०४ परिशिष्ट

पदोंमें आये हुए मुख्य कथा-प्रसंग

विषय (हिन्दी)

प्रह्लाद—

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यकशिपु नामक एक प्रतापी दैत्य था। घोर तप करके उसने ब्रह्माजीसे यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि ‘मैं न मनुष्यसे मरूँ न पशुसे; न दिनमें मरूँ न रातमें; न घरमें मरूँ न बाहर और अस्त्र-शस्त्रसे भी न मरूँ!’ यह वरदान पाकर उसने सभी देवताओंको जीत लिया। उसके अत्याचारसे तीनों लोक काँपने लगे। वह किसीको यज्ञ, जप, तप, भजन-पूजन नहीं करने देता था। उसके पुत्र प्रह्लाद बड़े भगवद्भक्त थे। इसलिये वह नाना प्रकारके कष्ट देकर प्रह्लादजीको मार डालनेका प्रयत्न करने लगा; परन्तु जब उसके सारे प्रयत्न निष्फल हो गये, तब प्रह्लादजीको खम्भेमें बाँधकर उन्हें मारनेके लिये तलवार उठाकर बोला—‘कहाँ हैं तेरे भगवान्! अब आकर वे तुझे बचावें तो देखूँ।’ प्रह्लादजीने कहा—‘भगवान् तो सर्वत्र हैं। वे मुझमें, आपमें, तलवारमें और इस खम्भेमें भी हैं।’ इतना सुनते ही हिरण्यकशिपुने खम्भेपर एक घूँसा मारा। उसी समय खम्भेको फाड़कर भयंकर शब्द करते हुए नृसिंहभगवान् प्रकट हो गये। उनका शरीर मनुष्यका और मुख सिंहका था। हिरण्यकशिपुको दरवाजेपर घसीटकर भगवान् ले गये और अपनी जाँघोंपर पछाड़कर नखसे उसका पेट फाड़ दिया। हिरण्यकशिपुको मारकर भगवान् ने दैत्योंका राजा प्रह्लादको बना दिया!

विषय (हिन्दी)

ध्रुव—

अनुवाद (हिन्दी)

राजा उत्तानपादकी दो रानियाँ थीं—सुरुचि और सुनीति। दोनों रानियोंके एक-एक पुत्र थे; किंतु राजा छोटी रानी सुरुचिको अधिक मानते थे। बड़ी रानी सुनीतिके पुत्र ध्रुव एक दिन पिताकी गोदमें जा बैठे। सुरुचिसे यह देखा नहीं गया। उसने ध्रुवको डाँटकर राजाकी गोदसे नीचे उतार दिया। रोते हुए ध्रुव अपनी माताके पास गये। माताने उन्हें कहा कि भगवान् के भजनसे ही उत्तम पद मिलता है। पाँच वर्षके बालक ध्रुव माताके उपदेशसे घर छोड़कर भजन करने निकल पड़े। मार्गमें उन्हें नारदजी मिले। नारदजीने मन्त्र दिया। मथुराके पास यमुना-किनारे ध्रुवने छः महीनेतक कठोर तपस्या की। इससे भगवान् ने उन्हें दर्शन दिया और अविचल पद पानेका वरदान दिया। घर लौटनेपर ध्रुवको राजाने युवराज बनाया। समयपर ध्रुव राजा हुए और दीर्घकालतक राज्य करके अन्तमें भगवान् के भेजे विमानमें बैठकर सशरीर ध्रुवलोकको चले गये।

विषय (हिन्दी)

गजेन्द्र—

अनुवाद (हिन्दी)

एक सरोवरमें एक बलवान् मतवाला हाथी हथिनियोंके साथ जलविहार कर रहा था। इतनेमें एक ग्राहने उसका पैर पकड़ लिया। हाथीने पैर छुड़ानेके लिये बहुत जोर लगाया, किंतु ग्राहसे अपनेको छुड़ा न सका। ग्राह उसे गहरे जलमें खींच ले चला। थककर और निराश होकर आर्तभावसे गजराजने भगवान् को पुकारा। उसकी पुकार सुनते ही भगवान् अपना वाहन गरुड़ भी छोड़कर वहाँ आ गये। चक्रसे ग्राहका सिर काटकर उन्होंने गजराजको छुड़ाया। भगवान् का दर्शन होनेसे गजराज भगवान् के धाम गया और भगवान् के द्वारा मारे जानेसे ग्राहको भी सद्‍गति प्राप्त हुई।

विषय (हिन्दी)

अम्बरीष—

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज अम्बरीष भगवान् के परमभक्त थे। भगवान् ने उनकी रक्षामेंअपना चक्र नियुक्त कर रखा था। महाराज अम्बरीष नियमसे एकादशी व्रत करते थे। एक बार द्वादशीको दुर्वासाजी उनके यहाँ आये। राजाने उनको भोजनका निमन्त्रण दिया। निमन्त्रण स्वीकार करके ऋषि स्नान-संध्याकरने चले गये। उन्हें लौटनेमें देर होने लगी। द्वादशीमें पारण करना आवश्यक था और द्वादशी थोड़ी ही थी; अतः ब्राह्मणोंकी आज्ञासे राजाने जल पीकर पारण कर लिया। लौटनेपर दुर्वासाजीको जब इस बातका पता लगा, तब अत्यन्त क्रोधित होकर उन्होंने राजाको शाप दिया और उनको मारनेके लिये कृत्या उत्पन्न की। भगवान् के चक्रने कृत्याको तो तुरंत भस्म कर दिया और दुर्वासाजीके पीछे पड़ा। दुर्वासाजी तीनों लोकोंमें भागते फिरे; किंतु किसीने जब उन्हें आश्रय नहीं दिया, तब वे भगवान् विष्णुके पास गये। भगवान् ने उनको अम्बरीषके पास ही भेज दिया। दुर्वासाजी लौटकर अम्बरीषके चरणोंपर गिर पड़े। अम्बरीषने स्तुति करके चक्रको शान्त किया। दुर्वासाजीने अम्बरीषको दस जन्म लेनेका शाप दिया था; किंतु भगवान् ने प्रकट होकर कहा—‘यह शाप मैं ग्रहण करता हूँ। अम्बरीषके बदले मैं दस बार शरीर धारण करूँगा।’

विषय (हिन्दी)

