राग बिहागरौ
विषय (हिन्दी)
(३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलन, चलन स्याम कहत, लैन कोउ आयौ।
नंद-भवन भनक सुनी, कंस कहि पठायौ॥
ब्रज की नारि, गृह बिसारि, ब्याकुल उठि धाईं।
समाचार बूझन कौं, आतुर ह्वै आईं॥
प्रीति जानि, हेत मानि, बिलख बदन ठाढ़ीं।
मानौ वै अति बिचित्र, चित्र लिखीं काढ़ीं॥
ऐसी गति ठौर-ठौर, कहत न बनि आवै।
सूर स्याम बिछुरैं, दुख-बिरह काहि भावै॥
मूल
चलन, चलन स्याम कहत, लैन कोउ आयौ।
नंद-भवन भनक सुनी, कंस कहि पठायौ॥
ब्रज की नारि, गृह बिसारि, ब्याकुल उठि धाईं।
समाचार बूझन कौं, आतुर ह्वै आईं॥
प्रीति जानि, हेत मानि, बिलख बदन ठाढ़ीं।
मानौ वै अति बिचित्र, चित्र लिखीं काढ़ीं॥
ऐसी गति ठौर-ठौर, कहत न बनि आवै।
सूर स्याम बिछुरैं, दुख-बिरह काहि भावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कोई गोपी कह रही है—‘सखी!) श्यामसुन्दर बार-बार जानेकी बात कह रहे हैं, उन्हें लिवा ले जाने कोई (मथुरासे) आया है। नन्द-भवनमें मैंने यह चर्चा सुनी है कि कंसने (किसीको मोहनको ले आनेकी) आज्ञा देकर भेजा है।’ (यह सुनते ही) व्रजकी स्त्रियाँ घरोंको भूलकर व्याकुल होती हुई उठकर दौड़ पड़ीं और (उनके जानेके) समाचारको पूछनेके लिये बड़ी उतावली होकर आयीं। (मोहनका) प्रेम समझकर, उस प्रेमका सम्मान करके रोते हुए (म्लान) मुखोंसे इस प्रकार खड़ी रह गयीं मानो वे अत्यन्त विचित्र चित्रमें चित्रित की गयी हों। यही दशा (व्रजमें) स्थान-स्थानपर हो रही है, जिसका वर्णन करते नहीं बनता। सूरदासजी कहते हैं—श्यामसुन्दरके पृथक् होनेपर वियोगका दुःख किसे प्रिय हो सकता है।
राग कान्हरौ
विषय (हिन्दी)
(४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलत जानि चितवतिं ब्रज-जुबतीं, मानौ लिखीं चितेरें।
जहाँ सु तहाँ एकटक रहि गईं, फिरत न लोचन फेरें॥
बिसरि गई गति-भाँति देह की, सुनति न स्रवननि टेरें।
मिलि जु गईं मानौ पै-पानी, निबरतिं नाहिं निबेरें॥
लागीं संग मतंग मत्त ज्यौं, घिरति न कैसेहुँ घेरें।
सूर प्रेम-आसा-अंकुस जिय, वे नहिं इत-उत हेरैं॥
मूल
चलत जानि चितवतिं ब्रज-जुबतीं, मानौ लिखीं चितेरें।
जहाँ सु तहाँ एकटक रहि गईं, फिरत न लोचन फेरें॥
बिसरि गई गति-भाँति देह की, सुनति न स्रवननि टेरें।
मिलि जु गईं मानौ पै-पानी, निबरतिं नाहिं निबेरें॥
लागीं संग मतंग मत्त ज्यौं, घिरति न कैसेहुँ घेरें।
सूर प्रेम-आसा-अंकुस जिय, वे नहिं इत-उत हेरैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्यामसुन्दरको मथुरा) जाते जानकर व्रजकी स्त्रियाँ ऐसी (निस्पन्द होकर) देख रही हैं, मानो चित्रकारद्वारा वे चित्रित की गयी हैं। जो जहाँ थी, वहीं एकटक देखती स्थिर रह गयी और उनके नेत्र हटानेसे भी नहीं हटते। उन्हें अपने शरीरकी गतिविधि भूल गयी और पुकारनेपर भी वे कानोंसे सुन नहीं रही थीं मानो (श्यामके साथ) दूधमें पानीके समान मिल गयी हों, जो पृथक् करनेपर पृथक् नहीं हो सकता। जैसे मतवाले गजराजके समान (उन्मत्त भावसे) साथ लगी हों, (वे अब) किसी प्रकार रोकनेसे रुकती नहीं हैं। सूरदासजी कहते हैं कि जिनके चित्तपर प्रेमकी आशाका अंकुश (नियन्त्रण) है, वे (प्रेमास्पदको छोड़कर) इधर-उधर नहीं देखते।
