या जानें, जो नाग (सर्पोंके राजा शेष) हैं। सूरदासजी कहते हैं कि इस प्रकार वियोगिनीकी बुद्धि व्याकुल हो रही है और वह हाथ मल-मलकर पश्चात्ताप कर रही है।
राग कान्हरौ
विषय (हिन्दी)
(९३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे हम नहिं जाने स्यामहि।
सेवा करत करी उन्ह ऐसी, गई जाति-कुल-नामहि॥
तन-मन प्रीति लाइ जो तोरै, कौन भलाई तामहिं।
वे का जानैं पीर पराई, लुब्धे अपने कामहिं॥
नगर-नारि-रति के रति-नागर, रते कूबिजा बामहिं।
अंतहुँ सूर सोइ पै प्रगटै, होइ प्रकृति जो जा महिं॥
मूल
ऐसे हम नहिं जाने स्यामहि।
सेवा करत करी उन्ह ऐसी, गई जाति-कुल-नामहि॥
तन-मन प्रीति लाइ जो तोरै, कौन भलाई तामहिं।
वे का जानैं पीर पराई, लुब्धे अपने कामहिं॥
नगर-नारि-रति के रति-नागर, रते कूबिजा बामहिं।
अंतहुँ सूर सोइ पै प्रगटै, होइ प्रकृति जो जा महिं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) हमने श्यामसुन्दरको ऐसा (निष्ठुर) नहीं समझा था—उन्होंने सेवा करते हुए (हमारे साथ) ऐसा व्यवहार किया, जिससे हम जाति, कुल तथा नाम (यश)-से च्युत हो गयीं। जो कोई तन-मनसे प्रेम करके फिर उसे तोड़ दे, उसमें क्या साधुता है? वे भला, दूसरेकी पीड़ा क्या जानें, जो अपने काम (स्वार्थ)-पर ही लुभाये रहते हैं। अब तो (वे) नगरकी स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा करनेमें अत्यन्त क्रीड़ाचतुर हो गये हैं और कुब्जा (-जैसी) स्त्रीमें अनुरक्त हो गये हैं। जिसका जैसा स्वभाव होता है, अन्तमें वही सामने आता है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(९४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकहिं बेर दई सब ठेरी।
तब कित डोरि लगाइ, चोरि मन, मुरलि अधर धरि टेरी॥
बाट-घाट बीथी-ब्रज घर-बन, संग लगाए फेरी।
तिन्ह की यह करि गए पलक में, पारि बिरह-दुख बेरी॥
जौ पै चतुर सुजान कहावत, गही समझियौ मेरी।
बहुरि न सूर पाइहौ हम-सी, बिन दामन की चेरी॥
मूल
एकहिं बेर दई सब ठेरी।
तब कित डोरि लगाइ, चोरि मन, मुरलि अधर धरि टेरी॥
बाट-घाट बीथी-ब्रज घर-बन, संग लगाए फेरी।
तिन्ह की यह करि गए पलक में, पारि बिरह-दुख बेरी॥
जौ पै चतुर सुजान कहावत, गही समझियौ मेरी।
बहुरि न सूर पाइहौ हम-सी, बिन दामन की चेरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) एक ही बार जब हमें सब प्रकारसे धक्का देना था (उपेक्षा कर देनी थी), तब उस समय क्यों ओठोंपर वंशी रख तथा उसे बजा प्रेमकी डोरी (फंदा) लगाकर हमारा मन चुराया। (जिनके साथ) मार्गोंमें, घाटोंमें, गलियोंमें, ग्राममें, घरमें एवं वनमें फेरी (चक्कर) लगाया करते थे, उन्हींको वियोगरूपी दुःखकी बेड़ियाँ डालकर एक क्षणमें यह अवस्था कर गये! यदि वे समझदार एवं चतुर कहाते हों तो यह मेरी (कही) बात पक्की समझना कि हमारे समान बिना मूल्यकी दासियाँ फिर नहीं पाओगे।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(९५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब तौ ऐसेई दिन मेरे।
सुनि री सखी, दोष नहिं काहू, हरि हित-लोचन फेरे॥
मृग-मद मलय कपूर कुमकुमा, ए सब सत्य तचे रे।
मंद पवन, ससि, कुसुम सुकोमल, तेउ देखियत करेरे॥
बन-बन बसत मोर, चातक, पिक, आपुन दिए बसेरे।
अब सोइ बकत जाहि जोइ भावै, बरजे रहत न मेरे॥
जे द्रुम सींचि-सींचि अपने कर, किए बढ़ाइ बड़ेरे।
तेइ सुनि सूर किसल गिरिबर भए, आनि नैन-मग घेरे॥
मूल
अब तौ ऐसेई दिन मेरे।
सुनि री सखी, दोष नहिं काहू, हरि हित-लोचन फेरे॥
मृग-मद मलय कपूर कुमकुमा, ए सब सत्य तचे रे।
मंद पवन, ससि, कुसुम सुकोमल, तेउ देखियत करेरे॥
बन-बन बसत मोर, चातक, पिक, आपुन दिए बसेरे।
अब सोइ बकत जाहि जोइ भावै, बरजे रहत न मेरे॥
जे द्रुम सींचि-सींचि अपने कर, किए बढ़ाइ बड़ेरे।
तेइ सुनि सूर किसल गिरिबर भए, आनि नैन-मग घेरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब तो मेरे दिन ऐसे ही बीतेंगे। सखी! सुन, इसमें किसीका दोष नहीं; श्यामसुन्दरने ही प्रेमपूर्ण नेत्र (मेरी ओरसे) घुमा लिये। सच कहती हूँ, (उसी दिनसे) कस्तूरी, चन्दन, कपूर और कुंकुम (केसर)—ये सब मुझे तप्त करते हैं और मन्द वायु, चन्द्रमा तथा अत्यन्त कोमल पुष्प भी (मुझे) कठोर दिखायी पड़ते हैं। प्रत्येक वनमें मयूर, चातक और कोकिल बसते हैं, उन्होंने ही (वहाँ इन्हें) बसेरा (निवास) दिया था। (उनमेंसे) जिसे जो अच्छा लगता है, वही अब बकता (बोलता) रहता है; मेरे मना करनेसे कोई मानते नहीं। जिन वृक्षोंको (हमने) अपने हाथोंसे सींच-सींचकर बढ़ाते हुए बड़ा किया था, सुनो, (अब) उनके ही किसलय (नवीन पत्ते) मेरे लिये भारी पर्वत हो मेरे नेत्रोंका मार्ग आकर रोके रहते हैं (उन्हें देखकर नेत्र दुःखी होते हैं)।
राग ईमन
विषय (हिन्दी)
(९६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाथ, अनाथन की सुधि लीजै।
गोपी ग्वाल, गाइ, गोसुत सब, दीन-मलीन दिनहिं दिन छीजै॥
नैननि जलधारा बाढ़ी अति, बूड़त ब्रज किन कर गहि लीजै।
इतनी बिनती सुनौ हमारी, बारकहूँ पतियाँ लिखि दीजै॥
चरन-कमल-दरसन नव नौका, करुनासिंधु जगत जस लीजै।
सूरदास-प्रभु आस मिलन की, एक बार आवन ब्रज कीजै॥
मूल
नाथ, अनाथन की सुधि लीजै।
गोपी ग्वाल, गाइ, गोसुत सब, दीन-मलीन दिनहिं दिन छीजै॥
नैननि जलधारा बाढ़ी अति, बूड़त ब्रज किन कर गहि लीजै।
इतनी बिनती सुनौ हमारी, बारकहूँ पतियाँ लिखि दीजै॥
चरन-कमल-दरसन नव नौका, करुनासिंधु जगत जस लीजै।
सूरदास-प्रभु आस मिलन की, एक बार आवन ब्रज कीजै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) नाथ! हम अनाथोंकी सुधि लो; (अब व्रजमें) गोपियाँ, गोपकुमार, गायें और बछड़े—सब दीन-मलीन होकर दिनोदिन दुर्बल होते जा रहे हैं। नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा इतनी बढ़ गयी है कि उसमें व्रज डूब रहा है; अतः उसे हाथ पकड़कर क्यों नहीं बचा लेते? (अरे!) हमारी इतनी-सी प्रार्थना सुन लो कि (कम-से-कम) एक बार तो पत्र लिख दो। हे करुणासागर! आपके चरण-कमलोंका दर्शन ही (हमारे लिये) नवीन नौका है, अतः (उसमें बैठा लो अर्थात् दर्शन देकर) संसारमें सुयश लीजिये। आपके मिलनेकी हमें आशा (लग रही) है, (इसलिये) एक बार व्रजमें आ जाइये।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(९७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिखियति कालिंदी अति कारी।
अहो पथिक कहियो उन हरि सौं, भई बिरह-जुर-जारी॥
गिरि-प्रजंक तैं गिरति धरनि धँसि, तरँग तरफ तन भारी।
तट बारू, उपचार चूर, जल-पूर प्रस्वेद पनारी॥
बिगलित कच-कुस काँस कूल पर, पंक जु काजल सारी।
भौंर भ्रमत अति फिरति भ्रमित गति, दिसि-दिसि दीन दुखारी॥
निसि-दिन चकई पिय जु रटति है, भई मनौ अनुहारी।
सूरदास-प्रभु जो जमुना-गति, सो गति भई हमारी॥
मूल
दिखियति कालिंदी अति कारी।
अहो पथिक कहियो उन हरि सौं, भई बिरह-जुर-जारी॥
गिरि-प्रजंक तैं गिरति धरनि धँसि, तरँग तरफ तन भारी।
तट बारू, उपचार चूर, जल-पूर प्रस्वेद पनारी॥
बिगलित कच-कुस काँस कूल पर, पंक जु काजल सारी।
भौंर भ्रमत अति फिरति भ्रमित गति, दिसि-दिसि दीन दुखारी॥
निसि-दिन चकई पिय जु रटति है, भई मनौ अनुहारी।
सूरदास-प्रभु जो जमुना-गति, सो गति भई हमारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) पथिक! उन श्यामसुन्दरसे कहना कि (आजकल) यमुना अत्यन्त काली दिखायी देती है; क्योंकि वह आपके वियोगरूपी ज्वरके द्वारा जलायी गयी है। वह पर्वतरूपी पलँगसे पृथ्वीमें घँसती-सी गिरती है और उसके शरीरमें तरंगरूपी अत्यन्त तड़पन है। (उसके) तटपर जो रेत है, वही औषधका चूर्ण है तथा जलका प्रवाह (ही) पसीनेकी धारा बह रही है। उसके किनारे जो कुश तथा काँस हैं, वे ही उसके बिखरे केश और कीचड़ ही (उसकी) मैली साड़ी है। (धारामें) जो भँवरें पड़ती हैं, वही (उसका) उद्भ्रान्त दशामें अत्यन्त दीन तथा दुःखी होकर सब दिशाओंमें भटकते फिरना है। रात-दिन चक्रवाकी जो ‘पी-पी’ रटती है, वही मानो उसकी दशा सूचित करनेवाली है। स्वामी! जो दशा यमुनाकी है, वही दशा (आपके बिना) हमारी हो गयी है।
विषय (हिन्दी)
(९८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
परेखौ कौन बोल कौ कीजै।
ना हरि! जाति न पाँति हमारी, कहा मानि दुख लीजै॥
नाहिन मोर-चंद्रिका माथें, नाहिन उर बनमाल।
नहिं सोभित पुहुपन के भूषन, सुंदर स्याम तमाल॥
नंद-नँदन, गोपी-जन-बल्लभ, अब नहिं कान्ह कहावत।
बासुदेव, जादव-कुल-दीपक, बंदी जन बरनावत॥
बिसरॺौ सुख नातौ गोकुल कौ, और हमारे अंग।
सूर-स्याम वह गई सगाई, वा मुरली के संग॥
मूल
परेखौ कौन बोल कौ कीजै।
ना हरि! जाति न पाँति हमारी, कहा मानि दुख लीजै॥
नाहिन मोर-चंद्रिका माथें, नाहिन उर बनमाल।
नहिं सोभित पुहुपन के भूषन, सुंदर स्याम तमाल॥
नंद-नँदन, गोपी-जन-बल्लभ, अब नहिं कान्ह कहावत।
बासुदेव, जादव-कुल-दीपक, बंदी जन बरनावत॥
बिसरॺौ सुख नातौ गोकुल कौ, और हमारे अंग।
सूर-स्याम वह गई सगाई, वा मुरली के संग॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) किस बातका पश्चात्ताप करती हो? श्यामसुन्दर हमारी जाति-पाँतिके तो हैं नहीं, फिर क्या (सम्बन्ध) मानकर हम दुःखी हों। अब न तो उनके मस्तकपर मयूरपिच्छकी चन्द्रिका है और न हृदयपर वनमाला। अब तमाल वृक्षके समान श्यामसुन्दरके सुन्दर शरीरपर पुष्पोंके आभूषण शोभित नहीं होते। (यही नहीं) अब कन्हैया ‘नन्दनन्दन’ तथा ‘गोपी-जन-वल्लभ’ (भी) नहीं कहलाते, अपितु बंदीजनोंके द्वारा वासुदेव, यादवकुलके दीपक कहलाकर अपना वर्णन कराते हैं। उन्हें (अब) गोकुलका सुखद सम्बन्ध तथा हमारे शरीरका ध्यान भूल गया। श्यामसुन्दरके साथ हमारा वह सम्बन्ध तो मुरलीके साथ (जबसे उन्होंने मुरली छोड़ी तबसे) ही छूट गया।
विषय (हिन्दी)
(९९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनियत मुरली देखि लजात।
दूरहिं तैं सिंघासन बैठे, सीस नाइ मुसकात॥
मोर-पच्छ कौ बिजन बिलोकत, बहरावत कहि बात।
जौ कहुँ सुनत हमारी चरचा, चालतहीं चपि जात॥
सुरभी लिखत चित्र की रेखा, सोचें हू सकुचात।
सूरदास जो ब्रजहि बिसारॺौ दूध-दही कत खात॥
मूल
सुनियत मुरली देखि लजात।
दूरहिं तैं सिंघासन बैठे, सीस नाइ मुसकात॥
मोर-पच्छ कौ बिजन बिलोकत, बहरावत कहि बात।
जौ कहुँ सुनत हमारी चरचा, चालतहीं चपि जात॥
सुरभी लिखत चित्र की रेखा, सोचें हू सकुचात।
सूरदास जो ब्रजहि बिसारॺौ दूध-दही कत खात॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) सुना जाता है कि (वहाँ) श्यामसुन्दर (अब) वंशी देखकर लजा जाते और लोगोंसे दूर ही सिंहासनपर बैठे सिर झुकाये मुसकराते हैं (खुलकर हँसते भी नहीं)। मयूरपिच्छका बना पंखा देखकर (अन्य) बातोंमें लगकर अपने मनको बहलाते (दूसरी ओर ले जाते) हैं; और यदि कहीं हमारी चर्चा सुनते हैं तो (उस) चर्चाके चलते ही लज्जित हो जाते हैं। (यही नहीं, वे) चित्रकी रेखाओंमें बनायी जानेवाली गायकी (बात) सोचकर संकुचित हो जाते हैं। जिन्होंने व्रजको (इस प्रकार) विस्मृत कर दिया है तो (वे) दूध-दही कैसे खाते होंगे (अर्थात् उन्हें देखकर भी डर जाते होंगे)।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१००)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहा परदेसी कौ पतियारौ।
प्रीति बढ़ाइ चले मधुबन कौं, बिछुरि दियौ दुख भारौ॥
ज्यौं जल-हीन मीन तरफत, त्यौं ब्याकुल प्रान हमारौ।
सूरदास-प्रभु के दरसन बिनु, दीपक भौन अँध्यारौ॥
मूल
कहा परदेसी कौ पतियारौ।
प्रीति बढ़ाइ चले मधुबन कौं, बिछुरि दियौ दुख भारौ॥
ज्यौं जल-हीन मीन तरफत, त्यौं ब्याकुल प्रान हमारौ।
सूरदास-प्रभु के दरसन बिनु, दीपक भौन अँध्यारौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) परदेशीका विश्वास क्या, (वे तो हमसे) प्रेम बढ़ाकर मथुरा चले गये और हमें वियोगका भारी दुःख दे गये। जैसे जलसे रहित (निकाली हुई) मछली तड़पती है, वैसे ही उनके बिना हमारे प्राण व्याकुल हो रहे हैं। (आज) स्वामीके दर्शनरूपी दीपकके बिना (व्रजरूपी) भवनमें अन्धकार हो गया है।
विषय (हिन्दी)
(१०१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहा परदेसी कौ पतियारौ।
पीछैं ही पछिताइ मिलौगे, प्रीति बढ़ाइ सिधारौ॥
ज्यौं मृग नाद रीझि तन दीन्हौ, लाग्यौ बान बिषारौ।
प्रीतिहि लिऐं प्रान बस कीन्हौ, हरि तुम्ह यहै बिचारौ॥
बलि अरु बालि सुपनखा बपुरी, हरि तैं कहा दुरायौ।
सूरदास-प्रभु जानि भले हौं, भरॺौ भराइ ढरायौ॥
मूल
कहा परदेसी कौ पतियारौ।
पीछैं ही पछिताइ मिलौगे, प्रीति बढ़ाइ सिधारौ॥
ज्यौं मृग नाद रीझि तन दीन्हौ, लाग्यौ बान बिषारौ।
प्रीतिहि लिऐं प्रान बस कीन्हौ, हरि तुम्ह यहै बिचारौ॥
बलि अरु बालि सुपनखा बपुरी, हरि तैं कहा दुरायौ।
सूरदास-प्रभु जानि भले हौं, भरॺौ भराइ ढरायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) परदेशीका क्या विश्वास; क्योंकि वह प्रेम बढ़ाकर चला (तो) जायगा और पीछे केवल पश्चात्ताप मिलेगा। जैसे हिरनने संगीतके स्वरपर मुग्ध होकर शरीर न्योछावर कर दिया, क्योंकि उसे (प्रेमके कारण ही व्याधका) विषैला बाण लगा, उसी प्रकार श्यामसुन्दर! तुमने हमारे प्राणोंको अपने प्रेममें लगाकर वशमें कर लिया (इसका) विचार तो करो। हे हरि! राजा बलिने, कपिराज वालीने तथा बेचारी शूर्पणखाने (तुम)-से क्या छिपाया था (जो उनके साथ निष्ठुर व्यवहार किया)? स्वामी! मैंने भला जानकर (ही तुम्हें अपने अन्तःकरणमें) भरा (संचित किया) था, किंतु (तुमने) अपने स्वरूपको भर (पूर्ण कर)-के ढुलका दिया—अपने-आपको खींच लिया।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१०२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी री, हरिहि दोष जनि देहु।
तातैं मन इतनौ दुख पावत, मेरौइ कपट सनेहु॥
बिद्यमान अपने इन नैननि, सूनौ देखति गेहु।
तदपि, सखी! ब्रजनाथ बिना उर, फटि न होत बड़ बेहु॥
कहि-कहि कथा पुरातन सजनी, अब नहिं अंतहि लेहु।
सूरदास तन यौं जु करौंगी, ज्यौं फिरि फागुन मेहु॥
मूल
सखी री, हरिहि दोष जनि देहु।
तातैं मन इतनौ दुख पावत, मेरौइ कपट सनेहु॥
बिद्यमान अपने इन नैननि, सूनौ देखति गेहु।
