१२ परस्पर नन्द-यशोदा-वचन

राग गौरी

विषय (हिन्दी)

(६८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

चूक परी हरि की सेवकाईं।
यह अपराध कहाँ लौं बरनौं, कहि-कहि नंद-महर पछिताई॥
कोमल चरन-कमल कंटक कुस, हम उन्ह पै बन गाइ चराई।
रंचक दधि के काज जसोदा, बाँधे कान्ह उलूखल लाई॥
इंद्र-प्रकोप जानि ब्रज राखे, बरुन-फाँस तैं मोहि मुकराई।
अपने तन-धन-लोभ, कंस-डर, आगैं कै दीन्हे दोउ भाई॥
निकट बसत कबहुँ न मिलि आयौ, इते मान मेरी निठुराई।
सूर अजहुँ नातौ मानत हैं, प्रेम सहित करैं नंद-दुहाई॥

मूल

चूक परी हरि की सेवकाईं।
यह अपराध कहाँ लौं बरनौं, कहि-कहि नंद-महर पछिताई॥
कोमल चरन-कमल कंटक कुस, हम उन्ह पै बन गाइ चराई।
रंचक दधि के काज जसोदा, बाँधे कान्ह उलूखल लाई॥
इंद्र-प्रकोप जानि ब्रज राखे, बरुन-फाँस तैं मोहि मुकराई।
अपने तन-धन-लोभ, कंस-डर, आगैं कै दीन्हे दोउ भाई॥
निकट बसत कबहुँ न मिलि आयौ, इते मान मेरी निठुराई।
सूर अजहुँ नातौ मानत हैं, प्रेम सहित करैं नंद-दुहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें नन्दरायजी कहते हैं—) ‘हमसे श्यामसुन्दरकी सेवामें बहुत त्रुटियाँ हुईं, इस अपराधका कहाँतक वर्णन करूँ।’ बार-बार यों कहकर व्रजराज नन्दजी पश्चात्ताप करते हैं। उनके चरण कमलके समान सुकुमार थे, फिर भी हमने काँटों और कुशोंसे युक्त वनमें उनसे गायें चरवायीं। तनिक-से दहीके लिये यशोदाने कन्हैयाको ऊखलसे लाकर बाँध दिया। उन्होंने (तो) इन्द्रको अत्यन्त क्रुद्ध जानकर (गोवर्धन उठाकर)व्रजकी रक्षा की और मुझे वरुणके पाशसे छुड़ाया; किंतु मैंने अपने शरीर तथा धनके लोभके कारण कंसके भयसे उन दोनों भाइयोंको आगे कर दिया। वे पास ही (मथुरा)-में रहते हैं, किंतु मैं वहाँ जाकर कभी उनसे मिलकर नहीं आया, मेरी निष्ठुरता तो इस परिमाणकी है,(उधर उनकी बात यह है कि) अब भी वे हमसे सम्बन्ध मानते हैं और (अवसर आनेपर) प्रेमपूर्वक बाबा नन्दकी (मेरी) शपथ (ही) करते (खाते) हैं—मुझे ही अपना पिता मानते हैं।

राग सोरठ

विषय (हिन्दी)

(६९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि की एकौ बात न जानी।
कहौ कंत कहँ तज्यौ स्याम कौं, कहति बिकल नँदरानी॥
अब ब्रज सून भयौ गिरिधर बिन, गोकुल मनि बिलगानी।
दसरथ प्रान तज्यौ छिन भीतर, बिछुरत सारँगपानी॥
ठाढ़ी रहै ठगोरी डारी, बोलति गदगद बानी।
सूरदास-प्रभु गोकुल तजि गए, मथुरा ही मन मानी॥

मूल

हरि की एकौ बात न जानी।
कहौ कंत कहँ तज्यौ स्याम कौं, कहति बिकल नँदरानी॥
अब ब्रज सून भयौ गिरिधर बिन, गोकुल मनि बिलगानी।
दसरथ प्रान तज्यौ छिन भीतर, बिछुरत सारँगपानी॥
ठाढ़ी रहै ठगोरी डारी, बोलति गदगद बानी।
सूरदास-प्रभु गोकुल तजि गए, मथुरा ही मन मानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें) व्याकुल होकर श्रीनन्दरानी कहती हैं—‘(व्रजराज!) मुझे श्यामसुन्दरका एक भी समाचार नहीं मिला। स्वामी! बताओ तो कि तुमने श्यामसुन्दरको कहाँ छोड़ा? अब गिरधरलालके बिना व्रज सूना हो गया। गोकुलकी मणि उससे पृथक् हो गयी। शार्ङ्गपाणि (विष्णुरूप) श्रीरामका वियोग होनेपर महाराज दशरथने तो एक क्षणमें प्राण त्याग दिया था।’ वे इस प्रकार खड़ी रहती हैं, जैसे किसीने उनके सिर कुछ जादू डाल दिया हो और गद्‍गद स्वरमें कहती हैं—‘हमारे स्वामी गोकुलको छोड़कर चले गये, अब मथुरा ही उनको प्रिय लगती है।’

राग सारंग

विषय (हिन्दी)

(७०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

लै आवहु गोकुल गोपालहि।
पाँइन परि, क्यौंहूँ बिनती करि, छल-बल बाहु-बिसालहि॥
अब की बार नैक दिखरावहु, नंद आपने लालहि।
गाइन गनत ग्वार-गोसुत सँग, सिखवत बैन रसालहि॥
जद्यपि महाराज सुख-संपति, कौन गनै मनि-लालहि।
तदपि सूर वे छिन न तजत हैं, वा घुँघुची की मालहि॥