महर्षि भृगुद्वारा परीक्षा—

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार ऋषियोंमें यह विवाद छिड़ा कि ब्रह्मा, विष्णु और शंकरजीमें सबसे श्रेष्ठ कौन है? महर्षि भृगु इसका निर्णय करनेके लिये परीक्षा लेने गये। पहले वे ब्रह्मलोक गये और ब्रह्माजीको प्रणाम किये बिना ही खड़े हो गये। ब्रह्माजीको इससे बड़ा क्रोध आया, परंतु अपने क्रोधको उन्होंने दबा लिया। भृगुजी वहाँसे कैलास पहुँचे। वहाँ उन्हें देखकर शंकरजी उनसे मिलने दोनों हाथ बढ़ाकर उठे, किंतु भृगुने कहा—‘तुम अपवित्र रहते हो। मुझे छुओ मत।’ इस बातसे क्रोधित होकर शंकरजीने उन्हें मारनेको त्रिशूल उठाया; किंतु पार्वतीजीने चरणोंमें गिरकर शंकरजीको रोक लिया। भृगुजी वहाँसे क्षीरसागर गये। शेषशय्यापर सोये भगवान् विष्णुकी छातीमें पहुँचते ही उन्होंने एक लात जमा दी। भगवान् झटपट उठे और उनका चरण दबाते हुए बोले—‘मेरे कठोर वक्षपर लगनेसे आपके कोमल चरणको कष्ट हुआ होगा, मुझे क्षमा कीजिये। आजसे आपके इस चरणका चिह्न सदा मेरे वक्षपर रहेगा।’ भगवान् के वक्षःस्थलपर वही चिह्न भृगुलता कहा जाता है। महर्षि भृगुने लौटकर ऋषियोंको सब बातें बता दीं। भगवान् विष्णुमें इससे ऋषियोंकी श्रद्धा और दृढ़ हो गयी।

विषय (हिन्दी)

कपिल-देवहूति—

अनुवाद (हिन्दी)

वैवस्वत मनुकी पुत्री देवहूतिका विवाह प्रजापति कर्दमजीसे हुआ था। भगवान् कपिल देवहूतिजीके यहाँ पुत्ररूपसे अवतरित हुए। कर्दमजी जब घरका त्याग करके वनमें तपस्या करने चले गये, तब कपिलजीने माता देवहूतिको सांख्य-शास्त्रके तत्त्वज्ञान और भगवद्भक्तिका उपदेश किया। उस उपदेशको अपनाकर माता देवहूति जीवन्मुक्त हो गयीं।

विषय (हिन्दी)

शिव-मोह—

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्र-मन्थनके समय जब क्षीरसागरसे अमृत निकला, तब दैत्योंने उसे छीन लिया। देवताओंको निराश देखकर भगवान् विष्णुने मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंको मोहित करके उनसे अमृत-कलश ले लिया और देवताओंको अमृत पिलाया। देवताओंके अमृत पी लेनेपर भगवान् अन्तर्धान हो गये। जब शंकरजीको यह समाचार मिला, तब वे पार्वतीजी और गणोंके साथ वैकुण्ठ गये और उन्होंने भगवान् से उस मोहिनीरूपको दिखलानेकी प्रार्थना की। उनकी प्रार्थनासे भगवान् मोहिनीरूपमें प्रकट हो गये। शंकरजी उस रूपसे मोहित होकर मोहिनीके पीछे दौड़ते फिरे। अन्तमें जब आवेश समाप्त हो गया, तब उन्हें अपनी दशापर विस्मय हुआ। भगवान् फिर अपने चतुर्भुजरूपमें प्रकट हुए और उन्होंने शंकरजीको आश्वस्त किया।

विषय (हिन्दी)

देवर्षि नारदका गार्हस्थ्य—

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार देवर्षि नारदजीने भगवान् की माया देखनेकी इच्छा प्रकट की। भगवान् ने उन्हें एक सरोवरमें स्नान करनेको कहा। स्नान करके जलसे निकलनेपर नारदजी अपने-आपको भूल गये। वे अपनेको एक साधारण मनुष्य मानने लगे। उन्होंने विवाह किया। उनकी पत्नीसे उन्हें साठ पुत्र और बारह पुत्रियाँ हुईं। घरमें बहुत कष्ट उन्हें भोगने पड़े। उन कष्टोंसे ऊबकर वे वनमें आये और उसी सरोवरमें स्नान करने प्रविष्ट हुए। स्नान करके जलसे निकलनेपर उन्होंने देखा कि भगवान् किनारे खड़े मुसकरा रहे हैं। केवल उतना ही समय (कुछ क्षण) बीता है, जितना स्नान करनेमें लगा था। भगवान् की मायाका यह प्रभाव देखकर नारदजी भगवान् के चरणोंपर गिर पड़े।

विषय (हिन्दी)

अहल्या-उद्धार—

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि गौतमकी पत्नी अहल्यापर देवराज इन्द्र मोहित हो गये थे। एक दिन रात्रिमें जब ऋषि प्रातःकाल समझकर नदीपर स्नान करने गये, तब इन्द्र उनका ही रूप बनाकर ऋषिके आश्रमपर अहल्याके पास पहुँच गये। लेकिन मार्गमें ही गौतम ऋषिको पता लग गया कि रात्रि अधिक है, वे लौट पड़े। आश्रमपर पहुँचकर इन्द्रका छल उन्होंने जान लिया। इन्द्रको तो उन्होंने शाप दिया ही, अहल्याको भी पत्थर हो जानेका शाप देकर तपोलोक चले गये। भगवान् श्रीराम जब विश्वामित्रजीके साथ जनकपुर जा रहे थे, तब विश्वामित्रजीकी आज्ञासे उन्होंने पत्थर बनी अहल्याको अपने चरणोंसे छू दिया। उनकी चरणधूलिका स्पर्श होते ही अहल्या शापसे मुक्त हो गयी। वह नारीरूपमें प्रकट होकर श्रीरामकी स्तुति करने लगी। स्तुति करके वह भी अपने पति गौतम ऋषिके पास तपोलोकमें चली गयी।

विषय (हिन्दी)

गृध्रराज जटायु—

अनुवाद (हिन्दी)