तदपि, सखी! ब्रजनाथ बिना उर, फटि न होत बड़ बेहु॥
कहि-कहि कथा पुरातन सजनी, अब नहिं अंतहि लेहु।
सूरदास तन यौं जु करौंगी, ज्यौं फिरि फागुन मेहु॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई दूसरी गोपी कहती है—) सखी! श्यामसुन्दरको दोष मत दो, मैं अपने चित्तमें इसीलिये इतना दुःख पाती हूँ कि मेरा प्रेम ही कपटपूर्ण था। अपने इन नेत्रोंके रहते घरको सूना देखती हूँ; फिर भी, सखी! व्रजनाथके बिना हृदय फटकर बड़ा नहीं हो जाता। सखी! बार-बार (श्यामसुन्दरके मिलनकी) पुरानी कथाएँ कह-कहकर अब प्राण मत लो। अब मैं अपने शरीरको ऐसा बना लूँगी, जैसे फाल्गुनमें फिर वर्षा (अर्थात् जीवनको नये ढंगसे प्रारम्भ करना है, जैसे फाल्गुनमें पुनः वर्षा आ जाती है)।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१०३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब कछु औरहि चाल चली।
मदन गुपाल बिना या ब्रज की, सबै बात बदली॥
गृह कंदरा समान, सेज भइ सिंघहु चाहि बली।
सीतल चंद सु तौ सखि कहियत, तातैं अधिक जली॥
मृगमद मलय कपूर कुमकुमा, सींचति आनि अली।
एक न फुरत बिरह जुर तैं कछु, लागत नाहिं भली॥
अमृत-बेलि सूर के प्रभु बिनु, अब बिष फलनि फली।
हरि-बिधु बिमुख नाहिनै बिगसत, मनसा कुमुद-कली॥
मूल
अब कछु औरहि चाल चली।
मदन गुपाल बिना या ब्रज की, सबै बात बदली॥
गृह कंदरा समान, सेज भइ सिंघहु चाहि बली।
सीतल चंद सु तौ सखि कहियत, तातैं अधिक जली॥
मृगमद मलय कपूर कुमकुमा, सींचति आनि अली।
एक न फुरत बिरह जुर तैं कछु, लागत नाहिं भली॥
अमृत-बेलि सूर के प्रभु बिनु, अब बिष फलनि फली।
हरि-बिधु बिमुख नाहिनै बिगसत, मनसा कुमुद-कली॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब कुछ दूसरी ही चाल (प्रथा) चल पड़ी है, (देखो न,) मदनगोपालके बिना इस व्रजकी सब बात बदल गयी है। घर पर्वतकी गुफाके समान हो गया और शय्या सिंहसे भी अधिक कठोर (असह्य) हो गयी है। सखी! चन्द्रमा शीतल कहा जाता है, पर मैं उससे अधिक जली (संतप्त) हूँ। सखियाँ (मुझे) कस्तूरी, चन्दन, कपूर, कुंकुम (केसर) लाकर सींचती (उनका लेप करती) हैं; किंतु वियोगके ज्वरके कारण उनमेंसे एक भी लाभ नहीं करता और न वह अच्छा ही लगता है। स्वामीके बिना (प्रेमकी) अमृतलता अब विषके फल फल रही है और न श्यामसुन्दरके चन्द्रमुखके बिना मन (-रूपी) कुमुदिनीकी कलिका विकसित होती है।
विषय (हिन्दी)
(१०४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब वे बातैं उलटि गईं।
जिन्ह बातन लागत सुख आली, तेऊ दुसह भईं॥
रजनी जाम स्याम-सुंदर सँग, अरु पावस की गरजनि।
सुख-समूह की अवधि माधुरी, पिय रस-बस की तरजनि॥
मोर-पुकार, गुहार कोकिला, अलि-गुंजार सुहाई।
अब लागति पुकार दादुर सम, बिनही कुँवर कन्हाई॥
चंदन, चंद, समीर अगिन सम, तनहि देत दव लाई।
कालिंदी अरु कमल, कुसुम सब, दरसन ही दुखदाई॥
सरद बसंत, सिसिर अरु ग्रीषम, हिम-रितु की अधिकाई।
पावस जरैं सूर के प्रभु बिन, तरफत रैनि बिहाई॥
मूल
अब वे बातैं उलटि गईं।
जिन्ह बातन लागत सुख आली, तेऊ दुसह भईं॥
रजनी जाम स्याम-सुंदर सँग, अरु पावस की गरजनि।
सुख-समूह की अवधि माधुरी, पिय रस-बस की तरजनि॥
मोर-पुकार, गुहार कोकिला, अलि-गुंजार सुहाई।
अब लागति पुकार दादुर सम, बिनही कुँवर कन्हाई॥
चंदन, चंद, समीर अगिन सम, तनहि देत दव लाई।
कालिंदी अरु कमल, कुसुम सब, दरसन ही दुखदाई॥
सरद बसंत, सिसिर अरु ग्रीषम, हिम-रितु की अधिकाई।
पावस जरैं सूर के प्रभु बिन, तरफत रैनि बिहाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) अब वे बातें (ही) उलटी हो गयी हैं; सखी! जिन बातोंसे (पहले) सुख मिलता था, वे भी अब दुस्सह (कष्टदायी) हो गयी हैं। श्यामसुन्दरके साथ रातके प्रहरमें रहते समय वर्षा-ऋतुकी गर्जना भी आनन्दसमूहकी (अपरिमित) सीमा थी तथा प्रियतमका प्रेमवश डाँटना भी बड़ा मधुर लगता था। (यही नहीं, उस समय) मयूरोंका पुकारना (बोलना), कोकिलका कुहकना और भौंरोंकी गुंजार सुहावनी लगती थी; किंतु अब वे ही कुँवर कन्हैयाके बिना सब मेढकके टर्राने-जैसी लगती हैं। चन्दन, चन्द्रमा और पवन भी अग्निके समान शरीरमें ज्वाला उत्पन्न कर देते हैं तथा यमुना और कमलके पुष्प—सब देखनेमें ही दुःखदायक लगते हैं। शरद्, वसन्त, शिशिर और ग्रीष्म (-ऋतुओंमें) हेमन्त-ऋतुकी ही अधिकता रहने लगी है तथा वर्षा-ऋतुमें (मैं) स्वामीके बिना जलती रहती हूँ तथा तड़पते हुए रात्रि व्यतीत करती हूँ।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(१०५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब वे मधुपुरी हैं माधौ!
जिन कौ बदन बिलोकत नैनन, जुग होतौ पल आधौ॥
जिहिं कारन आरिन गइ घर तैं, जिय पद-कमलनि बाँधौ।
हिय अंतर चित चाह दाह सौं, लाज महा बन दाधौ॥
सो सपनेहूँ दीठि न आवत, जो इहिं जतनन लाधौ।
सूरदास तिहि देखन कारन, नैन मरत हैं साधौ॥
मूल
अब वे मधुपुरी हैं माधौ!
जिन कौ बदन बिलोकत नैनन, जुग होतौ पल आधौ॥
जिहिं कारन आरिन गइ घर तैं, जिय पद-कमलनि बाँधौ।
हिय अंतर चित चाह दाह सौं, लाज महा बन दाधौ॥
सो सपनेहूँ दीठि न आवत, जो इहिं जतनन लाधौ।
सूरदास तिहि देखन कारन, नैन मरत हैं साधौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब वे माधव मथुरामें हैं, जिनका श्रीमुख देखते हुए नेत्रोंको एक युग भी आधे पलके समान हो जाता था। जिनके लिये (मैं) घरसे बहुत जिद्द—हठ करके गयी और उनके चरणकमलोंमें चित्तको बाँधा (लगाया) तथा अपने हृदयके भीतर प्रेमकी ज्वालासे लज्जाके महान् वनको जला दिया, वे अब स्वप्नमें भी दिखायी नहीं पड़ते। जिन्हें इतने यत्नोंसे पाया था, अब उनको देखनेकी लालसामें ही नेत्र मरे जाते हैं।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१०६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब हौं कहा करौं री माई!
नंदनँदन देखे बिनु सजनी, पल भरि रह्यौ न जाई॥
घरके मात पिता सब त्रासत, इहिं कुल लाज लजाई।
बाहर के सब लोग हँसत हैं, कान्ह सनेहिनि आई॥
सदा रहत चित चाक-चढ़ॺौ-सौ, गृह-अँगना न सुहाई।
सूरदास गिरिधरन लाड़िले, हँसि करि कंठ लगाई॥
मूल
अब हौं कहा करौं री माई!
नंदनँदन देखे बिनु सजनी, पल भरि रह्यौ न जाई॥
घरके मात पिता सब त्रासत, इहिं कुल लाज लजाई।
बाहर के सब लोग हँसत हैं, कान्ह सनेहिनि आई॥
सदा रहत चित चाक-चढ़ॺौ-सौ, गृह-अँगना न सुहाई।
सूरदास गिरिधरन लाड़िले, हँसि करि कंठ लगाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! अब मैं क्या करूँ? सखी! नन्दनन्दनको देखे बिना मुझसे क्षणभर भी रहा नहीं जाता। माता-पिताके (साथ अन्य) घरके सब डाँटते हैं कि (तूने) इस कुलकी मर्यादाको मटियामेट कर दिया और बाहरके लोग मुझपर (यह कहकर) हँसते हैं (मेरी हँसी करते हैं) कि ‘यह कन्हैयाकी प्रेमिका आयी।’ किंतु मेरा चित्त तो सदा (कुम्हारके) चाकपर चढ़ा-जैसा (घूमता) रहता है, उसे न घर अच्छा लगता, न आँगन; क्योंकि प्यारे गिरिधारी लालने हँसकर मुझे गलेसे लगाया था।
विषय (हिन्दी)
(१०७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहिं बिरियाँ बन तैं ब्रज आवत।
दूरहि तैं वह बेनु अधर धरि, बारंबार बजावत॥
कबहुँक काहू भाँति चतुर-चित, अति ऊँचे सुर गावत।
कबहुँक लै-लै नाम मनोहर, धौरी धेनु बुलावत॥
इहिं बिधि बचन सुनाइ स्याम घन, मुरछे मदन जगावत।
आगम-सुख उपचार बिरह-जुर, बासर-अंत नसावत॥
रचि रुचि प्रेम पियासे नैननि, क्रम-क्रम बलहि बढ़ावत।
सूर सकल रस निधि सुंदर घन, आनँद प्रगट करावत॥
मूल
इहिं बिरियाँ बन तैं ब्रज आवत।
दूरहि तैं वह बेनु अधर धरि, बारंबार बजावत॥
कबहुँक काहू भाँति चतुर-चित, अति ऊँचे सुर गावत।
कबहुँक लै-लै नाम मनोहर, धौरी धेनु बुलावत॥
इहिं बिधि बचन सुनाइ स्याम घन, मुरछे मदन जगावत।
आगम-सुख उपचार बिरह-जुर, बासर-अंत नसावत॥
रचि रुचि प्रेम पियासे नैननि, क्रम-क्रम बलहि बढ़ावत।
सूर सकल रस निधि सुंदर घन, आनँद प्रगट करावत॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) इस समय ही (मोहन) वनसे व्रज आते थे। दूरसे ही वे ओठोंपर वंशी रखकर बार-बार बजाते थे। वे चतुर-हृदय कभी किसी प्रकार अत्यन्त ऊँचे स्वरसे गाते और कभी सुन्दर नाम ले-लेकर धौरी (उजली) गायको बुलाते थे। इस प्रकार घनश्याम (अपनी) वाणी सुनाकर (हमारे) मूर्छित (सुप्त) कामको जगाते तथा दिनके अन्तमें (वे) अपने आगमन सुखरूपी उपचार (औषध)-से विरहके ज्वरको नष्ट करते थे। ये घनके समान सुन्दर तथा सम्पूर्ण रसोंकी निधि धीरे-धीरे प्रेमके प्यासे नेत्रोंमें सुरुचि उत्पन्न करके उनके बलको बढ़ाते और आनन्द प्रकट कराते (आते) थे।
विषय (हिन्दी)
(१०८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहन जा दिन बनहिं न जात।
ता दिन पसु-पच्छी, द्रुम-बेली, बिन देखें अकुलात॥
देखत रूप-निधान नैन भरि, तातैं नाहिं अघात।
ते मृग तृन नहिं चरत उदर भरि, भए रहत कृस-गात॥
जे मुरली-धुनि सुनत स्रवन भरि, ते मुख फल नहिं खात।
ते खग बिपिन अधीर कीर-पिक, डोलत हैं बिललात॥
जिन बेलिन परसत कर-पल्लव, अति अनुराग चुचात।
ते सब सूखी परतिं बिटप ह्वै, जीरन से द्रुम पात॥
अति अधीर सब बिरह-सिथिल सुनि, तन की दसा हिरात।
सूरजदास मदन-मोहन बिनु, जुग सम पल हम जात॥
मूल
मोहन जा दिन बनहिं न जात।
ता दिन पसु-पच्छी, द्रुम-बेली, बिन देखें अकुलात॥
देखत रूप-निधान नैन भरि, तातैं नाहिं अघात।
ते मृग तृन नहिं चरत उदर भरि, भए रहत कृस-गात॥
जे मुरली-धुनि सुनत स्रवन भरि, ते मुख फल नहिं खात।
ते खग बिपिन अधीर कीर-पिक, डोलत हैं बिललात॥
जिन बेलिन परसत कर-पल्लव, अति अनुराग चुचात।
ते सब सूखी परतिं बिटप ह्वै, जीरन से द्रुम पात॥
अति अधीर सब बिरह-सिथिल सुनि, तन की दसा हिरात।
सूरजदास मदन-मोहन बिनु, जुग सम पल हम जात॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी! सुन,) मोहन जिस दिन वनमें नहीं जाते थे, उस दिन उन्हें देखे बिना (वनके) पशु-पक्षी तथा वृक्ष-लताएँ भी व्याकुल हो जाती थीं। वे उन सौन्दर्यनिधानको भर नेत्र देखते थे, फिर भी देखकर कभी तृप्त नहीं होते थे। (अब वे ही वनके) हिरन पेटभर घास नहीं चरते, अतः (उनके) शरीर दुर्बल बने रहते हैं। जो (पक्षी पहले) कान भरकर वंशीध्वनि सुना करते थे, (अब वे) मुखसे फल नहीं खाते और तोते एवं कोकिल आदि पक्षी अब धैर्यहीन होकर वनमें क्रन्दन करते घूमते हैं। (श्यामसुन्दरके) पल्लव-समान हाथोंसे छूनेपर जिन लताओंसे अत्यन्त अनुरागके कारण रस टपकता था, वे ही वृक्षोंसे सूखकर जीर्ण हुई गिरी जा रही हैं; (क्योंकि वे) सब अत्यन्त अधीर और वियोगसे शिथिल हैं। (उनकी यह दशा) सुनकर (मुझे अपने) शरीरकी दशा भूल जाती है। मदनमोहनके बिना हमारा एक-एक क्षण युगके समान बीतता है।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(१०९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते गुन बिसरत नाहीं उर तैं।
जे ब्रजनाथ किए सुनि सजनी, सोचि कहति हौं धुर तैं॥
मेघ कोपि ब्रज बरषन आयौ, त्रास भयौ पति सुर तैं।
बिहवल बिकल जानि नँदनंदन, करज धरॺौ गिरि तुरतैं॥
एक समै बन माँझ मनोहर, जाम रैनि रज जुर तैं।
पत्रभंग सुनि संक स्याम घन, सैन दई कर दुरतैं॥
दैत्य महाबल बहुत पठाए, कंस बली मधुपुर तैं।
सूरदास-प्रभु सबै बधे रन, कछु नहिं सरॺौ असुर तैं॥
मूल
ते गुन बिसरत नाहीं उर तैं।
जे ब्रजनाथ किए सुनि सजनी, सोचि कहति हौं धुर तैं॥
मेघ कोपि ब्रज बरषन आयौ, त्रास भयौ पति सुर तैं।
बिहवल बिकल जानि नँदनंदन, करज धरॺौ गिरि तुरतैं॥
एक समै बन माँझ मनोहर, जाम रैनि रज जुर तैं।
पत्रभंग सुनि संक स्याम घन, सैन दई कर दुरतैं॥
दैत्य महाबल बहुत पठाए, कंस बली मधुपुर तैं।
सूरदास-प्रभु सबै बधे रन, कछु नहिं सरॺौ असुर तैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! सुनो, व्रजनाथके वे उपकार जो (कृपापूर्वक उन्होंने हमपर) किये, हृदयसे ओझल नहीं होते। उन्हें सोचकर प्रारम्भसे कह रही हूँ। क्रोध करके मेघ व्रजपर वर्षा करने आये, अतः देवराज इन्द्रके कारण हम खतरेमें पड़ गये। उस समय नन्दनन्दनने हम सबको व्याकुल समझकर तुरंत गिरिगोवर्धनको नखपर उठा लिया। एक दिन चित्ताकर्षक वनमें हम सब रातके समय जुटी हुई थीं, उस समय (वहाँ) धूलि उड़ने लगी और पत्ते टूटने लगे। अतः (उन टूटते हुए पत्तोंका शब्द) सुनकर और हमें शंकित देखकर घनश्यामने हाथके इशारेसे ही उस (आँधी)-को दूर कर दिया। बलवान् कंसने मथुरासे बहुत-से अत्यन्त बलवान् दैत्य (व्रज) भेजे; किंतु हमारे स्वामीने युद्धमें उन सबको मार दिया, असुर कंससे कुछ भी करते नहीं बन पड़ा।
राग बिलावल
विषय (हिन्दी)
(११०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतने जतन काहे कौं किए।
अपनें जान जानि नँदनंदन, बहुत भयन सौं राखि लिए॥
अघ, बक, बृषभ, बच्छ, बंधन तैं, ब्याल जीति दावागि पिए।
इंद्र-मान मेट्यौ गिरि कर धरि, छिन-छिन प्रति आनंद दिए॥
हरि-बिछुरन की पीर न जानी, बचन मानि हम बादि जिए।
सूरदास अब वा लालन बिन, का न सहत या कठिन हिए॥
मूल
इतने जतन काहे कौं किए।
अपनें जान जानि नँदनंदन, बहुत भयन सौं राखि लिए॥
अघ, बक, बृषभ, बच्छ, बंधन तैं, ब्याल जीति दावागि पिए।
इंद्र-मान मेट्यौ गिरि कर धरि, छिन-छिन प्रति आनंद दिए॥
हरि-बिछुरन की पीर न जानी, बचन मानि हम बादि जिए।
सूरदास अब वा लालन बिन, का न सहत या कठिन हिए॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—‘सखी!) अपने जन समझकर नन्दनन्दनने बहुत-से भयोंसे हमारी रक्षा की; किंतु (जब अन्तमें त्यागना ही था तो हमारी रक्षाके लिये) इतने प्रयत्न (उन्होंने) किसलिये किये? अघासुर, बकासुर, वृषभासुर, वत्सासुर तथा वरुण-पाशसे बचाया, (यही नहीं उन्होंने) कालियनागको जीता, दावाग्निका पान किया, हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाकर इन्द्रका अभिमान दूर किया और (इस प्रकार) प्रत्येक क्षण हमें आनन्द दिया। किंतु श्यामसुन्दरके वियोगकी पीड़ा (उस समय) हमने समझी नहीं और उनके (लौटनेकी) बात मान हम व्यर्थ जीती रहीं। अब उन्हीं लालनके बिना (यह हमारा) कठिन हृदय क्या (कष्ट) नहीं सहता?
