विषय (हिन्दी)
(७३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रज तजि गए माधौ कालि।
स्यामसुंदर कमल-लोचन, क्यौं बिसारौं आलि॥
बैठि निसि-बासर बिसूरति, बिकल चहुँ दिसि भारि।
कहा करौं कृत कर्म अपनौ, काहि दीजै गारि॥
तज्यौ भोजन, भवन, भूषन, अति बियोग बिहाल।
हित नहीं कोउ, काहि पठवौं, करि रही जिय लाल॥
धोखे-ही-धोखैं दगा दै, क्रूर गयौ रथ चालि।
सूर के प्रभु कहति जसुदा, कहा पायौ पालि॥
मूल
ब्रज तजि गए माधौ कालि।
स्यामसुंदर कमल-लोचन, क्यौं बिसारौं आलि॥
बैठि निसि-बासर बिसूरति, बिकल चहुँ दिसि भारि।
कहा करौं कृत कर्म अपनौ, काहि दीजै गारि॥
तज्यौ भोजन, भवन, भूषन, अति बियोग बिहाल।
हित नहीं कोउ, काहि पठवौं, करि रही जिय लाल॥
धोखे-ही-धोखैं दगा दै, क्रूर गयौ रथ चालि।
सूर के प्रभु कहति जसुदा, कहा पायौ पालि॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘व्रजको छोड़कर माधव कल चले गये, सखी! उन कमल-लोचन श्यामसुन्दरको कैसे भुलाऊँ, रात-दिन बैठी चिन्ता करती रहती हूँ, जिससे चारों ओर अत्यन्त व्याकुलता रहती है। क्या करूँ, यह अपना ही किया हुआ कर्म है; अतः गाली (दोष) किसे दी जाय? (उनके) वियोगमें अत्यन्त व्याकुल होकर भोजन, आभूषण, भवन—सब छोड़ दिये; पर कोई ऐसा हितैषी नहीं, किसे (उसके पास) भेजूँ। यही चिन्ता कर रही हूँ—मरी जा रही हूँ। धोखे-ही-धोखेमें अक्रूर (हमें) चकमा दे रथ चलाकर ले गया। यशोदाजी कहती हैं—सूरदासके प्रभुका पालन करके मैंने क्या पाया।’
राग कान्हरौ
विषय (हिन्दी)
(७४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नंद, ब्रज लीजै ठोक-बजाइ।
देहु बिदा, मिलि जाहिं मधुपुरी, जहँ गोकुल कौ राइ॥
नैनन पंथ, कहौ, क्यौं सूझ्यौ, उलटि दियौ जब पाँइ।
रघुपति-दसरथ-कथा सुनी ही, बरु मरते गुन गाइ॥
भूमि मसान बिदित यह गोकुल, मनौ धाइ कैं खाइ।
सूरदास-प्रभु पास जाहिं हम, देखहिं रूप अघाइ॥
मूल
नंद, ब्रज लीजै ठोक-बजाइ।
देहु बिदा, मिलि जाहिं मधुपुरी, जहँ गोकुल कौ राइ॥
नैनन पंथ, कहौ, क्यौं सूझ्यौ, उलटि दियौ जब पाँइ।
रघुपति-दसरथ-कथा सुनी ही, बरु मरते गुन गाइ॥
भूमि मसान बिदित यह गोकुल, मनौ धाइ कैं खाइ।
सूरदास-प्रभु पास जाहिं हम, देखहिं रूप अघाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें गोपियाँ कहती हैं—) नन्दजी! (अब) अपना व्रज ठोंक-बजाकर (भली प्रकार देखकर) सँभाल लीजिये; हमें विदा दें, (जिससे) हम सब मिलकर मथुरा जायँ, जहाँ गोकुलका स्वामी है। जब लौटकर तुमने इधर (व्रजकी ओर) पैर रखा, तब नेत्रोंसे मार्ग कैसे सूझा (दीखा)। श्रीरामके वियोगमें दशरथके (देहत्यागकी) कथा तुमने सुन (ही) रखी थी। अतः (लौटनेसे) अच्छा था कि मोहनके गुण गाते-गाते (वहीं) मर जाते। यह गोकुल तो (अब) श्मशानभूमिके समान (ऐसा) लगता है, मानो दौड़कर खा लेगा। हम (तो अपने) स्वामी (श्यामसुन्दर)-के पास जायँगी और उनका रूप तृप्त होकर देखेंगी।
