राग बिलावल
विषय (हिन्दी)
(२८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपालहि राखहु मधुबन जात।
लाज किऐं कछु काज न सरिहै, पल बीतै जुग सात॥
सुफलक-सुत के सँग न दीजिऐ, सुनौ हमारी बात।
गोकुल की सोभा सब जैहै, बिछुरत नँद के तात॥
रथ-आरूढ़ होत बल-केसव, ह्वै आयौ परभात।
सूरदास कछु बोल न आयौ, प्रेम पुलक सब गात॥
मूल
गोपालहि राखहु मधुबन जात।
लाज किऐं कछु काज न सरिहै, पल बीतै जुग सात॥
सुफलक-सुत के सँग न दीजिऐ, सुनौ हमारी बात।
गोकुल की सोभा सब जैहै, बिछुरत नँद के तात॥
रथ-आरूढ़ होत बल-केसव, ह्वै आयौ परभात।
सूरदास कछु बोल न आयौ, प्रेम पुलक सब गात॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यशोदाजी कह रही हैं—कोई) ‘मथुरा जाते हुए (मेरे) गोपालको रोक लो। (इस समय) लज्जा करनेसे कुछ काम नहीं बनेगा; (क्योंकि यह) क्षण सात युग (-के समान) बीत रहा है। हमारी बात सुनो! अक्रूरके साथ इन्हें मत (जाने) दो, नन्दके लालका वियोग होते ही गोकुलकी सारी शोभा चली जायगी।’ श्याम और बलरामके रथपर चढ़नेके साथ ही सबेरा हो आया। सूरदासजी कहते हैं—(श्रीयशोदाजीसे इसके आगे) कुछ बोला नहीं गया और (उनका) सम्पूर्ण शरीर प्रेमसे रोमांचित हो गया।
विषय (हिन्दी)
(२९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहन नैकु बदन तन हेरौ।
राखौ मोहि नात जननी कौ, मदनगुपाल लाल मुख फेरौ॥
पाछैं चढ़ौ बिमान मनोहर, बहुरौ, ब्रज में होत अँधेरौ।
बिछुरन भेंट देहु ठाढ़े ह्वै, निरखौ घोष जनम कौ खेरौ॥
समदौ सखा स्याम यह कहि-कहि, अपने गाइ ग्वाल सब घेरौ।
गए न प्रान सूर ता औसर, नंद जतन करि रहे घनेरौ॥
मूल
मोहन नैकु बदन तन हेरौ।
राखौ मोहि नात जननी कौ, मदनगुपाल लाल मुख फेरौ॥
पाछैं चढ़ौ बिमान मनोहर, बहुरौ, ब्रज में होत अँधेरौ।
बिछुरन भेंट देहु ठाढ़े ह्वै, निरखौ घोष जनम कौ खेरौ॥
समदौ सखा स्याम यह कहि-कहि, अपने गाइ ग्वाल सब घेरौ।
गए न प्रान सूर ता औसर, नंद जतन करि रहे घनेरौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(माता कह रही है—) मोहन! तनिक मेरे मुखकी ओर तो देखो, मेरा तुम्हारे साथ जो माताका सम्बन्ध है, उसकी रक्षा करो। मदनगोपाल लाल! (मेरी ओर) तनिक मुख तो घुमा लो, सुन्दर रथपर पीछे चढ़ना। देखो (तुम्हारे बिना) व्रजमें अँधेरा हो रहा है, (अतः) लौट आओ। खड़े होकर वियोगके समयकी भेंट (अंकमाल) दो और अपने जन्मके ग्राम इस व्रजको देखो। श्यामसुन्दर! ‘गोपकुमारो! अब सब अपनी-अपनी गायें घेर लो’—यह कहकर उन्हें गायें सँभला दो। सूरदासजी कहते हैं कि उस समय(माताके) प्राण नन्दजीके बहुत प्रयत्न करने (समझाने)-के कारण नहीं गये।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(३०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहीं जहाँ सो तहाँ सब ठाढ़ीं।
हरि के चलत देखिअत ऐसी, मनैं चित्र लिखि काढ़ी॥
सूखे बदन, स्रवत नैनन तैं जल-धारा उर बाढ़ी।
कंधनि बाँह धरें चितवति मनु, द्रुमनि बेलि दव-दाढ़ी॥
नीरस करि छाँड़ी सुफलक-सुत, जैसैं दूध बिनु साढ़ी।
सूरदास अक्रूर कृपा तैं, सही बिपति तन गाढ़ी॥
मूल
रहीं जहाँ सो तहाँ सब ठाढ़ीं।
हरि के चलत देखिअत ऐसी, मनैं चित्र लिखि काढ़ी॥
सूखे बदन, स्रवत नैनन तैं जल-धारा उर बाढ़ी।
कंधनि बाँह धरें चितवति मनु, द्रुमनि बेलि दव-दाढ़ी॥
नीरस करि छाँड़ी सुफलक-सुत, जैसैं दूध बिनु साढ़ी।
सूरदास अक्रूर कृपा तैं, सही बिपति तन गाढ़ी॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो (गोपियाँ) जहाँ थीं, वहीं खड़ी रह गयीं। वे श्यामसुन्दरके चलते समय ऐसी दिखायी पड़ती थीं, मानो चित्रमें चित्रित की गयी हों। उनके मुख सूख गये, नेत्रोंसे गिरती हुई प्रबल अश्रुधारा हृदयतक बह चली है। एक-दूसरीके कंधोंपर भुजा रखे (इस भाँति) देख रही हैं मानो वृक्षपर फैली हुई लताएँ दावाग्निसे झुलस गयी हों। अक्रूरने इन्हें इस प्रकार नीरस बनाकर छोड़ दिया है, जैसे मलाईसे रहित दूध। सूरदासजी कहते हैं कि अक्रूरकी कृपा (निष्ठुरता)-से (वे) अपने शरीरपर (यह) महान् विपत्ति सह रही हैं।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलतहुँ फेरि न चितए लाल।
नीकैं करि हरि-मुख न बिलोक्यौ, यहै रह्यौ उर साल॥
रथ बैठे दूरहि तैं देखे, अंबुज-नैन बिसाल।
मीड़त हाथ सकल गोकुल जन, बिरह-बिकल बेहाल॥
लोचन पूरि रहे जल महियाँ, दृष्टि परी जिहिं काल।
सूरदास-प्रभु फिरि नहिं चितए, अंबुज-नैन रसाल॥
