राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(५१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नंदहि आवत देखि जसोदा, आगैं लैन गई।
अति आतुर गति कान्ह लैन कौं, मन आनंदमई॥
कहँ नवनीत-चोर छाँड़े बिन देखत नार नई।
तेहिं खन घोष सरोवर मानौ पुरइनि हैंम-हई॥
गर्ग कथा तब कहि जो सुनाई, सो अब प्रगट भई।
सूर मोहि फिरि-फिरि आवत गहि झगरत नेति रई॥
मूल
नंदहि आवत देखि जसोदा, आगैं लैन गई।
अति आतुर गति कान्ह लैन कौं, मन आनंदमई॥
कहँ नवनीत-चोर छाँड़े बिन देखत नार नई।
तेहिं खन घोष सरोवर मानौ पुरइनि हैंम-हई॥
गर्ग कथा तब कहि जो सुनाई, सो अब प्रगट भई।
सूर मोहि फिरि-फिरि आवत गहि झगरत नेति रई॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दजीको आते देखकर यशोदाजी उन्हें लेने आगे गयीं, वे कन्हैयाको लेनेके लिये चित्तमें अत्यन्त आनन्दपूर्ण होती हुई अति आतुर गतिसे चलीं; किंतु (नन्दजीकी) गर्दन झुकी और (उन्हें) कन्हैयाके बिना देखकर बोलीं—‘मेरे माखनचोरको तुमने कहाँ छोड़ दिया?’ उस समय व्रजकी ऐसी दशा हुई, मानो सरोवरमें कमलोंको पालेने नष्ट कर दिया हो। गर्गजीने तब (नामकरणके समय) जो कथा कहकर सुनायी थी (कि श्रीकृष्ण-बलराम वसुदेवजीके पुत्र हैं) वह अब प्रकट हो गयी। यशोदाजी फिर बोलीं—मोहन (मेरे पास) बार-बार आता और मथानी एवं डोरी पकड़कर मुझसे (मक्खनके लिये) झगड़ता था।
राग कल्यान
विषय (हिन्दी)
(५२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्याम-राम मथुरा तजि, नंद ब्रजहिं आए।
बार-बार महरि कहति, जनम धिक कहाए॥
कहूँ कहति सुनी नहीं, दसरथ की करनी।
यह सुनि नँद ब्याकुल ह्वै, परे मुरछि धरनी॥
टेरि-टेरि पौहौमि परतिं, ब्याकुल ब्रज-नारी।
सूरज-प्रभु कौन दोष, हम कौं जु बिसारी॥
मूल
स्याम-राम मथुरा तजि, नंद ब्रजहिं आए।
बार-बार महरि कहति, जनम धिक कहाए॥
कहूँ कहति सुनी नहीं, दसरथ की करनी।
यह सुनि नँद ब्याकुल ह्वै, परे मुरछि धरनी॥
टेरि-टेरि पौहौमि परतिं, ब्याकुल ब्रज-नारी।
सूरज-प्रभु कौन दोष, हम कौं जु बिसारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्यामसुन्दर और बलरामको मथुरा छोड़कर नन्दजी व्रज आ गये। व्रजरानी बार-बार (उनसे) कहती हैं—‘तुम्हारा जीवन धिक्कारने योग्य कहा जायगा। क्या कहीं किसीके द्वारा (तुमने) महाराज दशरथकी करनी (पुत्र-वियोगमें देह-त्याग-जैसा कार्य) कहते नहीं सुना था?’ यह सुनकर नन्दजी व्याकुल हो गये और मूर्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। व्रजकी स्त्रियाँ बार-बार पुकारतीं (क्रन्दन करतीं) और व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ती हैं। वे कहती हैं—‘हमारे स्वामीने किस दोषके कारण हमें विस्मृत कर दिया!’