जटायु गीध पक्षी होनेपर भी बहुत बलवान् और भगवान् के भक्त थे। महाराज दशरथसे उनकी मित्रता थी। पंचवटीसे सीताजीको हरण करके रावण जब लंका जाने लगा, तब सीताजीका आर्तक्रन्दन सुनकर जटायुने रावणको रोका। युद्धमें रावणने जटायुके पंख काट दिये। जब श्रीराम-लक्ष्मण सीताजीको ढूँढ़ते आगे बढ़े, तब उन्होंने मरणासन्न जटायुको देखा! भगवान् श्रीरामको सीता-हरणका समाचार देकर उनका दर्शन करते हुए जटायुने प्राणत्याग किया। श्रीरामने अपने हाथों पिताके समान आदरसे जटायुका अन्तिम संस्कार किया।

विषय (हिन्दी)

शबरी—

अनुवाद (हिन्दी)

ये जातिकी भीलनी थीं, मतंग ऋषिके आश्रमके पास कुटिया बनाकर रहती थीं। ऋषि जब परमधाम जाने लगे, तब इनसे कह गये थे कि श्रीराम इनके यहाँ आयेंगे। तबसे ये प्रतिदिन मार्ग साफ करतीं और वनके फल एकत्र करके श्रीरामके आनेका मार्ग देखा करती थीं। फल मीठे हैं या नहीं, यह जाननेके लिये वे चखकर देख लिया करती थीं। भक्तवत्सल श्रीराम जब सीताजीको ढूँढ़ते उस वनमें पहुँचे, तब ऋषियोंके आश्रम छोड़कर वे शबरीजीकी कुटियापर ही गये। शबरीजीके दिये फल बड़े चावसे माँग-माँगकर और उनके स्वादकी प्रशंसा करके प्रभुने खाये। शबरीजीको भगवान् ने भक्तिका उपदेश किया।

विषय (हिन्दी)

विभीषण—

अनुवाद (हिन्दी)

विभीषणजी रावणके छोटे भाई थे। हनुमान् जी जब सीताजीका पता लगाने लंका गये थे, तब विभीषणजीने ही उन्हें बताया था कि सीताजी अशोकवाटिकामें हैं। वे रावणको बार-बार समझाया करते थे कि ‘श्रीराम परमब्रह्म परमात्मा हैं। उनसे शत्रुता करना उचित नहीं है। श्रीजानकीजी जगज्जननी हैं। उन्हें लौटा देना चाहिये।’ इस उपदेशसे चिढ़कर रावणने भरी सभामें उनकी छातीमें लात मारी और लंकासे निकल जानेको कहा। इससे विभीषणजी भगवान् श्रीरामके पास समुद्रतटपर आये। भगवान् श्रीरामने विभीषणको शरणमें आया देखकर अपना लिया और उसी समय समुद्रके जलसे तिलक करके ‘लंकेश’ कह दिया। रावणके मारे जानेपर भगवान् ने विभीषणको लंकाका राज्य दिया।

विषय (हिन्दी)

जलपर शिला तैरना—

अनुवाद (हिन्दी)

मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम जब वानरीसेनाके साथ लंकापर चढ़ाई करनेके लिये समुद्रतटपर पहुँचे, तब समुद्रसे ही यह बात पूछनेका निश्चय हुआ कि सेना कैसे समुद्र पार करे? समुद्र श्रीरामके क्रोधित होनेपर देवरूपसे प्रकट हुआ और उसने उपाय बताया। नल और नील नामके दोनों सगे भाई, जो श्रीरामकी सेनाके मुख्य नायकोंमें हैं, समुद्रपर पुल बनाने लगे। बचपनमें ऋषियोंने उन्हें शाप दिया था कि उनके द्वारा फेंके गये पत्थर पानीमें नहीं डूबेंगे। अन्य वानर बड़े-बड़े शिलाखण्ड ला-लाकर नल-नीलको देते थे। एक शिलापर ‘रा’ और एकपर ‘म’ लिखकर उन्हें परस्पर मिलाकर नल-नील समुद्रपर रख देते थे। ऋषियोंके शाप तथा रामनामके प्रभावसे शिला पानीपर तैरती रहती थी। इस प्रकार लंकातक समुद्रपर पुल बन गया। उस पुलपरसे समुद्र पार करके श्रीराम सेनाके साथ लंका पहुँचे।

विषय (हिन्दी)

पूतना उद्धार—

अनुवाद (हिन्दी)

पूतना राक्षसी थी। वह कंसकी सेविका थी। मथुराके राजा कंसने उसे नवजात बालकोंकी हत्या करनेका काम दिया था। बालकोंका वध करनेके लिये वह गाँवोंमें इच्छानुसार रूप बनाकर घूमती रहती थी। अचानक एक दिन वह बहुत सुन्दर स्त्रीका रूप बनाकर और अपने स्तनोंमें भयंकर विषका लेप करके गोकुल पहुँची। उसके रूपको देखकर लोगोंने उसे कोई देवी समझ लिया। सीधे नन्दभवनमें वह चली गयी। पालनेमें सोये छः दिनके श्रीकृष्णचन्द्रको गोदमें उठाकर पूतनाने उनके मुखमें अपना विष लगा स्तन दे दिया। भगवान् उसकी दुष्टता जान गये। उन्होंने दूधके साथ उसके प्राण भी पी लिये। प्राण खींचे जानेसे रोती-चिल्लाती पूतना हाथ-पैर पटकती हुई भागी और कुछ दूर जाकर मरकर गिर पड़ी। दयामय भगवान् ने दूध पिलानेके कारण उसे माताके समान सद्‍गति दी। श्रीकृष्णचन्द्रके दूध पीनेसे पूतनाका शरीरतक इतना पवित्र हो गया था कि जब गोपोंने उसे जलाया, तब उसके शरीरसे अगुरुकी सुगन्ध निकलने लगी।

विषय (हिन्दी)

कुबेरके पुत्रोंका उद्धार—

अनुवाद (हिन्दी)

