०७ परिशिष्ट

पदोंमें आये हुए मुख्य कथा-प्रसंग

अनुवाद (हिन्दी)

कैकेयीको वरदान—
महाराज दशरथ एक बार देवराज इन्द्रकी सहायता करने स्वर्ग गये थे। वहाँ असुरोंसे वे युद्ध कर रहे थे। रानी कैकेयी भी उनके साथ थी। युद्धमें शत्रुका बाण लगनेसे महाराज दशरथके रथका धुरा टूट गया। रानी कैकेयीने इसे देख लिया और तुरंत रथसे कूदकर धुरेके स्थानपर अपना हाथ लगा दिया। युद्धमें उलझे महाराजको इसका कुछ पता नहीं लगा। युद्ध समाप्त होनेपर उन्होंने रानीका रक्तसे लथपथ हाथ देखा। रानी कैकेयीके साहस और सहायतासे प्रसन्न होकर महाराजने उनसे कोई भी दो वरदान माँग लेनेको कहा। रानीने उस समय कहा—‘जब कभी आवश्यकता होगी, तब माँग लूँगी।’ श्रीरामके राज्याभिषेककी जब महाराजने तैयारी की, तब इन्हीं दोनों वरदानोंको स्मरण दिलाकर उन्होंने भरतके लिये राज्य और श्रीरामके लिये चौदह वर्षका वनवास माँगा।
अहल्या-उद्धार—
गौतम ऋषिकी पत्नी अहल्याके सौन्दर्यपर इन्द्र मोहित हो गये थे। एक रात्रिमें भ्रमवश सबेरा हुआ समझकर ऋषि स्नान-संध्या करने नदी-किनारे चल पड़े। उसी समय इन्द्र गौतमका रूप धारण करके अहल्याके पास आये और अहल्याको धोखा देकर उनका सतीत्व नष्ट किया। इधर महर्षि गौतमको मार्गमें ही अपनी भूलका पता लग गया। रात्रि अधिक है, यह जानकर वे लौट पड़े। आश्रमपर आकर इन्द्रको देखकर और सब रहस्य जानकर उन्होंने इन्द्रको सहस्र भग होनेका तथा अहल्याको पत्थर हो जानेका शाप दे दिया। पीछे क्रोध शान्त होनेपर उन्होंने इन्द्रको कहा—‘तुम्हारे भग पीछे नेत्र बन जायँगे।’ अहल्याको बताया कि श्रीरामकी चरणधूलि पाकर वह पुनः स्त्री होकर ऋषिके पास तपोलोकमें आ जायगी। महर्षि विश्वामित्रकी यज्ञ-रक्षा करके जनकपुर जाते हुए श्रीराम गौतमजीके आश्रममें पहुँचे। उस निर्जन आश्रम और स्त्रीके आकारकी शिलाका भेद विश्वामित्रजीसे जानकर अपने चरणोंसे उन्होंने शिला बनी अहल्याको छू दिया; जिससे वह शापमुक्त होकर फिर नारी हो गयी और अपने पतिके लोकको चली गयी।
बालि-त्रास—
एक बार बालिका दुन्दुभि नामके राक्षससे युद्ध हुआ। बालिने उस राक्षसको मारकर ऋष्यमूक पर्वतपर फेंक दिया। राक्षसके शरीरसे निकले रक्तसे उस पर्वतपर रहनेवाले एक ऋषिका आश्रम अपवित्र हो गया। इससे क्रोधित होकर ऋषिने शाप दे दिया कि यदि बालि फिर इस पर्वतपर आयेगा तो उसकी मृत्यु हो जायगी। इस शापके भयसे वानरराज बालि उस पर्वतपर नहीं जाता था।
पहले बालि और सुग्रीव इन दोनों भाइयोंमें बड़ी मित्रता थी। एक दिन मयके पुत्र मायावी राक्षसने किष्किन्धा आकर बालिको युद्धके लिये ललकारा। बालि उसके पीछे दौड़ा तो राक्षस भागकर एक गुफामें घुस गया। सुग्रीव भी भाईके साथ ही आये थे। बालिने उन्हें एक पक्ष प्रतीक्षा करनेको कहा और स्वयं गुफामें घुस गया। सुग्रीव महीनेभर वहीं प्रतीक्षा करते रहे; किंतु जब गुफासे बड़ी भारी रक्तधारा निकली, तब उन्होंने समझा कि राक्षसने बालिको मार दिया है। इससे गुफाद्वारपर चट्टान रखकर वे किष्किन्धा भाग आये। मन्त्रियोंने बालिको मरा समझकर सुग्रीवको राजा बना दिया। राक्षसको मारकर बालि जब लौटा, तब सुग्रीवको राजसिंहासनपर बैठे देखकर उसे बड़ा क्रोध आया। उसने सुग्रीवकी स्त्री, घर आदि सब छीन लिया और उन्हें भी मारनेके लिये दौड़ा। भयभीत सुग्रीव चारों ओर भागते फिरे। अन्तमें वे ऋष्यमूक पर्वतपर आकर रहने लगे; क्योंकि वहाँ बालि शापके भयसे नहीं आता था।
