राग केदारौ
विषय (हिन्दी)
(६३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहौ नंद, कहाँ छाँड़े कुमार।
कैसैं प्रान रहे सुत-बिछुरत, पूछत हैं गोपी अरु ग्वार॥
करुना करै जसोदा माता, नैनन नीर बहै असरार।
चितवत नंद ठगे-से ठाढ़े, मानौ हारॺौ हेम जुआर॥
मुरली-धुनि नहिं सुनियत ब्रजमें सुर-नर-मुनि नहिं करत कवार।
सूरदास-प्रभु के बिछुरे तैं, कोउ न झाँकन आवत द्वार॥
मूल
कहौ नंद, कहाँ छाँड़े कुमार।
कैसैं प्रान रहे सुत-बिछुरत, पूछत हैं गोपी अरु ग्वार॥
करुना करै जसोदा माता, नैनन नीर बहै असरार।
चितवत नंद ठगे-से ठाढ़े, मानौ हारॺौ हेम जुआर॥
मुरली-धुनि नहिं सुनियत ब्रजमें सुर-नर-मुनि नहिं करत कवार।
सूरदास-प्रभु के बिछुरे तैं, कोउ न झाँकन आवत द्वार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(व्रजवासी पूछते हैं—) ‘नन्दजी! बताइये तो, (आपने अपने) कुमारोंको कहाँ छोड़ा?’ (फिर) गोपियाँ और गोप पूछते हैं—‘पुत्रोंसे वियोग होनेपर आपके प्राण कैसे रहे? माता यशोदा क्रन्दन कर रही हैं और उनके नेत्रोंसे अविरल आँसुओंकी धारा बह रही है तथा नन्दजी ठगे हुए-से (स्तम्भित) खड़े-खड़े (इस भाँति) देख रहे हैं, मानो जुआरी (जुएमें) सोना (सब धन) हार गया हो। व्रजमें अब वंशीध्वनि नहीं सुनायी पड़ती और न देवता तथा मुनिगण यशोगान ही करते हैं। सूरदासके स्वामीका वियोग हो जानेसे (अब) कोई (नन्दभवनके) द्वारपर झाँकता भी नहीं।