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१११)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलि बिछुरन की बेदन न्यारी।
जाहि लगै सोई पै जानै, बिरह-पीर अति भारी॥
जब यह रचना रची बिधाता, तबहीं क्यौं न सँभारी।
सूरदास-प्रभु काहे जिवाईं, जनमत ही किन मारी॥
मूल
मिलि बिछुरन की बेदन न्यारी।
जाहि लगै सोई पै जानै, बिरह-पीर अति भारी॥
जब यह रचना रची बिधाता, तबहीं क्यौं न सँभारी।
सूरदास-प्रभु काहे जिवाईं, जनमत ही किन मारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) मिलकर बिछुड़नेकी वेदना अलग ही (बहुत दारुण) हुआ करती है, यह वियोगकी अत्यन्त दारुण पीड़ा जिसे लगती (होती) है, वही (उसे) जानता है। जब ब्रह्माने यह (वियोगकी) रचना रची (बनायी) थी, तभी उसका कोई प्रतीकार क्यों नहीं निश्चित किया और हमारे स्वामीने हमें जीवनदान क्यों दिया, जन्मते ही मार क्यों नहीं डाला?
विषय (हिन्दी)
(११२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिछुरें स्याम, बहुत दुख पायौ।
दिन-दिन पीर होति अति गाढ़ी, पल-पल बरष बिहायौ॥
ब्याकुल भईं सकल ब्रज-बनिता, नैक सँदेस न पायौ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन कौं, नैनन अति झर लायौ॥
मूल
बिछुरें स्याम, बहुत दुख पायौ।
दिन-दिन पीर होति अति गाढ़ी, पल-पल बरष बिहायौ॥
ब्याकुल भईं सकल ब्रज-बनिता, नैक सँदेस न पायौ।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे मिलन कौं, नैनन अति झर लायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दरसे वियोग होनेके कारण मैंने बहुत दुःख पाया। दिनोदिन (उसकी) पीड़ा अत्यन्त असह्य होती जाती है, जिससे प्रत्येक पल वर्षके समान व्यतीत होता है। (हम) सब व्रजकी नारियाँ व्याकुल हो गयीं, किंतु (उनका) तनिक भी संदेश नहीं मिला। स्वामी! तुमसे मिलनेके लिये (हमारे) नेत्रोंने (अश्रुओंकी) प्रबल झड़ी लगा दी है।
राग बिलावल
विषय (हिन्दी)
(११३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह कुमया जौ तबहीं करते।
तौ इन्ह पै कत जियत आजु लौं, गोकुल-लोग उबरते॥
केसी, तृनाबर्त, बृषभासुर, कहौ कौन बिधि मरते।
ब्योम, प्रलंब, ब्याल, दावानल, हरि बिन कौन निबरते॥
संखचूर, बक, बकी, अघासुर, बरुन, इंद्र क्यौं टरते।
सूर-स्याम तौ घोष कहा, जौ इती निठुरई धरते॥
मूल
यह कुमया जौ तबहीं करते।
तौ इन्ह पै कत जियत आजु लौं, गोकुल-लोग उबरते॥
केसी, तृनाबर्त, बृषभासुर, कहौ कौन बिधि मरते।
ब्योम, प्रलंब, ब्याल, दावानल, हरि बिन कौन निबरते॥
संखचूर, बक, बकी, अघासुर, बरुन, इंद्र क्यौं टरते।
सूर-स्याम तौ घोष कहा, जौ इती निठुरई धरते॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी! वे मनमोहन) यदि यह निष्ठुरता प्रारम्भसे करते तो कहो, ये गोकुलके लोग आजतक कैसे जीते बचे रहते? केशी, तृणावर्त, वृषभासुर आदि किस प्रकार मरते और व्योमासुर, प्रलम्बासुर, कालियनाग तथा दावानलसे श्यामसुन्दरके बिना (गोकुलको) कौन बचाता? शंखचूड़, बकासुर, पूतना, अघासुर, वरुण तथा इन्द्र कैसे (व्रजसे) हटते? (इसलिये) यदि श्यामसुन्दर इतनी निष्ठुरता पहले धारण कर लेते तो क्या (यह) व्रज रहता?
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(११४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हम तब काहे कौं राखी।
जब सुरपति ब्रज बोरन लीन्हौ, दियौ क्यौं न गिरि नाखी॥
अब लौं हमरी जग मैं चलती, नई-पुरानी साखी।
सो क्यौं झूठी होइ सखी री, गरग कथा जो भाषी॥
तौ हम कौं होती कत यह गति, निसि-दिन बरषति आँखी।
सूरदास यौं भई फिरति ज्यौं, मधु-दूहे की माखी॥
मूल
हरि हम तब काहे कौं राखी।
जब सुरपति ब्रज बोरन लीन्हौ, दियौ क्यौं न गिरि नाखी॥
अब लौं हमरी जग मैं चलती, नई-पुरानी साखी।
सो क्यौं झूठी होइ सखी री, गरग कथा जो भाषी॥
तौ हम कौं होती कत यह गति, निसि-दिन बरषति आँखी।
सूरदास यौं भई फिरति ज्यौं, मधु-दूहे की माखी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें गोपियाँ कह रही हैं—) श्यामसुन्दर! (तुमने) हमारी उस समय क्यों रक्षा की? जब इन्द्र व्रजको डुबाने लगा था (हमारे ऊपर) गिरिराजको (उस समय) क्यों नहीं पटक दिया, (जिससे) अबतक संसारमें हमारी नवीन एवं पुरातन यशोगाथा प्रचलित हो जाती (कि गोपियाँ श्यामसुन्दरकी नित्य अनन्य प्रेमिका हैं, उनसे नित्य अभिन्न हैं), किंतु सखी! गर्ग मुनिने जो बात कही (कि श्रीकृष्ण वसुदेवपुत्र हैं), वह कैसे झूठी हो सकती थी। (यदि यह बात हम पहले जान लेतीं) तो हमारी यह दशा क्यों होती (और क्यों) हमारे नेत्र रात-दिन वर्षा करते रहते? अब हम (उनके बिना) इस प्रकार (आश्रयहीन) घूमती हैं, जैसे शहद निकाल लेनेपर शहदकी मक्खियाँ।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(११५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधुबन तुम्ह क्यौं रहत हरे?
दुसह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे॥
मोहन बेनु बजावत तुम्ह तर, साखा टेकि खरे।
मोहे थावर अरु जड़-जंगम, मुनि-जन ध्यान टरे॥
वह चितवनि तू मन न धरत है, फिरि-फिरि पुहुप धरे।
सूरदास-प्रभु बिरह-दवानल, नख-सिख लौं न जरे॥
मूल
मधुबन तुम्ह क्यौं रहत हरे?
दुसह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे॥
मोहन बेनु बजावत तुम्ह तर, साखा टेकि खरे।
मोहे थावर अरु जड़-जंगम, मुनि-जन ध्यान टरे॥
वह चितवनि तू मन न धरत है, फिरि-फिरि पुहुप धरे।
सूरदास-प्रभु बिरह-दवानल, नख-सिख लौं न जरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें गोपियाँ कहती हैं—) अरे व्रजके वन! तुम हरे कैसे रह पा रहे हो? श्यामसुन्दरके दारुण वियोगमें खड़े-ही-खड़े भस्म क्यों नहीं हो गये। मोहन तुम्हारे नीचे तुम्हारी (ही) डालके सहारे खड़े हो वंशी बजाते थे, जिससे स्थिर रहनेवाले (वृक्षादि) मुग्ध हो जाते थे, गतिशील प्राणी जडवत् हो जाते थे और मुनि (भी) ध्यानसे विचलित हो जाते थे। तुम उस चितवनको याद नहीं करते और बार-बार पुष्पित होते हो! हमारे स्वामीके वियोगरूपी दावानलमें जड़से चोटीतक भस्म क्यों नहीं हो गये?
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(११६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौ सखि नाहिनै ब्रज स्याम।
बरष होत न एक पल सम, अब सु जुग बर जाम॥
वहै गोकुल, लोग वेई, वहै जमुना ठाम।
वहै गृह जिहिं सकल संपति, बन भयौ सोइ धाम॥
वहै रति-पति अछत स्यामहि, लै न सकतो नाम।
सूर-प्रभु बिनु अब कलेवर, दहन लाग्यौ काम॥
मूल
जौ सखि नाहिनै ब्रज स्याम।
बरष होत न एक पल सम, अब सु जुग बर जाम॥
वहै गोकुल, लोग वेई, वहै जमुना ठाम।
वहै गृह जिहिं सकल संपति, बन भयौ सोइ धाम॥
वहै रति-पति अछत स्यामहि, लै न सकतो नाम।
सूर-प्रभु बिनु अब कलेवर, दहन लाग्यौ काम॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! अब जब श्यामसुन्दर व्रजमें नहीं हैं, (मिलन-समयके समान) एक वर्ष एक पलके समान नहीं, अपितु (एक) प्रहर (एक) महायुग (-जैसा) व्यतीत होता है। वही गोकुल है, (यहाँके) लोग भी वे ही हैं, वही यमुना है, वही (यह) स्थान है, वही घर है जिसमें सभी सम्पत्ति है; किंतु वही घर अब वन-जैसा हो गया है। वही कामदेव, जो श्यामसुन्दरके रहते हमारा नामतक नहीं ले सकता था, अब स्वामीके बिना हमारे शरीरको भस्म करने लगा है।
राग जैतश्री
विषय (हिन्दी)
(११७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि न मिले माइ, जनम ऐसैं लग्यौ जान।
चितवत मग दिवस-निसा, जाति जुग समान॥
चातक-पिक-बचन सखी, सुनि न परत कान।
चंदन अरु चंद किरनि मनौं अमल भान॥
भूषन तन तज्यौ रनहिं आतुर ज्यौं त्रान।
भीषम लौं सहत मदन अरजुन के बान॥
सोखति तन सेज सूर, चल न चपल प्रान।
दच्छिन रबि अवधि अटक, इतनी जिय आन॥
मूल
हरि न मिले माइ, जनम ऐसैं लग्यौ जान।
चितवत मग दिवस-निसा, जाति जुग समान॥
चातक-पिक-बचन सखी, सुनि न परत कान।
चंदन अरु चंद किरनि मनौं अमल भान॥
भूषन तन तज्यौ रनहिं आतुर ज्यौं त्रान।
भीषम लौं सहत मदन अरजुन के बान॥
सोखति तन सेज सूर, चल न चपल प्रान।
दच्छिन रबि अवधि अटक, इतनी जिय आन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! श्यामसुन्दरसे भेंट नहीं हो पायी और जीवन ऐसे ही (व्यर्थ) व्यतीत हो रहा है। (उनका) मार्ग देखते दिन और रात्रियाँ युगके समान व्यतीत होती हैं। सखी! पपीहे और कोकिलके शब्द कानोंसे सुने नहीं जाते (उनसे बड़ी वेदना होती है) तथा चन्दन और चन्द्रमाकी किरणें ऐसी (उष्ण) लगती हैं, मानो निर्मल सूर्यकी हों। शरीरने आभूषण इस प्रकार त्याग दिये, जैसे युद्धमें व्याकुल (योधा) कवच उतार देता है तथा कामदेवके बाण उसी प्रकार (चुपचाप) सहती हूँ, जैसे (अन्तिम समय) भीष्मपितामहने अर्जुनके बाण सहे थे। शय्यापर पड़ा-पड़ा शरीर सूख गया; (फिर भी) चंचल प्राण जाते नहीं, वे चित्तमें सूर्यके दक्षिणायन होनेकी अवधि (श्याम-सूर्यके दक्षिणायन होनेपर छः महीनेमें आयेंगे) समझकर अटके (रुके) हुए हैं।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(११८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिचारत ही लागे दिन जान।
तुम्ह बिन नंद-सुवन इहिं गोकुल, निसि भइ कल्प समान॥
मुरलि सब्द, कल धुनि की गुंजनि, सुनियत नाहीं कान।
चलत न रथ गहि रही स्याम कौं, अब लागी पछितान॥
है कोउ जाइ कहै माधौ सौं, धीरज धरैं न प्रान।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिन, फुरत नहीं औसान॥
मूल
बिचारत ही लागे दिन जान।
तुम्ह बिन नंद-सुवन इहिं गोकुल, निसि भइ कल्प समान॥
मुरलि सब्द, कल धुनि की गुंजनि, सुनियत नाहीं कान।
चलत न रथ गहि रही स्याम कौं, अब लागी पछितान॥
है कोउ जाइ कहै माधौ सौं, धीरज धरैं न प्रान।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिन, फुरत नहीं औसान॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) अब तो सोचने-सोचनेमें ही दिन बीते चले जाते हैं। नन्दनन्दन! तुम्हारे बिना इस गोकुलमें रात्रि कल्पके समान (लंबी) हो गयी है। (अब वह) मनोहर गूँजनेवाली वंशीकी ध्वनि कानोंसे सुनी नहीं जाती। (हाय!) श्यामसुन्दरके रथमें सवार होकर जाते समय (तो) मैं उनको पकड़कर बैठ नहीं गयी और अब पश्चात्ताप करने लगी हूँ। अरे, कोई ऐसा है जो जाकर माधवसे कहे कि (अब) मेरे प्राण धैर्य धारण नहीं कर पा रहे हैं, स्वामी! आपके दर्शन बिना चेतना लुप्त हो रही है।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(११९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब यौं ही लागे दिन जान।
सुमरत प्रीति लाज लागति है, उर भयौ कुलिस समान॥
लोचन रहत बदन बिन देखें, बचन सुने बिन कान।