मूल
चलतहुँ फेरि न चितए लाल।
नीकैं करि हरि-मुख न बिलोक्यौ, यहै रह्यौ उर साल॥
रथ बैठे दूरहि तैं देखे, अंबुज-नैन बिसाल।
मीड़त हाथ सकल गोकुल जन, बिरह-बिकल बेहाल॥
लोचन पूरि रहे जल महियाँ, दृष्टि परी जिहिं काल।
सूरदास-प्रभु फिरि नहिं चितए, अंबुज-नैन रसाल॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें माता कह रही है—सखी!) चलते समय लालने लौटकर देखा भी नहीं; हृदयमें यह वेदना रह गयी कि श्यामका मुख भली प्रकार देख न पायी। उन कमलके समान विशाल नेत्रवालेको रथपर बैठे दूरसे ही देखा। गोकुलके सभी लोग वियोगसे व्याकुल एवं बेहाल होकर हाथ मल रहे (पछता रहे) हैं। जिस समय (उनपर मेरी) दृष्टि पड़ी, उस समय (मेरे) नेत्रोंमें जल भर आया, इससे कमलके समान विशाल नेत्रोंवाले श्यामसुन्दरको फिर देखा नहीं जा सका।
राग बिलावल
विषय (हिन्दी)
(३२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिछुरत श्रीब्रजराज आज, इनि नैननि की परतीति गई।
उड़ि न गए हरि संग तबहिं तैं, ह्वै न गए सखि स्याममई॥
रूप-रसिक लालची कहावत, सो करनी कछुवै न भई।
साँचे क्रूर कुटिल ए लोचन, बृथा मीन-छबि छीन लई॥
अब काहें जल मोचत, सोचत, समौ गए तैं सूल नई।
सूरदास याही तैं जड़ भए, पलकनिहूँ हठि दगा दई॥
मूल
बिछुरत श्रीब्रजराज आज, इनि नैननि की परतीति गई।
उड़ि न गए हरि संग तबहिं तैं, ह्वै न गए सखि स्याममई॥
रूप-रसिक लालची कहावत, सो करनी कछुवै न भई।
साँचे क्रूर कुटिल ए लोचन, बृथा मीन-छबि छीन लई॥
अब काहें जल मोचत, सोचत, समौ गए तैं सूल नई।
सूरदास याही तैं जड़ भए, पलकनिहूँ हठि दगा दई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्रीव्रजराजका वियोग होनेपर आज इन नेत्रोंका भी विश्वास चला गया। सखी! ये तत्काल श्यामसुन्दरके साथ उड़कर नहीं गये और न श्याममय ही हुए। (ये) सौन्दर्यके रसिक एवं लोभी कहे जाते थे, किंतु इस ख्यातिके अनुरूप कुछ काम इनसे नहीं हो सका। सचमुच ये नेत्र क्रूर तथा कुटिल हैं, व्यर्थ ही इन्होंने मछलियोंकी शोभा छीनी है। अब क्यों चिन्ता करते और आँसू गिराते हैं, अवसर बीत जानेपर नवीन व्यथा होती ही है। इन पलकोंने भी हठपूर्वक (हमें) धोखा दिया है। इसीलिये तो ये जड हो गयी हैं।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(३३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
केतिक दूरि गयौ रथ, माई?
नंद-नँदन के चलत सखी हौं, हरि कौं मिलन न पाई॥
एक दिवस हौं द्वार नंद के, नाहिं रहति बिन आई।
आज बिधाता मति मेरी हरी, भवन-काज बिरमाई॥
जब हरि ऐसौ साज करत हे, काहु न बात चलाई।
ब्रजहीं बसत बिमुख भइ हरि सौं, सूल न उर तैं जाई॥
सोवत ही सुपने की संपति, रही जियहिं सुखदाई।
सूरदास-प्रभु बिनु ब्रज बसिबौ, एकौ पल न सुहाई॥
मूल
केतिक दूरि गयौ रथ, माई?
नंद-नँदन के चलत सखी हौं, हरि कौं मिलन न पाई॥
एक दिवस हौं द्वार नंद के, नाहिं रहति बिन आई।
आज बिधाता मति मेरी हरी, भवन-काज बिरमाई॥
जब हरि ऐसौ साज करत हे, काहु न बात चलाई।
ब्रजहीं बसत बिमुख भइ हरि सौं, सूल न उर तैं जाई॥
सोवत ही सुपने की संपति, रही जियहिं सुखदाई।
सूरदास-प्रभु बिनु ब्रज बसिबौ, एकौ पल न सुहाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! रथ कितनी दूर गया होगा? (हाय!) नन्दनन्दन श्यामसुन्दरसे चलते समय मैं मिल भी नहीं सकी। (वैसे तो) मैं नन्दरायजीके द्वारपर आये बिना एक दिन भी नहीं रहती थी; किंतु आज ब्रह्माने मेरी बुद्धि हरण कर ली, मैं घरके कामोंमें रुकी रह गयी। जब श्यामसुन्दर इस प्रकारकी (यहाँसे जानेकी) तैयारी कर रहे थे, तब (मुझसे) किसीने भी चर्चा नहीं की (और इस प्रकार) व्रजमें रहती हुई भी मैं मोहनसे विमुख हो गयी—यह वेदना हृदयसे जाती नहीं है। जैसे सोते समय स्वप्नमें मिली सम्पत्ति (स्वप्नमें ही) चित्तके लिये सुखदायक होती है (जागनेपर नहीं)। अतः अब सूरदासके स्वामीके बिना व्रजमें रहना एक पल भी अच्छा नहीं लगता।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(३४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी री, वह देखौ रथ जात।
कमल-नैन काँधे पै, न्यारौ पीत बसन फैहरात॥
लए जात जब ओट अटनि की, बचन-हीन कृत गात।
छिति परकंप, कनक-कदली कहँ, मानौ पवन बिहात॥
मधु छँड़ाइ सुफलक-सुत लै गए, ज्यौं माखी बिललात।
सूर सुरूप नीर-दरसन बिन, मनहुँ मीन जलजात॥
मूल
सखी री, वह देखौ रथ जात।
कमल-नैन काँधे पै, न्यारौ पीत बसन फैहरात॥
