सिन्धु-तटवास
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(११०)
सीय-सुधि सुनत रघुबीर धाए।
चले तब लखन, सुग्रीव, अंगद, हनू,
जामवँत, नील, नल सबै आए॥
भूमि अति डगमगी, जोगिनी सुनि जगी,
सहस-फन सेस कौ सीस काँप्यौ।
कटक अगिनित जुरॺौ, लंक खरभर परॺौ,
सूर कौ तेज धर-धूरि-ढाँप्यौ॥
जलधि-तट आइ रघुराइ ठाढ़े भए ,
रिच्छ-कपि गरजि कै धुनि सुनायौ।
‘सूर’ रघुराइ चितए हनूमान दिसि,
आइ तिन तुरतहीं सीस नायौ॥
मूल
(११०)
सीय-सुधि सुनत रघुबीर धाए।
चले तब लखन, सुग्रीव, अंगद, हनू,
जामवँत, नील, नल सबै आए॥
भूमि अति डगमगी, जोगिनी सुनि जगी,
सहस-फन सेस कौ सीस काँप्यौ।
कटक अगिनित जुरॺौ, लंक खरभर परॺौ,
सूर कौ तेज धर-धूरि-ढाँप्यौ॥
जलधि-तट आइ रघुराइ ठाढ़े भए ,
रिच्छ-कपि गरजि कै धुनि सुनायौ।
‘सूर’ रघुराइ चितए हनूमान दिसि,
आइ तिन तुरतहीं सीस नायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीसीताजीका समाचार पाकर श्रीरघुनाथजी (लंकापर) चढ़ दौडे़। उनके पीछे-पीछे लक्ष्मणजी, सुग्रीव, अंगद, हनुमान् , जाम्बवान् , नील, नल आदि भी चले—सारी वानरसेना उनके साथ आयी। (उस दलके चलनेसे) भूमि डगमगाने (हिलने लगी)। सहस्र फणवाले शेषनागका मस्तक काँपने लगा, योगिनियाँ कोलाहल सुनकर (युद्धकी आशासे) सजग हो गयीं। गणना न हो सके, इतनी सेना एकत्र हुई। (इस समाचारसे) लंकामें खलबली मच गयी। (सेनाके चलनेसे उड़ी हुई) पृथ्वीकी धूलिने सूर्यको ढक दिया। श्रीरघुनाथजी समुद्रके किनारे आकर खड़े हुए। रीछ और वानर गर्जनाका शब्द करने लगे। सूरदासजी कहते हैं—उस समय श्रीरघुनाथजीने हनुमान् जी की ओर देखा, (और) उन्होंने तुरंत (प्रभुके) पास आकर मस्तक झुकाकर प्रणाम किया।
हनुमंत-वचन
विषय (हिन्दी)
राग केदार
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१११)
राघौ जू! कितिक बात, तजि चिंत।
केतिक रावन-कुंभकरन-दल, सुनियै देव अनंत॥
कहौ तौ लंक लकुट ज्यौं फेरौं, फेरि कहूँ लै डारौं।
कहौ तौ परबत चाँपि चरन तर, नीर-खार मैं गारौं॥
कहौ तौ असुर लँगूर लपेटौं, कहौ तौ नखनि बिदारौं।
कहौ तौ सैल उपारि पेड़ि तैं, दै सुमेरु सौं मारौं॥
जेतिक सैल-सुमेरु धरनि मैं, भुज भरि आनि मिलाऊँ।
सप्त समुद्र देउँ छाती तर, एतिक देह बढ़ाऊँ॥
चली जाउ सैना सब मोपर, धरौ चरन रघुबीर।
मोहि असीस जगत-जननी की, नवत न बज्र-सरीर॥
जितिक बोल बोल्यौ तुम आगैं, राम! प्रताप तुम्हारे।
‘सूरदास’ प्रभु की सौं साँचे, जन करि पैज पुकारे॥
मूल
(१११)
राघौ जू! कितिक बात, तजि चिंत।
केतिक रावन-कुंभकरन-दल, सुनियै देव अनंत॥
कहौ तौ लंक लकुट ज्यौं फेरौं, फेरि कहूँ लै डारौं।
कहौ तौ परबत चाँपि चरन तर, नीर-खार मैं गारौं॥
कहौ तौ असुर लँगूर लपेटौं, कहौ तौ नखनि बिदारौं।
कहौ तौ सैल उपारि पेड़ि तैं, दै सुमेरु सौं मारौं॥
जेतिक सैल-सुमेरु धरनि मैं, भुज भरि आनि मिलाऊँ।
सप्त समुद्र देउँ छाती तर, एतिक देह बढ़ाऊँ॥
चली जाउ सैना सब मोपर, धरौ चरन रघुबीर।
मोहि असीस जगत-जननी की, नवत न बज्र-सरीर॥
जितिक बोल बोल्यौ तुम आगैं, राम! प्रताप तुम्हारे।
‘सूरदास’ प्रभु की सौं साँचे, जन करि पैज पुकारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(प्रभुके पास आकर श्रीहनुमान् जी ने कहा—) ‘श्रीरघुनाथजी! आप चिन्ता त्याग दें, यह (लंका-विजय) है कितनी बात। हे अनन्तस्वरूप देव! सुनिये, रावण, कुम्भकर्ण और उनकी सेना किस गिनतीमें है। आप आज्ञा दें तो लंकाको (उखाड़कर) डंडेकी भाँति चारों ओर घुमा दूँ और फिर घुमाकर कहीं फेंक दूँ। कहें तो त्रिकूट पर्वतको पैरोंसे दबाकर पानीके नीचे (समुद्रतलमें) गला दूँ। आप कहें तो राक्षस रावणको अपनी पूँछमें लपेट लूँ, अथवा आज्ञा दें तो उसे नखोंसे फाड़ डालूँ। आप कहें तो त्रिकूट पर्वतको जड़से उखाड़कर सुमेरुपर दे पटकूँ। पृथ्वीपर सुमेरु आदि जितने भी पर्वत हैं, सबको भुजाओंसे समेटकर यहाँ इकट्ठे कर दूँ (उनके भारसे लंकाको पीस दूँ)। अपने शरीरको इतना बढ़ा लूँ कि सातों समुद्र मेरी छातीसे नीचे रह जायँ। (फिर) श्रीरघुनाथजी! आप मेरे ऊपर चरण रख दें और सारी सेना मेरे ऊपर चलकर समुद्र पार कर ले। मुझे जगज्जननी (श्रीजानकीजी)-का आशीर्वाद प्राप्त है, (इससे) मेरा शरीर वज्रका हो गया है, वह (सेनाके भारसे) झुकेगा नहीं। श्रीरामजी! आपके सम्मुख मैंने (अभी) जो कुछ कहा है, हे स्वामी! आपकी शपथ करके आपका यह सेवक प्रतिज्ञापूर्वक कहता है कि आपके प्रतापसे वह सब सत्य है।’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(११२)
रावन-से गहि कोटिक मारौं।
जो तुम आज्ञा देहु कृपानिधि! तौ यह परिहस सारौं॥
कहौ तौ जननि जानकी ल्याऊँ, कहौ तौ लंक बिदारौं।
कहौ तौ अबहीं पैठि, सुभट हति, अनल सकल पुर जारौं॥
कहौ तौ सचिव-सबंधु सकल अरि, एकहिं-एक पछारौं।
कहौ तौ तुव प्रताप श्रीरघुबर, उदधि पखाननि तारौं॥
कहौ तौ दसौ सीस, बीसौ भुज, काटि छिनक मैं डारौं।
कहौ तौ ताकौं तृन गहाइ कै, जीवत पाइनि पारौं॥
कहौ तौ सैना चारु रचौं कपि, धरनी-ब्यौम-पतारौं।
सैल-सिला-द्रुम बरषि ब्यौम चढ़ि, सत्रु-समूह सँहारौं॥
बार-बार पद परसि कहत हौं, हौं कबहूँ नहिं हारौं।
‘सूरदास’ प्रभु तुम्हरे बचन लगि, सिव-बचननि कौं टारौं॥
मूल
(११२)
रावन-से गहि कोटिक मारौं।
जो तुम आज्ञा देहु कृपानिधि! तौ यह परिहस सारौं॥
कहौ तौ जननि जानकी ल्याऊँ, कहौ तौ लंक बिदारौं।
कहौ तौ अबहीं पैठि, सुभट हति, अनल सकल पुर जारौं॥
कहौ तौ सचिव-सबंधु सकल अरि, एकहिं-एक पछारौं।
कहौ तौ तुव प्रताप श्रीरघुबर, उदधि पखाननि तारौं॥
कहौ तौ दसौ सीस, बीसौ भुज, काटि छिनक मैं डारौं।
कहौ तौ ताकौं तृन गहाइ कै, जीवत पाइनि पारौं॥
कहौ तौ सैना चारु रचौं कपि, धरनी-ब्यौम-पतारौं।
सैल-सिला-द्रुम बरषि ब्यौम चढ़ि, सत्रु-समूह सँहारौं॥
बार-बार पद परसि कहत हौं, हौं कबहूँ नहिं हारौं।
‘सूरदास’ प्रभु तुम्हरे बचन लगि, सिव-बचननि कौं टारौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीहनुमान् जी ने दृढ़तासे कहा—) ‘हे कृपानिधान! यदि आप आज्ञा दें तो (एक तो क्या) रावण-जैसे करोड़ों राक्षसोंको पकड़कर मार दूँ—यह कार्य मैं हँसी-हँसीमें (बिना श्रमके) पूर्ण कर डालूँ। आप कहें तो श्रीजानकीजीको यहाँ ले आऊँ अथवा आज्ञा दें तो लंकाको ध्वस्त कर डालूँ। आप कहें तो अभी लंकामें जाकर सारे बलवान् राक्षसोंको मारकर पूरे नगरको अग्नि लगाकर भस्म कर दूँ। आप आज्ञा दें तो शत्रुके सभी बन्धु-बान्धव एवं मन्त्रियोंको एक-दूसरेसे टकराकर मार दूँ। अथवा श्रीरघुनाथजी! आप आज्ञा दें तो आपके प्रतापसे समुद्रपर पत्थरोंको तैरा दूँ। आप कहें तो एक क्षणमें रावणके दसों मस्तक एवं बीसों भुजाएँ काट डालूँ। अथवा आप आज्ञा दें तो उसे जीवित ही दाँतोंमें तृण दबवाकर आपके चरणोंमें लाकर गिरा दूँ। आप कहें तो वानरसेनाका सुन्दर व्यूह बनाऊँ और उन्हें पृथ्वी, आकाश तथा पातालमें सर्वत्र विस्तृत कर दूँ , अथवा (स्वयं ही) आकाशमें जाकर पर्वतोंके शिलाखण्ड तथा वृक्षोंकी वर्षा करके शत्रुदलका संहार कर दूँ। मैं बार-बार आपके चरणोंका स्पर्श करके (शपथपूर्वक) कहता हूँ कि कभी भी पराजित नहीं होऊँगा। आपकी आज्ञाकी रक्षाके लिये शंकरजीके वचनको भी (जो कि उन्होंने रावणको दिया है कि तुम केवल मनुष्यसे मारे जा सकते हो) अन्यथा कर दूँगा।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(११३)
हौं प्रभु जू कौ आयसु पाऊँ।
अबहीं जाइ, उपारि लंक गढ़, उदधि पार लै आऊँ॥
अबहीं जंबूद्वीप इहाँ तैं, लै लंका पहुँचाऊँ।
सोखि समुद्र उतारौं कपि-दल, छिनक बिलंब न लाऊँ॥
अब आवैं रघुबीर जीति दल, तौ हनुमंत कहाऊँ।
‘सूरदास’ सुभ पुरी अजोध्या, राघव सुबस बसाऊँ॥
मूल
(११३)
हौं प्रभु जू कौ आयसु पाऊँ।
अबहीं जाइ, उपारि लंक गढ़, उदधि पार लै आऊँ॥
अबहीं जंबूद्वीप इहाँ तैं, लै लंका पहुँचाऊँ।
सोखि समुद्र उतारौं कपि-दल, छिनक बिलंब न लाऊँ॥
अब आवैं रघुबीर जीति दल, तौ हनुमंत कहाऊँ।
‘सूरदास’ सुभ पुरी अजोध्या, राघव सुबस बसाऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीहनुमान् जी ने फिर कहा—) ‘प्रभो! यदि मैं आपकी आज्ञा पा जाऊँ तो अभी (उस पार) जाकर लंकाके दुर्गको उखाड़कर समुद्रके इस पार ले आऊँ। अथवा जम्बूद्वीपको ही यहाँसे ले जाकर इसी क्षण लंका पहुँचा दूँ। सारे समुद्रका जल पीकर कपिदलको पार उतार दूँ , इसमें क्षणभरकी भी देर न करूँ। (आप जो आज्ञा दें, वह करूँ।) श्रीरघुनाथजी (आप) राक्षसदलको अभी-अभी जीतकर आ जायँ, तब मैं अपना नाम हनुमान् कहलाऊँ। मंगलमय अयोध्यापुरीको श्रीराघवेन्द्रकी अधीनतामें पुनः भरी-पूरी कर दूँ (लंका-विजय कराके आपको अयोध्या पहुँचा दूँ)।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(११४)
जौ पै राम रजा हौं पाऊँ।
न करौं संक लंक गढ़ की कछु, सायर खोद बहाऊँ॥
बढूँ सरीर, पेट परिमित कर, सकल कटक पहुँचाऊँ।
कहौ तौ रावन कुल समेत सब बिधिहिं चरन तर लाऊँ॥
हौं सेवक हरि! ऐसौ तुम्हरौ, निज मुख कर का गाऊँ।
सुर और असुर सबै जुर आवैं, रन नहिं पीठ दिखाऊँ॥
रावन मारि, सिया घर लाऊँ, तुम्हरौ दास कहाऊँ।
‘सूरदास’ मुख ही सौं कहि हौं, तुमही आन दिखाऊँ॥
मूल
(११४)
जौ पै राम रजा हौं पाऊँ।
न करौं संक लंक गढ़ की कछु, सायर खोद बहाऊँ॥
बढूँ सरीर, पेट परिमित कर, सकल कटक पहुँचाऊँ।
कहौ तौ रावन कुल समेत सब बिधिहिं चरन तर लाऊँ॥
हौं सेवक हरि! ऐसौ तुम्हरौ, निज मुख कर का गाऊँ।
सुर और असुर सबै जुर आवैं, रन नहिं पीठ दिखाऊँ॥
रावन मारि, सिया घर लाऊँ, तुम्हरौ दास कहाऊँ।
‘सूरदास’ मुख ही सौं कहि हौं, तुमही आन दिखाऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीहनुमान् जी ने कहा—) ‘श्रीरघुनाथजी! यदि आपकी आज्ञा पा जाऊँ तो लंकाके दुर्गकी कुछ भी परवा न करके उसे खोदकर समुद्रमें बहा दूँ। अपने पेटको सीमित करके शेष सारे शरीरको इतना बढ़ा दूँ कि पूरी वानरसेनाको (हाथसे उठाकर) लंकामें पहुँचा दूँ। अथवा आप आज्ञा दें तो रावणको उसके कुलके साथ सब प्रकारसे आपके चरणोंके नीचे लाकर डाल दूँ (आपकी शरण लेनेको विवश कर दूँ)। मैं अपने मुखसे अपनी बड़ाई क्या करूँ; किंतु प्रभो! मैं आपका ऐसा सेवक हूँ कि यदि सभी देवता और दैत्य एकत्र होकर आ जायँ तो भी युद्धमें उन्हें पीठ नहीं दिखाऊँगा। रावणको मारकर श्रीजानकीजीको घर (आपके पास) ले आऊँ, तब आपका सेवक कहलाऊँ। अभी तो मैंने यह मुखसे ही कहा है; किंतु (आप आज्ञा दें तो यह सब) करके आपको दिखा दूँ।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(११५)
जौ हौं नैक रजायस पाऊँ।
तौ दस सीस बीस पैंड़े करि काटि जानकी लाऊँ॥
बिना कहे अंकुस मेरे सिर, तातैं करत न आगी।
बात उठाय धरौं नहिं राखौं और दिनन कौं लागी॥
अजहू जौ तुम कहौ कृपानिधि, तौ छिन भीतर मारौं।
आप जिवत कत इतनि बात कौं तुमहि का करौं पारौं॥
तूँ बलबीर धीर अंतक सम, अरु सबहीं बिधि लायक।
राख्यौ न्यौति बहुत दिन ते यह छुधा-कंप अति सायक॥
जाकौ रस एकहि मन मो तन आदि मध्य अरु अंत।
इहाँहू की सब लाज हमारी तो लागी हनुमंत॥
संग्या समै त्रोन जुत कीन्ही छाड़ौ कछू नदीवैं।
‘सूर’ समुद्र इतनि मागैं पाउँ, यह कृत मोही कीवैं॥
मूल
(११५)
जौ हौं नैक रजायस पाऊँ।
तौ दस सीस बीस पैंड़े करि काटि जानकी लाऊँ॥
बिना कहे अंकुस मेरे सिर, तातैं करत न आगी।
बात उठाय धरौं नहिं राखौं और दिनन कौं लागी॥
अजहू जौ तुम कहौ कृपानिधि, तौ छिन भीतर मारौं।
आप जिवत कत इतनि बात कौं तुमहि का करौं पारौं॥
तूँ बलबीर धीर अंतक सम, अरु सबहीं बिधि लायक।
राख्यौ न्यौति बहुत दिन ते यह छुधा-कंप अति सायक॥
जाकौ रस एकहि मन मो तन आदि मध्य अरु अंत।
इहाँहू की सब लाज हमारी तो लागी हनुमंत॥
संग्या समै त्रोन जुत कीन्ही छाड़ौ कछू नदीवैं।
‘सूर’ समुद्र इतनि मागैं पाउँ, यह कृत मोही कीवैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीहनुमान् जी कहते हैं—) ‘यदि मैं थोड़ी-सी आज्ञा पा जाऊँ तो बीस पद (बीस छलाँग)-में ही रावणके दसों मस्तक काटकर श्रीजानकीजीको ले आऊँ। आपकी आज्ञाके बिना तो मेरे सिरपर आपका अंकुश (नियन्त्रण) है, इससे आगे बढ़कर कुछ कर नहीं पाता। अन्यथा बात उठाकर (प्रस्ताव करके) उसे दूसरे दिनों (भविष्य)-के लिये उठाकर रख नहीं छोड़ता। हे कृपानिधान! यदि आप अब भी आज्ञा दे दें तो एक क्षणमें रावणको मार डालूँ। अपने जीते-जी इतनी-सी (तुच्छ)बातके लिये आपको समुद्रपार क्या ले जाऊँ।’ (यह सुनकर प्रभुने कहा—) हनुमान्! तुम कालके समान बलवान् , शूरवीर तथा धैर्यशाली हो और सभी प्रकार योग्य हो, किंतु भूखसे काँपते हुए अपने बाणको बहुत दिनोंसे मैंने (तृप्त करनेके लिये) निमन्त्रण दे रखा है। जिसके चित्तका प्रेम एकमात्र मेरे प्रति ही प्रारम्भमें, मध्यमें और अन्तमें (सदा-सर्वदासे) है, उन (श्रीजानकीजी)-की और मेरी भी यहाँकी सब लज्जा हनुमान्! तुमसे ही है। (तुम्हीं हमारी लज्जाकी रक्षा करोगे, यह मुझे विश्वास है।)’ सूरदासजी कहते हैं—प्रभुने (समुद्रसे) प्रार्थनाके समय बाणको तरकसमें रख लिया और बोले—‘समुद्र! माँगनेसे मैं इतना पाऊँ (इतनी मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लो) कि हे नदियोंके स्वामी! कुछ मार्ग छोड़ दो। यह लंका-विजयका काम तो मेरे किये ही बनेगा (इसे करना ही है)।’
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(११६)
रघुपति, बेगि जतन अब कीजै।
बाँधै सिंधु सकल सैना मिलि, आपुन आयसु दीजै॥
तब लौं तुरत एक तौ बाँधौ, द्रुम-पाखाननि छाइ।
द्वितिय सिंधु सिय-नैन-नीर ह्वै जब लौं मिलै न आइ॥
यह बिनती हौं करौं कृपानिधि, बार-बार अकुलाइ।
‘सूरजदास’ अकाल-प्रलय प्रभु, मेटौ दरस दिखाइ॥
मूल
(११६)
रघुपति, बेगि जतन अब कीजै।
बाँधै सिंधु सकल सैना मिलि, आपुन आयसु दीजै॥
तब लौं तुरत एक तौ बाँधौ, द्रुम-पाखाननि छाइ।
द्वितिय सिंधु सिय-नैन-नीर ह्वै जब लौं मिलै न आइ॥
यह बिनती हौं करौं कृपानिधि, बार-बार अकुलाइ।
‘सूरजदास’ अकाल-प्रलय प्रभु, मेटौ दरस दिखाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(समुद्रद्वारा सेतु बाँधनेका उपाय बता दिये जानेपर श्रीहनुमान् जी प्रार्थना कर रहे हैं—) श्रीरघुनाथजी! अब शीघ्र (पार जानेका) उपाय कीजिये। आप आज्ञा दीजिये, जिससे सेनाके सब लोग मिलकर (झटपट) समुद्रपर पुल बना दें। वृक्षों और पत्थरोंको बिछाकर तबतक ही झटपट यह एक समुद्र बाँध लीजिये, जबतक श्रीजानकीजीके नेत्रोंके आँसू दूसरा समुद्र बनकर इसमें आकर मिल नहीं जाते। (उसके मिल जानेपर तो प्रलय ही हो जायगी।) इसीसे हे कृपानिधान! मैं व्याकुल होकर बार-बार प्रार्थना कर रहा हूँ कि (श्रीजानकीजीको) दर्शन देकर हे स्वामी! असमयमें होनेवाली प्रलय तो मिटा (रोक) दो।’
विभीषण-रावण-संवाद
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(११७)
लंकपति कौं अनुज सीस नायौ।
परम गंभीर, रनधीर दसरथ-तनय, कोप करि सिंधुके तीर आयौ॥
सीय कौं लै मिलौ, यह मतौ भलौ, कृपा करि ममबचन मानि लीजै।
ईस कौ ईस, करतार संसार कौ, तासु पद-कमल पर सीस दीजै॥
कह्यौ लंकेस दै ठेस पग की तबै, जाहि मति-मूढ़, कायर, डरानौ।
जानि असरन-सरन, ‘सूर’ के प्रभू कौं, तुरतहीं आइ द्वारैं तुलानौ॥
मूल
(११७)
लंकपति कौं अनुज सीस नायौ।
परम गंभीर, रनधीर दसरथ-तनय, कोप करि सिंधुके तीर आयौ॥
सीय कौं लै मिलौ, यह मतौ भलौ, कृपा करि ममबचन मानि लीजै।
ईस कौ ईस, करतार संसार कौ, तासु पद-कमल पर सीस दीजै॥
कह्यौ लंकेस दै ठेस पग की तबै, जाहि मति-मूढ़, कायर, डरानौ।
जानि असरन-सरन, ‘सूर’ के प्रभू कौं, तुरतहीं आइ द्वारैं तुलानौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
छोटे भाई विभीषणने लंकापति रावणको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया (और निवेदन किया—) ‘अत्यन्त गम्भीर तथा युद्धमें धैर्यशाली, महाराज दशरथके कुमार (श्रीराम) क्रोध करके समुद्रके किनारे आ गये हैं। अतः आप श्रीजानकीजीको लेकर उनसे मिलें (संधि कर लें), यही उत्तम राय है; कृपा करके मेरी यह बात मान लीजिये। वे समर्थोंमें परम समर्थ-सर्वेश्वर हैं, विश्वके निर्माता हैं, उनके चरण-कमलपर मस्तक रख दीजिये।’ तब रावण पैरकी ठोकर देकर बोला—‘अरे मूढमति! अरे कायर! तू डर गया है, (अतः यहाँसे) चला जा!’ सूरदासजी कहते हैं—तब मेरे स्वामी (श्रीराम)-को अशरण-शरण समझकर विभीषण तुरंत आकर उनके (शिबिरके) द्वारपर खड़े हो गये।
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(११८)
आइ बिभीषन सीस नवायौ।
देखतहीं रघुबीर धीर, कहि लंकापती, बुलायौ॥
कह्यौ सो बहुरि कह्यौ नहिं रघुबर, यहै बिरद चलि आयौ।
भक्त-बछल करुनामय प्रभु कौ, ‘सूरदास’ जस गायौ॥
मूल
(११८)
आइ बिभीषन सीस नवायौ।
देखतहीं रघुबीर धीर, कहि लंकापती, बुलायौ॥
कह्यौ सो बहुरि कह्यौ नहिं रघुबर, यहै बिरद चलि आयौ।
भक्त-बछल करुनामय प्रभु कौ, ‘सूरदास’ जस गायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषणने आकर मस्तक झुकाया (प्रणाम किया)। यह देखते ही धैर्यशाली श्रीरघुनाथजीने ‘लंकापति’ कहकर उन्हें सम्बोधित किया। श्रीरघुनाथजीका तो (सदासे) यही व्रत चला आ रहा है कि उन्होंने जो कह दिया (वह हो गया) उसे दुबारा कहनेकी कभी आवश्यकता नहीं पड़ी। (अतः प्रभुने जब, विभीषणको लंकापति कह दिया, तब लंका तो उनकी हो चुकी।) सूरदासजी कहते हैं—ऐसे भक्तवत्सल करुणामय स्वामीका मैं यशोगान करता हूँ।
राम-प्रतिज्ञा
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(११९)
तब हौं नगर अजोध्या जैहौं।
एक बात सुनि निस्चय मेरी, राज्य बिभीषन दैहौं॥
कपि दल जोरि और सब सैना, सागर सेतु बँधैहौं।
काटि दसौ सिर, बीस भुजा, तब दसरथ-सुत जु कहैहौं॥
छिन इक माहिं लंक गढ़ तोरौं, कंचन-कोट ढहैहौं।
‘सूरदास’ प्रभु कहत बिभीषन, रिपु हति सीता लैहौं॥
मूल
(११९)
तब हौं नगर अजोध्या जैहौं।
एक बात सुनि निस्चय मेरी, राज्य बिभीषन दैहौं॥
कपि दल जोरि और सब सैना, सागर सेतु बँधैहौं।
काटि दसौ सिर, बीस भुजा, तब दसरथ-सुत जु कहैहौं॥
छिन इक माहिं लंक गढ़ तोरौं, कंचन-कोट ढहैहौं।
‘सूरदास’ प्रभु कहत बिभीषन, रिपु हति सीता लैहौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीरघुनाथजीने प्रतिज्ञा करते हुए कहा—) ‘सब लोग मेरा एक बातका निश्चय सुन लें—मैं तब अयोध्या जाऊँगा, जब (लंकाका) राज्य विभीषणको दे लूँगा। कपियोंके समूह तथा अन्य प्रकारकी (भी) सारी सेनाको एकत्र करके समुद्रपर पुल बँधवाऊँगा। जब रावणके दसों मस्तक, बीसों भुजा काट दूँ , तभी महाराज दशरथका पुत्र कहलाऊँगा। एक क्षणमें लंकाके दुर्गको नष्ट कर दूँगा, स्वर्णके परकोटोंको ध्वस्त कर दूँगा।’ सूरदासजीके प्रभुने विभीषणसे कहा—‘शत्रुको युद्धमें मारकर सीताजीको ले आऊँगा।’
रावण-मन्दोदरी-संवाद
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१२०)
वे लखि आए राम रजा।
जल के निकट आइ ठाढ़े भए , दीसति बिमल ध्वजा॥
सोवत कहा चेत रे रावन! अब क्यों खात दगा?
कहति मँदोदरि, सुनु पिय रावन! मेरी बात अगा॥
तृन दसननि लै मिलि दसकंधर, कंठनि मेलि पगा।
‘सूरदास’ प्रभु रघुपति आए , दहपट होइ लँका॥
मूल
(१२०)
वे लखि आए राम रजा।
जल के निकट आइ ठाढ़े भए , दीसति बिमल ध्वजा॥
सोवत कहा चेत रे रावन! अब क्यों खात दगा?
कहति मँदोदरि, सुनु पिय रावन! मेरी बात अगा॥
तृन दसननि लै मिलि दसकंधर, कंठनि मेलि पगा।
‘सूरदास’ प्रभु रघुपति आए , दहपट होइ लँका॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि रानी मन्दोदरीने कहा—‘प्यारे रावण! मेरी बात आगेसे सुन! (इसपर पहले ध्यान दे।) वे (दूत) महाराज श्रीरामको देख आये हैं। समुद्रके समीप आकर वे (श्रीरघुनाथ) खड़े हैं, उनकी निर्मल ध्वजा (शुभ्र पताका) यहाँसे दीख रही है। अरे रावण! सोता क्यों है? सावधान हो! धोखा क्यों खाता है? हे दशानन! दाँतोंमें तिनके दबाकर तथा गलेमें पगहा—रस्सी डालकर (इस भावसे कि प्रभो! मैं तुम्हारी गाय हूँ, मुझे क्षमा करो!) मिल (शरणमें जा!) अन्यथा वे सबके स्वामी श्रीरघुनाथ आ गये हैं, लंका चौपट हो जायगी।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१२१)
देखि हो कंत! रघुनाथ आयौ।
छिप्यौ ससि, सूर अति चकृत भयौ,
धूर सों पूर आकास छायौ॥
तब न मानौ कह्यौ, आपने मद रह्यौ,
देह के गर्ब अभिमान बाढ़ौ।
सुन अहो कंत! अब कठिन भयौ छूटिबौ,
गहे भुज बीस कर काल गाढ़ौ॥
सिंधु गंभीर दल, छाँड़ि दै मुग्ध बल,
तैं न कीनी कहूँ टेक गाढ़ी।
बचै क्यौं डूबत माँझ लग्यौ धक्का जो,
लंक-सी नाव द्वै टूक फाड़ी॥
कहत सुन ‘सूर’ तू गिन्यौ पंछीन मैं,
आन अजगरन पर आज खेलै।
भजैं क्यौं उबरिहै बाज हनुमान पै,
मूठ जब जानकीनाथ मेलै॥
मूल
(१२१)
देखि हो कंत! रघुनाथ आयौ।
छिप्यौ ससि, सूर अति चकृत भयौ,
धूर सों पूर आकास छायौ॥
तब न मानौ कह्यौ, आपने मद रह्यौ,
देह के गर्ब अभिमान बाढ़ौ।
सुन अहो कंत! अब कठिन भयौ छूटिबौ,
गहे भुज बीस कर काल गाढ़ौ॥
सिंधु गंभीर दल, छाँड़ि दै मुग्ध बल,
तैं न कीनी कहूँ टेक गाढ़ी।
बचै क्यौं डूबत माँझ लग्यौ धक्का जो,
लंक-सी नाव द्वै टूक फाड़ी॥
कहत सुन ‘सूर’ तू गिन्यौ पंछीन मैं,
आन अजगरन पर आज खेलै।
भजैं क्यौं उबरिहै बाज हनुमान पै,
मूठ जब जानकीनाथ मेलै॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(रानी मन्दोदरीने कहा—) ‘मेरे स्वामी! देखो, श्रीरघुनाथजी आ गये। (उनकी सेनाके चलनेसे उड़ती) धूलिसे पूरा आकाश ढक गया है, चन्द्रमा छिप गया। और उनके तेजसे सूर्य भी अत्यन्त चकित हो गया है। उस समय (जब हनुमान् आये थे) तुमने मेरा कहना नहीं माना। शरीरके बलके गर्वमें तुम्हारा अहंकार बढ़ा हुआ था, अपने ही मदसे तुम मतवाले हो रहे थे; किंतु कंत! सुनो। अब तो भयंकर कालने आकर (अपने) हाथोंसे तुम्हारी बीसों भुजा पकड़ ली हैं, उससे छुटकारा कठिन हो गया है। पहले तो तुमने कभी ऐसा कड़ा हठ नहीं किया था, अब अपने बलका गर्व छोड़ दो। (श्रीरघुनाथजीकी) सेना तो समुद्रके समान गहरी है, अब उसमें डूबनेसे तुम कैसे बचोगे? मध्यमें ही धक्का लगा और लंका-जैसी नौकाको दो टुकड़े करके उसने फाड़ दिया (युद्धसे पूर्व ही हनुमान् ने लंका जला दी)। मैं सत्य कहती हूँ, सुनो! तुम्हारी गणना तो पक्षियों-जैसी है (आकाशमें तुम उड़ सकते हो) और आज यहाँ अजगरोंसे (वानरदलसे) शत्रुता कर रहे हो; किंतु श्रीजानकीनाथ जब अपने हाथसे हनुमान् रूपी बाजको उड़ायेंगे (उन्हें आज्ञा देंगे), तुम भागकर भी कैसे बच सकोगे!’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
(१२२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
लंका लीजति है रे रावन।
तुम जिन की हरि ल्याये सीता ते कहत है आवन॥
जा सागर कौ गरब करत है, सो दूधनि मैं जावन।
आवत रामचंद्र सर साँधें, ज्यौं बरखा घन सावन॥
तूँ मेरौ समझायौ न समझत, बहुत सहैगो ताँवन।
‘सूर’ राम कौं लै मिलि सीता! हाथ जोरि परि पावन॥
मूल
लंका लीजति है रे रावन।
तुम जिन की हरि ल्याये सीता ते कहत है आवन॥
जा सागर कौ गरब करत है, सो दूधनि मैं जावन।
आवत रामचंद्र सर साँधें, ज्यौं बरखा घन सावन॥
तूँ मेरौ समझायौ न समझत, बहुत सहैगो ताँवन।
‘सूर’ राम कौं लै मिलि सीता! हाथ जोरि परि पावन॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(मन्दोदरीने कहा—) ‘अरे रावण! अब वे लंका ले ही लेनेवाले हैं। जिनकी पत्नी श्रीसीताजीको तुम हरण करके ले आये हो, वे अब आना ही चाहते हैं। जिस समुद्रका तुम्हें बहुत गर्व है (कि कोई समुद्र कैसे पार करेगा) वह तो (उनके पराक्रमरूपी) दूधमें जावनके समान (तुच्छ) है। जैसे श्रावणका बादल (उमड़ता-घुमड़ता) आता है, वैसे ही श्रीरामचन्द्र धनुषपर बाण चढ़ाये आ रहे हैं (वे वर्षाके समान बाणोंकी झड़ी लगा देंगे)। तुम मेरे समझानेसे समझते नहीं हो, अतः बहुत कष्ट सहोगे। (अच्छा यही है कि) श्रीजानकीजीको लेकर श्रीरामसे मिलो और हाथ-जोड़कर उनके श्रीचरणोंपर गिर पड़ो।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१२३)
तैं कत सीता हरि आनी।
जनक-सुता जगत-मात राम-नारि मैं जानी॥
लंक-सौ गढ़ गर्ब करत, राकस कुल कानी।
कोट वोट मोट मेटि राम लैहैं रजधानी॥
दनुज-दल जर मरिहैं धौं कहि रमा ससाँनी।
राम-मार दनुज ‘सूर’ रैंनि सी बिहानी॥
मूल
(१२३)
तैं कत सीता हरि आनी।
जनक-सुता जगत-मात राम-नारि मैं जानी॥
लंक-सौ गढ़ गर्ब करत, राकस कुल कानी।
कोट वोट मोट मेटि राम लैहैं रजधानी॥
दनुज-दल जर मरिहैं धौं कहि रमा ससाँनी।
राम-मार दनुज ‘सूर’ रैंनि सी बिहानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मन्दोदरी कहती है रावणसे—) ‘तुम श्रीसीताजीको हरण करके लाये ही क्यों? वे श्रीरामचन्द्रजीकी भार्या श्रीजानकीजी तो जगन्माता हैं, यह मैं समझ गयी। तुम लंका-जैसे दुर्गका गर्व करते हो और राक्षसकुलपर भरोसा रखते हो; किंतु श्रीराम तुम्हारा यह भारी दुर्ग ध्वस्त करके राजधानीपर अधिकार कर लेंगे।’ सूरदासजी कहते हैं—श्रीजानकीके इन निःश्वासोंमें राक्षसोंका समूह जल मरेगा। श्रीरामजीके प्रहारसे राक्षस वैसे ही नष्ट हो जायँगे जैसे सबेरा होनेपर रात्रि नष्ट हो जाती है।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१२४)
सरन परि मन-बच-कर्म बिचारि।
ऐसौ और कौन त्रिभुवन मैं, जो अब लेइ उबारि॥
सुनु सिख कंत! दंत तृन धरि कै, स्यौं परिवार सिधारौ।
परम पुनीत जानकी सँग लै कुल-कलंक किन टारौ॥
ये दस सीस चरन पर राखौ, मेटो सब अपराध।
हैं प्रभु कृपा-करन रघुनंदन, रिस न गहैं पल आध॥
तोरि धनुष, मुख मोरि नृपनि कौ, सीय-स्वयंबर कीनौ।
छिन इक मैं भृगुपति-प्रताप-बल करषि, हृदय धरि लीनौ॥
लीला करत कनक-मृग मारॺौ, बध्यौ बालि अभिमानी।
सोइ दसरथ-कुल-चंद अमित-बल, आए सारँग-पानी॥
जाके दल सुग्रीव सुमंत्री, प्रबल जूथपति भारी।
महा सुभट रनजीत पवन-सुत, निडर बज्र-बपु-धारी॥
करिहै लंक पंक छिन भीतर, बज्र-सिला लै धावै।
कुल-कुटुंब-परिवार सहित तोहि, बाँधत बिलम न लावै॥
अजहूँ बल जनि करि संकर कौ, मानि बचन हित मेरौ।
जाइ मिलौ कोसल-नरेस कौं, भ्रात बिभीषन तेरौ॥
कटक-सोर अति घोर दसौं दिसि, दीसति बनचर-भीर।
‘सूर’ समुझि, रघुबंस-तिलक दोउ उतरे सागर तीर॥
मूल
(१२४)
सरन परि मन-बच-कर्म बिचारि।
ऐसौ और कौन त्रिभुवन मैं, जो अब लेइ उबारि॥
सुनु सिख कंत! दंत तृन धरि कै, स्यौं परिवार सिधारौ।
परम पुनीत जानकी सँग लै कुल-कलंक किन टारौ॥
ये दस सीस चरन पर राखौ, मेटो सब अपराध।
हैं प्रभु कृपा-करन रघुनंदन, रिस न गहैं पल आध॥
तोरि धनुष, मुख मोरि नृपनि कौ, सीय-स्वयंबर कीनौ।
छिन इक मैं भृगुपति-प्रताप-बल करषि, हृदय धरि लीनौ॥
लीला करत कनक-मृग मारॺौ, बध्यौ बालि अभिमानी।
सोइ दसरथ-कुल-चंद अमित-बल, आए सारँग-पानी॥
जाके दल सुग्रीव सुमंत्री, प्रबल जूथपति भारी।
महा सुभट रनजीत पवन-सुत, निडर बज्र-बपु-धारी॥
करिहै लंक पंक छिन भीतर, बज्र-सिला लै धावै।
कुल-कुटुंब-परिवार सहित तोहि, बाँधत बिलम न लावै॥
अजहूँ बल जनि करि संकर कौ, मानि बचन हित मेरौ।
जाइ मिलौ कोसल-नरेस कौं, भ्रात बिभीषन तेरौ॥
कटक-सोर अति घोर दसौं दिसि, दीसति बनचर-भीर।
‘सूर’ समुझि, रघुबंस-तिलक दोउ उतरे सागर तीर॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(मन्दोदरीने कहा—) ‘विचार करके मन, वाणी तथा कर्मसे (श्रीरघुनाथजीकी) शरणमें जा पड़ो। भला, तीनों लोकोंमें (दूसरा) ऐसा कौन है, जो अब तुम्हें बचा लेगा। मेरे स्वामी! मेरी शिक्षा सुनो; दाँतोंमें घास लेकर अपने पूरे परिवारके साथ (श्रीरामजीके) पास चलो, परम पवित्र श्रीजानकीजीको अपने साथ ले लो। (जगन्माताका हरण करके) कुलमें लगे कलंकको (श्रीरघुनाथजीकी शरणमें जाकर) दूर क्यों नहीं कर देते। अपने ये दसों मस्तक उनके श्रीचरणोंपर रखकर अपने सब दोष दूर कर दो। वे श्रीरघुनाथजी तो कृपा ही करनेवाले (कृपामूर्ति) हैं, आधे क्षणके लिये भी (तुमपर) क्रोध नहीं करेंगे। जिन्होंने (स्वयंवर-सभामें) शंकरजीका धनुष तोड़कर, सम्पूर्ण नरेशोंका मान-मर्दन करके श्रीजानकीजीसे स्वयंवरके नियमानुसार विवाह किया, जिन्होंने एक क्षणमें परशुरामजीका प्रताप और बल खींचकर अपने हृदयमें धारण कर लिया (उन्हें निष्प्रभ कर दिया), जिन्होंने खेल-खेलमें स्वर्णमृग बने मारीचको मार दिया और अहंकारी बालिका संहार किया, वे ही महाराज श्रीदशरथकुलचन्द्र अपार बलशाली शार्ङ्गधनुषधारी (श्रीराम) आ गये हैं। उनके दलमें सुग्रीव-जैसे श्रेष्ठ मन्त्री हैं; अत्यन्त बलवान् विशालकाय अन्य सेना-नायक तथा बड़े ही उत्तम योद्धा, वज्र-शरीरधारी, निर्भय, संग्राम-विजयी पवनकुमार हैं। वे वज्र-जैसी शिला लेकर दौड़ेंगे और क्षणभरमें लंकाको कीचड़ बना देंगे (धूलिमें मिला देंगे)। तुम्हें अपने समस्त कुल एवं कुटुम्ब-परिवारके साथ बाँधनेमें वे देर नहीं करेंगे। इसलिये तुम मेरी हितभरी बात मान लो। अब भी शंकरजीका (उनके वरदान एवं सहायताका) बल मत करो! तुम्हारा भाई विभीषण श्रीकोसलनरेश रघुनाथजीसे मिल गया है (वह तुम्हारे वरदानका सब रहस्य बता देगा)। यह समझ लो कि दोनों रघुवंश-तिलक श्रीराम-लक्ष्मण समुद्र-किनारे उतर गये हैं (पड़ाव डाले पड़े हैं) और उनकी सेनाकी अत्यन्त भयंकर गर्जना दसों दिशाओंमें गूँज रही है, वानर-भालुओंकी भीड़ (यहींसे) दिखलायी पड़ रही है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१२५)
काहे कौं परतिय हरि आनी!
यह सीता जो जनक की कन्या, रमा आपु रघुनंदन-रानी॥
रावन मुग्ध, करम के हीने, जनक-सुता तैं तिय करि मानी।
जिनके क्रोध पुहुमि-नभ पलटैं, सूखै सकल सिंधु कर पानी॥
मूरख सुख-निद्रा नहिं आवै, लैहैं लंक बीस भुज भानी।
‘सूर’ न मिटै भाल की रेखा, अल्प-मृत्यु तुव आइ तुलानी॥
मूल
(१२५)
काहे कौं परतिय हरि आनी!