हृदै रहत हरि पानि परस बिन, छिदत न मनसिज बान॥
मानौ, सखी, रहे नहिं मेरे वे पहिले तन-प्रान।
बिधि समेत रचि चले नंदसुत, बिरह-बिथा दै आन॥
बिधि बछ हरे और पुनि कीन्हे, वैसेइ बेत-बिषान।
सूरदास ऐसीऐ कछु यह, समझत हैं अनुमान॥
मूल
अब यौं ही लागे दिन जान।
सुमरत प्रीति लाज लागति है, उर भयौ कुलिस समान॥
लोचन रहत बदन बिन देखें, बचन सुने बिन कान।
हृदै रहत हरि पानि परस बिन, छिदत न मनसिज बान॥
मानौ, सखी, रहे नहिं मेरे वे पहिले तन-प्रान।
बिधि समेत रचि चले नंदसुत, बिरह-बिथा दै आन॥
बिधि बछ हरे और पुनि कीन्हे, वैसेइ बेत-बिषान।
सूरदास ऐसीऐ कछु यह, समझत हैं अनुमान॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी! श्यामसुन्दरके बिना) अब ऐसे ही दिन बीत रहे हैं। (उनके अपने प्रति) प्रेमका स्मरण करके मुझे लज्जा आती है (क्योंकि मैं उसके योग्य अपनेको सर्वथा नहीं पाती।) मेरा हृदय वज्रके समान हो गया है। ये नेत्र (श्यामसुन्दरका) मुख देखे बिना और कान उनकी वाणी सुने बिना रह रहे हैं, हृदय श्यामसुन्दरके कर-स्पर्शके बिना रह रहा है, (अब वह) कामके बाणोंसे विद्ध नहीं होता। सखी! मानो मेरा वह पहला शरीर और प्राण नहीं रहे। नन्दनन्दन (उन्हें) विधिपूर्वक दूसरे देह और प्राण बनाकर वियोगकी पीड़ा दे चले गये। ब्रह्माने जब (बालक और) बछड़े हरण किये थे, तब (श्यामसुन्दरने) फिरसे (उन्हें) छड़ी और शृंगके सहित वैसा ही बना दिया था, हम अनुमानसे समझती हैं कि यह बात भी कुछ इसी प्रकारकी है।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(१२०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसौ कोउ नाहिंनै सजनी, जो मोहनहिं मिलावै।
बारक बहुरि नंदनंदन कौं, जो ह्याँ लौं लै आवै॥
पाइन परि बिनती करि मेरी, यह सब दसा सुनावै।
निसि निकुंज सुख केलि परम रुचि, रास की सुरति करावै॥
और कौनहू बात की सकुच न, किहुँ बिधि की उपजावै।
पुनि-पुनि सूर यहै कहै हरि सौं, लोचन जरत बुझावै॥
मूल
ऐसौ कोउ नाहिंनै सजनी, जो मोहनहिं मिलावै।
बारक बहुरि नंदनंदन कौं, जो ह्याँ लौं लै आवै॥
पाइन परि बिनती करि मेरी, यह सब दसा सुनावै।
निसि निकुंज सुख केलि परम रुचि, रास की सुरति करावै॥
और कौनहू बात की सकुच न, किहुँ बिधि की उपजावै।
पुनि-पुनि सूर यहै कहै हरि सौं, लोचन जरत बुझावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! ऐसा कोई नहीं है, जो मोहनको मुझसे मिला दे और जो एक बार फिर नन्दनन्दनको यहाँतक ले आये? (उनके) चरणोंपर गिरकर प्रार्थना करके (उन्हें) मेरी यह सब दशा सुनाये और उन्हें (यहाँ) अत्यन्त रुचिपूर्वक रात्रिमें की गयी निकुंज-क्रीड़ाके आनन्दके साथ रासलीलाका (भी) स्मरण कराये। किसी भी बातका किसी प्रकारसे संकोच (उनके चित्तमें) उत्पन्न न करे और बार-बार श्यामसुन्दरसे यही कहे कि (वे मेरे) जलते हुए नेत्रोंको शीतल कर दें।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(१२१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरौ देखिबौ इहिं भाँति।
असन बाँटत खात बैठे, बालकन की पाँति॥
एक दिन नवनीत चोरत, हौं रही दुरि जाइ।
निरखि मम छाया भजे, मैं दौरि पकरे धाइ॥
पोंछि कर-मुख लए कनियाँ, तब गई रिस भागि।
वह सुरति जिय जाति नाहीं, रहे छाती लागि॥
जिन घरनि वह सुख बिलोक्यौ, ते लगत अब खान।
सूर बिन ब्रजनाथ देखें, रहत पापी प्रान॥
मूल
बहुरौ देखिबौ इहिं भाँति।
असन बाँटत खात बैठे, बालकन की पाँति॥
एक दिन नवनीत चोरत, हौं रही दुरि जाइ।
निरखि मम छाया भजे, मैं दौरि पकरे धाइ॥
पोंछि कर-मुख लए कनियाँ, तब गई रिस भागि।
वह सुरति जिय जाति नाहीं, रहे छाती लागि॥
जिन घरनि वह सुख बिलोक्यौ, ते लगत अब खान।
सूर बिन ब्रजनाथ देखें, रहत पापी प्रान॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें गोपी कह रही है—सखी!) क्या (मैं) फिर इस प्रकार (श्यामसुन्दरको) देख सकूँगी कि वे बालकोंकी पंक्तिमें बैठे भोजन (सखाओंको) बाँटकर खा रहे हों। एक दिन वे (जहाँ) मक्खन चुरा रहे थे, मैं वहीं जाकर छिप रही और जब वे मेरी छाया देखकर भागे तो मैंने (उन्हें) दौड़कर पकड़ लिया और जब उनके हाथ एवं मुखको पोंछकर (उन्हें) गोदमें ले लिया तब (मेरा) क्रोध दूर हो गया। जिस अनुरागसे वे मेरी छातीसे चिपट गये थे, उसकी स्मृति चित्तसे जाती नहीं। जिन घरोंमें वह सुख देखा था, वे ही (घर) अब खानेको दौड़ते हैं। (उन) श्रीव्रजनाथको देखे बिना ये पापी प्राण (कैसे) रह रहे हैं (जान नहीं पड़ता)।
विषय (हिन्दी)
(१२२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कब देखौं इहिं भाँति कन्हाई।
मोरन के चँदवा माथे पै, कंध कामरी-लकुट सुहाई॥
बासर के बीतें सुरभिन सँग, आवत एक महाछबि पाई।
कान अँगुरिया घालि निकट पुर, मोहन राग अहीरी गाई॥
क्यौंहुँ न रहत प्रान दरसन बिन, अब कित जतन करै री माई।
सूरदास-स्वामी नहिं आए, बदि जु गए अवध्यौहुँ भराई॥
मूल
कब देखौं इहिं भाँति कन्हाई।
मोरन के चँदवा माथे पै, कंध कामरी-लकुट सुहाई॥
बासर के बीतें सुरभिन सँग, आवत एक महाछबि पाई।
कान अँगुरिया घालि निकट पुर, मोहन राग अहीरी गाई॥
क्यौंहुँ न रहत प्रान दरसन बिन, अब कित जतन करै री माई।
सूरदास-स्वामी नहिं आए, बदि जु गए अवध्यौहुँ भराई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) कन्हैयाको इस प्रकार कब देखूँगी कि उनके मस्तकपर मयूर (-पिच्छकी) चन्द्रिका, कन्धेपर कम्बल और हाथमें छड़ी सुहाती होगी। दिन बीत जानेपर (संध्याके समय) गायोंके साथ आते हुए वे अत्यन्त सुशोभित होते होंगे। ग्रामके पास पहुँचकर कानोंमें अँगुली डालकर मोहन अहीरी राग (बिरहा) गा रहे होंगे। सखी! अब चाहे कितना भी प्रयत्न कोई क्यों न करे, उनके दर्शनके बिना (अब) प्राण किसी प्रकार रहते नहीं; (क्योंकि) हमारे स्वामी (लौटनेकी) जो अवधि निश्चित कर गये थे वह (भी) पूर्ण हो गयी और वे नहीं आये।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१२३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह जिय हौंसै पै जु रही।
सुनि री सखी, स्यामसुंदर हँसि, बहुरि न बाँह गही॥
अब वे दिवस बहुरि कब ह्वैहैं, ऐसी जात सही।
कहाँ कान्ह हैं कहँ री अब हम, कौन बयारि बही॥
कासौं कहौं, कहत नहिं आवै, कहत न परै कही।
जो कछु हुती हमारी हरि की, हरि के सँग निबही॥
इतनी कहतहिं हिलकी लागी, गोबिंद गुनन दही।
सूरदास काटे तरवर ज्यौं, ठाढ़ी रटति रही॥
मूल
यह जिय हौंसै पै जु रही।
सुनि री सखी, स्यामसुंदर हँसि, बहुरि न बाँह गही॥
अब वे दिवस बहुरि कब ह्वैहैं, ऐसी जात सही।
कहाँ कान्ह हैं कहँ री अब हम, कौन बयारि बही॥
कासौं कहौं, कहत नहिं आवै, कहत न परै कही।
जो कछु हुती हमारी हरि की, हरि के सँग निबही॥
इतनी कहतहिं हिलकी लागी, गोबिंद गुनन दही।
सूरदास काटे तरवर ज्यौं, ठाढ़ी रटति रही॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—) सखी! सुन, (मेरे) चित्तमें यह लालसा बनी (ही) रह गयी कि श्यामसुन्दरने हँसकर फिर मेरी भुजा नहीं पकड़ी। वे (मिलनके) दिन (अब) फिर कब होंगे तथा ऐसी दशा कैसे सही जायगी? क्योंकि कन्हैया कहाँ और अब हम सब (उनसे दूर) कहाँ हैं! यह कैसी हवा चली। किससे कहूँ, कुछ कहा नहीं जाता और कहनेकी चेष्टा करनेपर भी कुछ कहते नहीं बनता। हमारा श्यामसुन्दरसे जो कुछ सम्बन्ध था, वह श्यामसुन्दरके साथ ही समाप्त हो गया। सूरदासजी कहते हैं कि गोविन्दके गुणों (-के स्मरण करने)-से दग्ध हुई गोपीकी इतना कहते-कहते हिचकियाँ बँध गयीं और जैसे कटा हुआ (सूखा) वृक्ष हो, इस प्रकार खड़ी-खड़ी क्रन्दन करती रही।
विषय (हिन्दी)
(१२४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज में वै उनहार नहीं।
ब्रज सब गोप रहे हरि बिनहीं, स्वाद न दूध-दही॥
ज्यौं द्रुम-डार पवन के परसें, दस-दिसि परत बही।
बासर बिरह भरी अति ब्याकुल, कबहुँ न नींद लही॥
दिन-दिन देह दुखी अति हरि बिनु, इहिं तन बहुत सही।
सूरदास हम तब न मुईं, अब ये दुख सहन रहीं॥
मूल
ब्रज में वै उनहार नहीं।
ब्रज सब गोप रहे हरि बिनहीं, स्वाद न दूध-दही॥
ज्यौं द्रुम-डार पवन के परसें, दस-दिसि परत बही।
बासर बिरह भरी अति ब्याकुल, कबहुँ न नींद लही॥
दिन-दिन देह दुखी अति हरि बिनु, इहिं तन बहुत सही।
सूरदास हम तब न मुईं, अब ये दुख सहन रहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) व्रजमें अब वह (पहले-जैसी) दशा नहीं है। सब गोप व्रजमें श्यामसुन्दरके बिना जीवित तो हैं, पर अब (यहाँके) दूध-दहीमें स्वाद नहीं रहा। जैसे आँधीके वेगसे (टूटकर) वृक्षकी डालियाँ दसों दिशाओंमें उड़ती फिरती हैं, वैसे ही मैं दिनभर वियोगसे भरी हुई अत्यन्त व्याकुल रहती हूँ और (रात्रिमें) कभी नींद नहीं ले पाती। श्यामसुन्दरके बिना दिनोदिन शरीर (दुर्बल एवं) दुःखी होता जाता है, इस शरीरने बहुत (कष्ट) सहा। हम उसी समय नहीं मर गयीं, अब यह दुःख सहनेको जीवित रह गयीं।
राग जैतश्री
विषय (हिन्दी)
(१२५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहाँ लौं मानौं अपनी चूक।
बिनु गुपाल सखि री, यह छतिया ह्वै न गई द्वै टूक॥
तन-मन-धन घर-बन अरु जोबन, ज्यौं भुवंग की फूँक।
हृदय जरत है दावानल ज्यौं, कठिन बिरह की हूक॥
जाकी मनि सिर तैं हरि लीन्ही, कहा कहै अहि मूक।
सूरदास ब्रजवास बसीं हम, मनौं सामुहें सूक॥
मूल
कहाँ लौं मानौं अपनी चूक।
बिनु गुपाल सखि री, यह छतिया ह्वै न गई द्वै टूक॥
तन-मन-धन घर-बन अरु जोबन, ज्यौं भुवंग की फूँक।
हृदय जरत है दावानल ज्यौं, कठिन बिरह की हूक॥
जाकी मनि सिर तैं हरि लीन्ही, कहा कहै अहि मूक।
सूरदास ब्रजवास बसीं हम, मनौं सामुहें सूक॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! हम अपनी भूल कहाँतक मानें, गोपालके बिना यह हृदय (फटकर) दो टुकड़े नहीं हो गया। शरीर, मन, सम्पत्ति, भवन, वन और युवावस्था—सब ऐसे (दुःखद) हो गये जैसे सर्पकी फुफकार हो। वियोगकी दारुण वेदनासे हृदय इस प्रकार जल रहा है जैसे दावाग्नि। जिसकी मणि (उसके) मस्तकसे छीन ली गयी हो, वह (बेचारा) मूक सर्प क्या कहे? हम (अब तो) व्रजमें इस प्रकार निवास कर रही हैं, मानो बाणके सम्मुख (बाणोंकी चोट सहती) हों।
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(१२६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहा दिन ऐसैं ही चलि जैहैं।
सुनि सखि मदन गुपाल आँगन मैं, ग्वालन संग न ऐहैं॥
कबहूँ जात पुलिन जमुना के, बहु बिहार बिधि खेलत।
सुरति होत सुरभी सँग आवत, पुहुप गहैं कर झेलत॥
मृदु मुसकानि आनि राख्यौ जिय, चलत कह्यौ है आवन।
सूर सुदिन कबहूँ तौ ह्वैहै, मुरली-सब्द सुनावन॥
मूल
कहा दिन ऐसैं ही चलि जैहैं।