लए जात जब ओट अटनि की, बचन-हीन कृत गात।
छिति परकंप, कनक-कदली कहँ, मानौ पवन बिहात॥
मधु छँड़ाइ सुफलक-सुत लै गए, ज्यौं माखी बिललात।
सूर सुरूप नीर-दरसन बिन, मनहुँ मीन जलजात॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक दूसरी गोपी कह रही है—) ‘सखी! देखो, वह रथ जा रहा है, कमललोचन श्यामसुन्दरके कंधेका पीताम्बर अलौकिक छटासे उड़ रहा है। जब अटारियोंकी आड़में (अक्रूर) रथ ले जाते हैं, तब (गोपियोंका)शरीर वाणीरहित बन जाता है (अर्थात् वे बोल नहीं पातीं)। भूमिपर वे ऐसी काँपने लगती हैं मानो सोनेके बने केलेको वायु हिला रहा हो। अक्रूर (उनके)मधु (माधुर्यरूप श्याम)-को छीनकर ले गये और वे (सब गोपियाँ) मधुमक्खीके समान व्याकुल हो रही हैं। सूरदासजी कहते हैं—अब (उनकी ऐसी दशा है) मानो उस सुन्दररूप-रूपी जलके दर्शनके बिना मछली या कमल हो।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाछैं ही चितवत मेरे लोचन, आगें परत न पाय।
मन लै चली माधुरी मूरति, कहा करौं ब्रज जाय॥
पौन न भईं पताका अंबर, भई न रथ के अंग।
धूरि न भईं चरन लपटाती, जाती उहँ लौं संग॥
ठाढ़ी कहा, करौ मेरी सजनी, जिहिं बिधि मिलहिं गुपाल।
सूरदास-प्रभु पठै मधुपुरी, मुरझि परी ब्रजबाल॥
मूल
पाछैं ही चितवत मेरे लोचन, आगें परत न पाय।
मन लै चली माधुरी मूरति, कहा करौं ब्रज जाय॥
पौन न भईं पताका अंबर, भई न रथ के अंग।
धूरि न भईं चरन लपटाती, जाती उहँ लौं संग॥
ठाढ़ी कहा, करौ मेरी सजनी, जिहिं बिधि मिलहिं गुपाल।
सूरदास-प्रभु पठै मधुपुरी, मुरझि परी ब्रजबाल॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी मार्ग चलते हुए कह रही है—सखी!) मेरे नेत्र पीछेकी ओर ही देखते हैं और पैर आगे नहीं पड़ते; (क्योंकि) वह माधुर्यमयी (श्यामसुन्दरकी) मूर्ति (तो) मनको अपने साथ ले गयी। (भला) अब मैं व्रज जाकर क्या करूँगी। हम न तो वायु हुईं, न रथके झंडेका वस्त्र ही बनीं, न आकाश बनीं, न रथका कोई अंग बन सकीं और न (मार्गकी) धूलि ही बनीं जिससे (मोहनके) चरणोंमें लिपट जातीं और उनके साथ वहाँ (मथुरा)-तक चली जातीं। मेरी सखी! खड़ी क्यों हो? ऐसा कोई उपाय करो, जिससे गोपाल मिलें। (यों कहती हुई) सूरदासके स्वामीको मथुरा भेजकर (वह) व्रजयुवती मूर्छित हो गयी।
विषय (हिन्दी)
(३६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कान्ह धौं हम सौं कहा कह्यौ।
निकसे बचन सुनाइ सखी री, नाहीं परत रह्यौ॥
मैं मतिहीन मरम नहिं जान्यौ, भूली मथति दह्यौ।
कीजै कहा कहौ अब लै निधि, दूत दूरि निबह्यौ॥
सबै अजान भईं तिहिं अवसर, काहूँ रथ न गह्यौ।
सूरदास-प्रभु बृथा लाज करि, दुसह बियोग लह्यौ॥
मूल
कान्ह धौं हम सौं कहा कह्यौ।
निकसे बचन सुनाइ सखी री, नाहीं परत रह्यौ॥
मैं मतिहीन मरम नहिं जान्यौ, भूली मथति दह्यौ।
कीजै कहा कहौ अब लै निधि, दूत दूरि निबह्यौ॥
सबै अजान भईं तिहिं अवसर, काहूँ रथ न गह्यौ।
सूरदास-प्रभु बृथा लाज करि, दुसह बियोग लह्यौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) कन्हैयाने पता नहीं, मुझसे क्या कहा? सखी! वे (मेरे द्वारपर) कुछ शब्द सुनाते हुए निकल गये। (उन्हें न समझ सकनेपर भी) अब मुझसे रहा नहीं जाता। मैं तो बुद्धिहीन हूँ, (उनकी बातका) भेद समझा नहीं। दही मथनेमें ही भूली रही। अब नव-निधियोंको लेकर भी क्या किया जाय, वह (प्राणोंका) दूत तो दूर चला गया। उस समय सभी अज्ञान (मूर्ख) हो गयी थीं, किसीने भी रथको पकड़ा नहीं। अपने स्वामीसे व्यर्थ लज्जा करके (हमने) असहनीय वियोग (स्वयं) प्राप्त किया है।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(३७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब न बिचारी ही यह बात।
चलत न फैंट गही मोहन की, अब ठाढ़ी पछितात॥
निरखि-निरखि मुख रही मौन ह्वै, थकित भई पल-पात।
जब रथ भयौ अदृस्य अगोचर, लोचन अति अकुलात॥
सबै अजान भईं उहिं औसर, ढिगहिं जसोमति मात।
सूरदास स्वामी के बिछुरें, कौड़ी भर न बिकात॥
मूल
तब न बिचारी ही यह बात।
चलत न फैंट गही मोहन की, अब ठाढ़ी पछितात॥
निरखि-निरखि मुख रही मौन ह्वै, थकित भई पल-पात।
जब रथ भयौ अदृस्य अगोचर, लोचन अति अकुलात॥
सबै अजान भईं उहिं औसर, ढिगहिं जसोमति मात।