यह सीता जो जनक की कन्या, रमा आपु रघुनंदन-रानी॥
रावन मुग्ध, करम के हीने, जनक-सुता तैं तिय करि मानी।
जिनके क्रोध पुहुमि-नभ पलटैं, सूखै सकल सिंधु कर पानी॥
मूरख सुख-निद्रा नहिं आवै, लैहैं लंक बीस भुज भानी।
‘सूर’ न मिटै भाल की रेखा, अल्प-मृत्यु तुव आइ तुलानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(मन्दोदरीने कहा—) ‘तुम दूसरेकी स्त्री हरण करके लाये ही क्यों? ये श्रीजनकनन्दिनी, श्रीरघुनाथजीकी रानी सीता तो साक्षात् लक्ष्मी हैं। अरे भाग्यहीन मूर्ख रावण! इन श्रीजनककुमारीको तुमने सामान्य स्त्री समझ लिया! जिन (श्रीरघुनाथजी)-के क्रोधसे पृथ्वी और आकाश दोनों उलट सकते हैं तथा समुद्रका पूरा जल सूख सकता है, अरे मूर्ख! (उनसे शत्रुता करके किसीको) सुखपूर्वक नींद नहीं आती। वे तेरी बीस भुजाओंको तोड़कर लंकापर अधिकार कर लेंगे; किंतु (किया क्या जाय) ललाटकी (भाग्यकी) रेखा तो मिटती नहीं, अकाल-मृत्यु तेरे सिरपर नाच रही है (इसीसे कोई बात तेरी समझमें नहीं आती)।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१२६)
तोहि कवन मति रावन! आई।
जाकी नारि सदा नवजोबन, सो क्यों हरै पराई॥
लंक-सौ कोट देखि जनि गरबहि, अरु समुद्र-सी खाई।
आजु-काल्हि, दिन चारि-पाँच मैं, लंका होति पराई॥
जाके हित सैना सजि आए , राम-लछन दोउ भाई।
‘सूरदास’ प्रभु लंका तोरैं, फेर राम दुहाई॥
मूल
(१२६)
तोहि कवन मति रावन! आई।
जाकी नारि सदा नवजोबन, सो क्यों हरै पराई॥
लंक-सौ कोट देखि जनि गरबहि, अरु समुद्र-सी खाई।
आजु-काल्हि, दिन चारि-पाँच मैं, लंका होति पराई॥
जाके हित सैना सजि आए , राम-लछन दोउ भाई।
‘सूरदास’ प्रभु लंका तोरैं, फेर राम दुहाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(मन्दोदरीने कहा—) ‘रावण! यह तुम्हें कौन-सी बुद्धि आयी? (इतने विचारहीन तुम कैसे हुए?) अरे, जिसकी पत्नी (मैं) सदा नवयुवती रहती हो, वह दूसरेकी स्त्रीका हरण क्यों करे। तुम लंकाके समान (अजेय) दुर्गको तथा समुद्रके समान खाईको देखकर गर्व मत करो। आज, कल या चार-ही-पाँच दिनोंमें यह लंका दूसरेकी होनेवाली है; क्योंकि जिस लंकाके लिये श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाई सेना सजाकर आये हैं, उस लंकाको वे समर्थ श्रीराम ध्वस्त करके छोड़ेंगे और यहाँ अपनी विजय-घोषणा करेंगे।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१२७)
आयौ रघुनाथ बली, सीख सुनो मेरी।
सीता लै जाइ मिलौ, बात रहै तेरी॥
तैं जु बुरौ कर्म कियौ, सीता हरि ल्यायौ।
घर बैठैं बैर कियौ, कोपि राम आयौ॥
चेतत क्यौं नाहिं मूढ़, सुनि सुबात मेरी।
अजहूँ नहिं सिंधु बँध्यौ, लंका है तेरी॥
सागर कौ पाज बाँधि, पार उतरि आवैं।
सैना कौ अंत नाहिं, इतनौ दल ल्यावैं॥
देखि तिया! कैसौ बल, करि तोहि दिखराऊँ।
रीछ-कीस बस्य करौं, रामहि गहि ल्याऊँ॥
जानति हौं, बली बालि सों न छूटि पाई।
तुम्हैं कहा दोष दीजै, काल-अवधि आई॥
बलि जब बहु जज्ञ किए , इंद्र सुनि सकायौ।
छल करि लइ छीनि मही, बामन ह्वै धायौ॥
हिरनकसिप अति प्रचंड, ब्रह्मा-बर पायौ।
तब नृसिंह-रूप धरॺौ, छिन न बिलँब लायौ॥
पाहन सौं बाँधि सिंधु, लंका-गढ़ घेरैं।
‘सूर’ मिलि बिभीषनैं, दुहाइ राम फेरैं॥
मूल
(१२७)
आयौ रघुनाथ बली, सीख सुनो मेरी।
सीता लै जाइ मिलौ, बात रहै तेरी॥
तैं जु बुरौ कर्म कियौ, सीता हरि ल्यायौ।
घर बैठैं बैर कियौ, कोपि राम आयौ॥
चेतत क्यौं नाहिं मूढ़, सुनि सुबात मेरी।
अजहूँ नहिं सिंधु बँध्यौ, लंका है तेरी॥
सागर कौ पाज बाँधि, पार उतरि आवैं।
सैना कौ अंत नाहिं, इतनौ दल ल्यावैं॥
देखि तिया! कैसौ बल, करि तोहि दिखराऊँ।
रीछ-कीस बस्य करौं, रामहि गहि ल्याऊँ॥
जानति हौं, बली बालि सों न छूटि पाई।
तुम्हैं कहा दोष दीजै, काल-अवधि आई॥
बलि जब बहु जज्ञ किए , इंद्र सुनि सकायौ।
छल करि लइ छीनि मही, बामन ह्वै धायौ॥
हिरनकसिप अति प्रचंड, ब्रह्मा-बर पायौ।
तब नृसिंह-रूप धरॺौ, छिन न बिलँब लायौ॥
पाहन सौं बाँधि सिंधु, लंका-गढ़ घेरैं।
‘सूर’ मिलि बिभीषनैं, दुहाइ राम फेरैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(मन्दोदरीने कहा—) ‘बलवान् श्रीरघुनाथजी आ गये हैं, अतः (अब भी) मेरी शिक्षा मानो। श्रीजानकीजीको लेकर उनसे जाकर मेल कर लो, जिससे तुम्हारी बात (सम्मान) रह जाय। तुमने यह (बहुत ही) बुरा कर्म किया जो श्रीसीताजीको हरण करके ले आये; घर बैठे (अकारण) तुमने शत्रुता कर ली, जिससे श्रीराम क्रोध करके चढ़ आये हैं। अरे मूर्ख! अब भी सावधान क्यों नहीं होता? यह मेरी हितभरी बात सुन ले। अब भी समुद्र बँधा नहीं है, अभी लंका तुम्हारी है, (अभी अवसर है, नहीं तो) समुद्रपर पुल बाँधकर वे इस पार उतर आयेंगे और इतना दल साथ ले आयेंगे कि उस सेनाका कोई पार ही नहीं होगा।’ (यह सुनकर रावण बोला—) ‘रानी! तुम देखना तो सही कि मैं तुम्हें कैसा पराक्रम करके दिखाता हूँ। रीछ और वानरोंको वशमें कर लूँगा और रामको पकड़ लाऊँगा।’ (तब मन्दोदरीने कहा—) ‘मैं (तुम्हारे बलको) जानती हूँ; (एक) बलवान् बालि था (उसने जब तुम्हें पकड़ा था, तब) उससे तुम अपनेको छुड़ा नहीं सके थे (उस बालिको श्रीरामने मार दिया है) किंतु तुम्हें दोष भी क्या दिया जाय, तुम्हारी मृत्युका समय ही पास आ गया है (इसीसे तुम्हारी बुद्धि भ्रमित हो रही है)। जब दैत्यराज बलिने बहुत-से यज्ञ कर लिये, तब इन्द्र उनके यज्ञोंका वर्णन सुनकर शंकित हो उठे (बलि कहीं सदाके लिये मेरा इन्द्रत्व न छीन लें)। किंतु प्रभु वहाँ वामनरूप धारण करके दौड़े गये और छल करके (बलिसे) सारी पृथ्वी छीन ली। हिरण्यकशिपु अत्यन्त प्रचण्ड (अदम्य) था। उसने ब्रह्माजीसे वरदान पाया था; किंतु (उसके वधके लिये) प्रभुने एक क्षणका (भी) विलम्ब नहीं किया, नृसिंह रूप धारण कर लिया। वे ही प्रभु श्रीराम पत्थरोंसे समुद्रको बाँधकर लंकाके दुर्गको घेर लेंगे और विभीषणसे मिल करके यहाँ अपनी विजय-घोषणा करेंगे।’
विषय (हिन्दी)
राग धनाश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१२८)
रे पिय! लंका बनचर आयौ।
करि परिपंच हरी तैं सीता, कंचन-कोट ढहायौ॥
तब तैं मूढ़ मरम नहिं जान्यौ, जब मैं कहि समुझायौ।
बेगि न मिलौ जानकी लै कै, रामचंद्र चढ़ि आयौ॥
ऊँची धुजा देखि रथ ऊपर, लछिमन धनुष चढ़ायौ।
गहि पद ‘सूरदास’ कहै भामिनि, राज बिभीषन पायौ॥
मूल
(१२८)
रे पिय! लंका बनचर आयौ।
करि परिपंच हरी तैं सीता, कंचन-कोट ढहायौ॥
तब तैं मूढ़ मरम नहिं जान्यौ, जब मैं कहि समुझायौ।
बेगि न मिलौ जानकी लै कै, रामचंद्र चढ़ि आयौ॥
ऊँची धुजा देखि रथ ऊपर, लछिमन धनुष चढ़ायौ।
गहि पद ‘सूरदास’ कहै भामिनि, राज बिभीषन पायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मन्दोदरीने कहा—) ‘प्रियतम! तुमने छल-प्रपंच करके श्रीसीताजीका हरण किया, इसीलिये वानर हनुमान् लंकामें आये और उन्होंने स्वर्णके गढ़को ध्वस्त किया। जब मैंने समझाया, तब भी मूर्खतावश तुमने कुछ भेद नहीं समझा। अब भी श्रीजानकीको लेकर झटपट क्यों नहीं मिल लेते, अन्यथा श्रीरामचन्द्रजी चढ़ आये हैं (उन्होंने चढ़ाई कर दी है) रथके ऊपर (उस) ऊँची ध्वजाको देखो! और लक्ष्मणने धनुष चढ़ा लिया है।’ सूरदासजी कहते हैं कि (रावणका) पैर पकड़कर रानी मन्दोदरी कहती है—(लंकाका) ‘राज्य तो विभीषणने पा लिया (प्रभु उसे राजतिलक तो कर चुके, अब तुम सीताजीको देकर अपने प्राण तो बचा लो)।’
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१२९)
सुनि प्रिय तोहि कथा सुनाऊँ।
यह परमोद बसत जिय मैं गति, कत बैकुंठ नसाऊँ॥
अधरम करतहिं गए जन्मसत, अब कैसैं सिर नाऊँ।
वह परतीति पैज रघुपति की, सो कैसें बृथा गवाऊँ॥
जौ गुरजन सुनाम नहिं धरते, तौ किति सिंधु बहाऊँ।
मैं पायो सिव कौ निरमायल, सो कैसें चरन छुवाऊँ॥
जौ सनकादिक श्राप न देते, तौ न कनकपुर आऊँ।
जौ ‘सूरज’ प्रभु-त्रिया न हरतौ, क्यौंऽब अभै पद पाऊँ॥
मूल
(१२९)
सुनि प्रिय तोहि कथा सुनाऊँ।
यह परमोद बसत जिय मैं गति, कत बैकुंठ नसाऊँ॥
अधरम करतहिं गए जन्मसत, अब कैसैं सिर नाऊँ।
वह परतीति पैज रघुपति की, सो कैसें बृथा गवाऊँ॥
जौ गुरजन सुनाम नहिं धरते, तौ किति सिंधु बहाऊँ।
मैं पायो सिव कौ निरमायल, सो कैसें चरन छुवाऊँ॥
जौ सनकादिक श्राप न देते, तौ न कनकपुर आऊँ।
जौ ‘सूरज’ प्रभु-त्रिया न हरतौ, क्यौंऽब अभै पद पाऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(मन्दोदरीकी बात सुनकर रावणने कहा—) ‘प्रिये! सुनो, तुम्हें पूरी बात सुनाता हूँ। मेरे हृदयमें यह प्रमोद (आनन्द) निवास करता है कि (श्रीरामद्वारा मारे जाकर) परमगति पाऊँगा, फिर मैं अपने वैकुण्ठका नाश क्यों करूँ? इसी प्रकार अधर्म करते सैकड़ों जन्म बीत गये हैं, अब कैसे प्रभुको मस्तक झुकाऊँ (उनकी शरणमें जानेयोग्य मैं हूँ कहाँ)? मेरे मनमें तो श्रीरघुनाथजीकी उस प्रतिज्ञापर विश्वास है (कि उन्होंने पृथ्वीको राक्षसहीन करनेको कहा है, शरणमें जाकर) उसे व्यर्थ क्यों करूँ? यदि गुरुजन मेरा यह सुन्दर नाम (जगत् को रुलानेवाला—रावण) न रखते तो मैं क्यों (रक्त और आँसूका) समुद्र बहाता (मुझे तो अपने नामको सार्थक करना है)। फिर मैंने तो भगवान् शंकरके निर्माल्यरूपमें ये मस्तक पाये हैं (इन्हें शंकरजीको काटकर चढ़ा चुका था, मुझे ये निर्माल्यरूपमें मिले हैं) इन्हें (श्रीरामके) चरणोंसे कैसे स्पर्श कराऊँ? यदि सनकादिकुमार (वैकुण्ठ जाकर मुझे) शाप न देते तो (भगवान् के पार्षदरूपको छोड़कर) मैं इस स्वर्णपुरीमें क्यों आता? यदि मैं प्रभुकी स्त्रीका हरण न करता तो अभयपद मुझे कैसे मिलता? (मुझे तो इसी बहाने अभयपद—मोक्ष पाना है।)’
विषय (हिन्दी)
राग कान्हरौ
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३०)
जनि बोलहि मंदोदरि रानी।
तेरी सौं, कछु कहत न बनई, मोहि राम बिपरीति कहानी॥
सुनि बावरी! मुगधि मति तेरी, जनकसुता तैं त्रिय करि जानी।
यह सीता निरभै कौ बोहित, सिंधु सुरूप बिषै कौ पानी॥
मोहि गवन सुरपुर कौं कीबे अपनैं काज कौं मैं हरि आनी।
‘सूरदास’ स्वामी केवट बिन, क्यौं उतरै रावन अभिमानी॥
मूल
(१३०)
जनि बोलहि मंदोदरि रानी।
तेरी सौं, कछु कहत न बनई, मोहि राम बिपरीति कहानी॥
सुनि बावरी! मुगधि मति तेरी, जनकसुता तैं त्रिय करि जानी।
यह सीता निरभै कौ बोहित, सिंधु सुरूप बिषै कौ पानी॥
मोहि गवन सुरपुर कौं कीबे अपनैं काज कौं मैं हरि आनी।
‘सूरदास’ स्वामी केवट बिन, क्यौं उतरै रावन अभिमानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(रावणने कहा—) ‘रानी मन्दोदरी! तू ऐसी बात मत कह। तेरी शपथ, मेरी और श्रीरामकी शत्रुताका वृत्तान्त (उसका रहस्य) कुछ कहा नहीं जाता। अरी पगली! सुन, तेरी बुद्धि तो मोहित हो रही है, तूने श्रीजनकनन्दिनीको साधारण स्त्री समझा है! यह श्रीसीताजी तो विषय-वासनारूपी जलसे भरे संसार-सागरसे अभयपद (मोक्ष)-की प्राप्तिके लिये जहाजके समान हैं। मुझे (इन्हें निमित्त बनाकर) सुरपुर (वैकुण्ठ) जाना है—अतः अपने कामसे मैं इन्हें हरण करके ले आया हूँ। इनके स्वामी श्रीराम-जैसे केवटके बिना अभिमानी रावण (संसार-सागरसे) कैसे पार उतर सकता है।’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३१)
रावन! तेरी मृत्यु तुलानी।
जानति हौं, तबही तैं सीता तैं अपनैं हरि आनी॥
राघव-से प्रभु बरन सैं दुर्जन! कनक अवास।
मोहि न देखत आवई, तौ लौं कंठ उसास॥
लच्छि होइ तौ दीजिये, नाम लेत संसार।
लच्छि-बिहीनै पुरुष कौं मारत, मरत सिंगार॥
अब तोकौं याही बनै, बिना जीव की बात।
‘सूरदास’ तो पन रहै रामचंद्र के हाथ॥
मूल
(१३१)
रावन! तेरी मृत्यु तुलानी।
जानति हौं, तबही तैं सीता तैं अपनैं हरि आनी॥
राघव-से प्रभु बरन सैं दुर्जन! कनक अवास।
मोहि न देखत आवई, तौ लौं कंठ उसास॥
लच्छि होइ तौ दीजिये, नाम लेत संसार।
लच्छि-बिहीनै पुरुष कौं मारत, मरत सिंगार॥
अब तोकौं याही बनै, बिना जीव की बात।
‘सूरदास’ तो पन रहै रामचंद्र के हाथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मन्दोदरी कहती है—) ‘रावण! तेरी मृत्यु आ गयी है, मैं जानती हूँ कि इसीलिये तुम श्रीजानकीजीको हरण करके अपने यहाँ ले आये हो। परम प्रभु श्रीरघुनाथजीसे शत्रुता करके अरे दुर्जन! तू स्वर्णपुरीमें रहना चाहता है? लेकिन मुझे तो यह भी देखनेमें नहीं आता कि तबतक (श्रीरघुनाथजीके आनेतक) तुम्हारे कण्ठमें श्वास भी रहेगी। (तबतक तुम जीवित रह सकोगे)।’ (यह सुनकर रावणने कहा—) ‘अपने पास लक्ष्मी हो, तब दान किया जाता है और उससे संसार नाम लेता है (संसारमें यश होता है); जो पुरुष लक्ष्मीहीन है, उसे तो सभी मारते (तिरस्कृत करते) हैं। मर जाना ही उसके लिये शोभाकी बात है। (श्रीजानकीजी साक्षात् लक्ष्मी हैं, अपने जीवित रहते मैं उन्हें दूँगा नहीं)।’ सूरदासजी कहते हैं—(मन्दोदरीने कहा—) ‘अब तुमसे यह बिना जीवनकी (मरनेकी) बात ही बन सकती है (मरनेके अतिरिक्त तुम्हारे लिये कोई उपाय रहा नहीं)। श्रीरामचन्द्रजीके हाथों ही तुम्हारा प्रण रहेगा (उनके हाथों मरनेपर ही तुम्हारी सद्गति होगी)।’
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३२)
सुक-सारन द्वै दूत पठाए।
बानर-बेष फिरत सैना मैं, जानि बिभीषन तुरत बँधाए॥
बीचहिं मार परी अति भारी, राम-लछन तब दरसन पाए।
दीनदयालु बिहाल देखि कै, छोरी भुजा, कहाँ तें आए॥
हम लंकेस-दूत प्रतिहारी, समुद-तीर कौं जात अन्हाए।
‘सूर’ कृपाल भए करुनामय, अपनें हाथ दूत पहिराए॥
मूल
(१३२)
सुक-सारन द्वै दूत पठाए।
बानर-बेष फिरत सैना मैं, जानि बिभीषन तुरत बँधाए॥
बीचहिं मार परी अति भारी, राम-लछन तब दरसन पाए।
दीनदयालु बिहाल देखि कै, छोरी भुजा, कहाँ तें आए॥
हम लंकेस-दूत प्रतिहारी, समुद-तीर कौं जात अन्हाए।
‘सूर’ कृपाल भए करुनामय, अपनें हाथ दूत पहिराए॥
अनुवाद (हिन्दी)
(रावणने) शुक और सारण—ये दो दूत (श्रीरामकी सेनाका भेद लेने) भेजे थे। वे वानरोंका रूप बनाकर सेनामें घूम रहे थे; किंतु विभीषणने उन्हें पहचानकर तुरंत बंदी करा दिया। (श्रीराम-लक्ष्मणतक पहुँचनेसे पूर्व) बीच (मार्ग)-में ही बहुत भारी मार उनपर पड़ी, तब कहीं उन्हें प्रभुके दर्शन मिले। दीनदयाल प्रभुने उन्हें व्याकुल देखकर उनके हाथ खोल दिये और पूछा—‘तुमलोग कहाँसे आये हो?’ (उन्होंने कहा—) ‘हम लंकापतिके द्वारपाल एवं दूत हैं, समुद्रकिनारे स्नान करने जा रहे थे (इतनेमें आपके सेवकोंने पकड़ लिया)।’ सूरदासजी कहते हैं कि करुणामय प्रभु (यह सुनकर) कृपालु हो गये। अपने हाथों उन्होंने दूतोंको पुष्प-माल्यादि पहनाया (और विदा कर दिया)।
राम-सागर-संवाद
विषय (हिन्दी)
राग धनाश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३३)
रघुपति जबै सिंधु-तट आए।
कुस-साथरी बैठि इक आसन, बासर तीनि बिताए॥
सागर गरब धरॺौ उर भीतर, रघुपति नर करि जान्यौ।
तब रघुबीर धीर अपने कर, अगिनि-बान गहि तान्यौ॥
तब जलनिधि खरभरॺौ त्रास गहि, जंतु उठे अकुलाइ।
कह्यौ, न नाथ बान मोहि जारौ, सरन परॺौ हौं आइ॥
आज्ञा होइ, एक छिन भीतर, जल इक दिसि करि डारौं।
अंतर मारग होइ, सबनि कौं, इहिं बिधि पार उतारौं॥
और मंत्र जो करौ देवमनि, बाँधौ सेतु बिचार।
दीन जानि, धरि चाप, बिहँसि कै, दियौ कंठ तें हार॥
यहै मंत्र सबहीं परधान्यौ, सेतु-बंध प्रभु कीजै।
सब दल उतरि होइ पारंगत, ज्यौं न कोउ इक छीजै॥
यह सुनि दूत गयौ लंका मैं, सुनत नगर अकुलानौ।
रामचंद्र-परताप दसौं दिसि, जल पर तरत पखानौ॥
दस सिर बोलि निकट बैठायौ, कहि धावन! सति भाउ।
उद्यम कहा होत लंका कौं, कौनैं कियौं उपाउ!
जामवंत-अंगद बंधू मिलि, कैसैं इहिं पुर ऐहैं।
मो देखत जानकी नयन भरि, कैसैं देखन पैहैं॥
हौं सति भाउ कहौं लंकापति, जो जिय-आयसु पाऊँ।
सकल भेव-व्यवहार कटक कौ, परगट भाषि सुनाऊँ॥
बार-बार यौं कहत सकात न, तोहि हति लैहैं प्रान।
मेरैं जान कनकपुरि फिरिहै, रामचंद्र की आन॥
कुंभकरनहूँ कह्यौ सभा मैं, सुनौ आदि उतपात।
एक दिवस हम ब्रह्म-लोक मैं, चलत सुनी यह बात॥
काम-अंध ह्वै सब कुटुंब-धन, जैहै एकै बार।
सो अब सत्य होत इहिं औसर, को है मेटनहार॥
और मंत्र अब उर नहिं आनौं, आजु बिकट रन माँड़ौं।
गहौं बान रघुपति के सन्मुख, ह्वै करि यह तन छाँड़ौं॥
यह जस जीति परम पद पावौं, उर-संसै सब खोइ।
‘सूर’ सकुचि जो सरन सँभारौं, छत्री-धर्म न होइ॥
मूल
(१३३)
रघुपति जबै सिंधु-तट आए।
कुस-साथरी बैठि इक आसन, बासर तीनि बिताए॥
सागर गरब धरॺौ उर भीतर, रघुपति नर करि जान्यौ।
तब रघुबीर धीर अपने कर, अगिनि-बान गहि तान्यौ॥
तब जलनिधि खरभरॺौ त्रास गहि, जंतु उठे अकुलाइ।
कह्यौ, न नाथ बान मोहि जारौ, सरन परॺौ हौं आइ॥
आज्ञा होइ, एक छिन भीतर, जल इक दिसि करि डारौं।
अंतर मारग होइ, सबनि कौं, इहिं बिधि पार उतारौं॥
और मंत्र जो करौ देवमनि, बाँधौ सेतु बिचार।
दीन जानि, धरि चाप, बिहँसि कै, दियौ कंठ तें हार॥
यहै मंत्र सबहीं परधान्यौ, सेतु-बंध प्रभु कीजै।
सब दल उतरि होइ पारंगत, ज्यौं न कोउ इक छीजै॥
यह सुनि दूत गयौ लंका मैं, सुनत नगर अकुलानौ।
रामचंद्र-परताप दसौं दिसि, जल पर तरत पखानौ॥
दस सिर बोलि निकट बैठायौ, कहि धावन! सति भाउ।
उद्यम कहा होत लंका कौं, कौनैं कियौं उपाउ!
जामवंत-अंगद बंधू मिलि, कैसैं इहिं पुर ऐहैं।
मो देखत जानकी नयन भरि, कैसैं देखन पैहैं॥
हौं सति भाउ कहौं लंकापति, जो जिय-आयसु पाऊँ।
सकल भेव-व्यवहार कटक कौ, परगट भाषि सुनाऊँ॥
बार-बार यौं कहत सकात न, तोहि हति लैहैं प्रान।
मेरैं जान कनकपुरि फिरिहै, रामचंद्र की आन॥
कुंभकरनहूँ कह्यौ सभा मैं, सुनौ आदि उतपात।
एक दिवस हम ब्रह्म-लोक मैं, चलत सुनी यह बात॥
काम-अंध ह्वै सब कुटुंब-धन, जैहै एकै बार।
सो अब सत्य होत इहिं औसर, को है मेटनहार॥
और मंत्र अब उर नहिं आनौं, आजु बिकट रन माँड़ौं।
गहौं बान रघुपति के सन्मुख, ह्वै करि यह तन छाँड़ौं॥
यह जस जीति परम पद पावौं, उर-संसै सब खोइ।
‘सूर’ सकुचि जो सरन सँभारौं, छत्री-धर्म न होइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजी जब समुद्र-तटपर पहुँचे, तब कुश बिछाकर एक आसनसे (बिना उठे या आसन बदले) बैठे तीन दिन-रात्रि उन्होंने (समुद्रसे मार्ग देनेकी प्रार्थना करते हुए) व्यतीत किये। किंतु समुद्रने उस समय अपने हृदयमें गर्व धारण कर लिया, उसने श्रीरघुनाथजीको सामान्य मनुष्य समझ लिया था। (यह देखकर अन्तमें) धैर्यशाली श्रीरघुनाथजीने अपने हाथमें अग्नि-बाण लिया और उसे धनुषपर चढ़ाया। (बाणके चढ़ाते ही) समुद्र भयसे खलबला उठा, उसके (भीतर रहनेवाले) जीव-जन्तु व्याकुल हो गये। (प्रकट होकर) समुद्रने कहा—‘प्रभो! मैं आपकी शरणमें आकर पड़ा हूँ, मुझे अपने बाणसे भस्म न करें। यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने जलको एक ओर हटा लूँ। इस प्रकार मेरे भीतर मार्ग हो जाय और मैं सबको पार उतार दूँ। परंतु देवशिरोमणि! यदि आप दूसरा विचार पसंद करें तो विचार करके मेरे ऊपर पुल बाँध लें।’ प्रभुने (समुद्रको) दीन समझकर हँसकर धनुष रख दिया और गलेसे उतारकर पुष्पमाल्य उसे प्रसादस्वरूप दे दिया। सभीने (समुद्रके) इस दूसरे विचारको ही प्रधानता दी (और एक स्वरसे कहा—) ‘प्रभो! पुल बाँध लीजिये, जिससे पूरी सेना उस पार उतर जाय, किसी एककी भी क्षति न हो।’ (रावणका) दूत यह सब बातें सुनकर लंका गया। उसके द्वारा यह सुनकर कि श्रीरामचन्द्रजीका प्रताप दसों दिशाओंमें व्याप्त है, (उनके प्रतापसे) जलपर पत्थर तैर रहे हैं, पूरा नगर व्याकुल हो गया। रावणने दूतको बुलाकर पास बैठा लिया (और बोला—) ‘दूत! सच-सच बताओ कि (रामके दलमें) लंका आनेके लिये क्या उद्योग हो रहा है। किसने (क्या) उपाय किया है? जाम्बवान् , अंगद अपने साथियोंके साथ इस नगरमें कैसे आयेंगे और मेरे जीते-जी सीताको आँखभर देख भी कैसे सकेंगे?’ (दूतने कहा—) ‘लंकेश्वर! यदि आप आज्ञा दें और जीवनदान दें (मारेंगे नहीं, यह वचन दें) तो मैं सच्चे मनसे (सब बातें) कहूँ। श्रीरामकी सेनाका सारा भेद और बर्ताव प्रत्यक्ष (सबके सामने) कहकर सुना दूँ। (वे कपि तो) बार-बार ऐसा कहते संकोच ही नहीं करते कि आपको वे मार डालेंगे, प्राण ले लेंगे। मुझे भी यही जान पड़ता है कि स्वर्णपुरी लंकामें श्रीरामचन्द्रजीकी विजय घोषित होगी।’ सूरदासजी कहते हैं—(उसी समय) कुम्भकर्णने भी राजसभामें कहा—‘पहले जो उत्पात (अमंगल समाचार) हुआ, उसे सुनो! मैंने एक दिन ब्रह्मलोकमें यह चर्चा सुनी कि तुम्हारे कामान्ध होनेसे (राक्षसोंके) सब धन एवं परिवारका एक ही बार नाश हो जायगा। इस समय वही बात अब सत्य हो रही है; भला, इसे मिटा कौन सकता है। अब मैं दूसरे किसी विचारको हृदयमें स्थान नहीं दूँगा, आज भयंकर युद्ध करूँगा। श्रीरघुनाथजीके सामने बाण पकड़ूँगा (उनसे युद्ध करूँगा) और (उनके देखते-देखते) यह शरीर छोड़ दूँगा। यह सुयश कमाऊँगा (कि कुम्भकर्ण श्रीरामके हाथों मारा गया) तथा परम पद प्राप्त करूँगा। हृदयके सारे संदेहोंको अब नष्ट कर दूँगा। यदि संकोच करके मैं (विभीषणकी भाँति) शरण लूँ तो यह क्षत्रिय (योद्धा)-के योग्य धर्म नहीं होगा।’
सेतु-बन्धन
विषय (हिन्दी)
राग धनाश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३४)
रघुपति चित्त बिचार करॺौ।
नातौ मानि सगर सागर सौं, कुस-साथरी परॺौ॥
तीनि जाम अरु बासर बीते, सिंधु गुमान भरॺौ।
कीन्हौ कोप कुँवर कमलापति, तब कर धनुष धरॺौ॥
ब्रह्म-बेष आयौ अति ब्याकुल, देखत बान डरॺौ।
द्रुम-पषान प्रभु बेगि मँगायौ, रचना सेतु करॺौ॥
नल अरु नील बिस्वकर्मा-सुत, छुवत पषान तरॺौ।
‘सूरदास’ स्वामी प्रताप तें सब संताप हरॺौ॥
मूल
(१३४)
रघुपति चित्त बिचार करॺौ।
नातौ मानि सगर सागर सौं, कुस-साथरी परॺौ॥
तीनि जाम अरु बासर बीते, सिंधु गुमान भरॺौ।
कीन्हौ कोप कुँवर कमलापति, तब कर धनुष धरॺौ॥
ब्रह्म-बेष आयौ अति ब्याकुल, देखत बान डरॺौ।
द्रुम-पषान प्रभु बेगि मँगायौ, रचना सेतु करॺौ॥
नल अरु नील बिस्वकर्मा-सुत, छुवत पषान तरॺौ।
‘सूरदास’ स्वामी प्रताप तें सब संताप हरॺौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीने अपने चित्तमें विचार किया और (अपने पूर्वज) महाराज सगरके सम्बन्धसे सागरसे नाता मानकर (यह सोचकर कि सगरपुत्रोंद्वारा खोदा गया सागर मेरा सम्मान्य है) कुश बिछाकर (प्रार्थना करने) बैठ गये। इस प्रकार बैठे उन्हें तीन रात्रि तथा तीन दिन बीत गये; किंतु समुद्र अभिमानमें भरा था। (उसने कोई ध्यान नहीं दिया।) तब श्रीरघुनाथजीने क्रोध करके हाथमें धनुष उठाया (और बाण चढ़ाया)। उनके बाणको देखते ही समुद्र डर गया एवं अत्यन्त व्याकुल होकर ब्राह्मणका वेश बनाकर आया। (समुद्रकी सम्मतिसे) प्रभुने वृक्ष एवं पत्थर मँगवाकर शीघ्रतापूर्वक पुलका निर्माण कराया। नल और नील—ये दोनों भाई विश्वकर्माके पुत्र थे, उनके छूते ही पत्थर पानीपर तैरने लगे (इस प्रकार पुल बन गया)। सूरदासजी कहते हैं—कि प्रभुने अपने प्रतापसे ही मेरे समस्त कष्टोंको दूर कर दिया।
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३५)
आपुन तरि-तरि औरनि तारत।
असम अचेत प्रगट पानी मैं, बनचर लै-लै डारत॥
इहिं बिधि उपले तरत पात ज्यौं, जदपि सैल अति भारत।
बुद्धि न सकति सेतु-रचना रचि, राम-प्रताप बिचारत॥
जिहिं जल तृन, पसु, दारु बूड़ि अपने सँग औरनि पारत।
तिहिं जल गाजत महाबीर सब, तरत आँखि नहिं मारत॥
रघुपति-चरन-प्रताप प्रगट सुर, ब्यौम बिमाननि गावत।
‘सूरदास’ क्यौं बूड़त कलऊ, नाम न बूड़न पावत॥
मूल
(१३५)
आपुन तरि-तरि औरनि तारत।
असम अचेत प्रगट पानी मैं, बनचर लै-लै डारत॥
इहिं बिधि उपले तरत पात ज्यौं, जदपि सैल अति भारत।
बुद्धि न सकति सेतु-रचना रचि, राम-प्रताप बिचारत॥
जिहिं जल तृन, पसु, दारु बूड़ि अपने सँग औरनि पारत।
तिहिं जल गाजत महाबीर सब, तरत आँखि नहिं मारत॥
रघुपति-चरन-प्रताप प्रगट सुर, ब्यौम बिमाननि गावत।
‘सूरदास’ क्यौं बूड़त कलऊ, नाम न बूड़न पावत॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कितना आश्चर्य है) वानरगण अचेतन विषम पत्थरोंको ला-लाकर समुद्रके जलमें डालते हैं और वे पर्वत यद्यपि अत्यन्त भारी हैं, तब भी सब पत्थर इस प्रकार जलपर तैरते हैं, जैसे पत्ते हों। वे स्वयं तो तैरते ही हैं, अपने ऊपरसे (अथवा अपने सहारे) औरोंको भी पार करते हैं। बुद्धिकी देवी सरस्वती भी ऐसे सेतुका निर्माण नहीं कर सकती थीं, वे भी बैठकर श्रीरामके प्रतापका ही चिन्तन करती हैं कि समुद्रके जिस जलमें तिनके, पशु और काष्ठतक (लहरोंमें) डूब जाते हैं और अपने साथ दूसरोंको भी डुबा देते हैं, उसी समुद्र-जलके ऊपरसे सब महावीर वानर गर्जना करते हुए जा रहे हैं और उन्हें पार जानेमें एक निमेषका विलम्ब नहीं हो रहा है। देवतालोग विमानोंमें बैठे श्रीरघुनाथजीके श्रीचरणोंके इस प्रत्यक्ष प्रतापका गान कर रहे हैं। सूरदासजी कहते हैं—उन श्रीरघुनाथजीका नाम लेनेवाला (भवसागरमें) डूबने नहीं पाता, फिर मैं ही इस कलियुगमें कैसे डूब सकता हूँ।
विषय (हिन्दी)
राग धनाश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३६)
सिंधु-तट उतरे राम उदार।
रोष बिषम कीन्हौ रघुनंदन, सिय की बिपति बिचार॥
सागर पर गिरि, गिरि पर अंबर, कपि घन के आकार।
गरज-किलक-आघात उठत, मनु दामिनि पावस-झार॥
परत फिराइ पयोनिधि भीतर, सरिता उलटि बहाईं।
मनु रघुपति-भयभीत सिंधु, पत्नी प्यौसार पठाई॥
बाला-बिरह दुसह सबही कौं, जान्यौ राजकुमार।
बानबृष्टि, स्रोनित करि सरिता, ब्याहत लगी न बार॥
सुबरन लंक-कलस-आभूषन, मनि-मुक्ता-गन हार।
सेतु-बंध करि तिलक, ‘सूर’ प्रभु रघुपति उतरे पार॥
मूल
(१३६)
सिंधु-तट उतरे राम उदार।
रोष बिषम कीन्हौ रघुनंदन, सिय की बिपति बिचार॥
सागर पर गिरि, गिरि पर अंबर, कपि घन के आकार।
गरज-किलक-आघात उठत, मनु दामिनि पावस-झार॥
परत फिराइ पयोनिधि भीतर, सरिता उलटि बहाईं।
मनु रघुपति-भयभीत सिंधु, पत्नी प्यौसार पठाई॥
बाला-बिरह दुसह सबही कौं, जान्यौ राजकुमार।
बानबृष्टि, स्रोनित करि सरिता, ब्याहत लगी न बार॥
सुबरन लंक-कलस-आभूषन, मनि-मुक्ता-गन हार।
सेतु-बंध करि तिलक, ‘सूर’ प्रभु रघुपति उतरे पार॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदार श्रीराम समुद्रके किनारे उतर गये (उन्होंने तटपर पड़ाव डाल दिया)। श्रीजानकीजीकी विपत्तिका विचार करके श्रीरघुनाथजीने भयंकर क्रोध किया। समुद्रपर (सेतुबन्धके) पर्वत थे तथा उनपर आकाश था और उन पर्वतोंपरसे पार जाते वानरसमूह आकाशमें छाये बादलोंके समान जान पड़ते थे। कपिदलकी गर्जना एवं किलकारीकी प्रतिध्वनि ऐसी हो रही थी, मानो वर्षा-ऋतुकी झड़ी लगी हो और उसमें बिजलीका घोष हो रहा हो। (वानरोंका लंकाको जाता दल ऐसा लगता है) जैसे जो नदियाँ समुद्रमें गिर रही थीं, उन्हें उलटे लौटाकर दूसरी दिशामें प्रवाहित कर दिया है, मानो समुद्रने श्रीरघुनाथजीके भयसे अपनी पत्नियोंको मायके भेज दिया है। किंतु राजकुमार श्रीरामने समझ लिया कि स्त्रीके वियोगका असहनीय दुःख सभीको होता है (इससे समुद्रका पत्नी वियोगजन्य दुःख दूर करनेके लिये) बाणोंकी वर्षा करके रक्तकी नदी प्रवाहित करके (उससे समुद्रका) विवाह करा देनेमें उन्हें देर नहीं लगी। (समुद्रके इस नवीन विवाहमें) सोनेकी लंका ही मानो कलश थी, (युद्धभूमिमें बिखरे) मणियों तथा मोतियोंकी मालाएँ आभूषण थे। सूरदासजी कहते हैं—श्रीरघुनाथजी मानो सेतुबन्धरूपी मंगल-तिलक समुद्रको लगाकर पार उतरे।
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३७)
अनैसे ठाढ़े सागर तीर।
अग्रज-अनुज मनोहर-मूरति, सोभित दोऊ बीर॥
दछिन-बाम-भुज बान-चाप गहि, अतिबल मद रनधीर।
उत्तर दिसा त्रिकूट-सिखर पर वह कपिदल की भीर॥
इत रति-रत देखौ ये कारन……….उगिलत नीर।
दस सिर हरन दास ‘सूरज’ प्रभु मिलि मेटन मन पीर॥
मूल
(१३७)
अनैसे ठाढ़े सागर तीर।
अग्रज-अनुज मनोहर-मूरति, सोभित दोऊ बीर॥
दछिन-बाम-भुज बान-चाप गहि, अतिबल मद रनधीर।
उत्तर दिसा त्रिकूट-सिखर पर वह कपिदल की भीर॥
इत रति-रत देखौ ये कारन……….उगिलत नीर।
दस सिर हरन दास ‘सूरज’ प्रभु मिलि मेटन मन पीर॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े और छोटे दोनों भाई (श्रीराम-लक्ष्मण) मनोहर मूर्तिधारी हैं। अत्यन्त बलवान् , मत्तगयंद-जैसे रणधीर दोनों भाई दाहिने हाथमें बाण और बायें हाथमें धनुष लिये रोषमें भरे समुद्रके किनारे खड़े शोभित हो रहे हैं। उत्तर ओर त्रिकूट-पर्वतके शिखरपर वह कपियोंके दलकी भीड़ एकत्र हो रही है। (इतनेपर भी) यहाँ यह (रावण) भोग-विलासमें लगा है; देखो, इस कारणसे (रानी मन्दोदरी) (नेत्रोंसे) आँसू बहा रही है। सूरदासजी कहते हैं—रावणके दसों मस्तकोंको काटनेवाले प्रभु सेवकोंसे मिलकर (उनपर कृपा करके) उनके मनकी पीड़ा दूर कर देनेवाले हैं।
श्रीसीताजीको त्रिजटाका आश्वासन
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३८)
अब न करौ जिय सोच जानकी।
रघुपति बीर तीर सरितापति रोकत है जलनिधान की॥
देखि भुजा-प्रताप कटि-मेखल छत्र-चमर दुतिमान की।
असुर कहे परतीति कथा न वह, कपि जु कहे रघुनाथ बान की॥
सुनि मम बचन निवारन इन जल कछुक धरौ चित खान-पान की।
इहि दिन छिन कमाउ…………लंगी आसा पूर ग्रही आन-आन की॥
उट कहत जगजीतनि कहस तुझ मन अवधि विकट हरके बरदान की।
‘सूरदास’ प्रभु रिपु के भुज मेंटिन……….तमि कुल-संतान की॥
मूल
(१३८)
अब न करौ जिय सोच जानकी।
रघुपति बीर तीर सरितापति रोकत है जलनिधान की॥
देखि भुजा-प्रताप कटि-मेखल छत्र-चमर दुतिमान की।
असुर कहे परतीति कथा न वह, कपि जु कहे रघुनाथ बान की॥
सुनि मम बचन निवारन इन जल कछुक धरौ चित खान-पान की।
इहि दिन छिन कमाउ…………लंगी आसा पूर ग्रही आन-आन की॥
उट कहत जगजीतनि कहस तुझ मन अवधि विकट हरके बरदान की।
‘सूरदास’ प्रभु रिपु के भुज मेंटिन……….तमि कुल-संतान की॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(त्रिजटा कहती है—) ‘श्रीजानकीजी! अब शोक मत करो। वीर श्रीरामचन्द्रजी समुद्र किनारे आ गये हैं और जलनिधिको रोक (बाँध) रहे हैं। उनकी भुजाका प्रताप तो देखो कि (मन्दोदरीकी) कटिकी मेखला (करधनी) और (रावणके) प्रकाशमान छत्र-चामर उन्होंने वहींसे काट दिये। मैं राक्षसी हूँ, अतः मेरी कही इस बातपर आपको विश्वास न हो तो भी वह रघुनाथके बाणका जो प्रभाव कपि (हनुमान् जी)-ने कहा था, उसपर तो विश्वास करो। मेरी बात सुनो! इन नेत्रोंसे अश्रु बहाना बंद करो और कुछ तो खाने-पीनेका विचार चित्तमें करो। ये (विपत्तिके) दिन अब क्षणोंकी भाँति व्यतीत हो जायँगे; (अब आप प्रभुसे) मिलेंगी, आपकी आशा पूरी होगी, आपके व्रतकी लज्जा आपके पाणिग्रही प्रभुको है। आप ही तो कहती हैं कि प्रभुने कुटियामें रहते समय विश्व-विजय करनेको कहा था; किंतु आपके मनमें तो (रावणको मिले) शंकरजीके विकट वरदानकी सीमा बन गयी है (कि उस वरदानके प्रभावसे रावण अजेय है; किंतु यह भय आप छोड़ दें)। प्रभु शत्रुकी भुजाएँ काट देंगे और उसके (बन्धु-बान्धवोंको) कुल-संतानसहित नष्ट कर देंगे।’
मन्दोदरीकी रावणसे प्रार्थना
विषय (हिन्दी)
राग धनाश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१३९)
देखि रे, वह सारँगधर आयौ।
सागर-तीर भीर बानर की, सिर पर छत्र तनायौ॥
संख-कुलाहल सुनियन लागे, लीला-सिंधु बँधायौ।
सोवत कहा लंक गढ़ भीतर, अति कै कोप दिखायौ॥
पदुम कोटि जिहिं सैना सुनियत, जंतु जु एक पठायौ।
‘सूरदास’ हरि बिमुख भए जे, तिनि केतिक सुख पायौ!॥
मूल
(१३९)
देखि रे, वह सारँगधर आयौ।
सागर-तीर भीर बानर की, सिर पर छत्र तनायौ॥
संख-कुलाहल सुनियन लागे, लीला-सिंधु बँधायौ।
सोवत कहा लंक गढ़ भीतर, अति कै कोप दिखायौ॥
पदुम कोटि जिहिं सैना सुनियत, जंतु जु एक पठायौ।
‘सूरदास’ हरि बिमुख भए जे, तिनि केतिक सुख पायौ!॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मन्दोदरी रावणसे कहती है—) ‘अरे देखो! वे शार्ङ्गधारी श्रीराम आ गये। समुद्रके किनारे वानर-भालुओंकी भीड़ हो रही है। श्रीरामके मस्तकपर छत्र लगा है। शंखकी ध्वनिका कोलाहल सुनायी पड़ने लगा है। समुद्र तो उन्होंने खेल-खेलमें बाँध लिया। वे अत्यन्त क्रोधित दिखलायी पड़ते हैं। तुम अब भी दुर्गके भीतर क्या सो रहे हो? (पहले तो उन्होंने) एक साधारण दूत यहाँ भेजा था (जिसने लंका जला दी और अब) सुना जाता है कि एक करोड़ पद्म सेना उनके साथ है।’ सूरदासजी कहते हैं—जो श्रीहरिसे विमुख हो गये, उन्होंने कितना सुख पाया? (प्रभुसे विमुख रावणको दुःख तो भोगना ही ठहरा।)
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४०)
मो मति अजहुँ जानकी दीजै।
लंकापति-तिय कहति पिया सौं, यामैं कछू न छीजै॥
पाहन तारे, सागर बाँध्यौ, तापर चरन न भीजै।
बनचर एक लंक तिहिं जारी, ताकी सरि क्यौं कीजै?॥
चरन टेकि, दोउ हाथ जोरि कै, बिनती क्यौं नहिं कीजै?।
वे त्रिभुवन-पति, करहिं कृपा अति, कुटुँब-सहित सुख जीजै॥
आवत देखि बान रघुपति के, तेरौ मन न पसीजै।
‘सूरदास’ प्रभु लंक जारि कै, राज बिभीषन दीजै॥
मूल
(१४०)
मो मति अजहुँ जानकी दीजै।
लंकापति-तिय कहति पिया सौं, यामैं कछू न छीजै॥
पाहन तारे, सागर बाँध्यौ, तापर चरन न भीजै।
बनचर एक लंक तिहिं जारी, ताकी सरि क्यौं कीजै?॥
चरन टेकि, दोउ हाथ जोरि कै, बिनती क्यौं नहिं कीजै?।
वे त्रिभुवन-पति, करहिं कृपा अति, कुटुँब-सहित सुख जीजै॥
आवत देखि बान रघुपति के, तेरौ मन न पसीजै।
