०३ परिशिष्ट

पदोंमें आये मुख्य कथा-प्रसंग

अनुवाद (हिन्दी)

मत्स्यावतार—
प्रलयकालमें ब्रह्माजीके असावधान होनेपर दैत्य हयग्रीवने उनके मुखसे निकले वेदोंको हरण कर लिया और पातालमें जा छिपा। इससे व्याकुल होकर ब्रह्माजीने भगवान् की प्रार्थना की। भगवान् नारायणने मत्स्यावतार ग्रहण किया। उन्होंने हयग्रीवको मारकर वेदोंका उद्धार किया।
ऐसी भी कथा आती है कि किसी कल्पके अन्तमें प्रलयके समय शंखासुर नामके दैत्यने ब्रह्माजीसे वेदोंका हरण कर लिया था। उस जलमें रहनेवाले दैत्यको मत्स्यावतार धारण करके भगवान् ने मारा।
कच्छपावतार—
महर्षि दुर्वासाके शापसे इन्द्रकी श्री नष्ट हो गयी। दैत्योंने आक्रमण करके देवताओंके साथ उन्हें पराजित कर दिया। स्वर्गपर दैत्यराज बलिका अधिकार हो गया। देवताओंने भगवान् नारायणकी शरण ली। भगवान् ने उन्हें दैत्योंसे सन्धि करके क्षीरसमुद्रका मन्थन करनेका आदेश दिया। इन्द्र बलिके पास गये। बलि तथा दैत्योंने समुद्र-मन्थनसे प्राप्त अमृतमें समान भाग पानेकी आशामें देवताओंसे सन्धि कर ली। समुद्र-मन्थनके लिये वे लोग मिलकर मन्दराचलको लाने लगे। जब देवता और दैत्य उस महापर्वतको ढोनेमें असमर्थ हो गये, तब भगवान् नारायण स्वयं पर्वतको गरुड़पर रखकर ले आये। क्षीरसमुद्रमें डालनेपर वह पर्वत डूबने लगा। देवता-दैत्य उसे पकड़े नहीं रह सके। भगवान् नारायणने विशाल कच्छपका रूप धारण किया। वे उस पर्वतको अपनी पीठपर उठाये रहे। साथ ही वे अपने चतुर्भुजरूपसे अकेले ही वासुकिनागका मुख एवं पूँछ पकड़कर उसे मन्दराचलमें लपेटे समुद्र-मन्थन भी करते रहे; क्योंकि देवता और दैत्य समुद्र मथते-मथते थक चुके थे। उन लोगोंके किये कुछ हुआ नहीं। उनके थक जानेपर श्रीहरिने मन्थन प्रारम्भ किया। तभी समुद्रसे चौदहों रत्न एवं अमृत निकला।
वामनावतार—
भगवान् नारायणने मोहिनीरूप धारण करके समुद्रसे निकला अमृत देवताओंको ही पिला दिया। दैत्योंको अमृत नहीं मिला। इससे क्रुद्ध होकर दैत्योंने देवताओंसे युद्ध छेड़ दिया। युद्धमें देवता विजयी हुए। किंतु शुक्राचार्यने युद्धमें मारे गये दैत्योंको जीवित कर दिया। दैत्यराज बलिने थोड़े ही दिनोंमें अपनी सेवासे आचार्य शुक्रको प्रसन्न कर लिया। शुक्राचार्यकी कृपासे बलिको यज्ञकुण्डसे निकला रथ, दिव्य धनुष तथा अस्त्र-शस्त्र मिले। उन्होंने दैत्योंको साथ लेकर फिर स्वर्गपर चढ़ाई की। देवता उनकी अजेय शक्ति देखकर स्वर्ग छोड़कर भाग गये, किंतु स्वर्गका राज्य तो सौ अश्वमेध-यज्ञ करनेवाला ही स्थायीरूपसे कर सकता है। शुक्राचार्य इस नियमको जानते थे। उन्होंने बलिको पृथ्वीपर लाकर नर्मदा-किनारे अश्वमेध-यज्ञ प्रारम्भ कराया। निन्यानबे अश्वमेध-यज्ञ बलिके निर्विघ्न पूरे हो गये।
उधर देवमाता अदिति अपने पुत्र देवताओंकी पराजयसे बहुत दुःखी थीं। उन्होंने अपने पति महर्षि कश्यपसे इस दुःखको दूर करनेकी प्रार्थना की। कश्यपजीने उन्हें भगवान् की आराधना करनेको कहा, अदितिकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवान् नारायणने उन्हें दर्शन दिया और उनके पुत्र होकर प्रकट होनेका वरदान भी।