कुबेरके दो पुत्र थे—नलकूबर और मणिग्रीव। वे मदिरापान करके मतवाले बने किन्नरियोंके साथ सरोवरमें जल-विहार कर रहे थे। देवर्षि नारदजीके उधरसे जानेपर भी उन्होंने न तो प्रणाम किया, न कपड़े ही पहने। उन्हें वृक्षोंके समान निर्लज्ज नंगे खड़े देखकर नारदजीने शाप दे दिया—‘तुम दोनों वृक्ष हो जाओ।’ साथ ही कृपा करके नारदजीने यह भी कह दिया—‘द्वापरमें श्रीकृष्णचन्द्रके तुम्हें दर्शन होंगे। वे तुम्हारा उद्धार करेंगे। तुम्हें उस समय भगवान् की भक्ति मिलेगी।’ मैया यशोदाने बंदरोंको चोरीसे माखन लुटानेके कारण जब गोपालको ऊखलसे बाँध दिया और घरके काममें लग गयीं, तब नारदजीकी बातका स्मरण करके वे दयामय नन्दनन्दन घुटनोंके बल ऊखल खींचते दरवाजेसे बाहर चलने लगे। नारदजीके शापसे कुबेरके वे दोनों पुत्र गोकुलमें श्रीनन्दरायजीके दरवाजेपर अर्जुनके दो सटे हुए वृक्ष बने खड़े थे। श्रीकृष्णचन्द्र उन वृक्षोंके बीचसे निकल गये और उनमें ऊखल अड़ाकर खींचने लगे। इससे दोनों वृक्ष जड़से उखड़कर गिर पड़े। कुबेरके दोनों पुत्र उन वृक्षोंसे अपने देवरूपमें प्रकट हो गये। भगवान् की स्तुति करके दोनों अपने लोक चले गये।

विषय (हिन्दी)

कालिय-मर्दन—

अनुवाद (हिन्दी)

व्रजमें यमुनाजीके एक ह्रदमें कालिय नामक एक भयंकर सर्प अपने परिवारके साथ रहता था। उसके एक सौ सिर थे। वह इतना विषैला था कि उसके विषसे ह्रदका जल खौलता रहता था। पासके वृक्षतक उस ह्रदकी विषैली वायु लगनेसे जल गये थे। केवल एक कदम्ब ही बचा था। एक दिन गायें चराते हुए गोप-बालक उस ह्रदके पास पहुँच गये और अनजानमें ह्रदका जल पी लेनेके कारण तुरंत मरकर गिर पड़े। किंतु श्रीकृष्णचन्द्रने अपनी अमृत-दृष्टिसे देखकर सब गायों और बालकोंको जीवित कर दिया। इसके बाद कालियनागको वहाँसे निकाल देनेकी इच्छासे श्रीकृष्णचन्द्र ह्रदमें कूद पड़े। पहले तो नागने श्यामसुन्दरको अपने शरीरसे लपेट लिया और कुछ देर वे मूर्च्छित-से भी रहे; किंतु कुछ देरमें ही अपनेको सर्पके बन्धनसे छुड़ाकर ह्रदमें तैरने लगे। अन्तमें कूदकर श्रीकृष्णचन्द्र सर्पके सिरपर चढ़कर नृत्य करने लगे। सर्प जो मस्तक उठाता, उसीपर श्रीकृष्णके चरण पड़ते। उनके चरणोंके आघातसे कालियके मस्तक चिथड़े हो उठे। वह मूर्च्छित होने लगा। नागकी पत्नियोंने श्यामसुन्दरसे प्रार्थना की, नागने भी क्षमा माँगी। इससे श्रीकृष्णचन्द्रने उसे छोड़ दिया और जलसे बाहर निकल आये। कालियनाग श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञासे यमुनाजीको छोड़कर परिवारके साथ समुद्रके रमणकद्वीपमें चला गया।

विषय (हिन्दी)

प्रलयवृष्टिसे व्रजरक्षा—

अनुवाद (हिन्दी)

व्रजके गोप प्रतिवर्ष देवराज इन्द्रकी प्रसन्नताके लिये यज्ञ किया करते थे। इन्द्रका गर्व नष्ट करनेके लिये श्रीकृष्णचन्द्रने गोपोंको समझाकर इन्द्रका यज्ञ बंद करवा दिया और यज्ञके लिये एकत्र सामग्रीसे गिरिराज गोवर्धनका पूजन करवाया। इससे इन्द्र क्रोधमें भर गये। वे व्रजको नष्ट कर देनेपर तुल गये। प्रलयकालके मेघोंको वर्षा करके पूरे व्रजको डुबा देनेकी उन्होंने आज्ञा दी। मूसलधार वर्षा होने लगी, ओले पड़ने लगे, आँधी चलने लगी और बार-बार बिजली गिरने लगी। इससे व्याकुल होकर व्रजके गोप एवं गोपियाँ श्रीकृष्णचन्द्रकी शरणमें आये। उन्हें निर्भय रहनेको कहकर श्रीकृष्णने अपने बायें हाथसे गोवर्धन पर्वतको उठाकर हाथकी छोटी अँगुलीपर रख लिया। सात दिन-रात छत्तेके समान पर्वतको उठाये श्यामसुन्दर स्थिर खड़े रहे। पर्वतके नीचे सब गोप-गोपियाँ अपनी गायों और घरकी पूरी सामग्रीके साथ निर्विघ्न सुरक्षित थे। प्रलय-मेघोंका जल समाप्त हो गया, इन्द्र्र हार गये। वर्षा बंद होनेपर जब सब लोग पर्वतके नीचेसे निकलकर अपने घरोंमें आ गये, तब श्रीकृष्णचन्द्रने अपने पहले स्थानपर पर्वतको रख दिया। लज्जित होकर इन्द्र व्रजमें आये और उन्होंने श्रीनन्दनन्दनसे क्षमा माँगी।

विषय (हिन्दी)

कुब्जा—

अनुवाद (हिन्दी)

व्रजसे अक्रूरजी जब श्रीकृष्ण-बलरामको मथुरा ले गये और नन्दबाबाके पड़ावपर पहुँचाकर अपने घर चले गये, तब दोनों भाई गोप-सखाओंके साथ मथुरा नगर देखने निकले। नगरमार्गमें उन्हें कंसकी एक कुबड़ी दासी मिली। वह कंसके लिये अंगराग (घिसा चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ) ले जा रही थी। श्यामसुन्दरने उससे वह अंगराग माँगा। बड़े प्रेमसे उसने दोनों भाइयोंको अंगराग लगाया। श्रीकृष्णचन्द्रने उसी समय उसके पैरपर एक चरण रखा और ठोढ़ी पकड़कर उठाकर उसका कूबड़ दूर कर दिया तथा उसे सुन्दरी बना दिया। पीछे भगवान् उसके घर भी गये और उसके प्रेमको स्वीकार किया।