‘सूरदास’ प्रभु लंक जारि कै, राज बिभीषन दीजै॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि लंकेश्वरकी स्त्री उससे कहती है—‘प्रियतम! मेरी समझसे श्रीजानकीजीको दे देना चाहिये, इसमें तुम्हारी कोई हानि नहीं है। जिन्होंने (जलपर) पत्थर तैराकर समुद्रको बाँध लिया, समुद्र पार करनेमें जिनके चरण भींगेतक नहीं, जिनके भेजे एक कपिने लंका जला दी, उनकी बराबरी (उनसे झगड़ा) कैसे किया जा सकता है। घुटने टेककर, दोनों हाथ जोड़कर उनसे क्षमा-प्रार्थना क्यों नहीं करते? वे तो त्रिलोकीनाथ हैं, तुमपर अत्यन्त कृपा करेंगे, (उनकी कृपासे) परिवारके साथ सुखपूर्वक जीवित रह सकोगे। उन श्रीरघुनाथके बाणोंको आता देखकर भी तुम्हारा चित्त पिघलता क्यों नहीं? प्रभुने लंकाको तो जलवा दिया और यहाँका राज्य विभीषणको दे दिया (विभीषणको राजतिलक कर दिया। इतनेपर भी तो समझ जाओ, जिससे प्राण तो बच जायँ)।’
रावणकी गर्वोक्ति
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४१)
कहा तू कहति तिय, बार-बारी।
कोटि तैंतीस सुर सेव अहनिसि करैं, राम अरु लच्छमन हैं कहारी॥
मृत्यु कौं बाँधि मैं राखियौ कूप मैं, देहि आवन, कहा डरति नारी।
कहति मंदोदरी, मेटि को सकै तिहि, जो रची ‘सूर’ प्रभु होनहारी॥
मूल
(१४१)
कहा तू कहति तिय, बार-बारी।
कोटि तैंतीस सुर सेव अहनिसि करैं, राम अरु लच्छमन हैं कहारी॥
मृत्यु कौं बाँधि मैं राखियौ कूप मैं, देहि आवन, कहा डरति नारी।
कहति मंदोदरी, मेटि को सकै तिहि, जो रची ‘सूर’ प्रभु होनहारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(रावण कहता है—) ‘रानी! तू यही बात बार-बार क्या कहती है। तैंतीस करोड़ देवता रात-दिन मेरी सेवा करते हैं। (मेरे लिये) राम-लक्ष्मण क्या वस्तु हैं। मैंने मृत्युको बाँधकर कुएँमें बंदी कर रखा है, मेरी स्त्री होकर तू डरती क्यों है? उन्हें आने तो दे।’ सूरदासजी कहते हैं (यह सुनकर) मन्दोदरीने कहा—‘प्रभुने जो होनहार निश्चित कर दी है, भला, उसे कौन मिटा सकता है।’
श्रीराम-अंगद-संवाद
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४२)
लंक प्रति राम अंगद पठावै।
जाऔ बली बीर सुत बालि के,
बिबिध बानी कहै मुखहि भावै॥
बचन अंगद कहै, कहाँ कौं पठवत
मोहि इतनी कहौ नाथ मेरे।
कहौ प्राकार और द्वार तोरन सहित
लंक कौं लै धरौं अग्र तेरे॥
सकल बनचरन कौं लै धरौं लंक मैं,
कहौ गिरि-सिलन सों सिंधु पूरूँ।
‘सूर’ सुन बोल अंगद कहत राम सौं,
प्रबल बल कहौ अरि-बंस चूरूँ॥
मूल
(१४२)
लंक प्रति राम अंगद पठावै।
जाऔ बली बीर सुत बालि के,
बिबिध बानी कहै मुखहि भावै॥
बचन अंगद कहै, कहाँ कौं पठवत
मोहि इतनी कहौ नाथ मेरे।
कहौ प्राकार और द्वार तोरन सहित
लंक कौं लै धरौं अग्र तेरे॥
सकल बनचरन कौं लै धरौं लंक मैं,
कहौ गिरि-सिलन सों सिंधु पूरूँ।
‘सूर’ सुन बोल अंगद कहत राम सौं,
प्रबल बल कहौ अरि-बंस चूरूँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामने अंगदको लंका भेजते हुए कहा—‘बालिके बलवान् कुमार! तुम इस प्रकार अनेक युक्तिपूर्ण बातें कहते हो, जो सबके मनको पसंद आती हैं, अतः (दूत बनकर तुम) लंका जाओ।’ (प्रभुकी यह बात सुनकर) अंगदजी कहने लगे—‘मेरे स्वामी! आप मुझे कहाँ भेज रहे हैं, यह तो बताइये! (लंका दूत बनाकर मुझे भेजनेकी क्या आवश्यकता है?) आप आज्ञा दें तो चहारदीवारी तथा तोरणद्वार (प्रवेशद्वार) सहित पूरी लंका (उखाड़कर) आपके आगे रख दूँ , अथवा समस्त कपिदलको उठाकर लंकामें पहुँचा दूँ , या आप कहें तो समुद्रको पर्वतोंसे पाट दूँ।’ सूरदासजी कहते हैं कि प्रभुकी बात सुनकर अंगदजीने श्रीरामसे कहा—‘आप आज्ञा दें तो अपने महान् बलसे (मैं अकेला ही) शत्रुको वंशसहित चूर्ण (नष्ट) कर दूँ।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४३)
बीर! सहज मैं होय तौ बल न कीजै।
रीति महापुरुष की आदि ते अंत लौं,
जानि कै दुख काहू कौं न दीजै॥
जाय अंगद! कहौ आपनी साधुता,
यह बचन कहत कछु दोष नाहीं।
लाभ अति होयगौ सत्रु करि मित्रता,
दीनता भाखियै जाहि ताहीं॥
साधु के पास जगदीस कोऊ कहै,
बोलियै साधुता टेक छोरी।
बालि-नंदन प्रति राम ऐसैं कहैं,
सबन की ‘सूर’ प्रभु हाथ डोरी॥
मूल
(१४३)
बीर! सहज मैं होय तौ बल न कीजै।
रीति महापुरुष की आदि ते अंत लौं,
जानि कै दुख काहू कौं न दीजै॥
जाय अंगद! कहौ आपनी साधुता,
यह बचन कहत कछु दोष नाहीं।
लाभ अति होयगौ सत्रु करि मित्रता,
दीनता भाखियै जाहि ताहीं॥
साधु के पास जगदीस कोऊ कहै,
बोलियै साधुता टेक छोरी।
बालि-नंदन प्रति राम ऐसैं कहैं,
सबन की ‘सूर’ प्रभु हाथ डोरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
बालिकुमार अंगदसे श्रीरामजीने इस प्रकार कहा—‘वीर! कोई कार्य सहजमें ही (समझाने-बुझानेसे) होता हो तो वहाँ बलप्रयोग नहीं करना चाहिये। प्रारम्भसे अन्ततक महापुरुषोंकी यही पद्धति है कि जान-बूझकर किसीको दुःख नहीं देना चाहिये। अंगद! लंका जाकर तुम अपने उत्तम स्वभावके अनुरूप ही बात कहो (नम्रतासे बात करो)। नम्रताके वचन कहनेमें कुछ दोष नहीं है। शत्रुसे मित्रता करके अत्यन्त लाभ ही होगा, फिर (नियम यही है कि) चाहे जिससे बात करनी हो, नम्रतासे ही बोलना चाहिये। सज्जन पुरुषके पास कोई भी अपनेको (अभिमानसे चाहे) जगदीश्वर (सर्वसमर्थ) ही क्यों न बताये; स्वयं उससे अहंकारका त्याग करके सज्जनतासे ही बोलना चाहिये।’ सूरदासजी कहते हैं कि सबके संचालनका सूत्र तो प्रभुके ही हाथमें है (अतः प्रभुकी आज्ञा ही अंगदजीको माननी ठहरी)।
अंगदका लंकागमन
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४४)
श्रीराम-आदेस अंगद चल्यौ लंक कौं,
प्रभु जब दोउ करन पीठ थापी।
धरनि धसि सिंधु गई, सभा उलटी भई,
इनहि मैं कौन रावन प्रतापी॥
(श्री) राम कौं सत्रु कर, आप सिर छत्र धर,
रहन न पावै कहूँ ऐसौ पापी।
ठौरहीं ठौर बहु रूप रावन भए ,
सबहि अंगद प्रति बचन बोले॥
‘सूर’ अंगद कहै, मा हुती सूकरी,
बहुत रावन जने पेट खोले॥
मूल
(१४४)
श्रीराम-आदेस अंगद चल्यौ लंक कौं,
प्रभु जब दोउ करन पीठ थापी।
धरनि धसि सिंधु गई, सभा उलटी भई,
इनहि मैं कौन रावन प्रतापी॥
(श्री) राम कौं सत्रु कर, आप सिर छत्र धर,
रहन न पावै कहूँ ऐसौ पापी।
ठौरहीं ठौर बहु रूप रावन भए ,
सबहि अंगद प्रति बचन बोले॥
‘सूर’ अंगद कहै, मा हुती सूकरी,
बहुत रावन जने पेट खोले॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभुने जब दोनों हाथों पीठ ठोंककर प्रोत्साहित किया, तब श्रीरामके आदेशसे अंगद लंकाको चले। उनके चलनेसे पृथ्वी समुद्रमें धसकने लगी। (जब वे रावणकी राजसभामें पहुँचे, तब तो) पूरी सभा उलट गयी (मुँहके बल पृथ्वीपर गिर पड़ी)। (सबके गिर जानेसे यह पता नहीं चल सका कि) इनमें प्रतापी रावण कौन है। जो श्रीरामको शत्रु बनाकर स्वयं सिरपर छत्र धारण करता है (राजा बना बैठा है), ऐसा पापी कहीं रहनेको स्थान नहीं पा सकता (अंगदको चकित करनेके लिये मायासे) स्थान-स्थानपर अनेक रूपधारी रावण प्रकट हो गये और सभी अंगदसे बोलने लगे (उनके प्रश्नोंका उत्तर देने लगे)। सूरदासजी कहते हैं कि अंगदजीने (बिना आश्चर्यमें पड़े) कहा—‘जान पड़ता है कि रावणकी माता शूकरी थी, उसने पेट खोलकर (निर्लज्ज होकर) बहुत-से रावण उत्पन्न किये हैं।’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४५)
लंकपति पास अंगद पठायौ।
सुनि अरे अंध दसकंध, लै सीय मिलि,
सेतु करि बंध रघुबीर आयौ॥
यह सुनत परजरॺौ, बचन नहिं मन धरॺौ,
कहा तैं राम सौं मोहि डरायौ।
सुर-असुर जीति मैं सब किए आप बस,
‘सूर’ मम सुजस तिहुँ लोक छायौ॥
मूल
(१४५)
लंकपति पास अंगद पठायौ।
सुनि अरे अंध दसकंध, लै सीय मिलि,
सेतु करि बंध रघुबीर आयौ॥
यह सुनत परजरॺौ, बचन नहिं मन धरॺौ,
कहा तैं राम सौं मोहि डरायौ।
सुर-असुर जीति मैं सब किए आप बस,
‘सूर’ मम सुजस तिहुँ लोक छायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीरामने) लंकापतिके पास अंगदको भेजा। (वहाँ जाकर अंगदने कहा—) ‘अरे दशानन! सुन। समुद्रपर सेतु बाँधकर श्रीरघुनाथजी आ गये हैं, (कुशल इसीमें है कि) श्रीजानकीजीको लेकर तू उनसे मिल ले (उनकी शरणमें चला जाय)।’ सूरदासजी कहते हैं (अंगदकी) यह बात सुनकर रावण प्रज्वलित (क्रोधान्ध) हो उठा, वह अंगदकी बात हृदयमें धारण नहीं कर सका (मान नहीं सका)। बोला—‘तू रामसे मुझे डराता है? देवता और दैत्य सबको जीतकर मैंने अपने वशमें कर लिया है, मेरा सुयश तीनों लोकोंमें फैल रहा है।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४६)
बालि-नंदन बली, बिकट बनचर महा,
द्वार रघुबीर कौ बीर आयौ।
पौरि तैं दौरि दरवान, दससीस सौं
जाइ सिर नाइ, यौं कहि सुनायौ॥
सुनि स्रवन, दस-बदन सदन अभिमान,
कै नैन की सैन अंगद बुलायौ।
देखि लंकेस कपि-भेष हर-हर हँस्यौ,
सुनौ भट, कटक कौ पार पायौ॥
बिबिध आयुध धरे, सुभट सेवत खरे,
छत्र की छाहँ निरभय जनायौ।
देव-दानव महाराज-रावन-सभा,
कहन कौं मंत्र इहँ कपि पठायौ॥
रंक रावन! कहाऽतक तेरौ इतौ,
दोउ कर जोरि बिनती उचारौं।
परम अभिराम रघुनाथ के नाम पर,
बीस भुज सीस दस वारि डारौं॥
झटकि, हाटक-मुकुट पटकि झट भूमि सौं
झारि तरवारि तव सिर सँहारौं।
जानकीनाथ के हाथ तेरौ मरन,
कहा मति-मंद तोहि मध्य मारौं॥
पाक पावक करै, बारि सुरपति भरै,
पौन पावन कर द्वार मेरे।
गान नारद करै, बार सुरगुरु कहै,
बेद ब्रह्मा पढ़ै पौरि टेरे॥
जच्छ, मृतु, बासुकी नाग, मुनि, गंधरब,
सकल बसु, जीति मैं किए चेरे।
सुनि अरे संठ! दसकंठ कौं कौन डर,
राम तपसी दए आनि डेरे॥
तप बली सत्य तापस बली, तप बिना,
बारि पर कौन पाषान तारै।
कौन ऐसौ बली सुभट जननी जन्यौ,
एकहीं बान तकि बालि मारै॥
परम गंभीर, रनधीर दसरथ-तनय,
सरन गऐं कोटि अवगुन बिसारैं।
जाइ मिलि अंध दसकंध, गहि दंत तृन,
तौ भलैं मृत्यु-मुख तैं उबारैं॥
कोपि, करबार, गहि कह्यौ लंकाधिपति,
मूढ़! कहा राम कौं सीस नाऊँ।
संभु की सपथ, सुनि कुकपि कायर कृपन,
स्वास आकास बनचर उड़ाऊँ॥
होइ सनमुख भिरौं, संक नहिं मन धरौं,
मारि सब कटक सागर बहाऊँ।
कोटि तैंतीस मम सेव निसिदिन करत,
कहा अब राम नर सौं डराऊँ।
परै भहराइ भभकंत रिपु घाइ सों,
करि कदन रुधिर भैरौं अघाऊँ।
‘सूर’ साजौं सबै, देहुँ डौंड़ी अबै,
एक तें एक रन करि बताऊँ॥
मूल
(१४६)
बालि-नंदन बली, बिकट बनचर महा,
द्वार रघुबीर कौ बीर आयौ।
पौरि तैं दौरि दरवान, दससीस सौं
जाइ सिर नाइ, यौं कहि सुनायौ॥
सुनि स्रवन, दस-बदन सदन अभिमान,
कै नैन की सैन अंगद बुलायौ।
देखि लंकेस कपि-भेष हर-हर हँस्यौ,
सुनौ भट, कटक कौ पार पायौ॥
बिबिध आयुध धरे, सुभट सेवत खरे,
छत्र की छाहँ निरभय जनायौ।
देव-दानव महाराज-रावन-सभा,
कहन कौं मंत्र इहँ कपि पठायौ॥
रंक रावन! कहाऽतक तेरौ इतौ,
दोउ कर जोरि बिनती उचारौं।
परम अभिराम रघुनाथ के नाम पर,
बीस भुज सीस दस वारि डारौं॥
झटकि, हाटक-मुकुट पटकि झट भूमि सौं
झारि तरवारि तव सिर सँहारौं।
जानकीनाथ के हाथ तेरौ मरन,
कहा मति-मंद तोहि मध्य मारौं॥
पाक पावक करै, बारि सुरपति भरै,
पौन पावन कर द्वार मेरे।
गान नारद करै, बार सुरगुरु कहै,
बेद ब्रह्मा पढ़ै पौरि टेरे॥
जच्छ, मृतु, बासुकी नाग, मुनि, गंधरब,
सकल बसु, जीति मैं किए चेरे।
सुनि अरे संठ! दसकंठ कौं कौन डर,
राम तपसी दए आनि डेरे॥
तप बली सत्य तापस बली, तप बिना,
बारि पर कौन पाषान तारै।
कौन ऐसौ बली सुभट जननी जन्यौ,
एकहीं बान तकि बालि मारै॥
परम गंभीर, रनधीर दसरथ-तनय,
सरन गऐं कोटि अवगुन बिसारैं।
जाइ मिलि अंध दसकंध, गहि दंत तृन,
तौ भलैं मृत्यु-मुख तैं उबारैं॥
कोपि, करबार, गहि कह्यौ लंकाधिपति,
मूढ़! कहा राम कौं सीस नाऊँ।
संभु की सपथ, सुनि कुकपि कायर कृपन,
स्वास आकास बनचर उड़ाऊँ॥
होइ सनमुख भिरौं, संक नहिं मन धरौं,
मारि सब कटक सागर बहाऊँ।
कोटि तैंतीस मम सेव निसिदिन करत,
कहा अब राम नर सौं डराऊँ।
परै भहराइ भभकंत रिपु घाइ सों,
करि कदन रुधिर भैरौं अघाऊँ।
‘सूर’ साजौं सबै, देहुँ डौंड़ी अबै,
एक तें एक रन करि बताऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वारपरसे दौड़ते हुए जाकर द्वारपालने मस्तक झुकाकर (अभिवादन करके) यह संदेश दशाननसे कह सुनाया कि ‘बालिका महाबलवान् पुत्र’ अत्यन्त भयंकर कपि अंगद श्रीरघुनाथका दूत बनकर आया है और वह वीर द्वारपर खड़ा है।’ (द्वारपालकी) यह बात कानसे सुनकर अभिमानके भवन (महान् अभिमानी) रावणने नेत्रके संकेतसे (बिना कुछ कहे) अंगदको बुलाया (सभामें आनेकी अनुमति दी)। कपिवर अंगदका वेश देखकर रावण अट्टहास करके हँस पड़ा और बोला—‘तुम अच्छे सुभट हो, सुनो! तुम्हारी सेनाका पार (उसके बलका पता) मैंने पा लिया। अनेक प्रकारके शस्त्र लिये बहुत-से (राक्षस) योद्धा खड़े होकर (रावणकी) सेवा कर रहे थे। इस प्रकार छत्रकी छायामें (राजसिंहासनपर) बैठा वह (अंगदको भी) निर्भय प्रतीत हुआ। (उसने आगे कहा—) ‘महाराज रावणकी सभामें देवता एवं दैत्योंके अधिपति (तुम्हारे स्वामीने) संधिकी बात कहनेके लिये एक बंदर भेजा है! (इसीसे तुम्हारे दलकी बुद्धि और शक्तिका अनुमान हो जाता है।) (यह सुनकर अंगदजी बोले)—‘अरे कंगाल रावण! तेरा इतना क्या आतंक है कि मैं दोनों हाथ जोड़कर तुझसे प्रार्थना करूँ। परम सुन्दर श्रीरघुनाथजीके नामपर (उनके नामके प्रतापसे) तेरे बीस बाहु और दसों मस्तक न्योछावर कर दूँ (इन्हें मैं तुच्छ मानता हूँ)। तेरे स्वर्ण-मुकुटको छीनकर, (तुझे) सहसा पृथ्वीपर पटककर, तलवार खींचकर तेरे सिर मैं काट लेता; किंतु अरे मंदबुद्धि! तेरी मृत्यु तो श्रीजानकीनाथके हाथों होनेवाली है, अतः बीचमें ही मैं तुझे क्या मारूँ।’ (तब रावणने कहा—) ‘मेरी रसोई अग्निदेव बनाते हैं, देवराज इन्द्र मेरे यहाँ पानी भरते हैं, वायुदेव मेरे द्वारको स्वच्छ करते हैं, देवर्षि नारद मेरा यश गाते हैं, देवगुरु बृहस्पति मुझे तिथि तथा दिन बतलाते हैं और ब्रह्माजी मेरे दरवाजेपर खड़े उच्च स्वरसे वेदपाठ करते रहते हैं। (तुम्हें पता है?) मैंने यक्ष, मृत्यु, वासुकि नाग, मुनि, गन्धर्व तथा सभी वसुओंको जीतकर अपना दास बना लिया है। अरे मूर्ख! सुन, यदि तपस्वी रामने आकर डेरा डाल ही दिया है तो इसका रावणको क्या भय!’ (तब अंगदने कहा)—‘सत्य तो यह है कि तप ही बली है, तपस्वी ही बलवान् होते हैं। तपस्याके बिना जलपर पत्थरोंको कौन तैरा सकता है? (श्रीरामको छोड़कर) किस माताने ऐसे बलवान् योद्धाको उत्पन्न किया है, जो एक ही बाणके निशानेसे बालिको मार देता? रणधीर श्रीदशरथराजकुमार अत्यन्त गम्भीर हैं, शरणमें जानेपर वे करोड़ों दोषोंको भी विस्मृत कर देते हैं; अतः अंधे (विचारहीन) रावण! दाँतोंमें तिनका दबाकर तू उनसे जाकर मिल (उनकी शरणमें चला जा) तो भले मृत्युके मुखसे तू बच जाय (अन्यथा बच नहीं सकता)।’ सूरदासजी कहते हैं—तब क्रोध करके तलवार पकड़कर रावणने कहा—‘अरे मूर्ख! मैं रामको क्यों मस्तक झुकाऊँ? अरे कायर, कृपण, कुकपि! सुन। भगवान् शंकरकी शपथ करके कहता हूँ कि बंदरोंको फूँकसे आकाशमें उड़ा दूँगा। सम्मुख होकर भिड़ूँगा, अपने मनमें तनिक भी भय नहीं लाऊँगा, सारी कपिसेनाको मारकर समुद्रमें बहा दूँगा। तैंतीस करोड़ देवता रात-दिन मेरी सेवा करते हैं, (ऐसी दशामें) अब मैं क्या एक मनुष्य रामसे डर जाऊँ? मेरे प्रज्वलित (प्रचण्ड) आघातसे शत्रु धड़ाधड़ पृथ्वीपर गिरेंगे, उनका विनाश करके रक्तसे भैरवको तृप्त कर दूँगा। सभी वीरोंको अभी सज्जित करता हूँ, अभी भेरी बजवाता हूँ, एक-एकसे युद्ध करके बताऊँगा (कि रावणसे मुठभेड़ लेना क्या अर्थ रखता है)।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४७)
रावन! तब लौं ही रन गाजत।
जब लौं सारँगधर-कर नाहीं सारँग-बान बिराजत॥
जमहु कुबेर इंद्र हैं जानत, रचि-रचि कै रथ साजत।
रघुपति रबि-प्रकास सौं देखौं, उडुगन ज्यौं तोहि भाजत॥
ज्यौं सहगमन सुंदरी के सँग, बहु बाजन हैं बाजत।
तैसैं ‘सूर’ असुर आदिक सब, सँग तेरे हैं गाजत॥
मूल
(१४७)
रावन! तब लौं ही रन गाजत।
जब लौं सारँगधर-कर नाहीं सारँग-बान बिराजत॥
जमहु कुबेर इंद्र हैं जानत, रचि-रचि कै रथ साजत।
रघुपति रबि-प्रकास सौं देखौं, उडुगन ज्यौं तोहि भाजत॥
ज्यौं सहगमन सुंदरी के सँग, बहु बाजन हैं बाजत।
तैसैं ‘सूर’ असुर आदिक सब, सँग तेरे हैं गाजत॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(अंगदने कहा—) ‘रावण! तभीतक तू युद्धका नाम लेकर गर्जना कर रहा है, जबतक शार्ङ्गधारी श्रीरामके हाथोंमें उनका शार्ङ्गधनुष और बाण शोभित नहीं होता। (उनके धनुषपर बाण चढ़ा लेनेपर तुम्हारी सारी हेकड़ी भूल जायगी।) यमराज, कुबेर और इन्द्र भी इस बातको जानते हैं; अतः सावधानीसे सँवारकर वे (तेरी विवशतासे छूटकर अपने लोकोंमें जानेके लिये) अपना-अपना रथ सजा रहे हैं। श्रीरघुनाथजीरूपी सूर्यके प्रतापरूपी प्रकाशसे मैं तुझे तारोंके समान भागते (अदृश्य होते) देखूँगा। जैसे पतिके संग सती होनेवाली नारीके साथ बहुत-से बाजे बजते हैं, वैसे ही (मरणासन्न) तेरे साथ ये असुर-राक्षस आदि गर्जना कर रहे हैं।’
अंगद-रावण-संवाद
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४८)
जानौं हौं बल तेरौ रावन।
पठवौं कुटुँब-सहित जम-आलय, नैंकु देहि धौं मोकौं आवन॥
अगिनि-पुंज सित बान-धनुष-धरि, तोहि असुर-कुल सहित जरावन।
दारुन कीस सुभट बर सन्मुख, लैहौं संग त्रिदस-बल पावन॥
करिहौं नाम अचल पसुपति कौ, पूजा-बिधि-कौतुक दिखरावन।
दस मुख छेदि सुपक नव फल ज्यौं, संकर-उर दससीस चढ़ावन॥
दैहौं राज बिभीषन जन कौं, लंकापुर रघु-आन चलावन।
‘सूरदास’ निस्तरिहैं यह जस, करि-करि दीन-दुखित जन गावन॥
मूल
(१४८)
जानौं हौं बल तेरौ रावन।
पठवौं कुटुँब-सहित जम-आलय, नैंकु देहि धौं मोकौं आवन॥
अगिनि-पुंज सित बान-धनुष-धरि, तोहि असुर-कुल सहित जरावन।
दारुन कीस सुभट बर सन्मुख, लैहौं संग त्रिदस-बल पावन॥
करिहौं नाम अचल पसुपति कौ, पूजा-बिधि-कौतुक दिखरावन।
दस मुख छेदि सुपक नव फल ज्यौं, संकर-उर दससीस चढ़ावन॥
दैहौं राज बिभीषन जन कौं, लंकापुर रघु-आन चलावन।
‘सूरदास’ निस्तरिहैं यह जस, करि-करि दीन-दुखित जन गावन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अंगदने रावणसे कहा—श्रीरघुनाथने यह संदेश भेजा है—) रावण! तेरे बलको मैं जानता हूँ। तनिक मुझे (युद्धमें) आ जाने दे, फिर तुझे कुटुम्बके साथ यमलोक भेजे देता हूँ। अग्निपुंजके समान उज्ज्वल (ज्वालामय) बाण धनुषपर चढ़ाकर तुझे राक्षस-कुलके साथ भस्म कर दूँगा। पवित्र देवताओंका समूह ही भयंकर वानर योद्धाओंके रूपमें है, सम्मुख युद्धमें उन श्रेष्ठ वीरोंको साथ लूँगा। (तुम्हारे-जैसे पशुकी बलि देकर) पूजा-पद्धतिका ऐसा खेल दिखलाऊँगा कि पशुपतिका नाम (भगवान् शिव पशुपति हैं, यह यश) अविचल बना दूँगा। भली प्रकार पके हुए नवीन फलकी भाँति (सरलतासे) तुम्हारे दसों मस्तक काटकर भगवान् शंकरके हृदयपर दस मस्तकोंकी मुण्डमाला चढ़ा दूँगा। लंकामें रघुवंशकी दुहाई (विजय-घोषणा) करनेवाले अपने भक्त विभीषणको लंकानगरीका राज्य दे दूँगा।’ सूरदासजी कहते हैं—दीन-दुःखी लोग प्रभुके इस सुयशका गान करके संसार-सागरसे पार होते रहेंगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१४९)
मोकौं राम-रजायसु नाहीं।
नातरु सुनि दसकंध निसाचर, प्रलय करौं छिन माहीं॥
पलटि धरौं नव-खंड पुहुमि तल, जो बल भुजा सम्हारौं।
राखौं मेलि भँडार सूर-ससि, नभ कागद ज्यौं फारौं॥
जारौं लंक, छेदि दस मस्तक, सुर-संकोच निवारौं।
श्रीरघुनाथ-प्रताप चरन करि उर तैं भुजा उपारौं॥
रे रे चपल, बिरूप, ढीठ, तू बोलत बचन अनेरौ।
चितवै कहा पानि-पल्लव-पुट, प्रान प्रहारौं तेरौ॥
केतिक संख जुगै जुग बीते, मानव असुर-अहेरौ।
तीनि लोक बिख्यात बिसद जस, प्रलय नाम है मेरौ॥
रे रे अंध बीसहू लोचन, पर-तिय हरन बिकारी।
सूने भवन गवन तैं कीन्हौ, सेष-रेख नहिं टारी॥
अजहूँ कह्यौ सुनै जो मेरौ, आए निकट मुरारी।
जनक-सुता लै चलि, पाइनि परि, श्रीरघुनाथ-पियारी॥
‘‘संकट परैं जो सरन पुकारौं, तौ छत्री न कहाऊँ।
जन्महि तैं तामस आराध्यौ, कैसैं हित उपजाऊँ॥
अब तौ ‘सूर’ यहै बनि आई, हर कौ निज पद पाऊँ।
ये दस सीस ईस-निरमायल, कैसैं चरन छुवाऊँ’’?॥
मूल
(१४९)
मोकौं राम-रजायसु नाहीं।
नातरु सुनि दसकंध निसाचर, प्रलय करौं छिन माहीं॥
पलटि धरौं नव-खंड पुहुमि तल, जो बल भुजा सम्हारौं।
राखौं मेलि भँडार सूर-ससि, नभ कागद ज्यौं फारौं॥
जारौं लंक, छेदि दस मस्तक, सुर-संकोच निवारौं।
श्रीरघुनाथ-प्रताप चरन करि उर तैं भुजा उपारौं॥
रे रे चपल, बिरूप, ढीठ, तू बोलत बचन अनेरौ।
चितवै कहा पानि-पल्लव-पुट, प्रान प्रहारौं तेरौ॥
केतिक संख जुगै जुग बीते, मानव असुर-अहेरौ।
तीनि लोक बिख्यात बिसद जस, प्रलय नाम है मेरौ॥
रे रे अंध बीसहू लोचन, पर-तिय हरन बिकारी।
सूने भवन गवन तैं कीन्हौ, सेष-रेख नहिं टारी॥
अजहूँ कह्यौ सुनै जो मेरौ, आए निकट मुरारी।
जनक-सुता लै चलि, पाइनि परि, श्रीरघुनाथ-पियारी॥
‘‘संकट परैं जो सरन पुकारौं, तौ छत्री न कहाऊँ।
जन्महि तैं तामस आराध्यौ, कैसैं हित उपजाऊँ॥
अब तौ ‘सूर’ यहै बनि आई, हर कौ निज पद पाऊँ।
ये दस सीस ईस-निरमायल, कैसैं चरन छुवाऊँ’’?॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अंगद कहते हैं—) ‘राक्षस रावण! सुन। मुझे श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा नहीं है, नहीं तो एक क्षणमें मैं प्रलय ढहा दूँ। यदि अपने बाहुबलको सँभाल लूँ (पूरा बाहुबल दिखानेपर तुल जाऊँ) तो पृथ्वीके नवों खण्डोंको उलटकर नीचे कर दूँ , सूर्य और चन्द्रमाको अपने भंडारमें डाल दूँ , आकाशको कागजकी भाँति फाड़ डालूँ, लंकाको भस्म कर दूँ और तेरे दसों मस्तक काटकर देवताओंका संकोच (भय) दूर कर दूँ। श्रीरघुनाथजीके प्रतापसे तेरी भुजाओंको चरणोंसे दबाकर धड़से उखाड़ डालूँ।’ (यह सुनकर रावण बोला—) ‘अरे, अरे चंचल, कुरूप, ढीठ! तू बहुत अन्यायपूर्ण बातें कह रहा है, देखता क्या है, मैं हाथोंकी चपेटसे तेरे प्राण नष्ट कर दूँगा। (तू जानता नहीं) मेरा नाम ही प्रलयकारी (सारे लोकोंको रुलानेवाला—रावण) है, मेरा यह महान् यश तीनों लोकोंमें प्रख्यात है।’ (तब अंगदने कहा—) ‘अरे बीसों नेत्रोंके अंधे! परायी स्त्रीका हरण करनेवाला पापी! तू सूनी कुटियामें (डरके मारे) गया था और लक्ष्मणजीकी खींची रेखाका उल्लंघन नहीं कर सका था (यह भूलता क्यों है?) अब भी यदि मेरा कहना माने तो श्रीरघुनाथजी पास आ गये हैं, उन श्रीरघुनन्दनकी प्रियतमा श्रीजनककुमारीको लेकर चल और प्रभुके चरणोंपर गिर पड़।’ सूरदासजी कहते हैं—(तब रावण मनमें सोचता है—) ‘यदि संकट पड़नेपर ‘मैं शरणमें आया हूँ’ यह पुकार करूँ तो क्षत्रिय (शूर) नहीं कहलाऊँगा (यह व्यवहार शूरके योग्य नहीं है)। फिर जन्मसे ही मैंने तमोगुणकी आराधना की, अब प्रेम कैसे उत्पन्न करूँ? (अब भक्ति कैसे हृदयमें आ सकती है?) अब तो यही संयोग आ बना है कि (मरकर) भगवान् शंकरका अपना धाम (कैलाश-वास) प्राप्त करूँ। ये दसों मस्तक भगवान् शंकरके निर्माल्य हैं (उनको चढ़ चुके हैं), इन्हें (श्रीरामके) चरणोंसे कैसे स्पर्श कराऊँ?’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५०)
मूरख! रघुपति-सत्रु कहावत?
जाके नाम, ध्यान, सुमिरन तें, कोटि जज्ञ-फल पावत!
नारदादि, सनकादि महामुनि सुमिरत मन-बच ध्यावत।
असुर-तिलक प्रहलाद, भक्त बलि, निगम नेति जस गावत॥
जाकी घरनि हरी छल-बल करि, लायौ बिलँब न आवत।
दस अरु आठ पदुम बनचर लै, लीला सिंधु बँधावत॥
जाइ मिलौ कौसल-नरेस कौं, मन अभिलाष बढ़ावत।
दै सीता अवधेस पाइँ परि, रहु लंकेस कहावत॥
तू भूल्यौ दससीस बीसभुज, मोहि गुमान दिखावत।
कंध उपारि डारिहौं भूतल, ‘सूर’ सकल सुख पावत॥
मूल
(१५०)
मूरख! रघुपति-सत्रु कहावत?
जाके नाम, ध्यान, सुमिरन तें, कोटि जज्ञ-फल पावत!
नारदादि, सनकादि महामुनि सुमिरत मन-बच ध्यावत।
असुर-तिलक प्रहलाद, भक्त बलि, निगम नेति जस गावत॥
जाकी घरनि हरी छल-बल करि, लायौ बिलँब न आवत।
दस अरु आठ पदुम बनचर लै, लीला सिंधु बँधावत॥
जाइ मिलौ कौसल-नरेस कौं, मन अभिलाष बढ़ावत।
दै सीता अवधेस पाइँ परि, रहु लंकेस कहावत॥
तू भूल्यौ दससीस बीसभुज, मोहि गुमान दिखावत।
कंध उपारि डारिहौं भूतल, ‘सूर’ सकल सुख पावत॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं (अंगदने कहा—) जिनके नाम-जप, जिनके ध्यान तथा जिनका स्मरण करनेसे करोड़ों यज्ञ करनेका फल प्राप्त होता है, अरे मूर्ख! तू उन श्रीरघुनाथजीका शत्रु कहलाता है? देवर्षि नारद, सनकादि महामुनि, असुरश्रेष्ठ प्रह्लाद तथा भक्त बलि जिनका स्मरण करते हैं, मन-वाणीसे जिनका ध्यान करते हैं, वेद जिनके यशका गान ‘नेति-नेति’ (वह ऐसा नहीं है, वैसा नहीं है) कहकर करता है, जिनकी पत्नीको तुम छल-बल करके हरण कर लाये हो, उन्होंने यहाँ आनेमें विलम्ब नहीं किया। अपने साथ वे अठारह पद्म वानर-भालुओंकी सेना ले आये हैं और खेल-खेलमें ही उन्होंने समुद्र बँधवा दिया है। जाकर उन कोसलपतिसे मिलो, वे (शरणागतके) मनोऽभिलाषको बढ़ाते (पूर्ण करते) हैं। श्रीसीताजीको देकर उन श्रीअवधेशके चरणोंपर जा पड़ो, इस प्रकार लंकेश कहलाते रहो (प्रभु शरणमें जानेपर तुम्हें लंकाका राजा बने रहने देंगे)। तुम जो दस मस्तक और बीस भुजा होनेसे भूले हो और मुझे अपना गर्व दिखला रहे हो, सो मैं तुम्हारे कंधे (सभी बाहु) उखाड़कर पृथ्वीपर फेंक दूँगा और ऐसा करनेमें मुझे समस्त सुख (पूरा आनन्द) प्राप्त होगा।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५१)
आहु रघुबीर की सरन अंगद कहै,
मानि रे मूढ़मति! बचन मेरौ।
जाऔ रै जाऔ सब, कोपि लंकेस कहै,
भुजन मेरी बस्यौ काल तेरौ॥
सुर-असुर-नाग बली जेते हैं जगत में,
इंद्र-ब्रह्मा सबहि मैं नवाए।
बात अद्भुत सब, और पाछै रहे,
रीछ-कपि लैन गढ़ लंक आए॥
बाम कर की यह अल्प जो अंगुरी,
लंक गढ़ बंक छिन मैं ढहाऊँ।
कहा करूँ, नैक मोहि संक रघुबीर की,
रंक! तोहि मारि अब ही उड़ाऊँ॥
होहि ऐसौ बली, काहैं नहिं मुग्ध बल,
बालि-से बाप कौ बैर लीनौ।
तात के भ्रात तव मात पत्नी करी,
सत्रु की सरन जाय मूँड़ दीनौ॥
हुते मम तात के रावरे सरिस लच्छन,
धर्म की मैंड़ जिन तोर डारी।
परिहैं अब धूर ततकाल तेरे बदन,
राम-अवतार खल-दंड-धारी॥
सुनतहीं बचन मानौ फनग कौ फन चप्यौ,
सिंघ कौ पूँछ सोवत मरोरॺौ।
ज्वलित आग बीसहूँ लोचनन भौ बिकल,
पटक भुज उठत मंत्री निहोरॺौ॥
तौलौं आऐं ऐंड़ अभिमान मद की धरत,
ग्रीव में बंक दै दृष्टि दीठी।
सुरसुरी बंकुरी भुजा रघुबीर की,
जौलौं मतिमंद तैं नाहिं दीठी॥
चपल बनचरन की जात अति बोल, चर
कहा राजान सौं बोल जानै।
छत्र की छाँह इंद्रादि थरथर करैं,
बंक यह ढीठ नहिं संक मानै॥
करूँ जिय संक जो अधिक तोकौं गिनूँ,
जो कछु अपनपौ घट बिचारूँ।
भुजनि सौं पलटि दिगपाल सब दलमलूँ,
धरनि नभ-छत्र जो फार गारूँ॥
रहि रे सुभट समसेर अधिसेर तू,
अपन कौ बल जिय नहिं बिचारै।
कहत परधान महाराज रावन बली,
अवनि रह आभ सौं बाथ मारै॥
परॺौ बलि-द्वार परिहार बामन गदा,
किंकरी कौर दै-दै जिवायौ।
तात मम पालनें आनि बाँध्यौ जबै,
रैपटन मार कई बार खायौ॥
मरम कौ बचन सुनि खेद जिय मैं भयौ,
चटपटी लाइ भृकुटी चढ़ावै।
कोइ है सूर-सामंत मेरी सभा,
मार लेहौ, मंद नहिं जान पावै॥
मूल
(१५१)
आहु रघुबीर की सरन अंगद कहै,
मानि रे मूढ़मति! बचन मेरौ।
जाऔ रै जाऔ सब, कोपि लंकेस कहै,
भुजन मेरी बस्यौ काल तेरौ॥
सुर-असुर-नाग बली जेते हैं जगत में,
इंद्र-ब्रह्मा सबहि मैं नवाए।
बात अद्भुत सब, और पाछै रहे,
रीछ-कपि लैन गढ़ लंक आए॥
बाम कर की यह अल्प जो अंगुरी,
लंक गढ़ बंक छिन मैं ढहाऊँ।
कहा करूँ, नैक मोहि संक रघुबीर की,
रंक! तोहि मारि अब ही उड़ाऊँ॥
होहि ऐसौ बली, काहैं नहिं मुग्ध बल,
बालि-से बाप कौ बैर लीनौ।
तात के भ्रात तव मात पत्नी करी,
सत्रु की सरन जाय मूँड़ दीनौ॥
हुते मम तात के रावरे सरिस लच्छन,
धर्म की मैंड़ जिन तोर डारी।
परिहैं अब धूर ततकाल तेरे बदन,
राम-अवतार खल-दंड-धारी॥
सुनतहीं बचन मानौ फनग कौ फन चप्यौ,
सिंघ कौ पूँछ सोवत मरोरॺौ।
ज्वलित आग बीसहूँ लोचनन भौ बिकल,
पटक भुज उठत मंत्री निहोरॺौ॥
तौलौं आऐं ऐंड़ अभिमान मद की धरत,
ग्रीव में बंक दै दृष्टि दीठी।
सुरसुरी बंकुरी भुजा रघुबीर की,
जौलौं मतिमंद तैं नाहिं दीठी॥
चपल बनचरन की जात अति बोल, चर
कहा राजान सौं बोल जानै।
छत्र की छाँह इंद्रादि थरथर करैं,
बंक यह ढीठ नहिं संक मानै॥
करूँ जिय संक जो अधिक तोकौं गिनूँ,
जो कछु अपनपौ घट बिचारूँ।
भुजनि सौं पलटि दिगपाल सब दलमलूँ,
धरनि नभ-छत्र जो फार गारूँ॥
रहि रे सुभट समसेर अधिसेर तू,
अपन कौ बल जिय नहिं बिचारै।
कहत परधान महाराज रावन बली,
अवनि रह आभ सौं बाथ मारै॥
परॺौ बलि-द्वार परिहार बामन गदा,
किंकरी कौर दै-दै जिवायौ।
तात मम पालनें आनि बाँध्यौ जबै,
रैपटन मार कई बार खायौ॥
मरम कौ बचन सुनि खेद जिय मैं भयौ,
चटपटी लाइ भृकुटी चढ़ावै।
कोइ है सूर-सामंत मेरी सभा,
मार लेहौ, मंद नहिं जान पावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंगद कहते हैं—‘अरे मूढबुद्धि! मेरी बात मान। श्रीरघुनाथजीकी शरणमें चला आ!’ तब रावण क्रोध करके बोला—‘अरे, तुम सब भाग जाओ! भाग जाओ! (अन्यथा) मेरी भुजाओंमें तुम्हारा काल आ बसा समझो। संसारमें जितने बलवान् देवता, असुर एवं नाग हैं—उन्हें तथा इन्द्र और ब्रह्माजीतकको तो मैंने झुका दिया (पराजित कर दिया); पर यह अद्भुत बात है कि दूसरे सब (बलवान्) तो पीछे रह गये और रीछ तथा बंदर लंकाका दुर्ग लेने (जीतने) आ गये हैं।’ (तब अंगदने कहा—) ‘यह जो मेरे बायें हाथकी छोटी (कनिष्ठिका) अँगुली है, इसीसे सुदृढ़ लंकाके दुर्गको एक क्षणमें ध्वस्त कर दूँ। किंतु करूँ क्या, मुझे श्रीरघुनाथजीकी थोड़ी-सी शंका है (कि वे असंतुष्ट होंगे); अन्यथा अरे कंगाल! तुझे मारकर अभी समाप्त कर दूँ।’ (रावणने कहा—) ‘अरे मूर्ख! यदि तू ऐसा बलवान् है तो अपने बलसे अपने पिता बालिकी शत्रुताका बदला तूने क्यों नहीं लिया? तेरे चाचा (सुग्रीव)-ने तेरी माताको पत्नी बनाकर रख लिया और (इतनेपर भी तूने) उसी शत्रुकी शरणमें जाकर मस्तक टेका।’ (अंगद बोले—) ‘मेरे पिताके भी तुम्हारे-जैसे ही लक्षण थे, जिन्होंने धर्मकी मर्यादा नष्ट कर दी। किंतु श्रीरामका अवतार तो दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये ही हुआ है, अतः अब (मेरे पिताके समान ही) तेरे मुखोंमें भी तत्काल ही धूलि पड़ेगी।’ अंगदकी बात सुनते ही (रावण) इस प्रकार क्रोधित हो उठा मानो फणधर नागका फण दब गया हो या सोते हुए सिंहकी पूँछ उमेठ दी गयी हो। बीसों नेत्र अग्निके समान जलने लगे, व्याकुल होकर हाथ पटककर वह (अंगदको मारनेके लिये) उठ रहा था; किंतु मन्त्रियोंने क्षमा करनेकी प्रार्थना की (इससे बैठ गया। तब अंगद बोले—) ‘अरे मन्दबुद्धि! तभीतक तू अहंकार और मदसे ऐंठता है और गर्दन तथा नेत्र टेढ़े करके देख रहा है जबतक तूने श्रीरघुनाथजीकी सुढालयुक्त बाँकी भुजा नहीं देखी है (जबतक उस भुजासे काम नहीं पड़ा है)।’ (यह सुनकर रावणने कहा—) ‘चंचल बंदरोंकी जाति ही अत्यन्त बकवादी होती है, फिर दूत राजाओंसे बातें करना क्या जाने। जिसके छत्रकी छायासे (प्रतापसे) इन्द्रादि देवता थर-थर काँपते हैं, उससे यह कुटिल और ढीठ थोड़ी भी शंका नहीं करता।’ (तब अंगद बोले—) ‘मैं मनमें शंका तो तब करूँ, जब तुझे अपनेसे अधिक (बलवान्) गिनूँ और अपनेको (तुझसे) कुछ छोटा समझूँ। अपनी भुजाओंसे चाहूँ तो सभी दिक्पालोंको पटककर मसल दूँ , पृथ्वी तथा आकाशरूपी छत्रको फाड़कर निचोड़ लूँ (नष्ट कर दूँ)। अच्छा रह, तू अपने सीमित बलका मनमें विचार नहीं करता। तलवार लेकर बड़ा सिंह बन रहा है, कहता है कि ‘महाराज रावण सबसे प्रधान है, इतना बलवान् है कि पृथ्वीपर रहता हुआ भी आकाशसे कुश्ती लड़ता है!’ (पर बता तो) जब बलिके द्वारपर उनके द्वारपाल वामनजीकी गदा खाकर (घायल) पड़ा था, तब दासीने तुझे टुकड़े खिला-खिलाकर जीवित किया था। जब मेरे पिताने तुझे पकड़ लाकर मेरे पलनेमें बाँध दिया था, तब मेरे थप्पड़ोंकी मार भी तू कई बार खा चुका है।’ सूरदासजी कहते हैं कि रहस्यकी (गुप्त) बातें सुनकर रावणके हृदयमें दुःख हुआ, शीघ्रतापूर्वक उसने भौंहें चढ़ा ली और बोला—‘मेरी सभामें कोई वीर सरदार है? इसे मार डालो? यहाँसे यह मूर्ख (बचकर) जाने न पाये।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५२)
रे कपि! क्यौं पितु-बैर बिसारॺौ?
तौ समतुल कन्या किन उपजी, जो कुल-सत्रु न मारॺौ!
ऐसौ सुभट नहीं महिमंडल, देख्यौ बालि-समान।
तासौं कियौ बैर मैं हारॺौ, कीन्ही पैज प्रमान॥
ताकौ बध कीन्हौ इहिं रघुपति, तुव देखत बिदमान।
ताकी सरन रह्यौ क्यौं भावै, सब्द न सुनियै कान!॥
‘रे दसकंध, अंध-मति, मूरख, क्यौं भूल्यौ इहिं रूप?।
सूझत नहीं बीसहूँ लोचन, परॺौ तिमिर के कूप!॥
धन्य पिता, जापर परफुल्लित राघव-भुजा अनूप।
वा प्रताप की मधुर बिलोकनि पर वारौं सब भूप’॥
‘जो तोहिं नाहिं बाहु-बल, पौरुष, अर्ध राज देउँ लंक।
मो समैत ये सकल निसाचर, लरत न मानैं संक॥
जब रथ साजि चढ़ौं रन-सन्मुख, जीय न आनौं तंक।
राघव सेन समैत सँहारौं, करौं रुधिरमय पंक’॥
‘श्रीरघुनाथ-चरन-ब्रत उर धरि, क्यौं नहिं लागत पाइ?।
सब के ईस, परम करुनामय, सबही कौं सुखदाइ॥
हौं जु कहत, लै चलौ जानकी, छाँड़ौ सबै ढिठान।
सनमुख होइ ‘सूर’ के स्वामी, भक्तनि कृपा-निधान’॥
मूल
(१५२)
रे कपि! क्यौं पितु-बैर बिसारॺौ?
तौ समतुल कन्या किन उपजी, जो कुल-सत्रु न मारॺौ!