भगवान् वामनरूपमें अदितिके पुत्र होकर प्रकट हुए। वहाँसे वे बलिकी यज्ञशालामें पधारे। उस समय बलि सौवाँ अश्वमेध-यज्ञ कर रहे थे। बलिने परम तेजस्वी वामनजीका स्वागत तथा पूजन किया और उनसे जो चाहे माँगनेको कहा। वामनभगवान् ने अपने पैरोंसे तीन पैर पृथ्वी माँगी। यद्यपि शुक्राचार्यने बलिको भूमि देनेसे मना किया और बतला दिया कि इस रूपमें साक्षात् विष्णु ही तुम्हें छलने आये हैं; किंतु सत्यवादी बलिने वामनको भूमि देनेका संकल्प कर ही दिया।
भगवान् वामनने तत्काल विराट्‍रूप प्रकट किया। पूरी पृथ्वी उनके एक पदमें नप गयी। दूसरे पदसे उन्होंने स्वर्ग तथा ऊपरके सब लोक नाप लिये। उस समय भगवान् का वह पद ब्रह्मलोकतक जा पहुँचा। ब्रह्माजीने उसी चरणको धोकर अपने कमण्डलुमें रख लिया। भगवान् का वही चरणोदक गंगाजीके रूपमें पीछे पृथ्वीपर आया।
बलिने तीसरे पैरके लिये स्थान न देखकर अपना मस्तक आगे कर दिया। भगवान् ने उसके मस्तकपर तीसरा पैर रखा। इस प्रकार छलसे बलिका सब राज्य लेकर वामनभगवान् ने इन्द्रको दे दिया। भगवान् की आज्ञासे दैत्योंके साथ बलि सुतललोक चले गये।
वाराहावतार—
ब्रह्माजी अपने ब्रह्मलोकमें बैठे पहले मानसी सृष्टि कर रहे थे। उस समय पृथ्वी समुद्रमें डूब गयी थी। जब ब्रह्माजीने मनुको उत्पन्न करके उन्हें सृष्टिके विस्तारकी आज्ञा दी, तब मनुने कहा—‘मेरी संतानोंके रहनेका स्थान तो पृथ्वी है। उसके उद्धारका यत्न कीजिये।’
ब्रह्माजी दूसरा कोई उपाय न देखकर भगवान् का ध्यान करने लगे। उसी समय उनकी नाकसे ही अँगूठेके बराबर वाराहशिशुके रूपमें भगवान् प्रकट हुए। तनिक देरमें ही वाराहभगवान् का शरीर पर्वतके समान विशाल हो गया। वे समुद्रके जलमें घुस गये।
दितिका पुत्र हिरण्याक्ष इतना बलवान् था कि उससे कोई युद्ध कर नहीं सकता था। वह युद्ध करनेके लिये प्रतिद्वन्द्वी ढूँढ़ता तीनों लोकोंमें घूम रहा था। नारदजीने उसे पाताल जाकर वाराहभगवान् से युद्ध करनेको कहा। वह जब पाताल पहुँचा, तब भगवान् वाराह पृथ्वीको दाँतोंपर उठाकर ला रहे थे। हिरण्याक्ष उनके पीछे लग गया। ऊपर आकर भगवान् ने पृथ्वीकी स्थापना की और फिर युद्ध करके हिरण्याक्ष दैत्यको मार दिया।
नृसिंहावतार—
भगवान् नारायणने वाराहावतार धारण करके हिरण्याक्षको मार दिया, इससे उसके बड़े भाई हिरण्यकशिपुको बड़ा क्रोध आया। उसने घोर तपस्या प्रारम्भ की। अन्तमें जब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर वरदान देने आये, तब उसने कहा—‘मैं आपकी सृष्टिके किसी प्राणीसे, मनुष्य या पशुसे, पृथ्वीमें या आकाशमें, दिनमें या रातमें, घरमें या बाहर, किसी अस्त्र-शस्त्रसे न मारा जाऊँ।’
यह वरदान पाकर वह अजेय हो गया। स्वर्गपर उसने अधिकार कर लिया। सभी देवता और लोकपाल भयसे उसकी सेवा करने लगे। उसने वेद-पाठ, यज्ञ तथा भगवान् का नाम लेनातक अपराध घोषित कर दिया।
हिरण्यकशिपुके छोटे पुत्र प्रह्लाद परम भगवद्भक्त थे। वे भगवान् की भक्ति छोड़ दें—इसके लिये हिरण्यकशिपुने उन्हें बहुत समझाया, डराया-धमकाया और जब वे न माने तो उन्हें मार डालनेकी चेष्टा करने लगा। लेकिन विष देकर, अग्निमें डालकर, समुद्रमें डुबाकर, पर्वतसे गिराकर, सर्प तथा सिंहादिके सामने डलवाकर, मारण-प्रयोग करवाकर—इस प्रकार अनेक प्रयत्न करके भी वह प्रह्लादको न मार सका। भगवान् ने सर्वत्र प्रह्लादकी रक्षा की।
अन्तमें हिरण्यकशिपु स्वयं प्रह्लादको मारनेके लिए उद्यत हुआ। उसने पूछा—‘कहाँ है तेरा भगवान्?’