मूल

लै आवहु गोकुल गोपालहि।
पाँइन परि, क्यौंहूँ बिनती करि, छल-बल बाहु-बिसालहि॥
अब की बार नैक दिखरावहु, नंद आपने लालहि।
गाइन गनत ग्वार-गोसुत सँग, सिखवत बैन रसालहि॥
जद्यपि महाराज सुख-संपति, कौन गनै मनि-लालहि।
तदपि सूर वे छिन न तजत हैं, वा घुँघुची की मालहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा नन्दजीसे कहती हैं—व्रजराज!) पैरों पड़कर, प्रार्थना करके अथवा छलबलसे—किसी तरह उन विशाल भुजाओंवाले गोपालको गोकुल ले आओ। नन्दजी! इस बार अपने लालका तनिक-सा दर्शन करा दो। वे यहाँ गोपकुमारोंके साथ गायों तथा बछड़ोंको गिना करते थे और रसपूर्वक (मधुर वाणीमें) बोलना सखाओंको सिखलाते थे। यद्यपि (अब वे मथुरामें) महाराज हैं और वहाँकी सुख-सम्पत्ति तथा मणियों एवं लालोंकी गिनती कौन कर सकता है; फिर भी वे (यहाँसे गयी) उस गुंजाकी मालाको एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़ते।

राग सोरठ

विषय (हिन्दी)

(७१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सराहौं तेरौ नंद! हियौ।
मोहन-सौ सुत छाँड़ि मधुपुरी, गोकुल आनि जियौ॥
कहा कह्यौ मेरे लाल लड़ैतैं, जब तू बिदा कियौ।
जीवन-प्रान हमारे ब्रज कौ, बसुद्यौ छीनि लियौ॥
कह्यौ पुकार पारि पचि हारी, बरजत गमन कियौ।
सूरदास-प्रभु स्याम लाल धन, लै पर-हाथ दियौ॥

मूल

सराहौं तेरौ नंद! हियौ।
मोहन-सौ सुत छाँड़ि मधुपुरी, गोकुल आनि जियौ॥
कहा कह्यौ मेरे लाल लड़ैतैं, जब तू बिदा कियौ।
जीवन-प्रान हमारे ब्रज कौ, बसुद्यौ छीनि लियौ॥
कह्यौ पुकार पारि पचि हारी, बरजत गमन कियौ।
सूरदास-प्रभु स्याम लाल धन, लै पर-हाथ दियौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें श्रीयशोदाजी कह रही हैं—) नन्दजी! तुम्हारे हृदयकी (कठोरताकी) मैं प्रशंसा करती हूँ। मोहन-जैसे पुत्रको मथुरा छोड़कर गोकुलमें आकर जी रहे हो। मेरे दुलारे लालने जब तुमको विदा किया, तब क्या कहा? हमारे और व्रजके उस प्राणजीवनको (अब) वसुदेवने छीन लिया। (जाते समय) मैं पुकार-पुकारकर कहती हुई थक गयी; किंतु रोकनेपर भी वे (मथुरा ले) गये और (वहाँ) व्रजके स्वामी (मेरे) श्यामलालरूप धनको दूसरेके हाथ (-में) दे दिया।

राग बिलावल

विषय (हिन्दी)

(७२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जद्यपि मन समुझावत लोग।
सूल होत नवनीत देखि मेरे, मोहन के मुख जोग॥
निसि-बासर छतिया लै लाऊँ, बालक-लीला गाऊँ।
वैसे भाग बहुरि कब ह्वैहैं, मोहन मोद खवाऊँ॥
जा कारन मुनि ध्यान धरैं, सिव अंग बिभूति लगावैं।
सो बालक-लीला धरि गोकुल, ऊखल साथ बँधावैं॥
बिदरत नाहिं बज्र कौ हिरदै, हरि-बियोग क्यौं सहिऐ।
सूरदास-प्रभु कमल-नैन बिन, कौने बिधि ब्रज रहिऐ॥

मूल

जद्यपि मन समुझावत लोग।
सूल होत नवनीत देखि मेरे, मोहन के मुख जोग॥
निसि-बासर छतिया लै लाऊँ, बालक-लीला गाऊँ।
वैसे भाग बहुरि कब ह्वैहैं, मोहन मोद खवाऊँ॥
जा कारन मुनि ध्यान धरैं, सिव अंग बिभूति लगावैं।
सो बालक-लीला धरि गोकुल, ऊखल साथ बँधावैं॥
बिदरत नाहिं बज्र कौ हिरदै, हरि-बियोग क्यौं सहिऐ।
सूरदास-प्रभु कमल-नैन बिन, कौने बिधि ब्रज रहिऐ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें श्रीयशोदाजी कहती हैं—) यद्यपि लोग मेरे मनको समझाते (सान्त्वना देते) हैं फिर भी मेरे मोहनके मुख—श्यामके खानेयोग्य (ताजा) मक्खन देखकर मुझे वेदना होती है। रात-दिन उसे मैं लेकर हृदयसे लगाये रहती थी और उसकी बाललीलाका गान करती थी; (अब) वैसा भाग्य फिर कब होगा (जब) मोहनको आनन्दपूर्वक खिलाऊँगी? जिन्हें पानेके लिये मुनिगण ध्यान किया करते हैं और शंकरजी शरीरमें विभूति लगाते हैं, उन्होंने ही लीलासे बालकरूप धारणकर गोकुलमें (अपनेको) ऊखलसे बँधवाया। मेरा हृदय वज्रका है, जो फट नहीं जाता। भला, श्यामसुन्दरका वियोग कैसे सहा जा सकता है। कमललोचन प्रभुके बिना व्रजमें (अब) कैसे रहा जा सकता है।