सुनि सखि मदन गुपाल आँगन मैं, ग्वालन संग न ऐहैं॥
कबहूँ जात पुलिन जमुना के, बहु बिहार बिधि खेलत।
सुरति होत सुरभी सँग आवत, पुहुप गहैं कर झेलत॥
मृदु मुसकानि आनि राख्यौ जिय, चलत कह्यौ है आवन।
सूर सुदिन कबहूँ तौ ह्वैहै, मुरली-सब्द सुनावन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) क्या (हमारे) दिन ऐसे ही (श्यामसुन्दरके बिना ही) बीतते जायँगे? सखी! सुन, क्या मदनगोपाल गोपकुमारोंके साथ (फिर कभी) मेरे आँगनमें नहीं आयेंगे? कभी वे यमुनाके पुलिनपर जाते और अनेक प्रकारकी क्रीड़ा करते हुए खेलते थे, उन दिनोंकी स्मृति (अब) भी होती है, जब वे गायोंके साथ (संध्याको वनसे) हाथमें पुष्प लिये (उसे) उछालते आते थे। चलते समय उन्होंने जिस मन्द मुसकराहटके साथ व्रजमें लौटनेकी बात कही थी, उसीका स्मरण करके हमने जीवन धारण कर रखा है, वह वंशीका शब्द सुनानेवाला शुभ दिन कभी तो होगा।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१२७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्याम सिधारे कौने देस।
तिन कौ कठिन करेजौ सखि री, जिन कौ पिय परदेस॥
उन्ह माधौ कछु भली न कीन्ही, कौन तजन कौ बैस।
छिन भरि प्रान रहत नहिं उन्ह बिन, निसि-दिन अधिक अँदेस॥
अतिहिं निठुर पतियाँ नहिं पठईं, काहू हाथ सँदेस।
सूरदास-प्रभु यह उपजत है, धरिऐ जोगिन-बेस॥
मूल
स्याम सिधारे कौने देस।
तिन कौ कठिन करेजौ सखि री, जिन कौ पिय परदेस॥
उन्ह माधौ कछु भली न कीन्ही, कौन तजन कौ बैस।
छिन भरि प्रान रहत नहिं उन्ह बिन, निसि-दिन अधिक अँदेस॥
अतिहिं निठुर पतियाँ नहिं पठईं, काहू हाथ सँदेस।
सूरदास-प्रभु यह उपजत है, धरिऐ जोगिन-बेस॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) (न जाने) श्यामसुन्दर किस देश चले गये। अरी सखी! जिनके प्रियतम विदेश हों, उनका हृदय (बड़ा ही) कठोर है। उन माधवने कुछ अच्छा काम नहीं किया, यह हमारी कौन-सी त्यागने योग्य अवस्था थी! उनके बिना प्राण क्षणभर भी नहीं रहते। रात-दिन अत्यधिक चिन्ता बनी रहती है। वे अत्यन्त निष्ठुर हैं, जिसके कारण उन्होंने किसीके हाथ न तो पत्र भेजा और न संदेश। अब तो चित्तमें यही (बात) आती है कि अपने स्वामीके लिये योगिनीका वेश धारण कर लूँ।
विषय (हिन्दी)
(१२८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी री, दिखरावहु वह देस।
कहा कहौं या ब्रज बसि हरि बिनु, लह्यौ न सुख कौ लेस॥
मुख-मीठी अक्रूर जु दीन्ही, हम सिसु दीन्हौ जान।
जानि न बधिक-बिभेसौ मृग ज्यौं, हनत बिसासी प्रान॥
मैं मधु ज्यौं राखे सँचि मोहन, ते भृंगी की रीति।
दै दृग छाँट अवधि लै गवने, सुनियत जहाँ अनीति॥
मोहन बिनु हम बसत घोष महँ, भई तीसरी साँझ।
सूरदास ये प्रान पतित अब, कहा रहत घट माँझ॥
मूल
सखी री, दिखरावहु वह देस।
कहा कहौं या ब्रज बसि हरि बिनु, लह्यौ न सुख कौ लेस॥
मुख-मीठी अक्रूर जु दीन्ही, हम सिसु दीन्हौ जान।
जानि न बधिक-बिभेसौ मृग ज्यौं, हनत बिसासी प्रान॥
मैं मधु ज्यौं राखे सँचि मोहन, ते भृंगी की रीति।
दै दृग छाँट अवधि लै गवने, सुनियत जहाँ अनीति॥
मोहन बिनु हम बसत घोष महँ, भई तीसरी साँझ।
सूरदास ये प्रान पतित अब, कहा रहत घट माँझ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! वह देश दिखला दो (जहाँ मोहन हैं)। क्या कहूँ, श्यामसुन्दरके बिना इस व्रजमें निवास करके (मुझे) सुखका लेश भी नहीं मिला। अक्रूरने जो मुँह-मीठी बात कही, उसपर हमने शिशुओं (राम-श्याम)-को (उनके साथ) जाने दिया। (पर उस समय हमने) मृगकी भाँति व्याधके वेशको जाना नहीं, जो विश्वास दिलाकर प्राण ले लेता है। मैंने शहदके समान मोहनको (हृदयमें) संचित करके रखा था; किंतु वे (अक्रूर) भौंरेकी भाँति आये और आँखोंमें अवधिके आश्वासनरूप छींटे डालकर (हमारे सहारेको) वहाँ (मथुरामें) ले गये जहाँ अन्याय सुना जाता है। मोहनके बिना व्रजमें रहते हमें आज तीसरी संध्या (तीसरा दिन) हो गयी, किंतु हमारे ये पतित प्राण अब (भी न जाने) शरीरमें क्यों बने हुए हैं (कुछ समझमें नहीं आता)।
विषय (हिन्दी)
(१२९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपालहि पावौं धौं किहिं देस।
सिंगी, मुद्रा, कर खप्पर लै, करिहौं जोगिन-भेस॥
कंथा पहिरि बिभूति लगाऊँ, जटा बँधाऊँ केस।
हरि कारन गोरखै जगाऊँ, जैसैं स्वाँग महेस॥
तन-मन जारौं, भसम चढ़ाऊँ, बिरहा के उपदेस।
सूर स्याम बिन हम हैं ऐसी, जैसैं मनि बिनु सेस॥
मूल
गोपालहि पावौं धौं किहिं देस।
सिंगी, मुद्रा, कर खप्पर लै, करिहौं जोगिन-भेस॥
कंथा पहिरि बिभूति लगाऊँ, जटा बँधाऊँ केस।
हरि कारन गोरखै जगाऊँ, जैसैं स्वाँग महेस॥
तन-मन जारौं, भसम चढ़ाऊँ, बिरहा के उपदेस।
सूर स्याम बिन हम हैं ऐसी, जैसैं मनि बिनु सेस॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) गोपालको, पता नहीं किस देशमें पाऊँगी। (उन्हें पानेके लिये अब मैं कानोंमें) सींगकी मुद्रा पहन और हाथमें खप्पर लेकर योगिनीका वेश बनाऊँगी। कंथा (गुदड़ी) धारणकर विभूति (भस्म) रमाऊँगी, बालोंको जटा बनाकर बाँधूँगी और इस प्रकार श्यामसुन्दरके लिये गोरखको जगाऊँगी (नाथ-पन्थमें दीक्षा लेकर गोरखनाथके मन्त्रको जाग्रत् करूँगी) और शंकरजीका वेश धारण करूँगी। (अरी) वियोगकी शिक्षा मानकर शरीर तथा मनको जलाकर उसकी भस्म चढ़ाऊँगी; क्योंकि श्यामसुन्दरके बिना (तो) हम ऐसी हो गयी हैं, जैसे मणिके बिना सर्प।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(१३०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
फिरि ब्रज आइऐ गोपाल।
नंद-नृपति-कुमार कहिहैं, अब न कहिहैं ग्वाल॥
मुरलिका-धुनि सप्त दिसि-दिसि, चलौ निसान बजाइ।
दिगबिजय कौं जुवति-मंडल-भूप परिहैं पाइ॥
सुरभि सखा सु सैन भट सँग, उठैगी खुर-रैन।
आतपत्र मयूर चँद्रिका, लसत है रवि-ऐन॥
मधुप बंदी जन सुजस कहि, मदन आयसु पाइ।
द्रुम-लता-बन कुसुम बानक, बसन-कुटी बनाइ॥
सकल खग-मृग पैक पायक, पौरिया, प्रतिहार।
सूर-प्रभु ब्रज राज कीजै, आइ अब की बार॥
मूल
फिरि ब्रज आइऐ गोपाल।
नंद-नृपति-कुमार कहिहैं, अब न कहिहैं ग्वाल॥
मुरलिका-धुनि सप्त दिसि-दिसि, चलौ निसान बजाइ।
दिगबिजय कौं जुवति-मंडल-भूप परिहैं पाइ॥
सुरभि सखा सु सैन भट सँग, उठैगी खुर-रैन।
आतपत्र मयूर चँद्रिका, लसत है रवि-ऐन॥
मधुप बंदी जन सुजस कहि, मदन आयसु पाइ।
द्रुम-लता-बन कुसुम बानक, बसन-कुटी बनाइ॥
सकल खग-मृग पैक पायक, पौरिया, प्रतिहार।
सूर-प्रभु ब्रज राज कीजै, आइ अब की बार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) गोपाल! व्रजमें फिर आ जाओ। हम तुम्हें महाराज नंदजीका कुमार कहेंगी और अब गोप नहीं कहेंगी। (तुम) सातों स्वरोंसे युक्त वंशीध्वनिरूपी नगाड़ा दसों दिशाओंमें बजाते चलो; (क्योंकि) दिग्विजयके लिये (तो) व्रजयुवतियोंका मण्डलरूपी राजाओंका समुदाय है ही जो तुम्हारे पैर पड़ेगा। गायों और सखाओंके रूपमें श्रेष्ठ योद्धा सैनिक (तुम्हारे) साथ रहेंगे, (तथा घोड़ोंके खुरोंसे उड़नेवाली धूलिके समान) गायोंके खुरोंसे धूलि उड़ेगी। मयूरपिच्छकी चन्द्रिकारूपी छत्र सूर्यबिम्बके समान तुम्हारे सिरपर शोभा देती ही है। भौंरेरूपी वन्दीजन तुम्हारा सुयश गायेंगे, कामदेव तुम्हारी आज्ञा पाकर वनकी वृक्षलताओंके पुष्पोंसे सजाकर वस्त्रका भवन (तम्बू) बना देगा। सभी पशु-पक्षी तुम्हारे आज्ञापालक दूत, द्वारपाल तथा पहरेदार होंगे। हे स्वामी! अबकी बार आकर व्रजपर राज्य कीजिये।
राग जैतश्री
विषय (हिन्दी)
(१३१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
फिरि ब्रज बसहु गोकुलनाथ।
अब न तुम्हैं जगाइ पठवैं, गोधनन के साथ॥
बरजैं न माखन खात कबहूँ, दह्यौ देत लुटाइ।
अब न देहिं उराहनौ, नँद-घरनि आगें जाइ॥
दौरि दाँवरि देहिं नहिं, लकुटी जसोदा पानि।
चोरी न देहिं उघारि कैं, औगुन न कहिहैं आनि॥
कहिहैं न चरनन दैन जावक, गुहन बेनी-फूल।
कहिहैं न करन सिंगार कबहूँ, बसन जमुना-कूल॥
करिहैं न कबहूँ मान हम, हठिहैं न माँगत दान।
कहिहैं न मृदु मुरली बजावन, करन तुम सौं गान॥
देहु दरसन नंद-नंदन, मिलन की जिय आस।
सूर हरि के रूप कारन, मरत लोचन प्यास॥
मूल
फिरि ब्रज बसहु गोकुलनाथ।
अब न तुम्हैं जगाइ पठवैं, गोधनन के साथ॥
बरजैं न माखन खात कबहूँ, दह्यौ देत लुटाइ।
अब न देहिं उराहनौ, नँद-घरनि आगें जाइ॥
दौरि दाँवरि देहिं नहिं, लकुटी जसोदा पानि।
चोरी न देहिं उघारि कैं, औगुन न कहिहैं आनि॥
कहिहैं न चरनन दैन जावक, गुहन बेनी-फूल।
कहिहैं न करन सिंगार कबहूँ, बसन जमुना-कूल॥
करिहैं न कबहूँ मान हम, हठिहैं न माँगत दान।
कहिहैं न मृदु मुरली बजावन, करन तुम सौं गान॥
देहु दरसन नंद-नंदन, मिलन की जिय आस।
सूर हरि के रूप कारन, मरत लोचन प्यास॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) गोकुलनाथ! फिर व्रजमें निवास करो। अब हम तुम्हें (सबेरे) जगाकर गायोंके साथ (वनमें) नहीं भेजेंगी। कभी मक्खन खानेसे और दही ढुलका देनेसे (तुम्हें) रोकेंगी नहीं और न श्रीनन्द-पत्नीके सामने जाकर अब उलाहना ही देंगी। यशोदाजीके हाथमें अब हम (तुम्हें बाँधनेके लिये) न तो रस्सी देंगी न (तुम्हें डरानेके लिये) छड़ी ही; न हम तुम्हारी चोरी प्रकट करेंगी और न तुम्हारे (दूसरे) दोष जाकर उनसे कहेंगी। हम अब तुम्हें अपने चरणोंमें महावर लगाने और चोटियोंमें फूल गूँथनेको (भी) नहीं कहेंगी और न कभी यमुना-किनारे अपना शृंगार करनेके लिये तुम्हें रुकनेको कहेंगी। (अब) हम कभी (तुमसे) मान नहीं करेंगी और न तुम्हारे दान माँगते समय हठ करेंगी। तुमसे कोमल स्वरमें वंशी बजाने अथवा गानेको (भी) नहीं कहेंगी। नन्दनन्दन! (अब हमें) दर्शन दो; (क्योंकि तुम्हारे) मिलनेकी आशा मनमें लग रही है। श्यामसुन्दर (आप)-का रूप देखनेके लिये (हमारे) नेत्र प्यासे मर रहे हैं।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१३२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहें पीठि दई हरि! मोसौं?
तुमही पीठि भावते! दीन्ही, और कहा कहि कोसौं॥
मिलि-बिछुरे की पीर सखी री, राम-सिया पहिचाने।
मिलि-बिछुरे की पीर सखी री, पय-पानी उर आने॥
मिलि-बिछुरे की पीर कठिन है, कहें न कोऊ मानै।
मिलि-बिछुरे की पीर सखी री, बिछुरॺौ होइ सो जानै॥
बिछुरे रामचंद औ दसरथ, प्रान तजे छिन माहीं।
बिछुरॺौ पात गिरॺौ तरुवर तैं, फिरि न लगै उहि ठाहीं॥
बिछुरॺौ हंस काय घटहू तैं, फिरि न आव घट माहीं।
मैं अपराधिनि जीवत बिछुरी, बिछुरॺौ जीवत नाहीं॥
नाद-कुरंग, मीन-जल बिछुरें, होइ कीट जरि खेहा।
स्याम-बियोगिनि अतिहिं सखी री, भई साँवरी देहा॥
गरजि-गरजि बादर उनए हैं, बूँदनि बरषत मेहा।
सूरदास कहु कैसैं निबहै, एक ओर कौ नेहा॥
मूल
काहें पीठि दई हरि! मोसौं?