सूरदास स्वामी के बिछुरें, कौड़ी भर न बिकात॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! तब यह बात मेरे ध्यानमें नहीं आयी। चलते समय तो मोहनका फेंटा पकड़ा नहीं (उन्हें हठ करके रोका नहीं) और अब खड़ी-खड़ी पश्चात्ताप कर रही हूँ। उस समय बार-बार उनका मुख देखकर चुप हो रही थी, पलकोंका गिरना भी रुक गया था और जब (उनका) रथ नेत्रोंसे ओझल—अदृश्य हो गया, तब नेत्र अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं। उस समय सभी अज्ञान हो गयी थीं, माता यशोदा भी पास ही थीं (फिर भी उन्हें किसीने रोका नहीं)। अब स्वामीसे वियोग हो जानेपर हममेंसे कोई कौड़ीके मूल्य भी नहीं बिकेगा।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब वे बातैं हीं ह्याँ रहीं।
मोहन मुख मुसकाइ चलत कछु, काहूँ नाहिं कही॥
सखि, सुलाज बस समुझि परसपर, सनमुख सूल सही।
अब वे सालत हैं उर महियाँ, कैसैंहुँ कढ़ति नहीं॥
ज्यौं-त्यौं सल्य करन कौं सजनी, काहें फिरति बही।
हरि चुंबक जहँ मिलैं सूर-प्रभु मो लै जाहु तहीं॥
मूल
अब वे बातैं हीं ह्याँ रहीं।
मोहन मुख मुसकाइ चलत कछु, काहूँ नाहिं कही॥
सखि, सुलाज बस समुझि परसपर, सनमुख सूल सही।
अब वे सालत हैं उर महियाँ, कैसैंहुँ कढ़ति नहीं॥
ज्यौं-त्यौं सल्य करन कौं सजनी, काहें फिरति बही।
हरि चुंबक जहँ मिलैं सूर-प्रभु मो लै जाहु तहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) अब वे बातेंभर (उनकी स्मृतिमात्र) यहाँ रह गयीं, जब श्याम अपने श्रीमुखसे तनिक मुसकराकर जाने लगे, तब किसीने कुछ नहीं कहा। सखी! उत्तम लज्जाके वश होकर (सभीने) परस्पर समझकर सम्मुख ही यह शूल सह लिया। अब वह (शूल) हृदयमें पीड़ा दे रहा है और किसी प्रकार निकलता ही नहीं। सखी! जिस-तिस प्रकारसे शल्य-चिकित्सा करानेके लिये क्यों (इधर-उधर) भटकती फिरती है? हमारे स्वामी श्यामसुन्दररूपी चुम्बक (जो उस शूलको खींच लें) जहाँ मिलें, मुझे वहीं ले चल।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(३९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी बज्र की छाती किन बिदरि-बिदरि जाति।
हरिहिं चलत चितवति मग, ठाढ़ी पछिताति॥
बिद्यमान बिरह-सूल, उर मैं जु समाति।
प्राननाथ बिछुरे सखि, जीवत न लजाति॥
ज्यौं ठग निधि हरत, रंच गुर दै किहुँ भाँति।
इमि फिरि मुसकानि सूर, मनसा गइ माति॥
मूल
मेरी बज्र की छाती किन बिदरि-बिदरि जाति।
हरिहिं चलत चितवति मग, ठाढ़ी पछिताति॥
बिद्यमान बिरह-सूल, उर मैं जु समाति।
प्राननाथ बिछुरे सखि, जीवत न लजाति॥
ज्यौं ठग निधि हरत, रंच गुर दै किहुँ भाँति।
इमि फिरि मुसकानि सूर, मनसा गइ माति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) मेरा हृदय वज्रका है—(नहीं तो) वह टुकड़े-टुकड़े होकर फट क्यों नहीं जाता? श्यामसुन्दरके जाते समय (तो) मैं मार्गमें खड़ी देखती रही और अब (खड़ी) पश्चात्ताप कर रही हूँ। वियोगका शूल हृदयमें है और (वह) गहरा धँसता ही जाता है। सखी! प्राणनाथका वियोग होनेपर भी जीवित रहनेमें मुझे (आज) लज्जा नहीं आती। जैसे ठग किसी प्रकार किसी बटाऊके हाथमें तनिक-सा गुड़ देकर (उसकी) सम्पत्ति छीन लेता है, उसी प्रकार मोहनका घूमकर मुसकराना था जिससे मैं (उस समय) मनसे मतवाली हो गयी।
राग गौरी
विषय (हिन्दी)
(४०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज रैनि नहिं नीद परी।
जागत गिनत गगन के तारे, रसना रटत गोबिंद हरी॥
वह चितवन, वह रथकी बैठन, जब अक्रूर की बाँह गही।
चितवति रही ठगी-सी ठाढ़ी, कहि न सकति कछु काम दही॥
इते मान ब्याकुल भई सजनी, आरज-पंथहुँ तैं बिडरी।
सूरदास-प्रभु जहाँ सिधारे, कितिक दूर मथुरा नगरी॥
मूल
आज रैनि नहिं नीद परी।
जागत गिनत गगन के तारे, रसना रटत गोबिंद हरी॥
वह चितवन, वह रथकी बैठन, जब अक्रूर की बाँह गही।
चितवति रही ठगी-सी ठाढ़ी, कहि न सकति कछु काम दही॥
इते मान ब्याकुल भई सजनी, आरज-पंथहुँ तैं बिडरी।
सूरदास-प्रभु जहाँ सिधारे, कितिक दूर मथुरा नगरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) आज रातभर मुझे नींद नहीं आयी, जागते हुए आकाशके तारे गिनती और जीभसे ‘गोविन्द हरि’ (यह नाम) रटती रही। (मोहनकी) वह देखनेकी भंगी, वह रथपर बैठनेका उनका ढंग जबकि उन्होंने अक्रूरका हाथ (रथपर चढ़नेके लिये) पकड़ा, (वह सब मैं) मन्त्रमुग्ध-सी खड़ी देखती रही और कामदेवसे जलायी जानेके कारण कुछ कह नहीं सकी। सखी! (मैं) इतनेमें ही व्याकुल हो गयी और आर्यपथसे भी भ्रष्ट हो गयी (अपने स्वामीके साथ न जा सकी)। हमारे स्वामी जहाँ गये हैं, वह मथुरा नगरी (यहाँसे) कितनी दूर है?
