०३ विरह-पदावली

राग कान्हरौ

विषय (हिन्दी)

(१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुन्यौ ब्रज-लोग कहत यह बात।
चक्रित भए नारि-नर ठाढ़े, पाँच न आवै सात॥
चक्रित नंद, जसुमति भइ चक्रित, मन-हीं-मन अकुलात।
दै-दै सैन स्याम बलरामहि, सबै बुलावत जात॥
पारब्रह्म अबिगत अबिनासी, माया-रहित अतीत।
मनौं नाहिं पहिचानि कहूँ की, करत सबै मन भीत॥
बोलत नाहिं नैकु चितवत नहिं, सुफलक-सुत सौं पागे।
सूर हमैं हित करि नृप बोले, यहै कहत ता आगैं॥

मूल

सुन्यौ ब्रज-लोग कहत यह बात।
चक्रित भए नारि-नर ठाढ़े, पाँच न आवै सात॥
चक्रित नंद, जसुमति भइ चक्रित, मन-हीं-मन अकुलात।
दै-दै सैन स्याम बलरामहि, सबै बुलावत जात॥
पारब्रह्म अबिगत अबिनासी, माया-रहित अतीत।
मनौं नाहिं पहिचानि कहूँ की, करत सबै मन भीत॥
बोलत नाहिं नैकु चितवत नहिं, सुफलक-सुत सौं पागे।
सूर हमैं हित करि नृप बोले, यहै कहत ता आगैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूरदासजी कहते हैं—व्रजके लोगोंने (जब एक-दूसरेको) यह बात कहते हुए सुना (कि श्यामसुन्दर और बलराम मथुरा जा रहे हैं, तब सभी) स्त्री-पुरुष चकित होकर खड़े-के-खड़े रह गये और किसीसे पाँच-सात करते (उन्हें जानेसे रोकनेका कोई उपाय करते) न बना। श्रीनन्दजी और यशोदाजी चकित होकर मन-ही-मन अकुलाने (व्याकुल होने) लगे तथा (श्रीनन्दादिक) सब (व्रजवासी) श्रीश्यामसुन्दर और बलरामको संकेत कर-कर बुलाने लगे। किंतु (वे) परम ब्रह्म जो ठहरे, जो जाननेमें नहीं आता, जिसका कभी नाश नहीं होता और जो मायासे रहित एवं उदासीन है। वे ऐसे बन गये, मानो (कभी) किसीसे जान-पहचान ही न हो (अतः) सब डर मानने लगे। (श्याम-बलराम) न तो (किसीसे) बोलते हैं और न (किसीकी ओर) देखते ही हैं। (केवल) सुफलक-सुत (अक्रूर)-में ही लिप्त रहकर उनके आगे यही कहते हैं कि ‘हमको राजा (कंस)-ने प्रेमपूर्वक बुलाया है।’

राग बिहागरौ

विषय (हिन्दी)

(२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्याकुल भए ब्रज के लोग।
स्याम मन नहिं नैकु आनत, ब्रह्म पूरन जोग॥
कौन माता, पिता को है, कौन पति, को नारि।
हँसत दोउ अक्रूर के सँग, नवल नेह बिसारि॥
कोउ कहत यह कहा आयौ, क्रूर जाकौ नाम।
सूर-प्रभु लै प्रात जैहै, और सँग बलराम॥

मूल

ब्याकुल भए ब्रज के लोग।
स्याम मन नहिं नैकु आनत, ब्रह्म पूरन जोग॥
कौन माता, पिता को है, कौन पति, को नारि।
हँसत दोउ अक्रूर के सँग, नवल नेह बिसारि॥
कोउ कहत यह कहा आयौ, क्रूर जाकौ नाम।
सूर-प्रभु लै प्रात जैहै, और सँग बलराम॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्रजके लोग व्याकुल हो गये; (किंतु) श्यामसुन्दर, जो परिपूर्ण ब्रह्म एवं योगी हैं, (अपने मनमें) इनकी व्याकुलतापर तनिक भी विचार नहीं लाते—उनकी व्याकुलतापर ध्यान नहीं देते। भला इनकी कौन माता, कौन पिता, कौन स्वामी और कौन स्त्री है—ये दोनों भाई (व्रजके) नित्य नवीन प्रेमको भूलकर अक्रूरके साथ हँस रहे हैं। कोई कहता है—‘यह यहाँ क्यों आ गया—जिसका नाम (अक्रूर नहीं) क्रूर है? सबेरे यह सूरदासके स्वामी और साथ ही बलरामजीको ले जायगा।’