विषय (हिन्दी)

गुरुका पुत्र ले आना—

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीबलरामजी और श्रीकृष्णचन्द्र उज्जैनमें सांदीपनि मुनिके आश्रममें विद्याध्ययन करने गये थे। चौंसठ दिनोंमें ही उन्होंने चौंसठ कलाएँ और सब वेद-शास्त्र पढ़ लिये। उनका यह प्रभाव देखकर सांदीपनि मुनि समझ गये कि ये तो साक्षात् परमपुरुष हैं। जब राम-श्यामने गुरुदेवसे दक्षिणा माँगनेको कहा, तब पत्नीकी सलाहसे उन्होंने समुद्र-स्नानके समय डूबा हुआ अपना पुत्र माँगा। दोनों भाई प्रभास गये। समुद्रने देवरूपसे प्रकट होकर उनका स्वागत किया। सागरके कहनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने जलमें रहनेवाले पंचजन नामक असुरको मार दिया और उसके शरीरसे निकला पांचजन्य शंख ले लिया। असुरके पेटमें गुरुपुत्रके न मिलनेसे दोनों भाई यमलोक गये और यमराजके यहाँसे गुरुपुत्रको ले आकर उन्होंने गुरुदेवको दे दिया।

विषय (हिन्दी)

भीमसेनको विष दिया गया—

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बचपनसे ही पाण्डवोंसे जलता रहता था। अकेले भीमसेन उसके सौ भाइयोंको सभी खेलोंमें हरा देते थे, इससे भीमसेनसे उसका विशेष द्वेष था। एक दिन उसने पाण्डवोंको गंगा-स्नानके लिये साथ ले लिया। वहाँ भीमसेनको विष मिले लड्डू उसने खिला दिये। जब भीमसेन मूर्च्छित हो गये, तब लताओंसे बाँधकर दुर्योधनने उन्हें गंगाजीमें फेंक दिया। भगवान् की कृपासे भीमसेन गंगाजीसे बहते हुए समुद्रमें पहुँचकर पाताल पहुँच गये। वहाँ नागोंने उन्हें काटा, जिससे खाये विषका प्रभाव नष्ट हो गया। पीछे उनका परिचय जानकर वासुकि नागने उन्हें नागलोकके अमृत-कुण्डसे अमृत पिलाया और पृथ्वीपर पहुँचा दिया।

विषय (हिन्दी)

लाक्षागृहसे पाण्डव-रक्षा—

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनने वारणावत नगरमें अपने सेवकोंद्वारा गुप्तरूपसे एक ऐसा महल बनवाया, जो लकड़ी, राल, रूई, तेल आदि ज्वलनशील पदार्थोंसे ही बना था। धृतराष्ट्रसे कहकर दुर्योधनने पाण्डवोंको उनकी माता कुन्तीदेवीके साथ उसी महलमें रहनेके लिये भिजवा दिया। वह चाहता था कि जब पाण्डव वहाँ निश्चिन्त होकर रहने लगें, तब धोखेसे महलमें आग लगवा दें, जिससे उसमें पाण्डव जल जायँ। किंतु भगवान् की कृपासे विदुरजीको दुर्योधनकी दुर्नीतिका पता लग गया था। उन्होंने युधिष्ठिरको सब बातें समझा दीं और उस महलसे निकल जानेके लिये एक गुप्त सुरंग-मार्ग भी बनवा दिया। इसलिये पाण्डवोंने एक रात स्वयं ही उस महलमें आग लगा दी और सुरंगके मार्गसे वनमें चले गये।

विषय (हिन्दी)

जरासंधकी कैदसे राजाओंका उद्धार—

अनुवाद (हिन्दी)

मगधके राजा जरासंधने अनेक युद्धोंमें पराजित करके बहुत-से राजाओंको कैद कर लिया था। वह उन राजाओंका बलिदान करना चाहता था। राजाओंने एक दूत द्वारका भेजकर भगवान् श्रीकृष्णसे अपने उद्धारकी प्रार्थना की। उसी समय धर्मराज युधिष्ठिर राजसूय-यज्ञ करना चाहते थे। श्रीकृष्णचन्द्र यादवोंके साथ हस्तिनापुर आये। वहाँसे केवल अर्जुन और भीमसेनको साथ लेकर वे मगध गये और जरासंधको द्वन्द्वयुद्धके लिये ललकारा। जरासंधने भीमसेनसे द्वन्द्वयुद्ध करना स्वीकार कर लिया। श्रीकृष्णचन्द्रके संकेतके अनुसार भीमसेनने जरासंधको पटककर उसके पैर पकड़कर चीर डाला। जरासंधके मर जानेपर उसके पुत्र सहदेवको भगवान् ने मगधका राज्य दे दिया और जरासंधके कारागारमें पड़े राजाओंको मुक्त करके बड़े सम्मानसे उनके नगरोंतक जानेका प्रबन्ध कर दिया।

विषय (हिन्दी)

शिशुपाल-वध—

अनुवाद (हिन्दी)

चेदिराज शिशुपाल श्रीकृष्णचन्द्रकी बुआका पुत्र था। वह बचपनसे श्रीकृष्णसे द्वेष करता था। राजसूय-यज्ञमें धर्मराज युधिष्ठिरने भीष्मपितामह तथा अन्य ऋषिगण एवं सम्मान्य लोगोंकी सम्मतिसे श्रीकृष्णचन्द्रकी प्रथम पूजा की। शिशुपाल श्रीकृष्णके इस सम्मानको सहन नहीं कर सका और खड़े होकर उन्हें गालियाँ देने लगा। यद्यपि दूसरे लोग इससे बहुत अप्रसन्न हुए और भीमसेन तो शिशुपालको मारनेपर ही उतारू हो गये; परंतु श्रीकृष्ण शान्त बैठे रहे, क्योंकि उन्होंने अपनी बुआको वचन दिया था कि वे शिशुपालके सौ अपराध क्षमा कर देंगे। जब शिशुपाल सौसे अधिक गालियाँ दे चुका, तब श्रीकृष्णचन्द्रने अपने चक्रसे उसका मस्तक काट दिया। शिशुपालके शरीरसे एक ज्योति निकली और सबके देखते-देखते श्रीकृष्णके चरणोंमें लीन हो गयी।