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(४१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिछुरत फाट्यौ न हियौ।
भयौ कठोर बज्र तैं भारी, रहि कैं पापी कहा कियौ॥
घोरि हलाहल सुनि री सजनी, तिहि अवसर काहें न पियौ।
मन सुधि गई सँभार न तन की, पूरौ दाँव अक्रूर दियौ॥
कछु न सुहाइ गई निधि जब तैं, भवन-काज कौ नेम लियौ।
निसि-दिन रटत सूर के प्रभु बिन मरिबौ, तऊ न जात जियौ॥
मूल
हरि बिछुरत फाट्यौ न हियौ।
भयौ कठोर बज्र तैं भारी, रहि कैं पापी कहा कियौ॥
घोरि हलाहल सुनि री सजनी, तिहि अवसर काहें न पियौ।
मन सुधि गई सँभार न तन की, पूरौ दाँव अक्रूर दियौ॥
कछु न सुहाइ गई निधि जब तैं, भवन-काज कौ नेम लियौ।
निसि-दिन रटत सूर के प्रभु बिन मरिबौ, तऊ न जात जियौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दरका वियोग होनेपर (यह मेरा) हृदय फट नहीं गया, यह तो वज्रसे भी अधिक कठोर हो गया है। (किंतु) रहकर ही इस पापीने क्या किया? सखी! सुन, (तू कह सकती है कि) उस समय मैंने हलाहल विष घोलकर क्यों नहीं पी लिया। किंतु (बात यह हुई कि मैं) मनसे (उस समय) अपनी सुधि (ही) भूल गयी, (जिससे) शरीरकी सँभाल नहीं रही। इसीसे अक्रूरने पूरा दाव दिया (पूरी चोट की)। जबसे वह (श्यामसुन्दररूपी) सम्पत्ति गयी है, तबसे कुछ अच्छा नहीं लगता। घरके काम करनेका नियम बना लिया है। रात-दिन स्वामीके बिना मृत्युके लिये रट लगाये हूँ, पर मृत्यु नहीं आती और न जीवित ही रहा जाता है।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(४२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिछुरत प्रान निलज्ज रहे री।
पिय-समीप-सुख की सुधि आवै, सूल सरीर न जात सहे री॥
निसि-बासर ठाढ़ी मग जोवति, ए दुख हम न सुने न चहे री।
गमन करत देखन नहिं पाए, नैन नीर भरि बहसि बहे री॥
वे बातैं बसि रहीं हिए में, उलटि अवधि के बचन कहे री।
सूर स्याम बिन परब बिरह बस, मानौ रबि-ससि राहु गहे री॥
मूल
हरि बिछुरत प्रान निलज्ज रहे री।
पिय-समीप-सुख की सुधि आवै, सूल सरीर न जात सहे री॥
निसि-बासर ठाढ़ी मग जोवति, ए दुख हम न सुने न चहे री।
गमन करत देखन नहिं पाए, नैन नीर भरि बहसि बहे री॥
वे बातैं बसि रहीं हिए में, उलटि अवधि के बचन कहे री।
सूर स्याम बिन परब बिरह बस, मानौ रबि-ससि राहु गहे री॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दरका वियोग होनेपर भी ये निर्लज्ज प्राण रह गये हैं। प्रियतमके पास रहनेके आनन्दका जब स्मरण आता है, तब यह वेदना शरीरसे सही नहीं जाती। रात-दिन खड़ी (उनका) मार्ग देखती हूँ। ये दुःख हमने न सुने थे और न देखे थे। जाते समय भी (मोहनको) देख नहीं पायी; क्योंकि आँखोंमें आँसू भर आये और मानो होड़ बदकर बह चले। (अब) लौटकर (अपना मुख हमारी ओर घुमाकर) अवधि बीतनेपर वापस आनेकी जो बात (श्यामसुन्दरने) कही थी, वही बात हृदयमें बस रही है। श्यामसुन्दरके बिना हम ऐसी वियोगके वशीभूत हो रही हैं मानो बिना पर्व (अमावस्या-पूर्णिमा)-के ही राहुने सूर्य तथा चन्द्रमाको ग्रस लिया हो।
राग अड़ानौ
विषय (हिन्दी)
(४३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंदर बदन सुख-सदन स्याम कौ, निरखि नयन-मन थाक्यौ।
बारक इन्ह बीथिनि ह्वै निकसे, उझकि झरोखे झाँक्यौ॥
उन्ह इक कछू चतुरई कीन्ही, गैंद उछारि जु ताक्यौ।
बारौं लाज भई मोहि बैरिनि, मैं गँवारि मुख ढाक्यौ॥
कछु करि गए तनिक चितवनि में, रहत प्रान मद छाक्यौ।
सूरदास-प्रभु सरबस लै गए, हँसत-हँसत रथ हाँक्यौ॥
मूल
सुंदर बदन सुख-सदन स्याम कौ, निरखि नयन-मन थाक्यौ।
बारक इन्ह बीथिनि ह्वै निकसे, उझकि झरोखे झाँक्यौ॥
उन्ह इक कछू चतुरई कीन्ही, गैंद उछारि जु ताक्यौ।
बारौं लाज भई मोहि बैरिनि, मैं गँवारि मुख ढाक्यौ॥
कछु करि गए तनिक चितवनि में, रहत प्रान मद छाक्यौ।