प्रह्लादजी बोले—‘मेरे प्रभु तो सर्वत्र हैं।’
असुरने क्रोधमें पूछा—‘इस खम्भेमें भी है?’
प्रह्लादके ‘हाँ’ कहते ही उसने वज्रके समान घूँसा खम्भेपर मारा। खम्भा बीचसे फट गया। प्रलयके समान गर्जना करते हुए भगवान् अद्भुतरूपमें प्रकट हो गये। उनका मुख सिंहके समान था और शेष शरीर मनुष्यके समान। नृसिंहभगवान् ने हिरण्यकशिपुको पकड़ लिया। संध्याके समय, द्वारकी चौखटपर ले जाकर अपनी जाँघोंपर पटककर नखोंसे ही भगवान् ने उस असुरका पेट फाड़कर उसे मार दिया।
परशुराम-अवतार—
महर्षि जमदग्निके पुत्रके रूपमें भगवान् परशुरामरूपसे प्रकट हुए। उस समय क्षत्रियनरेश प्रजाको पीड़ा देनेवाले, धर्मविरोधी और पापी हो रहे थे। उनका संहार करनेके लिये ही यह अवतार हुआ था। राजा कृतवीर्यके पुत्र अर्जुनके सहस्र भुजाएँ थीं। वह सेनाके साथ एक बार महर्षि जमदग्निके आश्रममें आया। जमदग्निजीने कामधेनु गौके प्रभावसे उसका भली प्रकार स्वागत-सत्कार किया। किंतु कामधेनुकी महिमा देखकर वह दुष्ट राजा ऋषिके न देनेपर बलपूर्वक उनसे वह गाय छीन ले गया।
उस समय परशुरामजी आश्रममें नहीं थे। लौटनेपर उन्होंने सहस्रार्जुनकी दुष्टता सुनी तो क्रोधमें भरकर दौड़ पड़े। युद्धमें उन्होंने सहस्रार्जुनको मार डाला और अपनी गौ लौटा लाये। किंतु सहस्रार्जुनके पुत्रोंने अपने पिताकी मृत्युका बदला लेनेका निश्चय कर लिया। एक दिन परशुरामजी आश्रमसे बाहर गये हुए थे। उस समय आकर ध्यान करते हुए जमदग्नि ऋषिका मस्तक वे काट ले गये। लौटनेपर परशुरामजीको बड़ा क्रोध आया। उन्होंने सहस्रार्जुनके पुत्रोंको तो मारा ही, पृथ्वीके सभी क्षत्रिय नरेशोंका इक्कीस बार संहार किया। अपने पिताका मस्तक लाकर उन्हें अपने योगबलसे जीवित करके सप्तर्षियोंमें प्रतिष्ठित किया। परशुरामजी अमर हैं। कलियुगके अन्तमें जब भगवान् कल्किरूपसे अवतार लेंगे, तब परशुरामजी कल्किभगवान् को अस्त्र-शस्त्रकी शिक्षा देंगे। अगले मन्वन्तरमें वे भी सप्तर्षियोंमेंसे एक होंगे।
रामावतार—
त्रेतामें देवताओं तथा ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये भगवान् ने अयोध्यामें महाराज दशरथके यहाँ अपने अंशोंके साथ अवतार लिया। महाराज दशरथकी तीन रानियाँ थीं—कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा। इनमें कौसल्याजीके पुत्ररूपमें भगवान् श्रीराम स्वयं प्रकट हुए। कैकेयीजीके पुत्र भरत और सुमित्रासे लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए।
ज्यों ही ये कुमार बड़े हुए, त्यों ही महर्षि विश्वामित्र अयोध्या आये। मारीच-सुबाहु राक्षस गंदी वस्तुओंकी वर्षा करके उनका यज्ञ बार-बार भ्रष्ट कर देते थे। ऋषिके आग्रहपर महाराज दशरथने राम-लक्ष्मणको उनके साथ कर दिया। मार्गमें ताड़का नामक राक्षसीने उनपर आक्रमण किया। उसे श्रीरामने एक ही बाणसे मारकर मुक्त कर दिया। महर्षिके आश्रमपर पहुँचकर दोनों भाई यज्ञकी रक्षा करने लगे। जब राक्षसोंने आक्रमण किया, तब श्रीरामने सुबाहुको मार दिया और मारीचको बाण मारकर सौ योजन दूर समुद्र-किनारे फेंक दिया। लक्ष्मणने पूरी राक्षस-सेनाको नष्ट कर दिया।