विषय (हिन्दी)

द्रौपदीकी लज्जा-रक्षा—

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनके कपट-जुएमें युधिष्ठिर अपना सारा राज्य, धन, अपने-आपको, भाइयोंको और अन्तमें द्रौपदीको भी दाँवपर लगाकर हार गये। दुर्योधनकी आज्ञासे उसका छोटा भाई दुःशासन द्रौपदीके केश पकड़कर घसीटता हुआ उन्हें सभामें ले आया। दुर्योधनने द्रौपदीको नंगी कर देनेकी आज्ञा दी। भीष्म, द्रोण आदि सब सिर झुकाये बैठे रहे। द्रौपदीने चारों ओर देखा; किंतु जब कोई सहायक उसे दिखायी नहीं पड़ा, तब व्याकुल होकर उसने भगवान् श्रीकृष्णको पुकारा। भगवान् ने द्रौपदीकी पुकार सुन ली। दुःशासनकी भुजाओंमें दस हजार हाथियोंका बल था; किंतु द्रौपदीकी साड़ी तो भगवान् के प्रभावसे अनन्त हो गयी थी। साड़ी खींचते-खींचते दुःशासन थक गया, वस्त्रोंका अंबार लग गया; किंतु द्रौपदीके शरीरसे थोड़ा भी वस्त्र हटा नहीं।

विषय (हिन्दी)

दुर्वासासे पाण्डवोंकी रक्षा—

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार दुर्वासाजी दुर्योधनके यहाँ पधारे। दुर्योधनने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया। जाते समय प्रसन्न होकर दुर्वासाजीने उससे वरदान माँगनेको कहा। दुर्योधनने प्रार्थना की—‘आप अपने सब शिष्योंके साथ वनमें उस समय पाण्डवोंके अतिथि हों, जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो।’ बात यह थी कि सूर्यनारायणने युधिष्ठिरको एक ऐसा बर्तन दिया था, जिसमें बनाया भोजन तबतक अक्षय रहता था, जबतक द्रौपदी भोजन न कर ले। दुर्योधनने यह सोचा था कि द्रौपदीके भोजन कर लेनेपर दुर्वासाजी वहाँ जायँगे तो पाण्डव इन्हें भोजन करा नहीं सकेंगे, इससे ये महाक्रोधी ऋषि शाप देकर उनको नष्ट कर देंगे। दुर्योधनकी बात स्वीकार करके दुर्वासाजी एक दिन वनमें पाण्डवोंके पास दस हजार शिष्योंके साथ पहुँचे और भोजनकी व्यवस्था करनेको कहकर सरोवरपर दोपहरका स्नान एवं संध्या करने चले गये। द्रौपदीजी भोजन कर चुकी थीं, वे बड़ी चिन्तामें पड़ीं। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण किया। स्मरण करते ही श्यामसुन्दर वहीं प्रकट हो गये और बोले—‘मुझे कुछ खानेको दो। बड़ी भूख लगी है।’ द्रौपदीने जब कहा कि भोजन तो नहीं है, तब श्रीकृष्णने वह सूर्यका दिया बर्तन माँगा और बर्तन लेकर उसमें कहीं चिपका शाकका एक पत्ता ढूँढ़ लिया। ‘यह पत्ता मुझ विश्वरूपको तृप्त कर दे’ यह कहकर श्रीकृष्णचन्द्रने पत्तेको खाकर डकार ले ली। उसी क्षण सरोवरमें स्नान करते दुर्वासा मुनि और उनके शिष्योंका पेट अपने-आप भर गया और बार-बार उन्हें डकारें आने लगीं। दुर्वासाजीने शिष्योंसे कहा—‘मैं एक बार अम्बरीषसे उलझकर भोग चुका हूँ। पाण्डव भी भगवान् के भक्त हैं। उनका भोजन नष्ट होगा तो वे क्रोधमें आकर पता नहीं क्या करेंगे। अब यहाँसे चुपचाप भाग चलना ही ठीक है।’ दुर्वासाजी शिष्योंके साथ वहाँसे भाग ही गये।

विषय (हिन्दी)

नृग-उद्धार—

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नृग महान् दानी थे। वे प्रतिदिन हजारों गायें दान करते थे। किसी ब्राह्मणकी गाय एक दिन भागकर उनकी गायोंके झुंडमें मिल गयी। अनजानमें ही दूसरी गायोंके साथ राजाने उसे भी एक ब्राह्मणको दान कर दिया। जब वह गाय लेकर घर जा रहा था, तब गायका स्वामी उसे मार्गमें मिला। दोनों गायपर अपना अधिकार मानते थे, वे राजाके पास आये। राजाने दोनोंसे प्रार्थना की कि उस गायके बदले और अनेक गायें वे ले लें, किंतु दोमेंसे किसी ब्राह्मणने गो-विक्रय स्वीकार नहीं किया। वे गायको राजाके पास छोड़कर चले गये। उसी समय राजाकी मृत्यु हो गयी। भूलसे ब्राह्मणकी गाय ले लेनेके पापसे उन्हें गिरगिट होना पड़ा। द्वारकाके पास एक जलहीन कुएँमें वे विशाल गिरगिट बने पड़े थे। द्वारकाके बालक खेलते हुए उस कुएँके पास पहुँचे। दयावश उन्होंने गिरगिटको कुएँमें पड़ा देख निकालनेका प्रयत्न किया और जब स्वयं सफल नहीं हुए, तब श्रीकृष्णचन्द्रके पास दौड़ गये। भगवान् श्रीकृष्णने वहाँ आकर सहज ही कुएँसे गिरगिटको निकाल दिया। भगवान् का स्पर्श होते ही नृगकी गिरगिट देह छूट गयी। देवस्वरूप पाकर वे स्वर्ग चले गये।

विषय (हिन्दी)

सुदामा—

अनुवाद (हिन्दी)