ऐसौ सुभट नहीं महिमंडल, देख्यौ बालि-समान।
तासौं कियौ बैर मैं हारॺौ, कीन्ही पैज प्रमान॥
ताकौ बध कीन्हौ इहिं रघुपति, तुव देखत बिदमान।
ताकी सरन रह्यौ क्यौं भावै, सब्द न सुनियै कान!॥
‘रे दसकंध, अंध-मति, मूरख, क्यौं भूल्यौ इहिं रूप?।
सूझत नहीं बीसहूँ लोचन, परॺौ तिमिर के कूप!॥
धन्य पिता, जापर परफुल्लित राघव-भुजा अनूप।
वा प्रताप की मधुर बिलोकनि पर वारौं सब भूप’॥
‘जो तोहिं नाहिं बाहु-बल, पौरुष, अर्ध राज देउँ लंक।
मो समैत ये सकल निसाचर, लरत न मानैं संक॥
जब रथ साजि चढ़ौं रन-सन्मुख, जीय न आनौं तंक।
राघव सेन समैत सँहारौं, करौं रुधिरमय पंक’॥
‘श्रीरघुनाथ-चरन-ब्रत उर धरि, क्यौं नहिं लागत पाइ?।
सब के ईस, परम करुनामय, सबही कौं सुखदाइ॥
हौं जु कहत, लै चलौ जानकी, छाँड़ौ सबै ढिठान।
सनमुख होइ ‘सूर’ के स्वामी, भक्तनि कृपा-निधान’॥
अनुवाद (हिन्दी)
(रावणने कहा—) ‘अरे कपि! अपने पिताका वैर तूने विस्मृत क्यों कर दिया? यदि तूने अपने कुलके शत्रुको नहीं मारा तो तेरी तुलनामें (तेरे बदले) कन्या क्यों उत्पन्न नहीं हुई? पूरे भूमण्डलमें बालिके समान दूसरा कोई शूर मैंने नहीं देखा था, उससे शत्रुता करके मैं हार गया था; किंतु उसने भी प्रतिज्ञा पूरी की (फिर सदा मुझसे मित्रता निभायी)। उस (वीर)-का वध तेरे रहते, तेरी आँखोंके सामने इस रघुनाथने किया, फिर उसीकी शरणमें रहना तुझे कैसे अच्छा लगता है? उसका तो शब्द भी तुझे कानसे नहीं सुनना चाहिये।’ (तब अंगद बोले—) ‘अरे अन्धबुद्धि रावण! अरे मूर्ख! (श्रीरघुनाथके) इस (मानव) रूपसे क्यों भूल रहा है। (वे तो साक्षात् परम पुरुष हैं; किंतु) बीस नेत्र होनेपर भी तुझे दिखायी नहीं पड़ता, तू अन्धकार (अज्ञान)-के कूएँमें पड़ा है। मेरे पिता धन्य हो गये, जिनपर श्रीरघुनाथकी अनुपम भुजा प्रफुल्लित हुई (अर्थात् जो श्रीरामके हाथों मारे गये) प्रभुके उस प्रतापी रूपकी मधुर (कृपामय) दृष्टिपर (जिससे उन्होंने अन्तमें मेरे पिताको देखा था) मैं समस्त नरेशोंको न्योछावर कर दूँ।’ (रावणने फिर कहा—) ‘यदि तुझमें बल और पुरुषार्थ नहीं है तो (डर मत,) मैं तुझे लंकाका आधा राज्य दिये देता हूँ। मेरे साथ ये सभी राक्षस युद्ध करनेमें कोई शंका (भय) नहीं करेंगे। (तुम हमारी सहायतासे पिताका बदला लो।) जब मैं रथ सजाकर सम्मुख युद्ध करने चलूँगा, तब मनमें कोई भय नहीं करूँगा, अपितु रामको सेनाके साथ मार दूँगा और रक्तकी कीच मचा दूँगा।’ सूरदासजी कहते हैं (तब अंगदने कहा—) ‘श्रीरघुनाथजीके चरणोंके स्मरणका नियम हृदयमें धारण करके तुम उनके पैरों क्यों नहीं पड़ जाते हो? (जो मुझे सहायक बनानेकी चाल चलते हो। डरो मत,) वे सभीके स्वामी हैं, परम दयामय हैं और सभीके लिये आनन्ददाता हैं। मैं जो कहता हूँ, उसे मान लो। यह सब धृष्टता छोड़ दो। श्रीजानकीजीको लेकर चलो और प्रभुके सम्मुख (शरणागत) हो जाओ। वे मेरे नाथ भक्तोंके लिये तो कृपाके निधान ही हैं।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५३)
एक रैपट दियें मुकुट उड़ि जायँगे,
सभा सब चरन सौं चाप डारूँ।
बालि कौ पूत हौं सोच जिय में करूँ,
सिंघ ह्वै मेंडुकनि कहा मारूँ॥
करत अपराध उतपात छोटेन कूँ,
बड़ेन कूँ छेमा भूषन कहावै।
जान देहु, दूत अब लौं न मारॺौ कहूँ,
पसुन सौं लरत जिय लाज आवै॥
‘सूर’ नृप-किसोर जब बालि-नंदन कह्यौ,
सीस अब कौन तोसौं पचावै।
नैक धरु धीर, रनधीर रघुबीर भट,
देख तरवार कैसी चलावै॥
मूल
(१५३)
एक रैपट दियें मुकुट उड़ि जायँगे,
सभा सब चरन सौं चाप डारूँ।
बालि कौ पूत हौं सोच जिय में करूँ,
सिंघ ह्वै मेंडुकनि कहा मारूँ॥
करत अपराध उतपात छोटेन कूँ,
बड़ेन कूँ छेमा भूषन कहावै।
जान देहु, दूत अब लौं न मारॺौ कहूँ,
पसुन सौं लरत जिय लाज आवै॥
‘सूर’ नृप-किसोर जब बालि-नंदन कह्यौ,
सीस अब कौन तोसौं पचावै।
नैक धरु धीर, रनधीर रघुबीर भट,
देख तरवार कैसी चलावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अंगदने कहा—) ‘एक थप्पड़के मारते ही तेरे सारे मुकुट उड़ जायँगे (गिर पड़ेंगे) और तेरी पूरी सभाको चरणसे मसल सकता हूँ; किंतु मैं बालिका पुत्र हूँ, अतः हृदयमें यही संकोच है कि सिंह होकर मेढकोंको क्या मारूँ?’ (रावणने तब कहा—) ‘छोटे (तुच्छ) लोग अपराध और उत्पात करते ही हैं; किंतु बड़ोंके लिये क्षमा ही उनका आभूषण कहा जाता है; अतः जाने दो इसे, अबतक मैंने दूतको कहीं नहीं मारा है। पशुओंसे लड़ते (वाद-विवाद करते) मुझे लज्जा आती है।’ सूरदासजी कहते हैं—तब बालिनन्दन राजकुमार अंगदने कहा—‘अब तुझसे सिरपच्ची कौन करे (तुझे समझाना व्यर्थ है)। तनिक धैर्य धर; फिर देखेगा कि रणधीर परम शूर श्रीरघुनाथ कैसी तलवार चलाते हैं।’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५४)
लंकपति इंद्रजित कौं बुलायौ।
कह्यौ तिहि, जाइ रनभूमि दल साजि कै,
कहा भयौ राम कपि जोरि ल्यायौ॥
कोपि अंगद कह्यौ, धरौं धर चरन मैं,
ताहि जो सकै कोऊ उठाई।
तौ बिना जुद्ध किय जाहिं रघुबीर फिरि,
सुनत यह उठे जोधा रिसाई॥
रहे पचि हारि, नहिं टारि कोऊ सक्यौ,
उठॺौ तब आपु रावन खिस्याई।
कह्यौ अंगद, कहा मम चरन कौं गहत,
चरन रघुबीर गहि क्यौं न जाई॥
सुनत यह सकुचि कियौ गवन निज भवन कौं,
बालि-सुतहू तहाँ तैं सिधायौ।
‘सूर’ के प्रभू कौं जाइ नाइ सिर यौं कह्यौ,
अंध दसकंध कौ काल आयौ॥
मूल
(१५४)
लंकपति इंद्रजित कौं बुलायौ।
कह्यौ तिहि, जाइ रनभूमि दल साजि कै,
कहा भयौ राम कपि जोरि ल्यायौ॥
कोपि अंगद कह्यौ, धरौं धर चरन मैं,
ताहि जो सकै कोऊ उठाई।
तौ बिना जुद्ध किय जाहिं रघुबीर फिरि,
सुनत यह उठे जोधा रिसाई॥
रहे पचि हारि, नहिं टारि कोऊ सक्यौ,
उठॺौ तब आपु रावन खिस्याई।
कह्यौ अंगद, कहा मम चरन कौं गहत,
चरन रघुबीर गहि क्यौं न जाई॥
सुनत यह सकुचि कियौ गवन निज भवन कौं,
बालि-सुतहू तहाँ तैं सिधायौ।
‘सूर’ के प्रभू कौं जाइ नाइ सिर यौं कह्यौ,
अंध दसकंध कौ काल आयौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लंकापतिने (अपने पुत्र) मेघनादको बुलाया और उससे कहा—‘सेना सजाकर युद्धभूमिमें जाओ! राम यदि बंदरोंका समूह एकत्र करके ले आया तो हो क्या गया?’ तब अंगदने क्रोध करके कहा—‘मैं पृथ्वीपर अपना पैर रखता हूँ, उसे यदि कोई उठा सकेगा तो श्रीरघुनाथ बिना युद्ध किये ही लौट जायँगे।’ यह सुनते ही बहुत-से योद्धा खीझकर उठे; किंतु प्रयत्न करते-करते सब हार गये, कोई (अंगदका वह पैर) उठा नहीं सका। तब खीझकर स्वयं रावण उठा। (तब) अंगदने कहा—‘तू मेरा पैर क्या पकड़ता है? जाकर श्रीरघुनाथजीके चरण क्यों नहीं पकड़ता?’ यह सुनते ही संकोचसे रावण अपने राजभवनको चला गया और बालिकुमार भी वहाँसे लौट आये। सूरदासजी कहते हैं कि लौटकर प्रभुको मस्तक झुकाकर (अभिवादन करके) इस प्रकार कहा—(‘प्रभो!) अंधे (मूर्ख) रावणका तो काल ही आ गया है (वह समझानेसे मान नहीं सकता)।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५५)
बालि-नंदन आइ सीस नायौ।
अंध दसकंध कौं काल सूझत न प्रभु,
ताहि मैं बहुत बिधि कहि जनायौ॥
इंद्रजित चढ़ॺौ निज सैन सब साजि कै,
रावरी सैनहू साज कीजै।
‘सूर’ प्रभु मारि दसकंध, थपि बंधु तिहि,
जानकी छोरि जस जगत लीजै॥
मूल
(१५५)
बालि-नंदन आइ सीस नायौ।
अंध दसकंध कौं काल सूझत न प्रभु,
ताहि मैं बहुत बिधि कहि जनायौ॥
इंद्रजित चढ़ॺौ निज सैन सब साजि कै,
रावरी सैनहू साज कीजै।
‘सूर’ प्रभु मारि दसकंध, थपि बंधु तिहि,
जानकी छोरि जस जगत लीजै॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—बालिकुमारने आकर मस्तक झुकाया (और कहा—) ‘प्रभो! मैंने अनेक प्रकारकी बातें कहकर समझाया; किंतु अंधे (मूर्ख) रावणको अपनी मृत्यु दिखायी नहीं पड़ रही है। मेघनादने सब राक्षसी सेना सजाकर चढ़ाई कर दी है, अब आप अपनी सेनाको भी सज्जित करें और रावणको मारकर, उसके भाई विभीषणको (लंकामें) स्थापित करके (राज्य देकर) तथा श्रीजानकीजीको बन्धनसे छुड़ाकर हे स्वामी! संसारमें यश लीजिये।’
लंकापर आक्रमण
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५६)
चढ़े हरि कनकपुरी पर आज।
कंपी धरनि, थरहरॺौ अंबर, देखि दलन कौ साज॥
असुर सबै पंछी ज्यौं भाजे, लछिमन छूटें बाज।
‘सूरदास’ प्रभु लंका आए , दैन बिभीषन राज॥
मूल
(१५६)
चढ़े हरि कनकपुरी पर आज।
कंपी धरनि, थरहरॺौ अंबर, देखि दलन कौ साज॥
असुर सबै पंछी ज्यौं भाजे, लछिमन छूटें बाज।
‘सूरदास’ प्रभु लंका आए , दैन बिभीषन राज॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज श्रीरघुनाथजीने लंकापर चढ़ाई कर दी। उनकी सेनाका साज देखकर पृथ्वी काँपने लगी और आकाश थर्रा उठा। श्रीलक्ष्मणजीरूपी बाजके छूटते (आक्रमण करते) ही सभी राक्षस पक्षियोंके समान भागने लगे। सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु तो विभीषणको राज्य देने लंका आये हैं।
लक्ष्मणकी प्रतिज्ञा
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५७)
रघुपति! जो न इंद्रजित मारौं।
तौ न होउँ चरननि कौ चेरौ, जौ न प्रतिज्ञा पारौं॥
यह दृढ़ बात जानियै प्रभु जू! एकहिं बान निवारौं।
सपथ राम परताप तिहारे, खंड-खंड करि डारौं॥
कुंभकरन, दस सीस बीस भुज, दानव-दलहि बिदारौं।
तबै ‘सूर’ संधान सफल हौं, रिपु कौ सीस उतारौं॥
मूल
(१५७)
रघुपति! जो न इंद्रजित मारौं।
तौ न होउँ चरननि कौ चेरौ, जौ न प्रतिज्ञा पारौं॥
यह दृढ़ बात जानियै प्रभु जू! एकहिं बान निवारौं।
सपथ राम परताप तिहारे, खंड-खंड करि डारौं॥
कुंभकरन, दस सीस बीस भुज, दानव-दलहि बिदारौं।
तबै ‘सूर’ संधान सफल हौं, रिपु कौ सीस उतारौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(युद्धके लिये जाते हुए लक्ष्मणजीने कहा—) ‘यदि मैं मेघनादको न मार दूँ , यदि मैं अपनी (उसे मारनेकी) प्रतिज्ञा न पूर्ण कर दूँ तो रघुनाथजी! मैं आपके श्रीचरणोंका सेवक नहीं। प्रभो! यह बात निश्चय मानिये कि मैं एक ही बाणसे उसका काम तमाम कर दूँगा। श्रीराम! आपके प्रतापकी शपथ! उसे मैं टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगा। कुम्भकर्णको, रावणके दस सिर और बीस भुजाओंको तथा राक्षससेनाको विदीर्ण कर दूँगा। मेरा धनुषपर बाण चढ़ाना तभी सफल होगा, जब शत्रुका मस्तक काट लूँगा।’
लक्ष्मणके द्वारा लंकापर आक्रमण
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५८)
लखन दल संग लै लंक घेरी।
पृथी भइ षष्ट अरु अष्ट आकास भए ,
दिसि-बिदिस कोउ नहिं जात हेरी॥
रीछ-लंगूर किलकारि लागे करन,
आन रघुनाथ की जाइ फेरी।
पाट गए टूटि, परी लूटि सब नगर मैं,
‘सूर’ दरवान कह्यौ जाइ टेरी॥
मूल
(१५८)
लखन दल संग लै लंक घेरी।
पृथी भइ षष्ट अरु अष्ट आकास भए ,
दिसि-बिदिस कोउ नहिं जात हेरी॥
रीछ-लंगूर किलकारि लागे करन,
आन रघुनाथ की जाइ फेरी।
पाट गए टूटि, परी लूटि सब नगर मैं,
‘सूर’ दरवान कह्यौ जाइ टेरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीलक्ष्मणजीने सेना साथ लेकर लंकाको घेर लिया।* (उनकी सेनाके चलनेसे इतनी धूलि उड़ी कि) पृथ्वी केवल छठा भाग रह गयी और (उड़ी हुई धूलिसे भर जानेके कारण) आकाश आठवाँ भाग ही शेष रहा, दिशा-विदिशाओंमें किसी ओर कुछ दिखायी नहीं पड़ता था। भालु और वानर किलकारी मारने लगे, उन्होंने श्रीरघुनाथजीकी जय-घोषणा चारों ओर कर दी। सूरदासजी कहते हैं कि द्वारपालोंने जाकर पुकारकर (रावणसे) कहा—‘सब किवाड़ टूट गये हैं और पूरे नगरमें लूट मच गयी है।’
पादटिप्पनी
- ‘पृथी भइ षष्ट अरु अष्ट आकास भए’ इतना पद कूट माना जाता है। ज्यौतिषकी सांकेतिक संज्ञाके अनुसार इस पदके इस अंशका अर्थ यों होगा—‘पृथ्वी-संज्ञक राहु ग्रह छठे स्थानमें (कुण्डलीके शत्रुस्थानमें) होकर शत्रु-विजय सूचित करने लगा और आकाशसंज्ञक सूर्य आठवें स्थान (आयुस्थान)-में स्थित होकर पूर्णायु तथा सभी विघ्न-विपत्तियोंका नाश सूचित करने लगा।’
ज्यौतिषके नव ग्रहोंके सांकेतिक नाम इस प्रकार हैं—
‘बृहस्पति—जीव, शनि—अहंकार, चन्द्र—मन, बुध—बुद्धि, सूर्य—आकाश, केतु—वायु, मंगल—अग्नि, शुक्र—जल, राहु—पृथ्वी।’
मन्दोदरीके वचन रावणके प्रति
विषय (हिन्दी)
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विश्वास-प्रस्तुतिः
(१५९)
रावन! उठि निरखि देखि, आजु लंक घेरी।
कोटि जतन करि रहि, सिख मानी नहिं मेरी॥
गहगहात किलकलात, अंधकार आयौ।
रबि कौ रथ सूझत नहिं, धरनि-गगन छायौ॥
पौरि-पाट टूटि परे, भागे दरवाना।
लंका मैं सोर परॺौ, अजहुँ तैं न जाना॥
फोरि-फारि, तोरि-तारि, गगन होत गाजैं।
‘सूरदास’ लंका पर चक्र-संख बाजैं॥
मूल
(१५९)
रावन! उठि निरखि देखि, आजु लंक घेरी।
कोटि जतन करि रहि, सिख मानी नहिं मेरी॥
गहगहात किलकलात, अंधकार आयौ।
रबि कौ रथ सूझत नहिं, धरनि-गगन छायौ॥
पौरि-पाट टूटि परे, भागे दरवाना।
लंका मैं सोर परॺौ, अजहुँ तैं न जाना॥
फोरि-फारि, तोरि-तारि, गगन होत गाजैं।
‘सूरदास’ लंका पर चक्र-संख बाजैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि (मन्दोदरीने कहा—) ‘रावण! उठकर देखो, आज लंका घेर ली गयी है। मैंने करोड़ों उपाय कर लिये; किंतु तुमने मेरी बात नहीं मानी। गरजता और किलकारियाँ मारता वानरोंका दल अन्धकारकी भाँति घिर आया है। वह पृथ्वी और आकाशमें इस प्रकार छा गया है कि सूर्यका रथ (सूर्यबिम्ब) भी दिखलायी नहीं पड़ता। द्वारोंके किवाड़ टूट गये हैं, द्वारपाल भाग गये हैं, सारी लंकामें चिल्लाहट मची है और अब भी तुम्हें पता नहीं है? (पृथ्वीपर) फोड़-फाड़, तोड़-ताड़ (विध्वंस) मची है और आकाशमें (मेघकी-सी) गर्जना हो रही है, जिसके कारण ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो शंखोंके समूह बज रहे हों।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६०)
लंका-फिरि गइ राम-दुहाई।
कहति मँदोदरि सुनि पिय रावन, तैं कहा कुमति कमाई॥
दस मस्तक मेरे बीस भुजा हैं, सौ जोजन की खाई।
मेघनाद-से पुत्र महाबल, कुंभकरन-से भाई॥
रहि-रहि अबला, बोल न बोलै, उन की करति बड़ाई।
तीनि लोक तैं पकरि मँगाऊँ, वे तपसी दोउ भाई॥
तुम्हैं मारि महिरावन मारैं, देहिं बिभीषन राई।
पवन कौ पूत महाबल जोधा, पल मैं लंक जराई॥
जनकसुता-पति हैं रघुबर-से, सँग लछिमन-से भाई।
‘सूरदास’ प्रभु कौ जस प्रगटॺौ, देवनि बंदि छुड़ाई॥
मूल
(१६०)
लंका-फिरि गइ राम-दुहाई।
कहति मँदोदरि सुनि पिय रावन, तैं कहा कुमति कमाई॥
दस मस्तक मेरे बीस भुजा हैं, सौ जोजन की खाई।
मेघनाद-से पुत्र महाबल, कुंभकरन-से भाई॥
रहि-रहि अबला, बोल न बोलै, उन की करति बड़ाई।
तीनि लोक तैं पकरि मँगाऊँ, वे तपसी दोउ भाई॥
तुम्हैं मारि महिरावन मारैं, देहिं बिभीषन राई।
पवन कौ पूत महाबल जोधा, पल मैं लंक जराई॥
जनकसुता-पति हैं रघुबर-से, सँग लछिमन-से भाई।
‘सूरदास’ प्रभु कौ जस प्रगटॺौ, देवनि बंदि छुड़ाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्दोदरी कहती है—‘प्यारे रावण सुनो! तुमने यह कैसी खोटी बुद्धिका संग्रह किया है? (देखो तो) लंकामें श्रीरामकी विजय-घोषणा हो गयी।’ (तब रावणने कहा—) ‘अरी स्त्री! चुप रह, बहुत बकवास न कर; तू बार-बार उनकी (श्रीरामकी) बड़ाई क्या करती है। मेरे दस मस्तक और बीस भुजाएँ हैं, समुद्र-जैसी सौ योजनकी खाईं (मेरे नगरके चारों ओर) है। मेघनाद-जैसा महाबलवान् पुत्र तथा कुम्भकर्ण-जैसा (अमितपराक्रमी) भाई है। उन दोनों तपस्वी भाइयोंको तो (यदि वे भाग भी गये तो) तीनों लोकोंमें (जहाँ कहीं भी वे जायँ, वहीं)-से पकड़ मँगवाऊँगा।’ (तब मन्दोदरीने कहा—) ‘वे तुम्हें मारकर अहिरावणको भी मारेंगे और विभीषणको राज्य देंगे। (उनके सेवकोंमें) पवनकुमार हनुमान्-जैसे महान् बलवान् योद्धा हैं, जिन्होंने पलभरमें लंका जला दी। श्रीजनकनन्दिनीके पति तो श्रीरघुनाथजी-जैसे शूर हैं और उनके साथ लक्ष्मण-जैसे (अपार-बली) भाई हैं।’ सूरदासजी कहते हैं, प्रभुका यह सुयश तो देवताओंको बन्धनसे छुड़ाकर प्रकट (विख्यात) हुआ है। (देवताओंका कष्ट दूर करके प्रभु अपने सुयशका विस्तार करेंगे।)
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६१)
मेघनाद ब्रह्मा-बर पायौ।
आहुति अगिनि जिंवाइ सँतोषी, निकस्यौ रथ बहु रतन बनायौ॥
आयुध धरैं समस्त, कवच सजि, गरजि, चढ़ॺौ, रन-भूमिहिं आयौ।
मनौ मेघनायक रितु पावस, बान-बृष्टि करि सैन कँपायौ॥
कीन्हौ कोप कुँवर कौसलपति, पंथ अकास सायकनि छायौ।
हँस-हँसि नाग-फाँस सर साँधत, बंधु-समैत बँधायौ॥
नारद स्वामी कह्यौ निकट ह्वै, गरुड़ासन काहैं बिसरायौ?
भयौ तोष दसरथ के सुत कौं, सुनि नारद कौ ज्ञान लखायौ॥
सुमिरन-ध्यान जानि कै अपनौ, नाग-फाँस तें सैन छुड़ायौ।
‘सूर’ बिमान चढ़े सुरपुर सौं, आनँद अभय-निसान बजायौ॥
मूल
(१६१)
मेघनाद ब्रह्मा-बर पायौ।
आहुति अगिनि जिंवाइ सँतोषी, निकस्यौ रथ बहु रतन बनायौ॥
आयुध धरैं समस्त, कवच सजि, गरजि, चढ़ॺौ, रन-भूमिहिं आयौ।
मनौ मेघनायक रितु पावस, बान-बृष्टि करि सैन कँपायौ॥
कीन्हौ कोप कुँवर कौसलपति, पंथ अकास सायकनि छायौ।
हँस-हँसि नाग-फाँस सर साँधत, बंधु-समैत बँधायौ॥
नारद स्वामी कह्यौ निकट ह्वै, गरुड़ासन काहैं बिसरायौ?
भयौ तोष दसरथ के सुत कौं, सुनि नारद कौ ज्ञान लखायौ॥
सुमिरन-ध्यान जानि कै अपनौ, नाग-फाँस तें सैन छुड़ायौ।
‘सूर’ बिमान चढ़े सुरपुर सौं, आनँद अभय-निसान बजायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेघनादने ब्रह्माजीसे (बहुत-से) वरदान पाये थे। उसने अग्निको आहुतियोंका भोजन देकर (हवन करके) संतुष्ट किया, (जिसके फलस्वरूप अग्निमेंसे) अनेक रत्नोंसे सुसज्जित रथ प्रकट हुआ। (उस रथमें) सभी अस्त्र-शस्त्र रखकर कवच पहनकर गर्जना करता हुआ वह आरूढ़ हुआ और युद्धभूमिमें आया। मानो वर्षा-ऋतुमें श्रेष्ठ मेघ वर्षा कर रहे हों, इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करके (उसने कपियोंकी सेनाको कम्पित (भयभीत) कर दिया। इससे श्रीकोसलराजकुमारने भी क्रोध करके बाणोंके द्वारा आकाशके पूरे मार्गको ढक दिया (जिससे मेघनाद आकाशमें न जा सके। तब मेघनाद) बार-बार अट्टहास करके नागपाशयुक्त बाणोंका आघात करने लगा, जिससे भाईके साथ श्रीराम बन्धनमें पड़ गये। (उसी समय) देवर्षि नारदजीने पास आकर (अपने) स्वामी (श्रीराम)-से कहा—‘(प्रभो!) आप अपने वाहन गरुड़को क्यों भूल गये हैं?’ देवर्षि नारदके द्वारा सुझाया हुआ संकेत सुनकर श्रीदशरथ-राजकुमारको संतोष हुआ। (उन्होंने गरुड़का चिन्तन किया। तुरंत ही गरुड़ने) यह जानकर कि ‘प्रभु मेरा ध्यानपूर्वक स्मरण कर रहे हैं’ (वहाँ आकर) पूरी सेनाको नागपाशसे छुड़ा दिया। सूरदासजी कहते हैं कि इससे आनन्दित होकर देवतालोग स्वर्गलोकसे ही विमानोंपर चढ़े अभय-दुन्दुभि बजाने लगे।
कुम्भकर्ण-रावण-संवाद
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६२)
लंकपति अनुज सोवत जगायौ।
लंकपुर आइ रघुराइ डेरा दियौ,
तिया जाकी सिया मैं लै आयौ॥
त बुरी बहुत कीन्ही, कहा तोहि कहौं,
छाँड़ि जस, जगत अपजस बढ़ायौ।
‘सूर’ अब डर न करि, जुद्ध कौ साज करि,
होइहै सोइ जो दई-भायौ॥
मूल
(१६२)
लंकपति अनुज सोवत जगायौ।
लंकपुर आइ रघुराइ डेरा दियौ,
तिया जाकी सिया मैं लै आयौ॥
त बुरी बहुत कीन्ही, कहा तोहि कहौं,
छाँड़ि जस, जगत अपजस बढ़ायौ।
‘सूर’ अब डर न करि, जुद्ध कौ साज करि,
होइहै सोइ जो दई-भायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि (लंकामें) रावणने अपने छोटे भाई कुम्भकर्णको सोतेसे जगाया और कहा—‘जिनकी पत्नी जानकीको मैं हरण करके ले आया हूँ, उन रघुनाथने (सेनाके साथ) आकर लंकापुरीमें शिबिर डाल दिया है।’ (यह सुनकर कुम्भकर्ण बोला—) ‘तुमने बहुत बुरा किया, (अब) तुम्हें क्या कहूँ? यशको छोड़कर संसारमें तुमने अपना अपयश बढ़ा लिया; किंतु अब भय मत करो! युद्धकी तैयारी करो। होगा तो वही, जो दैव (भाग्यनिर्माता)-को स्वीकार है।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६३)
लषन कह्यौ, करबार सम्हारौं।
कुंभकरन अरु इंद्रजीत कौं टूक-टूक करि डारौं॥
महाबली रावन जिहि बोलत, पल मैं सीस सँहारौं।
सब राच्छस रघुबीर-कृपा तैं, एकहिं बान निवारौं॥
हँसि-हँसि कहत बिभीषन सौं प्रभु, महाबली रन भारौ।
‘सूर’ सुनत रावन उठि धायौ, क्रोध-अनल उर धारौ॥
मूल
(१६३)
लषन कह्यौ, करबार सम्हारौं।
कुंभकरन अरु इंद्रजीत कौं टूक-टूक करि डारौं॥
महाबली रावन जिहि बोलत, पल मैं सीस सँहारौं।
सब राच्छस रघुबीर-कृपा तैं, एकहिं बान निवारौं॥
हँसि-हँसि कहत बिभीषन सौं प्रभु, महाबली रन भारौ।
‘सूर’ सुनत रावन उठि धायौ, क्रोध-अनल उर धारौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजीने कहा—‘मैं तलवार उठाता हूँ और कुम्भकर्ण तथा मेघनादको टुकड़े-टुकड़े किये देता हूँ। जिस रावणको महान् बलवान् कहा जाता है, उसका मस्तक पलभरमें काट दूँगा। श्रीरघुनाथजीकी कृपासे एक ही बाणसे सभी राक्षसोंका मैं संहार कर डालूँगा।’ (उनके इस आवेशको शान्त करनेके लिये नरलीलाका संकेत करते हुए) प्रभु हँस-हँसकर विभीषणसे कहने लगे—‘महान् बलवान् राक्षस आ रहे हैं, अब भयंकर संग्राम होगा।’ सूरदासजी कहते हैं—(युद्धका समाचार) सुनते ही हृदयमें क्रोधकी ज्वाला लिये स्वयं रावण भी (युद्धके लिये) उठ दौड़ा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६४)
रावन चल्यौ गुमान-भरॺौ।
श्रीरघुनाथ अनाथबंधु सौं, सनमुख खेत खरॺौ।
कोप करॺौ रघुबीर धीर तब, लछिमन पाइ परॺौ॥
तुम्हरे तेज-प्रताप नाथ जू! मैं कर धनुष धरॺौ॥
सारथि सहित अस्व बहु मारे, रावन क्रोध जरॺौ।
इंद्रजीत लीन्ही तब सक्ती, देवनि हहा करॺौ॥
छूटी बिज्जु-रासि वह मानौ, लछमन बंधु परॺौ।
करुना करत ‘सूर’ कोसलपति, नैननि नीर झरॺौ॥
मूल
(१६४)
रावन चल्यौ गुमान-भरॺौ।
श्रीरघुनाथ अनाथबंधु सौं, सनमुख खेत खरॺौ।
कोप करॺौ रघुबीर धीर तब, लछिमन पाइ परॺौ॥
तुम्हरे तेज-प्रताप नाथ जू! मैं कर धनुष धरॺौ॥
सारथि सहित अस्व बहु मारे, रावन क्रोध जरॺौ।
इंद्रजीत लीन्ही तब सक्ती, देवनि हहा करॺौ॥
छूटी बिज्जु-रासि वह मानौ, लछमन बंधु परॺौ।
करुना करत ‘सूर’ कोसलपति, नैननि नीर झरॺौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावण गर्वमें भरा युद्धके लिये चल पड़ा और अनाथोंके सहायक श्रीरघुनाथजीसे उसने सम्मुख संग्राम प्रारम्भ कर दिया। पर (जब) धीर श्रीरघुनाथजीने भी क्रोध किया (और युद्धके लिये प्रस्तुत हुए), तब श्रीलक्ष्मणजी उनके चरणोंपर गिरकर बोले—‘स्वामी! आपके ही तेज और प्रतापसे मैंने हाथमें धनुष ले रखा है। (मेरे रहते आप युद्धका कष्ट न उठायें।’ इतना कहकर) उन्होंने (रावणके) सारथिके साथ बहुत-से घोड़ोंको भी मार दिया, इससे रावण क्रोधसे जल उठा। तब मेघनादने (ब्रह्मासे प्राप्त अमोघ) शक्ति उठायी, (जिसे देखकर) देवता हाहाकार करने लगे। वह शक्ति इस प्रकार छूटी, जैसे बिजलियोंका समूह छूट पड़ा हो; (उसके लगते ही) भाई लक्ष्मण (मूर्च्छित होकर) गिर पड़े। सूरदासजी कहते हैं कि (भाईको मूर्च्छित देखकर) श्रीकोसलनाथ व्याकुल होकर विलाप करने लगे, उनके नेत्रोंसे अश्रुप्रवाह चलने लगा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६५)
निरखि मुख राघव धरत न धीर।
भए अति अरुन, बिसाल कमल-दल-लोचन मोचत नीर॥
बारह बरष नींद है साधी, तातैं बिकल सरीर।
बोलत नहीं मौन कहा साध्यौ, बिपति-बँटावन बीर॥
दसरथ-मरन, हरन सीता कौ, रन बैरिनि की भीर।
दुजौ ‘सूर’ सुमित्रा-सुत बिनु, कौन धरावै धीर?
मूल
(१६५)
निरखि मुख राघव धरत न धीर।
भए अति अरुन, बिसाल कमल-दल-लोचन मोचत नीर॥
बारह बरष नींद है साधी, तातैं बिकल सरीर।
बोलत नहीं मौन कहा साध्यौ, बिपति-बँटावन बीर॥
दसरथ-मरन, हरन सीता कौ, रन बैरिनि की भीर।
दुजौ ‘सूर’ सुमित्रा-सुत बिनु, कौन धरावै धीर?
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—भाईका मुख देखकर श्रीरघुनाथजी धैर्य धारण नहीं कर पाते। उनके कमलदलके समान विशाल नेत्र (शोकसे) अत्यन्त लाल हो गये हैं और उनसे आँसूकी धारा चल रही है। (वे कहते हैं—) ‘भाई! तुमने बारह वर्ष निद्रा न लेनेकी साधना की, क्या इससे तुम्हारा शरीर व्याकुल है? मेरी विपत्तिको बँटानेवाले (विपत्तिके सहायक) प्यारे भाई! तुमने मौन क्यों ले रखा है? बोलते क्यों नहीं हो? हाय! पिता महाराज दशरथकी मृत्यु हो गयी, (वनसे) पत्नी जानकी चुरा ली गयी और यहाँ युद्धमें शत्रुओंका समूह एकत्र हो गया है; इन सबपर यह दूसरा ही महान् कष्ट आ गया। श्रीसुमित्राकुमारके बिना मुझे कौन धैर्य दिला सकता है।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६६)
अब हौं कौन कौ मुख हेरौं?
रिपु-सैना-समूह-जल उमड़ॺौ, काहि संग लै फेरौं?
दुख-समुद्र जिहि वार-पार नहिं, तामैं नाव चलाई।
केवट थक्यौ, रही अधबीचहिं, कौन आपदा आई?
नाहीं भरत, सत्रुघन सुंदर, जिन सौं चित्त लगायौ।
बीचहिं भई और-की-औरै, भयौ सत्रु कौ भायौ॥
मैं निज प्रान तजौंगौ, सुनि कपि, तजिहि जानकी सुनि कै।
ह्वै है कहा बिभीषन की गति, यहै सोच जिय गुनि कै॥
बार-बार सिर लै लछिमन कौ, निरखि गोद पर राखैं।
‘सूरदास’ प्रभु दीन बचन यौं, हनूमान सौं भाषैं॥
मूल
(१६६)
अब हौं कौन कौ मुख हेरौं?
रिपु-सैना-समूह-जल उमड़ॺौ, काहि संग लै फेरौं?
दुख-समुद्र जिहि वार-पार नहिं, तामैं नाव चलाई।
केवट थक्यौ, रही अधबीचहिं, कौन आपदा आई?
नाहीं भरत, सत्रुघन सुंदर, जिन सौं चित्त लगायौ।
बीचहिं भई और-की-औरै, भयौ सत्रु कौ भायौ॥
मैं निज प्रान तजौंगौ, सुनि कपि, तजिहि जानकी सुनि कै।
ह्वै है कहा बिभीषन की गति, यहै सोच जिय गुनि कै॥
बार-बार सिर लै लछिमन कौ, निरखि गोद पर राखैं।
‘सूरदास’ प्रभु दीन बचन यौं, हनूमान सौं भाषैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(विलाप करते हुए श्रीरघुनाथजी कहते हैं—) ‘अब मैं किसके मुखकी ओर देखूँ? शत्रुओंकी सेनाका समूह बाढ़के जलके समान उमड़ा आ रहा है, किसे साथ लेकर इसे लौटाऊँ? दुःखके उस समुद्रमें मैंने अपनी नौका चलायी, जिसका कोई आर-पार (कूल-किनारा) नहीं था; किंतु मध्य प्रवाहमें ही केवट (मेरा सहायक लक्ष्मण) थक गया (मूर्च्छित हो गया) और मेरी नौका वहीं रह गयी (पार नहीं जा सकी)। यह कौन-सी (अकल्पित) आपत्ति आ गयी? न यहाँ भरतलाल हैं, न सुन्दर कुमार शत्रुघ्न हैं, जिनपर मैंने अपना चित्त टिकाया था (जिनपर मेरा भरोसा था)। यह तो बीचमें और-की-और (सोचे हुएसे उलटी) ही बात हो गयी, शत्रुकी प्रिय बात हो गयी। कपिवर हनुमान्! सुनो, मैं तो अपने प्राण त्याग दूँगा और इसका समाचार पाकर जानकी भी प्राण त्याग देंगी; किंतु (शरणागत) विभीषणकी क्या दशा होगी, यही विचार करके मेरे चित्तमें अत्यन्त चिन्ता हो रही है।’ सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु बार-बार श्रीलक्ष्मणजीका मस्तक उठाकर देखते हैं और फिर गोदमें रख लेते हैं तथा हनुमान् जी से इस प्रकार दीन वाणी कह रहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६७)
कहाँ गयौ मारुत-पुत्र कुमार।
ह्वै अनाथ रघुनाथ पुकारे, संकट-मित्र हमार॥
इतनी बिपति भरत सुनि पावैं, आवैं साजि बरूथ।
कर गहि धनुष जगत कौं जीत, कितक निसाचर जूथ॥
नाहिंन और बियौ कोउ समरथ, जाहि पठावौं दूत।
को अब है पौरुष दिखरावै, बिना पौन के पूत?
इतनौ बचन स्रवन सुनि हरष्यौ, फूल्यौ अंग न मात॥
प्रभु-प्रताप रिपु के बल तोरत करत मुष्टिका-घात।
लै-लै चरन-रेनु निज प्रभु की, रिपु कें स्रोनित न्हात॥
अहो पुनीत मीत केसरि-सुत! तुम हितबंधु हमारे।
जिह्वा रोम-रोम-प्रति नाहीं, पौरुष गनौं तुम्हारे॥
जहाँ-जहाँ जिहिं काल सँभारे, तहँ-तहँ त्रास निवारे।
‘सूर’ सहाइ कियौ बन बसि कै, बन-बिपदा-दुख टारे॥
मूल
(१६७)
कहाँ गयौ मारुत-पुत्र कुमार।
ह्वै अनाथ रघुनाथ पुकारे, संकट-मित्र हमार॥
इतनी बिपति भरत सुनि पावैं, आवैं साजि बरूथ।
कर गहि धनुष जगत कौं जीत, कितक निसाचर जूथ॥
नाहिंन और बियौ कोउ समरथ, जाहि पठावौं दूत।
को अब है पौरुष दिखरावै, बिना पौन के पूत?
इतनौ बचन स्रवन सुनि हरष्यौ, फूल्यौ अंग न मात॥
प्रभु-प्रताप रिपु के बल तोरत करत मुष्टिका-घात।
लै-लै चरन-रेनु निज प्रभु की, रिपु कें स्रोनित न्हात॥
अहो पुनीत मीत केसरि-सुत! तुम हितबंधु हमारे।
जिह्वा रोम-रोम-प्रति नाहीं, पौरुष गनौं तुम्हारे॥
जहाँ-जहाँ जिहिं काल सँभारे, तहँ-तहँ त्रास निवारे।
‘सूर’ सहाइ कियौ बन बसि कै, बन-बिपदा-दुख टारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजी अनाथके समान होकर पुकारने लगे—‘विपत्तिके हमारे मित्र श्रीपवनपुत्र कुमार हनुमान् कहाँ चले गये? मेरी इतनी विपत्तिका समाचार यदि भरत पा जायँ तो यहाँ सेना सजाकर तुरंत आ जायँ। (अकेले ही) वे हाथमें धनुष लेकर सारे संसारको जीत सकते हैं, यह राक्षसोंका दल तो किस गिनतीमें है। कोई दूसरा इस समय समर्थ नहीं है, जिसे दूत बनाकर (अयोध्या) भेजूँ। पवनकुमारके बिना इस समय और कौन है जो अपना बल दिखला सके।’ प्रभुकी इतनी बात सुनकर हनुमान् जी हर्षित हो उठे, आनन्दके मारे वे फूले नहीं समाते थे। प्रभुके प्रतापसे बार-बार घूँसे मारकर वे शत्रु-सेनाका विध्वंस करने लगे। बार-बार प्रभुकी चरण-रज लेकर मस्तकसे लगाने लगे और शत्रुके रक्तसे स्नान करने लगे (शत्रुदलका भयंकर विनाश करने लगे)। सूरदासजी कहते हैं—(प्रभुने कहा—) ‘अहो केसरीनन्दन! तुम हमारे पवित्र मित्र हो। तुम हमारे हितकारी बन्धु हो। मेरे एक-एक रोममें जिह्वा नहीं है कि तुम्हारे पुरुषार्थका वर्णन कर सकूँ। जहाँ-जहाँ, जब-जब हमने तुम्हारा स्मरण किया, वहाँ-वहाँ तुमने हमारा भय दूर किया। वनमें निवास करके तुमने हमारी सहायता की तथा वनकी विपत्तियों और दुःखको दूर किया।’
श्रीरामके प्रति हनुमान् जी की प्रार्थना
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६८)
रघुपति! मन संदेह न कीजै।
मो देखत लछिमन क्यौं मरिहैं, मोकौं आज्ञा दीजै॥
कहौ तौ सूरज उगन देउँ नहिं, दिसि-दिसि बाढ़ै ताम।
कहौ तौ गन समेत ग्रसि खाऊँ, जमपुर जाइ न, राम!
कहौ तौ कालहि खंड-खंड करि, टूक-टूक करि काटौं।
कहौ तौ मृत्युहि मारि डारि कै, खोदि पतालहि पाटौं॥
कहौ तौ चंद्रहि लै अकास तैं, लछिमन मुखहिं निचोरौं।
कहौ तौ पैठि सुधा के सागर, जल समस्त मैं घोरौं॥
श्रीरघुबर! मोसौ जन जाके, ताहि कहा सँकराई?
‘सूरदास’ मिथ्या नहिं भाषत, मोहि रघुनाथ-दुहाई॥
मूल
(१६८)
रघुपति! मन संदेह न कीजै।
मो देखत लछिमन क्यौं मरिहैं, मोकौं आज्ञा दीजै॥
कहौ तौ सूरज उगन देउँ नहिं, दिसि-दिसि बाढ़ै ताम।
कहौ तौ गन समेत ग्रसि खाऊँ, जमपुर जाइ न, राम!
कहौ तौ कालहि खंड-खंड करि, टूक-टूक करि काटौं।
कहौ तौ मृत्युहि मारि डारि कै, खोदि पतालहि पाटौं॥
कहौ तौ चंद्रहि लै अकास तैं, लछिमन मुखहिं निचोरौं।
कहौ तौ पैठि सुधा के सागर, जल समस्त मैं घोरौं॥
श्रीरघुबर! मोसौ जन जाके, ताहि कहा सँकराई?
‘सूरदास’ मिथ्या नहिं भाषत, मोहि रघुनाथ-दुहाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीहनुमान् जी बोले—) ‘रघुनाथजी! आप अपने मनमें कोई संदेह न करें। मेरे देखते-देखते श्रीलक्ष्मणलाल मर कैसे सकते हैं, आप मुझे आज्ञा तो दें। आप कहें तो सूर्यको उदय ही न होने दूँ , जिससे प्रत्येक दिशामें अन्धकार बढ़ता रहे। अथवा श्रीराम! आप आज्ञा दें तो यमलोक जाकर यमराजको ही उनके दूतोंके साथ क्यों न खा लूँ। आप कहें तो (स्वयं) कालको काटकर उसके अत्यन्त छोटे-छोटे टुकड़े कर डालूँ या आप आज्ञा दें तो मृत्युको ही मार डालूँ और (पृथ्वीको पातालतक) खोदकर उससे पातालको पाट दूँ। आप कहें तो आकाशसे चन्द्रमाको लाकर लक्ष्मणजीके मुखमें निचोड़ दूँ , अथवा आपकी आज्ञा हो तो पाताल जाकर अमृत ले आऊँ और उसे समुद्रके पूरे जलमें घोल दूँ। श्रीराघवजी! मेरे-जैसा जिसका सेवक है, उसके लिये भला संकट कैसा! श्रीरघुनाथजी! मुझे आपकी शपथ! कोई बात मैं झूठी नहीं कह रहा हूँ।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१६९)
कह्यौ तब हनुमत सौं रघुराई।
दौनागिरि पर आहि सँजीवनि, बैद सुषेन बताई॥
तुरत जाइ लै आउ उहाँ तैं, बिलँब न करि मो भाई!
‘सूरदास’ प्रभु-बचन सुनतहीं, हनुमत चल्यौ अतुराई॥
मूल
(१६९)
कह्यौ तब हनुमत सौं रघुराई।
दौनागिरि पर आहि सँजीवनि, बैद सुषेन बताई॥
तुरत जाइ लै आउ उहाँ तैं, बिलँब न करि मो भाई!