सूरदास-प्रभु सरबस लै गए, हँसत-हँसत रथ हाँक्यौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दरके सुखके निवास सुन्दर मुखको देखकर मेरे नेत्र एवं मन विमुग्ध हो गये हैं। एक बार वे इस गलीसे निकले थे कि मैंने खिड़कीमेंसे सिर बाहर निकालकर (उनकी ओर) झाँका (देखा)। उन्होंने भी कुछ थोड़ी चतुराई की और गेंद उछालकर (मेरी ओर) देखा। मैं इस लज्जाको जला दूँ , वह (उस समय) मेरे लिये शत्रु हो गयी, जो मुझ मूर्खाने मुख ढक लिया। किंतु तनिक देखनेमें ही वे कुछ ऐसा कर गये कि मेरे प्राण मद (प्रेम)-से छके (परितृप्त) रहते हैं। वे मेरे स्वामी मेरा सर्वस्व ले गये और हँसते-हँसते (उन्होंने) रथ हाँक (चला) दिया।*
पादटिप्पनी
- श्रीसूरका यह पद वल्लभसम्प्रदायमें सुन्दरताकी चोटीका माना जाता है और रथ-यात्रा (आषाढ़ शुक्ला-प्रतिपदा)-के दिन शयन-समय गाया जाता है। इसलिये इसकी पाठ-परम्परा अविचल है, किंतु पूर्वी बन्धुओंने इसे विकृत बनाकर भावशून्यताके साथ संयोग-शृंगारसे हटाकर वियोगमें बैठाकर सुरुचिका परिचय नहीं दिया है। शुद्ध पाठ इस प्रकार है—
सुंदर बदन सदन सोभा कौ निरखि नैन-मन थाक्यौ।
हौं ठाढ़ी बीथिन ह्वै निकसे, उझकि झरोखे झाँक्यौ॥
मोहन इक चतुराई कीन्ही, गेंद उछारि गगन मिस ताक्यौ।
बारौं री लाज बैरिन भइ मोकौं, हौं गँवारि मुख ढाँक्यौ॥
चितवन में कछु करि गए टौना, क्यौं राखूँ मन राख्यौ।
‘सूरदास’ प्रभु सरबस लै चले, हँसत-हँसत रथ हाँक्यौ॥
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(४४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
री मोहि भवन भयानक लागै माई, स्याम बिना।
काहि जाइ देखौं भरि लोचन, जसुमति के अँगना॥
को संकट सहाइ करिबे कौ, मेटै बिघन घना।
लै गयौ क्रूर अक्रूर साँवरौ, ब्रज कौ प्रान-धना॥
काहि उठाइ गोद करि लीजै, करि-करि मन मगना।
सूरदास मोहन-दरसन बिन, सुख-संपति सपना॥
मूल
री मोहि भवन भयानक लागै माई, स्याम बिना।
काहि जाइ देखौं भरि लोचन, जसुमति के अँगना॥
को संकट सहाइ करिबे कौ, मेटै बिघन घना।
लै गयौ क्रूर अक्रूर साँवरौ, ब्रज कौ प्रान-धना॥
काहि उठाइ गोद करि लीजै, करि-करि मन मगना।
सूरदास मोहन-दरसन बिन, सुख-संपति सपना॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—) सखी! श्यामसुन्दरके बिना मुझे घर भयावना लगता है, (अब) यशोदाजीके आँगनमें जाकर किसे भर नेत्र देखूँ? विपत्तियोंमें सहायता करनेके लिये कौन बहुत-से विघ्नोंको हटायेगा? व्रजके प्राणधन श्यामसुन्दरको तो निर्दय अक्रूर ले गया। बार-बार प्रफुल्लचित्त होकर (अब) किसे गोदमें उठाया जाय? मोहनके दर्शन बिना (तो) सुख-सम्पत्ति स्वप्न हो गयी है।
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(४५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहा हौं ऐसैं ही मरि जैहौं।
इहिं आंगन गोपाल लाल कौ, कबहुँ कि कनियाँ लैहौं॥
कब वह मुख बहुरौ देखौंगी, कब वैसौ सचु पैहौं।
कब मोपै माखन माँगैंगे, कब रोटी धरि दैहौं॥
मिलन आस तन प्रान रहत हैं, दिन दस मारग ज्वैहौं।
जौ न सूर आइहैं इते पर, जाइ जमुन धँसि लैहौं॥
मूल
कहा हौं ऐसैं ही मरि जैहौं।
इहिं आंगन गोपाल लाल कौ, कबहुँ कि कनियाँ लैहौं॥
कब वह मुख बहुरौ देखौंगी, कब वैसौ सचु पैहौं।
कब मोपै माखन माँगैंगे, कब रोटी धरि दैहौं॥
मिलन आस तन प्रान रहत हैं, दिन दस मारग ज्वैहौं।
जौ न सूर आइहैं इते पर, जाइ जमुन धँसि लैहौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कहती हैं—सखी!) क्या मैं ऐसे ही मर जाऊँगी? इस आँगनमें गोपाल लालको (क्या) फिर कभी गोदमें लूँगी? कब फिर वह मुख देखूँगी और (बताओ) वैसा आनन्द (फिर) कब पाऊँगी? कब (श्याम) मुझसे मक्खन माँगेंगे और कब रोटीपर (मक्खन) रखकर उन्हें दूँगी? (उनसे) मिलनेकी आशामें ही (मेरे) शरीरमें प्राण टिक रहे हैं, दस दिनतक और उनका मार्ग देखूँगी। यदि इतनेपर भी (वे) नहीं आयेंगे तो जाकर यमुनामें डूब जाऊँगी।
विषय (हिन्दी)
(४६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुपालराइ, हौं न चरन तजि जैहौं।
तुमहि छाँड़ि मधुबन मेरे मोहन, कहा जाइ ब्रज लैहौं॥
कहिहौं कहा जाइ जसुमति सौं, जब सनमुख उठि ऐहै।
प्रात समै दधि मथत छाँड़ि कै, काहि कलेऊ दैहै॥
बारह बरस दियौ हम ढीठौ, यह प्रताप बिन जाने।
अब तुम्ह प्रगट भए बसुद्यौ-सुत गर्ग-बचन परमाने॥
रिपु हति काज सबै कत कीन्हौ, कत आपदा बिनासी।
डारि न दियौ कमल कर तैं गिरि, दबि मरते ब्रजबासी॥
बासर संग सखा सब लीन्हे, टेरि न धेनु चरैहौ।