विषय (हिन्दी)
(५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब देखि लै री, स्याम कौ मिलनौ बड़ी दूरि।
मधुबन चलन कहत हैं सजनी, इन नैननि की मूरि॥
ठाढ़ी चितवैं छाहँ कदम की, उड़त न रथ की धूरि।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, बिरह रह्यौ मन पूरि॥
मूल
अब देखि लै री, स्याम कौ मिलनौ बड़ी दूरि।
मधुबन चलन कहत हैं सजनी, इन नैननि की मूरि॥
ठाढ़ी चितवैं छाहँ कदम की, उड़त न रथ की धूरि।
सूरदास-प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, बिरह रह्यौ मन पूरि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) ‘अरी सखी! अब (इन्हें) देख ले, श्यामसुन्दरका मिलना बड़ा दूर (बहुत कठिन) हुआ जाता है। सखी! अब इन नेत्रोंकी संजीवनी जड़ी श्रीकृष्ण मथुरा जानेको कहते हैं।’ वे सब कदम्बकी छायामें खड़ी देख रही हैं कि (अब तो) रथकी धूलि उड़ती भी नहीं दीखती। स्वामी! तुम्हारे दर्शनके बिना अब हमारा मन वियोग-दुःखसे पूर्ण हो रहा है।
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सब मुरझानीं री, चलिबे की सुनत भनक।
गोपी-ग्वाल नैन जल ढारत, गोकुल ह्वै रह्यौ मूँद चनक॥
बसन मलीन, छीन देखियत तन, एक रहति जो बनी बनक।
जाके हैं पिय कमल-नैन-से, बिछुरे कैसैं रहत दिनक॥
यह अक्रूर कहाँ तैं आयौ, दाहन लाग्यौ देह कनक।
सूरदास-स्वामी के बिछुरत, घट नहिं रहिहैं प्रान तनक॥
मूल
सब मुरझानीं री, चलिबे की सुनत भनक।
गोपी-ग्वाल नैन जल ढारत, गोकुल ह्वै रह्यौ मूँद चनक॥
बसन मलीन, छीन देखियत तन, एक रहति जो बनी बनक।
जाके हैं पिय कमल-नैन-से, बिछुरे कैसैं रहत दिनक॥
यह अक्रूर कहाँ तैं आयौ, दाहन लाग्यौ देह कनक।
सूरदास-स्वामी के बिछुरत, घट नहिं रहिहैं प्रान तनक॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मोहनके मथुरा) चलनेकी चर्चा सुनते ही सब (गोपियाँ) म्लान हो (मुरझा) गयीं। गोपी और गोप—सभी नेत्रोंसे अश्रु ढुलका रहे हैं तथा गोकुल भाड़में पड़े चनेके समान हो रहा है। जो (गोपियाँ) पहले सजी-धजी रहती थीं, (आज) उनके वस्त्र मैले हैं और शरीर दुर्बल दिखायी पड़ते हैं, कमल-से लोचनवाले श्यामसुन्दर जिनके प्रियतम हैं, उनसे वियोग होनेपर कुछ दिन भी कैसे रहा जायगा। सूरदासजी कहते हैं—‘यह अक्रूर (पता नहीं) कहाँसे आ गया, जो उनकी स्वर्णके समान देहको जलाने लगा। स्वामीका वियोग होनेपर (उनके) शरीरमें प्राण थोड़ी देर भी नहीं रहेंगे।’