यज्ञ पूरा होनेपर महर्षि विश्वामित्र दोनों भाइयोंको लेकर जनकपुर चले; क्योंकि वहाँ महाराज जनककी कन्या श्रीसीताजीके विवाहके लिये स्वयंवर होनेवाला था। जो जनकजीके यहाँ रखे शंकरजीके भारी धनुषको उठा लेता, उसीके साथ जानकीजीका विवाह होता। मार्गमें महर्षि गौतमके शापसे पत्थरकी मूर्ति बनी पड़ी उनकी पत्नी अहल्या मिली। विश्वामित्रजीके कहनेसे श्रीरामने अपने चरणोंसे उसे छू दिया। उनकी चरणधूलि पड़ते ही अहल्याका पाप-शाप नष्ट हो गया। वह देवीके रूपमें प्रकट होकर अपने पतिके लोकको चली गयी। जनकपुर पहुँचनेपर जब कोई नरेश शंकरजीके पिनाक नामक धनुषको नहीं उठा सका, तब अन्तमें महर्षिकी आज्ञासे श्रीराम उठे। उन्होंने उस पिनाकको उठाकर उसपर डोरी चढ़ायी और खींचकर धनुषको तोड़ दिया। पीछे शंकरजीका धनुष टूटनेका समाचार पाकर वहाँ परशुरामजी क्रोधमें भरे आये। किंतु श्रीरामका प्रताप देखकर उन्हें अपना धनुष देकर लौट गये। जनकजीने अयोध्या दूत भेजा। महाराज दशरथ बारात सजाकर आये। श्रीरामजीका विवाह तो सीताजीसे हुआ ही, उनके तीनों भाइयोंका विवाह भी वहीं जनकजी तथा उनके भाईकी दूसरी पुत्रियोंसे हो गया।
अयोध्या लौटनेपर कुछ दिन आनन्दसे बीते। महाराज दशरथने श्रीरामको युवराज-पद देना चाहा। उसी समय देवताओंकी प्रेरणासे रानी कैकेयीकी बुद्धिमें भेद पड़ गया। उन्होंने महाराज दशरथसे वचन लेकर भरतके लिये राज्य और श्रीरामके लिये चौदह वर्षका वनवास माँगा। पिताके वचनोंकी रक्षाके लिये श्रीजानकीजी तथा भाई लक्ष्मणजीके साथ श्रीराम वन चले गये। उनका वियोग न सह सकनेके कारण महाराज दशरथका परलोकवास हो गया। भरतजीने चित्रकूट जाकर श्रीरामको लौटानेका प्रयत्न किया; किंतु श्रीरामने उन्हें समझा-बुझाकर लौटा दिया।
एक वनसे दूसरे वनमें घूमते श्रीराम पंचवटी पहुँचे। मार्गमें वे विराध राक्षसको मार चुके थे। पंचवटीमें रावणकी बहिन शूर्पणखा उनके पास कपटपूर्वक बुरे अभिप्रायसे आयी। उसकी दुष्टताके कारण लक्ष्मणजीने उसके नाक-कान काट लिये। शूर्पणखा दौड़ी हुई रावणके सेवक खर-दूषणके पास गयी। खर-दूषण और त्रिशिरा—ये तीनों भाई चौदह हजार राक्षसी सेना लेकर युद्ध करने आये; किंतु श्रीरामने अकेले ही थोड़ी-सी देरमें सबको यमलोक भेज दिया।
शूर्पणखा लंका पहुँची, उसकी सब बातें सुनकर रावण मारीचको साथ लेकर पंचवटी आया। मारीच सोनेका मृग बनकर घूमने लगा। सीताजीके कहनेसे श्रीराम उसे मारने दौड़े। दूर जाकर उन्होंने मारीचको मार दिया। मरते समय उस राक्षसने लक्ष्मणजीका नाम पुकारा। लक्ष्मणजी भी श्रीजानकीजीके कहनेसे श्रीरामके पास गये। उसी समय रावणने सीताका हरण कर लिया। वह जब श्रीजानकीजीको ले जा रहा था, मार्गमें गीधराज जटायुने उसे रोका, किंतु रावणने तलवारसे जटायुके पंख काट दिये। सीताजीको लंका ले जाकर उसने अशोकवाटिकामें रख दिया।
