विषय (हिन्दी)
राग केदार
विश्वास-प्रस्तुतिः
(६५)
तब अंगद यह बचन कह्यौ।
को तरि सिंधु सिया-सुधि ल्यावै, किहिं बल इतौ लह्यौ?
इतनौ बचन स्रवन सुनि हरष्यौ, हँसि बोल्यौ जमुवंत।
या दल मध्य प्रगट केसरि-सुत, जाहि नाम हनुमंत॥
वहै ल्याइहै सिय-सुधि छिन मैं, अरु आइहै तुरंत।
उन प्रताप त्रिभुवन कौ पायौ, वाके बलहि न अंत॥
जो मन करै एक बासर मैं, छिन आवै, छिन जाइ।
स्वर्ग-पताल माहिं गम ताकौ, कहियै कहा बनाइ!
केतिक लंक, उपारि बाम कर, लै आवै उचकाइ।
पवन-पुत्र बलवंत बज्र-तनु, कापै हटक्यौ जाइ॥
लियौ बुलाइ मुदित चित ह्वै कै, कह्यौ, तँबोलहि लेहु।
ल्यावहु जाइ जनक-तनया-सुधि, रघुपति कौं सुख देहु॥
पौरि-पौरि प्रति फिरौ बिलोकत, गिरि-कंदर-बन-गेहु।
समय बिचारि मुद्रिका दीजौ, सुनौ मंत्र सुत एहु॥
लियौ तँबोल माथ धरि हनुमत, कियौ चतुरगुन गात।
चढ़ि गिरि-सिखर सब्द इक उचरॺौ, गगन उठॺौ आघात॥
कंपत कमठ-सेष-बसुधा नभ, रवि-रथ भयौ उतपात।
मानौ पच्छ सुमेरहि लागे, उड़ॺौ अकासहिं जात॥
चक्रित सकल परस्पर बानर, बीच परी किलकार।
तहँ इक अद्भुत देखि निसिचरी, सुरसा मुख-बिस्तार॥
पवन-पुत्र मुख पैठि पधारे, तहाँ लगी कछु बार।
‘सूरदास’ स्वामी-प्रताप-बल, उतरॺौ जलनिधि पार॥
मूल
(६५)
तब अंगद यह बचन कह्यौ।
को तरि सिंधु सिया-सुधि ल्यावै, किहिं बल इतौ लह्यौ?
इतनौ बचन स्रवन सुनि हरष्यौ, हँसि बोल्यौ जमुवंत।
या दल मध्य प्रगट केसरि-सुत, जाहि नाम हनुमंत॥
वहै ल्याइहै सिय-सुधि छिन मैं, अरु आइहै तुरंत।
उन प्रताप त्रिभुवन कौ पायौ, वाके बलहि न अंत॥
जो मन करै एक बासर मैं, छिन आवै, छिन जाइ।
स्वर्ग-पताल माहिं गम ताकौ, कहियै कहा बनाइ!
केतिक लंक, उपारि बाम कर, लै आवै उचकाइ।
पवन-पुत्र बलवंत बज्र-तनु, कापै हटक्यौ जाइ॥
लियौ बुलाइ मुदित चित ह्वै कै, कह्यौ, तँबोलहि लेहु।
ल्यावहु जाइ जनक-तनया-सुधि, रघुपति कौं सुख देहु॥
पौरि-पौरि प्रति फिरौ बिलोकत, गिरि-कंदर-बन-गेहु।
समय बिचारि मुद्रिका दीजौ, सुनौ मंत्र सुत एहु॥
लियौ तँबोल माथ धरि हनुमत, कियौ चतुरगुन गात।
चढ़ि गिरि-सिखर सब्द इक उचरॺौ, गगन उठॺौ आघात॥
कंपत कमठ-सेष-बसुधा नभ, रवि-रथ भयौ उतपात।
मानौ पच्छ सुमेरहि लागे, उड़ॺौ अकासहिं जात॥
चक्रित सकल परस्पर बानर, बीच परी किलकार।
तहँ इक अद्भुत देखि निसिचरी, सुरसा मुख-बिस्तार॥
पवन-पुत्र मुख पैठि पधारे, तहाँ लगी कछु बार।
‘सूरदास’ स्वामी-प्रताप-बल, उतरॺौ जलनिधि पार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(सम्पातीसे जब समाचार मिल गया) तब अंगदने यह बात कही—‘समुद्रको पार करके श्रीजानकीजीका समाचार कौन ले आयेगा? इतनी शक्ति किसने पायी है?’ यह बात कानोंसे सुनकर जाम्बवान् प्रसन्न हो गये और हँसकर बोले—‘इस दलमें जिनका नाम हनुमान् है, वे केसरीनन्दन तो प्रत्यक्ष ही हमारे सामने बैठे हैं। वे ही क्षणभरमें (बहुत शीघ्र) श्रीजानकीजीका पता ले आयेंगे, तथा तुरंत ही लौट (भी) आयेंगे (उन्हें आनेमें देर नहीं होगी।) उन्होंने प्रताप तीनों लोकोंका पाया है। उनके बलकी तो कोई सीमा ही नहीं है। यदि वे मन कर लें तो एक दिनमें ही कई बार (लंकाको) क्षणमें चले जायँ और क्षणभरमें लौट (भी) आयें। अधिक बनाकर क्या कहा जाय, उनकी गति तो स्वर्ग तथा पातालतक भी है। (वे चाहें तो) कितनी ही लंका-जैसी नगरियोंको बायें हाथसे उखाड़कर उठा ले आयें। वे पवनपुत्र (बडे़) बलवान् हैं, उनका शरीर वज्रके समान है; भला, उन्हें रोक कौन सकता है।’ (यह कहकर जाम्बवान् ने श्रीहनुमान् जी को) प्रसन्नचित्त होकर पास बुला लिया और बोले—‘यह बीड़ा (उत्तरदायित्व) ले लो और श्रीजानकीजीका समाचार ले आकर श्रीरघुपतिको आनन्द प्रदान करो। (लंकामें) द्वार-द्वारको घूमकर देख लेना; पर्वतोंकी गुफाएँ, वन तथा घरोंको (भी) देखना। अवसर समझकर (जानकीजीको श्रीरामकी) अँगूठी दे देना। हे तात! तुम मेरी यह सलाह सुन लो (मान लो)!’ श्रीहनुमान् जी ने बीड़ा सिरपर चढ़ाकर ले लिया (सादर उत्तरदायित्व स्वीकार कर लिया) और अपने शरीरका चौगुना विस्तार किया। पर्वतके शिखरपर चढ़कर (हुँकारका) एक शब्द किया, जिसकी प्रतिध्वनिसे आकाश गूँज गया। कच्छप, शेषनाग और पृथ्वी काँपने लगी और आकाशमें सूर्यके रथके लिये भी उत्पात हो गया (घोड़े मार्ग छोड़कर भड़क उठे)। जैसे सुमेरु पर्वतको पंख आ गये हों, इस प्रकार वे आकाशमें उड़ते हुए जाने लगे। (श्रीहनुमान् जी को इस प्रकार जाते देखकर) सभी वानर चकित हो गये और एक-दूसरेको देखकर(उत्साहसे) उनमें किलकारी उठने लगी। वहाँ (मार्गमें) एक अद्भुत राक्षसी सुरसा मुख फैलाये दीख पड़ी; किंतु पवनकुमार (शरीरको छोटा करके) उसके मुखमें घुसकर निकल आये (और आगे चल पड़े), वहाँ उन्हें कुछ देर लगी थी। सूरदासजी कहते हैं—अपने स्वामी श्रीरामके प्रताप एवं बलसे वे समुद्रके पार हो गये।
विषय (हिन्दी)
राग धनाश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(६६)
लखि लोचन, सोचै हनुमान।
चहुँ दिसि लंक-दुर्ग दानवदल, कैसैं पाऊँ जान॥
सौ जोजन बिस्तार कनकपुरि, चकरी जोजन बीस।
मनौ बिस्वकर्मा कर अपुनें, रचि राखी गिरि-सीस॥
गरजत रहत मत्त गज चहुँ दिसि, छत्र-धुजा चहुँ दीस।
भरमित भयौ देखि मारुत-सुत, दियौ महाबल ईस!
उड़ि हनुमंत गयौ आकासहिं, पहुँच्यौ नगर मझारि।
बन-उपबन, गम-अगम अगोचर मंदिर, फिरॺौ निहार॥
भई पैज अब हीन हमारी, जिय मैं कहै बिचारि।
पटकि पूँछ, माथौ धुनि लोटै, लखी न राघव-नारि॥
नानारूप निसाचर अद्भुत, सदा करत मद-पान।
ठौर-ठौर अभ्यास महाबल करत कुंत-असि बान॥
जिय सिय-सोच करत मारुत-सुत, जियति न मेरैं जान।
कै वह भाजि सिंधु मैं डूबी, कै उहिं तज्यौ परान॥
कैसैं नाथहि मुख दिखराऊँ, जो बिनु देखे जाउँ।
बानर बीर हँसैंगे मोकौं, तैं बोरॺौ पितु-नाउँ॥
रिच्छप तर्क बोलिहै मोसौं, ताकौं बहुत डराउँ।
भलैं राम कौं सीय मिलाई, जीति कनकपुर गाउँ॥
जब मोहि अंगद कुसल पूछिहै, कहा कहौंगो वाहि।
या जीवन तैं मरन भलौ है, मैं देख्यौ अवगाहि॥
मारौं आजु लंक लंकापति, लै दिखराऊँ ताहि।
चौदह सहस जुबति अंतःपुर, लैहैं राघव चाहि॥
मंदिर की परछाया बैठॺौ, कर मीजै पछिताइ।
पहिलै हूँ न लखी मैं सीता, क्यौं पहिचानी जाइ॥
दुरबल दीन-छीन चिंतित अति, जपत नाइ रघुराइ।
ऐसी बिधि देखिहौं जानकी, रहिहौं सीस नवाइ॥
बहुरि बीर जब गयौ अबासहिं, जहाँ बसै दसकंध।
नगनि जटित मनि-खंभ बनाए , पूरन बात सुगंध॥
स्वेत छत्र फहरात सीस पर, मनौ लच्छि कौ बंध।
चौदह सहस नाग-कन्या-रति, परॺौ सो रत मतिअंध॥
बीना-झाँझ-पखाउज-आउज, और राजसी भोग।
पुहुप-प्रजंक परी नवजोवनि, सुख-परिमल-संजोग॥
जिय जिय गढ़ै, करै बिस्वासहि, जानै लंका लोग।
इहि सुख-हेत हरी है सीता, राघव बिपति-बियोग॥
पुनि आयौ सीता जहँ बैठी, बन असोक के माहिं।
चारौं ओर निसिचरी घेरैं, नर जिहि देखि डराहिं॥
बैठॺौ जाइ एक तरुबर पर, जाकी सीतल छाहिं।
बहु निसाचरी मध्य जानकी, मलिन बसन तन माहिं॥
बारंबार बिसूरि ‘सूर’ दुख, जपत नाम रघुनाहु।
ऐसी भाँति जानकी देखी, चंद गह्यौ ज्यौं राहु॥
मूल
(६६)
लखि लोचन, सोचै हनुमान।
चहुँ दिसि लंक-दुर्ग दानवदल, कैसैं पाऊँ जान॥
सौ जोजन बिस्तार कनकपुरि, चकरी जोजन बीस।
मनौ बिस्वकर्मा कर अपुनें, रचि राखी गिरि-सीस॥
गरजत रहत मत्त गज चहुँ दिसि, छत्र-धुजा चहुँ दीस।
भरमित भयौ देखि मारुत-सुत, दियौ महाबल ईस!