राग रामकली
विषय (हिन्दी)
(७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनल तैं बिरह-अगिनि अति ताती।
माधौ चलन कहत मधुबन कौं, सुनें तपति अति छाती॥
न्याइहिं नागरि नारि बिरह-बस, जरतिं दिया ज्यौं बाती।
जे जरि मरीं प्रगट पावक परि, ते तिय अधिक सुहाती॥
ढारतिं नीर नैन भरि-भरि सब, ब्याकुलता मदमाती।
सूर बिथा सोई पै जानै, स्याम-सुभग-रँग-राती॥
मूल
अनल तैं बिरह-अगिनि अति ताती।
माधौ चलन कहत मधुबन कौं, सुनें तपति अति छाती॥
न्याइहिं नागरि नारि बिरह-बस, जरतिं दिया ज्यौं बाती।
जे जरि मरीं प्रगट पावक परि, ते तिय अधिक सुहाती॥
ढारतिं नीर नैन भरि-भरि सब, ब्याकुलता मदमाती।
सूर बिथा सोई पै जानै, स्याम-सुभग-रँग-राती॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक गोपी कह रही है—‘सखी!) वियोगकी अग्नि प्रत्यक्ष अग्निसे भी अधिक उष्ण (गरम) है। श्यामसुन्दर मथुरा जानेको कहते हैं, जिसे सुनकर हृदय अत्यन्त संतप्त होता है।’ व्रजकी नागरी स्त्रियाँ वियोगके वश (ऐसे) जल रही हैं जैसे दीपकमें बत्ती जलती हो—यह उचित ही है। जो (सती) स्त्रियाँ (पतिके साथ) प्रत्यक्ष अग्निमें पड़कर जल मरती हैं, वे अधिक सुखी हैं (इस नित्य-वियोगमें जलनेसे वे बहुत अच्छी रहीं)। वे सब प्रेममें उन्मत्त हुई व्याकुल होकर बार-बार नेत्रोंमें अश्रु भर-भरकर ढुलका रही हैं। सूरदासजी कहते हैं—जो श्यामसुन्दरके प्रेममें रँगी हैं, उनकी पीड़ा वे ही समझ सकती हैं।
राग आसावरी
विषय (हिन्दी)
(८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्याम गऐं सखि प्रान रहैंगे?
अरस-परस ज्यौं बातैं कहियत, तैसैं बहुरि कहैंगे?
इंदु-बदन खग नैन हमारे, जानति और चहैंगे?
बासर-निसि कहुँ होत न न्यारे, बिछुरनि हृदय सहैंगे?
एक कहौं तुम आगें बानी, स्याम न जाहिं, रहैंगे।
सूरदास-प्रभु जसुमति कौं तजि, मथुरा कहा लहैंगे॥
मूल
स्याम गऐं सखि प्रान रहैंगे?
अरस-परस ज्यौं बातैं कहियत, तैसैं बहुरि कहैंगे?
इंदु-बदन खग नैन हमारे, जानति और चहैंगे?
बासर-निसि कहुँ होत न न्यारे, बिछुरनि हृदय सहैंगे?
एक कहौं तुम आगें बानी, स्याम न जाहिं, रहैंगे।
सूरदास-प्रभु जसुमति कौं तजि, मथुरा कहा लहैंगे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) सखी! श्यामसुन्दरके चले जानेपर (क्या) हमारे प्राण रह सकेंगे? (अर्थात् नहीं रहेंगे।) जैसे इस समय हम परस्पर बातें कर रही हैं वैसे (ही) फिर (बातें) कर सकेंगी? उस मुखको चन्द्र जाननेवाले हमारे नेत्र-चकोर क्या दूसरे किसी और को (देखना) चाहेंगे? जो दिन-रात कहीं (मोहनसे) पृथक् नहीं होते, (क्या) उनका वियोग अब हमारे हृदय सह सकेंगे? तुम्हारे आगे, बस, एक बात कहती हूँ कि श्यामसुन्दर नहीं जायँगे, यहीं रहेंगे। हमारे स्वामी (यहाँ) यशोदा मैयाको छोड़कर मथुरा जाकर क्या पायेंगे?