मारीचको मारकर श्रीराम लौटे। आश्रममें सीताको न देख वे वियोगमें व्याकुल होकर लक्ष्मणके साथ उन्हें ढूँढ़ते आगे चले। मार्गमें घायल जटायु मिले। श्रीरामको रावणद्वारा जानकीजीके हरे जानेका समाचार देकर जटायुने शरीर छोड़ दिया। भक्तवत्सल रामजीने बड़े सम्मानसे जटायुका अन्तिम संस्कार किया।
वहाँसे चलते हुए रामजी शबरीके आश्रममें पहुँचे। शबरीने उनका सत्कार किया और प्रभुने उसे भक्तिका उपदेश किया। फिर ऋष्यमूक पर्वतके पास पहुँचनेपर हनुमान् जी मिले, उन्होंने सुग्रीवसे परिचय तथा मित्रता करायी। वानरराज बालिने अपने छोटे भाई सुग्रीवको मारकर निकाल दिया था। रघुनाथजीने एक ही बाणसे सात तालवृक्षोंको विद्ध करके सुग्रीवको विश्वास दिलाया कि वे बालिको मार देंगे। फिर बालिको मारकर उन्होंने सुग्रीवको किष्किन्धाका राज्य दिया।
सुग्रीवने सीताजीका समाचार लेने चारों ओर वानर भेजे। उनमेंसे श्रीहनुमान् जी समुद्र कूदकर लंका गये। वे सीताजीसे मिलनेके बाद लंकामें आग लगाकर, उसे जलाकर लौट आये। समाचार पाकर श्रीरामने वानरी सेनाके साथ प्रस्थान किया। रावणका भाई विभीषण श्रीरामकी शरण आ गया। समुद्रपर पुल बनाकर श्रीरघुनाथजी कपिदलके साथ लंका पहुँच गये। युद्धमें श्रीरामके हाथों रावणका भाई कुम्भकर्ण तथा स्वयं रावण भी मारा गया।
विभीषणको लंकाका राज्य देकर श्रीराम सीताजी, लक्ष्मणजी तथा वानरवीरोंके साथ पुष्पक विमानमें बैठकर अयोध्या लौट आये।
श्रीकृष्ण-चरित—
मथुरानरेश उग्रसेनजीके पुत्र कंसने पिताको कारागारमें डाल दिया था और वह स्वयं राजा बन बैठा था। उसने अपनी चचेरी बहिन देवकी और उनके पति वसुदेवजीको भी कैद कर रखा था और उनकी संतानोंको मार दिया करता था; क्योंकि आकाशवाणीने कंसको बताया था कि देवकीका पुत्र उसे मारेगा। देवकीके सातवें गर्भमें भगवान् शेष आये, योगमायाने उन्हें वसुदेवजीकी दूसरी पत्नी रोहिणीके गर्भमें पहुँचा दिया, जो उस समय गोकुलमें नन्दजीके घर रहती थीं। इस प्रकार रोहिणीजीसे बलरामजीका जन्म हुआ।
देवकीके आठवें पुत्रके रूपमें स्वयं भगवान् ने अवतार लिया। योगमायाके प्रभावसे कारागारके द्वार खुल गये। वसुदेवजी रातमें ही अपने कुमारको गोकुलमें नन्दजीकी पत्नी यशोदाजीके पलंगपर रख आये और उसी रात उत्पन्न हुई यशोदाजीकी कन्या उठा लाये। कंस जब इस कन्याको पटककर मारने चला, तब कन्या हाथसे छूटकर आकाशमें चली गयी। अष्टभुजा देवीके रूपमें प्रकट होकर उसने कंससे कहा—‘तेरा मारनेवाला कहीं पैदा हो गया है।’
कंसने उसी दिन राक्षसोंको नवजात शिशुओंको मारनेकी आज्ञा दी। उसकी आज्ञासे राक्षसी पूतना शिशु-हत्या करती घूमती हुई एक दिन सुन्दर नारीवेष बनाकर स्तनोंमें विष लगाये गोकुल नन्दभवन पहुँची। वह दूध पिलानेके बहाने श्रीकृष्णचन्द्रको मार डालना चाहती थी। श्रीकृष्णने दूधके साथ उसके प्राण भी पी लिये। पूतना मर गयी।
