०६ गोपिका-वचन परस्पर

राग रामकली

विषय (हिन्दी)

(२१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुने हैं स्याम मधुपुरी जात।
सकुचन कहि न सकति काहू सौं, गुप्त हृदयकी बात॥
संकित बचन अनागत कोऊ, कहि जु गयौ अधरात।
नींद न परै, घटै नहिं रजनी, कब उठि देखौं प्रात॥
नंद-नँदन तौ ऐसे लागे, ज्यौं जल पुरइनि-पात।
सूर स्याम सँग तैं बिछुरत हैं, कब ऐहैं कुसलात॥

मूल

सुने हैं स्याम मधुपुरी जात।
सकुचन कहि न सकति काहू सौं, गुप्त हृदयकी बात॥
संकित बचन अनागत कोऊ, कहि जु गयौ अधरात।
नींद न परै, घटै नहिं रजनी, कब उठि देखौं प्रात॥
नंद-नँदन तौ ऐसे लागे, ज्यौं जल पुरइनि-पात।
सूर स्याम सँग तैं बिछुरत हैं, कब ऐहैं कुसलात॥

अनुवाद (हिन्दी)

(एक गोपी कह रही है—सखी!) सुना है श्यामसुन्दर मथुरा जा रहे हैं, (मैं) संकोचके मारे (अपने) हृदयकी गुप्त बात किसीसे कह नहीं सकती। आधी रातको ही कोई शंकाभरी (उनके जानेकी) भविष्यकी बात जो कह गया सो न तो नींद आती है और न रात ही (शीघ्र) समाप्त होती है, कब सबेरा होनेपर उठकर (मोहनको) देखूँगी। (मुझे) नन्दनन्दन तो ऐसे (तटस्थ) लगते हैं जैसे (जलमें) कमलके पत्ते। सूरदासजी! अब श्यामसुन्दर हमारे साथसे बिछुड़ते हैं, कब कुशलपूर्वक लौट आयेंगे?

विषय (हिन्दी)

(२२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलन कौं कहियत हैं हरि आज।
अबहीं सखी, देखि आई है, करत गमन कौ साज॥
कोउ इक कंस कपट करि पठयौ, कछु सँदेस दै हाथ।
सु-तौ हमारौ लिऐं जात है, सरबस अपने साथ॥
सो यह सूल नाहिं सुनि सजनी! सहिऐ धरि जिय लाज।
धीरज जात, चलौ अबहीं मिलि, दूरि गऐं कह काज॥
छाँड़ौ जग-जीवन की आसा, अरु गुरुजन की कानि।
बिनती कमल-नैन सौं करिऐ, सूर समै पहिचानि॥

मूल

चलन कौं कहियत हैं हरि आज।
अबहीं सखी, देखि आई है, करत गमन कौ साज॥
कोउ इक कंस कपट करि पठयौ, कछु सँदेस दै हाथ।
सु-तौ हमारौ लिऐं जात है, सरबस अपने साथ॥
सो यह सूल नाहिं सुनि सजनी! सहिऐ धरि जिय लाज।
धीरज जात, चलौ अबहीं मिलि, दूरि गऐं कह काज॥
छाँड़ौ जग-जीवन की आसा, अरु गुरुजन की कानि।
बिनती कमल-नैन सौं करिऐ, सूर समै पहिचानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) कहा जाता है कि श्यामसुन्दर आज (मथुरा) जानेवाले हैं, अभी (एक) सखी उन्हें जानेकी तैयारी करते देख आयी है। कंसने कपट करके किसी एक व्यक्तिको उसके हाथ कुछ संदेश देकर भेजा है, सो वह तो अपने साथ हमारा सर्वस्व ही लिये जा रहा है। सखी! सुनो, सो यह कष्ट चित्तमें लज्जा रखकर नहीं सहन कर लेना चाहिये। मेरा धैर्य छूट रहा है। चलो अभी मिलें, उनके दूर चले जानेपर क्या काम होगा। अब जगत् में जीनेकी आशा और गुरुजनोंका संकोच छोड़ दो। (अब तो) समयको पहचान (समझ)-कर कमललोचन (श्यामसुन्दर)-से ही (न जानेकी) प्रार्थना करनी चाहिये।

राग रामकली

विषय (हिन्दी)

(२३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलत हरि, धिक जु रहत ए प्रान।
कहँ वह सुख, अब सहौं दुसह दुख, उर करि कुलिस समान॥
कहँ वह कंठ स्यामसुंदर भुज, करति अधर-रस पान।
अँचवत नैन चकोर सुधा-बिधु, देखत मुख छबि आन॥
जाकौ जग उपहास कियौ तब, छाड़ॺौ सब अभिमान।
सूर सुनिधि हम तैं है बिछुरत, कठिन है करम-निदान॥