सप्त-ताल—
किसी समय बालिने तालके सात फल एकत्र किये। उन्हें रखकर वह स्नान करने पम्पा-सरोवरमें गया। लौटनेपर उसने देखा कि उन फलोंपर एक सर्प बैठा है। अपने फलोंके दूषित हो जानेसे बालिने क्रोधमें आकर उस सर्पको शाप दिया—‘ये सातों ताल तेरे शरीरको फोड़कर उगेंगे।’ जब नागमाताको इस बातका पता लगा, तब अपने पुत्रकी मृत्युसे दुःखी होकर उन्होंने बालिको शाप दिया—‘जो एक बाणसे इन ताल-वृक्षोंको काट देगा, उसीके द्वारा तू मारा जायगा।’ श्रीरामके मिलनेपर उनसे सुग्रीवने यह कथा सुनायी। सुग्रीवको अपने पराक्रमका विश्वास दिलानेके लिये श्रीरामने एक ही बाणसे उन सातों तालके वृक्षोंको काट दिया।
बालि-वध—
श्रीरामने सुग्रीवको बालिसे युद्ध करने भेजा। सुग्रीवकी ललकार सुनकर बालि भी क्रोधमें भरा युद्ध करने आ गया। एक बार तो बालिका घूँसा खाकर सुग्रीव व्याकुल होकर भाग खड़े हुए; किंतु प्रभुने उनके गलेमें पहचानके लिये पुष्पोंकी माला पहनाकर फिर भेजा। मल्लयुद्धमें जब सुग्रीव थकने लगे, तब श्रीरामने बालिके हृदयमें बाण मार दिया। जब प्रभु सम्मुख आये—बालिने पहले तो उन्हें प्रेमभरा उलाहना दिया, फिर विनम्र हो गया। श्रीरामने बालिको वैकुण्ठ भेज दिया। बालिके मरनेपर किष्किन्धाका राज्य सुग्रीवको प्रभुने दिया और बालिकुमार अंगदको उनका युवराज बनाया।
सुरसा—
नागोंकी माताका नाम सुरसा है। श्रीहनुमान् जी सीताकी खोजमें जब लंका जाने लगे, तब देवताओंने यह जाननेके लिये कि लंका जाकर वे सफल हो सकें इतना बल तथा बुद्धि उनमें है या नहीं, सुरसाको उनकी परीक्षा लेने भेजा। सुरसाने मार्गमें आकर उन्हें रोका और बोली—‘मुझे भूख लगी है। मैं तुम्हें खाऊँगी।’ पहले तो हनुमान् जी ने प्रार्थना की—‘मुझे श्रीरामका कार्य करके लौट आने दो और प्रभुको श्रीजानकीका समाचार दे लेने दो, तब खा लेना।’ फिर भी जब सुरसा इसपर राजी न हुई तब बोले—‘अच्छा खा लो।’ सुरसा जितना मुख फैलाती थी, हनुमान् जी उससे दुगुना बड़ा अपना शरीर कर लेते थे। अन्तमें जब सुरसाने सौ योजन-जितना मुख फैलाया, तब हनुमान् जी बहुत छोटे हो गये और झटसे उसके मुखमें जाकर फिर निकल आये। उगले हुएको तो कोई खाता नहीं। हनुमान् जी की बुद्धि और बल देखकर सुरसाने उन्हें आशीर्वाद दिया और चली गयी।
रावणको नलकूबरका शाप—
