०५ यशोदा-वचन श्रीकृष्णके प्रति

विषय (हिन्दी)

(१७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

(गुपाल राई) किहिं अवलंबन रहिहैं प्रान।
निठुर बचन कठोर कुलिसहुँ तैं, कहत मधुपुरी जान॥
क्रूर नाम, गति क्रूर, क्रूर मति, काहें गोकुल आयौ।
कुटिल कंस नृप बैर जानि कैं, हरि कौं लैन पठायौ॥
जिहिं मुख तात कहत ब्रजपति सौं, मोहि कहत है माइ।
तिहिं मुख चलन सुनत जीवति हौं, बिधि सौं कहा बसाइ॥
को कर-कमल मथानी धरिहै, को माखन अरि खैहै।
बरषत मेघ बहुरि ब्रज ऊपर, को गिरिबर कर लैहै॥
हौं बलि-बलि इन्ह चरन-कमल की, ह्याईं रहौ कन्हाई।
सूरदास अवलोकि जसोदा, धरनि परी मुरझाई॥

मूल

(गुपाल राई) किहिं अवलंबन रहिहैं प्रान।
निठुर बचन कठोर कुलिसहुँ तैं, कहत मधुपुरी जान॥
क्रूर नाम, गति क्रूर, क्रूर मति, काहें गोकुल आयौ।
कुटिल कंस नृप बैर जानि कैं, हरि कौं लैन पठायौ॥
जिहिं मुख तात कहत ब्रजपति सौं, मोहि कहत है माइ।
तिहिं मुख चलन सुनत जीवति हौं, बिधि सौं कहा बसाइ॥
को कर-कमल मथानी धरिहै, को माखन अरि खैहै।
बरषत मेघ बहुरि ब्रज ऊपर, को गिरिबर कर लैहै॥
हौं बलि-बलि इन्ह चरन-कमल की, ह्याईं रहौ कन्हाई।
सूरदास अवलोकि जसोदा, धरनि परी मुरझाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(यशोदाजी कहती हैं—) ‘मेरे राजा गोपाल! मेरे प्राण (तुम्हारे बिना) किसके सहारे रहेंगे, वज्रकी अपेक्षा भी निर्मम एवं कठोर मथुरा जानेकी बात निष्ठुर बनकर (क्यों) कहते हो। इसका तो नाम (अक्रूर नहीं) क्रूर है, इसकी गति क्रूर (कठोर) है और बुद्धि भी क्रूर है, यह किसलिये गोकुल आया? (अवश्य ही) कुटिल राजा कंसने (हमसे) वैर मानकर श्यामसुन्दरको लेनेके लिये (इसे) भेजा है। जिस मुखसे व्रजराज (नन्दराय)-को (श्यामसुन्दर) पिता और मुझे मैया कहते हैं, (इनके) उसी मुखसे (मथुरा) जानेकी बात सुनकर भी मैं (आज) जीवित हूँ! (क्या किया जाय) विधातासे क्या वश चल सकता है। अब कौन अपने कमल-समान हाथोंसे मथानी (दही बिलोनेका भाजन) पकड़ेगा, कौन हठ करके मक्खन खायेगा और (फिर) जब मेघ व्रजके ऊपर प्रलयवर्षा करने लगेंगे, तब कौन गिरिराज (गोवर्धन)-को हाथपर उठायेगा? कन्हैया! मैं तुम्हारे इन चरण-कमलोंपर बार-बार बलिहारी जाती हूँ, तुम यहीं रहो।’ सूरदासजी कहते हैं—(यह कहती हुई) यशोदाजी (मोहनको) देखती हुई पृथ्वीपर मूर्छित होकर गिर पड़ीं।

विषय (हिन्दी)

(१८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहन! इतौ मोह चित धरिऐ।
जननी दुखित जानि कैं, कबहूँ मथुरा गवन न करिऐ॥
यह अक्रूर क्रूर कृत रचि कैं, तुम्हहि लैन है आयौ।
तिरछे भए करम कृत पहिले, बिधि यह ठाट बनायौ॥
बार-बार जननी कहि मोसौं, माखन माँगत जौन।
सूर तिन्है लैबे कौं आए, करिहैं सूनौ भौन॥