उड़ि हनुमंत गयौ आकासहिं, पहुँच्यौ नगर मझारि।
बन-उपबन, गम-अगम अगोचर मंदिर, फिरॺौ निहार॥
भई पैज अब हीन हमारी, जिय मैं कहै बिचारि।
पटकि पूँछ, माथौ धुनि लोटै, लखी न राघव-नारि॥
नानारूप निसाचर अद्भुत, सदा करत मद-पान।
ठौर-ठौर अभ्यास महाबल करत कुंत-असि बान॥
जिय सिय-सोच करत मारुत-सुत, जियति न मेरैं जान।
कै वह भाजि सिंधु मैं डूबी, कै उहिं तज्यौ परान॥
कैसैं नाथहि मुख दिखराऊँ, जो बिनु देखे जाउँ।
बानर बीर हँसैंगे मोकौं, तैं बोरॺौ पितु-नाउँ॥
रिच्छप तर्क बोलिहै मोसौं, ताकौं बहुत डराउँ।
भलैं राम कौं सीय मिलाई, जीति कनकपुर गाउँ॥
जब मोहि अंगद कुसल पूछिहै, कहा कहौंगो वाहि।
या जीवन तैं मरन भलौ है, मैं देख्यौ अवगाहि॥
मारौं आजु लंक लंकापति, लै दिखराऊँ ताहि।
चौदह सहस जुबति अंतःपुर, लैहैं राघव चाहि॥
मंदिर की परछाया बैठॺौ, कर मीजै पछिताइ।
पहिलै हूँ न लखी मैं सीता, क्यौं पहिचानी जाइ॥
दुरबल दीन-छीन चिंतित अति, जपत नाइ रघुराइ।
ऐसी बिधि देखिहौं जानकी, रहिहौं सीस नवाइ॥
बहुरि बीर जब गयौ अबासहिं, जहाँ बसै दसकंध।
नगनि जटित मनि-खंभ बनाए , पूरन बात सुगंध॥
स्वेत छत्र फहरात सीस पर, मनौ लच्छि कौ बंध।
चौदह सहस नाग-कन्या-रति, परॺौ सो रत मतिअंध॥
बीना-झाँझ-पखाउज-आउज, और राजसी भोग।
पुहुप-प्रजंक परी नवजोवनि, सुख-परिमल-संजोग॥
जिय जिय गढ़ै, करै बिस्वासहि, जानै लंका लोग।
इहि सुख-हेत हरी है सीता, राघव बिपति-बियोग॥
पुनि आयौ सीता जहँ बैठी, बन असोक के माहिं।
चारौं ओर निसिचरी घेरैं, नर जिहि देखि डराहिं॥
बैठॺौ जाइ एक तरुबर पर, जाकी सीतल छाहिं।
बहु निसाचरी मध्य जानकी, मलिन बसन तन माहिं॥
बारंबार बिसूरि ‘सूर’ दुख, जपत नाम रघुनाहु।
ऐसी भाँति जानकी देखी, चंद गह्यौ ज्यौं राहु॥
अनुवाद (हिन्दी)
(लंकाको) आँखोंसे देखकर श्रीहनुमान् जी चिन्ता करने लगे कि ‘यह लंकाका दुर्ग तो चारों ओरसे दानव-दलसे घिरा है, मैं इसमें कैसे जा पाऊँगा’ स्वर्णपुरी लंकाका विस्तार सौ योजन था और उसका घेरा बीस योजनका था। (वह इतना सुन्दर नगर था) मानो विश्वकर्माने उसे अपने हाथसे बनाकर पर्वतके शिखरपर रख दिया हो। चारों ओर मतवाले हाथी उसमें गर्जना किया करते थे और चारों दिशाओंमें छत्र लगे थे तथा पताकाएँ फहरा रही थीं। (ऐसे) नगरको देखकर श्रीहनुमान् जी संदेहमें पड़ गये। तब उन्हें भगवान् ने महान् बल प्रदान किया। तब हनुमान् जी आकाश-मार्गसे उड़कर गये और नगरके बीचमें पहुँच गये। (वहाँ उन्होंने) वन, बगीचे तथा जा सकनेयोग्य सुगम एवं न जा सकने-योग्य (अगम्य) तथा अप्रकट भवनोंको घूम-घूमकर देखा। (कहीं भी जानकीजीको न देखकर) अपने चित्तमें वे विचार करके कहने लगे—‘हमारी प्रतिज्ञा अब हीन (भंग) हो गयी। मैं श्रीरघुनाथजीकी भार्या श्रीसीताजीको देख न सका।’ (शोकसे)वे पृथ्वीपर पूँछ पटकने लगे और सिर पीट-पीटकर पछाड़ खाने लगे। अनेक प्रकारके अद्भुत रूपवाले राक्षस वहाँ सर्वदा मदिरा पीते रहते थे और वे महाबलशाली राक्षस (मदिरा पीकर) स्थान-स्थानपर भाला चलाने, तलवार चलाने तथा बाणसे निशाना मारनेका अभ्यास करते रहते थे। (यह सब देखकर) श्रीहनुमान् जी अपने हृदयमें श्रीजानकीके सम्बन्धमें (इस प्रकार) चिन्ता करने लगे—‘मेरी समझसे वे (श्रीजानकीजी) अब जीवित नहीं हैं। या तो वे भागकर समुद्रमें डूब गयीं अथवा उन्होंने (शोकमें) प्राण त्याग दिया। यदि मैं उनका दर्शन किये बिना लौट जाऊँ तो स्वामी (श्रीरामजी)- को कैसे मुख दिखलाऊँगा। सब वानर मेरी हँसी करेंगे कि ‘तुमने अपने पिताका नाम डुबा दिया।’ ऋक्षराज जाम्बवान् मुझसे अनेक प्रकारके तर्क करेंगे, उनसे तो मैं बहुत डरता हूँ। (वे कहेंगे—) ‘स्वर्णपुरी लंकाको जीतकर तुमने श्रीरामसे श्रीजानकीजीका अच्छा मिलन कराया!’ जब युवराज अंगद मुझसे (श्रीजानकीजीकी) कुशल पूछेंगे, तब मैं उनसे क्या कहूँगा? मैंने तो थाह लेकर (भली प्रकार सोचकर) देख लिया कि ऐसे जीवनसे मर जाना अच्छा है। (अथवा) आज लंकापति रावणको मार डालूँ और लंकाको ले जाकर ही उनको दिखा दूँ। रावणके अन्तःपुरमें चौदह सहस्र युवतियाँ हैं, श्रीरघुनाथजी उनमें जिसे चाहेंगे— ले लेंगे।’ इस प्रकार एक भवनकी छायामें (अँधेरेमें छिपे) बैठे हुए वे हाथ मल-मलकर पश्चात्ताप कर रहे थे कि ‘मैंने पहले तो कभी श्रीसीताजीको देखा नहीं है, वे पहचानी कैसे जायँगी? हाँ, अत्यंत दुर्बल, दीन-दशामें पड़ी, (शोकसे) कृश, अत्यन्त चिन्तित तथा श्रीरघुनाथजीका नाम जपती हुई वे होंगी। ऐसी दशामें श्रीजानकीजीका यदि दर्शन हो जाय तो मैं उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करूँगा।’ फिर वे महावीर जब उस भवनमें गये, जहाँ रावण रहता था (तब उन्होंने देखा कि उस भवनमें) मणियोंके खंभे बने हैं और उनमें रत्न जड़े हुए हैं, वहाँकी वायुमें सुगन्ध भरी है। रावणके सिरपर श्वेत छत्र इस प्रकार झलमला रहा है, जैसे लक्ष्मीका बन्धन है (लक्ष्मी ही बाँधकर रखी गयी हों)। वह अन्धबुद्धि (मूर्ख) चौदह सहस्र नागकुमारियोंके साथ विलासक्रीड़ामें मग्न था। वीणा, झाँझ, मृदंग तथा ताशोंका शब्द वहाँ हो रहा था तथा दूसरे भी राजसी (राजोचित) भोगपदार्थ वहाँ थे। पुष्पोंसे सजी शय्यापर एक नवयुवती सुखपूर्वक (रावणसे) लिपटी हुई पड़ी थी, चारों ओर सुखदायक सुगन्ध फैल रही थी। (यह देखकर हनुमान् जी) अनेक प्रकारके तर्क-वितर्क करने लगे, ऐसा विश्वास करने लगे (कहीं ये ही तो सीता नहीं हैं?) इसी सुखके लिये इसने सीताका हरण किया और वहाँ श्रीरघुनाथजी वियोगकी विपत्तिमें पड़े (दुःखित हो रहे) हैं। (फिर सोचने लगे) कहीं लंकाके लोग (मेरा यहाँ आना) जान तो नहीं गये (और उन्होंने श्रीजानकीजीको कहीं छिपा दिया)। फिर जहाँ अशोक-वाटिकामें श्रीसीताजी बैठी थीं, वहाँ आये। वहाँ (श्रीजानकीजीको) चारों ओरसे घेरकर ऐसी राक्षसियाँ बैठी थीं, जिनको देखकर ही मनुष्य डर जाते हैं। (वहाँ हनुमान् जी) एक ऐसे श्रेष्ठ वृक्षपर जाकर बैठ गये, जिसकी छाया शीतल थी (जो सघन था)। सूरदासजी कहते हैं—बहुत-सी राक्षसियोंके बीचमें श्रीजानकीजी बैठी थीं, उनके शरीरपर मैला वस्त्र था, बार-बार दुःखसे रोती हुई श्रीरघुनाथजीके नामका जप कर रही थीं। (हनुमान् जी ने) श्रीजानकीजीको इस प्रकार देखा, जैसे चन्द्रमाको राहुने ग्रस रखा हो।
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(६७)
गयौ कूदि हनुमंत जब सिंधु-पारा।
सेष के सीस लागे कमठ-पीठि सौं,
धँसे गिरिबर सबै तासु भारा॥
लंक-गढ माहिं आकास मारग गयौ,
चहूँ दिसि बज्र लागे किंवारा।
पौरि सब देखि सो असोक-बन में गयौ,
निरखि सीता छप्यौ बृच्छ-डारा॥
सोच लाग्यौ करन, यहै धौं जानकी,
कै कौऊ और, मोहि नहिं चिन्हारा।
‘सूर’ आकासबानी भई तबै तहँ,
यहै बैदेहि है, करु जुहारा॥
मूल
(६७)
गयौ कूदि हनुमंत जब सिंधु-पारा।
सेष के सीस लागे कमठ-पीठि सौं,
धँसे गिरिबर सबै तासु भारा॥
लंक-गढ माहिं आकास मारग गयौ,
चहूँ दिसि बज्र लागे किंवारा।
पौरि सब देखि सो असोक-बन में गयौ,
निरखि सीता छप्यौ बृच्छ-डारा॥