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(७५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
माई, हौं किन संग गई।
हौं ए दिन जानत ही बूड़ी, लोगनि की सिखई॥
मोकौं बैरी भए कुटम सब, फेरि, फेरि ब्रज गाड़ी।
जौ हौं कैसैंहु जान पावती, तौ कत आवति छाँड़ी॥
अब हौं जाइ जमुन जल बहिहौं, कहा करौ मोहि राखी।
सूरदास वा भाइ फिरति हौं, ज्यौं मधु तोरें माखी॥
मूल
माई, हौं किन संग गई।
हौं ए दिन जानत ही बूड़ी, लोगनि की सिखई॥
मोकौं बैरी भए कुटम सब, फेरि, फेरि ब्रज गाड़ी।
जौ हौं कैसैंहु जान पावती, तौ कत आवति छाँड़ी॥
अब हौं जाइ जमुन जल बहिहौं, कहा करौ मोहि राखी।
सूरदास वा भाइ फिरति हौं, ज्यौं मधु तोरें माखी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कह रही हैं—) हाय मैया! मैं (मोहनके) साथ क्यों नहीं गयी? यह (उससे वियोगका) दिन आयेगा, यह जानकर भी मैं लोगोंके सिखलाने (समझाने)-में आकर डूब गयी (मारी गयी)। मेरे लिये (ये) सब कुटुम्बके लोग शत्रु हो गये। उन्होंने (ही) बार-बार समझाकर मुझे व्रजमें रोक रखा। यदि किसी प्रकार मैं यह जान पाती (कि श्यामसुन्दर नहीं लौटेंगे) तो उसे छोड़कर (मैं) क्यों आती? क्या करूँ, लोगोंने मुझे रोक लिया; (इसलिये) अब मैं जाकर यमुनाके जलमें अपनेको प्रवाहित कर दूँगी। जैसे शहद तोड़ लेनेपर मक्खियाँ विचलित हो जाती हैं, उसी भाँति मैं घूमती हूँ।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(७६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हौं तौ माई, मथुरा ही पै जैहौं।
दासी ह्वै बसुदेव राइ की, दरसन देखत रैहौं॥
राखि-राखि एते दिवसनि मोहि, कहा कियौ तुम्ह नीकौ।
सोऊ तौ अक्रूर गए लै, तनक खिलौना जी कौ॥
मोहि देखि कैं लोग हसैंगे, अरु किन कान्ह हँसै।
सूर असीस जाइ दैहौं, जनि न्हातहु बार खसै॥
मूल
हौं तौ माई, मथुरा ही पै जैहौं।
दासी ह्वै बसुदेव राइ की, दरसन देखत रैहौं॥
राखि-राखि एते दिवसनि मोहि, कहा कियौ तुम्ह नीकौ।
सोऊ तौ अक्रूर गए लै, तनक खिलौना जी कौ॥
मोहि देखि कैं लोग हसैंगे, अरु किन कान्ह हँसै।