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(५३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
उलटि पग कैसैं दीन्हौ नंद।
छाँड़े कहाँ उभै सुत मोहन, धिक जीवन मतिमंद॥
कै तुम्ह धन-जोबन-मद-माते, कै तुम्ह छूटे बंद।
सुफलक-सुत बैरी भयौ हम कौं, लै गयौ आनँदकंद॥
राम-कृष्न बिनु कैसैं जीजै, कठिन प्रीति कै फंद।
सूरदास मैं भई अभागिन, तुम्ह बिनु गोकुलचंद॥
मूल
उलटि पग कैसैं दीन्हौ नंद।
छाँड़े कहाँ उभै सुत मोहन, धिक जीवन मतिमंद॥
कै तुम्ह धन-जोबन-मद-माते, कै तुम्ह छूटे बंद।
सुफलक-सुत बैरी भयौ हम कौं, लै गयौ आनँदकंद॥
राम-कृष्न बिनु कैसैं जीजै, कठिन प्रीति कै फंद।
सूरदास मैं भई अभागिन, तुम्ह बिनु गोकुलचंद॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कह रही हैं—) ‘नन्दजी! आपने घूमकर इधर (व्रजकी ओर) पैर ही कैसे रखा? मेरे मनको मोहनेवाले दोनों पुत्र कहाँ छोड़ दिये? अरे मन्दबुद्धि (नन्दजी)! आपके जीवनको धिक्कार है। या तो आप धन और युवावस्थाके मदसे मतवाले हो गये या आप कहीं कैदसे छूटे थे? (अन्ततः यहाँ आनेकी इतनी क्या शीघ्रता थी?) हमारे लिये (तो) अक्रूर शत्रु हो गया (जो) वह यहाँसे आनन्द-कंद (श्यामसुन्दर)-को ले गया। अब राम-कृष्णके बिना कैसे जीवित रहा जा सकता है; क्योंकि यह प्रेमका बन्धन अत्यन्त कठिन है। हे गोकुलचन्द्र! तुम्हारे बिना मैं भाग्यहीना हो गयी।’
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(५४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
दोउ ढोटा गोकुल-नाइक मेरे।
काहें नंद छाँड़ि तुम्ह आए, प्रान-जिवन सब केरे॥
तिन के जात बहुत दुख पायौ, रोर परी इहिं खेरे।
गोसुत, गाइ फिरत हैं दहुँ दिसि, वे न चरैं तृन घेरे॥
प्रीति न करी राम-दसरथ की, प्रान तजे बिन हेरे।
सूर नंद सौं कहति जसोदा, प्रबल पाप सब मेरे॥
मूल
दोउ ढोटा गोकुल-नाइक मेरे।
काहें नंद छाँड़ि तुम्ह आए, प्रान-जिवन सब केरे॥
तिन के जात बहुत दुख पायौ, रोर परी इहिं खेरे।
गोसुत, गाइ फिरत हैं दहुँ दिसि, वे न चरैं तृन घेरे॥
प्रीति न करी राम-दसरथ की, प्रान तजे बिन हेरे।
सूर नंद सौं कहति जसोदा, प्रबल पाप सब मेरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें श्रीयशोदाजी कह रही हैं—) ‘नन्दजी! मेरे दोनों पुत्र गोकुलके नायक हैं, वे सभीके प्राण एवं जीवन हैं; (उन्हें) आप छोड़ क्यों आये? उनके जाते समय ही बहुत दुःख हुआ था, (जिससे) इस ग्राममें क्रन्दन-ध्वनि गूँज गयी थी। (उनके वियोगके कारण अब) बछड़े और गायें दसों दिशाओंमें घूम रही हैं। वे रोकनेपर भी घास नहीं चरतीं। जैसे महाराज दशरथने श्रीरामसे प्रेम किया था और उनको देखे बिना प्राण त्याग दिये थे, वैसा प्रेम आपने नहीं किया!’ यशोदाजी नन्दजीसे कह रही हैं—‘यह सब मेरा ही बलवान् पाप (-का फल) है।’
राग नट
विषय (हिन्दी)
(५५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नंद, कहौ हो कहँ छाँड़े हरि।
लै जु गए जैसैं तुम्ह ह्याँतैं, ल्याए किन वैसैंहिं आगैं धरि॥
पालि-पोषि मैं किए सयाने, जिन मारे गज, मल्ल, कंस-अरि।