तुमही पीठि भावते! दीन्ही, और कहा कहि कोसौं॥
मिलि-बिछुरे की पीर सखी री, राम-सिया पहिचाने।
मिलि-बिछुरे की पीर सखी री, पय-पानी उर आने॥
मिलि-बिछुरे की पीर कठिन है, कहें न कोऊ मानै।
मिलि-बिछुरे की पीर सखी री, बिछुरॺौ होइ सो जानै॥
बिछुरे रामचंद औ दसरथ, प्रान तजे छिन माहीं।
बिछुरॺौ पात गिरॺौ तरुवर तैं, फिरि न लगै उहि ठाहीं॥
बिछुरॺौ हंस काय घटहू तैं, फिरि न आव घट माहीं।
मैं अपराधिनि जीवत बिछुरी, बिछुरॺौ जीवत नाहीं॥
नाद-कुरंग, मीन-जल बिछुरें, होइ कीट जरि खेहा।
स्याम-बियोगिनि अतिहिं सखी री, भई साँवरी देहा॥
गरजि-गरजि बादर उनए हैं, बूँदनि बरषत मेहा।
सूरदास कहु कैसैं निबहै, एक ओर कौ नेहा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) श्यामसुन्दर! तुमने मुझसे मुँह क्यों फेर लिया (मेरी उपेक्षा क्यों कर दी)? प्रियतम! जब तुम्हींने मेरी उपेक्षा कर दी तो दूसरे किसीको किन शब्दोंमें बुरा-भला कहूँ? सखी! मिलनके बाद वियोगकी पीड़ा तो सीता और राम ही ठीक जानते हैं। सखी! मिलनके बाद वियोगकी पीड़ाको दूध और पानी हृदयमें रखते हैं (पानीके जलनेपर दूध उफनकर अग्निमें गिरने लगता है)। मिलनके बाद वियोगकी पीड़ा दारुण होती है, (उसे) कहनेसे कोई नहीं मानेगा। सखी! मिलनके बाद वियोगकी पीड़ा तो जिसे वियोग हुआ हो, वही समझ सकता है। श्रीरामचन्द्र और महाराज दशरथका वियोग हुआ (तो महाराज दशरथने) एक क्षणमें प्राण त्याग दिये। श्रेष्ठ वृक्षसे अलग होकर गिरा हुआ पत्ता फिर अपने उस स्थानपर नहीं लगता। जीव (-रूपी) हंस शरीर (-रूपी) घटसे वियुक्त होनेपर फिर शरीरमें नहीं आता; किंतु मैं अपराधिनी (पापिनी) जीवित (ही अपने प्रियतमसे) वियुक्त हो गयी (मरी नहीं); क्योंकि बिछुड़ा हुआ (कोई) जीता नहीं। संगीतके स्वरसे वियुक्त होनेपर मृग (मर जाता है), जलसे बिछुड़नेपर मछली (मर जाती है) और पतिंगा (प्रेमके कारण दीपकमें) जलकर भस्म हो जाता है। (इसी प्रकार) सखी! श्यामसुन्दरके वियोगमें मेरा शरीर जलकर अत्यन्त साँवला (काला) हो गया है। बार-बार गर्जना करते हुए बादल उमड़ आये हैं और बूँदोंकी वर्षा करने लगे हैं। (ऐसी दशामें) एक ओरके (एकांगी) प्रेमका, बताओ तो, कैसे निर्वाह हो।
राग जैतश्री
विषय (हिन्दी)
(१३३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि-से पीतम क्यौं बिसराहिं।
मिलन दूरि, मन बसत चंद पै, चित चकोर पछताहिं॥
जल में रहैं, जलहि तैं उपजैं, बिन जलहीं कुम्हिलाहिं।
जल तजि हंस चुगै मुकताहल, मींन कहाँ उड़ि जाहिं॥
सोइ गोकुल, गोबरधन सोई, कौन करै अब छाँहिं।
प्रगट न प्रीति करै परदेसी, सुख किहिं देस बसाहिं॥
धरनी दुखित देखि बादर अति, बरषा-रित बरषाहिं।
सूरदास-प्रभु तुम्ह दरसन बिनु, दुख क्यौं हृदै समाहिं॥
मूल
हरि-से पीतम क्यौं बिसराहिं।
मिलन दूरि, मन बसत चंद पै, चित चकोर पछताहिं॥
जल में रहैं, जलहि तैं उपजैं, बिन जलहीं कुम्हिलाहिं।
जल तजि हंस चुगै मुकताहल, मींन कहाँ उड़ि जाहिं॥
सोइ गोकुल, गोबरधन सोई, कौन करै अब छाँहिं।
प्रगट न प्रीति करै परदेसी, सुख किहिं देस बसाहिं॥
धरनी दुखित देखि बादर अति, बरषा-रित बरषाहिं।
सूरदास-प्रभु तुम्ह दरसन बिनु, दुख क्यौं हृदै समाहिं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दर-जैसे प्रियतम कैसे भुलाये जा सकते हैं। मिलना दूर होते हुए भी चकोरका चित्त चन्द्रमें ही बसता (आसक्त रहता) है; फिर भी (न मिलनेके कारण वह) चित्तमें पछताया करता है। (मछलियाँ और हंस—दोनों) जलमें ही रहते हैं, जलसे ही उत्पन्न होते हैं और जलके बिना म्लान हो जाते हैं; फिर भी हंस तो जलको छोड़कर मोती चुग लेता है; पर मछलियाँ (जल छोड़कर) उड़कर कहाँ जायँ? (यही दशा हम सबकी है; क्योंकि) वही गोकुल है, वही गोवर्धन है, किंतु अब (वर्षामें व्रजपर गोवर्धनकी) छाया कौन करे। यदि परदेशी मथुरावासी श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष प्रेम न करें, (तो पता नहीं) सुख किस देशमें निवास करें। (घने) बादल पृथ्वीको अत्यन्त दुःखी देखकर वर्षा-ऋतुमें (अवश्य) वर्षा करते हैं; अतः हे स्वामी! तुम्हारा दर्शन पाये बिना हमारे हृदयमें दुःख कैसे सीमित रहे।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१३४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतम बिनु ब्याकुल अति रहियत।
मधुबन जौ जाती हौं हरि सँग, कित एतौ दुख सहियत॥
काहे काम कटुक अँग करतौ, कित बसंत रितु दहियत।
बिनु पावस अति नैन उमँगि जल, कित सरिता उर बहियत॥
जौ जानती बहुरि नहिं आवन, धाइ पीत पट गहियत।
सूरदास प्रभु के बिछुरे तैं, कहूँ नाहिं सुख लहियत॥
मूल
प्रीतम बिनु ब्याकुल अति रहियत।
मधुबन जौ जाती हौं हरि सँग, कित एतौ दुख सहियत॥
काहे काम कटुक अँग करतौ, कित बसंत रितु दहियत।
बिनु पावस अति नैन उमँगि जल, कित सरिता उर बहियत॥
जौ जानती बहुरि नहिं आवन, धाइ पीत पट गहियत।
सूरदास प्रभु के बिछुरे तैं, कहूँ नाहिं सुख लहियत॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) प्रियतमके बिना (मैं) अत्यन्त व्याकुल रहती हूँ। यदि मैं श्यामसुन्दरके साथ मथुरा चली जाती तो इतना दुःख क्यों सहना पड़ता। फिर काम मेरे अंगोंको क्यों पीड़ित करता और क्यों वसन्त-ऋतुमें मुझे जलना पड़ता तथा बिना वर्षाके ही नेत्र आँसुओंसे लबालब भरकर हृदयपरसे नदीकी धारा (क्यों) बहाते। यदि (मैं प्रथम) जानती कि (श्यामसुन्दरका) फिर लौटना नहीं होगा तो दौड़कर उनका पीताम्बर पकड़ लेती। (अब तो) स्वामीका वियोग हो जानेसे कहीं सुख नहीं मिलता।
राग जैतश्री
विषय (हिन्दी)
(१३५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बारक जाइयौ मिलि माधौ।
को जानैं तन छूटि जाइगौ, सूल रहै जिय साधौ॥
पहुनेंहुँ नंद बबा के आवहु, देखि लेउँ पल आधौ।
मिलेंही मैं बिपरीत करी बिधि, होत दरस कौ बाधौ॥
सो सुख सिव-सनकादि न पावत, जो सुख गोपिन लाधौ।
सूरदास राधा बिलपति है, हरि कौ रूप अगाधौ॥
मूल
बारक जाइयौ मिलि माधौ।
को जानैं तन छूटि जाइगौ, सूल रहै जिय साधौ॥
पहुनेंहुँ नंद बबा के आवहु, देखि लेउँ पल आधौ।
मिलेंही मैं बिपरीत करी बिधि, होत दरस कौ बाधौ॥
सो सुख सिव-सनकादि न पावत, जो सुख गोपिन लाधौ।
सूरदास राधा बिलपति है, हरि कौ रूप अगाधौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—) ‘माधव! एक बार (तो) मिल जाओ! कौन जानता है कि शरीर कब छूट जायगा, अतः यह लालसाकी पीड़ा चित्तमें रह ही जायगी। नन्दबाबाके यहाँ अतिथि बनकर ही आओ, (जिससे तुम्हें) आधे पलके लिये (ही सही), देख (तो) लूँ। (हाय!) विधाताने मिलनमें (ही) यह उलटी दशा (वियोग) कर दी कि दर्शनमें भी बाधा हो गयी। (नहीं तो) जो आनन्द शिव और सनकादि ऋषिगण भी नहीं पाते, वही आनन्द गोपियोंने पाया था। सूरदासजी कहते हैं कि (इस प्रकार) श्यामसुन्दरके अगाध सौन्दर्यमें निमग्न श्रीराधा विलाप कर रही हैं।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१३६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी, इन नैननि तैं घन हारे।
बिनहीं रितु बरषत निसि-बासर, सदा मलिन दोउ तारे॥
ऊरध साँस समीर तेज अति, सुख अनेक द्रुम डारे।
बदन-सदन करि बसे बचन-खग, दुख पावस के मारे॥
दुरि-दुरि बूँद परत कंचुकि पै, मिलि अंजन सौं कारे।
मानौ परनकुटी सिव कीन्ही, बिबि-मूरति धरि न्यारे॥
घुमरि-घुमरि बरषत जल छाँड़त, डर लागत अँधियारे।
बूड़त ब्रजहि सूर को राखै, बिन गिरिबरधर प्यारे॥
मूल
सखी, इन नैननि तैं घन हारे।
बिनहीं रितु बरषत निसि-बासर, सदा मलिन दोउ तारे॥
ऊरध साँस समीर तेज अति, सुख अनेक द्रुम डारे।
बदन-सदन करि बसे बचन-खग, दुख पावस के मारे॥
दुरि-दुरि बूँद परत कंचुकि पै, मिलि अंजन सौं कारे।
मानौ परनकुटी सिव कीन्ही, बिबि-मूरति धरि न्यारे॥
घुमरि-घुमरि बरषत जल छाँड़त, डर लागत अँधियारे।
बूड़त ब्रजहि सूर को राखै, बिन गिरिबरधर प्यारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! इन नेत्रोंसे (तो) मेघ भी हार गये; (क्योंकि) ये बिना ऋतुके ही रात-दिन वर्षा करते रहते हैं; (जिससे इनमेंके) दोनों तारे सदा धुँधले बने रहते हैं। लम्बी श्वासरूपी अत्यन्त तेज वायु चलती है, जिसने सुख (-रूपी) अनेक वृक्षोंको गिरा दिया है। अतः दुःखरूपी वर्षा-ऋतुसे सताये हुए वचनरूपी पक्षी मुखको ही (अपना) घोंसला बनाकर (उसमें) बस गये हैं (बोलना भी प्रायः बंद हो गया है)। अंजनसे मिलकर काली हुई बूँदें छिप-छिपकर कंचुकी (चोली)-पर (इस भाँति) पड़ रही हैं, मानो शंकरजीने दो मूर्तियाँ बनाकर पृथक्-पृथक् पत्तोंसे बनी कुटियामें धर (बैठाल) दी हों। घुमड़-घुमड़कर (बार-बार अश्रु भर-भरकर नेत्र) जल गिराते हैं (जिससे आँखोंके आगे छाये) अन्धकारको देखकर (मुझे) भय लगता है। अब, भला, बिना प्रियतम गिरिधरलालके व्रजको डूबनेसे कौन बचा सकता है।
विषय (हिन्दी)
(१३७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैना सावन-भादौं जीते।
इनही बिषय आनि राखे मनु, समुदनि हूँ जल रीते॥
वे झर लाइ दिना द्वै उघरत, ये न भूलि मग देत।
वे बरषत सब के सुख कारन, ये नँदनंदन हेत॥
वे परिमान पुजें हद मानत, ये दिन धार न तोरत।
यह बिपरीति होति देखति हौं, बिना अवधि जग बोरत॥
मेरे जिय ऐसी आवत, भइ चतुरानन की साँझ।
सूर बिनु मिलें प्रलय जानिबौ, इनहीं द्यौसनि माँझ॥
मूल
नैना सावन-भादौं जीते।
इनही बिषय आनि राखे मनु, समुदनि हूँ जल रीते॥
वे झर लाइ दिना द्वै उघरत, ये न भूलि मग देत।
वे बरषत सब के सुख कारन, ये नँदनंदन हेत॥
वे परिमान पुजें हद मानत, ये दिन धार न तोरत।
यह बिपरीति होति देखति हौं, बिना अवधि जग बोरत॥
मेरे जिय ऐसी आवत, भइ चतुरानन की साँझ।
सूर बिनु मिलें प्रलय जानिबौ, इनहीं द्यौसनि माँझ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) नेत्रोंने श्रावण तथा भाद्रपद (-के महीनों)-को (भी) जीत लिया है। मानो इन्होंने ही सम्पूर्ण जलको लेकर अपनेमें रख लिया हो, जिससे समुद्र भी जलसे खाली हो गये हैं। वे (मेघ) तो झड़ी लगाकर दो दिनमें खुल जाते हैं, किंतु ये भूलकर भी रास्ता नहीं देते अर्थात् निरन्तर वर्षा करते रहते हैं। वे (बादल) सबके सुखके लिये वर्षा करते हैं और ये (नेत्र) नन्दनन्दनके लिये (प्रेममें) बरस रहे हैं। वे (मेघ) परिमाण (जितनी वृष्टि होनी है उतनी) पूरा करके (वर्षाकी) सीमा मान लेते हैं और ये किसी दिन अपनी धारा (ही) नहीं तोड़ते। (साथ ही इनमें) मैं यह उलटी बात होती देख रही हूँ कि ये (नेत्र प्रलयका) समय आये बिना ही संसारको डुबोये दे रहे हैं। मेरे मनमें यह बात आती है कि (अब कदाचित्) ब्रह्माजीका सायंकाल (प्रलयका समय) हो गया है। इसलिये (श्यामसुन्दरसे) मिलन न हुआ तो इन्हीं दिनोंमें (नेत्रोंकी वर्षाके कारण निश्चित) प्रलय (होना) समझ लेना चाहिये।
विषय (हिन्दी)
(१३८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसि-दिन बरषत नैन हमारे।
सदा रहत पावस-रितु हम पै, जब तैं स्याम सिधारे॥
दृग अंजन न रहत निसि-बासर, कर-कपोल भए कारे।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे॥
आँसू-सलिल सबै भइ काया, पल न जात रिस टारे।
सूरदास प्रभु इहै परेखौ, गोकुल काहें बिसारे॥
मूल
निसि-दिन बरषत नैन हमारे।
सदा रहत पावस-रितु हम पै, जब तैं स्याम सिधारे॥
दृग अंजन न रहत निसि-बासर, कर-कपोल भए कारे।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे॥
आँसू-सलिल सबै भइ काया, पल न जात रिस टारे।
सूरदास प्रभु इहै परेखौ, गोकुल काहें बिसारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) हमारे नेत्र रात-दिन वर्षा करते हैं; (क्योंकि) जबसे श्यामसुन्दर यहाँसे चले गये हैं, तबसे हमारे निकट सदा वर्षा-ऋतु ही रहती है। आँखोंमें (लगाया गया) अंजन रात या दिनमें कभी टिक नहीं पाता, अतः हथेलियाँ और कपोल काले हो गये हैं और न कंचुकी (चोली)-का वस्त्र कभी सूखने पाता है; क्योंकि वक्षःस्थलके बीचसे (अश्रुकी) धारा बहती रहती है। पूरा शरीर ही आँसूका जल हो गया है और एक पलको भी (दूर करनेका प्रयत्न करनेपर भी जिसे) क्रोधपूर्वक हटाया नहीं जा पाता। स्वामी! (हमें) यही दुःख (पश्चात्ताप) है कि आपने गोकुलको विस्मृत क्यों कर दिया।
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(१३९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब तैं नैन अनाथ भए।
जब तैं मदन-गुपाल हमारे, ब्रज तजि अनत गए॥
ता दिन तैं पावस दल साजत, जुद्ध-निसान हए।
सुभट मोर सायक मुख मोचत, दिन दुख देत नए॥
यह सुनि-सोचि काम अबलनि के, तन-गढ़ आनि लए!
सूरदास जिन्ह दए संग सुख, तिन्ह मिलि बैर ठए॥
मूल
तब तैं नैन अनाथ भए।
जब तैं मदन-गुपाल हमारे, ब्रज तजि अनत गए॥
ता दिन तैं पावस दल साजत, जुद्ध-निसान हए।
सुभट मोर सायक मुख मोचत, दिन दुख देत नए॥
यह सुनि-सोचि काम अबलनि के, तन-गढ़ आनि लए!
सूरदास जिन्ह दए संग सुख, तिन्ह मिलि बैर ठए॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) तबसे (मेरे) नेत्र अनाथ हो गये, जबसे हमारे मदनगोपाल व्रजको छोड़कर अन्यत्र चले गये हैं। उसी दिनसे वर्षा-ऋतु (अपना) दल सजाती (सेना बटोरती) युद्धके नगाड़े बजाने लगी है और उसके वीर योद्धा मयूर अपने मुखसे (वाणीरूपी) बाण छोड़कर हमें दिनोंदिन नये-नये दुःख देते हैं। कामदेवने (भी) यह सुन और विचारकर (हम) अबलाओंके शरीररूपी किले आकर ले लिये (उनपर अधिकार कर लिया)। जिन्होंने श्यामसुन्दरके साथ रहनेपर सुख दिया था, अब उन्होंने ही मिलकर शत्रुता ठान ली है।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१४०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैनन नाध्यौ है झर।
ऊँचे चढ़ि टेरति आतुर सुर, कहि कहि गिरिधर-गिरिधर॥
फिरति सदन दरसन के काजैं, ज्यौं झख सूखे सर।
कौन-कौन की दसा कहौं सुनि, सब ब्रज तिन तैं पर॥
निसि-दिन कलमलात सुनि सजनी गाजत मनमथ अर।
सूरदास सब रहीं मौन ह्वै, अतिहिं मैन के भर॥
मूल
नैनन नाध्यौ है झर।
ऊँचे चढ़ि टेरति आतुर सुर, कहि कहि गिरिधर-गिरिधर॥
फिरति सदन दरसन के काजैं, ज्यौं झख सूखे सर।
कौन-कौन की दसा कहौं सुनि, सब ब्रज तिन तैं पर॥
निसि-दिन कलमलात सुनि सजनी गाजत मनमथ अर।
सूरदास सब रहीं मौन ह्वै, अतिहिं मैन के भर॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—सखी!) मेरे नेत्रोंने (श्यामसुन्दरके दर्शन बिना) झड़ी बाँध दी है। (मैं) ऊँचे (अटारीपर) चढ़कर अधीर स्वरसे ‘गिरधर! गिरधर!’ पुकारती हूँ। (मोहनके) दर्शनके लिये घरमें ऐसे (व्याकुल) घूमती हूँ, जैसे सूखे तालाबमें मछली (तड़पती हो)। किस-किसकी दशा वर्णन की जाय, सुनो! व्रजमें तो सब जलहीन मछलियोंसे (भी) अधिक व्याकुल हैं। सखी! सुनो, (श्यामसुन्दरके बिना मैं तो) रात-दिन छटपटाया करती हूँ और कामदेव हठपूर्वक गर्जना करता है। सूरदासजी कहते हैं कि ये गोपियाँ इस प्रकार (कह-कहकर) काम (प्रेम)-में अत्यन्त पूर्ण होकर सब चुप हो रहीं।
विषय (हिन्दी)
(१४१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति रस-लंपट मेरे नैन।
तृप्ति न मानत पिवत कमल-मुख, सुंदरता-मधु-ऐन॥
दिन अरु रैनि दृष्टि-रसना-रस, निमिष न मानत चैन।
सोभा-सिंधु समाइ कहाँ लौं, हृदय साँकरे ऐन॥
अब यह बिरह अजीरन ह्वै कैं, बमि लाग्यौ दुख दैन।
सूर बैद ब्रजनाथ मधुपुरी, काहि पठाऊँ लैन॥
मूल
अति रस-लंपट मेरे नैन।
तृप्ति न मानत पिवत कमल-मुख, सुंदरता-मधु-ऐन॥
दिन अरु रैनि दृष्टि-रसना-रस, निमिष न मानत चैन।
सोभा-सिंधु समाइ कहाँ लौं, हृदय साँकरे ऐन॥
अब यह बिरह अजीरन ह्वै कैं, बमि लाग्यौ दुख दैन।
सूर बैद ब्रजनाथ मधुपुरी, काहि पठाऊँ लैन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) मेरे नेत्र अत्यन्त रस-लम्पट (सुखके लोभी) हैं, ये सौन्दर्य एवं मधुरिमाके भवन (मोहनके) कमल-सदृश मुखका पान करते हुए तृप्ति (संतोष) नहीं मानते। दिन और रात दृष्टिरूपी जीभके स्वादमें रत रहनेपर भी एक पलके लिये शान्त नहीं होते; किंतु (इनके) छोटे-से हृदयरूप भवनमें (वह) सौन्दर्य-सागर कहाँतक समा सकता है। अब (उसीका) अजीर्ण हो जानेके कारण यह वियोगके अश्रु वमन कर-कर दुःख देने लगा है। (इसके चिकित्सक) वैद्य व्रजनाथ (तो) मथुरा हैं, उन्हें ले आने किसे भेजूँ?