कंसका भेजा शकटासुर राक्षस अदृश्यरूपसे छकड़ेमें आ घुसा था। माताने उसी छकड़ेके नीचे श्रीकृष्णको सुला दिया था। राक्षस छकड़ा दबाकर उन्हें मार डालना चाहता था, परंतु श्यामने अपने नन्हें चरण उछालकर छकड़ेको गिरा दिया। छकड़ा उलट गया, टूट गया और राक्षस तो समाप्त ही हो गया।
कंसका भेजा दैत्य तृणावर्त बवंडरके रूपमें आया और श्यामको आकाशमें उड़ा ले गया, किंतु कन्हाईने उसका गला दबा दिया। राक्षस स्वयं मरकर गिर पड़ा।
एक बार जब लड़कोंने कहा—‘मोहनने मिट्टी खायी है’ और माता यशोदा उन्हें डाँटने लगीं, तब श्यामने मुख खोलकर अपने मुखमें ही उन्हें पूरा ब्रह्माण्ड दिखा दिया। एक बार घरमें दहीका मटका फोड़कर कन्हाई चोरीसे बंदरोंको मक्खन खिला रहे थे। माताने उन्हें पकड़ लिया और ऊखलसे बाँधने लगीं; किंतु रस्सी बार-बार दो अंगुल छोटी हो जाती थी। किंतु माताका परिश्रम देखकर श्रीकृष्ण स्वयं बँध गये और जब माता घरके काममें लग गयीं, तब ऊखल घसीटते हुए वे द्वारपर लगे यमलार्जुन वृक्षोंके बीचसे निकलकर उनमें ऊखल अड़ाकर खींचने लगे। इससे वे दोनों वृक्ष जड़से उखड़कर गिर पड़े। बात यह है कि कुबेरके पुत्र नल-कूबर और मणिग्रीव एक बार स्त्रियोंके साथ नंगे होकर शराबके नशेमें चूर स्नान कर रहे थे। देवर्षि नारदके उधरसे निकलनेपर भी उन्होंने न वस्त्र पहने, न प्रणाम किया। इससे नारदजीने उन्हें वृक्ष होनेका शाप दे दिया। वे दोनों गोकुलमें अर्जुन वृक्ष हो गये। जब श्रीकृष्णने वृक्षोंको उखाड़ दिया, तब दोनों फिर देवता होकर अपने लोकको चले गये।
गोकुलमें बार-बार उत्पात होते देखकर नन्दजी गोपोंके साथ वहाँसे नन्दगाँवमें आ बसे। वहाँ भी कंसके कई राक्षस आये। सबसे पहले वत्सासुर बछड़ा बनकर आया था, जिसे श्रीकृष्णने पैर पकड़कर पटककर मार दिया। फिर बकासुर बगुला बनकर आया, श्यामने उसकी चोंच पकड़कर चीर डाला उसे। अघासुर तो बड़ा भारी अजगर ही बनकर आया था। गोपबालक तथा बछड़े उसके मुखको गुफा समझकर उसमें चले भी गये थे। श्रीकृष्णचन्द्र भी उन्हें बचाने उसके मुखमें गये और अपना शरीर इतना बढ़ा लिया कि असुरकी श्वास ही रुक गयी। प्राणवायु रुकनेसे उसका मस्तक फट गया और वह मर गया।
मय दानवका पुत्र व्योमासुर गोपबालक बनकर गोपकुमारोंमें आ मिला था। वह खेलमें छलपूर्वक गोपबालकोंको ले जाकर गुफामें बंद कर देता था। श्रीकृष्णचन्द्रने उसे पकड़ लिया तथा घूसे-थप्पड़ोंसे ही मार डाला। कंसका भेजा प्रलम्बासुर भी गोपबालक बनकर ही आया था। वह खेलमें बलरामजीको पीठपर बैठाकर मथुरा भाग जाना चाहता था; किंतु बलरामजीके एक ही घूसेसे उसकी कपालक्रिया हो गयी। तालवनमें धेनुक नामका असुर गधेके रूपमें अपने परिवारके साथ रहता था। गोपबालकोंकी ताड़ खानेकी इच्छा जानकर दोनों भाई वहाँ गये। बलरामजीने धेनुकको पैर पकड़कर ताड़के पेड़पर दे मारा। उसके परिवारके राक्षस दौड़े आये तो उनको मारनेमें श्याम भी बड़े भाईकी सहायतामें जुट गये। कंसका भेजा असुर अरिष्टासुर साँड़ बनकर आया था। उसे श्रीकृष्णने जब मार दिया, तब सबसे अन्तमें केशी राक्षस आया घोड़ा बनकर। कन्हाईने उसके मुखमें अपनी भुजा डाल दी। वह भुजा इतनी बढ़ी कि केशीका शरीर ककड़ीके समान फट गया।