अब भए तात देवकी-बसुद्यौ, बाहँ पकरि ल्याए न न्याव करि॥
देखौ दूध, दही, घृत, माखन, मैं राखे सब वैसैं ही धरि।
अब को खाइ नंद-नंदन बिनु, गोकुल-मनि मथुरा जु गए हरि॥
श्रीमुख देखन कौं ब्रजबासी, रहे ते घर आँगन मेरे भरि।
सूरदास-प्रभु के जु सँदेसे, कहे महर आँसू गदगद करि॥
मूल
नंद, कहौ हो कहँ छाँड़े हरि।
लै जु गए जैसैं तुम्ह ह्याँतैं, ल्याए किन वैसैंहिं आगैं धरि॥
पालि-पोषि मैं किए सयाने, जिन मारे गज, मल्ल, कंस-अरि।
अब भए तात देवकी-बसुद्यौ, बाहँ पकरि ल्याए न न्याव करि॥
देखौ दूध, दही, घृत, माखन, मैं राखे सब वैसैं ही धरि।
अब को खाइ नंद-नंदन बिनु, गोकुल-मनि मथुरा जु गए हरि॥
श्रीमुख देखन कौं ब्रजबासी, रहे ते घर आँगन मेरे भरि।
सूरदास-प्रभु के जु सँदेसे, कहे महर आँसू गदगद करि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कह रही हैं—) नन्दजी! बताइये तो (मेरे) श्यामसुन्दरको आपने कहाँ छोड़ा? आप जैसे उन्हें यहाँसे ले गये थे, वैसे ही आगे करके क्यों नहीं ले आये? जिन्होंने हाथी (कुवलयापीड), पहलवान (चाणूर आदि) तथा शत्रु कंसको मारा, (उन्हें) मैंने (बड़ी कठिनतासे) पाल-पोसकर बड़ा किया था। अब (उनके) देवकी और वसुदेव माता-पिता बन गये, अतः (तुम) न्याय (-पूर्ण निर्णय) कराकर (उन्हें) बाँह पकड़कर (अपने साथ) क्यों नहीं ले आये? देखो तो मैंने (यह) दूध, दही, घी, मक्खन—सब वैसे ही रख छोड़ा है; (इन्हें) अब नन्दनन्दनके बिना कौन खायेगा? (इन्हें खानेवाले) गोकुलके शिरोमणि तो मथुरा चले गये, उनके श्रीमुखको देखनेके लिये समस्त व्रजवासी मेरे घर एवं आँगनमें भरे हैं (उन्हें अब क्या कहूँ? तब) व्रजराजने (नेत्रोंमें) आँसू भरकर गद्गद कण्ठसे सूरदासके स्वामीका सन्देश कहा।
राग बिहागरौ
विषय (हिन्दी)
(५६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह मति नंद तोहि क्यौं छाजी।
हरि-रस बिकल भयौ नहिं तिहिं छिन, कपट कठोर कछू नहिं लाजी॥
राम-कृष्न तजि गोकुल आए, छतिया छोभ रही क्यौं साजी।
कहा अकाज भयौ दसरथ कौ, लै जु गयौ अपनी जग बाजी॥
बातैं ही पै रहति कहन कौं, सब जग जात कालकी खाजी।
सूर जसोदा कहति सो धिक मति जो गिरिधरन बिमुख ह्वै भाजी॥
मूल
यह मति नंद तोहि क्यौं छाजी।
हरि-रस बिकल भयौ नहिं तिहिं छिन, कपट कठोर कछू नहिं लाजी॥
राम-कृष्न तजि गोकुल आए, छतिया छोभ रही क्यौं साजी।
कहा अकाज भयौ दसरथ कौ, लै जु गयौ अपनी जग बाजी॥
बातैं ही पै रहति कहन कौं, सब जग जात कालकी खाजी।
सूर जसोदा कहति सो धिक मति जो गिरिधरन बिमुख ह्वै भाजी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कह रही हैं—) ‘नन्दजी! आपको (मेरे मोहनके छोड़ आनेकी) मति कैसे शोभा दे सकी? (तुम्ह) उस समय श्यामसुन्दरके प्रेममें व्याकुल नहीं हो गये? कपटपूर्ण कठोरता करते (तुम्हें) कुछ लज्जा नहीं आयी? बलराम और श्रीकृष्णको छोड़कर (जब) गोकुल आये, (तब) तुम्हारा हृदय उस शोकमें ठीक कैसे बना रहा (फट क्यों नहीं गया)? महाराज दशरथकी (श्रीरामके वियोगमें शरीर छोड़नेसे) क्या हानि हो गयी? (वे) संसारसे अपनी जीती बाजी ले गये। ऐसी बातें (ही) यहाँ (संसारमें) कहनेको रह जाती हैं,(नहीं) तो सारे संसारको कालका भोजन बनना ही पड़ता है। (नन्दजीसे) यशोदा कहती हैं—तुम्हारी इस बुद्धिको धिक्कार है, जिससे (तुम) गिरिधरलालसे विमुख होकर भाग आये।’