‘सूरदास’ प्रभु-बचन सुनतहीं, हनुमत चल्यौ अतुराई॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरघुनाथजीने हनुमान् जी से कहा—‘वैद्य सुषेणने बताया है कि द्रोणगिरिपर संजीवनी जड़ी है। मेरे भाई! तुम विलम्ब मत करो, जाकर तुरंत उसे वहाँसे ले आओ।’ सूरदासजी कहते हैं—प्रभुकी आज्ञा सुनकर हनुमान् जी शीघ्रतापूर्वक चल पड़े।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७०)
दौनागिरि हनुमान सिधायौ।
संजीवनि कौ भेद न पायौ, तब सब सैल उठायौ॥
चितै रह्यौ तब भरत देखि कै, अवधपुरी जब आयौ।
मन मैं जानि उपद्रव भारी, बान अकास चलायौ॥
राम-राम यह कहत पवन-सुत, भरत निकट तब आयौ।
पूछॺौ ‘सूर’, कौन है, कहि तू, हनुमत नाम सुनायौ॥
मूल
(१७०)
दौनागिरि हनुमान सिधायौ।
संजीवनि कौ भेद न पायौ, तब सब सैल उठायौ॥
चितै रह्यौ तब भरत देखि कै, अवधपुरी जब आयौ।
मन मैं जानि उपद्रव भारी, बान अकास चलायौ॥
राम-राम यह कहत पवन-सुत, भरत निकट तब आयौ।
पूछॺौ ‘सूर’, कौन है, कहि तू, हनुमत नाम सुनायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी द्रोणगरिपर पहुँचे; किंतु जब वे संजीवनीको पहचान न सके, तब पूरे पर्वतको ही उठा लाये। इस प्रकार (लौटते हुए) जब वे अयोध्याके ऊपर पहुँचे, तब उन्हें देखकर भरतजी आश्चर्यसे देखते रह गये और कोई बड़ा उत्पात (करनेवाला राक्षस) समझकर आकाशमें (उनको लक्ष्य करके) बाण मार दिया। ‘राम-राम’ यह कहते हुए श्रीपवनकुमार (गिर पड़े, तब) भरतजी उनके पास चले आये। सूरदासजी कहते हैं कि भरतजीने उनसे पूछा—‘तुम कौन हो? बताओ तो’ तब अपना नाम हनुमान् बताकर उन्होंने परिचय दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७१)
कहौ कपि! रघुपति कौ संदेस।
कुसल बंधु लछिमन, बैदेही, श्रीपति सकल-नरेस॥
जनि पूछौ तुम कुसल नाथ की, सुनौ भरत बलबीर।
बिलख-बदन, दुख भरे सिया कें, हैं जलनिधि के तीर॥
बन मैं बसत, निसाचर छल करि, हरी सिया मम मात।
ता कारन लछिमन सर लाग्यौ, भए राम बिनु भ्रात॥
यह सुनि कौसिल्या सिर ढोरॺौ, सबनि पुहुमि तन जोयौ।
त्राहि-त्राहि कहि, पुत्र-पुत्र कहि, मातु सुमित्रा रोयौ॥
धन्य सुपुत्र पिता-पन राख्यौ, धनि सुबधू कुल-लाज।
सेवक धन्य अंत अवसर जो आवै प्रभु के काज॥
पुनि धरि धीर कह्यौ, धनि लछिमन, राम-काज जो आवै।
‘सूर’ जियै तौ जग जस पावै, मरि सुरलोक सिधावै॥
मूल
(१७१)
कहौ कपि! रघुपति कौ संदेस।
कुसल बंधु लछिमन, बैदेही, श्रीपति सकल-नरेस॥
जनि पूछौ तुम कुसल नाथ की, सुनौ भरत बलबीर।
बिलख-बदन, दुख भरे सिया कें, हैं जलनिधि के तीर॥
बन मैं बसत, निसाचर छल करि, हरी सिया मम मात।
ता कारन लछिमन सर लाग्यौ, भए राम बिनु भ्रात॥
यह सुनि कौसिल्या सिर ढोरॺौ, सबनि पुहुमि तन जोयौ।
त्राहि-त्राहि कहि, पुत्र-पुत्र कहि, मातु सुमित्रा रोयौ॥
धन्य सुपुत्र पिता-पन राख्यौ, धनि सुबधू कुल-लाज।
सेवक धन्य अंत अवसर जो आवै प्रभु के काज॥
पुनि धरि धीर कह्यौ, धनि लछिमन, राम-काज जो आवै।
‘सूर’ जियै तौ जग जस पावै, मरि सुरलोक सिधावै॥
अनुवाद (हिन्दी)
(भरतजीने पूछा—) ‘कपिवर! श्रीरघुनाथजीका समाचार बतलाओ! सम्पूर्ण जगत् के राजा श्रीराघवेन्द्र भाई लक्ष्मण तथा श्रीजानकीजीके साथ कुशलपूर्वक तो हैं? (यह सुनकर हनुमान् जी बोले—) ‘महान् बलवान् तथा शूरवीर श्रीभरतजी! आप प्रभुकी कुशल मत पूछें। जब प्रभु (दण्डक) वनमें निवास करते थे, तब राक्षस रावणने छल करके मेरी माता श्रीजानकीजीका हरण कर लिया; (अब) उन श्रीविदेहनन्दिनीके वियोगमें व्याकुल-शरीर अत्यन्त दुःखी प्रभु समुद्र-किनारे (लंकामें) हैं। इसी कारणसे (रावणके साथ युद्ध छिड़ा है और संग्राममें) लक्ष्मणजीको बाण लगा है, जिससे श्रीराम बिना भाईके हो गये हैं।’ सूरदासजी कहते हैं कि इतना सुनते ही माता कौसल्याने सिर ढुलका दिया (मूर्च्छित हो गयीं), सभी लोग (शोकसे) पृथ्वीकी ओर देखने लगे। ‘त्राहि, त्राहि, हा पुत्र! हा पुत्र!’ कहकर माता सुमित्रा रुदन करने लगीं (और बोलीं—) ‘सुपुत्र (श्रीराम) धन्य हैं, जिन्होंने पिताके प्रण (सत्य)-की रक्षा की और उत्तम पुत्रवधू (श्रीजानकी) भी धन्य हैं, जिन्होंने कुलकी लज्जा रखी। सेवक भी वही धन्य है, जो अन्तिम समय (प्राण जाते-जाते) भी प्रभुके काम आया।’ फिर धैर्य धारण करके वे कहने लगीं—‘(मेरा पुत्र) लक्ष्मण धन्य है, जो श्रीरामके काम आया। यदि वह जीवित रहा तो संसारमें यश पावेगा और मरकर (निश्चित ही) देवलोक जायगा। (उसके लिये मुझे कोई खेद नहीं है।)’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७२)
धनि जननी, जो सुभटहि जावै।
भीर परैं रिपु कौ दल दलि-मलि, कौतुक करि दिखरावै॥
कौसिल्या सौं कहति सुमित्रा, जनि स्वामिनि दुख पावै।
लछिमन जनि हौं भई सपूती, राम-काज जो आवै॥
जीवै तौ सुख बिलसै जग मैं, कीरति लोकनि गावै।
मरै तौ मंडल भेदि भानु कौ, सुरपुर जाइ बसावै॥
लोह गहैं लालच करि जिय कौ, औरौ सुभट लजावै।
‘सूरदास’ प्रभु जीति सत्रु कौं, कुसल-छेम घर आवै॥
मूल
(१७२)
धनि जननी, जो सुभटहि जावै।
भीर परैं रिपु कौ दल दलि-मलि, कौतुक करि दिखरावै॥
कौसिल्या सौं कहति सुमित्रा, जनि स्वामिनि दुख पावै।
लछिमन जनि हौं भई सपूती, राम-काज जो आवै॥
जीवै तौ सुख बिलसै जग मैं, कीरति लोकनि गावै।
मरै तौ मंडल भेदि भानु कौ, सुरपुर जाइ बसावै॥
लोह गहैं लालच करि जिय कौ, औरौ सुभट लजावै।
‘सूरदास’ प्रभु जीति सत्रु कौं, कुसल-छेम घर आवै॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि श्रीसुमित्राजी माता कौसल्यासे कहने लगीं—‘स्वामिनी! आप अपने चित्तमें दुःखी न हों। वह माता तो धन्य है, जो ऐसे (शूर) पुत्रको उत्पन्न करती है। जो संकट पड़नेपर शत्रुसमूहको रौंदकर खेल-सा करके दिखला दे। मैं तो लक्ष्मणको उत्पन्न करके पुत्रवती हो गयी, यदि वह श्रीरामके काम आ जाय। यदि वह जीवित रहेगा तो संसारमें रहकर (संसारके) सुख भोगेगा और तीनों लोक उसकी कीर्तिका वर्णन करेंगे और कहीं मर गया तो सूर्यमण्डलका भेदन करके दिव्यलोकमें निवास करेगा। जो शस्त्र धारण करके भी प्राणोंका लोभ करते हैं, वे तो (अपनी कायरतासे) दूसरे शूरोंको भी लज्जित करते हैं। (मैं तो अब इतना ही चाहती हूँ कि) श्रीरघुनाथ शत्रुको जीतकर कुशलपूर्वक घर लौट आयें।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७३)
सुनौ कपि, कौसिल्या की बात।
इहिं पुर जनि आवहिं मम बत्सल, बिनु लछिमनु लघु भ्रात॥
छाँड़ॺौ राज-काज, माता-हित, तव चरननि चित लाइ।
ताहि बिमुख जीवन धिक रघुपति, कहियौ कपि समुझाइ॥
लछिमन सहित कुसल बैदेही, आनि राज पुर कीजै।
नातरु ‘सूर’ सुमित्रा-सुत पर, वारि अपुनपौ दीजै॥
मूल
(१७३)
सुनौ कपि, कौसिल्या की बात।
इहिं पुर जनि आवहिं मम बत्सल, बिनु लछिमनु लघु भ्रात॥
छाँड़ॺौ राज-काज, माता-हित, तव चरननि चित लाइ।
ताहि बिमुख जीवन धिक रघुपति, कहियौ कपि समुझाइ॥
लछिमन सहित कुसल बैदेही, आनि राज पुर कीजै।
नातरु ‘सूर’ सुमित्रा-सुत पर, वारि अपुनपौ दीजै॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(माता कौसल्याने कहा—) ‘कपिवर! तुम कौसल्याकी बात सुनो! (श्रीरामसे कह देना) मेरे वे पुत्र (हों तो) बिना छोटे भाई लक्ष्मणको साथ लिये इस नगरमें न आयें। हनुमान्! यह समझाकर कह देना कि रघुनाथ! जिसने आपके चरणोंमें चित्त लगाकर समस्त राज-कार्य (राज-सुख), माता तथा सभी बन्धुओंका त्याग कर दिया, उससे विमुख (उससे रहित) जीवनको धिक्कार है। (हो सके तो) लक्ष्मण और श्रीजानकीके साथ कुशलपूर्वक लौटकर इस नगरमें राज्य करो, अन्यथा श्रीसुमित्राकुमारपर अपने-आपको न्योछावर कर दो।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७४)
बिनती कहियो जाइ पवनसुत, तुम रघुपति के आगैं।
या पुर जनि आवहु बिनु लछिमन, जननी-लाजनि-लागैं॥
मारुतसुतहि सँदेस सुमित्रा ऐसैं कहि समुझावै।
सेवक जूझि परै रन भीतर, ठाकुर तउ घर आवै॥
जब तैं तुम गवने कानन कौं, भरत भोग सब छाँड़े।
‘सूरदास’ प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, दुख-समूह उर गाड़े॥
मूल
(१७४)
बिनती कहियो जाइ पवनसुत, तुम रघुपति के आगैं।
या पुर जनि आवहु बिनु लछिमन, जननी-लाजनि-लागैं॥
मारुतसुतहि सँदेस सुमित्रा ऐसैं कहि समुझावै।
सेवक जूझि परै रन भीतर, ठाकुर तउ घर आवै॥
जब तैं तुम गवने कानन कौं, भरत भोग सब छाँड़े।
‘सूरदास’ प्रभु तुम्हरे दरस बिनु, दुख-समूह उर गाड़े॥
अनुवाद (हिन्दी)
(माता कौसल्याने कहा—) ‘पवनकुमार! तुम जाकर श्रीरघुनाथके सम्मुख मेरी यह प्रार्थना सुना देना कि माताकी लज्जाको बचानेके लिये बिना लक्ष्मणके वे इस नगरमें न आयें, सूरदासजी कहते हैं—तब माता सुमित्रा हनुमान् जी को इस प्रकार अपना संदेश देते हुए समझाने लगीं—‘सेवक युद्धमें प्राण दे दे, तब भी स्वामी (तो) घर लौटकर आता ही है। (इसमें कोई अनुचित बात नहीं है। श्रीरामसे कहना—) जबसे तुम वनको गये हो, तभीसे भरतने भी सब सुखोपभोग छोड़ दिये हैं। हे रघुनाथ! तुम्हारे दर्शनके बिना अपने हृदयमें उन्होंने दुःखोंका समूह बसा लिया है (अत्यन्त दुःखित हैं, अतः लक्ष्मणकी चिन्ता छोड़कर कम-से-कम भरतपर दया करके तुमको तो लौट ही आना चाहिये)।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७५)
पवन-पुत्र बोल्यौ सतिभाइ।
जाति सिराति राति बातनि मैं, सुनौ भरत! चित लाइ॥
श्रीरघुनाथ सँजीवनि कारन, मोकौं इहाँ पठायौ।
भयौ अकाज, अर्धनिसि बीती, लछिमन-काज नसायौ॥
स्यौं परबत सर बैठि पवनसुत! हौं प्रभु पै पहुँचाऊँ।
‘सूरदास’ प्रभु-पाँवरि मम सिर, इहिं बल भरत कहाऊँ॥
मूल
(१७५)
पवन-पुत्र बोल्यौ सतिभाइ।
जाति सिराति राति बातनि मैं, सुनौ भरत! चित लाइ॥
श्रीरघुनाथ सँजीवनि कारन, मोकौं इहाँ पठायौ।
भयौ अकाज, अर्धनिसि बीती, लछिमन-काज नसायौ॥
स्यौं परबत सर बैठि पवनसुत! हौं प्रभु पै पहुँचाऊँ।
‘सूरदास’ प्रभु-पाँवरि मम सिर, इहिं बल भरत कहाऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यह सब सुनकर) पवनकुमार शुद्ध भावसे बोले—‘भरतजी! चित्त लगाकर (ध्यानसे) आप मेरी बात सुनें। बातों-ही-बातोंमें रात्रि बीतती जा रही है। श्रीरघुनाथजीने संजीवनी जड़ी लेनेके लिये मुझे यहाँ भेजा था, उसमें विलम्ब हो गया; आधी रात बीत गयी, इससे लक्ष्मणजीका कार्य (उन्हें सचेत करनेका काम) नष्ट हो गया (उसमें देर लगी—रात्रि बीत जानेपर यह कार्य नहीं हो सकेगा)।’ सूरदासजी कहते हैं—(इतना सुनकर भरतजीने कहा—) ‘पवनकुमार! तुम पर्वतके साथ मेरे बाणपर बैठ जाओ, मैं तुम्हें प्रभुके पास पहुँचा दूँ। मेरे मस्तकपर प्रभुकी चरणपादुका है—इसीके बलसे मैं भरत (सबका भरण-पोषण करनेवाला) कहलाता हूँ (अतः तुम्हें इस पादुकाके प्रतापसे ही मैं बाणपर बैठाकर लंका पहुँचा सकता हूँ)।’
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७६)
हनूमान संजीवनि ल्यायौ।
महाराज रघुबीर धीर कौं हाथ जोरि सिर नायौ॥
परबत आनि धरॺौ सागर-तट, भरत-सँदेस सुनायौ।
‘सूर’ सँजीवनि दै लछिमन कौं मूर्छित फेरि जगायौ॥
मूल
(१७६)
हनूमान संजीवनि ल्यायौ।
महाराज रघुबीर धीर कौं हाथ जोरि सिर नायौ॥
परबत आनि धरॺौ सागर-तट, भरत-सँदेस सुनायौ।
‘सूर’ सँजीवनि दै लछिमन कौं मूर्छित फेरि जगायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि हनुमान् जी संजीवनी लेकर (लंका) आ गये। धैर्यशाली महाराज श्रीरघुनाथजीको हाथ जोड़कर उन्हें मस्तक झुकाया। पर्वतको लाकर उन्होंने समुद्रके किनारे रख दिया और (प्रभुसे) भरतजीका समाचार सुनाया। फिर लक्ष्मणजीको संजीवनीका सेवन कराके (उसे सुँघाकर) मूर्च्छित दशासे पुनः सचेत कर दिया।
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७७)
श्रीमुख आपुन करत बड़ाई।
तूँ कपि आज भरथ की ठाहर, जिहिं मिलि बिपति बटाई॥
लछिमन हेत मूरि लै आयौ, लाँघत अगनित घाटी।
दसहूँ दिसा भयौ हम कारन बौछाहर की टाटी॥
तूँ सेवक, स्वामी तोही बल, तो तजि और न मेरै।
निधरक भए , मिटी दुचिताई, सोवत पहरैं तेरै॥
इतनौं सुनत दौरि पद टेके अरु मन-ही-मन फूल्यौ।
पिता मरन कौ दुःख हमारौ तोही ते सब भूल्यौ॥
जु कछु करीसु प्रताप तुम्हारैं, हौं को करिबे लायक।
‘सूर’ सेवकहि इती बड़ाई, तुम त्रिभुवन के नायक॥
मूल
(१७७)
श्रीमुख आपुन करत बड़ाई।
तूँ कपि आज भरथ की ठाहर, जिहिं मिलि बिपति बटाई॥
लछिमन हेत मूरि लै आयौ, लाँघत अगनित घाटी।
दसहूँ दिसा भयौ हम कारन बौछाहर की टाटी॥
तूँ सेवक, स्वामी तोही बल, तो तजि और न मेरै।
निधरक भए , मिटी दुचिताई, सोवत पहरैं तेरै॥
इतनौं सुनत दौरि पद टेके अरु मन-ही-मन फूल्यौ।
पिता मरन कौ दुःख हमारौ तोही ते सब भूल्यौ॥
जु कछु करीसु प्रताप तुम्हारैं, हौं को करिबे लायक।
‘सूर’ सेवकहि इती बड़ाई, तुम त्रिभुवन के नायक॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु स्वयं श्रीमुखसे (हनुमान् जी की) प्रशंसा करते हुए कह रहे हैं—‘कपिश्रेष्ठ! आज तुम मेरे लिये भाई भरतके स्थानपर हो, जिन्होंने मिलकर (सहायता करके) मेरी विपत्ति बँटा ली (कम कर दी)। लक्ष्मणके लिये अगणित घाटियों (वनों, पर्वतों)-को लाँघते हुए तुम संजीवनी जड़ी ले आये। (यही नहीं,) हमारे लिये दसों दिशाओंमें तुम वर्षाकी बौछार रोकनेवाली टटिया (विपत्तिके निवारक) बन गये। तुम सेवक हो और तुम्हारे बलसे ही हम स्वामी हैं; तुम्हें छोड़कर हमारा और कोई (सहायक) नहीं। (तुम्हारी रक्षामें) हमारा सारा खटका मिट गया है—निधड़क (निश्चिन्त) होकर सोते हैं।’ इतना सुनते ही हनुमान् जी ने दौड़कर (प्रभुके) चरणोंपर मस्तक रख दिया और मन-ही-मन प्रफुल्लित हो गये।(प्रभु कहते ही जा रहे थे—) ‘हनुमान्! तुम्हारे कारण ही पिताकी मृत्युका सारा दुःख हमें भूल गया है।’ (अर्थात् तुम तो पिताके समान हमारे पालक हो। यह सुनकर हनुमान् जी बोले—) ‘प्रभो! मैंने जो कुछ भी किया, आपके प्रतापसे ही किया; (नहीं तो) मैं क्या करनेयोग्य हूँ। आप त्रिभुवनके स्वामी होकर भी सेवकको इतनी बड़ाई देते हैं। (यह आपका उदार स्वभाव ही है।)’
श्रीराम-वचन
विषय (हिन्दी)
राग टोड़ी
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७८)
दूसरें कर बान न लैहौं।
सुनि सुग्रीव! प्रतिज्ञा मेरी, एकहिं बान असुर सब हैहौं॥
सिव-पूजा जिहिं भाँति करी है, सोइ पद्धति परतच्छ दिखैहौं।
दैत्य प्रहारि पाप-फल-प्रेरित, सिर-माला सिव-सीस चढ़ैहौं॥
मनौ तूल-गन परत अगिनि-मुख, जारि जड़नि जम-पंथ पठैहौं।
करिहौं नाहिं बिलंब कछू अब, उठि रावन सन्मुख ह्वै धैहौं॥
इमि दमि दुष्ट देव-द्विज मोचन, लंक बिभीषन, तुम कौं दैहौं।
लछिमन, सिया समैत ‘सूर’ कपि, सब सुख सहित अजोध्या जैहौं॥
मूल
(१७८)
दूसरें कर बान न लैहौं।
सुनि सुग्रीव! प्रतिज्ञा मेरी, एकहिं बान असुर सब हैहौं॥
सिव-पूजा जिहिं भाँति करी है, सोइ पद्धति परतच्छ दिखैहौं।
दैत्य प्रहारि पाप-फल-प्रेरित, सिर-माला सिव-सीस चढ़ैहौं॥
मनौ तूल-गन परत अगिनि-मुख, जारि जड़नि जम-पंथ पठैहौं।
करिहौं नाहिं बिलंब कछू अब, उठि रावन सन्मुख ह्वै धैहौं॥
इमि दमि दुष्ट देव-द्विज मोचन, लंक बिभीषन, तुम कौं दैहौं।
लछिमन, सिया समैत ‘सूर’ कपि, सब सुख सहित अजोध्या जैहौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीरघुनाथजीने कहा—) ‘सुग्रीव! मेरी प्रतिज्ञा सुनो! मैं दुबारा हाथमें बाण नहीं लूँगा, एक ही बाणसे समस्त राक्षसोंका नाश कर दूँगा। जिस प्रकार (रावणने) शंकरजीकी पूजा (मस्तक चढ़ाकर) की है, वह पद्धति आज मैं प्रत्यक्ष कर दूँगा, पापके फलसे (मरनेके लिये) प्रेरित सभी राक्षसोंको मारकर उनके मस्तकोंकी माला शंकरजीको चढ़ाऊँगा। जैसे रूईकी ढेरियाँ अग्निकी लपटमें पड़ रही हों, इस प्रकार इन मूर्खों (राक्षसों)-को भस्म करके यमलोक भेज दूँगा। अब मैं थोड़ी भी देर नहीं करूँगा, उठकर रावणके सामने दौड़ पड़ूँगा और इस प्रकार देवता तथा ब्राह्मणोंकी त्रास मिटानेके लिये (ही) दुष्टोंका दमन करके लंकाका राज्य विभीषणजी! आपको दे दूँगा। इस प्रकार लक्ष्मण और जानकी एवं समस्त कपिदलके साथ सुखपूर्वक मैं अयोध्या लौटूँगा।’
राम-रावण-युद्ध
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१७९)
आजु अति कोपे हैं रन राम।
ब्रह्मादिक आरूढ़ बिमाननि, देखत हैं संग्राम॥
घन-तन दिब्य कवच सजि करि, अरु कर धारॺौ सारंग।
सुचि कर सकल बान सूधे करि, कटि-तट कस्यौ निषंग॥
सुरपुर तैं आयौ रथ सजि कै, रघुपति भए सवार।
काँपी भूमि, कहा सब ह्वैहै, सुमिरत नाम मुरारि॥
छोभित सिंधु, सेष-सिर कंपित, पवन भयौ गति पंग।
इंद्र हँस्यौ, हर हिय बिलखान्यौ, जानि बचन कौ भंग॥
धर-अंबर, दिसि-बिदिसि, बढ़े अति सायक किरन समान।
मानौ महाप्रलय के कारन, उदित उभय षट भान॥
टूटत धुजा-पताक-छत्र-रथ चाप-चक्र-सिरत्रान।
जूझत सुभट, जरत ज्यौं दव द्रुम, बिनु साखा बिनु पान॥
स्रोनित-छिंछ उछरि आकासहिं, गज-बाजिनि-सिर लागि।
मानौ निकरि तरनि-रंध्रनि तैं, उपजी है अति आगि॥
परि कबंध भहराइ रथनि तैं, उठत मनौ झर जागि।
फिरत सृगाल सज्यौ सव काटत, चलत सो सिर लै भागि॥
रघुपति-रिस पावक प्रचंड अति, सीता-स्वास समीर।
रावन-कुल अरु कुंभकरन बन सकल सुभट रनधीर॥
भए भस्म, कछु बार न लागी, ज्यौं ज्वाला पट-चीर।
‘सूरदास’ प्रभु आपु-बाहुबल कियौ निमिष मैं कीर॥
मूल
(१७९)
आजु अति कोपे हैं रन राम।
ब्रह्मादिक आरूढ़ बिमाननि, देखत हैं संग्राम॥
घन-तन दिब्य कवच सजि करि, अरु कर धारॺौ सारंग।
सुचि कर सकल बान सूधे करि, कटि-तट कस्यौ निषंग॥
सुरपुर तैं आयौ रथ सजि कै, रघुपति भए सवार।
काँपी भूमि, कहा सब ह्वैहै, सुमिरत नाम मुरारि॥
छोभित सिंधु, सेष-सिर कंपित, पवन भयौ गति पंग।
इंद्र हँस्यौ, हर हिय बिलखान्यौ, जानि बचन कौ भंग॥
धर-अंबर, दिसि-बिदिसि, बढ़े अति सायक किरन समान।
मानौ महाप्रलय के कारन, उदित उभय षट भान॥
टूटत धुजा-पताक-छत्र-रथ चाप-चक्र-सिरत्रान।
जूझत सुभट, जरत ज्यौं दव द्रुम, बिनु साखा बिनु पान॥
स्रोनित-छिंछ उछरि आकासहिं, गज-बाजिनि-सिर लागि।
मानौ निकरि तरनि-रंध्रनि तैं, उपजी है अति आगि॥
परि कबंध भहराइ रथनि तैं, उठत मनौ झर जागि।
फिरत सृगाल सज्यौ सव काटत, चलत सो सिर लै भागि॥
रघुपति-रिस पावक प्रचंड अति, सीता-स्वास समीर।
रावन-कुल अरु कुंभकरन बन सकल सुभट रनधीर॥
भए भस्म, कछु बार न लागी, ज्यौं ज्वाला पट-चीर।
‘सूरदास’ प्रभु आपु-बाहुबल कियौ निमिष मैं कीर॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज श्रीराम संग्राममें अत्यन्त क्रुद्ध हो गये हैं। ब्रह्मादि देवता विमानोंपर चढ़कर युद्ध देख रहे हैं। प्रभुने मेघके समान श्यामवर्ण शरीरपर दिव्य कवच सजाया और (बायें) हाथमें धनुष लिया, पवित्र (दहिने) हाथसे बाणोंको सीधा करके तरकसको कमरमें बाँध लिया। देवपुरीसे (अस्त्र-शस्त्रोंसे) सुसज्जित रथ आया, उसपर श्रीरघुनाथजी सवार हुए (प्रभुके चलनेसे) पृथ्वी काँपने लगी; ‘अब क्या होगा?’ (भयसे यह सोचती) श्रीहरिके नामका स्मरण करने लगी। समुद्र क्षुभित हो उठा, शेषनागका सिर काँपने लगा और वायुकी गति भी रुद्ध हो गयी। (अपने शत्रु रावणकी मृत्यु निकट जानकर प्रसन्नतासे) देवराज इन्द्र हँस पड़े तथा अपने वचन (अमर होनेके वरदान)-का भंग होना निश्चित जानकर शंकरजीके हृदयमें दुःख हुआ। पृथ्वी और आकाशमें, दिशा-विदिशाओंमें किरणोंके समान असंख्य बाण फैल गये, मानो महाप्रलय करनेके लिये बारह सूर्य (एक साथ) उदित हो गये हों। ध्वजाएँ एवं पताकाएँ, छत्र, रथ, धनुष, पहिये तथा शिरस्त्राण (मस्तकके रक्षक लौह कवच) टूटने लगे; शूर इस प्रकार युद्धमें मरने लगे जैसे दावाग्नि लगनेपर (वनके) वृक्ष बिना शाखा और पत्तेके होकर भस्म हो जाते हैं। रक्तकी फुहारें आकाशमें उछलकर हाथियों और घोड़ोंके मस्तकपर इस प्रकार लगती (गिरती) हैं, मानो सूर्यके छिद्रोंसे निकलकर भयंकर अग्नि चारों ओर उत्पन्न हो गयी (फैल गयी) है। रथोंसे लड़खड़ाकर मस्तकहीन धड़ गिरते हैं और फिर इस प्रकार उठ खड़े होते हैं मानो अग्निकी लपट भभक उठी हो। शृगाल (सियार) घूम रहे हैं, वे सजा हुआ (सुसज्जित वीरोंके) शव काटते हैं तथा उनके सिरको लेकर भाग जाते हैं। श्रीरघुनाथजीके क्रोधरूपी प्रचण्ड अग्निमें, जो श्रीजानकीजीके शोकजन्य निःश्वासरूप वायुसे बढ़ गया था, रावण, कुम्भकर्ण तथा उनका रणधीर शूर राक्षसकुलरूपी वन भस्म हो गया; उसे भस्म होनेमें (उसी प्रकार) कुछ भी देर नहीं लगी, जैसे ज्वालामें वस्त्रोंके चिथड़े (तुरंत) जल जाते हैं। सूरदासजी कहते हैं कि प्रभुने एक क्षणमें अपने बाहुबलसे शत्रुसमूहको छिन्न-भिन्न कर दिया।
विषय (हिन्दी)
राग कान्हरौ
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८०)
आजु अमर-मुनि-संतनि चाउ।
नृपति-मुकुट-मनि राम पलान्यौ हतन कनकपुर-राउ॥
दिसि-दिसि दल उड़ि रही रेन, घनघोर निसाननि घाउ।
टूटत धुजा-पताक-छत्र-रथ स्वरग उड़ि रह्यौ बाउ॥
अतिभट हैं कपि-भालु-निसाचर, भुवन चलत सु जुझाउ।
सूरदास संतत छबि बरनत, पटतर कौं नहिं ठाँउ॥
मूल
(१८०)
आजु अमर-मुनि-संतनि चाउ।
नृपति-मुकुट-मनि राम पलान्यौ हतन कनकपुर-राउ॥
दिसि-दिसि दल उड़ि रही रेन, घनघोर निसाननि घाउ।
टूटत धुजा-पताक-छत्र-रथ स्वरग उड़ि रह्यौ बाउ॥
अतिभट हैं कपि-भालु-निसाचर, भुवन चलत सु जुझाउ।
सूरदास संतत छबि बरनत, पटतर कौं नहिं ठाँउ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज देवताओं, मुनियों तथा सभी सत्पुरुषोंको बड़ी प्रसन्नता है। भूपतिशिरोमणि श्रीरघुनाथजी स्वर्णपुरी लंकाके राजा रावणको मारनेके लिये चढ़ाई कर चुके हैं। सम्पूर्ण दिशाओंमें धूलिका समूह उड़ रहा है और नगारोंपर जोरकी चोट पड़ रही है। ध्वजाएँ, पताकाएँ, छत्र और रथ टूट रहे हैं, (उड़ती धूलिके कारण) वायु स्वर्गतक पहुँच रहा है। वानर, भालु और राक्षस भी अत्यन्त शूर हैं—पृथ्वीपर उनका बड़ा विकट युद्ध चल रहा है। सूरदासजी इस युद्धकी शोभाका बराबर वर्णन करते हैं; किंतु इसकी तुलनाको कहीं स्थान नहीं है। (यह तो अतुलनीय संग्राम है।)
विषय (हिन्दी)
राग नट
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८१)
देखियत जहाँ-तहाँ रघुबीर।
धावत धरनि बिचित्र बेग कर धनुष धरें धर धीर॥
मंडल करत अनेक भाँति भ्रम ज्यौं सत चक्र समीर।
फटत बिउह चतुरंग बिहंग-बिधि, सहि न सकत भट भीर॥
सर सँग उड़त पताक-छत्र-धुज, मनौ पत्र बन जीर।
परत कंपि मनु मूल-भंग ह्वै द्रुम दमि असुर-सरीर॥
बिन रथ बाजि, महावत बिन गज, सकल सघन तन तीर।
डोलत डरत हरात बात बस, ज्यौं रज-कंटक-चीर॥
कहुँ कहुँ उठत कबंध, कहूँ ते चलत पलाय अधीर।
सोभित महा प्रचंड पवन बस, सारद घन बिनु नीर॥
सूने सदन किए सबहीं, जब हाकत हरये बीर।
मनहुँ अधिक अकुलाय लटे तप हारी साधत सीर॥
राजत रुचिर रुहिर कहुँ धसि, कहुँ सिर मुकता मनि-हीर।
मानौ बीज बिखेरि ‘सूर’ निसि चले करखि करि कीर॥
मूल
(१८१)
देखियत जहाँ-तहाँ रघुबीर।
धावत धरनि बिचित्र बेग कर धनुष धरें धर धीर॥
मंडल करत अनेक भाँति भ्रम ज्यौं सत चक्र समीर।
फटत बिउह चतुरंग बिहंग-बिधि, सहि न सकत भट भीर॥
सर सँग उड़त पताक-छत्र-धुज, मनौ पत्र बन जीर।
परत कंपि मनु मूल-भंग ह्वै द्रुम दमि असुर-सरीर॥
बिन रथ बाजि, महावत बिन गज, सकल सघन तन तीर।
डोलत डरत हरात बात बस, ज्यौं रज-कंटक-चीर॥
कहुँ कहुँ उठत कबंध, कहूँ ते चलत पलाय अधीर।
सोभित महा प्रचंड पवन बस, सारद घन बिनु नीर॥
सूने सदन किए सबहीं, जब हाकत हरये बीर।
मनहुँ अधिक अकुलाय लटे तप हारी साधत सीर॥
राजत रुचिर रुहिर कहुँ धसि, कहुँ सिर मुकता मनि-हीर।
मानौ बीज बिखेरि ‘सूर’ निसि चले करखि करि कीर॥
अनुवाद (हिन्दी)
(युद्धमें स्फूर्तिके कारण) जहाँ-तहाँ श्रीरघुवीर दिखलायी पड़ते हैं। वे धैर्यपूर्वक हाथमें धनुष लिये पृथ्वीपर अद्भुत वेगसे दौड़ रहे हैं। अनेक प्रकारके पैंतरे इस प्रकार लेते हैं कि मानो पवनके सैकड़ों बवंडर घूम रहे हों। (राक्षसोंकी) चतुरंगिणी सेना (पैदल, घुड़सवार, गज और रथ-सेना)-के व्यूह इस प्रकार छिन्न-भिन्न होते हैं, जैसे पक्षियोंके दल भागकर बिखर जाते हैं; वे सभी शूर (श्रीरामकी) मारको सह नहीं पाते। बाणोंके साथ (कटकर) झंडे, छत्र और पताका इस प्रकार उड़ती हैं मानो वनके सूखे पत्ते उड़ रहे हों। आहत असुरोंके शरीर इस प्रकार लड़खड़ाते हुए गिरते हैं, जैसे जड़से टूटे हुए वृक्ष काँपते हुए गिर रहे हों। घोड़े बिना रथके और हाथी बिना महावतके हो गये हैं, सभीके शरीर बाणोंसे भरपूर बिंधे हुए हैं। भयभीत होकर वे इधर-से-उधर इस प्रकार हाहाकार करते भाग रहे हैं, जैसे आँधीमें पड़कर धूलि, काँटे और चिथड़े उड़ते हैं। कहीं-कहीं मस्तकहीन धड़ उठ खड़े होते हैं और कहीं वे भयसे धैर्यहीन होकर भाग खड़े होते हैं; वे ऐसे लगते हैं मानो अत्यन्त प्रचण्ड आँधीमें विवश शरद्-ऋतुके बिना जलके बादल उड़ रहे हों। वीरश्रेष्ठ (श्रीरघुनाथजी)-ने जब ललकारकर भगाना प्रारम्भ किया, तब सभी (राक्षसों)-ने भवन खाली कर दिये। (लंका ऐसी हो गयी) मानो अत्यन्त व्याकुल होकर शिथिल हुए तपस्वी अब शीतलताकी साधना करते शान्त पड़े हों। (तात्पर्य यह कि राक्षस सभी मारे गये।) सूरदासजी कहते हैं कि (युद्धभूमिमें) कहीं रक्तमें गड़े हुए तथा कहीं मस्तकोंमें लगे मोती, मणि और हीरे ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो (किसान) रात्रिमें खेत जोतकर, लकीरें डालकर और बीज बोकर (बिखेरकर) चला गया है। (रात्रिमें बीज बोनेके कारण कहीं-कहीं वे बीज ऊपर बिखरे दीख रहे हैं।)
रावण-उद्धार
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८२)
रघुपति अपनौ प्रन प्रतिपारॺौ।
तोरॺौ कोपि प्रबल गढ़, रावन टूक-टूक करि डारॺौ॥
कहुँ भुज, कहुँ धर, कहुँ सिर लोटत, मानौ मद मतवारौ।
भभकत, तरफत स्रोनित मैं तन, नाहीं परत निहारौ॥
छोरे और सकल सुख-सागर, बाँधि उदधि जल खारौ।
सुर-नर-मुनि सब सुजस बखानत, दुष्ट दसानन मारौ॥
डरपत बरुन-कुबेर-इंद्र-जम, महा सुभट पन धारौ।
रह्यौ मांस कौ पिंड, प्रान लै गयौ बान अनियारौ!
नव ग्रह परे रहैं पाटी तर, कूपहिं काल उसारौ।
सो रावन रघुनाथ छिनक मैं कियौ गीध कौ चारौ!
सिर सँभारि लै गयौ उमापति, रह्यौ रुधिर कौ गारौ।
दियौ बिभीषन राज ‘सूर’ प्रभु कियौ सुरनि निस्तारौ॥
मूल
(१८२)
रघुपति अपनौ प्रन प्रतिपारॺौ।
तोरॺौ कोपि प्रबल गढ़, रावन टूक-टूक करि डारॺौ॥
कहुँ भुज, कहुँ धर, कहुँ सिर लोटत, मानौ मद मतवारौ।
भभकत, तरफत स्रोनित मैं तन, नाहीं परत निहारौ॥
छोरे और सकल सुख-सागर, बाँधि उदधि जल खारौ।
सुर-नर-मुनि सब सुजस बखानत, दुष्ट दसानन मारौ॥
डरपत बरुन-कुबेर-इंद्र-जम, महा सुभट पन धारौ।
रह्यौ मांस कौ पिंड, प्रान लै गयौ बान अनियारौ!
नव ग्रह परे रहैं पाटी तर, कूपहिं काल उसारौ।
सो रावन रघुनाथ छिनक मैं कियौ गीध कौ चारौ!
सिर सँभारि लै गयौ उमापति, रह्यौ रुधिर कौ गारौ।
दियौ बिभीषन राज ‘सूर’ प्रभु कियौ सुरनि निस्तारौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दी। क्रोध करके लंकाके प्रबल दुर्गको उन्होंने तोड़ दिया और रावणके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उसकी भुजाएँ कहीं, धड़ कहीं और मस्तक कहीं इस प्रकार लुढ़क रहे हैं, मानो शराब पीकर मतवाला हुआ कोई लुढ़क रहा हो। रक्तमें लथपथ उसका शरीर कभी फड़कता है, कभी तड़फड़ाता है, उसे देखा नहीं जाता। देवता, मनुष्य और मुनिगण प्रभुके सुयशका वर्णन कर रहे हैं कि खारे समुद्रको बाँधकर प्रभुने दुष्ट रावणको मार दिया, इस प्रकार अन्य सभी सुखोंके समुद्रोंको उन्मुक्त कर दिया (सबको सुखी कर दिया)। जिससे वरुण, कुबेर, इन्द्र और यमराजतक डरते रहते थे, जिसने महान् शूरमाकी उपाधि धारण कर रखी थी, वह (रावण) केवल मांसका लोथड़ा रह गया, तीक्ष्ण बाण उसके प्राण ले गये। नवग्रहोंको जो पलंगके नीचे दबाये रखता था, कुएँमें जिसने कालको बंदी कर रखा था, श्रीरघुनाथने उस रावणको एक क्षणमें गीधोंका आहार बना दिया। शंकरजी उसके मस्तकोंको सँभालकर (मुण्डमाला बनानेके लिये) ले गये, केवल रक्तका कीचड़ (लंकामें) बच रहा। सूरदासजी कहते हैं कि प्रभुने (लंकाका) राज्य विभीषणको देकर देवताओंका उद्धार कर दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८३)
रावन अपनौ कृत फल पायौ।
महाराज रघुपति सौं रूठौ, कीयो जौ मन भायौ॥
कत लै जाइ जगत की जननी, हठ करि काल बुलायौ।
राजनीति दसरथ-सुत कीनी, अंगद दूत पठायौ॥
करी अनीति, हात सो लाग्यौ, बिधना जोग बनायौ।
भगत-प्रतग्या राखी यातैं चाहत जुग जगु गायौ॥
क्रोधे राम तबहिं आरिस करि, कर सारंग चढ़ायौ।
कुल समेत अब ‘सूरदास’ प्रभु रिपु कौ नास करायौ॥
मूल
(१८३)
रावन अपनौ कृत फल पायौ।
महाराज रघुपति सौं रूठौ, कीयो जौ मन भायौ॥
कत लै जाइ जगत की जननी, हठ करि काल बुलायौ।
राजनीति दसरथ-सुत कीनी, अंगद दूत पठायौ॥
करी अनीति, हात सो लाग्यौ, बिधना जोग बनायौ।
भगत-प्रतग्या राखी यातैं चाहत जुग जगु गायौ॥
क्रोधे राम तबहिं आरिस करि, कर सारंग चढ़ायौ।
कुल समेत अब ‘सूरदास’ प्रभु रिपु कौ नास करायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणने अपने कर्मका फल पाया। महाराज श्रीरघुनाथजीसे रूठकर (विमुख होकर) वह (संसारमें) मनमानी करता रहा, किंतु जगज्जननी (श्रीजानकी)-का हरण करके उसने हठपूर्वक मृत्युको निमन्त्रण क्यों दिया? महाराज दशरथके कुमार श्रीरामने तो राजनीतिका पालन किया कि उसके पास (संधिके लिये) दूत बनाकर अंगदको भेजा, किंतु (रावणने) जैसी अनीति की थी, उसके हाथ वैसा ही (फल भी) लगा, भाग्यने ही सब संयोग एकत्र कर दिये। इसलिये (श्रीरघुनाथजीने) अपने भक्त (अंगद)-की प्रतिज्ञाकी रक्षा की, वे चाहते ही थे कि संसार युग-युगतक इस चरितका गान करे। अमर्षपूर्वक तभी (अंगदके विफल लौट आनेपर ही) श्रीरामने क्रोध किया और हाथोंमें चढ़ा हुआ धनुष लिया। सूरदासजी कहते हैं कि उसी समय प्रभुने कुलसहित शत्रुके नाशका बानक बना दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८४)
करुना करति मँदोदरि रानी।
चौदह सहस सुंदरी उमहीं, उठै न कंत! महा अभिमानी॥
बार-बार बरज्यौ, नहिं मान्यौ, जनक-सुता तैं कत घर आनी।
ये जगदीस ईस कमलापति, सीता तिय करि तैं कत जानी॥
लीन्हे गोद बिभीषन रोवत, कुल-कलंक ऐसी मति ठानी।
चोरी करी, राजहूँ खोयौ, अल्प मृत्यु तब आय तुलानी॥
कुंभकरन समुझाइ रहे पचि, दै सीता, मिलि सारँगपानी।
‘सूर’ सबनि कौ कह्यौ न मान्यौ, त्यौं खोई अपनी रजधानी॥
मूल
(१८४)
करुना करति मँदोदरि रानी।
चौदह सहस सुंदरी उमहीं, उठै न कंत! महा अभिमानी॥
बार-बार बरज्यौ, नहिं मान्यौ, जनक-सुता तैं कत घर आनी।
ये जगदीस ईस कमलापति, सीता तिय करि तैं कत जानी॥
लीन्हे गोद बिभीषन रोवत, कुल-कलंक ऐसी मति ठानी।
चोरी करी, राजहूँ खोयौ, अल्प मृत्यु तब आय तुलानी॥
कुंभकरन समुझाइ रहे पचि, दै सीता, मिलि सारँगपानी।
‘सूर’ सबनि कौ कह्यौ न मान्यौ, त्यौं खोई अपनी रजधानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
रानी मन्दोदरी विलाप कर रही हैं। चौदह सहस्र सुन्दरियाँ (रावणकी पत्नियाँ) एकत्र हो गयी हैं। (रानी मन्दोदरी कहती हैं—) ‘महाभिमानी मेरे नाथ! अब उठते क्यों नहीं हो? मैंने बार-बार रोका, पर तुम माने नहीं। भला, श्रीजनकनन्दिनीको तुम घर क्यों ले आये? ये (श्रीराम) तो साक्षात् लक्ष्मीकान्त जगदीश्वर हैं; फिर तुमने श्रीसीताको साधारण नारी कैसे समझ लिया?’ विभीषण (रावणकी देह) गोदमें लिये रो रहे हैं—‘तुमने ऐसी दुर्बुद्धि अपनायी कि जो कुलके लिये कलंकरूप बन गयी। चोरी की, राज्य भी खोया, (अधिक क्या कहा जाय, तुम्हारी) अकालमृत्यु ही आकर (मारनेके लिये) तुल गयी थी। अन्यथा कुम्भकर्ण भी यह समझा-समझाकर हार गये कि श्रीजानकीजीको देकर श्रीरामसे संधि कर लो।’ सूरदासजी कहते हैं कि आपने किसीका कहना नहीं माना, इसीसे अपनी राजधानी खो बैठे।
सीता-मिलन
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८५)
लछिमन सीता देखी जाइ।
अति कृस, दीन, छीन-तन प्रभु बिनु, नैननि नीर बहाइ॥
जामवंत-सुग्रीव-बिभीषन करी दंडवत आइ।
आभूषन बहुमोल पटंबर, पहिरौ मातु बनाइ॥
बिनु रघुनाथ मोहि सब फीके, आज्ञा मेटि न जाइ।
पुहुप-बिमान बैठि बैदेही, त्रिजटा सब पहिराइ॥
देखत दरस राम मुख मोरॺौ, सिया परी मुरझाइ।
‘सूरदास’ स्वामी तिहु पुर के, जग-उपहास डराइ॥
मूल
(१८५)
लछिमन सीता देखी जाइ।
अति कृस, दीन, छीन-तन प्रभु बिनु, नैननि नीर बहाइ॥
जामवंत-सुग्रीव-बिभीषन करी दंडवत आइ।
आभूषन बहुमोल पटंबर, पहिरौ मातु बनाइ॥
बिनु रघुनाथ मोहि सब फीके, आज्ञा मेटि न जाइ।
पुहुप-बिमान बैठि बैदेही, त्रिजटा सब पहिराइ॥
देखत दरस राम मुख मोरॺौ, सिया परी मुरझाइ।
‘सूरदास’ स्वामी तिहु पुर के, जग-उपहास डराइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजीने जाकर (अशोक-वाटिकामें) श्रीजानकीजीका दर्शन किया। वे अत्यन्त दुर्बल, दीन तथा क्षीणशरीर हो रही थीं; प्रभुके वियोगमें नेत्रोंसे अश्रुधारा बहा रही थीं। (उसी समय) जाम्बवान् , सुग्रीव और विभीषणने आकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। (और कहा—) ‘माता! ये अत्यन्त मूल्यवान् आभूषण और पीताम्बर हैं, इन्हें भली प्रकार आप धारण कर लें।’ (श्रीजानकीजीने कहा—) ‘श्रीरघुनाथजीके बिना मुझे तो सब फीके (रसहीन) लगते हैं; किंतु उनकी आज्ञा टाली नहीं जा सकती।’ त्रिजटाने सब (वस्त्र-आभूषण) उन्हें पहना दिये और श्रीवैदेही पुष्पक-विमानमें जा बैठीं; किंतु (पास आनेपर) उन्हें देखते ही श्रीरामने दूसरी ओर मुख फेर लिया, इससे श्रीजानकीजी मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। सूरदासजी कहते हैं कि तीनों लोकोंके स्वामी होनेपर भी प्रभु जगत् के उपहाससे (संसारके लोग हँसी उड़ायेंगे इससे) डर रहे हैं।
अग्नि-परीक्षा
विषय (हिन्दी)
राग सोरठ
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८६)
लछिमन! रचौ हुतासन भाई।
यह सुनि हनूमान दुख पायौ, मोपै लख्यौ न जाई॥
आसन एक हुतासन बैठी, ज्यौं कुंदन अरुनाई।
जैसे रबि इक पल घन भीतर बिनु मारुत दुरि जाई॥
लै उछंग उपसंग हुतासन, ‘‘निहकलंक रघुराई!’’
लई बिमान चढ़ाइ जानकी, कोटि मदन छबि छाई॥
दसरथ कह्यौ, देवहू भाष्यौ, ब्यौम बिमान टिकाई।
सिया राम लै चले अवध कौं, ‘सूरदास’ बलि जाई॥
मूल
(१८६)
लछिमन! रचौ हुतासन भाई।
यह सुनि हनूमान दुख पायौ, मोपै लख्यौ न जाई॥
आसन एक हुतासन बैठी, ज्यौं कुंदन अरुनाई।
जैसे रबि इक पल घन भीतर बिनु मारुत दुरि जाई॥
लै उछंग उपसंग हुतासन, ‘‘निहकलंक रघुराई!’’