सोच लाग्यौ करन, यहै धौं जानकी,
कै कौऊ और, मोहि नहिं चिन्हारा।
‘सूर’ आकासबानी भई तबै तहँ,
यहै बैदेहि है, करु जुहारा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीहनुमान् जी जब कूदकर समुद्रके पार गये, तब उनके भारसे शेषनागके सिर कच्छप (जो शेषके भी आधार हैं)-की पीठसे जा लगे और बडे़-बड़े पर्वत भी सारे-के-सारे (पृथ्वीमें) धँस गये। लंकाके दुर्गमें चारों ओर वज्र (हीरे)-के किवाड़ लगे हुए थे, उसमें हनुमान् जी आकाशमार्गसे गये। सम्पूर्ण नगरको देखकर (अन्तमें) वे अशोकवाटिकामें गये और श्रीसीताजीको देखकर एक वृक्षकी डालीपर छिप गये। (वहाँ बैठकर) चिन्ता करने लगे—‘मुझे पहचान तो है नहीं; पता नहीं ये ही श्रीजानकीजी हैं या कोई और (नारी) हैं। सूरदासजी कहते हैं—उस समय वहाँ आकाशवाणी हुई कि ‘ये ही श्रीजनकनन्दिनी हैं। इन्हें अभिवादन करो।’
निशिचरी-वचन जानकीके प्रति
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(६८)
समुझि अब निरखि जानकी मोहि।
बड़ौ भाग गुनि अगम दसानन, सिव बर दीनौ मोहि॥
केतिक राम कृपन, ताकी पितु-मातु घटाई कानि।
तरौ पिता जो जनक जानकी, कीरति कहौं बखानि॥
बिधि-संजोग टरत नहिं टारैं, बन दुख देख्यौ आनि।
अब रावन घर बिलसि सहज सुख, कह्यौ हमारौ मानि॥
इतनौ बचन सुनत सिर धुनि कै, बोली सिया रिसाइ।
अहो ढीठ, मति-मुग्ध निसिचरी, बैठी सनमुख आइ॥
तब रावन कौ बदन देखिहौं, दस सिरस्रोनित न्हाइ।
कै तन देउँ मध्य पावक के, कै बिलसैं रघुराइ॥
जो पै पतिब्रताब्रत तेरैं, जीवति बिछुरी काइ।
तब किन मुई, कहौ तुम मोसौं, भुजा गही जब राइ॥
अब झूठौ अभिमान करति हौ, झुकति जो उन के नाउँ।
सुखहीं रहसि मिलौ रावन कौं, अपनें सहज सुभाउ॥
जो तू रामहि दोष लगावै, करौं प्रान कौ घात।
तुमरे कुल कौं बेर न लागै, होत भस्म-संघात॥
उन कें क्रोध जरै लंकापति, तेरे हृदय समाइ।
तौ पै ‘सूर’ पतिब्रत साँचौ, जो देखौं रघुराइ॥
मूल
(६८)
समुझि अब निरखि जानकी मोहि।
बड़ौ भाग गुनि अगम दसानन, सिव बर दीनौ मोहि॥
केतिक राम कृपन, ताकी पितु-मातु घटाई कानि।
तरौ पिता जो जनक जानकी, कीरति कहौं बखानि॥
बिधि-संजोग टरत नहिं टारैं, बन दुख देख्यौ आनि।
अब रावन घर बिलसि सहज सुख, कह्यौ हमारौ मानि॥
इतनौ बचन सुनत सिर धुनि कै, बोली सिया रिसाइ।
अहो ढीठ, मति-मुग्ध निसिचरी, बैठी सनमुख आइ॥
तब रावन कौ बदन देखिहौं, दस सिरस्रोनित न्हाइ।
कै तन देउँ मध्य पावक के, कै बिलसैं रघुराइ॥
जो पै पतिब्रताब्रत तेरैं, जीवति बिछुरी काइ।
तब किन मुई, कहौ तुम मोसौं, भुजा गही जब राइ॥
अब झूठौ अभिमान करति हौ, झुकति जो उन के नाउँ।
सुखहीं रहसि मिलौ रावन कौं, अपनें सहज सुभाउ॥
जो तू रामहि दोष लगावै, करौं प्रान कौ घात।
तुमरे कुल कौं बेर न लागै, होत भस्म-संघात॥
उन कें क्रोध जरै लंकापति, तेरे हृदय समाइ।
तौ पै ‘सूर’ पतिब्रत साँचौ, जो देखौं रघुराइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(एक राक्षसी, जिसे रावणने श्रीजानकीजीको समझाने भेजा था, कह रही है—) ‘जानकी! विचार करो। अब मेरी ओर देखो! (मेरी बातपर ध्यान दो।) अपना बड़ा भाग्य समझो और ऐसा मानो कि भगवान् शंकरने ही तुम्हें वरदान दिया है; नहीं तो रावण (दूसरी किसी नारीके लिये) अगम्य है (दूसरी नारी लंकापतिको पा नहीं सकती)। दीन रामकी (रावणके सामने) क्या गणना, पिता-माताने ही उनको महत्त्वहीन कर दिया (देशसे निकाल दिया)। जनकनन्दिनी! तुम्हारे पिता जो महाराज जनक हैं, उनकी कीर्तिका तो मैं वर्णन करती हूँ (वे तो बड़े यशस्वी हैं); किंतु ब्रह्माने जो संयोग रच रखे हैं, वे टालनेसे नहीं टलते (अर्थात् रामसे तुम्हारा विवाह उचित नहीं था पर भाग्यवश हो गया)। (आते ही) तुम्हें वनवासका दुःख देखना पड़ा। अब तुम हमारा कहना मान लो और रावणके घरमें स्वाभाविक सुखका उपभोग करो।’ (राक्षसीकी) इतनी बात सुनकर श्रीजानकीजीने अपना सिर पीट लिया और क्रोधपूर्वक बोलीं—‘अरी ढीठ मूढ़बुद्धि राक्षसी! तू मेरे आगे आकर बैठ गयी है! मैं रावणके मुखको तब देखूँगी, जब उसके दसों सिर रक्तसे स्नान किये होंगे (अर्थात् धड़से कटे रावणके सिरको ही मैं देखूँगी)। या तो अपने शरीरको अग्निमें भस्म कर दूँगी या श्रीरघुनाथ ही मेरा उपभोग करेंगे।’ (राक्षसी यह सुनकर व्यंगसे बोली—) ‘यदि पतिव्रताका व्रत ही तुम्हें पालन करना था तो जीवन रहते (पतिसे) बिछुड़ क्यों गयी? मुझसे बतलाओ तो कि जब राजा रावणने तुम्हारा हाथ पकड़ा, तभी तुम मर क्यों नहीं गयी? अब तो यह झूठा अभिमान करती हो जो उन (रावण)-के नामसे ही खीझती हो। अपने सहज स्वभावसे (सीधी तरह) रावणसे मिलो और एकान्तमें सुख-भोग करो।’ सूरदासजी कहते हैं—(राक्षसीकी बात सुनकर श्रीजानकीजी बोलीं—) ‘यदि तू श्रीरामको दोष लगायेगी (उनकी निन्दा करेगी) तो मैं (तुरंत) प्राणघात कर लूँगी और (मेरे शापसे) तेरे कुलको भस्मकी ढेरी बननेमें देरी नहीं लगेगी। (वैसे भी) लंकापतिरावण तो उन श्रीरघुनाथजीके क्रोधसे भस्म होगा ही और तभी तेरा हृदय शान्त होगा (अर्थात् तू रावणके नाशके ही यत्नमें लगी है।) मेरा पातिव्रत तो तभी सच्चा होगा, जब मैं श्रीरघुनाथजीका दर्शन कर लूँगी।’
निशिचरी-रावण-संवाद
विषय (हिन्दी)
राग धनाश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(६९)
सुनौ किन कनकपुरी के राइ।
हौं बुधि-बल-छल करि पचि हारी, लख्यौ न सीस उचाइ॥
डोलै गगन सहित सुरपति अरु पुहुमि पलटि जग परई।
नसै धर्म, मन-बचन-काय करि, सिंधु अचंभौ करई॥
अचला चलै, चलत पुनि थाकै, चिरंजीवि सो मरई।
श्रीरघुनाथ-प्रताप पतिब्रत, सीता-सत नहिं टरई॥
ऐसी तिया हरत क्यौं आई, ताकौ यह सतिभाउ।
मन-बच-कर्म और नहिं दूजौ, बिन रघुनंदन राउ॥
उन कें क्रोध भस्म ह्वै जैहौ, करौ न सीता-चाउ।
तब तुम काकी सरन उबरिहौ, सो बलि मोहि बताउ॥
‘‘जो सीता सत तैं बिचलै, तौ श्रीपति काहि सँभारै।
मोसे मुग्ध महापापी कौं, कौन क्रोध करि तारै॥
ये जननी वे प्रभु रघुनंदन, हौं सेवक प्रतिहार।
सीता-राम ‘सूर’ संगम बिनु, कौन उतारे पार?’’॥
मूल
(६९)
सुनौ किन कनकपुरी के राइ।
हौं बुधि-बल-छल करि पचि हारी, लख्यौ न सीस उचाइ॥
डोलै गगन सहित सुरपति अरु पुहुमि पलटि जग परई।
नसै धर्म, मन-बचन-काय करि, सिंधु अचंभौ करई॥
अचला चलै, चलत पुनि थाकै, चिरंजीवि सो मरई।
श्रीरघुनाथ-प्रताप पतिब्रत, सीता-सत नहिं टरई॥
ऐसी तिया हरत क्यौं आई, ताकौ यह सतिभाउ।
मन-बच-कर्म और नहिं दूजौ, बिन रघुनंदन राउ॥
उन कें क्रोध भस्म ह्वै जैहौ, करौ न सीता-चाउ।
तब तुम काकी सरन उबरिहौ, सो बलि मोहि बताउ॥
‘‘जो सीता सत तैं बिचलै, तौ श्रीपति काहि सँभारै।
मोसे मुग्ध महापापी कौं, कौन क्रोध करि तारै॥
ये जननी वे प्रभु रघुनंदन, हौं सेवक प्रतिहार।