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(५७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जसुदा कान्ह कान्ह कै बूझै।
फूटि न गईं तुम्हारी चारौ, कैसैं मारग सूझै॥
इक तौ जरी जात बिनु देखें, अब तुम्ह दीन्हौ फूँक।
यह छतिया मेरे कान्ह कुँवर बिनु, फटि न भई द्वै टूक॥
धिक तुम्ह धिक ए चरन अहो पति, अध बोलत उठि धाए।
सूर स्याम-बिछुरन की हम पै, दैन बधाई आए॥
मूल
जसुदा कान्ह कान्ह कै बूझै।
फूटि न गईं तुम्हारी चारौ, कैसैं मारग सूझै॥
इक तौ जरी जात बिनु देखें, अब तुम्ह दीन्हौ फूँक।
यह छतिया मेरे कान्ह कुँवर बिनु, फटि न भई द्वै टूक॥
धिक तुम्ह धिक ए चरन अहो पति, अध बोलत उठि धाए।
सूर स्याम-बिछुरन की हम पै, दैन बधाई आए॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—यशोदाजी ‘कान्ह कहाँ? कान्ह कहाँ?’(यही) पूछती हैं। (वे कहती हैं—) ‘तुम्हारे चारों नेत्र (बाहरी नेत्र और ज्ञान-नेत्र) फूट क्यों नहीं गये, तुम्हें (व्रजका) मार्ग कैसे दिखायी पड़ा? एक तो वैसे ही (मोहनको) देखे बिना मैं जली जा रही थी, उसपर अब तुमने फूँक मार दी! (हाय!) मेरे कुँवर कन्हैयाके बिना यह हृदय (आज) फटकर दो टुकड़े (क्यों) नहीं हो गया? हे पतिदेव! तुम्हें धिक्कार है! तुम्हारे इन चरणोंको धिक्कार है, जो आधे बोलते (तनिक लौट जानेकी बात मथुरावालोंके कहते) ही उठकर दौड़ते हुए श्यामसुन्दरके वियोगकी बधाई देने हमारे पास आ गये।
विषय (हिन्दी)
(५८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नंद, हरि तुम्ह सौं कहा कह्यौ।
सुनि-सुनि निठुर बचन मोहन के, कैसैं हृदै रह्यौ॥
छाँड़ि सनेह चले मंदिर कित, दौरि न चरन गह्यौ।
दरकि न गई बज्र की छाती, कित यह सूल सह्यौ॥
सुरति करत मोहन की बातैं, नैननि नीर बह्यौ।
सुधि न रही अति गलित गात भयौ, मनु डसि गयौ अह्यौ॥
उन्हैं छाँड़ि गोकुल कित आए, चाखन दूध-दह्यौ।
तजे न प्रान सूर दसरथ-लौं, हुतौ जन्म निबह्यौ॥
मूल
नंद, हरि तुम्ह सौं कहा कह्यौ।
सुनि-सुनि निठुर बचन मोहन के, कैसैं हृदै रह्यौ॥
छाँड़ि सनेह चले मंदिर कित, दौरि न चरन गह्यौ।
दरकि न गई बज्र की छाती, कित यह सूल सह्यौ॥
सुरति करत मोहन की बातैं, नैननि नीर बह्यौ।
सुधि न रही अति गलित गात भयौ, मनु डसि गयौ अह्यौ॥
उन्हैं छाँड़ि गोकुल कित आए, चाखन दूध-दह्यौ।
तजे न प्रान सूर दसरथ-लौं, हुतौ जन्म निबह्यौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कह रही हैं—) ‘नन्दजी! श्यामसुन्दरने तुमसे (व्रज आते समय) क्या कहा? तुम्हारा हृदय बार-बार मोहनकी निर्दयताभरी बातें सुन-सुनकर कैसे रह गया (फट क्यों नहीं गया)? उनका प्रेम छोड़कर घरको क्यों लौट पड़े, क्यों न दौड़कर उनके चरण पकड़ लिये? अरे! तुम्हारा वज्रका बना हृदय (उस समय) फट नहीं गया, कैसे यह वेदना सहन की गयी?’ मोहनकी बातोंका स्मरण करके (यशोदा माताके) नेत्रोंसे अश्रु बहने लगे, शरीरकी सुधि नहीं रह गयी और (उनकी) देह ऐसी क्षीण हो गयी (मूर्छित होकर गिर पड़ी) मानो सर्पने काट लिया हो। (फिर बोलीं—तुम) उन्हें (मथुरा) छोड़कर गोकुल किसलिये आये, दूध-दही खाने? (अरे! महाराज) दशरथके समान तुमने अपने प्राण (उसी समय) क्यों न छोड़ दिये, जिससे जीवन सार्थक हो जाता।