स्वर्गकी अप्सरा रम्भा एक दिन शृंगार करके कुबेरके पुत्र नलकूबरके पास जा रही थी। मार्गमें रावण मिला, रम्भाके रूपपर मुग्ध होकर उसे रावणने पकड़ लिया। रम्भाने कहा—‘कुबेर आपके बड़े भाई हैं। उनके पुत्र नलकूबरके पास आज जानेका मैं वचन दे चुकी हूँ। आज मैं आपकी पुत्रवधूके समान हूँ, अतः मुझे छोड़ दें।’ किंतु रावणने उसकी बात स्वीकार नहीं की। रम्भाके साथ उसने बलात्कार किया। जब यह समाचार नलकूबरको मिला, तब उन्होंने शाप दिया—‘अबसे रावण यदि किसी भी स्त्रीकी इच्छाके विरुद्ध उससे बलात्कार करेगा या उसे अपने राजभवनमें रखेगा तो तुरंत उसकी मृत्यु हो जायगी।’
कागके नेत्र फोड़ना—
एक दिन वनमें श्रीराम श्रीजानकीजीकी जंघापर मस्तक रखकर सो रहे थे। इन्द्रका पुत्र जयन्त कौएका रूप बनाकर वहाँ आया। उस दुष्टने चोंच तथा पंजेसे श्रीजानकीजीके अंगमें चोट की। श्रीजानकीके अंगसे रक्तकी बूँदें गिरने लगीं, जिससे श्रीराम जग गये। क्रोध करके उन्होंने एक तिनकेको ब्रह्मास्त्रसे अभिमन्त्रित करके कौएकी ओर फेंका। उस मन्त्रप्रेरित बाणके भयसे जयन्त अपने पिता इन्द्र, ब्रह्मा, शंकरजी तथा सभी लोकपालोंके यहाँ दौड़ता फिरा; किंतु किसीने उसे शरण नहीं दी। वह बाण उसके पीछे बराबर लगा रहा। अन्तमें देवर्षि नारदके कहनेसे वह श्रीरामकी ही शरणमें आया। भगवान् श्रीरामने उसका एक नेत्र उस बाणसे फोड़कर—उसे छोड़ दिया।
बालिद्वारा रावणका पकड़ा जाना—
रावण जब दिग्विजय करता हुआ किष्किन्धा पहुँचा, तब वानरराज बालि संध्या कर रहा था। रावणने बालिको युद्धके लिये ललकारा। बालिने कुछ देर प्रतीक्षा करनेको कहा; किंतु जब रावणने उतावली दिखायी, तब बालिने उसे पकड़कर अपनी काँखमें (भुजाके नीचे) दबा लिया। छः महीने रावण वहीं दबा रहा। इसके बाद एक दिन अवसर पाकर वह निकल भागा; किंतु फिर बालिने उसे दौड़कर पकड़ लिया और अपने शिशु पुत्र अंगदके पलनेमें लाकर बाँध दिया। शिशु अंगद उसे खेल-खेलमें थप्पड़ों और पैरोंसे मारते थे। पुलस्त्य मुनिके कहनेसे बालिने रावणको छोड़ा।
बलिके साथ छल—
दैत्यराज बलिने आचार्य शुक्रकी कृपासे देवताओंको जीतकर स्वर्गपर अधिकार कर लिया था। उनका अधिकार पक्का करानेके लिये शुक्राचार्य उनसे सौ अश्वमेध यज्ञ करा रहे थे। उनमेंसे निन्यानबे यज्ञ हो चुके थे। सौवें यज्ञके समय देवमाता अदितिकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवान् ने उनके यहाँ वामनरूपसे अवतार लिया। वामनभगवान् राजा बलिके यज्ञमें आये और बलिसे उन्होंने अपने पैरसे तीन पद भूमि माँगी। बलिने जब भूमि-दानका संकल्प कर लिया, तब भगवान् ने वामनरूप छोड़कर विराट् रूप धारण करके एक पैरसे सारी पृथ्वी और दूसरे पैरसे स्वर्गादि सब लोक नाप लिये। तीसरे पैरके बदले बलिने अपना शरीर दे दिया। भगवान् ने तीसरा पैर बलिके मस्तकपर रखा। बलिसे छीनकर स्वर्गका राज्य तो भगवान् ने इन्द्रको दे दिया; किंतु बलिको सुतललोकका राजा बनाया और यह वरदान दिया कि स्वयं वे सदा बलिके द्वारपर गदा लिये द्वारपालके रूपमें खड़े रहेंगे तथा सावर्णिमन्वन्तरमें बलिको इन्द्र बनायेंगे।
हिरण्यकशिपुकी वरदान-प्राप्ति और वध—