क्यौं रहिहैं मेरे प्रान दरस बिनु, जब संध्या नहिं ऐहौ॥
ऊरध साँस चरन-गति थाकी, नैन नीर मरहाइ।
सूर नंद-बिछुरत की बेदनि, मो पै कही न जाइ॥
मूल
गुपालराइ, हौं न चरन तजि जैहौं।
तुमहि छाँड़ि मधुबन मेरे मोहन, कहा जाइ ब्रज लैहौं॥
कहिहौं कहा जाइ जसुमति सौं, जब सनमुख उठि ऐहै।
प्रात समै दधि मथत छाँड़ि कै, काहि कलेऊ दैहै॥
बारह बरस दियौ हम ढीठौ, यह प्रताप बिन जाने।
अब तुम्ह प्रगट भए बसुद्यौ-सुत गर्ग-बचन परमाने॥
रिपु हति काज सबै कत कीन्हौ, कत आपदा बिनासी।
डारि न दियौ कमल कर तैं गिरि, दबि मरते ब्रजबासी॥
बासर संग सखा सब लीन्हे, टेरि न धेनु चरैहौ।
क्यौं रहिहैं मेरे प्रान दरस बिनु, जब संध्या नहिं ऐहौ॥
ऊरध साँस चरन-गति थाकी, नैन नीर मरहाइ।
सूर नंद-बिछुरत की बेदनि, मो पै कही न जाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीनन्दजी कहते हैं—) ‘गोपाल राय! मैं तुम्हारे चरण छोड़कर (व्रज) नहीं जाऊँगा। मेरे मोहन! तुम्हें मथुरा छोड़कर व्रजमें जाकर मैं क्या लूँगा? जब यशोदा उठकर मेरे सामने आयेगी, तब जाकर उससे क्या कहूँगा? वह सबेरेके समय दही मथना छोड़कर किसे कलेऊ देगी? तुम्हारा यह प्रताप जाने बिना बारह वर्षतक हमने तुम्हारे साथ धृष्टताका व्यवहार किया, अब तुम गर्ग (मुनि)-के वचनोंके प्रमाणसे वसुदेवजीके पुत्र प्रख्यात हो गये। शत्रुओंको मारकर क्यों तुमने हमारे सब काम किये और क्यों सब विपत्तियाँ नष्ट कीं। (यही करना था तो पहले ही) अपने कमलके समान हाथपरसे गोवर्धन पर्वतको क्यों नहीं गिरा दिया, जिससे सब व्रजवासी (उसी समय) दबकर मर जाते। अब दिनमें सखाओंको साथ लिये पुकार-पुकारकर गायें नहीं चराओगे? और जब (वनसे घरको) संध्याके समय नहीं लौटोगे, तब मेरे प्राण तुम्हारा दर्शन किये बिना कैसे रहेंगे?’ सूरदासजी कहते हैं—(यह कहते-कहते नन्दरायकी) ऊर्ध्व (मृत्यु-समय-जैसी) श्वास चलने लगी, चरणोंकी गति रुक गयी, नेत्रोंसे आँसू बहने लगे और उनकी मरणासन्न (-जैसी) दशा हो गयी। (श्यामसुन्दरसे) वियुक्त होते समय नन्दजीको जो वेदना हुई, उसका वर्णन मुझसे नहीं हो पाता।
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(४७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
(मेरे) मोहन तुमहिं बिना नहिं जैहौं।
महरि दौरि आगे जब ऐहै, कहा ताहि मैं कैहौं॥
माखन मथि राख्यौ ह्वै है, तुम्ह हेत, चलौ मेरे बारे।
निठुर भए मधुपुरी आइ कैं, काहें असुरन मारे॥
सुख पायौ बसुदेव-देवकी, औ सुख सुरन दियौ।
यहै कहत नँद गोप सखा सब, बिदरन चहत हियौ॥
तब माया जड़ता उपजाई, निठुर भए जदुराइ।
सूर नंद परमोधि पठाए, निठुर ठगौरी लाइ॥
मूल
(मेरे) मोहन तुमहिं बिना नहिं जैहौं।
महरि दौरि आगे जब ऐहै, कहा ताहि मैं कैहौं॥
माखन मथि राख्यौ ह्वै है, तुम्ह हेत, चलौ मेरे बारे।
निठुर भए मधुपुरी आइ कैं, काहें असुरन मारे॥
सुख पायौ बसुदेव-देवकी, औ सुख सुरन दियौ।
यहै कहत नँद गोप सखा सब, बिदरन चहत हियौ॥
तब माया जड़ता उपजाई, निठुर भए जदुराइ।
सूर नंद परमोधि पठाए, निठुर ठगौरी लाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीनन्दजी कह रहे हैं—) ‘मेरे मोहन! तुम्हारे बिना मैं (व्रज) नहीं जाऊँगा। व्रजरानी जब दौड़कर आगे आयेंगी, तब मैं उनसे क्या कहूँगा? मेरे बच्चे! चलो, उन्होंने तुम्हारे लिये (दही) मथकर मक्खन निकाल रखा होगा। मथुरा आकर (तो) तुम निष्ठुर हो गये। यदि यही करना था तो (व्रजमें आये) असुरोंको क्यों मारा? वसुदेव और देवकीने (तुमसे) सुख पाया और देवताओंको भी (तुमने) सुख दिया; तब तो (पहले) हमसे मोह करके (हममें) जडता (विमुग्धभाव) उत्पन्न की और यादवनाथ! अब निष्ठुर हो गये? श्रीनन्दजी और सब गोप-सखा यही कह रहे हैं कि अब (हमारा) हृदय फटना चाहता है।’ सूरदासजी कहते हैंकि (श्यामसुन्दरने) निष्ठुरतापूर्वक कुछ टोना-सा लगाकर और नन्दरायजीको आश्वासन दे (उन्हें व्रज) भेज दिया।
राग नट
विषय (हिन्दी)
(४८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नंदहि कहत हरि ब्रज जाहु।
कितिक मथुरा ब्रजहि अंतर, जिय कहा पछिताहु॥
कहा ब्याकुल होत अतिहीं, दूरि हौं कहुँ जात?