कुबेरका सेवक शंखचूड़ नामका यक्ष घूमता हुआ वृन्दावन आ गया था। उसने वनमें क्रीड़ा करती गोपियोंको पकड़ लिया और उन्हें लेकर भागा। किंतु गोपियोंकी पुकार सुनकर श्यामसुन्दर दौड़ पड़े। कुछ ही दूर जाकर यक्षका सिर एक घूसेसे उन्होंने चूर्ण कर दिया।
एक बार गोप अम्बिकावनकी यात्रा करने गये। वहाँ रात्रिमें सोते समय नन्दबाबाको एक अजगरने पकड़ लिया और निगलने लगा। गोपोंद्वारा मशालोंसे जलाये जानेपर भी जब उसने व्रजराजको नहीं छोड़ा, तब श्रीकृष्णने आकर उसे चरणसे मारा। उनका चरण-स्पर्श होते ही अजगरका शरीर छूट गया। वह देवरूप धारण करके स्वर्ग चला गया। इसी प्रकार एक बार नन्दबाबा एकादशीके व्रतके बाद भ्रमसे रात्रिमें ही सबेरा हुआ समझकर यमुनामें स्नान करने घुसे। एक वरुणका सेवक उन्हें वरुणलोक पकड़ ले गया। पिताके डूबनेकी बात सुनकर श्रीकृष्णचन्द्र यमुनामें कूद पड़े और वरुणलोक जाकर बाबाको ले आये।
यमुनाजीमें सौ फनोंवाला कालियनाग रहता था। उसके विषसे वहाँका यमुनाजल विषैला हो गया था। खेल-ही-खेलमें श्यामसुन्दर ह्रदमें कूद पड़े। एक बार तो कालियने उन्हें अपने शरीरसे लपेट लिया; किंतु कुछ देरमें वे उसके बन्धनसे छूट गये। कूदकर वे सर्पके फनपर खड़े हो गये और एकसे दूसरे फनपर कूदकर नृत्य करने लगे। कालियके फन चिथड़े हो गये। अन्तमें उसने भगवान् को पहचानकर क्षमा माँगी। श्रीकृष्णकी आज्ञासे कालिय परिवारके साथ समुद्रमें चला गया।
देवराज इन्द्रका गर्व नष्ट करनेके लिये श्रीकृष्णचन्द्रने गोपोंको इन्द्रका यज्ञ करनेसे रोक दिया और गिरिराज गोवर्धनकी पूजा करायी। इससे क्रोधमें आकर इन्द्रने व्रजपर प्रलय-वर्षा प्रारम्भ कर दी। श्रीकृष्णचन्द्रने गोवर्धन पर्वतको उठाकर बायें हाथकी छोटी अँगुलीपर रख लिया और सात दिन-रात खड़े रहे। पर्वतके नीचे पूरे व्रजके लोग सुरक्षित थे। अन्तमें सात दिन-रात वर्षा करके इन्द्र हार गये। वर्षा बन्द हो गयी। श्यामसुन्दरने पर्वत यथास्थान रख दिया। इन्द्रने आकर भगवान् से क्षमा माँगी।
व्रजकी बालिकाएँ चाहती थीं कि हमारे पति श्रीकृष्ण ही हों। इसके लिये वे मार्गशीर्ष महीनेमें प्रातःकाल यमुनास्नान करके देवीकी पूजा करती थीं। जिस दिन महीना पूरा हुआ, उस दिन आकर श्यामसुन्दर उनके वस्त्र लेकर कदम्बपर जा चढ़े। पीछे जब मोहनके कहनेपर वे सब जलसे बाहर आ गयीं, उनके वस्त्र लौटाकर श्यामने वर्षभर बाद उनके साथ रास करनेका वचन दिया। एक वर्ष बाद शरद्-ऋतुकी पूर्णिमाको उन्होंने उनके साथ वृन्दावनमें रास-क्रीड़ा की।