सीता-राम ‘सूर’ संगम बिनु, कौन उतारे पार?’’॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वही राक्षसी रावणके पास लौट आयी और बोली—) स्वर्णपुरी नरेश! आप मेरी बात क्यों नहीं सुनते? मैं (अपनी) बुद्धिका प्रयोग एवं (सब प्रकारका) छल-बल करके थक गयी; किंतु सीताजीने सिर उठाकर मेरी ओर देखातक नहीं। चाहे इन्द्रके साथ आकाश हिल उठे; चाहे पृथ्वी सारे संसारके साथ उलट पड़े; चाहे लोगोंके मन, वाणी और कर्मसे धर्म नष्ट हो जाय; चाहे समुद्र (मर्यादा छोड़कर) आश्चर्य उत्पन्न कर दे, चाहे जड पृथ्वी चलने लगे और चलनेवाले (चेतन) जीव जड बन जायँ और चाहे चिरजीवी (अमर) लोग मर जायँ; किंतु श्रीरघुनाथके प्रतापसे सीताजीका सच्चा पातिव्रत भंग नहीं हो सकता। ऐसी (पतिव्रता) स्त्री तुम्हारे द्वारा कैसे हरी गयी? उनका तो यह सच्चा भाव है कि मन, वचन और कर्मसे महाराज श्रीरघुनाथजीको छोड़कर दूसरा कोई पुरुष है ही नहीं। तुम सीताकी चाह मत करो। भला, मुझे बताओ तो कि (जब वे क्रोध करेंगी, तब) किसकी शरण लेनेसे तुम्हारी रक्षा होगी? तुम तो उनके क्रोधसे भस्म ही हो जाओगे।’ सूरदासजी कहते हैं (राक्षसीकी बात सुनकर रावण बोला—) ‘यदि श्रीजानकीजी ही अपने पातिव्रतसे विचलित हो जायँ तो फिर भगवान् किसकी सँभाल करेंगे! (श्रीजानकीजीकी शक्ति एवं पातिव्रतके बलसे ही तो वे जगत्पालक हैं।) किंतु मेरे-जैसे मायामोहित महापापीको दूसरा कौन क्रोध करके (भवसागरसे) तार सकता है? ये श्रीजानकी जगज्जननी हैं और वे श्रीरघुनाथजी स्वामी हैं; मैं तो इनका सेवक द्वारपाल हूँ। श्रीसीतारामका मिलन हुए बिना मुझे संसार-सागरसे पार कौन उतारेगा? (इसलिये मैंने तो अपने उद्धारके लिये ही श्रीजानकीजीका हरण किया है।)’
रावण-वचन सीताके प्रति
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(७०)
जनकसुता, तू समुझि चित्त मैं, हरषि मोहि तन हेरी।
चौदह सहस किंनरी जेती, सब दासी हैं तेरी॥
कहै तौ जनक-गेह दै पठवौं, अरध लंक कौ राज।
तोहि देखि चतुरानन मोहै, तू सुंदरि-सिरताज॥
छाँड़ि राम तपसी के मोहै, उठि आभूषन साजु।
चौदह सहस तिया मैं तोकौं, पटा बधाऊँ आजु॥
कठिन बचन सुनि स्रवन जानकी, सकी न बचन सँभारि।
तृन-अंतर दै दृष्टि तरौंधी, दियौ नयन-जल ढारि॥
पापी! जाउ जीभ गरि तेरी, अजुगुत बात बिचारी।
सिंह कौ भच्छ सृगाल न पावै, हौं समरथ की नारी॥
चौदह सहस सैन खरदूषन, हती राम इक बान।
लछिमन-राम-धनुष सन्मुख परि, काके रहिहैं प्रान॥
मेरौ हरन मरन है तेरौ, स्यौं कुटुंब-संतान।
जरिहै लंक कनकपुर तेरौ, उदवत रघुकुल-भान॥
तोकौं अवध कहत सब कोऊ, तातें सहियत बात।
बिना प्रयास मारिहौं तोकौं, आजु रैनि, कै प्रात॥
यह राकस की जाति हमारी, मोह न उपजै गात।
परतिय रमैं, धर्म कहा जानैं, डोलत मानुष खात॥
मन मैं डरी, कानि जिनि तोरै, मोहि अबला जिय जानि।
नख-सिख-बसन सँभारि, सकुच तनु, कुच-कपोल गहि पानि॥
रे दसकंध! अंधमति, तेरी आयु तुलानी आनि।
‘सूर’ राम की करत अवज्ञा, डारैं सब भुज भानि॥
मूल
(७०)
जनकसुता, तू समुझि चित्त मैं, हरषि मोहि तन हेरी।
चौदह सहस किंनरी जेती, सब दासी हैं तेरी॥
कहै तौ जनक-गेह दै पठवौं, अरध लंक कौ राज।
तोहि देखि चतुरानन मोहै, तू सुंदरि-सिरताज॥
छाँड़ि राम तपसी के मोहै, उठि आभूषन साजु।
चौदह सहस तिया मैं तोकौं, पटा बधाऊँ आजु॥
कठिन बचन सुनि स्रवन जानकी, सकी न बचन सँभारि।
तृन-अंतर दै दृष्टि तरौंधी, दियौ नयन-जल ढारि॥
पापी! जाउ जीभ गरि तेरी, अजुगुत बात बिचारी।
सिंह कौ भच्छ सृगाल न पावै, हौं समरथ की नारी॥
चौदह सहस सैन खरदूषन, हती राम इक बान।
लछिमन-राम-धनुष सन्मुख परि, काके रहिहैं प्रान॥
मेरौ हरन मरन है तेरौ, स्यौं कुटुंब-संतान।
जरिहै लंक कनकपुर तेरौ, उदवत रघुकुल-भान॥
तोकौं अवध कहत सब कोऊ, तातें सहियत बात।
बिना प्रयास मारिहौं तोकौं, आजु रैनि, कै प्रात॥
यह राकस की जाति हमारी, मोह न उपजै गात।
परतिय रमैं, धर्म कहा जानैं, डोलत मानुष खात॥
मन मैं डरी, कानि जिनि तोरै, मोहि अबला जिय जानि।
नख-सिख-बसन सँभारि, सकुच तनु, कुच-कपोल गहि पानि॥
रे दसकंध! अंधमति, तेरी आयु तुलानी आनि।
‘सूर’ राम की करत अवज्ञा, डारैं सब भुज भानि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(स्वयं रावण अशोक-वाटिकामें आया और श्रीजानकीजीसे बोला—) ‘जनकनन्दिनी! तुम अपने चित्तमें विचार करके (अपना हित-अहित) समझ लो और हर्षपूर्वक मेरी ओर देखो। (मेरे यहाँ) जितनी भी किन्नरियाँ हैं, वे सब चौदह हजार किन्नरियाँ तुम्हारी दासी हैं। तुम कहो तो तुम्हें लंकाका आधा राज्य देकर महाराज जनकके घर भेज दूँ। तुम्हें देखकर तो ब्रह्माजी भी मोहित हो जायँगे, तुम सुन्दरियोंके मस्तकके मुकुटके समान (सर्वश्रेष्ठ) हो। अतः तपस्वी रामका मोह छोड़ दो, उठो! आभूषण (अपने अंगोंमें) सजाओ। अपनी चौदह सहस्र रानियोंमें आज ही तुमको मैं पट्ट-महिषीका पद दे दूँ।’ ऐसी कठोर बातें कानोंसे सुनकर श्रीजानकीजी अपनी वाणीको रोक न सकीं। उनके नेत्रोंसे अश्रु ढुलकने लगे; नीची दृष्टि किये, बीचमें एक तिनका रखकर बोलीं—‘अरे पापी! तेरी जिह्वा गल जाय, जो तूने ऐसी मर्यादाहीन बातका विचार किया है। सिंहके भोजनको सियार नहीं पा सकता, मैं सर्व-समर्थकी स्त्री हूँ (यह भूलता क्यों है)। खर-दूषणकी चौदह सहस्र सेना श्रीरामने एक ही बाणसे मार दी, उन श्रीराम और लक्ष्मणके धनुषके सम्मुख पड़नेपर किसके प्राण बच सकते हैं? मेरा हरण तो समस्त कुटुम्ब और पुत्र-पौत्रादिके साथ तेरी मृत्यु (-का कारण) है। श्रीरघुकुलके सूर्यके उदय होते ही (श्रीरघुनाथजीके यहाँ पहुँचते ही तेरी स्वर्णपुरी लंका भस्म हो जायगी।’ (यह सुनकर रावण बोला—) ‘तुम्हें सब लोग अवध्य बतलाते हैं (सभी कहते हैं कि सीता मार डालनेयोग्य नहीं है), इसीसे मैं तुम्हारी बात सहता हूँ; मैं तो बिना किसी परिश्रमके तुम्हें आज रातमें ही या कल सबेरे मार डालूँगा। यह हमारी जाति तो राक्षसकी है, किसीके शरीरसे हमें मोह नहीं हुआ करता (स्वभावसे हमलोग निर्दय हैं)। हम तो परस्त्रियोंसे विहार करते हैं, धर्मकी बात हम क्या जानें। हम तो मनुष्योंका भक्षण करते हुए घूमते हैं।’ (रावणकी यह बात सुनकर श्रीजानकीजी) अपने मनमें डरीं कि मुझे अपने मनमें अबला समझकर यह संकोच न तोड़ दे (और बल-प्रयोगपर उतारू न हो जाय।) पैरसे सिरतक उन्होंने वस्त्रको सँभाल लिया (सब अंग पूर्णतः ढक लिये); शरीर समेट लिया और वक्षःस्थल तथा मुख भुजाओंमें छिपा लिये। सूरदासजी कहते हैं—(श्रीजानकी बोलीं—) ‘अरे दशानन! तेरी बुद्धि अंधी हो गयी है, तेरी आयु पूरी होनेको आ गयी है (तू मरनेवाला है)। तू श्रीरामका अपमान करता है! वे तेरी सभी भुजाओंको काट डालेंगे।’
रावण-त्रिजटा-संवाद
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(७१)
अरे सुनि सीता कत लायौ।
मोकौं यह समुझि आई है, तेरौ मन अघ छायौ॥
बार-बार त्रिजटी कहै, सुनि रावन मतिमंद।
जनक-सुता-तन गारिहै तोरन कौं दसकंध॥
गुपत मतौ रावन कहै, तूँ त्रिजटी सुनि आइ।
जौं पै सीता सत टरै, ‘सूर’ तीन भुवन जरि जाइ॥
मूल
(७१)
अरे सुनि सीता कत लायौ।
मोकौं यह समुझि आई है, तेरौ मन अघ छायौ॥
बार-बार त्रिजटी कहै, सुनि रावन मतिमंद।
जनक-सुता-तन गारिहै तोरन कौं दसकंध॥
गुपत मतौ रावन कहै, तूँ त्रिजटी सुनि आइ।