लई बिमान चढ़ाइ जानकी, कोटि मदन छबि छाई॥
दसरथ कह्यौ, देवहू भाष्यौ, ब्यौम बिमान टिकाई।
सिया राम लै चले अवध कौं, ‘सूरदास’ बलि जाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(तब श्रीजानकीजीने कहा—) ‘भैया लक्ष्मण! तुम (मेरे लिये) अग्नि प्रकट करो (चिता बना दो!)’ यह सुनकर श्रीहनुमान् जी को बड़ा दुःख हुआ। (वे बोले—) ‘मुझसे तो यह देखा नहीं जायगा।’ (लक्ष्मणजीने चिता बनाकर अग्नि प्रकट कर दी, तब श्रीजानकीजी) स्थिर आसन लगाकर अग्निमें ऐसे बैठ गयीं, मानो अरुणाभा(अंगारों)-की ढेरीमें स्वर्ण रखा हो। एक क्षणके लिये ऐसा लगा जैसे वायुरहित बादलोंमें सूर्य छिप गया हो। (दूसरे ही क्षण) साक्षात् अग्निदेव (श्रीजानकीको) गोदमें उठाये (प्रकट होकर) पास आये (और बोले—) ‘रघुनाथजी! ये निष्कलंक हैं।’ (उसी समय) आकाशमें अपने विमानोंको स्थिर करके देवताओं तथा महाराज दशरथने भी यही बात कही। इससे (श्रीरामने) श्रीजानकीजीको (अपने पास) पुष्पक-विमानपर बैठा लिया, (श्रीजानकीके साथ) उनकी शोभा करोड़ों कामदेवके समान हो गयी। इस प्रकार श्रीराम श्रीसीताजीको लेकर अयोध्याको चल पड़े, इस शोभापर सूरदास न्योछावर है।
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८७)
सुरपतिहि बोलि रघुबीर बोले।
अमृत की बृष्टि रन-खेत ऊपर करौ,
सुनत तिन अमिय-भंडार खोले॥
उठे कपि-भालु ततकाल जै-जै करत,
असुर भए मुक्त, रघुबर निहारे।
‘सूर’ प्रभु अगम महिमा न कछु कहि परति,
सिद्ध-गंधर्ब जै-जै उचारे॥
मूल
(१८७)
सुरपतिहि बोलि रघुबीर बोले।
अमृत की बृष्टि रन-खेत ऊपर करौ,
सुनत तिन अमिय-भंडार खोले॥
उठे कपि-भालु ततकाल जै-जै करत,
असुर भए मुक्त, रघुबर निहारे।
‘सूर’ प्रभु अगम महिमा न कछु कहि परति,
सिद्ध-गंधर्ब जै-जै उचारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीने देवराज इन्द्रको बुलाकर कहा—‘युद्धभूमिके ऊपर अमृतकी वर्षा कर दो!’ यह सुनते ही उन्होंने अमृतका भंडार खोल दिया। श्रीरघुनाथजीने देखा (युद्धमें मारे गये) वानर और भालु ‘जय-जय’ करते हुए तत्काल उठ खड़े हुए; किंतु राक्षस मुक्त हो गये थे (इससे वे नहीं उठे)। सूरदासजी कहते हैं कि प्रभुकी महिमा अगम्य है, उसका कुछ भी वर्णन नहीं किया जा सकता। सिद्ध-गन्धर्वादि सब जयध्वनि कर रहे हैं।
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८८)
रघुपति रन जीति आए।
इहि बिधि बेद बिमल जस गाए॥
प्रथम बान पौसान प्रगटि प्रभु तकि ताड़िका नसाई।
प्रान सुध बुध सूपनखा की नाक निपात सिखाई॥
खर दूषन त्रिसिरा मृग कपि हति पंच कवल करवाई।
जलनिधि जलमिव सींचि सुचित ह्वै अग्रिम रुचि उपजाई॥
जगु जानी रघुबीर धीर की असि ज्यौनार बनाई।
आदि मधु रहित छत्र निद्धते सिर सिव लडू चखाए॥
गज गुंझा रथ-चक्र कटक बर है घेवर समुदाए।
फेनी फरी पूप पै दागन सुभा स्वाद सजि लाए॥
चतुरंगनि चहुँ भाँति सुभोजन अति आदर सूपाए।
मनहु प्रिये पकवान पहली सकल सिलीमुख पाए॥
कटुक क्रोध मकराच्छ-अकंपन तिक्त प्रहस्त पठाए।
कुंभकरन मिघनाद महोदर अमल धवल धसि धाए॥
किल कषाय अतिकाय अतिरथनि बहु ब्यंजन मन भाए।
बिसरिक तिच्छ अवलोकि अपूरब निपुन सेष पुरसाए॥
खल षटरस निकर कौसल पति सायक सकल जिंवाए।
भ्राजित भात भूमि मुकताहल रिपु हति हार बिथारे॥
बरिल बरि संधान अनेक मानि भूषन भरि उर फारे।
मीन-बरन कर खंड षडौछा कटि करवाल कटारे॥
माँडे पापर पुरी पताका कवच करि डारे।
देखत उठत कबंध मनौ घृत बस सत फिरत उघारे॥
जोगिनि भूत बिताल भयानक करत कुलाहल भारी।
समिटे बृक गोमाय गिद्ध गन काक कंक ज्यौं नारी॥
रही न एकौ साध स्वाद की खाटी-मीठी खारी।
सीतानाथ सुजान-सिरोमनि अंतर-प्रीति बिचारी॥
रावन-रुहिर रसाल पछावरि परुसत सब सुखकारी।
आए अँचवन देन देवगन अमृत-कलस कर झारी॥
जाहि सीचि सोई उठे सुद्ध त्यागीहिं सोई न्यारी।
रामचंद्र-जस हर्षवंत ह्वै सादर करि कै बीरी॥
भाले भघि भरोसा रघुपति लंका कंचन थारी।
दई छाड़ि जिय जानि ‘सूर’ प्रभु बिभीषन बारी॥
मूल
(१८८)
रघुपति रन जीति आए।
इहि बिधि बेद बिमल जस गाए॥
प्रथम बान पौसान प्रगटि प्रभु तकि ताड़िका नसाई।
प्रान सुध बुध सूपनखा की नाक निपात सिखाई॥
खर दूषन त्रिसिरा मृग कपि हति पंच कवल करवाई।
जलनिधि जलमिव सींचि सुचित ह्वै अग्रिम रुचि उपजाई॥
जगु जानी रघुबीर धीर की असि ज्यौनार बनाई।
आदि मधु रहित छत्र निद्धते सिर सिव लडू चखाए॥
गज गुंझा रथ-चक्र कटक बर है घेवर समुदाए।
फेनी फरी पूप पै दागन सुभा स्वाद सजि लाए॥
चतुरंगनि चहुँ भाँति सुभोजन अति आदर सूपाए।
मनहु प्रिये पकवान पहली सकल सिलीमुख पाए॥
कटुक क्रोध मकराच्छ-अकंपन तिक्त प्रहस्त पठाए।
कुंभकरन मिघनाद महोदर अमल धवल धसि धाए॥
किल कषाय अतिकाय अतिरथनि बहु ब्यंजन मन भाए।
बिसरिक तिच्छ अवलोकि अपूरब निपुन सेष पुरसाए॥
खल षटरस निकर कौसल पति सायक सकल जिंवाए।
भ्राजित भात भूमि मुकताहल रिपु हति हार बिथारे॥
बरिल बरि संधान अनेक मानि भूषन भरि उर फारे।
मीन-बरन कर खंड षडौछा कटि करवाल कटारे॥
माँडे पापर पुरी पताका कवच करि डारे।
देखत उठत कबंध मनौ घृत बस सत फिरत उघारे॥
जोगिनि भूत बिताल भयानक करत कुलाहल भारी।
समिटे बृक गोमाय गिद्ध गन काक कंक ज्यौं नारी॥
रही न एकौ साध स्वाद की खाटी-मीठी खारी।
सीतानाथ सुजान-सिरोमनि अंतर-प्रीति बिचारी॥
रावन-रुहिर रसाल पछावरि परुसत सब सुखकारी।
आए अँचवन देन देवगन अमृत-कलस कर झारी॥
जाहि सीचि सोई उठे सुद्ध त्यागीहिं सोई न्यारी।
रामचंद्र-जस हर्षवंत ह्वै सादर करि कै बीरी॥
भाले भघि भरोसा रघुपति लंका कंचन थारी।
दई छाड़ि जिय जानि ‘सूर’ प्रभु बिभीषन बारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथ युद्ध-विजय करके आ गये। वेदोंने उनके निर्मल यशका इस प्रकार वर्णन किया है—(मानो श्रीरामका पूरा पराक्रम एक बृहत् भोज हो)। पहले प्रभुने अग्निबाणके द्वारा अग्नि प्रकट करके उससे ताड़काको लक्ष्य करके नष्ट कर दिया (मानो यह अग्निमें आहुति दी)। फिर शूर्पणखाकी नाक काटकर उसे सुध-बुध ठिकाने रखनेकी (मनमाना आचरण न करनेकी) शिक्षा दी, मानो यह प्राणोंका संयम किया। खर, दूषण, त्रिशिरा, मारीच और बालिको मारकर पंचग्रास करवाया (भोजनके प्रारम्भमें पाँचों प्राणोंके नामसे ‘स्वाहा’ पूर्वक पाँच ग्रास खानेका नियम है, वह पूरा करवाया)। फिर जलसिंचनके समान (आचमन करनेके समान) एकाग्र चित्तसे समुद्र-बन्धन करके (या समुद्रको बाणसे भयभीत करके) पहले भोजनकी रुचि उत्पन्न कर दी। फिर तो संसारने जान लिया कि धैर्यशाली श्रीरघुनाथका भोजन इस प्रकार बनाया गया था—रत्नजटित जो (रावणका) छत्र था मानो वही प्रथम ऐसा मस्तक था जो मधुरहित लड्डू हो, (उसे काटकर) शंकरजीको चढ़ा दिया। (युद्धके) हाथी ही (उस भोजनमें) गूँझा थे, रथोंका समूह जो उस श्रेष्ठ सेनामें था, वही घेवरोंकी ढेरी बना। (गैंड़ेके) चमड़ेकी ढालें फेनी (मिठाई-विशेष) थीं और (शस्त्रोंका) आघात करना ही पुए थे, शुभ (सुन्दर) स्वादिष्ट पदार्थ सजाये गये थे। चतुरंगिणी सेना ही चारों प्रकारका (चर्व, चोष्य, लेह्य और पेय) उत्तम भोजन था, जिसे भली प्रकार परोसा गया। (इस प्रकार) (श्रीरामके) सभी बाणोंने मानो अपने प्यारे पकवान पहली बार प्राप्त किया। (इस भोजनमें भी षट्रस था, जिसमेंसे) मानो क्रोधी मकराक्ष और अकम्पन आदि राक्षस कड़वे थे, प्रहस्त तिक्त रसके रूपमें भेजा गया; कुम्भकर्ण, मेघनाद, महोदर, जिनके दौड़नेसे पृथ्वी धँसती जाती थी, वे मानो निर्मल उज्ज्वल मधुर रस थे; अतिकाय आदि अतिरथियोंको कषाय रसके रूपमें नाना प्रकारके व्यंजन बनाये गये थे और अत्यन्त तीक्ष्ण बाणोंरूपी अपूर्व भोजन करनेवाले अतिथियोंको देखकर प्रभुने परम निपुण लक्ष्मणजीद्वारा यह भोजन परसवाया था। इस प्रकार दुष्ट राक्षसोंरूपी षट्रस भोजन कराके श्रीरघुनाथजीने सभी बाणोंको तृप्त किया। (इस भोजनमें) शत्रुको मारकर जो उनके टूटे हुए हारोंके मोती पृथ्वीमें बिखेर दिये हैं, वही मानो भात शोभित हो रहा है और शत्रुओंके हृदय विदीर्ण करके उनके जो अनेकों मणिमय आभूषण बिछा दिये हैं, वे श्रेष्ठ बड़ियाँ जान पड़ती हैं। तीक्ष्ण तलवारसे कटी भुजाओंके खण्ड ही मानो मछलियोंके रंगके षड़ौंछा (बेसनसे बना भोजन विशेष) है। इसी प्रकार पताकाओं तथा कवचोंको पूड़ी तथा पापड़ बनाकर परोस दिया है। उठते हुए कबन्ध (सिरहीन देह)इस प्रकार दिखायी पड़ते हैं मानो (अपनी रक्तधाराके रूपमें) घी परोसते हुए नंगे घूम रहे हों। योगिनियाँ, भूत, वेताल आदि वहाँ अत्यन्त भयंकर प्रचण्ड कोलाहल कर रहे हैं। भेड़िया, शृगाल, गीध, कौवे, काँक* आदिके समूह भोजन करनेवाले बनकर एकत्र हो गये हैं। खट्टा, मीठा, तीक्ष्ण आदि स्वाद लेनेकी एक भी इच्छा आज रह नहीं गयी (सब पूरी हो गयी)। सुजानशिरोमणि श्रीजानकीनाथ इनके हृदयका प्रेम समझकर सबसे अन्तमें मानो रावणका रक्तरूपी सब सुख देनेवाला ‘रसाल’ (भोजनविशेष) परोसते हैं। अन्तमें देवगण हाथमें अमृतकी झारी लेकर आचमन कराने आये। जिसे उन्होंने सींचा, वे तो सचेत होकर उठ गये और जिन्हें छोड़ दिया, वे अलग (मुक्त) हो गये। बाणोंने श्रीरघुनाथजीके विश्वासपर बड़ी प्रसन्नतासे उन श्रीरामचन्द्रजीके सुयशको ही आदरपूर्वक पानके बीड़ेके रूपमें स्वीकार किया। सूरदासजी कहते हैं कि प्रभुने विभीषणको अपने मनमें बारी (बरई) समझकर (उनके लिये) लंकारूपी सोनेकी थाली छोड़ दी।
पादटिप्पनी
- काँक=सफेद रंगका चीलके आकारका पक्षी, जो उड़ता कम है तथा गाँवोंमें प्रायः गन्दी वस्तुएँ एवं छोटे जीव खाता है।
माताकी व्याकुलता
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१८९)
बैठी जननि करति सगुनौती।
लछिमन-राम मिलैं अब मोकौं, दोउ अमोलक मोती॥
इतनी कहत, सुकाग उहाँ तें हरी डार उड़ि बैठॺौ।
अंचल गाँठि दई, दुख भाज्यौ, सुख जु आनि उर पैठॺौ॥
जब लौं हौं जीवौं जीवन भर, सदा नाम तव जपिहौं।
दधि-ओदन दौना भरि दैहौं, अरु भाइनि मैं थपिहौं॥
अब कै जो परचौ करि पावौं, अरु देखौं भरि आँखि।
‘सूरदास’ सौने के पानी मढ़ौं चौंच अरु पाँखि॥
मूल
(१८९)
बैठी जननि करति सगुनौती।
लछिमन-राम मिलैं अब मोकौं, दोउ अमोलक मोती॥
इतनी कहत, सुकाग उहाँ तें हरी डार उड़ि बैठॺौ।
अंचल गाँठि दई, दुख भाज्यौ, सुख जु आनि उर पैठॺौ॥
जब लौं हौं जीवौं जीवन भर, सदा नाम तव जपिहौं।
दधि-ओदन दौना भरि दैहौं, अरु भाइनि मैं थपिहौं॥
अब कै जो परचौ करि पावौं, अरु देखौं भरि आँखि।
‘सूरदास’ सौने के पानी मढ़ौं चौंच अरु पाँखि॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि (अयोध्या-राजमन्दिरमें) बैठी हुई माता शकुन देख रही हैं (और सोचती हैं—) ‘मेरे दोनों अमूल्य मोतीके समान श्रीराम और लक्ष्मण अब मुझे मिल जायँ।’ इतना (उनके) कहते ही शुभसूचक कौआ वहाँसे उड़कर हरी डालीपर जाकर बैठ गया। (यह देखकर माताने) अंचलमें गाँठ बाँध ली (कि यह शकुन सत्य हो)। उनका दुःख भाग गया और हृदयमें आनन्दने प्रवेश किया। (वे बोलीं—) ‘काग! जबतक मैं जीवित रहूँगी, जीवनभर सदा तेरे नामका स्मरण करूँगी। (प्रतिदिन) तुझे दोना भरके दही और भात दूँगी तथा तुझे अपने भाइयोंमें स्थापित करूँगी (अपना भाई मानूँगी)। इस बार यदि इस शकुनको सत्य पा जाऊँ और नेत्र भरकर (राम-लक्ष्मणको) देख लूँ तो तुम्हारी चोंच और पाँखें सोनेके पानीसे मढ़वा दूँगी।’
अयोध्या-आगमन
विषय (हिन्दी)
राग बसंत
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१९०)
राघव आवत हैं अवध आज।
रिपु जीते, साधे देव काज॥
प्रभु कुसल बंधु-सीता समेत।
जस सकल देस आनंद देत॥
कपि सोभित सुभट अनेक संग।
ज्यौं पूरन ससि सागर-तरंग॥
सुग्रीव-बिभीषन-जामवंत।
अंगद-सुषेन-केदार संत॥
नल-नील-द्विबिद-केसरि-गवच्छ।
कपि कहे कछुक, हैं बहुत लच्छ॥
जब कही पवन-सुत बंधु-बात।
तब उठी सभा सब हरष गात॥
ज्यौं पावस रितु घन प्रथम घोर।
जल-जीवक, दादर रटत मोर॥
जब सुन्यौ भरत पुर निकट भूप।
तब रची नगर-रचना अनूप॥
प्रति-प्रति गृह तोरन ध्वजा-धूप।
सजे सजल कलस अरु कदलि-यूप॥
दधि-दूब-हरद, फल-फूल-पान।
कर कनक-थार तिय करति गान॥
सुनि भेरि-बेद-धुनि संख-नाद।
सब निरखत पुलकित अति प्रसाद॥
देखत प्रभु की महिमा अपार।
सब बिसरि गए मन-बुधि-विकार॥
जै-जै दसरथ-कुल-कमल-भान।
जै कुमुद-जननि-ससि, प्रजा प्रान॥
जै दिवि भूतल सोभा समान।
जै-जै-जै ‘सूर’ न सब्द आन॥
मूल
(१९०)
राघव आवत हैं अवध आज।
रिपु जीते, साधे देव काज॥
प्रभु कुसल बंधु-सीता समेत।
जस सकल देस आनंद देत॥
कपि सोभित सुभट अनेक संग।
ज्यौं पूरन ससि सागर-तरंग॥
सुग्रीव-बिभीषन-जामवंत।
अंगद-सुषेन-केदार संत॥
नल-नील-द्विबिद-केसरि-गवच्छ।
कपि कहे कछुक, हैं बहुत लच्छ॥
जब कही पवन-सुत बंधु-बात।
तब उठी सभा सब हरष गात॥
ज्यौं पावस रितु घन प्रथम घोर।
जल-जीवक, दादर रटत मोर॥
जब सुन्यौ भरत पुर निकट भूप।
तब रची नगर-रचना अनूप॥
प्रति-प्रति गृह तोरन ध्वजा-धूप।
सजे सजल कलस अरु कदलि-यूप॥
दधि-दूब-हरद, फल-फूल-पान।
कर कनक-थार तिय करति गान॥
सुनि भेरि-बेद-धुनि संख-नाद।
सब निरखत पुलकित अति प्रसाद॥
देखत प्रभु की महिमा अपार।
सब बिसरि गए मन-बुधि-विकार॥
जै-जै दसरथ-कुल-कमल-भान।
जै कुमुद-जननि-ससि, प्रजा प्रान॥
जै दिवि भूतल सोभा समान।
जै-जै-जै ‘सूर’ न सब्द आन॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुको जीतकर, देवताओंका कार्य पूरा करके, अपने सुयशसे सभी लोकोंको आनन्द देते हुए भाई (लक्ष्मणजी) और श्रीजानकीजीके साथ कुशलपूर्वक प्रभु श्रीरघुनाथजी आज अयोध्या आ रहे हैं। जैसे चन्द्रमाके पूर्ण होनेपर समुद्रकी तरंगें उठती हैं, उसी प्रकार (उत्साहमें भरे) अनेक शूर कपि उनके साथ शोभा पा रहे हैं। सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान् , अंगद, सुषेण, साधु केदार, नल, नील, द्विविद, केसरी, गवाक्ष—ये तो कुछ नाम गिनाये गये, किंतु वानर तो बहुत हैं—लाखों हैं। जब श्रीहनुमान् जी ने (अयोध्या आकर भरतजीसे) भाईके लौटनेका समाचार कहा, तब सम्पूर्ण राजसभाके लोगोंका शरीर इस प्रकार हर्षित हो उठा जैसे वर्षा-ऋतुमें बादलोंका प्रथम शब्द सुनकर जलमें जीवित रहनेवाले प्राणी हर्षित होते हैं, मेढक ध्वनि करने लगते हैं और मयूर नाचने लगते हैं। जब भरतजीने सुना कि महाराज श्रीरामचन्द्र नगरके पास आ गये हैं, तब नगरकी अनुपम सजावट करायी। प्रत्येक घरमें द्वारपर तोरण बाँधे गये, झंडे उड़ने लगे, धूप दी गयी, कलश और केलेके खंभे सजाये गये। दही, दूब, हल्दी, फल, फूल और पान स्वर्णके थालोंमें सजाकर हाथमें लिये नारियाँ मंगलगान करने लगीं। भेरियोंकी ध्वनि, वैदिक गान और शंखोंका शब्द सुनायी पड़ने लगा। सभी लोग अत्यन्त पुलकित और प्रसन्न होकर प्रभुका आगमन देखने लगे। प्रभुकी अपार महिमा देखते (स्मरण करते) हुए सब लोग मन और बुद्धिके विकार (समस्त संकल्प एवं विचार) भूल गये। ‘महाराज दशरथके कुलरूपी कमलको विकसित करनेवाले सूर्यकी जय हो।’ ‘माता कौसल्यारूपी कुमुदिनीके चन्द्रमाकी जय हो।’ ‘प्रजाके प्राणधनकी जय हो!’ ‘भूमण्डल एवं स्वर्गके भी आभूषणरूप प्रभुकी जय हो!’ सूरदासजी कहते हैं कि ‘जय हो! जय हो! जय हो!’ इस शब्दको छोड़कर दूसरा कोई शब्द उस समय (अयोध्यामें) था ही नहीं।
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१९१)
कपिबर! देखि अजोध्या आई।
हंस-बंस कौ बास सदा यहाँ, भुजा उठाय दिखाई॥
सुंदर सर, चौहटे चहूँ दिसि आरसमनि छिति छाई।
मनि कंचन के हरमि मनोहर सरयु नदी सुखदाई॥
यह तजि मोहि अवर नहिं भावै, सप्त लोक ठकुराई।
परम बिचित्र रम्य तीरथ धन बेद-पुरानन गाई॥
यह पुर बसत प्रानहु ते प्यारे, तिन करि सुरति न जाई।
‘सूरदास’ रघुनाथ कृपानिधि श्रीमुख करत बड़ाई॥
मूल
(१९१)
कपिबर! देखि अजोध्या आई।
हंस-बंस कौ बास सदा यहाँ, भुजा उठाय दिखाई॥
सुंदर सर, चौहटे चहूँ दिसि आरसमनि छिति छाई।
मनि कंचन के हरमि मनोहर सरयु नदी सुखदाई॥
यह तजि मोहि अवर नहिं भावै, सप्त लोक ठकुराई।
परम बिचित्र रम्य तीरथ धन बेद-पुरानन गाई॥
यह पुर बसत प्रानहु ते प्यारे, तिन करि सुरति न जाई।
‘सूरदास’ रघुनाथ कृपानिधि श्रीमुख करत बड़ाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीरघुनाथजीने) हाथ उठाकर दिखलाते हुए कहा—‘कपिश्रेष्ठ (सुग्रीव)! देखो, अयोध्यापुरी आ गयी! यहाँपर सर्वदा श्रेष्ठ कुलके लोग निवास करते हैं। सुन्दर सरोवर हैं, चारों ओर चौराहे हैं और दर्पणके समान स्वच्छ पृथ्वी शोभित है। स्वर्णके मणिजटित भवन यहाँ बने हैं तथा (नगरके समीप) सुखदायी सरयू नदी है। इसे छोड़कर मुझे दूसरा कोई नगर या सातों लोकोंका स्वामित्व भी पसंद नहीं है। यह अत्यन्त विचित्र एवं रमणीय तीर्थ धन्य है, वेद और पुराण इसका वर्णन करते हैं। जो लोग इस नगरमें रहते हैं, वे मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं, उनकी स्मृति मैं कभी नहीं भूलता।’ सूरदासजी कहते हैं—कृपानिधान श्रीरघुनाथजी श्रीमुखसे इस प्रकार (अयोध्या)-की बड़ाई करते हैं।
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१९२)
हमारी जन्मभूमि यह गाउँ।
सुनहु सखा सुग्रीव-बिभीषन! अवनि अजोध्या नाउँ॥
देखत बन-उपवन-सरिता-सर, परम मनोहर ठाउँ।
अपनी प्रकृति लिऐं बोलत हौं, सुरपुर मैं न रहाउँ॥
ह्याँ के बासी अवलोकत हौं, आनँद उर न समाउँ।
‘सूरदास’ जो बिधि न सँकोचै, तो बैकुंठ न जाउँ॥
मूल
(१९२)
हमारी जन्मभूमि यह गाउँ।
सुनहु सखा सुग्रीव-बिभीषन! अवनि अजोध्या नाउँ॥
देखत बन-उपवन-सरिता-सर, परम मनोहर ठाउँ।
अपनी प्रकृति लिऐं बोलत हौं, सुरपुर मैं न रहाउँ॥
ह्याँ के बासी अवलोकत हौं, आनँद उर न समाउँ।
‘सूरदास’ जो बिधि न सँकोचै, तो बैकुंठ न जाउँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(प्रभुने कहा—) ‘सखा सुग्रीव और विभीषण! सुनो। पृथ्वीपर यह जो अयोध्या नामक नगर है, वही हमारी जन्मभूमि है। यहाँपर वन, उपवन, नदी और सरोवर दिखलायी पड़ रहे हैं; यह स्थान अत्यन्त सुन्दर है। मैं अपने स्वभावकी बात कहता हूँ कि स्वर्गमें भी मुझसे रहा नहीं जायगा (वह भी अयोध्या-जैसा सुखद मुझे नहीं लगता)। यहाँके निवासियोंको देखते ही मुझे इतना आनन्द होता है कि वह हृदयमें समाता नहीं। यदि मुझे ब्रह्माजी (संसारकी मर्यादाका ध्यान दिलाकर) संकोचमें न डालें तो मैं (अयोध्या छोड़कर) वैकुण्ठ भी न जाऊँ।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१९३)
वे देखो रघुपति हैं आवत।
दूरहि तैं दुतिया के ससि ज्यौं, ब्यौम बिमान महा छबि छावत॥
सीय सहित बर-बीर बिराजत, अवलोकत आनंद बढ़ावत।
चारु चाप कर परस सरस सिर मुकुट धरे सोभा अति पावत॥
निकट नगर जिय जानि धँसे धर, जन्मभूमि की कथा चलावत।
ये मम अनुज परे दोउ पाइनि, ऐसी बिधि कहि-कहि समुझावत॥
ये बसिष्ट कुल-इष्ट हमारे, पालागन कहि सखनि सिखावत।
ये स्वामी! सुग्रीव-बिभीषन, भरतहु तैं हमकौं जिय भावत॥
रिपु-जय, देव-काज, सुख-संपति सकल ‘सूर’ इनही तैं पावत।
ये अंगद-हनुमान कृपानिधि पुर पैठत जिन कौ जस गावत॥
मूल
(१९३)
वे देखो रघुपति हैं आवत।
दूरहि तैं दुतिया के ससि ज्यौं, ब्यौम बिमान महा छबि छावत॥
सीय सहित बर-बीर बिराजत, अवलोकत आनंद बढ़ावत।
चारु चाप कर परस सरस सिर मुकुट धरे सोभा अति पावत॥
निकट नगर जिय जानि धँसे धर, जन्मभूमि की कथा चलावत।
ये मम अनुज परे दोउ पाइनि, ऐसी बिधि कहि-कहि समुझावत॥
ये बसिष्ट कुल-इष्ट हमारे, पालागन कहि सखनि सिखावत।
ये स्वामी! सुग्रीव-बिभीषन, भरतहु तैं हमकौं जिय भावत॥
रिपु-जय, देव-काज, सुख-संपति सकल ‘सूर’ इनही तैं पावत।
ये अंगद-हनुमान कृपानिधि पुर पैठत जिन कौ जस गावत॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अयोध्याके लोगोंने कहा—) ‘वे देखो! श्रीरघुनाथजी आ रहे हैं। दूरसे ही वह द्वितीयाके चन्द्रमाके समान पुष्पक-विमान अत्यन्त शोभा दे रहा है। सीताजीके साथ श्रेष्ठ दोनों भाई विराजमान हैं, देखनेमें आनन्दको बढ़ा रहे हैं। प्रभु हाथमें सुन्दर धनुष लिये हैं और भव्य मस्तकपर जटा-मुकुट धारण किये अत्यन्त शोभित हो रहे हैं।’ सूरदासजी कहते हैं कि जन्मभूमिकी चर्चा करते हुए मनमें नगरको पास आया समझकर (विमानको प्रभुने) पृथ्वीकी ओर उतारा और उतर पड़े, फिर इस प्रकार सबको बताते हुए समझाने (परिचय देने) लगे—‘ये चरणोंमें पड़े दोनों मेरे छोटे भाई (भरत और शत्रुघ्न) हैं। ये हमारे कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ हैं।’ सखाओंको (प्रभुने महर्षिके) चरण-वन्दनकी शिक्षा दी (और महर्षिसे कहा—) ‘प्रभो! ये वानरराज सुग्रीव तथा लंकापति विभीषण हैं। मुझे ये भरतसे भी अधिक प्रिय हैं। इन्हींके द्वारा शत्रुविजय, देवकार्यकी सिद्धि और सभी सुख-सम्पत्ति मुझे प्राप्त हुई। कृपानिधान प्रभु नगर-प्रवेशके समय (सर्वप्रथम) जिनका सुयश वर्णन करते हैं, वे ये युवराज अंगद और पवनकुमार हनुमान् हैं।’
विषय (हिन्दी)
राग बिलावल
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१९४)
देखन कौं मंदिर आनि चढ़ी।
रघुपति-पूरनचंद बिलोकत, मनु पुर-जलधि-तरंग बढ़ी॥
प्रिय-दरसन-प्यासी अति आतुर, निसि-बासर गुन-ग्राम रढ़ी।
रही न लोक-लाज मुख निरखत, सीस नाइ आसीस पढ़ी॥
भई देह जो खेह करम-बस, जनु तट गंगा अनल दढ़ी।
‘सूरदास’ प्रभु-दृष्टि सुधानिधि, मानौ फेरि बनाइ गढ़ी॥
मूल
(१९४)
देखन कौं मंदिर आनि चढ़ी।
रघुपति-पूरनचंद बिलोकत, मनु पुर-जलधि-तरंग बढ़ी॥
प्रिय-दरसन-प्यासी अति आतुर, निसि-बासर गुन-ग्राम रढ़ी।
रही न लोक-लाज मुख निरखत, सीस नाइ आसीस पढ़ी॥
भई देह जो खेह करम-बस, जनु तट गंगा अनल दढ़ी।
‘सूरदास’ प्रभु-दृष्टि सुधानिधि, मानौ फेरि बनाइ गढ़ी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अवधपुरकी नारियाँ) श्रीरामका दर्शन करनेके लिये भवनोंके (छज्जोंपर) चढ़ गयीं। (उनमें इतना आनन्दोत्साह था) मानो पूर्णचन्द्रमाके समान श्रीरघुनाथजीको देखकर नगररूपी समुद्रकी तरंगें बढ़ गयी हों। परम प्रिय श्रीरामके दर्शनोंकी वे प्यासी थीं, अत्यन्त आकुल हो रही थीं, रात-दिन (चौदह वर्षतक) उन्हींके गुणगणका गान करती रही थीं। (अब उन श्रीरघुनाथके) श्रीमुखका दर्शन करते ही उनमें लोकलाज नहीं रह गयी (कोई हमें देखेगा—यह वे भूल ही गयीं), मस्तक झुकाकर उन्होंने आशीर्वाद दिया। उनका शरीर जो दुर्भाग्यवश इस प्रकार भस्म हो गया था, मानो अग्निसे भस्म हुआ गंगाका किनारा हो। सूरदासजी कहते हैं कि प्रभुकी सुधामयी दृष्टिने मानो पड़ते ही उन्हें फिरसे सजाकर निर्मित कर दिया (प्रभुकी दृष्टि पड़ते ही उनमें नवजीवन आ गया)।
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१९५)
देखौ कपिराज! भरत वे आए!
मम पाँवरी सीस पर जाके, कर-अँगुरी रघुनाथ बताए॥
छीन सरीर बीर के बिछुर, राज-भोग चित तैं बिसराए।
तप तरु लघु-दीरघता, सेवा, स्वामि-धर्म सब जगहिं सिखाए॥
पुहुप-बिमान दूरिहीं छाँड़े, चपल चरन आवत प्रभु धाए।
आनँद-मगन पगनि केकइ-सुत कनकदंड ज्यौं गिरत उठाए॥
भेंटत आँसू परे पीठि पर, बिरह-अगिनि मनु जरत बुझाए।
ऐसेहिं मिले सुमित्रा-सुत कौं, गदगद गिरा नैन जल छाए॥
जथाजोग भेंटे पुरबासी, गए सूल, सुख-सिंधु नहाए।
सिया-राम-लछिमन मुख निरखत, ‘सूरदास’ के नैन सिराए॥
मूल
(१९५)
देखौ कपिराज! भरत वे आए!
मम पाँवरी सीस पर जाके, कर-अँगुरी रघुनाथ बताए॥
छीन सरीर बीर के बिछुर, राज-भोग चित तैं बिसराए।
तप तरु लघु-दीरघता, सेवा, स्वामि-धर्म सब जगहिं सिखाए॥
पुहुप-बिमान दूरिहीं छाँड़े, चपल चरन आवत प्रभु धाए।
आनँद-मगन पगनि केकइ-सुत कनकदंड ज्यौं गिरत उठाए॥
भेंटत आँसू परे पीठि पर, बिरह-अगिनि मनु जरत बुझाए।
ऐसेहिं मिले सुमित्रा-सुत कौं, गदगद गिरा नैन जल छाए॥
जथाजोग भेंटे पुरबासी, गए सूल, सुख-सिंधु नहाए।
सिया-राम-लछिमन मुख निरखत, ‘सूरदास’ के नैन सिराए॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीने हाथकी अँगुलीसे निर्देश करते हुए बताया—‘कपिराज सुग्रीव! वह देखो! जिनके मस्तकपर मेरी चरण-पादुका है, वे भरतलालजी आ रहे हैं। मेरे भाईका शरीर मेरे वियोगमें कृश हो गया है, सभी राजसुख-भोग इन्होंने मनसे विस्मृत ही कर दिया। तपस्या, बड़े भाईके प्रति छोटे भाईका व्यवहार, सेवा, स्वामीके प्रति सेवकका धर्म, इन सबकी इन्होंने (अपने आचरणसे) संसारको शिक्षा दी।’ प्रभुने (यह कहते हुए) दूर ही पुष्पकविमान छोड़ दिया और अत्यन्त चंचल पदोंसे (वेगसे) दौड़ पड़े तथा आनन्दमग्न होकर स्वर्णदण्डके समान अपने चरणोंमें गिरते भरतको उठा लिया। मिलते हुए (प्रभुके) आँसू भरतजीकी पीठपर गिरने लगे, मानो विरहकी अग्निमें जलते हुए भरतकी ज्वाला प्रभुने बुझा दी। इसी प्रकार प्रभु सुमित्राकुमार शत्रुघ्नजीसे मिले, उनकी वाणी गद्गद हो रही थी और नेत्रोंमें अश्रु भरे थे। सभी नगरवासियोंसे प्रभु यथायोग्य रीतिसे मिले, सबकी वेदना दूर हो गयी, मानो उन्होंने सुखके समुद्रमें स्नान कर लिया। श्रीजानकीजीके साथ श्रीराम तथा लक्ष्मणके मुखको देखकर सूरदासके नेत्र भी शीतल हो गये!
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१९६)
मनिमय आसन आनि धरे।
दधि-मधु-नीर कनक के कोपर आपुन भरत भरे॥
प्रथम भरत बैठाइ बंधु कौं, यह कहि पाइ परे।
हौं पावौं प्रभु-पाइ-पखारन, रुचि करि सो पकरे॥
निज कर चरन पखारि प्रेम-रस आनँद-आँसु ढरे।
जनु सीतल सौं तप्त सलिल द, सुखित समोइ करे॥
परसत पानि चरन पावन, दुख अँग-अँग सकल हरे।
‘सूर’ सहित आमोद चरन-जल लै कर सीस धरे॥
मूल
(१९६)
मनिमय आसन आनि धरे।
दधि-मधु-नीर कनक के कोपर आपुन भरत भरे॥
प्रथम भरत बैठाइ बंधु कौं, यह कहि पाइ परे।
हौं पावौं प्रभु-पाइ-पखारन, रुचि करि सो पकरे॥
निज कर चरन पखारि प्रेम-रस आनँद-आँसु ढरे।
जनु सीतल सौं तप्त सलिल द, सुखित समोइ करे॥
परसत पानि चरन पावन, दुख अँग-अँग सकल हरे।
‘सूर’ सहित आमोद चरन-जल लै कर सीस धरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि भरतजीने मणिमय सिंहासन लाकर रखा और अपने हाथों दूध, मधु तथा जल स्वर्णपात्रोंमें भरा। फिर कुमार भरतने पहले बड़े भाईको (उस आसनपर) बैठाया और फिर यह कह करके चरण पकड़ लिया कि ‘प्रभुके चरण-प्रक्षालनका अवसर मुझे मिलना चाहिये।’ बड़े स्नेहसे उन्होंने चरण पकड़ रखा था। अपने हाथों उन श्रीचरणोंको धोते हुए प्रेममग्न होकर उनके आनन्दाश्रु प्रवाहित होने लगे, मानो तप्त हृदयको जलके द्वारा सींचकर वे शीतल और सुखी कर रहे हों। प्रभुके पावन चरणोंको हाथोंसे स्पर्श करते हुए उनके अंग-प्रत्यंगका सम्पूर्ण दुःख दूर हो गया। फिर अत्यन्त आनन्दके साथ वह चरणोदक लेकर उन्होंने मस्तकपर धारण कया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१९७)
अति सुख कौसिल्या उठि धाई।
उदित बदन मन मुदित सदन तैं, आरति साजि सुमित्रा ल्याई॥
जनु सुरभी बन बसति बच्छ बिनु, परबस पसुपति की बहराई।
चली साँझ समुहाइ स्रवत थन, उमँगि मिलन जननी दोउ आई॥
दधि-फल-दूब कनक-कोपर भरि, साजत सौंज बिचित्र बनाई।
अमी-बचन सुनि होत कुलाहल, देवनि दिवि दुंदुभी बजाई॥
बरन-बरन पट परत पाँवड़े, बीथिनि सकल सुगंध सिंचाई।
पुलकित रोम, हरषै-गदगद स्वर, जुवतिनि मंगल-गाथा गाई॥
निज मंदिर मैं आनि तिलक दै, दुज-गन मुदित असीस सुनाई।
सिया-सहित सुख बसौ इहाँ तुम, ‘सूरदास’ नित उठि बलि जाई॥
मूल
(१९७)
अति सुख कौसिल्या उठि धाई।
उदित बदन मन मुदित सदन तैं, आरति साजि सुमित्रा ल्याई॥
जनु सुरभी बन बसति बच्छ बिनु, परबस पसुपति की बहराई।
चली साँझ समुहाइ स्रवत थन, उमँगि मिलन जननी दोउ आई॥
दधि-फल-दूब कनक-कोपर भरि, साजत सौंज बिचित्र बनाई।
अमी-बचन सुनि होत कुलाहल, देवनि दिवि दुंदुभी बजाई॥
बरन-बरन पट परत पाँवड़े, बीथिनि सकल सुगंध सिंचाई।
पुलकित रोम, हरषै-गदगद स्वर, जुवतिनि मंगल-गाथा गाई॥
निज मंदिर मैं आनि तिलक दै, दुज-गन मुदित असीस सुनाई।
सिया-सहित सुख बसौ इहाँ तुम, ‘सूरदास’ नित उठि बलि जाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता कौसल्या अत्यन्त आनन्दसे उठकर दौड़ पड़ीं, माता सुमित्रा प्रसन्नमन तथा प्रफुल्ल मुख हुई अपने भवनसे आरती सजाकर ले आयीं। जैसे गायें पशुपालकके द्वारा चरानेको ले जानेपर विवश होकर (दिनभर) वनमें बछड़ोंके बिना रहती हैं, किंतु संध्या होते ही थनोंसे दूध टपकाती उत्साहपूर्वक दौड़ पड़ती हैं; उसी प्रकार दोनों माताएँ उमंगसे मिलने आयीं। दही, फल, दूब आदि स्वर्णके पात्रोंमें भर-भरकर तथा और अनेक विचित्र वस्तुएँ एकत्र करके सजायी गयीं। (नगरमें) अमृतके समान (श्रीरामके राज्याभिषेकका) संवाद सुनकर कोलाहल हो रहा है, देवताओंने स्वर्गमें दुन्दुभियाँ (नगारे) बजाये। सभी गलियाँ सुगन्धित द्रव्योंसे सींची गयीं। मार्गमें रंग-बिरंगे वस्त्रोंके पाँवड़े बिछाये जा रहे हैं। जिनके रोम-रोम पुलकित हो रहे हैं और स्वर (आनन्दसे) गद्गद हो रहा है, ऐसी युवतियोंने मंगलगान प्रारम्भ किया। राजभवनमें ले आकर श्रीरामको राजतिलक करके आनन्दित होकर विप्र-वृन्दने आशीर्वाद दिया। सूरदासजी कहते हैं, प्रभो! आप श्रीजानकीजीके साथ यहाँ सुखपूर्वक निवास करें। नित्य प्रातःकाल उठकर मैं आपकी बलिहारी जाऊँ (आपका दर्शन प्राप्त करूँ)।
राज-समाज-वर्णन
विषय (हिन्दी)
(१९८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनती केहि बिधि प्रभुहि सुनाऊँ।
महाराज रघुबीर धीर कौ समय न कबहूँ पाऊँ॥
जाम रहत जामिनि के बीतें तिहि औसर उठि धाऊँ।
सकुच होत सुकुमार नींद ते कैसैं प्रभुहि जगाऊँ॥
दिनकर-किरन उदित ब्रह्मादिक रुद्रादिक इक ठाऊँ।
अगनित भीर अमर-मुनि-गन की, तिहि ते ठौर न पाऊँ॥
उठत सभा दिन मध्य सियापति, देखि भीर फिर आऊँ।
न्हात खात सुख करत साहिबी कैसैं करि अनखाऊँ॥
रजनी-मुख आवत गुन गावत नारद-तुम्बरु नाऊँ।
तुमही कहौ कृपन हौं रघुपति किहि बिधि दुख समझाऊँ॥
एक उपाय करौं कमलापति, कहौ तौ कहि समझाऊँ।
पतित-उधारन ‘सूर’ नाम प्रभु लिखि कागद पहुँचाऊँ॥
मूल
बिनती केहि बिधि प्रभुहि सुनाऊँ।
महाराज रघुबीर धीर कौ समय न कबहूँ पाऊँ॥
जाम रहत जामिनि के बीतें तिहि औसर उठि धाऊँ।
सकुच होत सुकुमार नींद ते कैसैं प्रभुहि जगाऊँ॥
दिनकर-किरन उदित ब्रह्मादिक रुद्रादिक इक ठाऊँ।
अगनित भीर अमर-मुनि-गन की, तिहि ते ठौर न पाऊँ॥
उठत सभा दिन मध्य सियापति, देखि भीर फिर आऊँ।
न्हात खात सुख करत साहिबी कैसैं करि अनखाऊँ॥
रजनी-मुख आवत गुन गावत नारद-तुम्बरु नाऊँ।
तुमही कहौ कृपन हौं रघुपति किहि बिधि दुख समझाऊँ॥
एक उपाय करौं कमलापति, कहौ तौ कहि समझाऊँ।
पतित-उधारन ‘सूर’ नाम प्रभु लिखि कागद पहुँचाऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि मैं प्रभुको किस प्रकार अपनी प्रार्थना सुनाऊँ। धैर्यशाली महाराज श्रीरघुनाथजीको प्रार्थना सुनानेके लिये मुझे कभी समय ही (समुचित अवसर ही) नहीं मिलता। रात्रि जब बीतने लगती है और एक प्रहर रह जाती है, उस समय उठकर दौड़ता हूँ, किंतु बड़ा संकोच होता है कि प्रभु अत्यन्त सुकुमार हैं, फिर स्वामीको (सेवक होकर) निद्रासे कैसे जगाऊँ। सूर्यकी किरण निकलते (बड़े सबेरे) ही ब्रह्मादि देवता, रुद्रादि लोकपाल एकत्र हो जाते हैं, देवताओं और मुनिगणोंकी अपार भीड़ हो जाती है; इससे मुझे स्थान ही नहीं मिलता (कि प्रभुतक जा सकूँ)। श्रीसीतानाथ दोपहरको राजसभासे उठते हैं, (राजसभामें तो) भीड़ देखकर लौट आता हूँ और स्नान करते, भोजन करते, विश्राम करते तथा राज-काज करते समय प्रभुके प्रति मैं कैसे अप्रसन्न होऊँ (कि वे मुझे समय नहीं देते। ये तो आवश्यक कार्य ही हैं)। संध्या होते ही देवर्षि नारद तथा तुम्बरु आदि गुणगान करते हुए आ जाते हैं। अतः हे रघुनाथजी! आप ही बताइये कि मैं दुःखी किस प्रकार (कब) आपको अपना दुःख बताऊँ। हे श्रीजानकीनाथ! एक उपाय मैं कर सकता हूँ; यदि आप कहें तो बताकर समझा दूँ। हे प्रभो! आपका नाम पतितोद्धारण है, अतः आपके पास प्रार्थनापत्र लिखकर भेज दूँ।
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१९९)
अंतरजामी हौ रघुबीर।
करुना-सिंधु अकाल-कलप-तरु, जानत जन की पीर॥
बालि-त्रास बन-बास बिषम दुख ब्यापत सकल सरीर।
सोइ सुग्रीव कपि-कुलपति कीनौ, मिटी महा रिपु-भीर॥
दसमुख दुसह क्रोध दावानल निज उस्वास समीर।
राख्यौ तिहिं जुर जरत बिभीषन सीचि सुरत सित नीर॥
सुनि-सुनि कथा प्रसिद्ध पुरातन जस जान्यौ जुग जीर।
बहुरि नयौं करि कियौ ‘सूर’ प्रभु रामचंद्र रनधीर॥
मूल
(१९९)
अंतरजामी हौ रघुबीर।
करुना-सिंधु अकाल-कलप-तरु, जानत जन की पीर॥
बालि-त्रास बन-बास बिषम दुख ब्यापत सकल सरीर।
सोइ सुग्रीव कपि-कुलपति कीनौ, मिटी महा रिपु-भीर॥
दसमुख दुसह क्रोध दावानल निज उस्वास समीर।
राख्यौ तिहिं जुर जरत बिभीषन सीचि सुरत सित नीर॥
सुनि-सुनि कथा प्रसिद्ध पुरातन जस जान्यौ जुग जीर।
बहुरि नयौं करि कियौ ‘सूर’ प्रभु रामचंद्र रनधीर॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—हे रघुनाथजी! आप तो अन्तर्यामी हैं, दयाके समुद्र हैं, बिना अवसर भी देनेवाले कल्पवृक्ष हैं तथा सेवककी पीड़ा समझनेवाले हैं (अतः आपसे प्रार्थना करनेकी आवश्यकता ही नहीं है)। जो बालिके भयसे वनमें रहते थे, दारुण दुःख जिनके शरीरमें पूर्णतः व्याप्त था, आपने उन्हीं सुग्रीवको वानरोंका नरेश बना दिया और महान् शत्रुरूपी संकटको दूर कर दिया। रावणका असह्य क्रोध दावाग्निके समान था और (विभीषणका) अपना ही निःश्वास पवनके समान था (रावणके क्रोधको आन्तरिक शोकसे और बढ़ाकर वे अनुभव करते थे)। इस ज्वरसे जलते हुए विभीषणको कृपारूपी निर्मल जलसे सिंचित करके आपने बचा लिया। यह पुरातन विश्व आपकी सुप्रसिद्ध प्राचीन कथाएँ सुन-सुनकर आपके सुयशको जानता था; किंतु मेरे स्वामी रणधीर श्रीरामचन्द्रजी! आपने उस (सुयश)-को फिरसे नवीन बना दिया।
सूर-सारावलीकी रामकथा
विषय (हिन्दी)
भूमिका
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२००)
रावन, कुंभकरन असुराधिप, बढ़े सकल जग माँहिं।
सबहिन लोकपाल उन जीते, कोऊ बाच्यौ नाँहिं॥
सकल देव मिलि जाय पुकारे, चतुरानन के पास।
लै सिव संग चले चतुरानन, छीर-सिंधु सुखबास॥
अस्तुति करि बहु भाँति जगाए , तब जागे निज नाथ।
आज्ञा दई, जाय कपि-कुल मैं, प्रगटौ सब सुर साथ॥
तब ब्रह्मा सबहिन सौं भाष्यौ, सोई सब सुर कीन्हौं।
सातौं दीप जाय कपि-कुल मैं, आय जन्म सुर लीन्हौं॥
अपने अंस आप हरि प्रगटे, पुरुषोत्तम निज रूप।
नारायन भुव-भार हरौ है, अति आनंद स्वरूप॥
बासुदेव, यौं कहत बेद मैं, हैं पूरन अवतार।
सेष सहस मुख रटत निरंतर, तऊ न पावत पार॥
सहस-बर्ष लौं ध्यान कियौ सिव, रामचरित सुख-सार।
अवगाहन करि कै सब देख्यौ, तऊ न पायौ पार॥
बिती समाधि, सती तब पूछॺौ, कहौ मरम गुरु ईस!
काकी ध्यान करत उर अंतर, को पूरन जगदीस?
तब सिव कहेउ राम अरु गोबिंद, परम इष्ट इक मेरे।
सहस बर्ष लौं ध्यान करत हौं, राम-कृष्ण सुख केरे॥
तामैं राम समाधि करी अब, सहस बर्ष लौं बाम।
अति आनंद मगन मेरौ मन, अँग-अँग पूरन काम॥
दाया करि मोकौं यह कहियै, अमर होहुँ जेहिं भाँति।
मोहि नारदमुनि तत्व बतायौ, तातें जिय अकुलाति॥
तब महादेव कृपा करि कै, यह चरित कियौ बिस्तार।
सो ब्रह्मांड पुरान ब्यास मुनि, कियौ बदन उच्चार॥
मुनि बाल्मीकि कृपा सातौं ऋषि, राम-मंत्र फल पायौ।
उलटौ नाम जपत अघ बीत्यौ, पुनि उपदेस करायौ॥
रामचरित बरनन के कारन, बालमीकि-अवतार।
तीनौं लोक भए परिपूरन, रामचरित सुखसार॥
सतकोटी रामायन कीनौ, तऊ न लीन्हौं पार।
कह्यौ बसिष्ट मुनि रामचंद्र सौं रामायन-उच्चार॥
कागभुसुंड गरुड़ सौं भाष्यौ, राम चरित अवतार।
सकल बेद अरु सास्त्र कह्यौ है, रामचंद्र-जस सार॥
कछु संक्षेप ‘सूर’ अब बरनत, लघुमति दुरबल बाल।
यह रसना पावन के कारन, मेटन भव-जंजाल॥
मूल
(२००)
रावन, कुंभकरन असुराधिप, बढ़े सकल जग माँहिं।
सबहिन लोकपाल उन जीते, कोऊ बाच्यौ नाँहिं॥
सकल देव मिलि जाय पुकारे, चतुरानन के पास।
लै सिव संग चले चतुरानन, छीर-सिंधु सुखबास॥
अस्तुति करि बहु भाँति जगाए , तब जागे निज नाथ।
आज्ञा दई, जाय कपि-कुल मैं, प्रगटौ सब सुर साथ॥
तब ब्रह्मा सबहिन सौं भाष्यौ, सोई सब सुर कीन्हौं।
सातौं दीप जाय कपि-कुल मैं, आय जन्म सुर लीन्हौं॥
अपने अंस आप हरि प्रगटे, पुरुषोत्तम निज रूप।
नारायन भुव-भार हरौ है, अति आनंद स्वरूप॥
बासुदेव, यौं कहत बेद मैं, हैं पूरन अवतार।
सेष सहस मुख रटत निरंतर, तऊ न पावत पार॥
सहस-बर्ष लौं ध्यान कियौ सिव, रामचरित सुख-सार।
अवगाहन करि कै सब देख्यौ, तऊ न पायौ पार॥
बिती समाधि, सती तब पूछॺौ, कहौ मरम गुरु ईस!
काकी ध्यान करत उर अंतर, को पूरन जगदीस?