दैत्यराज हिरण्यकशिपुने सहस्रों वर्षतक कठोर तपस्या करके ब्रह्माजीसे यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि वह ब्रह्माजीकी सृष्टिके किसी प्राणीके द्वारा नहीं मारा जायगा। इतना ही नहीं, वह न पृथ्वीपर मरेगा, न आकाशमें, न अस्त्र-शस्त्रसे मारा जायगा, न घरके भीतर या बाहर मारा जायगा, न दिनमें मारा जायगा, न रातमें, किसी मनुष्य या पशुसे भी नहीं मारा जायगा। यह वरदान पाकर वह अजेय हो गया। इन्द्रादि सभी देवताओंको जीतकर उसने स्वर्गपर अधिकार कर लिया। त्रिलोकीका स्वामी बनकर उसने यज्ञ, दान तथा भगवान् की पूजातक बंद करा दी। भगवान् का वह शत्रु बन गया। उसके पुत्र प्रह्लादजी भगवान् के परम भक्त थे। प्रह्लादसे भगवान् की भक्ति छुड़वानेके लिये हिरण्यकशिपुने उन्हें नाना प्रकारसे डराया-धमकाया; किंतु जब प्रह्लादजीने भगवान् की भक्ति नहीं छोड़ी, तब वह उनको मार डालनेके तरह-तरहके उपाय करने लगा। भगवान् ने उसके सब उत्पातोंसे प्रह्लादकी रक्षा की। अन्तमें जब वह स्वयं प्रह्लादको मारनेके लिये तलवार लेकर उठा, तब भगवान् पत्थरका खम्भा फाड़कर प्रकट हो गये। भगवान् का वह शरीर गलेसे नीचे मनुष्यका था और गलेसे ऊपर सिंहका। नृसिंहभगवान् ने झपटकर हिरण्यकशिपुको पकड़ लिया और संध्याके समय राजसभाकी बाहरी चौखटपर ले जाकर अपनी जाँघोंपर उसे पटककर नखसे उसका पेट फाड़ दिया।
जय-विजयको शाप—
ब्रह्माजीके चारों मानसपुत्र सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार सदा पाँच वर्षके बालककी अवस्थामें रहते हैं। वे एक बार भगवान् विष्णुका दर्शन करने वैकुण्ठ गये। वैकुण्ठकी छः डॺोढ़ियोंको पारकर जब वे सातवें द्वारमें जाने लगे, तब जय और विजय नामके भगवान् के द्वारपालोंने नंग-धड़ंग बालकोंको बिना पूछे भीतर जाते देखकर मार्गमें बेंत अड़ाकर रोक दिया। इससे क्रोधमें आकर इन कुमारोंने उन द्वारपालोंको शाप दिया—‘तुमलोग तीन जन्मतक राक्षस होते रहो और वहाँ भगवान् से शत्रुता करके उनके द्वारा ही मारे जाओ।’ इसी शापसे जय-विजय पहले जन्ममें हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष हुए , दूसरे जन्ममें रावण तथा कुम्भकर्ण और तीसरे जन्ममें शिशुपाल और दन्तवक्त्र हुए।
रावणके सिर शिव-निर्माल्य हैं?—
रावणने भगवान् शंकरकी पूजा करते समय यज्ञकुण्डमें अपने मस्तक काट-काटकर शंकरजीके निमित्त हवन कर दिया। भगवान् शंकरकी कृपासे उसके फिर सिर आ गये। शंकरजीको चढ़ाये होनेसे रावण अपने सिरोंको शिव-निर्माल्य मानता था।
रावण नाम कैसे पड़ा?—
एक बार रावण विमानपर बैठा कैलासके ऊपरसे जाने लगा। नन्दीश्वरके रोकनेपर भी जब वह नहीं माना, तब नन्दीश्वरने उसके विमानकी गति रोक दी। इससे क्रोधमें आकर रावण विमानसे उतर पड़ा और पूरे कैलास-पर्वतको उसने उखाड़कर अपने कंधोंपर रख लिया। वह कैलासको उठाकर फेंक देना चाहता था; किंतु भगवान् शंकरने पर्वतको अँगूठेसे दबा दिया, इससे रावण पर्वतके नीचे दबकर चिल्लाने लगा। सहस्र वर्षतक पर्वतके नीचे दबे रोते हुए वह शंकरजीकी स्तुति करता रहा। इससे कृपा करके शंकरजीने उसे पर्वतके नीचेसे निकलने दिया और बोले—‘तुम इतने दिनोंतक रोते रहे हो और सारे विश्वको अपने अत्याचारसे रुलानेवाले होगे, इसलिये तुम्हारा नाम रावण होगा।’