जौं पै सीता सत टरै, ‘सूर’ तीन भुवन जरि जाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे सुन! श्रीसीताजीको हरण करके तू क्यों ले आया? मेरा ऐसा विचार है कि तेरे मनमें पाप भर गया है।’ इस प्रकार बार-बार त्रिजटा कहती है—‘अरे मन्दबुद्धि रावण! सुन, श्रीजनकनन्दिनी अपना शरीर (शोकमें) गला देंगी (पर तुझे स्वीकार नहीं करेंगी) और तेरे दसों कंधोंको तोड़ने (दसों मस्तकोंके कटने)-का कारण बनेंगी।’ सूरदासजी कहते हैं—तब यह अपना गुप्त विचार रावण कहने लगा—‘अरी त्रिजटा! तू यहाँ आकर सुन; (मैं जानता हूँ कि) यदि श्रीजानकीजी अपने पातिव्रतसे डिग जायँ तो तीनों लोक भस्म हो जायँगे (उनके पातिव्रतके प्रभावसे ही त्रिभुवन स्थित है)।’
त्रिजटा-सीता-संवाद
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(७२)
रावन सोच करत मन माहीं।
सेन मोरि मंदिर कौं उलटॺौ, गयौ त्रिजटा के पाहीं॥
दस सिर बदन सिधारियौ, बहु राछसि सुबिचारि।
कछु छल-बल करि देखिहौं जौ मानै सीता नारि॥
त्रिजटी कहै सुबानि सौं मोहि रजायस होइ।
जनक-सुता पतिबर्त तैं और न टारै कोइ॥
हरषवंत त्रिजटी भई गई सिया कैं पास।
पूरन सुखरू पाइहैं सो लाये छाँड़ि उसास॥
तिबई दुखित बई लहै देखौ मनहिं बिचारि।
जोबन चंचल थिर नहीं ज्यौं कर-अँजुरी-बारि॥
बलकल पहरन, फल भखन, त्रिन-संथर श्रीराम।
तिनहीं कहा सुख हेत सौं असुर-सुंदरि सौं काम॥
सिया-बचन त्रिजटी सुनै, अस नहिं भाष बहोरि।
‘सूर’ सिंघ ही सिर दियो जंबुक-कोटि करोरि॥
मूल
(७२)
रावन सोच करत मन माहीं।
सेन मोरि मंदिर कौं उलटॺौ, गयौ त्रिजटा के पाहीं॥
दस सिर बदन सिधारियौ, बहु राछसि सुबिचारि।
कछु छल-बल करि देखिहौं जौ मानै सीता नारि॥
त्रिजटी कहै सुबानि सौं मोहि रजायस होइ।
जनक-सुता पतिबर्त तैं और न टारै कोइ॥
हरषवंत त्रिजटी भई गई सिया कैं पास।
पूरन सुखरू पाइहैं सो लाये छाँड़ि उसास॥
तिबई दुखित बई लहै देखौ मनहिं बिचारि।
जोबन चंचल थिर नहीं ज्यौं कर-अँजुरी-बारि॥
बलकल पहरन, फल भखन, त्रिन-संथर श्रीराम।
तिनहीं कहा सुख हेत सौं असुर-सुंदरि सौं काम॥
सिया-बचन त्रिजटी सुनै, अस नहिं भाष बहोरि।
‘सूर’ सिंघ ही सिर दियो जंबुक-कोटि करोरि॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावण (अपने) मनमें चिन्ता करता हुआ (अशोकवाटिकासे) भवनको लौटा, उसने (साथकी) सेना (भी) लौटा ली और स्वयं त्रिजटाके पास गया। दशानन (अपने भवनमें) लौटकर बहुत-सी राक्षसियोंके साथ विचार करने लगा—‘कुछ छल-बल करके देखूँगा, कदाचित् श्रीजानकी-जैसी (पतिव्रता) स्त्री भी (मेरी बात) मान जाय।’ यह सुनकर (इस आशासे कि इसी बहाने श्रीजानकीजीके पास जानेका अवसर मिलेगा) त्रिजटा बड़ी नम्रतासे बोली—‘मुझे राजाज्ञा मिलनी चाहिये। श्रीजनकनन्दिनीको पातिव्रतसे दूसरा कोई हटा नहीं सकता।’ (रावणकी आज्ञा पाकर) त्रिजटा प्रसन्नतापूर्वक श्रीसीताजीके पास गयी (और बोली—) आप यह बार-बार दीर्घश्वास लेना छोड़ दें, आपको पूर्ण आनन्दघन मिलेंगे।’ (श्रीजानकीजी कहने लगीं—) ‘त्रिजटा! अपने बोये (किये)-का फल पाकर दुःखित हो रही हूँ, यह अपने मनमें विचार करके देख लो।’ (फिर त्रिजटा बोली—) ‘यह युवावस्था तो स्थिर है नहीं, इस प्रकार चंचल (नाशवान्) है जैसे अंजलिमें लिया जल और श्रीराम वल्कल (पेड़ोंकी छाल) पहनते हैं, (वनके) फल खाते हैं तथा तृणकी साथरीपर (तृण बिछाकर) सोते हैं। उनसे प्रेम करके तुम्हें क्या सुख मिलेगा? (रावणको स्वीकार करके) असुर-सुन्दरियोंके समान तुम भी सब कामोपभोग प्राप्त करो।’ सूरदासजी कहते हैं—त्रिजटाकी बात सुनकर श्रीजानकीजी बोलीं—‘इस प्रकारकी बात फिर मत कहना! (संसारमें रावण-जैसे) करोड़ों सियारोंके झुंड हैं; किंतु मैंने तो अपना मस्तक (श्रीरामरूप) सिंहको ही दिया है (मेरे तो एकमात्र वे ही स्वामी हैं)।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(७३)
त्रिजटा सीता पै चलि आई।
मन मैं सोच न करि तू माता, यह कहि कै समुझाई॥
नलकूबर कौ साप रावनहि, तो पर बल न बसाई।
‘सूरदास’ मनु जरी सजीवनि, श्रीरघुनाथ पठाई!॥
मूल
(७३)
त्रिजटा सीता पै चलि आई।
मन मैं सोच न करि तू माता, यह कहि कै समुझाई॥
नलकूबर कौ साप रावनहि, तो पर बल न बसाई।
‘सूरदास’ मनु जरी सजीवनि, श्रीरघुनाथ पठाई!॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिजटा सीताजीके पास (बहुत निकट) चली आयी और यह समझाकर (धीरेसे जिसमें और कोई न सुन ले) कहने लगी—‘माता! तुम मनमें कोई चिन्ता मत करो। रावणको (कुबेरपुत्र) नलकूबरका शाप है (कि किसी नारीसे बलात्कार करनेका प्रयत्न करते ही वह मर जायगा); अतः तुमपर उसका बल चल नहीं सकता।’ सूरदासजी कहते हैं—(त्रिजटाकी यह बात सीताजीको ऐसी प्रिय लगी) जैसे श्रीरघुनाथजीने संजीवनी बूटी भेज दी हो।
विषय (हिन्दी)
राग कान्हरौ
विश्वास-प्रस्तुतिः
(७४)
धनि जननी! तेरौ ब्रत आख्यौ।
तूँ हौं जानत हौं, यहै भरौसौ, तेरौ पन तेरैं सत राख्यौ॥
फिरि त्रिजटा आई सीता पैं, रावन सौं मुख कोहि।
तूँ सीता ब्रत राखिये, राम मिलैगौ तोहि॥
सेत छत्र रघुनाथ सिर, बैठे अद्भुत पाट।
सेतैं चंदन जानकी! सोभित माथ लिलाट॥
यह सुपिनौ मोकौं भयो, अब साखी दीजै नाटि।
‘सूरदास’ रघुनाथ सौं रावन जैहै न्हाटि॥
मूल
(७४)
धनि जननी! तेरौ ब्रत आख्यौ।
तूँ हौं जानत हौं, यहै भरौसौ, तेरौ पन तेरैं सत राख्यौ॥
फिरि त्रिजटा आई सीता पैं, रावन सौं मुख कोहि।
तूँ सीता ब्रत राखिये, राम मिलैगौ तोहि॥
सेत छत्र रघुनाथ सिर, बैठे अद्भुत पाट।
सेतैं चंदन जानकी! सोभित माथ लिलाट॥
यह सुपिनौ मोकौं भयो, अब साखी दीजै नाटि।
‘सूरदास’ रघुनाथ सौं रावन जैहै न्हाटि॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—त्रिजटा फिर रावणसे क्रोधित मुख करके (रुष्ट होकर) सीताजीके पास आ गयी (उसके समझानेसे रावणने हठ नहीं छोड़ा था। श्रीजानकीजीसे वह बोली—) ‘माता! तुम धन्य हो। तुम्हारा पातिव्रत प्रशंसनीय है। तुम विश्वास करो, मैं यह जानती हूँ कि तुम्हारे प्रण (सतीत्वपर दृढ़ रहनेके आग्रह)-की रक्षा तुम्हारे पातिव्रतने ही की है। माता सीता! (आगे भी) तुम अपने सतीत्वकी रक्षा करना, (निश्चय) श्रीराम तुम्हें मिलेंगे; क्योंकि मुझे ऐसा स्वप्न दिखायी पड़ा है कि श्रीरघुनाथजी अद्भुत सिंहासनपर बैठे हैं, उनके मस्तकपर श्वेत छत्र लगा है और उनके ललाटपर श्वेत चन्दनका ही तिलक शोभित है। श्रीजानकीजी! अब और कोई प्रमाण देनेकी आवश्यकता नहीं है, श्रीरघुनाथजीकी शपथ! रावण नष्ट हो जायगा।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(७५)
सो दिन त्रिजटा! कहु कब ऐहै?
जा दिन चरन-कमल रघुपति के हरषि जानकी हृदय लगैहै॥
कबहुँक लछिमन पाइ सुमित्रा, माइ-माइ कहि मोहि सुनैहै।
कबहुँक कृपावंत कौसिल्या, बधू-बधू कहि मोहि बुलैहै॥
जा दिन कंचनपुर प्रभु ऐहैं, बिमल ध्वजा रथ पर फहरैहै।
ता दिन जनम सफल करि मानौं, मेरी हृदय-कालिमा जैहै॥
जा दिन राम रावनहि मारैं, ईसहि लै दस सीस चढ़ैहैं।
ता दिन ‘सूर’ राम पै सीता सरबस वारि बधाई दैहै॥
मूल
(७५)
सो दिन त्रिजटा! कहु कब ऐहै?