तब सिव कहेउ राम अरु गोबिंद, परम इष्ट इक मेरे।
सहस बर्ष लौं ध्यान करत हौं, राम-कृष्ण सुख केरे॥
तामैं राम समाधि करी अब, सहस बर्ष लौं बाम।
अति आनंद मगन मेरौ मन, अँग-अँग पूरन काम॥
दाया करि मोकौं यह कहियै, अमर होहुँ जेहिं भाँति।
मोहि नारदमुनि तत्व बतायौ, तातें जिय अकुलाति॥
तब महादेव कृपा करि कै, यह चरित कियौ बिस्तार।
सो ब्रह्मांड पुरान ब्यास मुनि, कियौ बदन उच्चार॥
मुनि बाल्मीकि कृपा सातौं ऋषि, राम-मंत्र फल पायौ।
उलटौ नाम जपत अघ बीत्यौ, पुनि उपदेस करायौ॥
रामचरित बरनन के कारन, बालमीकि-अवतार।
तीनौं लोक भए परिपूरन, रामचरित सुखसार॥
सतकोटी रामायन कीनौ, तऊ न लीन्हौं पार।
कह्यौ बसिष्ट मुनि रामचंद्र सौं रामायन-उच्चार॥
कागभुसुंड गरुड़ सौं भाष्यौ, राम चरित अवतार।
सकल बेद अरु सास्त्र कह्यौ है, रामचंद्र-जस सार॥
कछु संक्षेप ‘सूर’ अब बरनत, लघुमति दुरबल बाल।
यह रसना पावन के कारन, मेटन भव-जंजाल॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसराज रावण और कुम्भकर्ण सम्पूर्ण विश्वमें प्रबल हो गये थे। उन्होंने सभी लोकपालोंको जीत लिया, कोई भी बचा नहीं। तब सभी देवता एकत्र होकर ब्रह्माजीके पास पुकार करने गये। ब्रह्माजी (देवताओं तथा) शंकरजीको साथ लेकर सुखसिन्धु भगवान् के निवास क्षीरसागरको चल पड़े। (वहाँ जाकर) अनेक प्रकारसे स्तुति करके उन्होंने प्रभुको जगाया, तब वे सबके स्वामी जगे और आज्ञा दी—‘सब देवता एक साथ जाकर कपियोंके कुलमें प्रकट हों।’ तब ब्रह्माजीने यह बात सबसे कह दी और सभी देवताओंने वैसा ही किया। सातों द्वीपोंमें जितने वानरोंके कुल थे, उनमें आकर देवताओंने जन्म लिया। अपने अंशोंके साथ स्वयं पुरुषोत्तम श्रीहरि भी अपने (वास्तविक) स्वरूपसे (पृथ्वीपर) प्रकट हुए। उन अत्यन्त आनन्दस्वरूप श्रीनारायणने पृथ्वीका भार दूर किया। वेदोंमें उन्हें वासुदेव कहा जाता है, वे पूर्णावतार हैं। शेषजी सहस्र मुखसे निरन्तर उनका वर्णन करते हैं, फिर भी (उनके गुणोंका) अन्त नहीं पाते। सुखके साररूप श्रीरामचरितका एक सहस्र वर्षतक शंकरजीने ध्यान किया, उसमें अवगाहन करके (निमग्न होकर) देखा; किंतु इतनेपर भी (उन्हें भी) उसका अन्त नहीं मिला। जब (शंकरजीकी) समाधि टूटी, तब सतीजीने पूछा—‘हे मेरे गुरु शंकरजी! यह रहस्य आप बताइये कि आप अपने हृदयमें किसका ध्यान कर रहे थे। पूर्ण जगदीश्वर कौन है?’ तब शंकरजीने कहा—‘श्रीराम और गोविन्द! यही एक मेरे परम इष्टदेव हैं। मैं एक-एक सहस्र वर्षतक श्रीराम तथा श्रीकृष्णके आनन्दस्वरूपका ही ध्यान करता हूँ। उसमेंसे देवि! मैं अभी सहस्र वर्षतक श्रीरामके ध्यानमें समाधि लगाये था, इससे मेरा मन अत्यन्त आनन्दमें निमग्न है, मेरे अंग-प्रत्यंगकी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं।’ (सतीजीने कहा—) ‘दया करके मुझसे यह (श्रीरामचरित) कहिये, जिससे मैं अमर हो जाऊँ। देवर्षि नारदने यह तत्त्व मुझे बतलाया है (कि श्रीरामचरित सुननेसे अमरत्व प्राप्त होता है)। इसीलिये मैं हृदयसे उत्कण्ठित हो रही हूँ।’ तब श्रीशंकरजीने कृपा करके इस (रामचरित)-का विस्तार (-से वर्णन) किया। भगवान् व्यासने उसीका पृथ्वीपर पुराणोंमें अपने मुखसे वर्णन किया। सप्तर्षियोंकी कृपासे महर्षि वाल्मीकिने ‘राम’ यह मन्त्र फलरूपमें प्राप्त किया था। इस (राम) नामका उलटा जप करते हुए उन्होंने अपने सब पाप नष्ट कर दिये; फिर उन्होंने रामचरितका उपदेश किया। श्रीवाल्मीकिजीका प्राकटॺ ही श्रीरामचरितके वर्णनके लिये हुआ था। (उनके द्वारा वर्णन होनेपर) सुखके साररूप श्रीरामचरितसे तीनों लोक परिपूर्ण हो गये। सौ करोड़ (श्लोकोंवाली) रामायणका उन्होंने निर्माण किया; फिर भी उन्हें (श्रीरामचरितका) अन्त नहीं मिला। फिर महर्षि वसिष्ठजीने श्रीरामचन्द्रजीसे ही रामायणका वर्णन किया। श्रीरामावतारका चरित काकभुशुण्डिने गरुड़से वर्णन किया। सभी वेद और शास्त्रोंने कहा है कि श्रीरामचन्द्रजीका सुयश ही सबका साररूप है। इसलिये यह तुच्छ बुद्धिका दुर्बल बालक सूरदास अपनी जिह्वाको पवित्र करनेके लिये और संसारका जंजाल मिटानेके लिये संक्षिप्तरूपसे कुछ रामचरितका वर्णन करता है।
राम-जन्म
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२०१)
पुष्य नछत्र, नौमी जु परम दिन, लगन सुद्ध, सुभ बार।
प्रगट भए दसरथ-गृह, पूरन चतुर्ब्यूह अवतार॥
तीनौं ब्यूह संग लै प्रगटे, पुरुषोत्तम श्रीराम।
संकर्षन-प्रद्युम्न, लच्छमन-भरत महासुख-धाम॥
शत्रुघ्नहि अनिरुध कहियतु हैं, चतुर्ब्यूह निज रूप।
रामचंद्र प्रगटे जब गृह मैं, हरषे कौसल-भूप॥
अति फूले दसरथ मनहीं मन, कौसल्या सुख पायौ।
सौमित्रा-केकइ-मन आनँद, यह सबहिन सुत जायौ॥
गुरु बसिष्ठ, नारद मुनि ज्ञानी, जन्मपत्रिका कीनी।
रामचंद्र बिख्यात नाम यह, सुर-मुनि की सुधि लीनी॥
देत दान नृपराज दुजन कौं, सुरभी हेम अपार।
सब सुंदरि मिलि मंगल गावत, कंचन-कलस दुवार॥
आए देव और मुनिजन सब, दै असीस सुख भारी।
अपने-अपने धाम चले सब, परम मोद रुचिकारी॥
मन बांछित फल सबहिन पाए , भयौ सबन आनंद।
बालरूप ह्वै कै दसरथ-सुत, करत केलि स्वच्छंद॥
मूल
(२०१)
पुष्य नछत्र, नौमी जु परम दिन, लगन सुद्ध, सुभ बार।
प्रगट भए दसरथ-गृह, पूरन चतुर्ब्यूह अवतार॥
तीनौं ब्यूह संग लै प्रगटे, पुरुषोत्तम श्रीराम।
संकर्षन-प्रद्युम्न, लच्छमन-भरत महासुख-धाम॥
शत्रुघ्नहि अनिरुध कहियतु हैं, चतुर्ब्यूह निज रूप।
रामचंद्र प्रगटे जब गृह मैं, हरषे कौसल-भूप॥
अति फूले दसरथ मनहीं मन, कौसल्या सुख पायौ।
सौमित्रा-केकइ-मन आनँद, यह सबहिन सुत जायौ॥
गुरु बसिष्ठ, नारद मुनि ज्ञानी, जन्मपत्रिका कीनी।
रामचंद्र बिख्यात नाम यह, सुर-मुनि की सुधि लीनी॥
देत दान नृपराज दुजन कौं, सुरभी हेम अपार।
सब सुंदरि मिलि मंगल गावत, कंचन-कलस दुवार॥
आए देव और मुनिजन सब, दै असीस सुख भारी।
अपने-अपने धाम चले सब, परम मोद रुचिकारी॥
मन बांछित फल सबहिन पाए , भयौ सबन आनंद।
बालरूप ह्वै कै दसरथ-सुत, करत केलि स्वच्छंद॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुष्य नक्षत्र था, पावन नवमी तिथि थी, शुद्ध लग्न (अभिजित् मुहूर्त) था और शुभ दिन (मंगलवार) था, जब महाराज दशरथके घरमें चतुर्व्यूह-मूर्ति पूर्णावतार प्रकट हुए। पुरुषोत्तम श्रीराम अपने तीनों व्यूह-स्वरूपोंके साथ प्रकट हुए। (चतुर्व्यूहके) संकर्षण लक्ष्मण कहे जाते हैं, महान् सुखके धाम प्रद्युम्न भरत कहलाये और अनिरुद्धका नाम शत्रुघ्न पड़ा। ये चतुर्व्यूह परम प्रभुके अपने ही स्वरूप हैं। श्रीरामचन्द्र जब राजभवनमें प्रकट हुए , तब कोसलनरेश महाराज दशरथको अत्यन्त प्रसन्नता हुई, उनका चित्त प्रफुल्लित हो गया और श्रीकौसल्याजीको बड़ा सुख मिला। सुमित्राजी और कैकेयीजीके भी हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ; क्योंकि इन तीनों ही महारानियोंके पुत्र उत्पन्न हुए थे। (रघुवंशके) कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ तथा परम ज्ञानी देवर्षि नारदजीने (राजकुमारोंकी) जन्मपत्रिका बनायी। (उन्होंने बताया कि ‘बड़े कुमारका) श्रीरामचन्द्र यह प्रसिद्ध नाम है। वस्तुतः तो इन्होंने देवता और मुनिगणोंकी सुधि ली है (देवता तथा मुनियोंके संकटको दूर करनेके लिये अवतार धारण किया है)।’ महाराज दशरथ ब्राह्मणोंको गायें तथा अपार स्वर्णराशि दान देने लगे। सब (सौभाग्यवती) सुन्दरियाँ एकत्र होकर मंगलगान करने लगीं। द्वारोंपर स्वर्णके कलश सजाये गये। सभी देवता तथा मुनिगण (अयोध्या) आये तथा अत्यन्त आनन्दसे (सबके लिये) परम प्रसन्नतादायी रुचिकर (मनोवांछित) आशीर्वाद (कुमारोंको) देकर अपने-अपने धाम चले गये। सभीने मनोवांछित फल प्राप्त किया। सभीको आनन्द हुआ। इस प्रकार चारों भाई महाराज दशरथके कुमार बनकर बालरूपसे स्वच्छन्द बालक्रीड़ा करने लगे।
बाल-लीला
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२०२)
घुटुरुन चलत कनक-आँगन मैं, कौसल्या छबि देखत।
नील नलिन तन पीत झँगुलिया, घन दामिनि-दुति पेखत॥
कबहुँक माखन लैकै खावत, खेल करत पुनि माँगत।
मुख चुंबत, जननी समझावत, आय कंठ पुनि लागत॥
कागभुसुंड दरस कौं आए , पाँच बर्ष लौं देखे।
अस्तुति करी, आपु बर पायौ, जनम सुफल करि लेखे॥
किरपा करि निज धाम पठायौ, अपनौ रूप दिखाय।
वाके आस्रम कोउ बसत है, माया लगत न ताय॥
प्रातकाल उठि जननि जगावत, उठौ मेरे बारे राम!
उठि बैठे, दतुवन लै आई, करी मुखारी स्याम॥
चारौं भ्रात मिल करत कलेऊ, मधु-मेवा-पकवान।
जल-आचमन, आरती करि कै, फिर कीन्हौ अस्नान॥
करत सृंगार चार भइया मिलि, सोभा बरनि न जाई।
चित्र-बिचित्र सुभग चौतनियाँ, इंद्रधनुष-छबि छाई॥
अलकावलि मुक्तावलि गूँथी, डोर सुरंग बिराजै।
मनहुँ सुरसरी धार सरसुती, जमुना मध्य बिराजै॥
तिलक भाल पर परम मनोहर, गोरोचन कौ दीनौ।
मानौ तीन लोक की सोभा, अधिक उदय सो कीनौ॥
खंजन नैन बीच नासा-पुट, राजत यह अनुहार।
खंजन जुग मनौं लरत लराई, कीर बुझावत रार॥
नासा के बेसर मैं मोती, बरन बिराजत चार।
मनौ जीव सनि सुक्र एक ह्वै, बाढ़े रबि कें द्वार॥
कुंडल ललित कपोल बिराजत, झलकत आभा गंड।
इंदीबर पर मनौ देखियत, रबि की किरन प्रचंड॥
अरुन अधर दमकत दसनावलि, चारु चिबुक मुसक्यान।
अति अनुराग सुधाकर सींचत, दाड़िम-बीज समान॥
कंठसिरी बिच पदिक बिराजत, बहु मनि-मुक्ता-हार।
दहिनावर्त देत ध्रुव तारे, सकल नखत बहु बार॥
रतन-जड़ित कंकन बाजूबँद, नगन मुद्रिका सोहै।
डार-डार मनु मदन बिटप तरु, देखि-देखि मन मोहै॥
कटि किंकिन-रुनझुन सुनि तन की हंस करत किलकारी।
नूपुर-धुनि पग लाल पन्हैयाँ, उपमा कौन बिचारी॥
भूषन-बसन आदि सब रचि-रचि, माता लाड़ लड़ावै।
रामचंद्र की देख माधुरी, दरपन देख दिखावै॥
निज प्रतिबिंब बिलोकि मुकुर मैं, हँसत राम सुखरास।
तैसइ लछिमन, भरत, सत्रुहन, खेलत डोलत पास॥
दसरथ राय न्हाय भोजन कौं बैठे अपने धाम।
लाऔ बेगि राम-लछिमन कौं, सुनि आए सुखधाम॥
बैठे सँग बाबा के चारौं, भैया जैंवन लागे।
दसरथ राय आपु जैंवत हैं, अति आनँद अनुरागे॥
लघु-लघु ग्रास राम मुख मेलत, आपु पिता-मुख मेलत।
बाल-केलि कौ बिसद परम सुख, सुख-समुद्र नृप झेलत॥
दार, भात, घृत, कढ़ी सलौनी, अरु नाना पकवान।
आरोगत नृप चार पुत्र मिलि, अति आनंद-निधान॥
अचवन करि, पुनि जल अचवायौ, जब नृप बीरा लीनौ।
राम-लखन अरु भरत-सत्रुहन, सबहिंन अचवन कीनौ॥
बीरा खाय चले खेलन कौं, मिलि कै चारौं बीर।
सखा संग सब मिले बराबर, आए सरजू तीर॥
तीर चलावत, सिष्य सिखावत, धर निसान दिखरावत।
कबहुँक सधे अस्व चढ़ि आपुन, नाना भाँति नचावत॥
कबहुँक चार भ्रात मिलि अगिया जात परम सुख पावत।
हरिन आदि बहु जंतु किए बध, निज सुरलोक पठावत॥
यहि बिधि बन-उपबन बहु क्रीड़ा करी राम सुखदाई।
बालमीकि मुनि कही कृपा कर, कछु इक ‘सूर’ जो गाई॥
भई साँझ जननी टेरत है, कहाँ गए चारौं भाई।
भूख लगी ह्वैहै लालन कौं, लाऔ बेगि बुलाई॥
इतने माँझि चार भैया मिलि, आए अपने धाम।
मुख चुंबत, आरती उतारत, कौसल्या अभिराम॥
सौमित्रा केकइ सुख पावत, बहुबिधि लाड़ लड़ावत।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, अपने हाथ जेंवावत॥
चारौं भ्रातनि स्रमित जानि कै, जननी तब पौढ़ाए।
चापत चरन जननि अप-अपनी, कछुक मधुर स्वर गाए॥
आई नींद, राम सुख पायौ, दिन कौ स्रम बिसरायौ।
जागे भोर, दौरि जननी ने अपने कंठ लगायौ॥
मूल
(२०२)
घुटुरुन चलत कनक-आँगन मैं, कौसल्या छबि देखत।
नील नलिन तन पीत झँगुलिया, घन दामिनि-दुति पेखत॥
कबहुँक माखन लैकै खावत, खेल करत पुनि माँगत।
मुख चुंबत, जननी समझावत, आय कंठ पुनि लागत॥
कागभुसुंड दरस कौं आए , पाँच बर्ष लौं देखे।
अस्तुति करी, आपु बर पायौ, जनम सुफल करि लेखे॥
किरपा करि निज धाम पठायौ, अपनौ रूप दिखाय।
वाके आस्रम कोउ बसत है, माया लगत न ताय॥
प्रातकाल उठि जननि जगावत, उठौ मेरे बारे राम!
उठि बैठे, दतुवन लै आई, करी मुखारी स्याम॥
चारौं भ्रात मिल करत कलेऊ, मधु-मेवा-पकवान।
जल-आचमन, आरती करि कै, फिर कीन्हौ अस्नान॥
करत सृंगार चार भइया मिलि, सोभा बरनि न जाई।
चित्र-बिचित्र सुभग चौतनियाँ, इंद्रधनुष-छबि छाई॥
अलकावलि मुक्तावलि गूँथी, डोर सुरंग बिराजै।
मनहुँ सुरसरी धार सरसुती, जमुना मध्य बिराजै॥
तिलक भाल पर परम मनोहर, गोरोचन कौ दीनौ।
मानौ तीन लोक की सोभा, अधिक उदय सो कीनौ॥
खंजन नैन बीच नासा-पुट, राजत यह अनुहार।
खंजन जुग मनौं लरत लराई, कीर बुझावत रार॥
नासा के बेसर मैं मोती, बरन बिराजत चार।
मनौ जीव सनि सुक्र एक ह्वै, बाढ़े रबि कें द्वार॥
कुंडल ललित कपोल बिराजत, झलकत आभा गंड।
इंदीबर पर मनौ देखियत, रबि की किरन प्रचंड॥
अरुन अधर दमकत दसनावलि, चारु चिबुक मुसक्यान।
अति अनुराग सुधाकर सींचत, दाड़िम-बीज समान॥
कंठसिरी बिच पदिक बिराजत, बहु मनि-मुक्ता-हार।
दहिनावर्त देत ध्रुव तारे, सकल नखत बहु बार॥
रतन-जड़ित कंकन बाजूबँद, नगन मुद्रिका सोहै।
डार-डार मनु मदन बिटप तरु, देखि-देखि मन मोहै॥
कटि किंकिन-रुनझुन सुनि तन की हंस करत किलकारी।
नूपुर-धुनि पग लाल पन्हैयाँ, उपमा कौन बिचारी॥
भूषन-बसन आदि सब रचि-रचि, माता लाड़ लड़ावै।
रामचंद्र की देख माधुरी, दरपन देख दिखावै॥
निज प्रतिबिंब बिलोकि मुकुर मैं, हँसत राम सुखरास।
तैसइ लछिमन, भरत, सत्रुहन, खेलत डोलत पास॥
दसरथ राय न्हाय भोजन कौं बैठे अपने धाम।
लाऔ बेगि राम-लछिमन कौं, सुनि आए सुखधाम॥
बैठे सँग बाबा के चारौं, भैया जैंवन लागे।
दसरथ राय आपु जैंवत हैं, अति आनँद अनुरागे॥
लघु-लघु ग्रास राम मुख मेलत, आपु पिता-मुख मेलत।
बाल-केलि कौ बिसद परम सुख, सुख-समुद्र नृप झेलत॥
दार, भात, घृत, कढ़ी सलौनी, अरु नाना पकवान।
आरोगत नृप चार पुत्र मिलि, अति आनंद-निधान॥
अचवन करि, पुनि जल अचवायौ, जब नृप बीरा लीनौ।
राम-लखन अरु भरत-सत्रुहन, सबहिंन अचवन कीनौ॥
बीरा खाय चले खेलन कौं, मिलि कै चारौं बीर।
सखा संग सब मिले बराबर, आए सरजू तीर॥
तीर चलावत, सिष्य सिखावत, धर निसान दिखरावत।
कबहुँक सधे अस्व चढ़ि आपुन, नाना भाँति नचावत॥
कबहुँक चार भ्रात मिलि अगिया जात परम सुख पावत।
हरिन आदि बहु जंतु किए बध, निज सुरलोक पठावत॥
यहि बिधि बन-उपबन बहु क्रीड़ा करी राम सुखदाई।
बालमीकि मुनि कही कृपा कर, कछु इक ‘सूर’ जो गाई॥
भई साँझ जननी टेरत है, कहाँ गए चारौं भाई।
भूख लगी ह्वैहै लालन कौं, लाऔ बेगि बुलाई॥
इतने माँझि चार भैया मिलि, आए अपने धाम।
मुख चुंबत, आरती उतारत, कौसल्या अभिराम॥
सौमित्रा केकइ सुख पावत, बहुबिधि लाड़ लड़ावत।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, अपने हाथ जेंवावत॥
चारौं भ्रातनि स्रमित जानि कै, जननी तब पौढ़ाए।
चापत चरन जननि अप-अपनी, कछुक मधुर स्वर गाए॥
आई नींद, राम सुख पायौ, दिन कौ स्रम बिसरायौ।
जागे भोर, दौरि जननी ने अपने कंठ लगायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीराम) स्वर्णके आँगनमें घुटनोंके बल चलने लगे। माता कौसल्या उनकी शोभा देख रही हैं। नीले कमलके समान शरीरपर पीली झँगुली (बालकोंका झीना कुर्ता) ऐसी शोभा देती है जैसे बादलोंमें बिजलीकी चमक दिखायी पड़ती हो। कभी मक्खन लेकर खाते हैं, कभी खेल करते हुए फिर माँगते हैं। माता उनके मुखका चुम्बन करती हैं, समझाती हैं (कि गोरस बिखेरना नहीं चाहिये)। फिर आकर माताके गलेसे लग जाते हैं। श्रीकाकभुशुण्डिजी (इस बालरूपका) दर्शन करने आये और पाँच वर्षतक (बाल-लीला) देखते रहे। उन्होंने (प्रभुकी) स्तुति की और स्वयं वरदान प्राप्त किया। इससे अपने जीवनको सफल माना। कृपा करके (प्रभुने) उन्हें अपने दिव्यधाममें भेज दिया तथा अपने (ऐश्वर्यमय) रूपका दर्शन कराया। जो कोई उन (काकभुशुण्डिजी)-के आश्रममें निवास करता है, उसपर मायाका प्रभाव नहीं पड़ता। प्रातःकाल माता जगाती हैं—‘मेरे बच्चे श्रीराम! उठो।’ जब वे उठकर बैठ जाते हैं, तब माता दातौन ले आती हैं, वे श्याम-वदन प्रभु दातौन करते हैं। फिर चारों भाई एकत्र होकर शहद, मेवे तथा नाना प्रकारके पकवान्नोंका कलेऊ करके जलसे आचमन करते हैं। (माताएँ) उनकी (मंगल-) आरती करती हैं। फिर वे स्नान करते हैं। चारों भाई एक साथ ही शृंगार करते हैं। उस समयकी शोभाका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। अनेक रंगोंकी सुन्दर चौकोनी टोपियाँ उनके मस्तकपर इन्द्रधनुषके समान शोभा देती हैं। सुन्दर रंगवाली डोरियोंमें सजी हुई मोतियोंकी लड़ियाँ अलकोंमें गूँथी गयी हैं; वे ऐसी लगती हैं मानो सरस्वती और यमुनाकी धाराओंके मध्य (प्रयागके त्रिवेणी-संगमपर) गंगाकी धारा शोभा दे रही हो। ललाटपर गोरोचनका परम मनोहर तिलक लगा है, मानो उसने त्रिभुवनकी शोभाको और अधिक बढ़ा दिया है। खंजनके समान (चपल एवं कजरारे) दोनों नेत्रोंके मध्यमें नासिका ऐसी शोभित है मानो दो खंजन पक्षी लड़ाई कर रहे हों और उनकी वह लड़ाई दूर करनेके लिये उन्हें समझाने उनके बीचमें आकर एक तोता बैठ गया है। नासिकाके बेसरमें चार रंगके मोती (मणि) शोभा दे रहे हैं; वे ऐसे लगते हैं जैसे (पुखराजरूप पीले) बृहस्पति, (नीलमरूप नीले) शनि तथा (मुक्तारूप उज्ज्वल) शुक्र एकत्र होकर (हीरेके रूपमें प्रकाशित) सूर्यके द्वारपर आ गये हैं। सुन्दर कुण्डल कपोलोंपर शोभा दे रहे हैं और उनकी ज्योति गण्डस्थल (कर्णपल्लीके नीचे) झलमलाती है; वह ऐसी लगती है मानो कमलके ऊपर सूर्यकी तीक्ष्ण किरणें पड़ रही हों। ओष्ठ लाल-लाल हैं, मुसकराते समय सुन्दर ठुड्डी और दन्तपंक्ति इस प्रकार दमक उठती है मानो एक समान बोये अनारके बीजोंको चन्द्रमा अत्यन्त प्रेमसे अमृतसे सींच रहा हो। कठुलेके मध्य हीरा तथा अनेक मणियों एवं मोतियोंके हार इस प्रकार शोभित हो रहे हैं मानो सभी नक्षत्र-मण्डल ध्रुवताराकी अनेक बार प्रदक्षिणा कर रहे हैं। (करमें) रत्नजटित कंकण, (भुजामें) बाजूबंद और (अँगुलियोंमें) मणिजटित अँगूठियाँ इस प्रकार सजी हैं मानो कामदेवरूपी वृक्षकी बड़ी-छोटी सभी शाखाएँ हों। इस छटाको देख-देखकर मन मोहित होता है। शरीरके मध्य-भाग कटिकी करधनीका रुनझुन-शब्द सुनकर (दूसरे हंसकी ध्वनिके भ्रमसे) हंस कूदने लगते हैं। चरणोंमें नूपुरका शब्द होता है और लाल रंगकी जूतियाँ हैं—इनकी उपमा भला, कौन सोच सकता है। माता सब वस्त्राभूषणोंसे शृंगार करके प्यार करती है तथा श्रीरामचन्द्रकी रूप-माधुरी देखकर फिर उसे दर्पणमें देखती है और उन्हें भी (दर्पण) दिखलाती है। सुखनिधान श्रीराम दर्पणमें अपना प्रतिबिम्ब देखकर हँस देते हैं। उनकी भाँति ही सजे हुए लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न भी उनके आस-पास ही खेलते हुए घूमते हैं। महाराज दशरथ स्नान करके अपने भवनमें जब भोजन करने बैठे (तब बोले—) ‘श्रीराम-लक्ष्मणको शीघ्र यहाँ ले आओ।’ (पिताकी बात) सुनकर सुखधाम चारों भाई आ गये और पिताके साथ बैठकर भोजन करने लगे। महाराज दशरथ स्वयं भोजन करते हैं तथा अत्यन्त आनन्दसे प्रेमपूर्वक छोटे-छोटे ग्रास श्रीरामके मुखमें डालते हैं, श्रीराम भी पिताके मुखमें ग्रास देते हैं। यह बाल-क्रीडाका निर्मल परमानन्द सुख-समुद्र महाराज दशरथ प्राप्त कर रहे हैं। महाराज अपने अत्यन्त आनन्दनिधान चारों पुत्रोंके साथ घृतयुक्त दाल-भात, सुन्दर कढ़ी तथा नाना प्रकारके पकवानोंको आरोगते (भोजन करते) हैं। स्वयं आचमन करके कुमारोंको भी आचमन कराया। जब महाराजने पानका बीड़ा ले लिया, तब श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न सभीने स्वयं फिरसे आचमन किया और फिर चारों भाई पानके बीड़े खाकर एक साथ खेलने चले। बराबरीकी अवस्थावाले सभी सखा आकर साथ मिल गये, फिर सब सरयूकिनारे आये। (वहाँ) बाण चलाते हैं, (बाण-विद्या सीखनेवाले छोटे बालकरूपी) शिष्योंको शिक्षा देते हैं; निशान रखकर (उसका वेध) दिखलाते हैं। कभी स्वयं शिक्षित घोड़ेपर चढ़कर उसे अनेक प्रकारसे नचाते हैं। कभी चारों भाई एक साथ आखेटके लिये जाकर अत्यन्त आनन्द पाते हैं, वहाँ मृग तथा अनेक प्रकारके बहुत-से वन्य पशुओंको मारकर उन्हें अपने वैकुण्ठ-धाम भेज देते हैं। इस प्रकार श्रीरामने वनों तथा उपवनोंमें बहुत सुखदायक क्रीडा की। कृपा करके महर्षि वाल्मीकिने उनका वर्णन किया है; उसमेंसे कुछ थोड़ीका गान सूरदास कर रहा है। सायंकाल होनेपर माताएँ पुकारने लगती हैं—‘चारों भाई कहाँ गये? हमारे लालोंको भूख लगी होगी! उन्हें शीघ्र बुला लाओ।’ इसी बीच चारों भाई एक साथ अपने भवनमें आ गये। परम मनोहर माता कौसल्या उनके मुखका चुम्बन करती हैं तथा उनकी आरती उतारती हैं। माता सुमित्रा तथा कैकेयी भी अनेक प्रकारसे उन्हें प्यार करती और सुखका अनुभव करती हैं। मधु, मेवे, पकवान तथा मिठाइयाँ अपने हाथों उन्हें खिलाती हैं। फिर माताने चारों भाइयोंको थका हुआ समझकर शयन करा दिया। माता कुछ मधुर स्वरसे गाती हुई अपनी सुध-बुध भूलकर चरण दबाने लगीं। श्रीरामको निद्रा आ गयी, उनकी दिनकी थकावट दूर हो गयी और विश्राम प्राप्त हुआ। प्रातःकाल होनेपर जब वे रोने लगे, तब दौड़कर माताने गलेसे लगा लिया।
विश्वामित्र-यज्ञ-रक्षा
विषय (हिन्दी)
(२०३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिस्वामित्र बड़े मुनि कहियत, यज्ञ करत निज धाम।
मारिच और सुबाहु महासुर, बिघन करत दिन-जाम॥
परब्रह्म-अवतार जानि कै, आए नृप के पास।
दसरथ राय बहुत पूजा-बिधि, किए प्रसन्न हुलास॥
भोजन कर जबहीं जु बिराजे, तब भाष्यौ मुनिराय।
यज्ञ सफल कीजै मेरौ, अब दीजै राम पठाय॥
तब नृप कह्यौ राम हैं बालक, मोकौं आज्ञा कीजै।
तब दुज कह्यौ राम परमेस्वर, बचन मान यह लीजै॥
गुरु बसिष्ठ सब बिधि समुझाए , राम-लखन सँग दीन्हे।
मारग मैं अहल्या उद्धारी, नावक निज पद छीने॥
बिस्वामित्र सिखाई बहु बिधि, बिद्या धनुष प्रकार।
मारग मैं ताड़का जु आई, धाई बदन पसार॥
छिन मैं राम तुरत सो मारी, नैंक न लागी बार।
दीनी मुक्ति जानि निज महिमा, आए ऋषि के द्वार॥
कीन्हे बिप्र-जज्ञ परिपूरन, असुर बिघन कों आए।
अगनि-बान कर दहन कियौ है, एक समुद्र पठाए॥
मूल
बिस्वामित्र बड़े मुनि कहियत, यज्ञ करत निज धाम।
मारिच और सुबाहु महासुर, बिघन करत दिन-जाम॥
परब्रह्म-अवतार जानि कै, आए नृप के पास।
दसरथ राय बहुत पूजा-बिधि, किए प्रसन्न हुलास॥
भोजन कर जबहीं जु बिराजे, तब भाष्यौ मुनिराय।
यज्ञ सफल कीजै मेरौ, अब दीजै राम पठाय॥
तब नृप कह्यौ राम हैं बालक, मोकौं आज्ञा कीजै।
तब दुज कह्यौ राम परमेस्वर, बचन मान यह लीजै॥
गुरु बसिष्ठ सब बिधि समुझाए , राम-लखन सँग दीन्हे।
मारग मैं अहल्या उद्धारी, नावक निज पद छीने॥
बिस्वामित्र सिखाई बहु बिधि, बिद्या धनुष प्रकार।
मारग मैं ताड़का जु आई, धाई बदन पसार॥
छिन मैं राम तुरत सो मारी, नैंक न लागी बार।
दीनी मुक्ति जानि निज महिमा, आए ऋषि के द्वार॥
कीन्हे बिप्र-जज्ञ परिपूरन, असुर बिघन कों आए।
अगनि-बान कर दहन कियौ है, एक समुद्र पठाए॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्रजी बड़े (प्रसिद्ध) मुनि कहे जाते हैं, वे अपने आश्रममें यज्ञ किया करते थे; किंतु महान् (बलवान्) राक्षस मारीच और सुबाहु उसमें रात-दिन विघ्न करते थे। परब्रह्म परमात्माका अवतार हो गया, यह समझकर वे मुनि महाराज दशरथके पास आये। महाराज दशरथने अत्यन्त प्रसन्नता और उल्लाससे बहुत प्रकारसे उनकी पूजा की। जब मुनिराज भोजन करके (आसनपर) बैठ गये, तब बोले—‘आप श्रीरामको मेरे साथ भेजकर अब मेरे यज्ञको सफल कर दें।’ तब महाराजने कहा—‘श्रीराम तो अभी बालक हैं, आप (यह कार्य करनेकी) मुझे आज्ञा दें।’ इसपर मुनिने कहा—‘आप मेरी यह बात मान लें कि श्रीराम साक्षात् परमेश्वर हैं।’ कुलगुरु महर्षि वसिष्ठने (भी महाराजको) बहुत प्रकारसे समझाया, तब उन्होंने श्रीराम-लक्ष्मणको साथ कर दिया। मार्गमें श्रीरामने अपने चरणरूपी (भवसागरकी) नौकाका स्पर्श कराकर अहल्याका उद्धार किया। महर्षि विश्वामित्रने अनेक प्रकारकी धनुर्विद्याकी शिक्षा दी। मार्गमें ही मुख फैलाकर दौड़ती हुई ताड़का राक्षसी आयी; किंतु श्रीरामने उसे एक ही क्षणमें मार दिया, उन्हें थोड़ी भी देर नहीं लगी। अपने माहात्म्यको समझकर उसे (प्रभुने) मोक्ष प्रदान किया और महर्षिके आश्रमपर आये। वहाँ विप्रोंके यज्ञको परिपूर्ण किया; उस यज्ञमें विघ्न करने जो राक्षस आये, उनमेंसे एक (मारीच)-को (बाण मारकर) समुद्रके पास भेज (फेंक) दिया और शेषको अग्निबाणसे भस्म कर दिया।
सीता-स्वयंवर
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२०४)
जनक बिदेह कियौ जु स्वयंबर, बहु नृप-बिप्र बुलाए।
तोरन धनुष देव त्र्यंबक कौ, काहू जतन न पाए॥
बिस्वामित्र मुनि बेगि बुलाए , सकल सिष्य लै संग।
राम-लखन सँग लिए आपने, चले प्रेम-रस रंग॥
जहँ-तहँ उझकि झरोखा झाँकत, जनक-नगर की नार।
चितवनि कृपा राम अवलोकत, दीन्हौ सुख जो अपार॥
कियौ सनमान बिदेह नृपति ने उपबन बासी कीन्हौ।
देखन राम चले तिहि पुर कौं, सुख सबहिन कौं दीन्हौ॥
सब पुर देखि, धनुष-पुर देख्यौ, देखे महल सुरंग।
अदभुत नगर बिदेह बिलोकत, सुख पायौ सब अंग॥
कहत नारि सब जनक-नगर की, बिधि सौं गोद पसार।
सीताजू कौं बर यह चहियै, है जोरी सुकुमार॥
अपने धाम फिर तब दोउ आए , जान भई कछु साँझ।
कर दंडवत, परसि पद ऋषि के, बैठे उपबन माँझ॥
संध्या भई कृत्य नित करिकै कीन्ही ऋषि परनाम।
पौढ़े जाय चरन-सेवा दुज, कर कै अति बिसराम॥
ब्रह्म-मुहूरत भयौ सबेरौ, जागे दोऊ भाई।
कर परनाम देव-गुरु-दुज कौं, जल सौं स्नान कराई॥
आए भूप देस-देसन के, जुरी सभा अति भारी।
तहाँ बुलाए सकल दुजन कौं, जनक-सभा मंझारी॥
कौसिक मुनि तहँ छबि सौं पधारे, लिए सिष्य सँग सात।
चले नित्य आह्निक सब कर दुज, उर आनँद न समात॥
दोनौं भ्रात संग मैं लीन्हे, आए राज-दुवार।
जहँ बैठे सब भूप ओप सों, बाढॺौ गरब अपार॥
अपने-अपने भुज-बल तोलत, तोरन धनुष पुरार।
कछु नहिं चलत खिसाय गए सब, रहे बहुत पचि हार॥
सीता कहत सहेलिन सौं पुनि, यही कहत रघुनंद।
तब उन कह्यौ सकल सुखसागर, सो ये परमानंद॥
बार-बार जिय सोच करत है, बिधि सौं बचन उचारी।
मन-क्रम-बचन यहै बर दीजौ, माँगत गोद पसारी॥
एक बार सुर देबी पूजत, भयौ दरस सखि! मोहि।
ता दिन तैं छिन कल न परत है, सत्य कहत हौं तोहिं॥
सब नृप पचे, धनुष नहिं टूटॺौ, तब बिदेह दुख पायौ।
क्रोध बचन करि सब सैं बोले, छत्री कोउ न रहायौ॥
यह सुनि लछिमन भए क्रोध-जुत, विषम बचन यौं बोले।
सूरजबंस नृपति भूतल पर, जाके बल बिन तोले॥
कितिक बात यह धनुष रुद्र कौ, सकल बिस्व कर लैहौं।
आज्ञा पाय देव रघुपति की, छिनक माँझ हठ गैहौं॥
सब के मन कौ देख अँदेसौ, सीता आरत जानी।
रामचंद्र तबहीं अकुलाने, लीन्हौ सारंग पानी॥
छिन मैं कर लै कै जु चढ़ायौ, देखत ही सब भूप।
डारॺौ तोर अघात शब्द भयौ, जैसैं काल कौ रूप॥
सब ही दिसा भई अति आतुर, परसुराम सुनि पायौ।
परसु सम्हार सिष्य सँग लैकै, छिन ही मैं तहँ आयौ॥
जैजैकार भयौ जगती पर, जनकराज अति हरषे।
सुर बिमान सब कौतुक भूले, जै-धुनि सुमनन बरषे॥
मूल
(२०४)
जनक बिदेह कियौ जु स्वयंबर, बहु नृप-बिप्र बुलाए।
तोरन धनुष देव त्र्यंबक कौ, काहू जतन न पाए॥
बिस्वामित्र मुनि बेगि बुलाए , सकल सिष्य लै संग।
राम-लखन सँग लिए आपने, चले प्रेम-रस रंग॥
जहँ-तहँ उझकि झरोखा झाँकत, जनक-नगर की नार।
चितवनि कृपा राम अवलोकत, दीन्हौ सुख जो अपार॥
कियौ सनमान बिदेह नृपति ने उपबन बासी कीन्हौ।
देखन राम चले तिहि पुर कौं, सुख सबहिन कौं दीन्हौ॥
सब पुर देखि, धनुष-पुर देख्यौ, देखे महल सुरंग।
अदभुत नगर बिदेह बिलोकत, सुख पायौ सब अंग॥
कहत नारि सब जनक-नगर की, बिधि सौं गोद पसार।
सीताजू कौं बर यह चहियै, है जोरी सुकुमार॥
अपने धाम फिर तब दोउ आए , जान भई कछु साँझ।
कर दंडवत, परसि पद ऋषि के, बैठे उपबन माँझ॥
संध्या भई कृत्य नित करिकै कीन्ही ऋषि परनाम।
पौढ़े जाय चरन-सेवा दुज, कर कै अति बिसराम॥
ब्रह्म-मुहूरत भयौ सबेरौ, जागे दोऊ भाई।
कर परनाम देव-गुरु-दुज कौं, जल सौं स्नान कराई॥
आए भूप देस-देसन के, जुरी सभा अति भारी।
तहाँ बुलाए सकल दुजन कौं, जनक-सभा मंझारी॥
कौसिक मुनि तहँ छबि सौं पधारे, लिए सिष्य सँग सात।
चले नित्य आह्निक सब कर दुज, उर आनँद न समात॥
दोनौं भ्रात संग मैं लीन्हे, आए राज-दुवार।
जहँ बैठे सब भूप ओप सों, बाढॺौ गरब अपार॥
अपने-अपने भुज-बल तोलत, तोरन धनुष पुरार।
कछु नहिं चलत खिसाय गए सब, रहे बहुत पचि हार॥
सीता कहत सहेलिन सौं पुनि, यही कहत रघुनंद।
तब उन कह्यौ सकल सुखसागर, सो ये परमानंद॥
बार-बार जिय सोच करत है, बिधि सौं बचन उचारी।
मन-क्रम-बचन यहै बर दीजौ, माँगत गोद पसारी॥
एक बार सुर देबी पूजत, भयौ दरस सखि! मोहि।
ता दिन तैं छिन कल न परत है, सत्य कहत हौं तोहिं॥
सब नृप पचे, धनुष नहिं टूटॺौ, तब बिदेह दुख पायौ।
क्रोध बचन करि सब सैं बोले, छत्री कोउ न रहायौ॥
यह सुनि लछिमन भए क्रोध-जुत, विषम बचन यौं बोले।
सूरजबंस नृपति भूतल पर, जाके बल बिन तोले॥
कितिक बात यह धनुष रुद्र कौ, सकल बिस्व कर लैहौं।
आज्ञा पाय देव रघुपति की, छिनक माँझ हठ गैहौं॥
सब के मन कौ देख अँदेसौ, सीता आरत जानी।
रामचंद्र तबहीं अकुलाने, लीन्हौ सारंग पानी॥
छिन मैं कर लै कै जु चढ़ायौ, देखत ही सब भूप।
डारॺौ तोर अघात शब्द भयौ, जैसैं काल कौ रूप॥
सब ही दिसा भई अति आतुर, परसुराम सुनि पायौ।
परसु सम्हार सिष्य सँग लैकै, छिन ही मैं तहँ आयौ॥
जैजैकार भयौ जगती पर, जनकराज अति हरषे।
सुर बिमान सब कौतुक भूले, जै-धुनि सुमनन बरषे॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदेह महाराज जनकने (अपनी पुत्री श्रीजानकीजीका) स्वयंवर किया था और (उसके लिये) बहुत-से राजाओं तथा ब्राह्मणोंको निमन्त्रित किया था; लेकिन कोई भी किसी उपायसे देवदेवेश श्रीशंकरजीका धनुष तोड़ नहीं सका। (महाराजने) अपने समस्त शिष्योंको साथ लेकर शीघ्र आनेके लिये महर्षि विश्वामित्रको (भी) आमन्त्रित किया। अनुरागके रंगमें निमग्न महर्षि श्रीराम-लक्ष्मणको अपने साथ लेकर चल पड़े। (जनकपुर पहुँचनेपर) जनकपुरीकी नारियाँ स्थान-स्थानपर खिड़कियोंसे झुक-झुककर श्रीरामको देखने लगीं। कृपापूर्वक उनकी ओर देखकर श्रीरामने भी उन्हें अपार आनन्द दिया। महाराज जनकने सबका सम्मान किया और उन्हें उपवनमें ठहराया। (वहाँसे) श्रीराम नगरको देखने गये और सभी (नगरवासियों)-को आनन्दित किया। पूरा नगर देखकर धनुष-यज्ञका मण्डप देखा तथा सुन्दर रंगके राजभवन देखे। महाराज जनकके अद्भुत नगरको देखकर श्रीरामने सभी अंगोंसे (भली प्रकार) सुख पाया। जनकपुरीकी सभी नारियाँ ब्रह्मासे अंचल फैलाकर कहने (प्रार्थना करने) लगीं—‘श्रीसीताजीको यही वर मिलना चाहिये। ये सुकुमार ही उनकी योग्य जोड़ी हैं।’ फिर दोनों भाई कुछ संध्या हुई समझकर अपने निवास स्थानपर लौट आये। वहाँ महर्षिको दण्डवत् प्रणाम करके उनके चरण छूकर (मुनियोंकी) सभामें बैठ गये। संध्या हो जानेपर नित्यकर्म करके फिर महर्षिको प्रणाम किया; फिर मुनिकी चरण सेवा (चरण दबानेकी सेवा) करके तब जाकर सोये और सुखपूर्वक विश्राम किया। प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त होते ही दोनों भाई जाग गये। देवताओं, गुरु विश्वामित्र तथा (साथके) ब्राह्मणों (मुनियों)-को प्रणाम करके स्वच्छ जलमें उन्होंने स्नान किया। (उधर) देश-देशके राजा आये हुए थे। स्वयंवर-सभामें भारी भीड़ एकत्र हो गयी थी। महाराज जनकने वहाँ सभामें आनेके लिये सभी ब्राह्मणोंको आमन्त्रित किया। अपने साथ सात शिष्योंको लेकर महर्षि विश्वामित्र भी बड़ी शोभाके साथ वहाँ आये। सभी ब्राह्मण दैनिक पूजनादि कर्म करके वहाँ आये, उनके हृदयमें आनन्द समाता नहीं था। (महर्षि विश्वामित्र) दोनों भाइयों (श्रीराम-लक्ष्मण)-को साथ लिये उस राजसभामें आये, जहाँ अपार गर्वसे गर्विष्ठ हुए सब नरेश बड़ी छटासे बैठे थे। वे सभी शंकरजीका धनुष तोड़नेके लिये अपनी-अपनी भुजाओंका बल आजमा रहे थे; किंतु बहुत श्रम करके थक गये, उनकी एक भी चली नहीं, इससे खीझकर लौट गये। श्रीजानकीजी (उसी समय) सखियोंसे पूछने लगीं—‘ये ही श्रीरघुनाथ कहे जाते हैं?’ तब उन सखियोंने कहा—‘ये समस्त सुखोंके सागर परमानन्दस्वरूप हैं।’ बार-बार वे (श्रीजानकी) हृदयमें चिन्ता करने लगीं। ब्रह्मा (भाग्य-विधाता)-से प्रार्थना करने लगीं—‘मैं अंचल फैलाकर माँगती हूँ कि मन, वाणी, कर्म—(सभी प्रकार सच्चे भाव)-से यही पति आप मुझे दें।’ (फिर सखियोंसे बोलीं—) ‘सखी! तुमसे सच कहती हूँ, एक बार देवताओं तथा देवीका पूजन करते समय मुझे इनका दर्शन हुआ, उसी समयसे एक क्षणके लिये भी मुझे शान्ति नहीं मिल रही है।’ सब नरेश चेष्टा करके थक गये, (फिर भी) धनुष नहीं टूटा, तब महाराज जनकको बड़ा दुःख हुआ; वे क्रोधपूर्वक सबसे बोले—‘अब कोई क्षत्रिय (संसारमें) रहा ही नहीं।’ यह सुनते ही लक्ष्मणजी क्रोधित हो गये और यह कठोर वाणी बोले—‘महाराज! इस पृथ्वीपर ही सूर्यवंश भी है, जिसके बलकी कोई तुलना ही नहीं है। यदि श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा पा जाऊँ तो यह शंकरजीका धनुष तो किस गणनामें है; मैं एक क्षणमें बलपूर्वक पूरे विश्वको हाथमें उठा लूँगा।’ सबके मनका सन्देह समझकर तथा श्रीसीताजीको आर्त (व्याकुल) समझकर श्रीरामचन्द्र उसी समय उठे और शीघ्रतासे धनुषको हाथमें उठा लिया, समस्त नरेशोंके देखते-देखते हाथमें धनुष लेकर (डोरी) चढ़ा दी और (खींचकर) उसे तोड़ दिया। उसके टूटनेका शब्द इतना भयंकर हुआ मानो महाकालकी गर्जना हो। उससे सम्पूर्ण दिशाएँ अत्यन्त आकुल हो गयीं। उस शब्दको परशुरामजीने भी सुना, इससे (अपना) परशु (फरसा) सँभाले शिष्योंको साथ लेकर (योगबलसे) क्षणभरमें वहाँ आ गये। संसारमें (सब कहीं) जय-जयकार होने लगा। महाराज जनकको बड़ा हर्ष हुआ। विमानोंपर बैठे देवता सब कुतूहल (आकाश-विहार) भूल गये और ‘जय हो, जय हो!’ कहते हुए पुष्पोंकी वर्षा करने लगे।
चारों भाइयोंका विवाह
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२०५)
जनकराज तब बिप्र पठाए , बेग बरात बुलाई।
दसरथ राज बाजि-गज लैकै, सबही सौंज-तुराई॥
चली बरात बिपुल धन लैकै, जुरे मनुज नहिं पार।
सोभा सिंधु कहत नहिं आवै, बरनन करत उचार॥
गुरु बसिष्ठ मुनि लगन दियौ सुभ, सुभ नछत्र, सुभ बार।
आए जान नृपति सनमाने, कीन्हीं अति मनुहार॥
ब्याह-केलि सुख बरनन कीन्हौ, मुनि बाल्मीकि अपार।
सो सुख ‘सूर’ कह्यौ वो कीरति, जगत करी बिस्तार॥
बेद-सास्त्र मथ करी ब्याह-बिधि, सोइ कीन्हीं नृपराय।
राम-लखन अरु भरत-सत्रुहन, चारौं दिए बिबाह॥
होम, हवन, दुज-पूजा, गनपति, सूरज, सक्र, महेस।
दीन्हौ दान बहुत बिप्रन कौं, राजा मिथिल-नरेश॥
उतसव भयौ परम आनँद कौ, बहुत दायजौ दीन्हौ।
भए बिदा दसरथ नृप नृप सौ, गमन अवधपुर कीन्हौ॥
मूल
(२०५)
जनकराज तब बिप्र पठाए , बेग बरात बुलाई।
दसरथ राज बाजि-गज लैकै, सबही सौंज-तुराई॥
चली बरात बिपुल धन लैकै, जुरे मनुज नहिं पार।
सोभा सिंधु कहत नहिं आवै, बरनन करत उचार॥
गुरु बसिष्ठ मुनि लगन दियौ सुभ, सुभ नछत्र, सुभ बार।
आए जान नृपति सनमाने, कीन्हीं अति मनुहार॥