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(१४२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि-दरसन कौं तरसति अँखियाँ।
झाँकति झखति झरोखा बैठी, कर मीड़ति ज्यौं मखियाँ॥
बिछुरीं बदन-सुधानिधि-रस तैं, लगति नाहिं पल पँखियाँ।
इकटक चितवति उड़ि न सकति जनु, थकित भईं लखि सखियाँ॥
बार-बार सिर धुनति बिसूरति, बिरह-ग्राह जनु भखियाँ।
सूर सरूप मिले तैं जीवहिं, काटि किनारें नखियाँ॥
मूल
हरि-दरसन कौं तरसति अँखियाँ।
झाँकति झखति झरोखा बैठी, कर मीड़ति ज्यौं मखियाँ॥
बिछुरीं बदन-सुधानिधि-रस तैं, लगति नाहिं पल पँखियाँ।
इकटक चितवति उड़ि न सकति जनु, थकित भईं लखि सखियाँ॥
बार-बार सिर धुनति बिसूरति, बिरह-ग्राह जनु भखियाँ।
सूर सरूप मिले तैं जीवहिं, काटि किनारें नखियाँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) मेरी आँखें श्यामका दर्शन करनेके लिये तरस रही हैं, (मैं) झरोखे (खिड़की)-पर बैठी हुई (इस भाँति) झाँकती और पछताती रहती हूँ जैसे (मधुहीन) मधुमक्खियाँ हाथ (पंख) मलती हैं। (श्यामसुन्दरके) मुखरूपी सुधानिधिके रससे वियुक्त होनेके कारण इनकी पाँखें (पलकें) एक पलको भी लगतीं नहीं और सदा एकटक (ही) देखती और इस भाँति उड़नेमें असमर्थ (-सी) जान पड़ती हैं, मानो अपनी सखियोंको देखकर वे थकित (मूर्छित) हो गयी हों। वे (इस भाँति) बार-बार सिर पीटती और रोती हैं मानो वियोगरूपी ग्राह (मगर) (उन्हें) खाये जा रहा हो। ये तो उस (मनोहर) रूपके मिलनेसे ही जीवित रह सकती हैं, जिससे काट (बलपूर्वक पृथक्)-कर किनारे डाल दी गयी हैं।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१४३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोचन ब्याकुल दोऊ दीन।
कैसैं रहैं दरस बिनु देखें, बिधु चकोर ज्यौं लीन॥
बिबरन भए खंज ज्यौं दाधे, बारिज ज्यौं जल-हीन।
स्याम-सिंधु तैं बिछुरि परे हैं, तरफरात ज्यौं मीन॥
ज्यौं रितुराज बिमुख भृंगी की, छिन-छिन बानी छींन।
सूरदास प्रभु बिनु गोपालहि, कत बिधना ए कीन॥
मूल
लोचन ब्याकुल दोऊ दीन।
कैसैं रहैं दरस बिनु देखें, बिधु चकोर ज्यौं लीन॥
बिबरन भए खंज ज्यौं दाधे, बारिज ज्यौं जल-हीन।
स्याम-सिंधु तैं बिछुरि परे हैं, तरफरात ज्यौं मीन॥
ज्यौं रितुराज बिमुख भृंगी की, छिन-छिन बानी छींन।
सूरदास प्रभु बिनु गोपालहि, कत बिधना ए कीन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) मेरे दोनों नेत्र दीन होकर व्याकुल हो रहे हैं। वे (मोहनका) दर्शन किये बिना कैसे रहें; (क्योंकि) वे (उस) चन्द्रमामें चकोरके समान तल्लीन हैं। ऐसे श्रीहीन हो गये हैं, जैसे झुलसाये हुए खंजन पक्षी अथवा जलसे रहित कमल हों। वे श्यामसुन्दररूपी समुद्रसे वियुक्त हो गये हैं, इससे (इस प्रकार) तड़फड़ाते हैं, जैसे (जलसे पृथक् हुई) मछली। जैसे वसन्त-ऋतु न रहनेपर भौंरेकी वाणी प्रतिक्षण शिथिल पड़ती जाती है (वही दशा इनकी है)। (अतः) स्वामी गोपालके बिना (ही इन्हें रखना था तो) विधाताने इन (नेत्रों)-को बनाया ही क्यों?
विषय (हिन्दी)
(१४४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा दुखित दोउ मेरे नैन।
जा दिन तैं हरि चले मधुपुरी, नैक न कबहूँ कीन्ही सैन॥
भरे रहत अति नीर न निघटत, जानत नहिं कब दिन, कब रैन।
महा दुखित अतिही भ्रम माते, बिन देखें पावत नहिं चैन॥
जौ कबहूँ पलकौ नहिं खोलति, चाहन चाहति मूरति मैन।
छाँड़त छिन में ये जु सरीरहि गहि कैं बिथा जात हरि लैन॥
रसना यहई नेम लियौ है, और नहीं भाषैं मुख बैन।
सूरदास प्रभु जब तैं बिछुरे, तब तैं सब लागे दुख दैन॥
मूल
महा दुखित दोउ मेरे नैन।
जा दिन तैं हरि चले मधुपुरी, नैक न कबहूँ कीन्ही सैन॥
भरे रहत अति नीर न निघटत, जानत नहिं कब दिन, कब रैन।
महा दुखित अतिही भ्रम माते, बिन देखें पावत नहिं चैन॥
जौ कबहूँ पलकौ नहिं खोलति, चाहन चाहति मूरति मैन।
छाँड़त छिन में ये जु सरीरहि गहि कैं बिथा जात हरि लैन॥
रसना यहई नेम लियौ है, और नहीं भाषैं मुख बैन।
सूरदास प्रभु जब तैं बिछुरे, तब तैं सब लागे दुख दैन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) मेरे दोनों नेत्र अत्यन्त दुःखी हैं। जिस दिनसे श्यामसुन्दर मथुरा गये, उस दिनसे कभी भूलकर भी सोयी नहीं हूँ। (मेरे ये) नेत्र सदा भरे ही रहते हैं, इनका जल समाप्त नहीं होता और न ये यही जानते हैं कि कब दिन हुआ और कब रात हुई। (ये) अत्यन्त दुःखी हैं और भ्रम (शोक)-में अत्यन्त उन्मत्त हो गये हैं। (मोहनको) देखे बिना शान्ति (ही) नहीं पाते। यदि कभी पलक भी नहीं खोलती तो (ये) यही चाहते हैं कि कामदेवके समान (श्यामसुन्दरकी) सुन्दर मूर्ति (जो हृदयमें स्थित है उसे ही) देखा करें और (ध्यानस्थ होनेके कारण) ये जो एक क्षणमें शरीरको छोड़ देते (शरीरको भूल जाते) हैं सो पीड़ाका मार्ग पकड़कर श्यामसुन्दरको लेने जाते हैं। (मेरी) जिह्वाने ही यह नियम लिया है कि मुखसे (श्यामसुन्दरकी बात छोड़कर) दूसरी बात बोलती ही नहीं। जबसे स्वामी (मुझसे) वियुक्त हुए हैं, तबसे सभी (मुझे) दुःख देने लगे हैं।
विषय (हिन्दी)
(१४५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अँखियाँ करति हैं अति आरि।
सुंदर-स्याम पाहुने के मिस, मिलि न जाहु दिन चारि॥
बाहँ थकी बायसहि उड़ावत, कब देखौं उनहारि।
मैं तौ स्याम-स्याम करि टेरति, कालिंदी कँगरारि॥
कमल-बदन ऊपर द्वै खंजन, मानौ बूड़त बारि।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिन, सकैं न पंख पसारि॥
मूल
अँखियाँ करति हैं अति आरि।
सुंदर-स्याम पाहुने के मिस, मिलि न जाहु दिन चारि॥
बाहँ थकी बायसहि उड़ावत, कब देखौं उनहारि।
मैं तौ स्याम-स्याम करि टेरति, कालिंदी कँगरारि॥
कमल-बदन ऊपर द्वै खंजन, मानौ बूड़त बारि।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिन, सकैं न पंख पसारि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) श्यामसुन्दर! (मेरी) आँखें (तुम्हारे दर्शनोंके लिये) अत्यन्त हठ कर रही हैं (अतः इनकी तृप्तिके लिये) अतिथि बननेके बहाने ही सही, चार दिनके लिये मिल जाओ न। (तुम्हारे आगमनका शकुन जाननेके लिये) कौओंको उड़ाते-उड़ाते (मेरी) भुजा थक गयी, कब उसी रूपमें तुम्हें देखूँगी? अरे, मैं तो यमुनाके कगारोंपर (तुम्हारी यादमें) ‘श्याम! श्याम!’ कहकर पुकारती रहती हूँ। (मेरे) कमल-समान मुखपर (नेत्ररूपी) दो खंजन (इस भाँति भीग रहे हैं) मानो जलमें डूब रहे हों। हे स्वामी! तुम्हारे दर्शनके बिना ये पंख भी (तो) नहीं फैला सकते (अतः दर्शन देकर इन्हें डूबनेसे बचा लो)।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(१४६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोचन लालच तैं न टरैं।
हरि-मुख एक रंग-सँग बींधे दाधे, फेरि जरैं॥
ज्यौं मधुकर रुचि रच्यौ केतकी, कंटक कोटि अरैं।
तैसैंहि लोभ तजत नहिं लोभी, फिरि-फिरि फेरि फिरैं॥
मृग ज्यौं सहज सहत सर दारुन, सनमुख तैं न दुरैं।
जानत आहिं हतें, तन त्यागत, तापै हितै करैं॥
समझि न परै कौन सचु पावत, जीवत जाइ मरैं।
सूर सुभट हठ छाँड़त नाहीं, काटें सीस लरैं॥
मूल
लोचन लालच तैं न टरैं।
हरि-मुख एक रंग-सँग बींधे दाधे, फेरि जरैं॥
ज्यौं मधुकर रुचि रच्यौ केतकी, कंटक कोटि अरैं।
तैसैंहि लोभ तजत नहिं लोभी, फिरि-फिरि फेरि फिरैं॥
मृग ज्यौं सहज सहत सर दारुन, सनमुख तैं न दुरैं।
जानत आहिं हतें, तन त्यागत, तापै हितै करैं॥
समझि न परै कौन सचु पावत, जीवत जाइ मरैं।
सूर सुभट हठ छाँड़त नाहीं, काटें सीस लरैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) मेरे नेत्र लालचके वश अपने लक्ष्यसे हटते नहीं। (वे तो) श्यामसुन्दरके मुखकी शोभासे एक साथ विद्ध (उसपर अनुरक्त) हुए तथा वियोगमें झुलसे, किंतु फिर भी वे जलते ही रहते हैं। जैसे भौंरा केतकीके पुष्पपर अनुरक्त हो जाय (उससे प्रेम करने लगे तो), फिर चाहे उसे करोड़ों काँटे (क्यों न) चुभें, (उसे वह त्यागता नहीं)। उसी प्रकार ये लोभी (नेत्र) भी अपना लोभ नहीं छोड़ते और बार-बार उधर ही चक्कर लगाते हैं। जैसे मृग स्वभावसे ही कठोर बाण सहते हैं, परंतु सम्मुखसे हटकर छिपते नहीं। वे (मृग) जानते हैं कि (व्याधके) बाण मारनेपर शरीर छोड़ना पड़ेगा। इतनेपर भी (उसके गायनसे) प्रेम करते हैं। समझमें नहीं आता कि ये (नेत्र) वहाँ कौन-सा सुख पाते हैं जो (पतंगके समान) जीते ही (दीपकपर) जाकर मरते हैं। (वास्तवमें) उत्तम योद्धा अपना हठ नहीं छोड़ते, मस्तक कट जानेपर भी युद्ध करते (ही) रहते हैं।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१४७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोचन चातक ज्यौ हैं चाहत।
अवधि गऐं पावस की आसा, क्रम-क्रम करि निरबाहत॥
सरिता, सिंधु अनेक और सखि, सुत-पति-सजन-सनेह।
ये सब जल जदुनाथ-जलद बिनु, अधिक दहत हैं देह॥
जब लगि नहिं बरषत ब्रज ऊपर, नव घन स्याम-सरीर।
तौ लगि तृषा जाइ कित सूरज, आन ओस कें नीर॥
मूल
लोचन चातक ज्यौ हैं चाहत।
अवधि गऐं पावस की आसा, क्रम-क्रम करि निरबाहत॥
सरिता, सिंधु अनेक और सखि, सुत-पति-सजन-सनेह।
ये सब जल जदुनाथ-जलद बिनु, अधिक दहत हैं देह॥
जब लगि नहिं बरषत ब्रज ऊपर, नव घन स्याम-सरीर।
तौ लगि तृषा जाइ कित सूरज, आन ओस कें नीर॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी! मेरे) नेत्र (श्यामसुन्दरको) वैसे ही चाहते हैं, जैसे पपीहा बादलको। (जैसे वह) वर्षाका समय बीत जानेपर भी उसीकी आशासे धीरे-धीरे (अपना जीवन) निर्वाह करता (रहता) है (वही दशा हमारे नेत्रोंकी है)। सखी! पुत्र, पति तथा कुटुम्बियोंके प्रेमरूपी नदियाँ और समुद्र तो अनेक हैं। फिर भी यदुनाथरूपी मेघके बिना (वे सब) शरीरको (और) अधिक जलाते हैं। अतः जबतक वे श्याम शरीरवाले नवीन मेघ (-रूप श्यामसुन्दर) व्रजके ऊपर वर्षा नहीं करते (यहाँ नहीं आते), तबतक दूसरे (-के प्रेमरूपी) ओसके जलसे इन (नेत्रों)-की प्यास कैसे जा सकती है।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(१४८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
(मेरे) नैना बिरह की बेलि बई।
सींचत नैन-नीर के सजनी, मूल पताल गई॥
बिगसित लता सुभाइ आपनें, छाया सघन भई।
अब कैसैं निरवारौं सजनी, सब तन पसरि छई॥
को जानै काहू के जिय की, छिन-छिन होत नई।
सूरदास स्वामी के बिछुरें, लागी प्रेम जई॥
मूल
(मेरे) नैना बिरह की बेलि बई।
सींचत नैन-नीर के सजनी, मूल पताल गई॥
बिगसित लता सुभाइ आपनें, छाया सघन भई।
अब कैसैं निरवारौं सजनी, सब तन पसरि छई॥
को जानै काहू के जिय की, छिन-छिन होत नई।
सूरदास स्वामी के बिछुरें, लागी प्रेम जई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—) सखी! मेरे नेत्रोंने वियोगकी लता बोयी है, (जिसकी) जड़ नेत्रोंके जल (आँसुओं)-से (बराबर) सींचे जानेके कारण पातालतक पहुँच गयी। अपने स्वभावसे वह लता बढ़ी और (अब उसकी) छाया (भी) घनी हो गयी, सखी! अब उसे कैसे पृथक् करूँ, वह तो पूरे शरीरपर फैलकर छा गयी है। किसी (अन्य)-के मनकी दशा कौन जाने, (किंतु) यहाँ (तो) वह (वियोगलता) क्षण-क्षणमें नवीन होती रहती है और स्वामीके वियुक्त होनेसे (अब इसमें) प्रेमके अंकुर (भी) लग गये हैं।
राग देवगंधार
विषय (हिन्दी)
(१४९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज बसि काके बोल सहौं।
इन लोभी नैननि के काजैं, परबस भइ जो रहौं॥
बिसरि लाज गइ, सुधि नहिं तन की, अब धौं कहा कहौं।
मेरे जिय में ऐसी आवति, जमुना जाइ बहौं॥
इक बन ढूँढ़ि सकल बन ढूँढ़ौं, कहूँ न स्याम लहौं।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौं, इहिं दुख अधिक दहौं॥
मूल
ब्रज बसि काके बोल सहौं।
इन लोभी नैननि के काजैं, परबस भइ जो रहौं॥
बिसरि लाज गइ, सुधि नहिं तन की, अब धौं कहा कहौं।
मेरे जिय में ऐसी आवति, जमुना जाइ बहौं॥
इक बन ढूँढ़ि सकल बन ढूँढ़ौं, कहूँ न स्याम लहौं।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौं, इहिं दुख अधिक दहौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) व्रजमें रहकर किस-किसके ताने सहन करूँ; क्योंकि इन लोभी नेत्रोंके कारण यहाँ पराधीन बनी रहती हूँ। लज्जा भूल गयी, शरीरकी सुधि (भी) रहती नहीं, अब और क्या कहूँ। (इसलिये) मेरे मनमें ऐसी बात आती है कि जाकर यमुनामें बह (प्रवाहित हो) जाऊँ (डूब जाऊँ)। एक वनको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते सभी वनोंको ढूँढ़ लिया, पर कहीं श्यामसुन्दरको पा नहीं रही। हे स्वामी! तुम्हारे दर्शनके लिये मैं इस (वियोगके) दुःखसे अत्यधिक जल (संतप्त हो) रही हूँ।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(१५०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैना अब लागे पछतान।
बिछुरत उँमगि नीर भरि आए, अब न कछू औसान॥
तब मिलि-मिलि कत प्रीति बढ़ावत, अब जु भई बिष-बान।
तब तौ प्रीति करी आतुर ह्वै, समझीं कछु न अजान॥
अब यह काम दहत निसि-बासर, नाहीं मेरे मान।
भयौ बिदेस मधुपुरी हम कौं, क्यौंहूँ होत न जान॥
अति चटपटी देखिबे चाहत, अब लागे अकुलान।
सूरदास प्रभु दीन-दुखित ये, लै न गए सँग प्रान॥
मूल
नैना अब लागे पछतान।
बिछुरत उँमगि नीर भरि आए, अब न कछू औसान॥
तब मिलि-मिलि कत प्रीति बढ़ावत, अब जु भई बिष-बान।
तब तौ प्रीति करी आतुर ह्वै, समझीं कछु न अजान॥
अब यह काम दहत निसि-बासर, नाहीं मेरे मान।
भयौ बिदेस मधुपुरी हम कौं, क्यौंहूँ होत न जान॥
अति चटपटी देखिबे चाहत, अब लागे अकुलान।
सूरदास प्रभु दीन-दुखित ये, लै न गए सँग प्रान॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी! मेरे) नेत्र अब पश्चात्ताप करने लगे हैं। (श्यामसुन्दरसे) वियोग होते ही (इनमें) उमड़कर जल भर आया और अब (इन्हें) कुछ भी चेत (होश) नहीं है। तब (जब श्यामसुन्दर यहाँ थे) बार-बार मिलकर कैसे (ये) प्रेम बढ़ाते थे, अब वही (प्रेम इनके लिये विषसे) बुझा बाण हो गया। इन अज्ञानियोंने तब तो (अत्यन्त) आतुर (अधीर) होकर प्रेम किया और (परिणाम) कुछ समझा नहीं। अब यह काम (प्रेम) रात-दिन जला रहा है, (जिसे) रोकना मेरे वशकी बात नहीं। हमारे लिये (तो अब) मथुरा (ही) विदेश हो गयी, (जहाँ) किसी प्रकार जाना नहीं हो पाता। पहले तो इन नेत्रोंको उन्हें देखनेकी अत्यन्त उत्सुकता रहा करती थी और अब (उनके बिना) व्याकुल होने लगे हैं। स्वामी! ये दीन (नेत्र) अत्यन्त दुःखी हैं, (आप इन्हें हमारे) प्राणोंके साथ ले क्यों नहीं गये?