मूल

मोहन! इतौ मोह चित धरिऐ।
जननी दुखित जानि कैं, कबहूँ मथुरा गवन न करिऐ॥
यह अक्रूर क्रूर कृत रचि कैं, तुम्हहि लैन है आयौ।
तिरछे भए करम कृत पहिले, बिधि यह ठाट बनायौ॥
बार-बार जननी कहि मोसौं, माखन माँगत जौन।
सूर तिन्है लैबे कौं आए, करिहैं सूनौ भौन॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कहती हैं—) मोहन! चित्तमें इतना मोह (स्नेह) तो रखो कि (मुझ) माताको दुःखित समझकर कभी मथुरा न जाना। यह अक्रूर क्रूर (निष्ठुर) योजना बनाकर तुम्हें लेने आया है! (आज) विधाताने यह विधान (कैसा) बना दिया कि जो (मेरे) पूर्वकृत कर्म अनुकूल थे, वही टेढ़े हो गये। सूरदासजी! जो बार-बार मुझसे मैया-मैया कहकर मक्खन माँगता था, उसीको ये अक्रूर लेने आये हैं, मेरे घरको ये सूना बना देंगे।

राग बिहागरौ

विषय (हिन्दी)

(१९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जसुमति अतिहीं भई बिहाल।
सुफलक-सुत यह तुमहि बूझियत, हरत हमारे बाल!
ए दोउ भैया जीवन हमरे, कहति रोहिनी रोइ।
धरनी गिरति, उठति अति ब्याकुल, कहि राखत नहिं कोइ॥
निठुर भए जब तैं यह आयौ, घरहू आवत नाहिं।
सूर कहा नृप पास तुम्हारौ, हम तुम्ह बिनु मरि जाहिं॥

मूल

जसुमति अतिहीं भई बिहाल।
सुफलक-सुत यह तुमहि बूझियत, हरत हमारे बाल!
ए दोउ भैया जीवन हमरे, कहति रोहिनी रोइ।
धरनी गिरति, उठति अति ब्याकुल, कहि राखत नहिं कोइ॥
निठुर भए जब तैं यह आयौ, घरहू आवत नाहिं।
सूर कहा नृप पास तुम्हारौ, हम तुम्ह बिनु मरि जाहिं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूरदासजी कहते हैं—यशोदाजी (श्यामसुन्दरके जानेकी बात सुनकर) अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और ‘अक्रूरजी! आपके लिये (यह क्या) उचित है कि जो आप हमारे बालकोंको हरण कर (ले जा) रहे हैं?’ ‘ये दोनों भाई (तो) हमारे जीवन हैं।’ इत्यादि कहकर रोहिणी माता भी रोने लगीं। वे पृथ्वीपर गिर पड़ती हैं, फिर अत्यन्त व्याकुल होकर उठती हैं और कहती हैं—‘कोई (श्यामसुन्दरको) रोकता नहीं। (हाय!) जबसे यह (अक्रूर) आया है, तबसे वे भी निष्ठुर हो गये हैं। (दोनों भाई) घर भी नहीं आते, अरे! राजाके पास तुम्हारा क्या काम? हम तुम्हारे बिना मर जायँगी।’

राग सोरठ

विषय (हिन्दी)

(२०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

यह सुनि गिरी धरनि झुकि माता।
कहा अक्रूर ठगौरी लाई, लिऐं जात दोउ भ्राता॥
बिरध समयकी हरत लकुटिया, पाप-पुन्न-डर नाहीं।
कछू नफा है तुम कौं यामैं, सोचौ धौं मन माहीं॥
नाम सुनत अक्रूर तुम्हारौ, क्रूर भए हौ आइ।
सूर नंद-घरनी अति ब्याकुल, ऐसैंहिं रैनि बिहाइ॥

मूल

यह सुनि गिरी धरनि झुकि माता।
कहा अक्रूर ठगौरी लाई, लिऐं जात दोउ भ्राता॥
बिरध समयकी हरत लकुटिया, पाप-पुन्न-डर नाहीं।
कछू नफा है तुम कौं यामैं, सोचौ धौं मन माहीं॥
नाम सुनत अक्रूर तुम्हारौ, क्रूर भए हौ आइ।
सूर नंद-घरनी अति ब्याकुल, ऐसैंहिं रैनि बिहाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूरदासजी कहते हैं—यह (श्यामसुन्दरके जानेकी बात) सुनकर माता लड़खड़ाकर पृथ्वीपर गिर पड़ी (और कहने लगी—) ‘पता नहीं (इन) अक्रूरजीने क्या जादू कर दिया जो दोनों भाइयोंको (वशमें करके) लिये जाते हैं। (हमारी) वृद्धावस्थाकी लठिया (सहारा) छीननेमें (इन्हें) पाप-पुण्यका भी भय नहीं है। अरे! अपने मनमें (कुछ तो) सोचो कि इसमें तुमको कुछ लाभ है? तुम्हारा नाम हम अक्रूर सुनती हैं, पर यहाँ आकर (तो तुम) क्रूर हो गये हो।’ नन्दरानीने (ऐसे ही) अत्यन्त व्याकुल हो (विलाप करते-करते) वह रात्रि बिता दी।