११ व्रज-दशा

राग धनाश्री

विषय (हिन्दी)

(६४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब तैं मिटे सब आनंद।
या ब्रज की सब भाग-संपदा, लै जु गए नँदनंद॥
बिह्वल भई जसोदा डोलति, दुखित नंद-उपनंद।
धेनु नहीं पय स्रवतिं रुचिर मुख, चरतिं नहीं तृन-कंद॥
बिषम बियोग दहत उर सजनी, बाढ़ि रहे दुख-दंद।
सीतल कौन करै री माई, नाहिं इहाँ ब्रज-चंद॥
रथ चढ़ि चले, गहे नहिं काहू, चाहि रही मति-मंद।
सूरदास अब कौन छुड़ावै, परे बिरह कें फंद॥

मूल

तब तैं मिटे सब आनंद।
या ब्रज की सब भाग-संपदा, लै जु गए नँदनंद॥
बिह्वल भई जसोदा डोलति, दुखित नंद-उपनंद।
धेनु नहीं पय स्रवतिं रुचिर मुख, चरतिं नहीं तृन-कंद॥
बिषम बियोग दहत उर सजनी, बाढ़ि रहे दुख-दंद।
सीतल कौन करै री माई, नाहिं इहाँ ब्रज-चंद॥
रथ चढ़ि चले, गहे नहिं काहू, चाहि रही मति-मंद।
सूरदास अब कौन छुड़ावै, परे बिरह कें फंद॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कहती है—सखी!) उसी समयसे (व्रजका) सारा आनन्द मिट गया, इस व्रजका सम्पूर्ण सौभाग्य और सम्पत्ति श्रीनन्दनन्दन (अपने साथ) ले गये। माता यशोदा व्याकुल हुई घूमती हैं, नन्दजी तथा उपनन्दजी दुःखी हैं। गायें प्रसन्न मुखसे दूध नहीं देतीं तथा घास एवं कंद नहीं चरतीं। सखी! (श्रीनन्दनन्दनके) दारुण वियोगसे (मेरा) हृदय जल रहा है तथा मनमें दुःख एवं उपद्रव बढ़ गये हैं। हमारे (हृदयको) शीतल कौन करे, क्योंकि अब यहाँ व्रजके चन्द्र नहीं हैं। वे जब रथपर चढ़कर चलने लगे थे तब किसीने उन्हें पकड़ा (रोका) नहीं, मन्दबुद्धि मैं भी देखती रह गयी। (पूरा व्रज) वियोगके फंदेमें पड़ा है, अब उसे कौन छुड़ाये।

राग कान्हरौ

विषय (हिन्दी)

(६५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब वह सुरति होत कित राजनि।
दिन दस रहे प्रीति करि स्वारथ, हित रहे अपने काजनि॥
सबै अजान भईं सुनि मुरली, बधिक कपट की बाजनि।
अब मन थक्यौ सिंधु के खग ज्यौं, फिरि-फिरि सरन जहाजनि॥
वह नातौ ता दिन तैं टूट्यौ, सुफलक-सुत सँग भाजनि।
गोपीनाथ कहाइ सूर-प्रभु, मारत अब कित लाजनि॥

मूल

अब वह सुरति होत कित राजनि।
दिन दस रहे प्रीति करि स्वारथ, हित रहे अपने काजनि॥
सबै अजान भईं सुनि मुरली, बधिक कपट की बाजनि।
अब मन थक्यौ सिंधु के खग ज्यौं, फिरि-फिरि सरन जहाजनि॥
वह नातौ ता दिन तैं टूट्यौ, सुफलक-सुत सँग भाजनि।
गोपीनाथ कहाइ सूर-प्रभु, मारत अब कित लाजनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) अब वे (श्याम) राजा हो गये हैं, अतः उन्हें अब हमारा वह (प्रेम) स्मरण क्यों होगा? वे अपने स्वार्थवश हमसे दस दिन (अल्प समय) प्रेम किये रहे, जो अपना काम बनानेके लिये (ही) था। जैसे व्याधके बजाये कपटपूर्ण संगीतसे मृग मुग्ध होते हैं, वैसे ही हम सब उनकी वंशीध्वनि सुनकर अनजान हो गयी थीं। किंतु अब मन समुद्रके (उस) पक्षीके समान थकित (विमुग्ध) हो गया है, जो बार-बार जहाजकी ही शरण लेता है (बार-बार मनमोहनका ही आश्रय करता है)। जिस दिन वे अक्रूरके साथ भाग गये, उसी दिनसे वह (प्रेमका) सम्बन्ध टूट गया; किंतु हमारे स्वामी अब गोपीनाथ कहलाकर हमें लज्जासे क्यों मारते हैं।