जा दिन चरन-कमल रघुपति के हरषि जानकी हृदय लगैहै॥
कबहुँक लछिमन पाइ सुमित्रा, माइ-माइ कहि मोहि सुनैहै।
कबहुँक कृपावंत कौसिल्या, बधू-बधू कहि मोहि बुलैहै॥
जा दिन कंचनपुर प्रभु ऐहैं, बिमल ध्वजा रथ पर फहरैहै।
ता दिन जनम सफल करि मानौं, मेरी हृदय-कालिमा जैहै॥
जा दिन राम रावनहि मारैं, ईसहि लै दस सीस चढ़ैहैं।
ता दिन ‘सूर’ राम पै सीता सरबस वारि बधाई दैहै॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(यह सुनकर श्रीजानकीजी बोलीं—) ‘त्रिजटा! वह दिन कब आयेगा, जिस दिन जानकी हर्षपूर्वक श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंको अपने हृदयसे लगायेगी? क्या कभी लक्ष्मण अपनी माता सुमित्राके समान मुझे पाकर ‘माँ! माँ!’ इस प्रकार कहकर मुझे पुकारेंगे? क्या कभी कृपामयी कौसल्या माता मुझे ‘बहू! बहू!’ कहकर पुकारेंगी? जिस दिन मेरे स्वामी इस स्वर्णनगरीमें आयेंगे और उनके रथपर (युद्धमें विजयकी) निर्मल ध्वजा उड़ेगी, उसी दिन मेरे हृदयका शोक दूर होगा और मैं अपने जीवनको सफल समझूँगी। जिस दिन श्रीराम रावणको मारकर उसके दसों मस्तक भगवान् रुद्रको चढ़ा देंगे, उसी दिन सीता श्रीरामपर अपना सर्वस्व न्योछावर करके (उन्हें विजयकी) बधाई देगी।’
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(७६)
मैं तो राम-चरन चित दीन्हौ।
मनसा, बाचा और कर्मना, बहुरि मिलन कौं आगम कीन्हौ॥
डुलै सुमेरु, सेष-सिर कंपै, पच्छिम उदै करै बासर-पति।
सुनि त्रिजटा, तौहूँ नहिं छाड़ौं, मधुर-मूर्ति रघुनाथ-गात-रति॥
सीता करति बिचार मनहिं-मन, आजु-काल्हि कोसलपति आवैं।
‘सूरदास’ स्वामी करुनामय, सो कृपालु मोहि क्यौं बिसरावैं!॥
मूल
(७६)
मैं तो राम-चरन चित दीन्हौ।
मनसा, बाचा और कर्मना, बहुरि मिलन कौं आगम कीन्हौ॥
डुलै सुमेरु, सेष-सिर कंपै, पच्छिम उदै करै बासर-पति।
सुनि त्रिजटा, तौहूँ नहिं छाड़ौं, मधुर-मूर्ति रघुनाथ-गात-रति॥
सीता करति बिचार मनहिं-मन, आजु-काल्हि कोसलपति आवैं।
‘सूरदास’ स्वामी करुनामय, सो कृपालु मोहि क्यौं बिसरावैं!॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीजानकीजी कहती हैं—) ‘मन, वाणी और कर्मसे (सब प्रकार) मैंने तो श्रीरामके चरणोंमें अपना चित्त लगा दिया है और उनसे मिलनेकी आशा कर रही हूँ। त्रिजटा! सुन—चाहे सुमेरु हिलने लगे, शेषनागका मस्तक काँपने लगे और सूर्य पश्चिममें उगने लगें, तब भी मधुरमूर्ति श्रीरघुनाथजीके श्रीविग्रहसे प्रेम करना मैं छोड़ नहीं सकती।’ सूरदासजी कहते हैं—मन-ही-मन श्रीजानकीजी विचार करती हैं—‘श्रीरघुनाथजी आज-कलमें ही आनेवाले हैं। मेरे स्वामी तो करुणामय हैं, वे कृपालु भला, मुझे विस्मृत कैसे कर सकते हैं।’
त्रिजटा-स्वप्न, हनुमान्-सीता-मिलन
विषय (हिन्दी)
राग धनाश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(७७)
सुनि सीता! सपने की बात।
रामचंद्र-लछिमन मैं देखे, ऐसी बिधि परभात॥
कुसुम-बिमान बैठि बैदेही, देखी राघव पास।
स्वेत छत्र रघुनाथ-सीस पर, दिनकर-किरन-प्रकास॥
भयौ पलायमान दानवकुल, ब्याकुल सायक-त्रास।
पजरत धुजा, पताक, छत्र, रथ, मनिमय कनक-अबास॥
रावन-सीस पुहुमि पर लोटत, मंदोदरि बिलखाइ।
कुंभकरन-तन पंक लगाई, लंक बिभीषन पाइ॥
प्रगटॺौ आइ लंक दल कपि कौ, फिरि रघुबीर-दुहाइ।
या सपने कौ भाव सिया सुनि, कबहुँ बिफल नहिं जाइ॥
त्रिजटा-बचन सुनत बैदेही, अति दुख लेति उसास।
हा हा रामचंद्र! हा लछिमन! हा कौसिल्या सास!
त्रिभुवन-नाथ नाह जो पावै, सहै सो क्यौं बनबास?
हा कैकई! सुमित्रा जननी! कठिन निसाचर-त्रास॥
कौन पाप मैं पापिनि कीन्हौ, प्रगटॺौ जो इहिं बार।
धिक-धिक जीवन है, अब यह तन, क्यौं न होइ जरि छार॥
द्वै अपराध मोहि ये लागे, मृग हित दियौ हथियार।
जान्यौ नहीं निसाचर कौ छल, नाघ्यौ धनुष-प्रकार॥
पंछी एक सुहृद जानत हौं, करॺौ निसाचर भंग।
तातें बिरमि रहे रघुनंदन, करि मनसा-गति पंग॥
इतनौ कहत नैन-उर फरके, सगुन जनायौ अंग।
आजु लहौं रघुनाथ-सँदेसौ, मिटै बिरह-दुख-संग॥
तिहिं छिन पवन-पूत तहँ प्रगटॺौ, सिया अकेली जानि।
‘‘श्रीदसरथकुमार दोउ बंधू, धरें धनुष-सर पानि॥
प्रिया-बियोग फिरत मारें मन, परैं सिंधु-तट आनि।
ता सुंदरि हित मोहि पठायौ, सकौं न हौं पहिचानि॥’’
बारंबार निरखि तरुबर तन, कर मीड़ति पछिताइ।
दनुज, देव, पसु, पच्छी को तू, नाम लेत रघुराइ?
बोल्यौ नहीं, रह्यौ दुरि बानर, द्रुम मैं देहि छपाइ।
कै अपराध ओड़ि तू मेरौ, कै तू देहि दिखाइ॥’’
तरुबर त्यागि चपल साखामृग, सन्मुख बैठॺौ आइ।
माता! पुत्र जानि दै उत्तर, कहु, किहिं बिधि बिलखाइ?
किंनर-नाग-देव-सुर-कन्या, कासों हुति उपजाइ?
कै तू जनक-कुमारि जानकी, राम-बियोगिनि आइ?
राम-नाम सुनि उत्तर दीन्हौ, पिता-बंधु मम होहि।
मैं सीता, रावन हरि ल्यायौ, त्रास दिखावत मोहि॥
अब मैं मरौं, सिंधु मैं बूड़ौं, चित मैं आवै कोह।
सुनो बच्छ! धिक जीवन मेरौ, लछिमन-राम-बिछोह॥
कुसल जानकी! श्रीरघुनंदन, कुसल लच्छिमन भाइ।
तुम हित नाथ कठिन ब्रत कीन्हौ, नहिं जल-भोजन खाइ॥
मुरै न अंग कोउ जो काटै, निसिबासर-सम जाइ।
तुम घट प्रान देखियत सीता, बिना प्रान रघुराइ॥
बानर बीर चहूँ दिसि धाए , ढूँढैं गिरि-बन-झार।
सुभट अनेक सबल दल साजे, परे सिंधु के पार॥
उद्यम मेरौ सफल भयौ अब, तुम देख्यौ जो निहार।
अब रघुनाथ मिलाऊँ तुम कौं सुंदरि! सोक निवारि॥
यह सुनि सिय-मन संका उपजी, रावन-दूत बिचारि।
छल करि आयौ निसिचर कोऊ, बानर-रूपहि धारि॥
स्रवन मूँदि, मुख आँचर ढाँप्यौ, अरे निसाचर, चोर!
काहे कौं छल करि-करि आवत, धर्म बिनासन मोर?
पावक परौं, सिंधु महँ बूड़ौं, नहिं मुख देखौं तोर।
पापी क्यौं न पीठि दै मोकौं, पाहन-सरिस कठोर॥
जिय अति डरॺौ, मोहि मति सापै, ब्याकुल बचन कहंत।
मोहि बर दियौ सकल देवनि मिलि, नाम धरॺौ हनुमंत॥
अंजनि-कुँवर, राम कौ पायक, ताकैं बल गर्जंत।
जिहिं अंगद-सुग्रीव उबारे, बध्यौ बालि बलवंत॥
लेहु मातु! सहिदानि मुद्रिका, दई प्रीति करि नाथ।
सावधान ह्वै सोक निवारहु, ओड़हु दच्छिन हाथ॥
खिन मुँदरी, खिनहीं हनुमत सों, कहति बिसूरि-बिसूरि।
कहि मुद्रिके! कहाँ तैं छाँड़े, मेरे जीवन-मूरि?
प्रभु सौं पूछ! सँदेसौ इतनौ, जब हम वे इक थान।
सोवत काग छुयौ तन मेरौ, बरहहिं कीनौ बान॥
फोरॺौ नयन, काग नहिं छाँड़ॺौ, सुरपति के बिदमान।
अब वह कोप कहाँ रघुनंदन, दससिर-बेर बिलान?
निकट बुलाइ, बिठाइ, निरखि मुख, अंचर लेत बलाइ।
चिरजीवौ सुकुमार पवन-सुत, गहति दीन ह्वै पाइ॥
बहुत भुजनि बल होइ तुम्हारैं, ये अमृत फल खाहु।
अब की बेर ‘सूर’ प्रभु मिलवहु, बहुरि प्रान किन जाहु॥
मूल
(७७)
सुनि सीता! सपने की बात।
रामचंद्र-लछिमन मैं देखे, ऐसी बिधि परभात॥
कुसुम-बिमान बैठि बैदेही, देखी राघव पास।
स्वेत छत्र रघुनाथ-सीस पर, दिनकर-किरन-प्रकास॥
भयौ पलायमान दानवकुल, ब्याकुल सायक-त्रास।
पजरत धुजा, पताक, छत्र, रथ, मनिमय कनक-अबास॥
रावन-सीस पुहुमि पर लोटत, मंदोदरि बिलखाइ।
कुंभकरन-तन पंक लगाई, लंक बिभीषन पाइ॥
प्रगटॺौ आइ लंक दल कपि कौ, फिरि रघुबीर-दुहाइ।
या सपने कौ भाव सिया सुनि, कबहुँ बिफल नहिं जाइ॥
त्रिजटा-बचन सुनत बैदेही, अति दुख लेति उसास।
हा हा रामचंद्र! हा लछिमन! हा कौसिल्या सास!