मूल

चलत हरि, धिक जु रहत ए प्रान।
कहँ वह सुख, अब सहौं दुसह दुख, उर करि कुलिस समान॥
कहँ वह कंठ स्यामसुंदर भुज, करति अधर-रस पान।
अँचवत नैन चकोर सुधा-बिधु, देखत मुख छबि आन॥
जाकौ जग उपहास कियौ तब, छाड़ॺौ सब अभिमान।
सूर सुनिधि हम तैं है बिछुरत, कठिन है करम-निदान॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामके चल देनेपर यदि प्राण रह जायँ तो इन्हें धिक्कार है। कहाँ वह (उनके साथका) सुख और कहाँ अब हृदयको वज्रके समान बनाकर असहनीय दुःख सहना। कहाँ हम अपने गलेमें श्यामसुन्दरकी भुजाओंको रखकर उनके अधरामृतका पान करती थीं और उस मुखचन्द्रकी अलौकिक शोभा देखते हुए (हमारे) नेत्ररूपी चकोर उस (चन्द्रमा)-के अमृतको पीते थे। तब जिसके कारण संसारके लोगोंने हमारी हँसी उड़ायी थी तथा हमने भी सब अभिमान छोड़ दिया था, (आज) वही उत्तम सम्पत्ति हमसे बिछुड़ रही है, कर्म (प्रारब्ध)-का भोग कठिन है।

राग कल्यान

विषय (हिन्दी)

(२४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्याम चलन चहत कह्यौ सखी एक आई।
बल-मोहन बैठे रथ, सुफलक-सुत चढ़न चहत, यह सुनि कैं भई
चकित, बिरह-दव लगाई॥
धुकि-धुकि सब धरनि परीं, ज्वाला-झर लता गिरीं, मनौ तुरत
जलद बरषि सुरति नीर परसीं।
आईं सब नंद-द्वार, बैठे रथ दोउ कुमार, जसुमति लोटति भुव
पै, निठुर रूप दरसीं॥
कौन पिता, कौन मात, आपु ब्रह्म जगत धात, राख्यौ नहिं कछू
नात, नैकु चित्त माहीं।
आतुर अक्रूर चढ़े, रसनाँ हरि नाम रढ़े, सूरज प्रभु कोमल तन,
देखि चैन नाहीं॥

मूल

स्याम चलन चहत कह्यौ सखी एक आई।
बल-मोहन बैठे रथ, सुफलक-सुत चढ़न चहत, यह सुनि कैं भई
चकित, बिरह-दव लगाई॥
धुकि-धुकि सब धरनि परीं, ज्वाला-झर लता गिरीं, मनौ तुरत
जलद बरषि सुरति नीर परसीं।
आईं सब नंद-द्वार, बैठे रथ दोउ कुमार, जसुमति लोटति भुव
पै, निठुर रूप दरसीं॥
कौन पिता, कौन मात, आपु ब्रह्म जगत धात, राख्यौ नहिं कछू
नात, नैकु चित्त माहीं।
आतुर अक्रूर चढ़े, रसनाँ हरि नाम रढ़े, सूरज प्रभु कोमल तन,
देखि चैन नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दर (आज मथुरा) जाना चाहते हैं, (यह अभी) एक सखीने आकर कहा है (और कहा है—) मोहन और बलराम (जानेके लिये) रथपर बैठ गये हैं तथा अक्रूर (उसपर) चढ़ना चाहते हैं। यह सुनकर (वह गोपी) विरहवश (इस प्रकार) स्तम्भित रह गयी (मानो किसीने उसे) आग लगा दी हो। (और जो वहाँ थीं, वे इस प्रकार) चक्कर खा-खाकर धरती (पृथ्वी)-पर गिर पड़ीं, मानो आगकी लपटसे (झुलसकर) लताएँ गिर पड़ी हों। फिर क्या था, शीघ्र ही मेघने बरसकर सुरति (ध्यान)-के जलसे उनका स्पर्श कराया। (अब वे सब-की-सब उठकर) श्रीनन्दजीके द्वारपर आयीं और उन्होंने देखा दोनों कुमार रथपर बैठे हैं और यशोदाजी पृथ्वीपर लोट रही हैं। इस प्रकार श्यामसुन्दरका निष्ठुर रूप उन्होंने देखा। (वे देखकर परस्पर कहने लगीं—अरे! इनके) कौन पिता और कौन माता हैं, सम्पूर्ण सृष्टिके रचनेवाले ब्रह्मा तो ये ही हैं (इसीलिये इन्होंने) किसीके साथ किसी सम्बन्धकी स्मृति नहीं रखी, (इतनेमें ही) अक्रूर भी वाणीसे श्रीभगवन्नाम लेते हुए रथपर शीघ्रतासे चढ़ बैठे। प्रभुके कोमल शरीरको देखकर (वे गोपियाँ) बेचैन हो रही हैं।

राग सारंग

विषय (हिन्दी)

(२५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु परबै उपराग आज हरि, तुम्ह है चलन कह्यौ।
को जानै उहिं राहु रमापति! कत ह्वै सोध लह्यौ॥
वह तकि बीच नीच नैननि मिलि, अंजन रूप रह्यौ।
बिरह-संधि बल पाइ मनौ हठि, है तिय-बदन गह्यौ॥
दुसह दसन मनु धरत स्रमित अति, परस परत न सह्यौ।
देखौ देव! अमृत अंतर तैं, ऊपर जात बह्यौ॥
अब यह ससि ऐसौ लागत, ज्यौं बिनु माखनहिं मह्यौ।
सूर सकल रसनिधि दरसन बिन, मुख-छबि अधिक दह्यौ॥