उधर जब कंसका भेजा केशी भी श्रीकृष्णके हाथों मारा गया, तब कंसने अक्रूरको बलराम-श्यामको मथुरा बुलाने भेजा। दोनों भाई मथुरा आये। पहले ही दिन श्रीकृष्णचन्द्रने कंसके धोबीको मार दिया, उसके धनुषको तोड़ दिया। दूसरे दिन अखाड़ेके द्वारपर कुवलयापीड़ हाथीको मारकर दोनों भाई अखाड़ेमें प्रविष्ट हुए। बलरामजीसे मल्लयुद्धमें मुष्टिक और श्यामके द्वारा चाणूर मारा गया। श्रीकृष्णने ऊँचे मंचपर बैठे बकवाद करते कंसके केश पकड़कर उसे नीचे पटककर मार दिया। मथुराका राज्य फिर उग्रसेनजीको मिला। वसुदेव-देवकी अपने पुत्रोंको पाकर आनन्दमग्न हो गये।
श्याम-बलरामने उज्जैन जाकर सांदीपनि ऋषिसे शिक्षा प्राप्त की और समुद्रमें डूबकर मरे हुए उनके पुत्रको यमलोकसे लाकर गुरुदक्षिणामें दिया। अपने जामाता कंसके मारे जानेसे रुष्ट मगधराज जरासंध बार-बार मथुरापर आक्रमण कर रहा था। सत्रह बार वह पराजित हुआ; किंतु अठारहवीं बार नरनाटॺ करते श्रीकृष्णचन्द्र उसके सामनेसे भाग खड़े हुए। मथुरा सूनी पड़ी थी। समुद्रमें द्वारिका बसाकर मथुराके लोगोंको वहाँ पहले ही लीलामय भेज चुके थे। जरासंधसे पहले ही आकर कालयवन मारा जा चुका था। जरासंध अपनेको विजयी मानकर भले लौटे, उसके हाथ लगना कुछ नहीं था।
द्वारिका पहुँचनेपर ब्रह्माजीके आदेशसे महाराज रैवतने अपनी पुत्री रेवतीका विवाह बलरामजीसे कर दिया और श्रीकृष्णचन्द्रके विवाहोंका क्रम प्रारम्भ हो गया। जरासंध आदि शिशुपालके सहायकोंका मान-मर्दन करके वे रुक्मिणीजीको हर लाये। सत्राजित् ने स्वयं अपनी पुत्री सत्यभामाका उनसे विवाह कर दिया; क्योंकि सूर्यसे प्राप्त स्यमन्तक मणिके हरणका जो झूठा कलंक उसने श्रीकृष्णपर लगाया था, उस दोषका मार्जन करनेके लिये वह उन्हें अपना जामाता बना लेनेको उत्सुक था। जाम्बवतीजी तो इस स्यमन्तक-प्रसंगका उपहार ही थीं। स्यमन्तककी खोजमें जानेपर सत्राजित् का भाई सिंहद्वारा मारा गया—यह खोज मिली, सिंह आगे मरा पड़ा मिला और उसे मारनेवालेकी खोज करते श्रीकृष्णचन्द्र ऋक्षराज जाम्बवन्तकी गुफामें पहुँच गये। पहले तो जाम्बवन्तजीने आक्रमण ही कर दिया। पेड़, पत्थर और वे न रहे तो घूसोंसे ही युद्ध चलता रहा, अविराम रात-दिन पूरे अट्ठाईस दिन। किंतु अन्तमें जाम्बवन्तजीका शरीर पिस-सा उठा। अपने आराध्यको उन्होंने पहचान लिया। क्षमा माँगी और अपनी पुत्री जाम्बवती भेंट कर दी।
इस संग्रहके पदोंमें यहींतकके चरितोंकी कहीं-कहीं चर्चा हुई है। पूरा श्रीकृष्ण-चरित तो यहाँ देना कठिन ही है। जाम्बवतीजीके अतिरिक्त कालिन्दी, मित्रविन्दा, भद्रा, लक्ष्मणा तथा सत्या—ये मुख्य पटरानियाँ उनकी थीं। भौमासुरको मारकर उसके यहाँसे सोलह सहस्र राजकुमारियोंका उन्होंने उद्धार किया। उनका भी पाणिग्रहण करना आवश्यक ही था, इसके बिना उनका उद्धार कुछ अर्थ ही नहीं रखता!
दन्तवक्त्र, विदूरथ, पौण्ड्रक, शाल्व, द्विविद आदि असुरोंसे पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये ही जिनका अवतार हुआ था, वे असुरोंका संहार तो करते ही। कुछका उन्होंने किया, कुछका उनके बड़े भैयाने। महाभारतका संग्राम उनकी भू-भार-हरणकी क्रीड़ा ही तो थी। अपार तथा अचिन्त्य हैं उन लीलामयके चरित।

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