ब्याह-केलि सुख बरनन कीन्हौ, मुनि बाल्मीकि अपार।
सो सुख ‘सूर’ कह्यौ वो कीरति, जगत करी बिस्तार॥
बेद-सास्त्र मथ करी ब्याह-बिधि, सोइ कीन्हीं नृपराय।
राम-लखन अरु भरत-सत्रुहन, चारौं दिए बिबाह॥
होम, हवन, दुज-पूजा, गनपति, सूरज, सक्र, महेस।
दीन्हौ दान बहुत बिप्रन कौं, राजा मिथिल-नरेश॥
उतसव भयौ परम आनँद कौ, बहुत दायजौ दीन्हौ।
भए बिदा दसरथ नृप नृप सौ, गमन अवधपुर कीन्हौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज जनकने तब (अयोध्या) ब्राह्मण भेजे और शीघ्र बारात लानेका आमन्त्रण दिया। महाराज दशरथ शीघ्रतापूर्वक घोड़े, हाथी तथा सभी साज-सामान लेकर, अपार सम्पत्तिके साथ बारात सजाकर चले। (बारातमें) इतने मनुष्य एकत्र हुए कि उनका कोई पार नहीं। उस शोभाके समुद्रका वर्णन वाणीके द्वारा हो ही नहीं सकता। कुलगुरु वसिष्ठजीने शुभ नक्षत्र तथा शुभ दिन देखकर शुभ लग्न निश्चित कया। महाराज दशरथको आया देखकर जनकजीने उनका आदर किया तथा अनेक प्रकारसे स्वागत-सत्कार किया। श्रीवाल्मीकि मुनिने इस ब्याह-क्रीडाके अपार आनन्दका वर्णन किया है। सूरदास उसी आनन्दका वर्णन करते हैं—वह (श्रीरामकी) कीर्ति तो संसारमें स्वतः फैली हुई है। वेद और शास्त्रोंका मन्थन करके (ऋषियोंने)जो विवाह-पद्धति निश्चित की है, महाराज जनकने उसी विधिका पालन किया। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न इन चारों कुमारोंका विवाह कर दिया। श्रीमिथिलानरेशने यज्ञ, हवन, ब्राह्मणपूजन, गणपति, सूर्य, इन्द्र तथा शंकर आदि देवताओंका पूजन करके ब्राह्मणोंको बहुत अधिक दान दिया। यह परम आनन्ददायी महोत्सव हुआ तथा (जनकजीने) बहुत दहेज दिया। तब महाराज दशरथने महाराज जनकसे विदा लेकर अयोध्याके लिये प्रस्थान किया।
परशुराम-समाधान
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२०६)
भृगुपति आए जानि जब रघुपति, मिले धाय सिर नाय।
दसरथ राय बिनय बहु कीनी, जिय मैं अति डरपाय॥
तब मुनि कह्यौ धनुष क्यौं तोरेउ, रुद्र परम गुरु मेरे।
रामचंद्र पूरन पुरुषोत्तम, नैक नयन जब हेरे॥
लीन्हौ अंस खैंचि भृगुपति कौ, अपने रूप समायौ।
करौ जाय तप सैल महेंद्र पैं, सुनि मुनिबर सिर नायौ॥
मूल
(२०६)
भृगुपति आए जानि जब रघुपति, मिले धाय सिर नाय।
दसरथ राय बिनय बहु कीनी, जिय मैं अति डरपाय॥
तब मुनि कह्यौ धनुष क्यौं तोरेउ, रुद्र परम गुरु मेरे।
रामचंद्र पूरन पुरुषोत्तम, नैक नयन जब हेरे॥
लीन्हौ अंस खैंचि भृगुपति कौ, अपने रूप समायौ।
करौ जाय तप सैल महेंद्र पैं, सुनि मुनिबर सिर नायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मार्गमें) परशुरामजीको आया जानकर श्रीरघुनाथजी दौड़कर उनसे मिले और मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। महाराज दशरथने हृदयमें बहुत डरते हुए अनेक प्रकारसे प्रार्थना की। तब परशुरामजीने कहा—‘भगवान् शंकर तो मेरे परम गुरु हैं, (तुमने उनका) धनुष क्यों तोड़ा?’ (यह सुनकर) पूर्ण-पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजीने तनिक आँखोंकी कोरसे देखकर परशुरामजीका (भगवदीय) अंश खींचकर अपने स्वरूपमें लीन कर लिया। (और बोले—) ‘अब आप जाकर महेन्द्र पर्वतपर तपस्या करें।’ यह सुनकर मुनि परशुरामजीने (आज्ञा स्वीकार करते हुए) मस्तक झुका दिया।
अयोध्या-आगमन
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२०७)
अति आनंद अयोध्या आए , कियौ नगर-शृंगार।
कदली खंभ, चौक मोतिन के, बाँधी बंदनवार॥
कियौ प्रबेस राजभवनन मैं, रामचंद्र सुखरास।
अदभुत भवन बिराजत रतनन, सूरज कोटि प्रकास॥
द्वादस बरष बिराजे वा थल, फिर भू-भार हरौ।
कैकइ-बचन प्रमान किये नृप, तब यह काज करौ॥
मूल
(२०७)
अति आनंद अयोध्या आए , कियौ नगर-शृंगार।
कदली खंभ, चौक मोतिन के, बाँधी बंदनवार॥
कियौ प्रबेस राजभवनन मैं, रामचंद्र सुखरास।
अदभुत भवन बिराजत रतनन, सूरज कोटि प्रकास॥
द्वादस बरष बिराजे वा थल, फिर भू-भार हरौ।
कैकइ-बचन प्रमान किये नृप, तब यह काज करौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(महाराज दशरथ) अत्यन्त आनन्दपूर्वक अयोध्या आ गये। नगर खूब सजाया गया था। (स्थान-स्थानपर) केलेके खंभे लगे थे, मोतियोंसे चौक बनाये गये थे, बन्दनवार बँधी थी। सुखराशि श्रीरामचन्द्रजीने (सजे हुए नगरमें आकर) राजभवनमें प्रवेश किया। वह अद्भुत राजभवन रत्नोंकी जगमगाहटसे करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान होता शोभा दे रहा था। बारह वर्ष (प्रभु) वहाँ विराजमान रहे। फिर जब महाराज दशरथने रानी कैकेयीके वचन (वरदान)-को प्रमाणित किया (माना), तब पृथ्वीके भारको दूर करनेका कार्य श्रीरामने किया।
वनवास-लीला
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२०८)
बचन समझ नृप आज्ञा कीन्ही, देव उपाय करौ।
रामचंद्र पितु-आज्ञा मानी, जिय मैं बचन धरौ॥
यह भू-भार उतारन रघुपति, बहुत ऋषिन सुख दैन।
बनोबास कौं चले सिया सँग, सुख-निधि राजिव-नैन॥
मारग मैं हरि कृपा करी है, परम भक्त इक जान।
तहँ तैं गए जु चित्रकूट कौं, जहाँ मुनिन की खान॥
बालमीकि मुनि बसत निरंतर, राम-मंत्र उच्चार।
ताकौ फल यह आज भयौ मोहि, दरसन दियौ कुमार॥
पूजा करि पधराय भवन मैं, रामचंद्र परनाम।
कियौ बिबिध बिधि पूजा करि कै, ऋषि-चरनन सिर नाम॥
बहुत दिवस लौं बसे जगत-गुरु, चित्रकूट निज धाम।
किए सनाथ बहुत मुनि-कुल कौं, बहु बिधि पूरे काम॥
भरत जान जिय मैं रघुपति कौ दुःसह परम बियोग।
आए धाम संग सब लैकै, पुरबासी, गृह लोग॥
बिन दसरथ सब चले तुरत ही कोसलपुर के बासी।
आए , रामचंद्र-मुख देख्यौ, सब की मिटी उदासी॥
रामचंद्र पुनि सब जन देखे, पिता न देखन पाए।
पूछी बात, कह्यौ तब काहू, मन बहु बिधि बिलखाए॥
बेद-रीति करि रघुपति सब बिधि, मरजादा अनुसार।
बहुत भाँति सब बिधि समुझाए , भरत करी मनुहार॥
गुरु बसिष्ठ मुनि कह्यौ भरत सौं राम ब्रह्म-अवतार।
बन मैं जाय बहुत मुनि तारैं, दूर करैं भुव-भार॥
पुनि निज बिस्वरूप जो अपुनौ, सो हरि जाय दिखायौ।
आज्ञा पाय चले निज पुर कौं, प्रभुहि गीत समुझायौ॥
कछु दिन बसे जु चित्रकूट मैं, रामचंद्र सह भ्रात।
तहाँ तैं चले दंडकाबन कौं, सुखनिधि साँवलगात॥
मारग मैं बहु मुनि-जन तारे, अरु बिराध रिपु मारे।
बंदन कर सरभंग महामुनि, अपने दोष निवारे॥
दरसन दियौ सुतीच्छन गौतम, पंचबटी पग धार।
तहाँ दुष्ट सूर्पनखा नारी, करि बिन नाक उधार॥
यह सुनि असुर प्रबल दल आए , छिन मैं राम संहारे।
कीन्हे काज सकल सुर-मुनि के, भुब के भार उतारे॥
मुनि अगस्त्य आस्रम जु गए हरि, बहु बिधि पूजा कीन्ही।
दिब्य बसन दीने जब मुनि नैं, फिर यह आज्ञा दीन्ही॥
दसकंधर कौं बेगि सँहारौ, दूरि करौ भुब-भार।
लोपामुद्रा दिब्य बस्त्र लै, दीने जनक-कुमारि॥
सूर्पनखा जब जाय पुकारी, नाक-कान लै हात।
रावन क्रोध कियौ अति भारी, अधर फरक अति गात॥
गयौ मारीच आस्रमहिं, तबहीं, वानैं बहु समझायौ।
तब मारीच कह्यौ दसकंधर, बिनती बहुत करायौ॥
रामचंद्र अवतार कहत हैं, सुनि नारद मुनि पास।
प्रगट भए निसिचर मारन कौं, सुनि वो भयौ उदास॥
कर गहि खडग, तोर बध करिहौं, सुनि मारिच डर मान्यौ।
रामचंद्र के हाथ मरुँगौं, परम पुरुष-फल जान्यौ॥
मूल
(२०८)
बचन समझ नृप आज्ञा कीन्ही, देव उपाय करौ।
रामचंद्र पितु-आज्ञा मानी, जिय मैं बचन धरौ॥
यह भू-भार उतारन रघुपति, बहुत ऋषिन सुख दैन।
बनोबास कौं चले सिया सँग, सुख-निधि राजिव-नैन॥
मारग मैं हरि कृपा करी है, परम भक्त इक जान।
तहँ तैं गए जु चित्रकूट कौं, जहाँ मुनिन की खान॥
बालमीकि मुनि बसत निरंतर, राम-मंत्र उच्चार।
ताकौ फल यह आज भयौ मोहि, दरसन दियौ कुमार॥
पूजा करि पधराय भवन मैं, रामचंद्र परनाम।
कियौ बिबिध बिधि पूजा करि कै, ऋषि-चरनन सिर नाम॥
बहुत दिवस लौं बसे जगत-गुरु, चित्रकूट निज धाम।
किए सनाथ बहुत मुनि-कुल कौं, बहु बिधि पूरे काम॥
भरत जान जिय मैं रघुपति कौ दुःसह परम बियोग।
आए धाम संग सब लैकै, पुरबासी, गृह लोग॥
बिन दसरथ सब चले तुरत ही कोसलपुर के बासी।
आए , रामचंद्र-मुख देख्यौ, सब की मिटी उदासी॥
रामचंद्र पुनि सब जन देखे, पिता न देखन पाए।
पूछी बात, कह्यौ तब काहू, मन बहु बिधि बिलखाए॥
बेद-रीति करि रघुपति सब बिधि, मरजादा अनुसार।
बहुत भाँति सब बिधि समुझाए , भरत करी मनुहार॥
गुरु बसिष्ठ मुनि कह्यौ भरत सौं राम ब्रह्म-अवतार।
बन मैं जाय बहुत मुनि तारैं, दूर करैं भुव-भार॥
पुनि निज बिस्वरूप जो अपुनौ, सो हरि जाय दिखायौ।
आज्ञा पाय चले निज पुर कौं, प्रभुहि गीत समुझायौ॥
कछु दिन बसे जु चित्रकूट मैं, रामचंद्र सह भ्रात।
तहाँ तैं चले दंडकाबन कौं, सुखनिधि साँवलगात॥
मारग मैं बहु मुनि-जन तारे, अरु बिराध रिपु मारे।
बंदन कर सरभंग महामुनि, अपने दोष निवारे॥
दरसन दियौ सुतीच्छन गौतम, पंचबटी पग धार।
तहाँ दुष्ट सूर्पनखा नारी, करि बिन नाक उधार॥
यह सुनि असुर प्रबल दल आए , छिन मैं राम संहारे।
कीन्हे काज सकल सुर-मुनि के, भुब के भार उतारे॥
मुनि अगस्त्य आस्रम जु गए हरि, बहु बिधि पूजा कीन्ही।
दिब्य बसन दीने जब मुनि नैं, फिर यह आज्ञा दीन्ही॥
दसकंधर कौं बेगि सँहारौ, दूरि करौ भुब-भार।
लोपामुद्रा दिब्य बस्त्र लै, दीने जनक-कुमारि॥
सूर्पनखा जब जाय पुकारी, नाक-कान लै हात।
रावन क्रोध कियौ अति भारी, अधर फरक अति गात॥
गयौ मारीच आस्रमहिं, तबहीं, वानैं बहु समझायौ।
तब मारीच कह्यौ दसकंधर, बिनती बहुत करायौ॥
रामचंद्र अवतार कहत हैं, सुनि नारद मुनि पास।
प्रगट भए निसिचर मारन कौं, सुनि वो भयौ उदास॥
कर गहि खडग, तोर बध करिहौं, सुनि मारिच डर मान्यौ।
रामचंद्र के हाथ मरुँगौं, परम पुरुष-फल जान्यौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने उपाय किया (कैकेयीकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न करके श्रीरामके लिये वनवासका वरदान मँगवाया)। महाराज दशरथने भी अपने दिये हुए वचनोंका ध्यान करके आज्ञा दे दी। श्रीरामचन्द्रजीने हृदयसे पिताके वचनोंको स्वीकार करके उनकी आज्ञाका पालन किया और वे सुखनिधान कमललोचन श्रीरघुनाथ बहुत-से ऋषियोंको आनन्द देनेके लिये एवं पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये श्रीजानकीजीके साथ वनमें निवास करने चल पड़े। मार्गमें एक परमभक्त (केवट)-को पहचानकर उसपर प्रभुने कृपा की और फिर वहाँसे चित्रकूट गये, जहाँ मुनियोंका समुदाय निवास करता था। वहाँ निरन्तर श्रीराममन्त्रका जप करते हुए मुनि वाल्मीकि रहते थे। उन्होंने यह माना कि ‘उस निरन्तर जपका ही यह फल मुझे आज मिला है कि राजकुमार श्रीराम-लक्ष्मणने मुझे दर्शन दिया।’ श्रीरामचन्द्रजीको अपने आश्रममें ले जाकर उन्होंने पूजा की और अभिवादन किया। श्रीरघुनाथजीने भी अनेक प्रकारसे ऋषिकी पूजा (सत्कार)-की और उनके चरणोंमें प्रणाम किया। वे जगद्गुरु श्रीरघुनाथ अपने निजधाम चित्रकूटमें बहुत दिनोंतक रहे। मुनिकुलोंको उन्होंने सनाथ किया। (श्रीरामको पाकर) उन (मुनियों)-की इच्छाएँ सब प्रकार पूर्ण हो गयीं। श्रीभरतजी रघुनाथजीका वियोग परम दुस्सह समझकर (ननिहालसे) अयोध्या आये और वहाँसे महाराज दशरथके बिना (क्योंकि महाराज देहत्याग कर चुके थे) सभी अयोध्यानगरके निवासी नागरिकों एवं अपने परिवारके लोगोंको साथ लेकर तुरंत ही (चित्रकूटके लिये) चल पड़े। सब लोग चित्रकूट आ गये और वहाँ श्रीरामके श्रीमुखका दर्शन करके सबकी उदासी दूर हो गयी। श्रीरामचन्द्रजीने सब लोगोंको तो देखा, किंतु पिताके दर्शन नहीं हुए; इसका कारण उन्होंने पूछा। तब किसीने (महाराज दशरथके परलोकगमनका) संवाद कहा, इससे (प्रभु) मनसे बहुत ही दुःखी हुए और अनेक प्रकारसे विलाप करने लगे। श्रीरघुनाथजीने मर्यादाके अनुसार (पिताके लिये) सब वैदिक रीतिको पूर्ण किया। श्रीभरतजीने अनेक भाँतिसे सब प्रकार समझाया तथा (अयोध्या लौटनेके लिये) अनुनय-विनय की (किंतु श्रीराम अपने व्रतपर दृढ़ रहे)। कुलगुरु महर्षि वसिष्ठजीने भरतजीसे कहा—‘श्रीराम तो साक्षात् परब्रह्म हैं। इन्होंने (भू-भार हरणके लिये) अवतार धारण किया है। अतः ये वनमें निवास करते हुए बहुत-से मुनियोंका उद्धार करेंगे तथा पृथ्वीका भार दूर करेंगे।’ फिर श्रीरामने अपना जो विश्वरूप है, उसका सबको दर्शन कराया तथा सबको प्रभुने गीता (तत्त्वज्ञान)-का उपदेश देकर समझाया। इससे उनकी आज्ञा पाकर सब लोग अयोध्या लौट आये। श्रीरघुनाथजी भाई (लक्ष्मण)-के साथ कुछ दिन चित्रकूटमें रहे। फिर वे सुखनिधान श्यामशरीर वहाँसे दण्डकवनको चल पड़े। मार्गमें बहुत-से मुनिगणोंका उन्होंने उद्धार किया तथा शत्रुता करनेवाले विराध राक्षसको मारा। महामुनि शरभंगने उनकी वन्दना करके अपने सभी दोषोंको नष्ट कर दिया (और श्रीरामका दर्शन करते हुए देह त्यागकर परमपदको प्राप्त हुए)। प्रभुने मार्गमें गौतमगोत्रीय सुतीक्ष्ण मुनिको दर्शन दिया और फिर पंचवटी पधारे। वहाँपर शूर्पणखा नामक दुष्टा राक्षसी स्त्रीको बिना नाककी करके (नाक काटकर) उसका उद्धार किया (उसकी पाप-प्रवृत्तिको दूर किया)। यह समाचार पाकर (खर-दूषणादि) राक्षसोंके प्रबल दल (युद्ध करने) आये; किंतु श्रीरामने क्षणभरमें उनका संहार कर दिया। इस प्रकार देवताओं तथा मुनियोंके सब कार्य पूरे किये और पृथ्वीका भार दूर किया। वहाँसे जब श्रीराम महर्षि अगस्त्यके आश्रमपर गये, तब उन्होंने बहुत प्रकारसे सत्कार किया, दिव्य वस्त्र भेंट किया और यह आज्ञा दी—‘आप शीघ्र रावणका संहार करके पृथ्वीका भार दूर कर दें।’ (ऋषिपत्नी) लोपामुद्राजीने दिव्य वस्त्र लाकर श्रीजनकनन्दिनीजीको दिया। जब शूर्पणखाने हाथमें अपने कटे नाक-कान लेकर (लंकामें) जाकर पुकार की, तब रावणको बहुत अधिक क्रोधआया। उसके होठ फड़कने लगे, शरीर काँपने लगा। वह मारीचके आश्रमपर गया और उसे अनेक प्रकारसे (सीताहरणमें सहायक होनेके लिये) समझाने लगा। तब मारीचने रावणकी बहुत प्रार्थना की और कहा—‘श्रीरामचन्द्रजी अवतार कहे जाते हैं। देवर्षि नारदसे मैंने यह बात सुनी है। राक्षसोंका संहार करनेके लिये ही वे (पृथ्वीपर) प्रकट हुए हैं।’ यह सुनकर वह (रावण) उदास हो गया (और बोला—) ‘मैं हाथमें तलवार लेकर (स्वयं) तेरा वध करूँगा।’ यह सुनकर मारीच भयभीत हो गया, उसने इसीको परम पुरुषार्थ समझा कि (इस दुष्ट रावणके हाथों मरनेके बदले) ‘मैं श्रीरामके हाथों मरुँगा।’
सीता-हरण
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२०९)
कपट कुरंग-रूप धरि आयौ, सीता बिनती कीन्ही।
रामचंद्र कर सायक लैकै, मारन की बिधि कीन्ही॥
मारॺौ धनुष-बान लै ताकौं, लछिमन नाम पुकारॺौ।
लछिमन नाम सुनत तहँ आयौ, अवसर दुष्ट बिचारॺौ॥
धरि कै कपट बेस भिक्षुक कौ, दसकंधर तहँ आय।
हरि लीन्ही छिन मैं माया करि, अपनें रथ बैठाय॥
चल्यौ भाजि गोमायु-जंतु ज्यौं, लै केहरि कौ भाग।
इतनें रामचंद्र तहँ आये, परम पुरुष बड़ भाग॥
जब माया-सीता नहिं देखी, जिय मैं भए उदास।
पूछन लगे राम द्रुमगन सौं, बहुत बढ़ी दुख-रास॥
मारग मैं जटायु खग देख्यौ, बिकल भयौ तन-हीन।
बिनती करी राम! मैं तासौं, बहुत लड़ाई कीन॥
जब तन तज्यौ गृद्ध रघुपति तब, बहुत करम-बिधि कीनी।
जान्यौ सखा राय दसरथ कौ, अपनी निज गति दीनी॥
मारग मैं कबंध रिपु मारॺौ, सुरपति-काज सँवारॺौ।
पंपापुर हरि तुरत पधारे, जल कौ दोष निवारॺौ॥
मूल
(२०९)
कपट कुरंग-रूप धरि आयौ, सीता बिनती कीन्ही।
रामचंद्र कर सायक लैकै, मारन की बिधि कीन्ही॥
मारॺौ धनुष-बान लै ताकौं, लछिमन नाम पुकारॺौ।
लछिमन नाम सुनत तहँ आयौ, अवसर दुष्ट बिचारॺौ॥
धरि कै कपट बेस भिक्षुक कौ, दसकंधर तहँ आय।
हरि लीन्ही छिन मैं माया करि, अपनें रथ बैठाय॥
चल्यौ भाजि गोमायु-जंतु ज्यौं, लै केहरि कौ भाग।
इतनें रामचंद्र तहँ आये, परम पुरुष बड़ भाग॥
जब माया-सीता नहिं देखी, जिय मैं भए उदास।
पूछन लगे राम द्रुमगन सौं, बहुत बढ़ी दुख-रास॥
मारग मैं जटायु खग देख्यौ, बिकल भयौ तन-हीन।
बिनती करी राम! मैं तासौं, बहुत लड़ाई कीन॥
जब तन तज्यौ गृद्ध रघुपति तब, बहुत करम-बिधि कीनी।
जान्यौ सखा राय दसरथ कौ, अपनी निज गति दीनी॥
मारग मैं कबंध रिपु मारॺौ, सुरपति-काज सँवारॺौ।
पंपापुर हरि तुरत पधारे, जल कौ दोष निवारॺौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मारीच) कपटसे हरिणका रूप बनाकर (पंचवटी) आया। श्रीजानकीजीने (उसे मारनेकी) प्रार्थना की, इससे श्रीरघुनाथजीने बाण लेकर उसको मारनेकी तैयारी कर ली। धनुषपर बाण चढ़ाकर जब उसे मारा, तब (मरते समय) उसने लक्ष्मणका नाम लेकर पुकार की। अपना नाम सुनकर लक्ष्मणजी वहाँ आ गये। दुष्ट रावणने यही सुअवसर समझा और छलसे भिखारीका वेष बनाकर (श्रीरामकी) पर्णकुटीके पास आ गया। एक क्षणमें माया करके उसने श्रीजानकीजीका हरण कर लिया और उन्हें अपने रथपर बैठाकर इस प्रकार भागा, जैसे सिंहके भागका शिकार लेकर शृगाल भागे। बड़भागी परमपुरुष श्रीरामचन्द्रजी इतनेमें ही (शीघ्र ही) वहाँ (पर्णकुटीके पास) आ गये। जब मायासीता वहाँ नहीं दिखायी पड़ीं (वास्तविक सीता तो पहले ही अग्निमें छिपा दी थी), तब मनमें बहुत उदास हुए। श्रीरामका दुःखसमूह अत्यन्त बढ़ गया, (व्याकुल होकर) वे वृक्षसमूहोंसे (श्रीजानकीका) पता पूछने लगे। मार्गमें जटायु पक्षी (गीध)-को उन्होंने देखा, जो पंख कटनेसे अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। उसने प्रार्थना की—‘श्रीराम! मैंने उस राक्षससे बहुत लड़ाई की।’ जब गीधने शरीर त्याग दिया, तब उसे महाराज दशरथका मित्र समझकर श्रीरघुनाथजीने स्वयं (भली प्रकारसे) विधिपूर्वक उसका अन्तिम संस्कार किया और अपने निजधाम (वैकुण्ठ) भेज दिया। (वहाँसे आगे चलकर) मार्गमें शत्रु कबन्धको मारकर श्रीरामने देवराज इन्द्रका कार्य पूरा कर दिया, फिर शीघ्र ही पम्पासरोवर पहुँचे और उसके जलका दोष दूर किया।
सीताकी खोज
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२१०)
सबरी परम भक्त रघुपति की, बहुत दिनन की दासी।
ताके फल आरोगे रघुपति, पूरन भक्ति प्रकासी॥
दीन मुक्ति निज पुर की ताकौं, तब रघुपति चले आगे।
सीता-सीता बिलपत डोलत, परम बिरह सौं पागे॥
रबिनंदन जब मिले राम कौं, अरु भेंटे हनुमान।
अपनी बात कही उन हरि सौं, बालि बड़ौ बलवान॥
सप्तताल-बेधन हरि कीन्हौ, बालि छिनक मैं तारौ।
दीन्हौ राज राम रबिनंदन, सब बिधि काम सँवारौ॥
सप्तदीप के कपि-दल आए , जुरी सैन अति भारी।
सीता की सुधि लैन चले कपि ढूँढ़त बिपिन मँझारी॥
जलनिधि तीर गए सब कपि मिलि, सुनि संपति की बानी।
लंक बसत सीता रिपुबन मैं, सब बानर यह जानी॥
राम-चरन करि सुमिरन मन मैं, चले पवन-सुत धाय।
राम-प्रताप बिघन सब मेंटे, पैठि नगर सुख पाय॥
धरि लघु रूप प्रबेस कियौ कपि, लंका-नगर मँझार।
राम-भक्त निज जान बिभीषन, भेटे हरि अँकवार॥
तब वानैं सब भेद बतायौ, देखी कपि सब लंका।
राम-चरन धरि हृदय मुदित मन, बिचरत फिरत निसंका॥
जाय असोक-बाटिका देखी, दरसन सीता कीन्ह।
कर दंडवत बहुत बिनती कर, राम-मुद्रिका दीन्ह॥
सब संदेस कह्यौ कपि सिय प्रति, सुनि हिय मैं धरि राख्यौ।
राम-सँदेस कहेउ तब सीता, जो बूझौ सो भाख्यौ॥
लागी भूख, चले उपबन मैं, नाना बिधि फल खायौ।
बिटप उखारि, उजार बिपिन कौं सबहिन कौं दरसायौ॥
सुनि पुकार निसिचर बहु आए , कूदि सबन सँहारे।
इंद्रजीत बलनिधि जब आयौ, ब्रह्म-अस्त्र उन डारे॥
तासों बँधे दसानन देखन चले पवन-सुत धीर।
रावन बहुत ज्ञान समझायौ, कथ-कथ कथा गँभीर॥
चले छुड़ाय छिनक मैं तबहीं, जार दई सब लंक।
कूदि चले गज-बन कौं जै करि, ज्यौं मृगराज निसंक॥
आए तीर समुद्र, मिले कपि, मिले आय जहँ राम।
सुनि-सुनि कथा स्रवन सीता की पुलकित अति अभिराम॥
मूल
(२१०)
सबरी परम भक्त रघुपति की, बहुत दिनन की दासी।
ताके फल आरोगे रघुपति, पूरन भक्ति प्रकासी॥
दीन मुक्ति निज पुर की ताकौं, तब रघुपति चले आगे।
सीता-सीता बिलपत डोलत, परम बिरह सौं पागे॥
रबिनंदन जब मिले राम कौं, अरु भेंटे हनुमान।
अपनी बात कही उन हरि सौं, बालि बड़ौ बलवान॥
सप्तताल-बेधन हरि कीन्हौ, बालि छिनक मैं तारौ।
दीन्हौ राज राम रबिनंदन, सब बिधि काम सँवारौ॥
सप्तदीप के कपि-दल आए , जुरी सैन अति भारी।
सीता की सुधि लैन चले कपि ढूँढ़त बिपिन मँझारी॥
जलनिधि तीर गए सब कपि मिलि, सुनि संपति की बानी।
लंक बसत सीता रिपुबन मैं, सब बानर यह जानी॥
राम-चरन करि सुमिरन मन मैं, चले पवन-सुत धाय।
राम-प्रताप बिघन सब मेंटे, पैठि नगर सुख पाय॥
धरि लघु रूप प्रबेस कियौ कपि, लंका-नगर मँझार।
राम-भक्त निज जान बिभीषन, भेटे हरि अँकवार॥
तब वानैं सब भेद बतायौ, देखी कपि सब लंका।
राम-चरन धरि हृदय मुदित मन, बिचरत फिरत निसंका॥
जाय असोक-बाटिका देखी, दरसन सीता कीन्ह।
कर दंडवत बहुत बिनती कर, राम-मुद्रिका दीन्ह॥
सब संदेस कह्यौ कपि सिय प्रति, सुनि हिय मैं धरि राख्यौ।
राम-सँदेस कहेउ तब सीता, जो बूझौ सो भाख्यौ॥
लागी भूख, चले उपबन मैं, नाना बिधि फल खायौ।
बिटप उखारि, उजार बिपिन कौं सबहिन कौं दरसायौ॥
सुनि पुकार निसिचर बहु आए , कूदि सबन सँहारे।
इंद्रजीत बलनिधि जब आयौ, ब्रह्म-अस्त्र उन डारे॥
तासों बँधे दसानन देखन चले पवन-सुत धीर।
रावन बहुत ज्ञान समझायौ, कथ-कथ कथा गँभीर॥
चले छुड़ाय छिनक मैं तबहीं, जार दई सब लंक।
कूदि चले गज-बन कौं जै करि, ज्यौं मृगराज निसंक॥
आए तीर समुद्र, मिले कपि, मिले आय जहँ राम।
सुनि-सुनि कथा स्रवन सीता की पुलकित अति अभिराम॥
अनुवाद (हिन्दी)
(पम्पासरोवरके पास) श्रीरघुनाथजीकी बहुत दिनोंकी सेविका परम भक्ता शबरी रहती थीं। श्रीरघुनाथजीने उनके दिये फलोंको आरोगा (भोजन किया) और उन्हें परम भक्तिका उपदेश करके अपने लोकमें निवासरूपी (सालोक्य-) मुक्ति प्रदान की। वहाँसे श्रीराम आगे चले, वे दारुण वियोगमें निमग्न ‘हा सीते! हा सीते!’ कहते घूम रहे थे। जब सूर्यपुत्र सुग्रीव श्रीरामसे मिले और हनुमान् जी से भेंट हुई, तब प्रभुसे सुग्रीवने अपनी बात कही (अपनी दशा निवेदित की) कि बालि बहुत बलवान् है (उसके भयसे ही मैं यहाँ रहता हूँ)। प्रभुने सात तालके वृक्षोंको विद्ध किया और एक क्षणमें बालिको मारकर उसका उद्धार कर दिया। श्रीरामने सुग्रींवको (किष्किन्धाका) राज्य देकर सब प्रकारसे उनका काम बना दिया। सातों द्वीपोंके वानरोंके दल वहाँ आये, उनकी बड़ी भारी सेना एकत्र हुई। वे वानर श्रीजानकीजीका पता लगाने चल पड़े और वनोंमें ढूँढ़ने लगे। (अन्तमें) सब वानर समुद्रके किनारे पहुँचे। वहाँ सम्पाती (गीध)-की बात सुनकर वानरोंको यह पता लगा कि लंकामें शत्रु (रावण)-के उपवनमें श्रीजानकीजी रहती हैं। श्रीहनुमान् जी श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्मरण करके (लंकाको) दौड़ पड़े। श्रीरामजीके प्रतापसे उनके (मार्गमें आनेवाले) सब विघ्न मिट गये और वे लंका पहुँचकर सुखी हुए। उन कपिश्रेष्ठने छोटा रूप धारण करके लंकानगरीमें प्रवेश किया। वहाँ विभीषणने उन्हें श्रीरामका निज भक्त समझकर भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगाया। उस समय विभीषणने सब रहस्य बता दिया। हनुमान् जी ने पूरी लंकानगरी देखी, श्रीरघुनाथजीके चरणोंको हृदयमें धारण करके प्रसन्नचित्त वे निःशंक घूमते-फिरते थे। (इस प्रकार घूमते हुए) जाकर उन्होंने अशोक-वाटिका देखी और वहाँ श्रीसीताजीका दर्शन किया। दण्डवत् प्रणाम करके, अनेक प्रकारसे प्रार्थना की और श्रीरामचन्द्रजीकी अँगूठी उनको दिया। श्रीहनुमान् जी ने श्रीजानकीजीसे सब समाचार कहा, उसे सुनकर उन्होंने मनमें रख लिया और श्रीजानकीजीने जो कुछ श्रीरघुनाथजीका समाचार पूछा—वह सब हनुमान् जी ने बताया। उन्हें भूख लग गयी थी, इससे उपवनमें जाकर उन्होंने अनेक प्रकारके फल खाये तथा सभी राक्षसोंको दिखलाकर वृक्षोंको उखाड़-उखाड़कर उपवनको उजाड़ दिया। उनकी हुंकार सुनकर बहुत-से राक्षस (मारने) आ गये; परंतु कूद-कूदकर उन्होंने सबको मार डाला। (अन्तमें) जब वहाँ बलनिधान मेघनाद आया, तब उसने ब्रह्मास्त्रका उनपर प्रयोग किया। उस दिव्यास्त्रसे बँधकर धैर्यशाली पवनकुमार रावणको देखने चल पड़े। अनेक गम्भीर कथाएँ कहकर रावणको उन्होंने अनेक प्रकारसे ज्ञानोपदेश किया—समझाया; (किंतु जब वह नहीं माना, तब) क्षणभरमें बन्धनको छुड़ाकर निकल गये और सारी लंका जला दी। जैसे हाथियोंके झुण्डको जीतकर सिंह निःशंक कूद जाय, फिर उसी प्रकार लंकासे समुद्र पार कूद गये। समुद्रके किनारे आनेपर सब वानर मिले और फिर सब (किष्किन्धा) आकर श्रीरामसे मिले। श्रीजानकीका समाचार बार-बार (पूछकर) सुनकर वे शोभाधाम प्रभु अत्यन्त पुलकित हुए।
लंका-विजय
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२११)
करि कपि-कटक चले लंका कौं, छिन मैं बाँध्यौ सेत।
उतर गए , पहुँचे लंका पै, बिजय-धुजा संकेत॥
पठए बालि-कुमार बिनय करि, समुझाए बहु बार।
चित नहिं धरौ, काल-बस जान्यौ, फिर आयौ सुकुमार॥
असरन-सरन उदार कल्पतरु, रामचंद्र रनधीर।
रिपु भ्राता जान्यौ जु बिभीषन, निस्चर कुटिल सरीर॥
राखि सरन लंकेस कियौ पुनि, जब निस्चर सब मारे।
माया करी बहुत नाना बिधि, सब कौं राम निवारे॥
कुंभकरन पुनि इंद्रजीत यह, महाबली बल-सार।
छिन मैं लिए सोख मुनिबरज्यौं छत्री बली अपार॥
कियौ प्रसाद सांतना करि कै, राज बिभीषन दीन।
पुनि मंदोदरि अचल आयु दै, अभय-दान सब कीन॥
समाधान सुरगन कौ करि कै, अमृत मेघ बरषायौ।
कृपा-दृष्टि अवलोकन करि कै, हत कपि-कटक जियायौ॥
निस्चर किए मुक्त सब माधव, तातें जिए न कोय।
निरभय किय लंकेस बिभीषन, राम-लखन नृप दोय॥
सीता मिली, बहुत सुख पायौ, धरॺौ रूप निज मायौ।
पुष्पक-यान बैठि कै नीक, चले भवन, सुख छायौ॥
चले पवन-सुत बिप्र-रूप धरि, भरतहि दैन बधाई।
जानि दूत रघुपति कौ प्रमुदित, भरत मिले तब धाई॥
मूल
(२११)
करि कपि-कटक चले लंका कौं, छिन मैं बाँध्यौ सेत।
उतर गए , पहुँचे लंका पै, बिजय-धुजा संकेत॥
पठए बालि-कुमार बिनय करि, समुझाए बहु बार।
चित नहिं धरौ, काल-बस जान्यौ, फिर आयौ सुकुमार॥
असरन-सरन उदार कल्पतरु, रामचंद्र रनधीर।
रिपु भ्राता जान्यौ जु बिभीषन, निस्चर कुटिल सरीर॥
राखि सरन लंकेस कियौ पुनि, जब निस्चर सब मारे।
माया करी बहुत नाना बिधि, सब कौं राम निवारे॥
कुंभकरन पुनि इंद्रजीत यह, महाबली बल-सार।
छिन मैं लिए सोख मुनिबरज्यौं छत्री बली अपार॥
कियौ प्रसाद सांतना करि कै, राज बिभीषन दीन।
पुनि मंदोदरि अचल आयु दै, अभय-दान सब कीन॥
समाधान सुरगन कौ करि कै, अमृत मेघ बरषायौ।
कृपा-दृष्टि अवलोकन करि कै, हत कपि-कटक जियायौ॥
निस्चर किए मुक्त सब माधव, तातें जिए न कोय।
निरभय किय लंकेस बिभीषन, राम-लखन नृप दोय॥
सीता मिली, बहुत सुख पायौ, धरॺौ रूप निज मायौ।
पुष्पक-यान बैठि कै नीक, चले भवन, सुख छायौ॥
चले पवन-सुत बिप्र-रूप धरि, भरतहि दैन बधाई।
जानि दूत रघुपति कौ प्रमुदित, भरत मिले तब धाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीराम) वानरोंकी सेना सजाकर लंकाको चल पड़े। क्षणभरमें (शीघ्र ही) उन्होंने समुद्रपर सेतु बाँध दिया। इस प्रकार समुद्र पार होकर लंका पहुँच गये और उनका झंडा विजय सूचित करते हुए फहराने लगा। (श्रीरामने दूत बनाकर रावणके पास) अंगदको भेजा, उन्होंने (रावणको) विनयपूर्वक अनेक प्रकारसे समझाया; किंतु उसने किसीपर ध्यान नहीं दिया, तब उसे कालवश समझकर बालिकुमार लौट आये। अशरणजनोंको शरण देनेवाले तथा उदारतामें कल्पवृक्षके समान रणधीर श्रीरामचन्द्रजीने राक्षसोंके कुटिल शरीरवाला (माया करनेमें समर्थ) तथा उसे शत्रुका भाई समझकर भी विभीषणको शरणमें रख लिया और जब सब राक्षसोंको मार चुके, तब उन्हें लंकानरेश बना दिया। (राक्षसोंने) अनेक प्रकारकी माया की; किंतु श्रीरामने सबको दूर कर दिया। कुम्भकर्ण और मेघनाद—ये महान् बलवान् थे, मानो ये बलके साररूप ही थे; किंतु उन्हें अपार बलवान् श्रीराम-लक्ष्मणने इस प्रकार नष्ट कर दिया जैसे मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजीने समुद्र पी लिया था। विभीषणपर कृपा करके उन्हें सान्त्वना दी और राजा बनाया तथा मन्दोदरीको अविचल आयु प्रदान की, इसी प्रकार सभी शेष राक्षसोंको अभयदान दिया। देववृन्दका समाधान किया (उनका भय दूर कर दिया)। उनसे कहकर अमृतकी आकाशसे वर्षा करायी तथा कृपादृष्टिसे देखकर (युद्धमें) मारी गयी वानरोंकी सेनाको जीवित कर दिया। श्रीरघुनाथजीने (युद्धमें मरे) सभी राक्षसोंको मुक्त कर दिया था, इससे उनमें कोई भी जीवित नहीं हुआ। श्रीराम-लक्ष्मण दोनों राजकुमारोंने लंकाका राज्य विभीषणको देकर उन्हें निर्भय कर दिया। फिर सीताजी आकर मिलीं, उन्हें बड़ा आनन्द हुआ; (अग्निमें प्रवेश करके) उन्होंने मायारूप छोड़ दिया और वास्तविक रूप धारण कर लिया। पुष्पक-विमानपर बैठकर कुशलपूर्वक श्रीराम अयोध्याको लौटे, इससे संसारमें सुख छा गया (सभी हर्षित हुए)। श्रीपवनकुमार ब्राह्मणका रूप धारण करके (आगे) श्रीभरतजीको (रघुनाथजीके लौटनेकी) बधाई देने गये। श्रीरघुनाथजीका दूत समझकर भरतजी अत्यन्त आनन्दसे दौड़कर उनसे मिले।
राम-राज्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
(२१२)
सुनत नगर सबहिन सुख मान्यौ, जहँ-तहँ तैं चल धाई।
रामचंद्र पुनि मिले भरत सौं, आनँद उर न समाई॥
कियौ प्रबेस अयोध्या मैं तब, घर-घर बजत बधाई।
मंगल-कलस धराए द्वारैं, बंदनवार बँधाई॥
राजभवन मैं राम पधारे, गुरु बसिष्ठ दरसायौ।
सीस नवाय बहुत पूजा करि, सूरज-बंस बढ़ायौ॥
समाधान सबहिन कौ कीनौ, जो दरसन कौं आयौ।
कौसल्या, केकई, सुमित्रा, मिलि मन मैं सुख पायौ॥
बैठे राम राज-सिंहासन, जग मैं फिरी दुहाई।
निरभय राज राम कौ कहियत, सुर-नर-मुनि सुख पाई॥
चार मूर्ति धरि दरसन आए , चार बेद निज रूप।
अस्तुति करी बहुत, नाना बिधि, रीझे कौसल-भूप॥
सिव, बिरंचि, नारद, सनकादिक, सब दरसन कौं आए।
राम राज बैठे जब जाने, सबहिन मन सुख पाए॥
लोकपाल अति ही मन हरषे, सब सुमनन बरसायौ।
पुष्प बिमान बैठि हरि आए , लै कुबेर पहुँचायौ॥
अति आनंद भयौ अवनी पर, राम-राज सुख-रास।
कृतजुग-धर्म भए त्रेता मैं, पूरन रमा-प्रकास॥
अस्वमेध बहु जज्ञ किए पुनि, पूजे दुजन अपार।
हय, गज, हेम, धेनु, पाटंबर, दीन्हे दान उदार॥
चरित अनेक किए रघुनायक, अवधपुरी सुख दीन्हौ।
जनक-सुता बहु लाड़ लड़ावत, निपट निकट सुख कीन्हौ॥
राम बिहार करेउ नाना बिधि, बालमीकि मुनि गायौ।
बरनत चरित बिस्तार कोटि सत, तऊ पार नहिं पायौ॥
‘सूर’ समुद्र की बूँद भई यह, कबि बरनन कहा करिहै।
कहत चरित रघुनाथ, सरस्वति बौरी मति अनुसरिहै॥
अपने धाम पठाय दिए तब, पुरबासी सब लोग।
जै-जै-जै श्रीराम कल्पतरु, प्रगट अजोध्या भोग॥
मूल
(२१२)
सुनत नगर सबहिन सुख मान्यौ, जहँ-तहँ तैं चल धाई।
रामचंद्र पुनि मिले भरत सौं, आनँद उर न समाई॥
कियौ प्रबेस अयोध्या मैं तब, घर-घर बजत बधाई।
मंगल-कलस धराए द्वारैं, बंदनवार बँधाई॥
राजभवन मैं राम पधारे, गुरु बसिष्ठ दरसायौ।
सीस नवाय बहुत पूजा करि, सूरज-बंस बढ़ायौ॥
समाधान सबहिन कौ कीनौ, जो दरसन कौं आयौ।
कौसल्या, केकई, सुमित्रा, मिलि मन मैं सुख पायौ॥
बैठे राम राज-सिंहासन, जग मैं फिरी दुहाई।
निरभय राज राम कौ कहियत, सुर-नर-मुनि सुख पाई॥
चार मूर्ति धरि दरसन आए , चार बेद निज रूप।
अस्तुति करी बहुत, नाना बिधि, रीझे कौसल-भूप॥
सिव, बिरंचि, नारद, सनकादिक, सब दरसन कौं आए।
राम राज बैठे जब जाने, सबहिन मन सुख पाए॥
लोकपाल अति ही मन हरषे, सब सुमनन बरसायौ।
पुष्प बिमान बैठि हरि आए , लै कुबेर पहुँचायौ॥
अति आनंद भयौ अवनी पर, राम-राज सुख-रास।
कृतजुग-धर्म भए त्रेता मैं, पूरन रमा-प्रकास॥
अस्वमेध बहु जज्ञ किए पुनि, पूजे दुजन अपार।
हय, गज, हेम, धेनु, पाटंबर, दीन्हे दान उदार॥
चरित अनेक किए रघुनायक, अवधपुरी सुख दीन्हौ।
जनक-सुता बहु लाड़ लड़ावत, निपट निकट सुख कीन्हौ॥
राम बिहार करेउ नाना बिधि, बालमीकि मुनि गायौ।
बरनत चरित बिस्तार कोटि सत, तऊ पार नहिं पायौ॥
‘सूर’ समुद्र की बूँद भई यह, कबि बरनन कहा करिहै।
कहत चरित रघुनाथ, सरस्वति बौरी मति अनुसरिहै॥
अपने धाम पठाय दिए तब, पुरबासी सब लोग।
जै-जै-जै श्रीराम कल्पतरु, प्रगट अजोध्या भोग॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीरघुनाथजीके आनेका) समाचार पाकर सभी नगरवासी प्रसन्न हो गये; जो जहाँ था, वहींसे दौड़ पड़ा। श्रीरामचन्द्रजी भरतजीसे मिले, (दोनोंके ही) हृदयमें आनन्द समाता नहीं था। फिर उन्होंने अयोध्यानगरमें प्रवेश किया, वहाँ प्रत्येक घरमें बधाईके बाजे बजने लगे। सबने द्वारपर मंगल-कलश रखे थे और बंदनवारें बाँधी थीं। श्रीरघुनाथजी राजभवनमें पधारे, वहीं कुलगुरु महर्षि वसिष्ठका दर्शन हुआ। उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करके प्रभुने अनेक प्रकारसे पूजा की और बोले—‘आपने ही कृपा करके इस सूर्यवंशकी उन्नति की है।’ जो लोग दर्शन करने आये थे, सभीका प्रभुने समाधान किया (सबसे मिलकर उन्हें संतुष्ट किया)। माता कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी उनसे मिलकर आनन्दित हुईं। फिर श्रीराम राजसिंहासनपर बैठे और पूरे संसारमें उनके स्वामित्वकी घोषणा हुई। कहा जाता है कि श्रीरामका राज्य सभीके लिये निर्भय था तथा देवताओं, मनुष्यों एवं मुनियोंको अत्यन्त सुख उसमें मिला। चारों वेद अपने देवरूपमें साकार होकर चार स्वरूपसे आये, वे कोसलनरेश श्रीरघुनाथजीपर मुग्ध हो गये थे, अनेक प्रकारसे उन्होंने प्रभुकी भलीभाँति स्तुति की। शिव, ब्रह्मा, नारद तथा सनकादि मुनि—सभी श्रीरामका दर्शन करने आये। श्रीरामको राजसिंहासनपर आसीन जानकर सभीके हृदयको अत्यन्त आनन्द हुआ। सभी लोकपाल अपने मनमें अत्यन्त हर्षित हुए , उन्होंने पुष्पोंकी वर्षा की। श्रीराम जिस पुष्पक-विमानमें बैठकर (लंकासे) आये थे, उसे कुबेरके पास पहुँचा दिया। श्रीरामका राज्य सुखकी राशि था, उससे पृथ्वीपर अत्यन्त आनन्द हुआ। त्रेतामें भी सत्ययुगके समान धर्माचरण होने लगा, लक्ष्मीने (जगत् में) अपना पूरा प्रकाश किया। प्रभुने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये और नाना प्रकारसे ब्राह्मणोंकी पूजा की, उन उदारने घोड़े, हाथी, स्वर्ण, गायें तथा रेशमी वस्त्र आदि दानमें दिये। श्रीरघुनाथजीने अनेक प्रकारके चरित करके अयोध्यावासियोंको सुखी किया। श्रीजानकीजी भी (पुरवासियोंसे) भली प्रकार स्नेह करती थीं और उन्हें अत्यन्त समीप रहनेका सुख प्रदान करती थीं। श्रीरामने जो नाना प्रकारकी क्रीडा की है, उसका वर्णन महर्षि वाल्मीकिने किया है; किंतु सौ करोड़ श्लोकोंमें वर्णन करते हुए भी उन्होंने रामचरितका अन्त नहीं पाया। सूरदासका यह वर्णन तो उसके सामने समुद्रकी एक बूँदके समान हो गया है, कोई भी कवि भला, (श्रीरामके चरितका) क्या (कहाँतक) वर्णन करेगा। लेकिन श्रीरघुनाथके चरितका वर्णन (जो कोई करेगा) उसकी पगली (भोली) बुद्धिकी सहायता सरस्वती करेंगी—वे उसके पीछे चलेंगी। श्रीरघुनाथजीने अन्तमें सभी अयोध्यापुरीके वासियोंको अपने दिव्यधाममें भेज दिया। इस प्रकार अयोध्यामें उसका उपभोग (शासन) करनेके लिये अवतरित कल्पवृक्षस्वरूप श्रीरामकी जय हो! जय हो! जय हो!