जब श्रीकृष्णचन्द्र उज्जैनमें सांदीपनि मुनिके यहाँ अध्ययन करने गये, तब सुदामा नामके ब्राह्मण-कुमार भी वहीं विद्याध्ययन करते थे। श्रीकृष्णसे उनकी मित्रता हो गयी थी। पीछे गुरुकुलसे लौटकर सुदामा गृहस्थ बने। वे बहुत ही कंगाल, किंतु संतोषी थे। निरंतर उपवाससे दुःखी होकर उनकी पत्नी बार-बार आग्रह करती थी कि एक बार अपने मित्र श्रीकृष्णचन्द्रके पास सुदामा द्वारका जायँ। पत्नीके आग्रहके कारण अपने मित्रको देनेके लिये चार मुट्ठी चिउड़े एक पुराने कपड़ेमें बाँधकर सुदामा द्वारका चल पड़े। द्वारकाधीश श्रीकृष्णचन्द्रको जैसे ही पता लगा कि सुदामा आये हैं, भगवान् उनसे मिलने दौड़ पड़े। सुदामाको श्रीकृष्णने गले लगाया, अपने भवनमें ले आकर उनके चरण धोये, उनका स्वागत-सत्कार किया। श्रीकृष्णने अन्तमें पूछा—‘आप मेरे लिये क्या उपहार लाये हैं?’ संकोचके मारे सुदामा चिउड़ोंकी बात कह नहीं सके। उन्हें गठरी छिपाते देख श्यामसुन्दरने ‘यह क्या है?’ कहकर उसे खींच लिया। पुराना कपड़ा फट गया। चिउड़े बिखर गये। बड़े प्रेमसे उन्हें समेटकर त्रिलोकीनाथने एक मुट्ठी खा ली; जब दूसरी मुट्ठी भरी, तब श्रीरुक्मिणीजीने प्रभुका हाथ पकड़ लिया। द्वारकासे सुदामाजी जब विदा हुए, तब प्रत्यक्ष उन्हें कुछ नहीं मिला था! लेकिन वे श्रीकृष्णके प्रेममें विभोर थे। अपने नगरमें पहुँचनेपर पता लगा कि श्यामसुन्दरने विश्वकर्माको आज्ञा देकर उनकी नगरीको द्वारकाके समान ही ऐश्वर्यमयी बनवा दिया है। सुदामाके घरमें इतना वैभव श्रीकृष्णने दे दिया था कि वह देवताओंके लिये भी दुर्लभ था।

विषय (हिन्दी)

विदुरके घर शाक और केलेके छिलके खाना—

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवोंके संधिदूत बनकर स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र हस्तिनापुर आ रहे हैं’ यह समाचार पाकर धृतराष्ट्रने उनके स्वागत-सत्कारकी खूब तैयारी की थी, किंतु श्रीकृष्णचन्द्रने दुर्योधनके यहाँ ठहरना स्वीकार नहीं किया! वे तो विदुरजीके यहाँ ठहरे और उन्हींके घरका शाक (रूखा-सूखा भोजन) ही उन्होंने स्वीकार किया। कौरव-सभामें दुर्योधनको समझानेका प्रयत्न करके अन्तमें जब वे सभासे निकले, तब भी दुर्योधनने उनसे अपने यहाँ भोजन करनेकी प्रार्थना की। उसने श्रीकृष्णचन्द्रको भोजन करानेके लिये बहुत बड़ी तैयारी की थी; किंतु श्रीकृष्णने उसके यहाँ भोजन करना स्पष्ट अस्वीकार कर दिया। वे विदुरजीके घर पहुँचे। विदुरजी पीछे ही रह गये थे और विदुर-पत्नी स्नान कर रही थीं। श्यामसुन्दरने उन्हें जैसे ही पुकारा, प्रेम-विभोर होकर वे दौड़ पड़ीं। घरमें पहुँचकर श्रीकृष्णने कहा—‘चाची! मुझे भूख लगी है।’ विदुर-पत्नी कुछ केले ले आयीं और श्यामसुन्दरके सामने बैठकर छील-छीलकर उन्हें खिलाने लगीं। किंतु प्रेमकी अधिकताके कारण उन्हें अपने शरीर और कार्यका ज्ञान ही नहीं था। केलेका गूदा वे फेंकती जा रही थीं और छिलके श्रीकृष्णचन्द्रको देती जाती थीं। बड़े स्वादसे श्रीकृष्ण वे छिलके खा रहे थे। इतनेमें विदुरजी आ गये। पत्नीको उन्होंने डाँटा और स्वयं छीलकर केलेका गूदा श्रीकृष्णचन्द्रको दिया। किंतु श्रीकृष्णचन्द्रने गूदेको थोड़ा खाकर कह दिया—‘चाचाजी’ छिलकों-जितना स्वाद इसमें नहीं है।’

विषय (हिन्दी)

भीष्मके प्रणकी रक्षा—

अनुवाद (हिन्दी)

महाभारतके युद्धमें दुर्योधनके द्वारा उत्तेजित किये जानेपर भीष्मपितामहने एक दिन प्रतिज्ञा कर ली कि ‘मैं कल श्रीकृष्णचन्द्रको शस्त्र उठानेपर विवश कर दूँगा।’ भगवान् श्रीकृष्णने महाभारतके युद्धमें शस्त्र न लेनेकी प्रतिज्ञा प्रारम्भमें ही की थी। किंतु अपने भक्त भीष्मपितामहकी प्रतिज्ञाको पूरी करनेके लिये उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। दूसरे दिन युद्धमें जब भीष्मके बाणोंकी चोटसे अर्जुन मूर्च्छित हो गये, तब श्रीकृष्णचन्द्र रथसे कूद पड़े और चक्र उठाकर भीष्मकी ओर दौड़ पड़े। इतनेमें अर्जुनकी मूर्छा दूर हो गयी। दौड़कर उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्रको पकड़ लिया। श्यामसुन्दरको तो केवल भीष्मकी प्रतिज्ञा सत्य करनी थी। अतः अर्जुनके कहनेसे वे लौट आये।

विषय (हिन्दी)

गर्भमें परीक्षित् की रक्षा—

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वत्थामाने पाण्डवोंके कुलका ही नाश कर देनेका संकल्प करके ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। श्रीकृष्णचन्द्रने ब्रह्मास्त्रसे पाण्डवोंकी रक्षा कर दी; किंतु वह अमोघ अस्त्र अभिमन्युकी पत्नी उत्तराके गर्भको नष्ट करने चला। उत्तरा व्याकुल होकर श्रीकृष्णकी शरणमें आयी। अत्यन्त सूक्ष्मरूप धारण करके श्रीकृष्णचन्द्र उत्तराके गर्भमें प्रविष्ट हो गये। चतुर्भुजरूपसे वे दस महीनेतक उत्तराके गर्भमें स्थित बालककी ब्रह्मास्त्रके तेजसे रक्षा करते रहे। उत्तराके गर्भसे उत्पन्न वही बालक परीक्षित् नामसे प्रसिद्ध हुआ।

