अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजीके पदोंका यह छठा संग्रह ‘विरह-पदावली’ के नामसे पाठकोंकी सेवामें प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें श्रीकृष्ण-विरहसम्बन्धी सवा तीन सौसे अधिक पदोंका चयन किया गया है। जिस समय कंसके भेजे हुए अक्रूर रथ लेकर बलराम-श्रीकृष्णको मथुरा ले जानेके लिये व्रजमें पहुँचते हैं, उसी समय व्रजवासियोंका उक्त दोनों कुमारोंके प्रति स्नेहसे छलछलाता हुआ चित्त भावी विरहकी आशंकासे उद्विग्न हो उठता है। विशेषतः वात्सल्यमूर्ति माँ यशोदाकी तथा प्रेमकी प्रतिमा श्रीगोपीजनोंकी उस समय क्या दशा होती है—इसका बड़ा ही मार्मिक चित्रण तद्भावभावित कविने बड़े ही हृदयस्पर्शी शब्दोंमें किया है। उनके सजीव वर्णनको पढ़कर ऐसा लगता है, मानो क्रान्तदर्शी कविने उन सबके हृदयमें प्रवेश करके उनके हृद्गत भावोंका शब्द-चित्र खींचा हो। श्रीकृष्ण-बलराम उन सबके जीवन-सर्वस्व थे। उनके लिये श्रीगोपीजनोंने अपना लोक-परलोक त्याग दिया था। वे रात-दिन सोते-जागते, घरका काम करते उन्हींकी मनोहारिणी छविका तथा उनकी मधुरातिमधुर लीलाओंका दर्शन एवं प्रत्यक्षवत् चिन्तन किया करती थीं। ऐसी दशामें श्रीकृष्णके मथुरा जानेकी बात सुनकर तथा उससे भी कहीं अधिक उनके चले जानेपर उन सबपर क्या बीतती है और वे किस प्रकार एक-दूसरीसे मिलकर अपनी व्यथा कह सुनाती हैं—इसीका करुण वर्णन कविने इस संग्रहके पदोंमें किया है, जिसे पढ़कर किसी भी सहृदय पाठकका चित्त उद्वेलित हुए बिना नहीं रह सकता। उन सबके हृदयमें श्रीकृष्णको अपने बीचमें न पाकर जो मर्मान्तक पीड़ा होती है, उसका अनुभव कोई श्रीकृष्ण-विरही ही कर सकता है। जो गोपियाँ पलकोंके गिरनेसे निमेषमात्रके लिये श्रीकृष्णका अपने नेत्रोंसे ओझल होना सहन नहीं कर पाती थीं और इसके लिये पलकोंकी रचना करनेवाले विधाताको कोसने लगती थीं, वे अपने प्राणप्रियतमके निरवधि कालके लिये व्रजसे चले जानेपर कितनी असह्य वेदनाका अनुभव करती थीं, इसका वर्णन करनेमें वाणी पंगु हो जाती है। भक्तकवि सूरदासजीने उस हृदयविदारिणी वेदनाका संकेतमात्र करके अपनी वाणीको अमर बना दिया है। विद्वान् अनुवादकने भी पदोंके गूढ़ भावोंकी सरल शब्दोंमें व्याख्या करके जनताका अमित उपकार किया है। साथ ही, व्रजसाहित्यके मर्मज्ञ पं० श्रीजवाहरलालजी चतुर्वेदीने पूर्ववर्ती संग्रहोंकी भाँति इस संग्रहका भी पाठ एवं अर्थको ठीक करनेमें जो अमूल्य सहायता प्रदान की है, उसके लिये हम उनके भी कृतज्ञ हैं, यद्यपि वर्तनी हमने वही रहने दी है जो पूर्ववर्ती संग्रहोंमें बरती गयी है।