सूर असीस जाइ दैहौं, जनि न्हातहु बार खसै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कह रही हैं—व्रजराज!) मैं तो मथुराको ही जाऊँगी, वहाँ राजा वसुदेवकी दासी होकर (मनमोहनके) दर्शन करती रहूँगी। इतने दिनोंतक मुझे बार-बार रोककर तुमने भला नहीं किया। मेरे हृदयका जो तनिक-सा खिलौना था, उसे भी तो अक्रूर ले गया। मुझे देखकर (मथुराके) लोग हँसें और कन्हैया भी क्यों न हँसे; किंतु मैं वहाँ जाकर उसे यही आशीर्वाद देती रहूँगी कि स्नान करते समय भी (मोहनका) बाल बाँका न हो।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(७७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंथी, इतनी कहियौ बात।
तुम्ह बिन इहाँ कुँवर बर मेरे, होत जिते उतपात॥
बकी-अघासुर टरत न टारे, बालक बनहिं न जात।
ब्रज पिंजरी रूँधि मनौ राखे, निकसन कौं अकुलात॥
गोपी-गाइ सकल लघु-दीरघ, पीत-बरन, कृस-गात।
परम अनाथ देखियत तुम्ह बिन, केहि अवलंबहिं तात॥
कान्ह-कान्ह कै टेरत तब धौं, अब कैसैं जिय मानत।
यह ब्यवहार आजु लौं है ब्रज, कपट नाट छल ठानत॥
दसहूँ दिसि तैं उदित होत हैं, दावानल के कोट।
आँखिनि मूँदि रहत सनमुख ह्वै, नाम-कवच दै ओट॥
ए सब दुष्ट हते हरि जेते, भए एकहीं पेट।
सत्वर सूर सहाइ करौ अब, समझि पुरातन हेट॥
मूल
पंथी, इतनी कहियौ बात।
तुम्ह बिन इहाँ कुँवर बर मेरे, होत जिते उतपात॥
बकी-अघासुर टरत न टारे, बालक बनहिं न जात।
ब्रज पिंजरी रूँधि मनौ राखे, निकसन कौं अकुलात॥
गोपी-गाइ सकल लघु-दीरघ, पीत-बरन, कृस-गात।
परम अनाथ देखियत तुम्ह बिन, केहि अवलंबहिं तात॥
कान्ह-कान्ह कै टेरत तब धौं, अब कैसैं जिय मानत।
यह ब्यवहार आजु लौं है ब्रज, कपट नाट छल ठानत॥
दसहूँ दिसि तैं उदित होत हैं, दावानल के कोट।
आँखिनि मूँदि रहत सनमुख ह्वै, नाम-कवच दै ओट॥
ए सब दुष्ट हते हरि जेते, भए एकहीं पेट।
सत्वर सूर सहाइ करौ अब, समझि पुरातन हेट॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा कह रही हैं—) पथिक! इतनी बात (तुम श्यामसुन्दरसे) कह देना—मेरे श्रेष्ठ कुमार! तुम्हारे बिना यहाँ जितने उत्पात हो रहे हैं, उनकी क्या चर्चा की जाय। पूतना और अघासुर यहाँसे हटानेपर भी नहीं हटते और व्रजके बालक अब वनमें नहीं जाते, मानो वे व्रजरूपी पींजड़ेमें बंद करके रखे गये हों और उससे निकलनेके लिये व्याकुल हो रहे हों। छोटी-बड़ी सब गोपियाँ और गायें पीले रंगकी और दुर्बलशरीर हो गयी हैं। हे तात! तुम्हारे बिना ये अत्यन्त अनाथ दिखायी पड़ती हैं; भला (अब) ये किसका सहारा लें? तब तो (ये) ‘कन्हैया! कन्हैया!’ कहकर पुकारती रहती थीं, अब (तुम्हारे बिना) इनका चित्त कैसे मानेगा? व्रजका आजतक यह व्यवहार है कि यहाँ कपट नहीं, अपितु छल करने (भर)-के लिये यहाँके लोग (उसका) स्वाँग करते हैं। अब व्रजमें दसों दिशाओंसे दावानलकी दीवारें उठा करती हैं, अतः आँखें बंद करके हम सब तुम्हारे नामरूपी कवचकी आड़ लेकर (उसके) सम्मुख रहती हैं। श्यामसुन्दर! तुमने जितने इन सब दुष्टों (असुरों)-को मारा था, वे (अब) एक ही माताके पेटसे फिर उत्पन्न हो गये हैं, इसलिये पुराना प्रेम समझकर हमारी (अब) शीघ्र सहायता करो।