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि मोसौं गौन की कथा कही।
मन गह्वर मोहि उतर न आयौ, हौं सुनि सोचि रही॥
सुनि सखि! सत्य भाव की बातैं, बिरह-बेलि उलही।
करवत चिह्न कहे हरि हम सौं, ते अब होत सही॥
आजु सखी सपने मैं देख्यौ, सागर पालि ढही।
सूरदास-प्रभु तुम्हरौ गवन सुनि, जल ज्यौं जात बही॥
मूल
हरि मोसौं गौन की कथा कही।
मन गह्वर मोहि उतर न आयौ, हौं सुनि सोचि रही॥
सुनि सखि! सत्य भाव की बातैं, बिरह-बेलि उलही।
करवत चिह्न कहे हरि हम सौं, ते अब होत सही॥
आजु सखी सपने मैं देख्यौ, सागर पालि ढही।
सूरदास-प्रभु तुम्हरौ गवन सुनि, जल ज्यौं जात बही॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें एक गोपी कह रही है—सखी!) श्यामने मुझसे (अपने) चले जानेकी बात कही, उसे सुनकर (मेरा) मन गम्भीर हो गया और मुझसे उत्तर देते नहीं बना, मैं चिन्तामें पड़ी रह गयी। सखी! सच्चे भावकी बातें सुन। वियोगरूपी लता अब उमड़कर बढ़ चली है। श्यामसुन्दरने हमसे जो (हाथमें) आरेके समान चिह्न (और उसके फल-वियोग)-की बात कही थी, वह अब सच होने जा रही है। सखी! आज मैंने स्वप्नमें देखा है कि समुद्रका कगार ढह (गिर) पड़ा है। मेरे स्वामी! आपके जानेकी बात सुनकर मैं जलके समान बही जा रही हूँ।
राग मारू
विषय (हिन्दी)
(१०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुत दुख पैयत है इहिं बात।
तुम्ह जु सुनत हौ माधौ, मधुबन सुफलक-सुत सँग जात॥
मनसिज-बिथा दहति दावानल, उपजी है या गात।
सूधैं कहौ तब कैसैं जीहैं, जौ चलिहौ उठि प्रात॥
जौ पै यहै कियौ चाहत हे, मीचु-बिरह-सर-घात।
सूर स्याम तौ तब कत राखीं, गिरि कर लै दिन सात॥
मूल
बहुत दुख पैयत है इहिं बात।
तुम्ह जु सुनत हौ माधौ, मधुबन सुफलक-सुत सँग जात॥
मनसिज-बिथा दहति दावानल, उपजी है या गात।
सूधैं कहौ तब कैसैं जीहैं, जौ चलिहौ उठि प्रात॥
जौ पै यहै कियौ चाहत हे, मीचु-बिरह-सर-घात।
सूर स्याम तौ तब कत राखीं, गिरि कर लै दिन सात॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही है—) माधव! तुम अक्रूरके साथ मथुरा जा रहे हो, यह बात सुनकर मैं बहुत व्यथित हूँ। काम (प्रेम)-की पीड़ारूपी दावाग्नि इस शरीरमें उत्पन्न हो गयी है और वह इसे जला रही है। सीधे बताओ कि तब हम कैसे जीवित रहेंगी, जब सबेरे ही उठकर तुम स्वयं चल दोगे? यदि यही करना चाहते थे—वियोगरूपी बाणके आघातसे ही हमें मारना चाहते थे तो श्यामसुन्दर! उस समय हाथपर सात दिनतक गिरिराज (गोवर्धन)-को उठाये रहकर हमें बचाया ही क्यों?