मूल

बिनु परबै उपराग आज हरि, तुम्ह है चलन कह्यौ।
को जानै उहिं राहु रमापति! कत ह्वै सोध लह्यौ॥
वह तकि बीच नीच नैननि मिलि, अंजन रूप रह्यौ।
बिरह-संधि बल पाइ मनौ हठि, है तिय-बदन गह्यौ॥
दुसह दसन मनु धरत स्रमित अति, परस परत न सह्यौ।
देखौ देव! अमृत अंतर तैं, ऊपर जात बह्यौ॥
अब यह ससि ऐसौ लागत, ज्यौं बिनु माखनहिं मह्यौ।
सूर सकल रसनिधि दरसन बिन, मुख-छबि अधिक दह्यौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) श्यामसुन्दर! तुमने जो जानेकी बात कही सो यह (तो) बिना पर्व (पूर्णिमा)-के ही (आज) ग्रहण लग गया। हे रमाकान्त! पता नहीं, वह राहु कहाँसे (इस चन्द्रमाका) पता पा गया। (जान पड़ता है) वह नीच (राहु अपना अवसर) देखता हुआ आँखोंके बीच अंजनके साथ मिलकर रह रहा था, सो (उसने) वियोगरूपी (पूर्णिमा और प्रतिपदाकी) संधिका बल पाकर मानो हठपूर्वक गोपियोंके मुखचन्द्रको ग्रस लिया। (और वह) अत्यन्त थका होनेपर भी अपने असहनीय दाँत (हमारे मुखोंपर) रख रहा है, जिसके कारण उसका स्पर्श सहा नहीं जाता। इसीसे, हे देव! देखो, (मुखचन्द्रके) भीतरसे स्नेहामृत (अश्रुरूपमें) ऊपर बहा जा रहा है। अब यह चन्द्रमा ऐसा निस्तेज, फीका लगता है जैसे बिना मक्खनका मट्ठा हो। समस्त रसोंके निधान आपके दर्शनके बिना (इन गोपियोंके) मुखकी शोभाने इन्हें अधिक जलाया (दुःखी किया) है।

राग धनाश्री

विषय (हिन्दी)

(२६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि की प्रीति उर माहिं करकै।
आइ अक्रूर चले लै स्यामहि, हित नाहीं कोउ हरकै॥
कंचन कौ रथ आगैं कीन्हौ, हरहि चढ़ाए बर कै।
सूरदास-प्रभु सुख के दाता, गोकुल चले उजरि कै॥

मूल

हरि की प्रीति उर माहिं करकै।
आइ अक्रूर चले लै स्यामहि, हित नाहीं कोउ हरकै॥
कंचन कौ रथ आगैं कीन्हौ, हरहि चढ़ाए बर कै।
सूरदास-प्रभु सुख के दाता, गोकुल चले उजरि कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामकी प्रीति हृदयमें चुभ रही है। अक्रूर आकर श्यामको ले जा रहे हैं; किंतु ऐसा कोई हमारा हितैषी नहीं है, जो उन्हें (जानेसे) रोके। इस अक्रूरने सोनेका रथ आगे लाकर खड़ा कर दिया और बलपूर्वक श्यामको उसपर चढ़ा लिया। सुखके दाता हमारे स्वामी (इस प्रकार) गोकुलको उजाड़कर चले जा रहे हैं।

राग सारंग

विषय (हिन्दी)

(२७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब ब्रज की सोभा स्याम।
हरि के चलत भईं हम ऐसी, मनैं कुसुम निरमायल दाम॥
देखियत हौ तुम क्रूर बिषम से, सुन्यौ सूर अक्रूरहि नाम।
बिचरत हौ न आन गृह-गृह क्यौं, सिसु लाइक नृप कौ यह काम॥

मूल

सब ब्रज की सोभा स्याम।
हरि के चलत भईं हम ऐसी, मनैं कुसुम निरमायल दाम॥
देखियत हौ तुम क्रूर बिषम से, सुन्यौ सूर अक्रूरहि नाम।
बिचरत हौ न आन गृह-गृह क्यौं, सिसु लाइक नृप कौ यह काम॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—सखी!) श्यामसुन्दर पूरे व्रजकी शोभा हैं। मोहनके जाते ही हम ऐसी हो गयीं, जैसे निर्माल्य (देवतापरसे उतारकर फेंकी गयी) पुष्पोंकी मालामें लगा धागा। (अरे अक्रूर!) तुम्हारा नाम तो अक्रूर सुना था, किंतु तुम तो अत्यन्त क्रूर एवं भयंकर-से दिखायी देते हो। दूसरोंके घरोंमें क्यों नहीं जाते? राजाको इन बालकोंके योग्य ऐसा कौन-सा काम है (जिसके लिये उसने श्याम-बलरामको मथुरा बुला भेजा है।)?