विषय (हिन्दी)
(७८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहियौ, स्याम सौं समुझाइ।
वह नातौ नहिं मानत मोहन, मनौ तुम्हारी धाइ॥
एक बार माखन के काजैं राखे मैं अटकाइ।
वाकौ बिलग न मानौ मोहन, लागै मोहि बलाइ॥
बारहिं बार यहै लौ लागी, गहे पथिक के पाँइ।
सूरदास या जननी कौ जिय, राखौ बदन दिखाइ॥
मूल
कहियौ, स्याम सौं समुझाइ।
वह नातौ नहिं मानत मोहन, मनौ तुम्हारी धाइ॥
एक बार माखन के काजैं राखे मैं अटकाइ।
वाकौ बिलग न मानौ मोहन, लागै मोहि बलाइ॥
बारहिं बार यहै लौ लागी, गहे पथिक के पाँइ।
सूरदास या जननी कौ जिय, राखौ बदन दिखाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा कहती हैं—) ‘पथिक! श्यामसुन्दरसे समझाकर कहना—मोहन! यदि वह (माताका) सम्बन्ध नहीं मानते तो मुझे अपनी धाय (पालिका) ही मान लो। एक बार मक्खनके लिये मैंने तुम्हें बाँध रखा था, मोहन! उसका दुःख मत मानना। मुझे तुम्हारी सब विपत्तियाँ लग जायँ।’ बार-बार यही (उलाहनेकी) धुन उन्हें लगी थी और (यह कहते-कहते) उन्होंने पथिकके पैर पकड़ लिये (तथा फिर कहने लगीं,) तुम्हीं जाकर कहो—‘मोहन! माताको मुख दिखलाकर उसके प्राण रख लो।’
राग बिलावल
विषय (हिन्दी)
(७९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जद्यपि मन समुझावत लोग।
सूल होत नवनीत देखि मेरे, मोहन के मुख जोग॥
प्रात काल उठि माखन-रोटी, को बिन माँगें दैहै।
को मेरे वा कान्ह कुँवर कौं, छिन-छिन अंकम लैहै॥
कहियौ पथिक जाइ, घर आवहु, राम-कृष्न दोउ भैया।
सूर स्याम कित होत दुखारी, जिन कें मो-सी मैया॥
मूल
जद्यपि मन समुझावत लोग।
सूल होत नवनीत देखि मेरे, मोहन के मुख जोग॥
प्रात काल उठि माखन-रोटी, को बिन माँगें दैहै।
को मेरे वा कान्ह कुँवर कौं, छिन-छिन अंकम लैहै॥
कहियौ पथिक जाइ, घर आवहु, राम-कृष्न दोउ भैया।
सूर स्याम कित होत दुखारी, जिन कें मो-सी मैया॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा कह रही हैं—सखी!) यद्यपि लोग मेरे मनको समझाते हैं, तथापि मेरे मोहनके मुखयोग्य मक्खन देखकर मुझे वेदना होती है। भला, कौन उसे सबेरे उठनेपर बिना माँगे मक्खन और रोटी देगा और कौन मेरे उस कुँवर कन्हाईको क्षण-क्षणमें गोद लेगा? पथिक! जाकर कहना कि तुम दोनों भाई बलराम और कृष्ण (अब) घर आ जाओ। हे श्यामसुन्दर! जिसके मेरे-जैसी माता है, वह क्यों दुःखी हो?