महाराज सगर और सागर—
महाराज सगर अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। उनके यज्ञका घोड़ा चुराकर इन्द्रने पातालमें कपिल मुनिके आश्रममें छोड़ दिया। महाराजने अपने साठ हजार पुत्रोंको घोड़ेका पता लगाने भेजा। जब पृथ्वीपर घोड़ा कहीं नहीं मिला, तब राजा सगरके वे पुत्र पृथ्वीको खोदने लगे और चारों ओरसे पातालतक खोद डाले। सगरपुत्रोंके खोदे स्थानमें जल भरे होनेसे ही समुद्र सागर कहा जाता है। भगवान् श्रीरामके महाराज सगर पूर्वपुरुष (पूर्वज) थे। सगरके पुत्रोंसे खोदा सागर महाराज सगरका पौत्र ही हुआ—अतः वह भी हमारा पूर्वज है, यह मानकर श्रीराम सागरसे मार्ग देनेकी प्रार्थना कर रहे थे।
महिरावण—
लंकासे बहुत दूरके द्वीपमें एक सहस्र भुजाओंवाला रावण रहता था। उसका नाम महिरावण था। ब्रह्माजीने उसे वरदान दिया था कि वह किसी पुरुषद्वारा नहीं मारा जायगा। राज्याभिषेकके बाद श्रीरामने उसपर चढ़ाई की; किंतु वह इतना बलवान् था कि उसके साथ युद्ध करनेमें सारी सेना तथा भाइयोंके साथ श्रीरघुनाथजी मूर्च्छित होकर युद्धभूमिमें गिर पड़े। अन्तमें हनुमान् जी के द्वारा समाचार पाकर स्वयं सीताजी वहाँ गयीं और महाकालीरूप धारण करके उन्होंने महिरावणका वध किया।
पम्पासरोवरकी शुद्धि—
मतंग ऋषिके आश्रमके आस-पासके मुनि नीच जाति समझकर शबरीजीका तिरस्कार करते थे। शबरीजी बड़े अँधेरे ही उठकर पम्पासरोवरका मार्ग तथा घाट स्वच्छ कर दिया करती थीं। मुनियोंमेंसे एकने किसी दिन छिपकर देखा कि कौन नित्य मार्ग स्वच्छ करता है। शबरीजीको देखकर उन मुनिने उनको बहुत डाँटा और उनका तिरस्कार किया। किंतु जैसे ही वे मुनि महाराज पम्पासरोवरमें स्नान करने घुसे, उनका स्पर्श होते ही सरोवरका जल विकृत हो गया। जलमें कीड़े पड़ गये और उससे दुर्गन्ध आने लगी। जब श्रीरघुनाथजी सीताजीका अन्वेषण करते हुए शबरीजीके आश्रममें पहुँचे, तब मुनियोंने एकत्र होकर पम्पासरोवरके जलके दोषको दूर कर देनेकी प्रार्थना की। श्रीरामने कहा—‘परम भक्ता शबरीजीका अपमान करनेसे सरोवरका जल विकृत हो गया है। उनका चरण जलमें पड़े तो जल स्वच्छ हो जायगा।’ मुनियोंके आग्रहसे शबरीजीने सरोवरमें स्नान किया। जलमें उनके चरण रखते ही सरोवरका जल दुर्गन्धरहित और निर्मल हो गया।
महर्षि अगस्त्यद्वारा समुद्र-पान—
बहुत-से दैत्य समुद्रके जलमें छिपे रहते थे। वे अवसर पाकर निकलते और संसारमें उत्पात करके फिर जलमें छिप जाते थे। देवराज इन्द्रने महर्षि अगस्त्यसे प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना स्वीकार करके अगस्त्यजी तीन अंजलिमें ही पूरे समुद्रका जल पी गये। जल सूख जानेपर इन्द्रने उन सब असुरोंको मार डाला। देवताओंने समुद्रको फिर भर देनेकी प्रार्थना की; किंतु अगस्त्यजीने कहा—‘वह जल तो मेरे उदरमें पच गया।’ पीछे भगवान् ने कृपापूर्वक समुद्रको जलसे पूर्ण किया।

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