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(११)
विश्वास-प्रस्तुतिः
(मेरे) कमलनैन प्राननि तैं प्यारे।
इन्हैं कहा मधुपुरी पठाऊँ, राम कृष्न दोऊ जन बारे॥
जसुदा कहै सुनौ सुफलक-सुत, मैं इन बहुत दुखनि सौं पारे।
ए कहा जानैं राजसभा कौं, ए गुरुजन बिप्रहु न जुहारे॥
मथुरा असुर-समूह बसत है, कर-कृपान, जोधा हत्यारे।
सूरदास ए लरिका दोऊ, इन्ह कब देखे मल्ल-अखारे॥
मूल
(मेरे) कमलनैन प्राननि तैं प्यारे।
इन्हैं कहा मधुपुरी पठाऊँ, राम कृष्न दोऊ जन बारे॥
जसुदा कहै सुनौ सुफलक-सुत, मैं इन बहुत दुखनि सौं पारे।
ए कहा जानैं राजसभा कौं, ए गुरुजन बिप्रहु न जुहारे॥
मथुरा असुर-समूह बसत है, कर-कृपान, जोधा हत्यारे।
सूरदास ए लरिका दोऊ, इन्ह कब देखे मल्ल-अखारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कहती हैं—‘ये कमल-समान नेत्रवाले (दोनों) मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं, इन्हें (मैं) कैसे मथुरा भेजूँ। (ये) राम-कृष्ण दोनों ही तो बालक हैं। अक्रूरजी! सुनो, मैंने बहुत कष्ट उठाकर इनका पालन किया है। ये, भला, राजसभा (-के शिष्टाचार)-को क्या जानें, इन्होंने तो (अभी) गुरुजनों और ब्राह्मणोंको भी प्रणाम करना नहीं सीखा है। मथुरामें असुरोंके समूह रहते हैं, वे योधा हत्या करनेवाले हैं तथा हाथोंमें सदा तलवार लिये रहते हैं और ये दोनों लड़के हैं, इन्होंने अखाड़ेके पहलवानोंको भला कब देखा है।’
विषय (हिन्दी)
(१२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रजबासिनि के सरबस स्याम।
यह अक्रूर क्रूर भयौ हम कौं, जिय के जिय मोहन-बलराम॥
अपनौं लाग लेहु लेखौ करि, जो कछु राज-अंस कौ दाम।
और महर लै संग सिधारौ, नगर कहा लरिकन कौ काम॥
तुम्ह तौ साधु परम उपकारी, सुनियत बड़ौ तिहारौ नाम।
सूरदास-प्रभु पठै मधुपुरी, को जीवै छिन-बासर-जाम॥
मूल
ब्रजबासिनि के सरबस स्याम।
यह अक्रूर क्रूर भयौ हम कौं, जिय के जिय मोहन-बलराम॥
अपनौं लाग लेहु लेखौ करि, जो कछु राज-अंस कौ दाम।
और महर लै संग सिधारौ, नगर कहा लरिकन कौ काम॥
तुम्ह तौ साधु परम उपकारी, सुनियत बड़ौ तिहारौ नाम।
सूरदास-प्रभु पठै मधुपुरी, को जीवै छिन-बासर-जाम॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीयशोदाजी कह रही हैं—) श्यामसुन्दर (तो) व्रजवासियोंका सर्वस्व है। ये अक्रूर हमारे लिये क्रूर (कठोर) हो गये हैं। (अरे अक्रूरजी! ये) बलराम और घनश्याम हमारे प्राणोंके भी प्राण हैं। जो कुछ राजाके करका अवशिष्ट भाग हो, वह हिसाब करके ले लीजिये और व्रजराजको साथ लेकर पधारिये। भला, नगरमें लड़कोंका क्या काम। आप तो साधु पुरुष हैं, अत्यन्त परोपकारी हैं, आपका बहुत नाम (सुयश) सुना जाता है। सूरदासके स्वामीको मथुरा भेजकर एक दिन या एक प्रहरकी तो कौन कहे, क्षणभर भी कौन जीवित रह सकता है।
राग मलार
विषय (हिन्दी)
(१३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखी री, हौं गोपालहिं लागी।
कैसैं जिऐं बदन बिनु देखें, अनुदिन छिन अनुरागी॥
गोकुल कान्ह कमल-दल-लोचन, हरि सबहिनि के प्रान।
कौंन न्याव, तुम्ह कहत जो इन कौं मथुरा कौं लै जान॥
तुम्ह अक्रूर बड़े के ढोटा, अति कुलीन, मति-धीर।