विषय (हिन्दी)

ब्राह्मणके मरे पुत्र लाना—

अनुवाद (हिन्दी)

द्वारकामें एक ब्राह्मणके घर जैसे ही पुत्र उत्पन्न हाता था, मर जाता था। ब्राह्मण उस मृतक पुत्रकी देह राजद्वारपर रख जाता और बहुत कड़ी बातें महाराज उग्रसेनको कहता था। एक बार यह घटना तब हुई, जब अर्जुन द्वारकामें थे। अर्जुनने ब्राह्मणसे प्रतिज्ञा की कि उसके अगले पुत्रकी या तो वे रक्षा करेंगे या अग्निमें जल जायँगे। अगली बार जब ब्राह्मणकी पत्नीको संतान होनेका समय आया, तब सूचना पाकर अर्जुन वहाँ गये और उन्होंने बाणोंसे प्रसूतिकागारको इस प्रकार ढँक दिया कि उसमें वायु भी न जा सके। किंतु ब्राह्मणकी पत्नीको जो पुत्र हुआ उसका शरीर भी इस बार अदृश्य हो गया। योगविद्याका आश्रय लेकर अर्जुन यमलोक, इन्द्रलोक आदि सभी देवलोकोंमें घूम आये; परंतु उन्हें कहीं भी ब्राह्मणके पुत्र नहीं मिले। द्वारका लौटकर वे अग्निमें प्रवेश करनेको उद्यत हुए; किंतु श्रीकृष्णचन्द्रने उन्हें आश्वासन दिया और साथ लेकर क्षीरसागरमें भूमापुरुष भगवान् नारायणके पास गये। वहाँसे ब्राह्मणके सभी पुत्रोंको ले आकर उन्होंने ब्राह्मणको दे दिया!

विषय (हिन्दी)

व्याधका उद्धार—

अनुवाद (हिन्दी)

परमधाम-गमनके समय भगवान् श्रीकृष्ण प्रभासक्षेत्रमें एकान्तमें एक पीपलके वृक्षके नीचे एक चरण ऊपर किये बैठे थे। उनके चरणके लाल-लाल तलवेको देखकर एक व्याधने समझा कि कोई मृग है। उसने भगवान् के चरणमें बाण मार दिया, किंतु पास आनेपर श्रीकृष्णचन्द्रको देखकर भयके मारे उनके चरणोंमें गिर पड़ा। भगवान् ने उसका अपराध तो क्षमा कर ही दिया, उसे सशरीर विमानमें बैठाकर स्वर्ग भेज दिया।

विषय (हिन्दी)

श्वपच—

अनुवाद (हिन्दी)

मूक चाण्डाल नामक एक श्वपच माता-पिताका अत्यन्त भक्त था। वह माता-पिताको ही भगवान् मानकर बड़ी भक्तिसे उनका पूजन करता था। उसकी माता-पिताकी भक्तिके प्रभावसे उसका मकान बिना आधारके आकाशमें स्थिर रहता था और भगवान् एक ब्राह्मणका रूप धारण करके उसके घरमें सदा निवास करते थे। भगवान् उस मूक चाण्डालको उसके परिवारके साथ अपने धाम ले गये।

विषय (हिन्दी)

अजामिल—

अनुवाद (हिन्दी)

अजामिल ब्राह्मण था और पहले सदाचारी, भगवद्भक्त तथा माता-पिताका सेवक था। किंतु एक दिन वनसे फल-कुश आदि लेकर लौटते समय उसने एक शूद्रको एक व्यभिचारिणी स्त्रीके साथ निर्लज्ज हास-परिहास करते देखा। क्षणभरके इस कुसंगसे उसकी वासनाएँ जाग उठीं। उसी स्त्रीको उसने रख लिया और नाना प्रकारके अनुचित कर्मोंसे उसको ही संतुष्ट करता रहा। उस स्त्रीसे अजामिलके कई पुत्र हुए। छोटे पुत्रका नाम उसने नारायण रखा था। मृत्युके समय जब अजामिलको लेने यमदूत आये और बलपूर्वक उसके प्राण देहसे निकालने लगे, तब व्याकुल होकर उसने अपने पुत्र नारायणको पुकारा। पुत्रके वहाँ आते समय उसके मुखसे ‘नारायण’ नाम निकला, इसलिये भगवान् के पार्षद वहाँ तुरंत आ गये और उन्होंने अजामिलको यमदूतोंसे छुड़ा दिया। भगवान् की कृपासे अजामिलको कुछ और आयु मिल गयी। वह घर छोड़कर हरिद्वार चला गया और वहाँ भजन करने लगा। अन्तमें मरनेपर वह भगवान् के धाम गया।

विषय (हिन्दी)

गणिकाका उद्धार—

अनुवाद (हिन्दी)

एक वेश्याने तोता पाल रखा था। वह तोतेको ‘सीताराम’ पढ़नेको कहा करती थी। एक दिन वह तोतेको ‘सीताराम’, ‘सीताराम’ पढ़ा रही थी कि उसकी मृत्यु हो गयी। भगवन्नाम लेते हुए मरनेके कारण भगवान् के पार्षद उसे वैकुण्ठ ले गये।

विषय (हिन्दी)

नामदेवका छप्पर छाना—

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तश्रेष्ठ नामदेवजी एक फूसकी झोपड़ीमें रहते थे। वर्षा-ऋतुके प्रारम्भमें झोपड़ीमें आग लग गयी और आधी झोपड़ी जलने लगी। नामदेवजी तो सर्वत्र भगवान् को देखते थे, वे कहने लगे—‘प्रभो!’ आप यह लाल-लाल लपटोंका रूप धारण करके भले पधारे। किंतु आधी झोपड़ीने क्या अपराध किया है कि उसे आप छोड़ रहे हैं? उसे भी स्वीकार कीजिये।’ झोपड़ी जल गयी, किंतु नामदेवजीको कोई चिन्ता नहीं थी। भगवान् ही मजदूरका रूप धारण करके आये और उन्होंने नामदेवजीका छप्पर पुनः छा दिया।

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