विषय (हिन्दी)
(५९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरौ अति प्यारौ नँद-नंद।
आए कहाँ छाँड़ि तुम्ह उन्ह कौं, पोच करी मतिमंद॥
बल-मोहन दोउ पीड़ नैन की, निरखत ही आनंद।
सरवर घोष, कुमोदिन ब्रज-जन, स्याम-बदन बिनु चंद॥
काहें न पाइँ परे बसुद्यौ के, घालि पाग गर-फंद।
सूरदास-प्रभु अब कैं पठवहु, सकल लोक-मुनि-बंद॥
मूल
मेरौ अति प्यारौ नँद-नंद।
आए कहाँ छाँड़ि तुम्ह उन्ह कौं, पोच करी मतिमंद॥
बल-मोहन दोउ पीड़ नैन की, निरखत ही आनंद।
सरवर घोष, कुमोदिन ब्रज-जन, स्याम-बदन बिनु चंद॥
काहें न पाइँ परे बसुद्यौ के, घालि पाग गर-फंद।
सूरदास-प्रभु अब कैं पठवहु, सकल लोक-मुनि-बंद॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यशोदाजी कह रही हैं—) ‘नन्दजी! वह तुम्हारा बेटा मेरा अत्यन्त प्यारा लाल था, उसको तुम कहाँ छोड़ आये? हे मन्दबुद्धि! तुमने यह बहुत बुरा (कार्य) किया। दोनों बलराम-श्याम (तो) मेरी आँखोंके आभूषण थे, जिन्हें देखते ही आनन्द होता था। यह (गोकुल-) ग्राम सरोवर और व्रजवासी कुमुदिनीके समान हैं, जो श्यामसुन्दरके मुखरूपी चन्द्रमासे रहित (हो गये) हैं। अपनी पगड़ीका फंदा गलेमें डालकर वसुदेवजीके पैरपर (यह कहते हुए) क्यों नहीं गिर पड़े कि—‘इस बार समस्त लोकों एवं मुनियोंके वन्दनीय हमारे स्वामीको (व्रज) भेज दीजिये।’
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(६०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहाँ रह्यौ मेरौ मन-मोहन।
वह मूरति जिय तैं नहिं बिसरति, अंग-अंग सब सोहन॥
कान्ह बिना गौवैं सब ब्याकुल, को ल्यावै भरि दोहन।
माखन खात खवावत ग्वालन, सखा लिए सब गोहन॥
जब वै लीला सुरति करति हौं, चित चाहत उठि जोहन।
सूरदास-प्रभु के बिछुरे तैं, मरियत है अति छोहन॥
मूल
कहाँ रह्यौ मेरौ मन-मोहन।
वह मूरति जिय तैं नहिं बिसरति, अंग-अंग सब सोहन॥
कान्ह बिना गौवैं सब ब्याकुल, को ल्यावै भरि दोहन।
माखन खात खवावत ग्वालन, सखा लिए सब गोहन॥
जब वै लीला सुरति करति हौं, चित चाहत उठि जोहन।
सूरदास-प्रभु के बिछुरे तैं, मरियत है अति छोहन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कह रही हैं—नन्दरायजी!) मेरा मनको मोहनेवाला कहाँ रह गया? जिसके अंग-प्रत्यंग सभी सुहावने थे, (आज) वह मूर्ति हृदयसे विस्मृत नहीं होती। कन्हैयाके बिना सब गायें व्याकुल हैं, अब (उन्हें दुहकर दूधसे) दोहनी भरकर कौन लायेगा? वह तो सब सखाओंको साथ लिये (स्वयं) मक्खन खाता था और गोपकुमारोंको खिलाता था। (आज) जब मैं उन लीलाओंका स्मरण करती हूँ, तभी चित्त चाहता है कि उठकर उसे देखूँ। मैं तो सूरदासके स्वामीका वियोग हो जानेपर उनके अत्यन्त स्नेहमें मरी जा रही हूँ।