राग रामकली
विषय (हिन्दी)
(८०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरौ कहा करत ह्वैहै।
कहियौ जाइ, बेगि पठवहिं गृह, गाइनि को द्वैहै॥
दीजै छाँड़ि नगरवारी सब, प्रथम ओर प्रतिपारौ।
हमहूँ जिय समुझैं नहिं कोऊ, तुम्ह तैं हितू हमारौ॥
आजहिं आज, काल्हि-काल्हिहिं करि, भलौ जगत जस लीन्हौ।
आजुहिं कालि कियौ चाहत हौ, राजु अटल करि दीन्हौं॥
परदा सूर बहुत दिन चलतौ, दोहुन फबती लूटि।
अंतहु कान्ह आइहैं गोकुल, जनम-जनम की ऊटि॥
मूल
मेरौ कहा करत ह्वैहै।
कहियौ जाइ, बेगि पठवहिं गृह, गाइनि को द्वैहै॥
दीजै छाँड़ि नगरवारी सब, प्रथम ओर प्रतिपारौ।
हमहूँ जिय समुझैं नहिं कोऊ, तुम्ह तैं हितू हमारौ॥
आजहिं आज, काल्हि-काल्हिहिं करि, भलौ जगत जस लीन्हौ।
आजुहिं कालि कियौ चाहत हौ, राजु अटल करि दीन्हौं॥
परदा सूर बहुत दिन चलतौ, दोहुन फबती लूटि।
अंतहु कान्ह आइहैं गोकुल, जनम-जनम की ऊटि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा कह रही हैं) मेरा लाल क्या करता होगा? (अरे पथिक!) जाकर (वसुदेवजीसे) कहना कि उसे शीघ्र घर भेज दें, यहाँ उसके बिना गायें कौन दुहेगा? (मोहन! अब) सब नगर-नारियोंको छोड़ दो और अपने पहलेके लोगोंका पालन करो, जिससे हम अपने चित्तमें समझें कि तुमसे अधिक कोई हमारा हितैषी नहीं है। आज-आज तथा कल-कल (आज आता हूँ, कल आऊँगा) करते हुए तुमने संसारमें अच्छा सुयश लिया, यहाँ (व्रज आनेको) आज-कल (टालमटोल) ही करना चाहते हो और वहाँ राज्य अविचल कर दिया। (तुम्हारा) यह पर्दा (रहस्य) बहुत दिन चलता (कि तुम नन्दके पुत्र हो) और दोनों (व्रज तथा मथुराके लोगों)-के लिये (यह तुम्हारे सुखकी) लूट शोभा (भी) देती, किंतु कन्हैया जन्म-जन्मकी उमंगोंके कारण अन्तमें गोकुल आयेंगे ही।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(८१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सँदेसौ देवकी सौं कहियौ।
हौं तौ धाइ तिहारे सुत की, मया करत ही रहियौ॥
जदपि टेव तुम्ह जानति उन्ह की, तऊ मोहि कहि आवै।
प्रात होत मेरे लाल लड़ैतैं, माखन-रोटी भावै॥
तेल-उबटनौ अरु तातौ जल, ताहि देखि भजि जाते।
जोइ-जोइ माँगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करि कैं न्हाते॥
सूर पथिक सुनि मोहि रैनि-दिन, बढ़ॺौ रहत उर सोच।
मेरौ अलक लड़ैतौ मोहन, ह्वैहै करत सँकोच॥
मूल
सँदेसौ देवकी सौं कहियौ।
हौं तौ धाइ तिहारे सुत की, मया करत ही रहियौ॥
जदपि टेव तुम्ह जानति उन्ह की, तऊ मोहि कहि आवै।
प्रात होत मेरे लाल लड़ैतैं, माखन-रोटी भावै॥
तेल-उबटनौ अरु तातौ जल, ताहि देखि भजि जाते।
जोइ-जोइ माँगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करि कैं न्हाते॥
सूर पथिक सुनि मोहि रैनि-दिन, बढ़ॺौ रहत उर सोच।
मेरौ अलक लड़ैतौ मोहन, ह्वैहै करत सँकोच॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा कह रही हैं—पथिक!) देवकीसे यह संदेश कहना कि मैं तो तुम्हारे पुत्रकी धाय हूँ, अतः मुझपर कृपा ही करती रहना। यद्यपि तुम उन (अपने पुत्र)-का स्वभाव जानती हो, फिर भी मुझसे यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि मेरे दुलारे लालको सबेरा होते ही मक्खन-रोटी प्रिय लगती है। वे तेल, उबटन और गरम पानी देखकर भाग जाते थे; अतः जो-जो वह माँगता था, वही-वही मैं देती थी और इस प्रकार धीरे-धीरे करके स्नान कराती थी। अरे पथिक! सुन, मुझे रात-दिन यही सोच बढ़ा रहता है कि मेरा अत्यन्त दुलारा मोहन (वहाँ मथुरामें) संकोच करता होगा।