बैठत सभा बड़े राजन की, जानत हौ पर-पीर॥
लीजै लाग इहाँ तैं अपनौ, जो कछु राज कौ अंस।
नगर बोलि ग्वालन के लरिका, कहा करैगौ कंस॥
मेरें बलरामै धन माई, माधौ ही सब अंग।
बहुरि सूर हौं कापै माँगौं, पठै पराए संग॥
मूल
सखी री, हौं गोपालहिं लागी।
कैसैं जिऐं बदन बिनु देखें, अनुदिन छिन अनुरागी॥
गोकुल कान्ह कमल-दल-लोचन, हरि सबहिनि के प्रान।
कौंन न्याव, तुम्ह कहत जो इन कौं मथुरा कौं लै जान॥
तुम्ह अक्रूर बड़े के ढोटा, अति कुलीन, मति-धीर।
बैठत सभा बड़े राजन की, जानत हौ पर-पीर॥
लीजै लाग इहाँ तैं अपनौ, जो कछु राज कौ अंस।
नगर बोलि ग्वालन के लरिका, कहा करैगौ कंस॥
मेरें बलरामै धन माई, माधौ ही सब अंग।
बहुरि सूर हौं कापै माँगौं, पठै पराए संग॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कह रही हैं—) ‘सखी! मेरा प्राण तो गोपालमें ही लगा है। जो प्रतिदिन, प्रतिक्षण (जिसके प्रति) आसक्त हैं, वे उसका मुख देखे बिना कैसे जीवित रह सकते हैं। यह कमलदलके समान नेत्रोंवाला श्यामसुन्दर गोकुलमें सबका प्राण है। फिर यह कहाँका न्याय है कि आप इनको मथुरा ले जानेकी बात कहते हैं। अक्रूरजी! आप बड़ेके पुत्र हैं, अत्यन्त उच्चकुलमें उत्पन्न हुए हैं, बुद्धिमान् एवं धैर्यवान् हैं; (यही नहीं) आप बड़े राजा (कंस)-की सभामें बैठते हैं (राजसभासद् हैं), अतः दूसरेकी पीड़ाको समझते हैं। जो कुछ राजाका (कर) लगता हो, वह अपना भाग यहाँसे ले लीजिये। भला, गोपोंके बालकोंको नगरमें बुलाकर राजा कंस क्या करेगा। सखी! बलराम ही मेरे धन हैं और माधव ही मेरा पूरा शरीर है। (इन्हें) दूसरेके साथ भेजकर फिर किससे (इन्हें) माँगूँगी?’
राग रामकली
विषय (हिन्दी)
(१४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरौ माई निधनी कौ धन माधौ।
बारंबार निरखि सुख मानति, तजति नहीं पल आधौ॥
छिन-छिन परसति अंकम लावति, प्रेम प्रकृत ह्वै बाँधौ।
निसिदिन, चंद-चकोरी अँखियनि, मिटै न दरसन-साधौ॥
करिहै कहा अक्रूर हमारौ, दैहैं प्रान अबाधौ।
सूर स्यामघन हौं नहिं पठवौं, अबै कंस किन्ह बाँधौ॥
मूल
मेरौ माई निधनी कौ धन माधौ।
बारंबार निरखि सुख मानति, तजति नहीं पल आधौ॥
छिन-छिन परसति अंकम लावति, प्रेम प्रकृत ह्वै बाँधौ।
निसिदिन, चंद-चकोरी अँखियनि, मिटै न दरसन-साधौ॥
करिहै कहा अक्रूर हमारौ, दैहैं प्रान अबाधौ।
सूर स्यामघन हौं नहिं पठवौं, अबै कंस किन्ह बाँधौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सूरदासजीके शब्दोंमें यशोदाजी कह रही हैं—) सखी! मेरे लिये माधव रंकके धनकी तरह प्रिय है। बार-बार उसका मुख देखकर सुखी होती हुई आधे पलको भी उसे छोड़ती नहीं हूँ। बार-बार उसे गोदमें लेकर हृदयसे लगाती हूँ; (क्योंकि) मेरा प्रेम वास्तविक रूपमें (उसमें) बँध गया है, रात-दिन आँखें (इस) चन्द्रमाको चकोरीके समान देखती रहती हैं; फिर भी देखनेकी लालसा मिटती नहीं। अक्रूर हमारा क्या कर लेगा? बिना किसी बाधाके हम प्राण दे देंगी; कंस भले मुझे इसी क्षण क्यों न बाँध ले, पर घनश्यामको मैं (मथुरा) नहीं भेजूँगी।
राग सोरठ
विषय (हिन्दी)
(१५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहिं कोहु स्यामहि राखै जाइ।