राग गौरी

विषय (हिन्दी)

(६६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रज री, मनौ अनाथ कियौ।
सुनि री सखी, जसोदानंदन सुख संदेह दियौ॥
तब वह कृपा स्याम सुंदर की, कर गिरि टेकि लियौ।
अरु प्रतिपाल गाइ-ग्वारनि कौं, जल कालिंदि पियौ॥
यह सब दोष हमैं लागत है, बिछुरत फट्यौ न हियौ।
सूरदास प्रभु नँदनंदन बिन, कारन कौन जियौ॥

मूल

ब्रज री, मनौ अनाथ कियौ।
सुनि री सखी, जसोदानंदन सुख संदेह दियौ॥
तब वह कृपा स्याम सुंदर की, कर गिरि टेकि लियौ।
अरु प्रतिपाल गाइ-ग्वारनि कौं, जल कालिंदि पियौ॥
यह सब दोष हमैं लागत है, बिछुरत फट्यौ न हियौ।
सूरदास प्रभु नँदनंदन बिन, कारन कौन जियौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कहती है—सखी! श्यामसुन्दरने) व्रजको मानो अनाथ कर दिया। सखी! सुन, यशोदाकुमारने जो सुख दिया था, वह संशययुक्त (कपटपूर्ण) था। तब (तो) श्यामसुन्दरकी (हमपर) वह कृपा थी कि (हमारे लिये) हाथपर (गोवर्धन) पर्वत उठा लिया और (विषैले) यमुना-जलको पीकर (मृतप्राय) गायों तथा गोपकुमारोंकी रक्षा की। अब यह सब दोष हमें ही लगता—हमारा ही है कि उनका वियोग होनेपर (हमारा) हृदय फट नहीं गया। स्वामी श्रीनन्दनन्दनके बिना किसलिये हम जीवित रहीं?

राग केदारौ

विषय (हिन्दी)

(६७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब हम निपटहिं भईं अनाथ।
जैसैं मधु तोरे की माखी, त्यौं हम बिनु ब्रजनाथ॥
अधर-अमृत की पीर मुईं हम, बाल दसा तैं जोरि।
सो छुड़ाइ सुफलक-सुत लै गयौ, अनायास ही तोरि॥
जौ लगि पानि पलक मीड़त रहिं, तौ लगि चलि गए दूरि।
करि निरंध निबहे दै माई, आँखिन रथ-पद-धूरि॥
निसि-दिन करी कृपन की संपति, कियौ न कबहूँ भोग।
सूर बिधाता रचि राख्यौ वह कुबिजा के मुख जोग॥

मूल

अब हम निपटहिं भईं अनाथ।
जैसैं मधु तोरे की माखी, त्यौं हम बिनु ब्रजनाथ॥
अधर-अमृत की पीर मुईं हम, बाल दसा तैं जोरि।
सो छुड़ाइ सुफलक-सुत लै गयौ, अनायास ही तोरि॥
जौ लगि पानि पलक मीड़त रहिं, तौ लगि चलि गए दूरि।
करि निरंध निबहे दै माई, आँखिन रथ-पद-धूरि॥
निसि-दिन करी कृपन की संपति, कियौ न कबहूँ भोग।
सूर बिधाता रचि राख्यौ वह कुबिजा के मुख जोग॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) अब हम सर्वथा अनाथ हो गयीं। जैसे मधुका छत्ता तोड़ लेनेपर मधुमक्खियाँ हो जाती हैं। व्रजनाथके बिना हम भी वैसी ही हो गयी हैं। उनके अधरामृत पानेकी पीड़ा (लालसा)-से हम मरती रहीं और उसे बचपनसे सँजोकर रखा था, सो अक्रूर उसे अनायास (बिना परिश्रम) ही भंगकर (हमसे) छीन ले गया। जबतक हम (आँसू पोंछनेके लिये अपने) हाथोंसे नेत्रोंकी पलकें मलने लगीं, तबतक (तो मोहन) दूर चले गये। सखी! हमारी आँखोंमें रथके पहियोंकी धूलि डालकर, हमें अंधी बनाकर वे भाग निकले। कृपण (कंजूस)-की सम्पत्तिके समान हमने रात-दिन उसे (श्यामसुन्दरके अधरामृतको) सँभालकर रखा, उसका कभी उपभोग नहीं किया। (हम उसका उपभोग करते कैसे?) विधाताने तो उसे कुब्जाके मुखके योग्य (उसके उपभोगके लिये) रच (नियत कर) रखा था!