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(८२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे कान्ह, कमल-दल-लोचन।
अब की बेर बहुरि फिरि आवहु, कहा लगे जिय सोचन॥
यह लालसा होति मेरे जिय, बैठी देखत रैहौं।
गाइ चरावन कान्ह कुँवर सौं, बहुरि न कबहूँ कैहौं॥
करत अन्याइ न बरजौं कबहूँ, अरु माखन की चोरी।
अपने जियत नैन भरि देखौं, हरि-हलधर की जोरी॥
दिवस चारि मिलि जाहु साँवरे, कहियौ यहै सँदेसौ।
अब की बेर आनि सुख दीजै, सूर मिटाइ अँदेसौ॥
मूल
मेरे कान्ह, कमल-दल-लोचन।
अब की बेर बहुरि फिरि आवहु, कहा लगे जिय सोचन॥
यह लालसा होति मेरे जिय, बैठी देखत रैहौं।
गाइ चरावन कान्ह कुँवर सौं, बहुरि न कबहूँ कैहौं॥
करत अन्याइ न बरजौं कबहूँ, अरु माखन की चोरी।
अपने जियत नैन भरि देखौं, हरि-हलधर की जोरी॥
दिवस चारि मिलि जाहु साँवरे, कहियौ यहै सँदेसौ।
अब की बेर आनि सुख दीजै, सूर मिटाइ अँदेसौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा कह रही हैं—) मेरे कमलदलके समान नेत्रोंवाले कन्हैया! (तुम) अपने चित्तमें क्या सोचने लगे हो? अरे, इस बार फिर (व्रज) लौट आओ! मेरे मनमें यही लालसा जाग्रत् रहती है कि तुम्हें बैठी देखती रहूँ और (अपने) कुँवर कन्हैयासे फिर कभी गायें चरानेको न कहूँ। कोई भी अनीति—यहाँतक कि मक्खनकी चोरी करते भी उन्हें कभी रोकूँ नहीं; बस, अपने जीते-जी आँखें भरकर श्याम-बलरामकी जोड़ी देखा करूँ। पथिक! यही संदेश कहना कि श्यामसुन्दर! चार दिनके लिये आकर मिल जाओ। इस बार आकर (हमें) आनन्दित कर दो, जिससे (हमारा) सोच मिट जाय—दूर हो जाय।
विषय (हिन्दी)
(८३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब कैं लाल, होहु फिरि बारे।
कैसैं टेव मिटति, मन-मोहन, आँगन डोलत फिरत उघारे॥
माखन कारन आरि करत जो, उठि पकरत दधि-माठ सकारे।
कछुक भाजि लै जात जु भावत, सुख पावत जब खात ललारे॥
जा कारन हौं भरमति बिहवल, लै कर लकुट फिरत गुन हारे।
सूरदास-प्रभु तुम्ह मनमोहन, भूप भए देखति हौं प्यारे॥
मूल
अब कैं लाल, होहु फिरि बारे।
कैसैं टेव मिटति, मन-मोहन, आँगन डोलत फिरत उघारे॥
माखन कारन आरि करत जो, उठि पकरत दधि-माठ सकारे।
कछुक भाजि लै जात जु भावत, सुख पावत जब खात ललारे॥
जा कारन हौं भरमति बिहवल, लै कर लकुट फिरत गुन हारे।
सूरदास-प्रभु तुम्ह मनमोहन, भूप भए देखति हौं प्यारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा कह रही हैं—) लाल! इस बार फिर बालक बन जाओ। मनमोहन! मेरे आँगनमें तुम नंगे घूमते फिरते थे, वह स्वभाव तुम्हारा कैसे छूट जायगा? याद करो—मक्खनके लिये तुम किस प्रकार मचला करते थे और सबेरे ही उठकर दहीका मटका पकड़ लेते थे और जो तुम्हें प्रिय लगता था, वही थोड़ा-सा लेकर भाग जाते थे तथा जब तुम इस प्रकार खाते थे लाल! तब मैं सुखी होती थी। जिसके लिये मैं हाथमें छड़ी लेकर अपने (लज्जादि) गुण त्यागकर व्याकुल होकर भटकती फिरती थी, वही मनमोहन प्यारे! तुम (अब) राजा हो गये हो, यह मैं देखती हूँ।