सुफलक-सुत बैरी भयौ मोकौं, कहति जसोदा माइ॥
मदनगुपाल बिना घर-आँगन, गोकुल काहि सुहाइ।
गोपी रहीं ठगी-सी ठाढ़ी, कहा ठगौरी लाइ॥
सुंदर स्याम-राम भरि लोचन, बिनु देखें दोउ भाइ।
सूर तिन्हैं लै चले मधुपुरी, हिरदै सूल बढ़ाइ॥
मूल
नहिं कोहु स्यामहि राखै जाइ।
सुफलक-सुत बैरी भयौ मोकौं, कहति जसोदा माइ॥
मदनगुपाल बिना घर-आँगन, गोकुल काहि सुहाइ।
गोपी रहीं ठगी-सी ठाढ़ी, कहा ठगौरी लाइ॥
सुंदर स्याम-राम भरि लोचन, बिनु देखें दोउ भाइ।
सूर तिन्हैं लै चले मधुपुरी, हिरदै सूल बढ़ाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा कह रही हैं—ऐसा कोई नहीं है, जो श्यामको जाकर रोक ले? (हाय!) श्वफल्कका पुत्र (अक्रूर) मेरे लिये शत्रु हो गया। मदनगोपालके बिना यह घर, यह आँगन और यह गोकुल किसे अच्छा लगेगा? गोपियाँ (भी) मन्त्र-मुग्ध-सी (चुपचाप) खड़ी रह गयीं, पता नहीं, इन्हें क्या जादू लगा दिया। श्यामसुन्दर और बलराम दोनों भाइयोंको हम नेत्रभर देख (ही) नहीं पाये थे कि हमारे हृदयमें वेदना बढ़ाकर उनको (अक्रूर) मथुरा ले चला है।
विषय (हिन्दी)
(१६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जसोदा बार-बार यौं भाखै।
है कोउ ब्रज मैं हितू हमारौ, चलत गुपालै राखै॥
कहा काज मेरे छगन-मगन कौं, नृप मधुपुरी बुलायौ।
सुफलक-सुत मेरे प्रान हरन कौं, काल-रूप ह्वै आयौ॥
बरु यह गोधन हरौ कंस सब, मोहि बंदि लै मेलै।
इतनौई सुख कमल-नैन मेरी अँखियनि आगैं खेलै॥
बासर बदन बिलोकत जीवौं, निसि निज अंकम लाऊँ।
तिहिं बिछुरत जौ जियौं करम-बस, तौ हँसि काहि बुलाऊँ॥
कमल-नैन-गुन टेरत-टेरत, अधर बदन कुम्हिलानी।
सूर कहाँ लगि प्रगट जनाऊँ, दुखित नंद की रानी॥
मूल
जसोदा बार-बार यौं भाखै।
है कोउ ब्रज मैं हितू हमारौ, चलत गुपालै राखै॥
कहा काज मेरे छगन-मगन कौं, नृप मधुपुरी बुलायौ।
सुफलक-सुत मेरे प्रान हरन कौं, काल-रूप ह्वै आयौ॥
बरु यह गोधन हरौ कंस सब, मोहि बंदि लै मेलै।
इतनौई सुख कमल-नैन मेरी अँखियनि आगैं खेलै॥
बासर बदन बिलोकत जीवौं, निसि निज अंकम लाऊँ।
तिहिं बिछुरत जौ जियौं करम-बस, तौ हँसि काहि बुलाऊँ॥
कमल-नैन-गुन टेरत-टेरत, अधर बदन कुम्हिलानी।
सूर कहाँ लगि प्रगट जनाऊँ, दुखित नंद की रानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशोदाजी बार-बार यों कहती हैं—‘व्रजमें ऐसा कोई हमारा हितैषी है, जो जाते हुए गोपालको रोक (रख) ले? राजा (कंस)-ने मेरे छोटे-से प्यारे बच्चेको न जाने किस कामसे मथुरा बुलाया है। यह अक्रूर (तो) मेरे प्राण लेनेके लिये कालरूप बनकर आया है। भले ही कंस यह सब (मेरा) गोधन हरण कर ले और मुझे भी (भले ही) पकड़कर कारागारमें डाल दे, किंतु मुझे इतना ही सुख दे दे कि कमललोचन (मोहन) मेरे नेत्रोंके सम्मुख (ही) खेलता रहे। दिनमें मैं उसका मुख देखते हुए जीती रहूँ और रातको उसे गोदमें चिपका लूँ; (क्योंकि) उसका वियोग होनेपर यदि प्रारब्धवश जीवित रही तो हँसकर किसे बुलाऊँगी?’ सूरदासजी कहते हैं कि इस प्रकार कमललोचन श्यामसुन्दरके गुण गाते-गाते (यशोदा मैयाके) ओठ और मुख सूख गये, (मैं) उन अत्यन्त दुःखित नन्दरानीकी दशाका प्रत्यक्ष वर्णन कहाँतक करूँ।