राग आसावरी
विषय (हिन्दी)
(१५१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हौं तौ ता दिन कजरा दैहौं।
जा दिन नंदनँदन के नैननि, अपने नैन मिलैहौं॥
सुनि री, सखी! यहै जिय मेरे, भूलि न और चितैहौं।
अब हठ सूर यहै ब्रत मेरौ, कौंकिर खै मरि जैहौं॥
मूल
हौं तौ ता दिन कजरा दैहौं।
जा दिन नंदनँदन के नैननि, अपने नैन मिलैहौं॥
सुनि री, सखी! यहै जिय मेरे, भूलि न और चितैहौं।
अब हठ सूर यहै ब्रत मेरौ, कौंकिर खै मरि जैहौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) मैं उसी दिन काजल लगाऊँगी, जिस दिन नन्दनन्दनके नेत्रोंसे अपने नेत्र मिला सकूँगी (उनके दर्शन कर सकूँगी)। सखी! सुन, मेरे चित्तमें यही (निश्चय) है कि भूलकर भी (किसी) दूसरेको नहीं देखूँगी। मेरा अब यही हठ है और यही व्रत है कि यदि वे न आये तो हीरेकी कनीको खाकर मर जाऊँगी।
राग गौरी
विषय (हिन्दी)
(१५२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहा इन्ह नैननि कौ अपराध।
रसना रटत सुनत जस स्रवननि, इतनौ अगम अगाध॥
भोजन कहें भूख क्यौं भाजत, बिनु खाऐं का स्वाद।
इकटक रहत, छुटत नहिं कबहूँ, हरि देखन की साध॥
ये दृग दुखी बिना वह मूरति, कहौ, कहा अब कीजै।
एक बेर ब्रज आनि कृपा करि, सूर सुदरसन दीजै॥
मूल
कहा इन्ह नैननि कौ अपराध।
रसना रटत सुनत जस स्रवननि, इतनौ अगम अगाध॥
भोजन कहें भूख क्यौं भाजत, बिनु खाऐं का स्वाद।
इकटक रहत, छुटत नहिं कबहूँ, हरि देखन की साध॥
ये दृग दुखी बिना वह मूरति, कहौ, कहा अब कीजै।
एक बेर ब्रज आनि कृपा करि, सूर सुदरसन दीजै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी! मेरे) इन नेत्रोंका ही क्या अपराध है (जो ये ही मोहनके दर्शनसे वंचित रह रहे हैं; क्योंकि) जीभ (उनका) नाम लेती रहती है और कानोंसे (उनका) सुयश सुनती रहती हूँ—वह इतना अगम्य एवं अथाह (गम्भीर) है। किंतु भोजनका नाम लेनेसे भूख कैसे दूर हो सकती है और उसे खाये बिना (उसका) स्वाद क्या जाना जा सकता है? (ये मेरे नेत्र) सदा एकटक (उस ओर ही देखते) रहते हैं। उधरसे कभी छूटते (हटते) नहीं; क्योंकि (उन्हें) श्यामसुन्दरके देखनेकी (अति) लालसा है। ये (मेरे) नेत्र उस मूर्तिके (दर्शन) बिना दुःखी हैं; बताओ, अब क्या किया जाय। (श्यामसुन्दर!) एक बार (पुनः) व्रज आकर और कृपा करके (अपना) उत्तम दर्शन (इन्हें) दे जाओ।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१५३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
चितवत ही मधुबन दिन जात।
नैनन नींद परत नहिं सजनी, सुनि-सुनि बातनि मन अकुलात॥
अब ये भवन देखियत सूने, धाइ-धाइ हमकौं ब्रज खात।
कौन प्रतीति करै मोहन की, जिन छाँड़े निज जननी-तात॥
अनुदिन नैन तपत दरसन कौं, हरद-समान देखियत गात।
सूरदास स्वामी के बिछुरें, ऐसी भई हमारी घात॥
मूल
चितवत ही मधुबन दिन जात।
नैनन नींद परत नहिं सजनी, सुनि-सुनि बातनि मन अकुलात॥
अब ये भवन देखियत सूने, धाइ-धाइ हमकौं ब्रज खात।
कौन प्रतीति करै मोहन की, जिन छाँड़े निज जननी-तात॥
अनुदिन नैन तपत दरसन कौं, हरद-समान देखियत गात।
सूरदास स्वामी के बिछुरें, ऐसी भई हमारी घात॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! (मेरे) दिन मथुराकी ओर देखते हुए ही बीतते हैं। नेत्रोंमें (तो) नींद नहीं आती और (मोहनके सम्बन्धकी) बातें सुन-सुनकर चित्त व्याकुल होता है। अब ये घर सूने दिखलायी पड़ते हैं, ऐसा लगता है, मानो व्रज हमें खानेको दौड़ता है। जिन्होंने अपने माता-पिताको (ही) छोड़ दिया, उन मोहनका विश्वास कौन करे; (फिर भी) प्रतिदिन नेत्र उनके दर्शनके लिये संतप्त रहते हैं और (वियोगमें) शरीर हल्दीके समान पीला दिखलायी पड़ता है। स्वामीका वियोग हो जानेसे हमारी (तो) इस प्रकार हत्या ही हो गयी।
राग गौरी
विषय (हिन्दी)
(१५४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मथुरा के द्रुम देखियत न्यारे।
ह्वाँ हैं स्याम हमारे प्रीतम, चितवत लोचन हारे॥
कितक बीच, संदेसहु दुरलभ, सुनियत टेरि पुकारे।
तुव गुन सुमिरि-सुमिरि हम मोहन, मदन-बान उर मारे॥
तुम्ह बिन स्याम सबै सुख भूल्यौ, गृह बन भए हमारे।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, रैन गनत गइ तारे॥
मूल
मथुरा के द्रुम देखियत न्यारे।
ह्वाँ हैं स्याम हमारे प्रीतम, चितवत लोचन हारे॥
कितक बीच, संदेसहु दुरलभ, सुनियत टेरि पुकारे।
तुव गुन सुमिरि-सुमिरि हम मोहन, मदन-बान उर मारे॥
तुम्ह बिन स्याम सबै सुख भूल्यौ, गृह बन भए हमारे।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, रैन गनत गइ तारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी! अब तो) मथुराके वृक्ष दूसरे ही प्रकारके दिखायी पड़ते हैं; क्योंकि वहाँ हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर हैं। (उन वृक्षोंकी ओर) देखते-देखते नेत्र थक गये। (मथुरा और व्रजमें) अन्तर कितना है, वहाँसे उच्चस्वरसे पुकारनेपर यहाँ सुन पड़ता है। किंतु (इतने पास होनेपर भी हमें श्यामसुन्दरका) संदेशतक दुर्लभ हो गया है। मोहन! हमने तुम्हारे गुण बार-बार स्मरण करके (अपने) हृदयमें कामके बाण मार लिये हैं। श्यामसुन्दर! तुम्हारे बिना हमें सब सुख भूल गये हैं और हमारे (लिये) घर (ही) वन हो गये हैं। स्वामी! तुम्हारे दर्शनके बिना हमारी रात तारे गिनते हुए बीतती है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१५५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि सखी, उत है वह गाँउ।
जहाँ बसत नँदलाल हमारे, मोहन मथुरा नाउँ॥
कालिंदी के कूल रहत हैं, परम मनोहर ठाउँ।
जौ तन पंख होहिं सुनि सजनी, अबै उहाँ उड़ि जाउँ॥
होनी होइ होइ सो अबहीं, इहिं ब्रज अन्न न खाउँ।
सूर नंदनंदन सौं हित करि, लोगन कहा डराउँ॥
मूल
देखि सखी, उत है वह गाँउ।
जहाँ बसत नँदलाल हमारे, मोहन मथुरा नाउँ॥
कालिंदी के कूल रहत हैं, परम मनोहर ठाउँ।
जौ तन पंख होहिं सुनि सजनी, अबै उहाँ उड़ि जाउँ॥
होनी होइ होइ सो अबहीं, इहिं ब्रज अन्न न खाउँ।
सूर नंदनंदन सौं हित करि, लोगन कहा डराउँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) देखो सखी! वहाँ वह ग्राम (नगर) है, जहाँ हमारे नन्दनन्दन रहते हैं और (जिसका) मनोहर मथुरा नाम है। वहाँ वे यमुना-किनारे परम सुन्दर स्थानमें रहते हैं। सखी! सुनो, यदि मेरे शरीरमें पंख हो जायँ तो (मैं) अभी वहाँ उड़ जाऊँ। जो कुछ होनेवाला हो, वह हो जाय; परंतु (अब) इस व्रजमें अन्न नहीं खाऊँगी। नन्दनन्दनसे प्रेम करके मैं (दूसरे) लोगोंसे क्या डरूँ?
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(१५६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिखि नहिं पठवत हैं, द्वै बोल।
द्वै कौड़ी के कागद मसि कौ, लागत है बहु मोल॥
हम इहि पार, स्याम पैले तट, बीच बिरह कौ जोर।
सूरदास प्रभु हमरे मिलन कौं, हिरदै कियौ कठोर॥
मूल
लिखि नहिं पठवत हैं, द्वै बोल।
द्वै कौड़ी के कागद मसि कौ, लागत है बहु मोल॥
हम इहि पार, स्याम पैले तट, बीच बिरह कौ जोर।
सूरदास प्रभु हमरे मिलन कौं, हिरदै कियौ कठोर॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी! श्यामसुन्दर) दो शब्द भी (हमें) लिखकर नहीं भेजते, दो कौड़ीके कागज और स्याहीका क्या बहुत मूल्य लगता है? हम (यमुनाके) इस किनारे और श्यामसुन्दर उस किनारे हैं तथा बीचमें वियोगकी प्रबलता (मिलनमें बाधक) है। स्वामीने हमसे मिलनेके लिये अपना हृदय कठोर कर लिया है।
विषय (हिन्दी)
(१५७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि-देखि मधुबन की बाटहि, धुँधरे भए मेरे नैन।
अवधि गनत अँगुरिनि छाले परे, रटत जु थाके बैन॥
आपुन जाइ मधुपुरी छाए, कुबिजा सँग सुख-चैन।
सूरदास प्रभु अबिचल जोरी, वह कुबरी ये बैन॥
मूल
देखि-देखि मधुबन की बाटहि, धुँधरे भए मेरे नैन।
अवधि गनत अँगुरिनि छाले परे, रटत जु थाके बैन॥
आपुन जाइ मधुपुरी छाए, कुबिजा सँग सुख-चैन।
सूरदास प्रभु अबिचल जोरी, वह कुबरी ये बैन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) मथुराके मार्गकी ओर देखते-देखते मेरे नेत्र धुँधले (ज्योतिहीन) हो गये, अवधि (श्यामके लौटनेके समय)-को गिनते-गिनते अँगुलियोंमें छाले पड़ गये और उनको पुकारते-पुकारते वाणी (जीभ) थक गयी। वे स्वयं जाकर मथुरामें बस गये और कुब्जाके साथ आनन्द-मौज कर रहे हैं। हमारे स्वामीकी यह जोड़ी स्थिर रहे (टूटे नहीं); क्योंकि वह कुबड़ी (है तो) ये तिरछे (त्रिभंग) हैं।
विषय (हिन्दी)
(१५८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
आली, देखत रहे नैन मेरे वा मधुबन की राइ।
कै हरि कौं हम आनि मिलावै, कै हमहीं लै जाइ॥
मिलि कैं बिछुरे, पलक न लागै, रही दिखाइ-दिखाइ।
सूर स्याम हम अतिहिं दुखित हैं, सपनेहूँ मिलि जाइ॥
मूल
आली, देखत रहे नैन मेरे वा मधुबन की राइ।
कै हरि कौं हम आनि मिलावै, कै हमहीं लै जाइ॥
मिलि कैं बिछुरे, पलक न लागै, रही दिखाइ-दिखाइ।
सूर स्याम हम अतिहिं दुखित हैं, सपनेहूँ मिलि जाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! मेरे नेत्र उस मथुराके मार्गकी ओर ही देखते रहते हैं। (अब) या तो (कोई) श्यामसुन्दरको लाकर हमसे मिला दे या हमको ही वहाँ ले जाय। मिलनेके बाद जबसे वियोग हुआ है, तबसे पलकें नहीं लगी हैं। बराबर (मार्ग) देखती रहती हूँ। श्यामसुन्दर! आपके बिना हम अत्यन्त दुःखी हैं, आप हमें स्वप्नमें ही मिल जाते।
राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(१५९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब तैं बिछुरे कुंज-बिहारी।
नींद न परै, घटै नहिं रजनी, बिथा बिरह जुर भारी॥
सरद-रैन नलिनी-दल-सीतल जगमग रही उज्यारी।
रवि-किरनन तैं लागत ताती, इहिं सीतल ससि जारी॥
स्रवनन सबद सुहाइ न सखि री, पिक-चातक द्रुम-डारी।
उर तैं सखी, दूरि करि हारहि, कंकन धरहि उतारी॥
सूर स्याम बिनु दुख लागत है, कुसुम-सेज करि न्यारी।
बिलख बदन बृषभानु-नंदिनी, करि बहु जतन जु हारी॥
मूल
जब तैं बिछुरे कुंज-बिहारी।
नींद न परै, घटै नहिं रजनी, बिथा बिरह जुर भारी॥
सरद-रैन नलिनी-दल-सीतल जगमग रही उज्यारी।
रवि-किरनन तैं लागत ताती, इहिं सीतल ससि जारी॥
स्रवनन सबद सुहाइ न सखि री, पिक-चातक द्रुम-डारी।
उर तैं सखी, दूरि करि हारहि, कंकन धरहि उतारी॥
सूर स्याम बिनु दुख लागत है, कुसुम-सेज करि न्यारी।
बिलख बदन बृषभानु-नंदिनी, करि बहु जतन जु हारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—सखी!) जबसे कुंजविहारी बिछुड़े हैं, तबसे वियोगकी वेदनारूपी भारी ज्वर हो गया है (जिससे) न तो नींद आती है और न रात ही घट (कट)-ती है। शरद् (ऋतु)-की रात्रि कमलकी पंखुड़िये-जैसी शीतल होती है। (ऐसी रात्रिमें) चाँदनी जगमग कर रही है; किंतु (मुझे तो) यह सूर्यकी किरणोंसे भी उष्ण लगती है और इस शीतल (कहलानेवाले) चन्द्रमाने भी मुझे जला डाला है। सखी! वृक्षोंकी डालियोंपर बैठे कोकिल और पपीहेका शब्द कानोंको सुहाता नहीं (अच्छा नहीं लगता)। सखी! मेरे हृदयपरसे (इस) हारको दूर कर दे और कंगनको (भी) उतार कर रख दे। श्यामसुन्दरके बिना (ये सब) दुःखदायी लगते हैं, अतः इस फूलोंकी शय्याको भी अलग कर दे। सूरदासजी कहते हैं—(इस प्रकार) श्रीवृषभानुकुमारी श्रीराधा उदास-मुख होकर बहुत-से उपाय करके थक गयी (फिर भी किसी प्रकार वियोगका दुःख कम नहीं हुआ)।