निठुर उर में ग्यान बरत्यौ, मानि लीन्ही बात॥
नंद भए कर जोरि ठाढ़े, तुम्ह कहें ब्रज जाउँ।
सूर मुख यह कहत बानी, चित नहीं कहुँ ठाउँ॥
मूल
नंदहि कहत हरि ब्रज जाहु।
कितिक मथुरा ब्रजहि अंतर, जिय कहा पछिताहु॥
कहा ब्याकुल होत अतिहीं, दूरि हौं कहुँ जात?
निठुर उर में ग्यान बरत्यौ, मानि लीन्ही बात॥
नंद भए कर जोरि ठाढ़े, तुम्ह कहें ब्रज जाउँ।
सूर मुख यह कहत बानी, चित नहीं कहुँ ठाउँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्यामसुन्दर श्रीनन्दजीसे कहते हैं—‘आप व्रज पधारें! मथुरा और व्रजमें दूरी ही कितनी है, अतः मनमें (आप) क्यों पछता रहे हैं? क्यों अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं। क्या मैं कहीं दूर जा रहा हूँ?’ (यह सुनकर श्रीनन्दरायके) निष्ठुर हृदयमें ज्ञानने अपनी क्रिया की, जिससे (व्रजरायने श्यामसुन्दरकी) बात मान ली। (फिर क्या था) नन्दजी हाथ जोड़ खड़े होकर (बोले—मैं) ‘तुम्हारे कहनेसे व्रज जाता हूँ।’ सूरदासजी कहते हैं कि मुखसे ही वे यह बात कहते हैं, किंतु उनका चित्त कहीं (इस बातपर) स्थिर नहीं होता।
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(४९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
चले नंद ब्रज कौं समुहाइ।
गोप सखा हरि बोधि पठाए, सबै चले अकुलाइ॥
काहू सुधि न रही तन की कछु, लटपटात परैं पाइ।
गोकुल जात फिरत पुनि मधुबन, मन तिन्ह उतहिं चलाइ॥
बिरह-सिंधु में परे चेत बिन, ऐसैंहिं चले बहाइ।
सूर स्याम-बलराम छाँड़ि कै, ब्रज आए नियराइ॥
मूल
चले नंद ब्रज कौं समुहाइ।
गोप सखा हरि बोधि पठाए, सबै चले अकुलाइ॥
काहू सुधि न रही तन की कछु, लटपटात परैं पाइ।
गोकुल जात फिरत पुनि मधुबन, मन तिन्ह उतहिं चलाइ॥
बिरह-सिंधु में परे चेत बिन, ऐसैंहिं चले बहाइ।
सूर स्याम-बलराम छाँड़ि कै, ब्रज आए नियराइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दजी सबको एकत्र करके व्रजकी ओर चले। श्यामसुन्दरने गोप और सखाओंको समझाकर भेजा, अतः वे व्याकुल होकर चल पड़े। किसीको भी (अपने) शरीरकी कुछ सुधि नहीं रही, उनके पैर लड़खड़ाते हुए पड़ रहे हैं। जा रहे हैं गोकुल, पर बार-बार मथुराकी ओर लौट पड़ते हैं; (क्योंकि उनका) मन तो उसी ओर चला जाता है। वियोगके समुद्रमें बिना चेतनाके पड़े हैं और इसी प्रकार बहते जा रहे हैं। सूरदासजी कहते हैं—श्याम-बलरामको छोड़कर वे व्रजके समीप पहुँच गये।
राग भैरव
विषय (हिन्दी)
(५०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बार-बार मग जोवति माता।
ब्याकुल बिन मोहन बल-भ्राता॥
आवत देखि गोप-नँद साथा।
बिबि बालक बिन भई अनाथा॥
धाई, धेंनु बच्छ ज्यौं ऐसैं।
माखन बिना रहे धौं कैसैं॥
ब्रज-नारी हरषित सब धाईं।
महरि जहाँ-तहँ आतुर आईं॥
हरषित माता रोहिनी आई।
उर भरि हलधर लेउँ कन्हाई॥
देखे नंद, गोप सब देखे।
बल-मोहन कौं तहाँ न पेखे॥
आतुर मिलन काज ब्रज-नारी।
सूर मधुपुरी रहे मुरारी॥
मूल
बार-बार मग जोवति माता।
ब्याकुल बिन मोहन बल-भ्राता॥
आवत देखि गोप-नँद साथा।
बिबि बालक बिन भई अनाथा॥
धाई, धेंनु बच्छ ज्यौं ऐसैं।
माखन बिना रहे धौं कैसैं॥
ब्रज-नारी हरषित सब धाईं।
महरि जहाँ-तहँ आतुर आईं॥
हरषित माता रोहिनी आई।
उर भरि हलधर लेउँ कन्हाई॥
देखे नंद, गोप सब देखे।
बल-मोहन कौं तहाँ न पेखे॥
आतुर मिलन काज ब्रज-नारी।
सूर मधुपुरी रहे मुरारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता (यशोदा) बार-बार मार्ग देख रही है, वह मोहन और उनके भाई बलरामके बिना व्याकुल है। गोपोंके साथ नन्दजीको दोनों बालकोंके बिना आते देख वह अनाथ हो गयी। जैसे बछड़ेके लिये गाय दौड़ती है, (वह) उसी प्रकार दौड़ी (और बोली—) पता नहीं मक्खनके बिना (मेरे लाल इतने दिन) कैसे रहे। व्रजकी सब स्त्रियाँ (भी) प्रसन्न होकर दौड़ पड़ीं और जहाँ व्रजरानी थीं, वहीं शीघ्रतापूर्वक आ गयीं। हर्षित होकर माता रोहिणी यह सोचती हुई आयीं कि ‘बलराम और कन्हैयाको हृदयसे लगा लूँ।’ उन्होंने व्रजराज नन्दजीको देखा, सब गोपोंको देखा; किंतु बलराम और श्यामसुन्दर वहाँ दिखायी नहीं पड़े। सूरदासजी कहते हैं कि जिनसे मिलनेके लिये व्रजस्त्रियाँ आतुर (व्याकुल) थीं, वे श्रीमुरारि (तो) मथुरा ही रह गये।