त्रिभुवन-नाथ नाह जो पावै, सहै सो क्यौं बनबास?
हा कैकई! सुमित्रा जननी! कठिन निसाचर-त्रास॥
कौन पाप मैं पापिनि कीन्हौ, प्रगटॺौ जो इहिं बार।
धिक-धिक जीवन है, अब यह तन, क्यौं न होइ जरि छार॥
द्वै अपराध मोहि ये लागे, मृग हित दियौ हथियार।
जान्यौ नहीं निसाचर कौ छल, नाघ्यौ धनुष-प्रकार॥
पंछी एक सुहृद जानत हौं, करॺौ निसाचर भंग।
तातें बिरमि रहे रघुनंदन, करि मनसा-गति पंग॥
इतनौ कहत नैन-उर फरके, सगुन जनायौ अंग।
आजु लहौं रघुनाथ-सँदेसौ, मिटै बिरह-दुख-संग॥
तिहिं छिन पवन-पूत तहँ प्रगटॺौ, सिया अकेली जानि।
‘‘श्रीदसरथकुमार दोउ बंधू, धरें धनुष-सर पानि॥
प्रिया-बियोग फिरत मारें मन, परैं सिंधु-तट आनि।
ता सुंदरि हित मोहि पठायौ, सकौं न हौं पहिचानि॥’’
बारंबार निरखि तरुबर तन, कर मीड़ति पछिताइ।
दनुज, देव, पसु, पच्छी को तू, नाम लेत रघुराइ?
बोल्यौ नहीं, रह्यौ दुरि बानर, द्रुम मैं देहि छपाइ।
कै अपराध ओड़ि तू मेरौ, कै तू देहि दिखाइ॥’’
तरुबर त्यागि चपल साखामृग, सन्मुख बैठॺौ आइ।
माता! पुत्र जानि दै उत्तर, कहु, किहिं बिधि बिलखाइ?
किंनर-नाग-देव-सुर-कन्या, कासों हुति उपजाइ?
कै तू जनक-कुमारि जानकी, राम-बियोगिनि आइ?
राम-नाम सुनि उत्तर दीन्हौ, पिता-बंधु मम होहि।
मैं सीता, रावन हरि ल्यायौ, त्रास दिखावत मोहि॥
अब मैं मरौं, सिंधु मैं बूड़ौं, चित मैं आवै कोह।
सुनो बच्छ! धिक जीवन मेरौ, लछिमन-राम-बिछोह॥
कुसल जानकी! श्रीरघुनंदन, कुसल लच्छिमन भाइ।
तुम हित नाथ कठिन ब्रत कीन्हौ, नहिं जल-भोजन खाइ॥
मुरै न अंग कोउ जो काटै, निसिबासर-सम जाइ।
तुम घट प्रान देखियत सीता, बिना प्रान रघुराइ॥
बानर बीर चहूँ दिसि धाए , ढूँढैं गिरि-बन-झार।
सुभट अनेक सबल दल साजे, परे सिंधु के पार॥
उद्यम मेरौ सफल भयौ अब, तुम देख्यौ जो निहार।
अब रघुनाथ मिलाऊँ तुम कौं सुंदरि! सोक निवारि॥
यह सुनि सिय-मन संका उपजी, रावन-दूत बिचारि।
छल करि आयौ निसिचर कोऊ, बानर-रूपहि धारि॥
स्रवन मूँदि, मुख आँचर ढाँप्यौ, अरे निसाचर, चोर!
काहे कौं छल करि-करि आवत, धर्म बिनासन मोर?
पावक परौं, सिंधु महँ बूड़ौं, नहिं मुख देखौं तोर।
पापी क्यौं न पीठि दै मोकौं, पाहन-सरिस कठोर॥
जिय अति डरॺौ, मोहि मति सापै, ब्याकुल बचन कहंत।
मोहि बर दियौ सकल देवनि मिलि, नाम धरॺौ हनुमंत॥
अंजनि-कुँवर, राम कौ पायक, ताकैं बल गर्जंत।
जिहिं अंगद-सुग्रीव उबारे, बध्यौ बालि बलवंत॥
लेहु मातु! सहिदानि मुद्रिका, दई प्रीति करि नाथ।
सावधान ह्वै सोक निवारहु, ओड़हु दच्छिन हाथ॥
खिन मुँदरी, खिनहीं हनुमत सों, कहति बिसूरि-बिसूरि।
कहि मुद्रिके! कहाँ तैं छाँड़े, मेरे जीवन-मूरि?
प्रभु सौं पूछ! सँदेसौ इतनौ, जब हम वे इक थान।
सोवत काग छुयौ तन मेरौ, बरहहिं कीनौ बान॥
फोरॺौ नयन, काग नहिं छाँड़ॺौ, सुरपति के बिदमान।
अब वह कोप कहाँ रघुनंदन, दससिर-बेर बिलान?
निकट बुलाइ, बिठाइ, निरखि मुख, अंचर लेत बलाइ।
चिरजीवौ सुकुमार पवन-सुत, गहति दीन ह्वै पाइ॥
बहुत भुजनि बल होइ तुम्हारैं, ये अमृत फल खाहु।
अब की बेर ‘सूर’ प्रभु मिलवहु, बहुरि प्रान किन जाहु॥
अनुवाद (हिन्दी)
(त्रिजटा कहती है—) ‘सीताजी! स्वप्नकी बात सुनो। मैंने सबेरेके समय इस प्रकारका स्वप्न देखा है—मैंने (स्वप्नमें) श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मणको देखा है तथा श्रीरामके पास पुष्पोंके विमानमें बैठी श्रीजानकीजी! तुम्हें भी देखा है। श्रीरघुनाथजीके मस्तकपर श्वेत छत्र लगा था, जिसका प्रकाश सूर्यकी किरणोंके समान था। (श्रीरामचन्द्रजीके) बाणोंके भयसे व्याकुल होकर दानवोंकी सेना भाग रही थी। रावणकी ध्वजा-पताकाएँ, छत्र, रथ तथा मणिजटित सोनेका महल जल रहे थे। रावणके (कटे हुए) मस्तक पृथ्वीपर लुढ़क रहे थे और रानी मन्दोदरी विलाप कर रही थी। कुम्भकर्णने शरीरमें कीचड़ लगा रखी थी। लंकाका राज्य विभीषण पा गये थे। लंकामें आकर वानरोंका दल प्रकट हो गया और श्रीरघुनाथजीकी दुहाई फिर गयी (विजय-घोषणा हो गयी)। श्रीसीताजी! सुनो—इस स्वप्नका जो तात्पर्य है, वह कभी व्यर्थ नहीं जायगा।’ त्रिजटाकी बात सुनकर श्रीजनक-नन्दिनीने अत्यन्त दुःखसे लंबी श्वास ली (और कहा—) ‘हा (स्वामी) श्रीराम! हा लक्ष्मण! हा सास कौसल्या! जिसे त्रिभुवननाथ स्वामी मिले हों, वह क्योंकर वनवास (-का कष्ट)सह सकती है! हा कैकेयी! हा सुमित्रा माता! मुझे तो राक्षसका बड़ा कठिन भय प्राप्त हो रहा है। (पता नहीं) मुझ पापिनीने कौन-सा पाप किया था, जो इस बार (फल देनेके लिये) प्रकट हुआ है। मेरे जीवनको धिक्कार है। मेरा यह शरीर अब जलकर भस्म क्यों नहीं हो जाता? मुझे तो अपने ये दो अपराध जान पड़ते हैं—(प्रथम तो) स्वर्ण-मृगको मारनेके लिये मैंने प्रभुको हथियार दिया (मृगको मारनेका आग्रह किया) और (दूसरे) मैं राक्षस (रावण)-का छल न समझ सकी, सुतरां (लक्ष्मणद्वारा) धनुषसे खींची रेखाका उल्लंघन करके बाहर निकल आयी। एक पक्षी (गीध)- को मैं अपना सुहृद् (हितैषी) जानती हूँ। राक्षसने उसका अंग-भंग कर दिया (पक्ष काट दिये)। (लगता है कि भक्त-पक्षीका भी मुझसे अपराध हो गया।) इसीसे श्रीरघुनाथ यहाँ आनेसे रुके हुए हैं, अपने मनकी गति उन्होंने रोक ली है (अन्यथा इच्छा करते ही वे यहाँ पहुँचनेमें समर्थ हैं)।’ इतना कहते ही (बायाँ) नेत्र और वक्षःस्थल फड़क उठे, अंगोंने शुभ शकुन प्रकट किया। (इससे श्रीजानकीजीने समझ लिया) ‘आज मैं श्रीरघुनाथजीका संदेश पाऊँगी, वियोगके दुःखका संग छूट जायगा।’ उसी समय श्रीजानकीजीको अकेली समझकर श्रीहनुमान् जी ने (बोलकर) वहाँ अपनेको प्रकट किया (वे साक्षात् नहीं प्रकट हुए , डालपर छिपे-छिपे ही बोले—) ‘महाराज दशरथके पुत्र दोनों भाई हाथोंमें धनुष-बाण लिये तथा अपनी प्रियतमाके वियोगसे मनमारे हुए (दुःखित) समुद्रके किनारे (सागर-तटीय प्रदेशमें) आकर ठहरे हैं। अपनी उसी सुन्दरी पत्नीके लिये मुझे उन्होंने भेजा है; किंतु मैं (उनकी भार्याको) पहचाननेमें असमर्थ हूँ।’ (यह शब्द सुनकर श्रीजानकी) बार-बार वृक्षकी ओर देखती हैं तथा हाथ मलकर पश्चात्ताप करती हैं। (उन्होंने कहा—) ‘राक्षस, देवता, पशु या पक्षी तू कौन है, जो श्रीरघुनाथका नाम ले रहा है?’ (इसपर भी) हनुमान् जी बोले नहीं, वृक्षमें अपने शरीरको छिपाये वे छिपे ही रहे। (तब श्रीजानकीजीने कहा—) ‘या तो तू मेरे शापको स्वीकार कर या दिखायी दे! (अर्थात् तू दिखायी नहीं देगा तो मैं शाप दे दूँगी)।’ (यह सुनते ही) चंचल वानररूपधारी हनुमान् जी वृक्षको छोड़कर सम्मुख आकर बैठ गये (और बोले—) ‘माता! तुम मुझे अपना पुत्र समझकर मेरी बातका उत्तर दो। बताओ, तुम इस प्रकार क्यों रो रही हो? किन्नर, नाग, गन्धर्व, देवता आदिमें तुम किसकी कन्या हो? किससे तुम्हारी उत्पत्ति हुई थी? अथवा तुम श्रीरामकी वियोगिनी पत्नी महाराज श्रीजनकजीकी पुत्री श्रीजानकी हो?’ श्रीरामका नाम सुनकर (श्रीजानकीजीने) उत्तर दिया—‘तुम (चाहे जो हो) मेरे लिये पिता और भाईके समान हो। मेरा नाम सीता है। रावण मुझे चुराकर (यहाँ) ले आया है और अब मुझे (अनेक प्रकारसे) भय दिखलाता है। अब मेरे चित्तमें क्रोध आता है कि समुद्रमें डूबकर मर जाऊँ। हे पुत्र! सुनो, श्रीराम-लक्ष्मणके वियोगमें मेरे जीवित रहनेको धिक्कार है।’ इतनी बात सुनकर हनुमान् जी बोले— ‘माता जानकी! श्रीरघुनाथजी कुशलपूर्वक हैं, भैया लक्ष्मणजी भी कुशलपूर्वक हैं। आपके लिये प्रभुने बड़ा कठिन व्रत ले रखा है, वे न जल पीते हैं, न भोजन करते हैं। उनका शरीर ऐसा (निर्जीवप्राय) हो रहा है कि कोई अंगोंको काटे तो भी वह मुड़ेगा (हिलेगा) नहीं। रात्रि भी दिनके समान (जागते हुए) ही बीत रही है। श्रीजानकीजी! उनके प्राण तो तुम्हारे शरीरमें दिखायी पड़ते हैं, श्रीरघुनाथजी तो बिना प्राणके हो रहे हैं। अनेक वीर वानर चारों दिशाओंमें दौड़ रहे हैं; वे पर्वतों, वनों एवं झाड़ियोंमें तुमको ढूँढ़ रहे हैं। अनेक श्रेष्ठ वीर (अपने साथ) पूरी सेना सजाये समुद्रके उस पार पड़े हैं। मेरा परिश्रम अब सफल हो गया जो (यहाँ आकर) मैंने तुम्हारा भलीभाँति दर्शन कर लिया। त्रिभुवनसुन्दरी माता! अब शोक दूर करो, मैं तुम्हें श्रीरघुनाथजीसे मिला दूँगा।’ (हनुमान् जी की) यह (बात) सुनकर उन्हें रावणका दूत समझकर श्रीसीताजीके मनमें संदेह उत्पन्न हुआ कि यह कोई राक्षस छलसे वानरका रूप बनाकर यहाँ आया है। उन्होंने कान बंद कर लिये, अंचलसे मस्तक ढक लिया (और बोलीं—) ‘अरे राक्षस! अरे चोर! मेरा धर्म नष्ट करनेके लिये तू क्यों बार-बार यहाँ छल करके आता है? मैं अग्निमें जल जाऊँगी, समुद्रमें डूब जाऊँगी; किंतु तेरा मुख नहीं देखूँगी। अरे पापी! मुझसे पीठ क्यों नहीं दे लेता? (मेरी ओरसे मुँह क्यों नहीं मोड़ लेता?) तेरा हृदय पत्थरके समान कठोर है।’ (श्रीजानकीजीकी बातें सुनकर हनुमान् जी) हृदयमें डरने लगे कि ये कहीं मुझे शाप न दे दें। (और इस प्रकार) व्याकुलताभरे वचन बोले—‘सभी देवताओंने मिलकर मुझे वरदान दिया है और मेरा नाम हनुमान् रखा है। मैं माता अंजनाका पुत्र हूँ और श्रीरामका दूत हूँ। उनके बलसे ही मैं गर्जना करता हूँ (मुझमें अपना कोई बल नहीं है)। जिस प्रभुने अंगद और सुग्रीवकी रक्षा की तथा बलवान् बालिको मार दिया, हे माता! उसी प्रभुने प्रेमपूर्वक अपनी अँगूठी मुझे दी है, इस प्रमाण-चिह्नको तुम लो—(अपने) दाहिने हाथमें (इसे) ले लो। (अब) सावधान होकर शोकको दूर भगा दो।’ (मुद्रिका लेकर श्रीजानकीजी) क्षणमें उस अँगूठीको देखती हैं और क्षणमें हनुमान् जी की ओर देखती हैं। वे रो-रोकर कहने लगीं—‘मुद्रिके! बता तो मेरे जीवनकी जड़ी (मेरे जीवनस्वरूप) प्रभुको तूने कहाँ छोड़ा? प्रभुसे मेरा यह संदेश पूछना कि जब मैं और वे एक ही स्थानपर विश्राम कर रहे थे, तब एक कौएने मेरे शरीरको छू दिया था, इसपर प्रभुने कुशका बाण बना लिया और देवराज इन्द्रके रहते हुए काग (बने इन्द्रपुत्र जयन्त)-को छोड़ा नहीं; उसका (एक) नेत्र फोड़ दिया। श्रीरघुनाथजीका वह क्रोध रावणकी बार कहाँ नष्ट हो गया?’ सूरदासजी कहते हैं—(श्रीजानकीजीने हनुमान् जी को) पास बुलाकर बैठा लिया, उनका मुख देखकर (पुत्रके समान स्नेहसे) अंचलसे बलैया लेने (मुख पोंछने) लगीं। अत्यन्त दीन होकर उनके पैर पकड़ने लगीं और बोलीं—‘सुकुमार पवनकुमार! चिरजीवी हो। तुम्हारी भुजाओंमें बहुत बल हो! ये (उपवनके) अमृतके समान फल खाओ। इस बार मुझे स्वामीसे मिला दो; फिर प्राण क्यों न चले जायँ।’
हनुमान् द्वारा सीता-समाधान
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(७८)
जननी! हौं अनुचर रघुपति कौ।
मति माता करि कोप सरापै, नहिं दानव ठग मति कौ॥
आज्ञा होइ, देउँ कर-मुँदरी, कहौं संदेसौ पति कौ।
मति हिय बिलख करौ सिय, रघुबर हतिहैं कुल दैयत कौ॥
कहौ तौ लंक उखारि डारि देउँ, जहाँ पिता संपति कौ।
कहौ तौ मारि-सँहारि निसाचर, रावन करौं अगति कौ॥
सागर-तीर भीर बनचर की, देखि कटक रघुपति कौ।
अबै मिलाऊँ तुम्हैं ‘सूर’ प्रभु, राम-रोष डर अति कौ॥
मूल
(७८)
जननी! हौं अनुचर रघुपति कौ।
मति माता करि कोप सरापै, नहिं दानव ठग मति कौ॥
आज्ञा होइ, देउँ कर-मुँदरी, कहौं संदेसौ पति कौ।
मति हिय बिलख करौ सिय, रघुबर हतिहैं कुल दैयत कौ॥
कहौ तौ लंक उखारि डारि देउँ, जहाँ पिता संपति कौ।
कहौ तौ मारि-सँहारि निसाचर, रावन करौं अगति कौ॥
सागर-तीर भीर बनचर की, देखि कटक रघुपति कौ।
अबै मिलाऊँ तुम्हैं ‘सूर’ प्रभु, राम-रोष डर अति कौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीहनुमान् जी कहने लगे—) ‘जननी! मैं श्रीरघुपतिका सेवक हूँ। माता! तुम क्रोध करके मुझे शाप मत दो, मैं ठग बुद्धिवाला (छली) राक्षस नहीं हूँ। तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं प्रभुकी अँगूठी तुम्हें दूँ और तुम्हारे पतिका संदेश कहूँ। श्रीजानकीजी! अपने हृदयको दुःखी मत करो! श्रीरघुनाथजी राक्षस-कुलका नाश कर देंगे। आप आज्ञा करें तो सम्पत्तिके पिता (रत्नाकर या लक्ष्मीजीके पिता) समुद्रमें लंकाको उखाड़कर डाल दूँ। अथवा आप कहें तो मार-मारकर सारे राक्षसोंका संहार कर दूँ और रावणको नरक भेज दूँ। समुद्रके उस पार वानरोंकी भीड़ हो रही है, आप श्रीरघुनाथजीकी सेनाका निरीक्षण करें। मुझे तो केवल श्रीरामजीके क्रोधका अत्यन्त भय है (वे कहीं रुष्ट न हो जायँ कि मैंने ही क्यों रावणको मार दिया) नहीं तो (मेरे साथ चलो, तुम्हें) अभी ही स्वामीसे मिला दूँ।
विषय (हिन्दी)
(७९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुचर रघुनाथ कौ, तव दरस काज आयौ।
पवन-पूत कपिस्वरूप, भक्तनि मैं गायौ॥
आयसु जो होइ जननि, सकल असुर मारौं।
लंकेस्वर बाँधि राम-चरननि तर डारौं॥
तपसी तप करैं जहाँ, सोई बन झाँखौं।
जाकी तुम बैठी छाहँ, सोइ द्रुम राखौं॥
चढ़ि चलौ जो पीठि मेरी, अबहिं लै मिलाऊँ।
‘सूर’ श्रीरघुनाथजू की, लीला नित्य गाऊँ॥
मूल
अनुचर रघुनाथ कौ, तव दरस काज आयौ।
पवन-पूत कपिस्वरूप, भक्तनि मैं गायौ॥
आयसु जो होइ जननि, सकल असुर मारौं।
लंकेस्वर बाँधि राम-चरननि तर डारौं॥
तपसी तप करैं जहाँ, सोई बन झाँखौं।
जाकी तुम बैठी छाहँ, सोइ द्रुम राखौं॥
चढ़ि चलौ जो पीठि मेरी, अबहिं लै मिलाऊँ।
‘सूर’ श्रीरघुनाथजू की, लीला नित्य गाऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीहनुमान् जी कहने लगे—) ‘मैं श्रीरघुनाथजीका सेवक हूँ और आपका दर्शन करने यहाँ आया हूँ। भक्तलोग वानररूपधारी, पवनपुत्र कहकर मेरा वर्णन करते हैं। माता! यदि आपकी आज्ञा हो तो सभी राक्षसोंको मार डालूँ और रावणको बाँधकर श्रीरामके चरणोंमें डाल दूँ। जहाँ तपस्वीलोग तपस्या करते हैं, उसी (दण्डकवन)-की झाँकी आपको करा दूँ। आप जिस वृक्षकी छायामें बैठी हैं, उसी वृक्षको (इस भूमिके साथ उठाकर) वहाँ रख दूँ। आप यदि मेरी पीठपर चढ़कर चलें तो अभी ले जाकर प्रभुसे मिला दूँ।’ श्रीसूरदासजी कहते हैं (जिनके ऐसे समर्थ दूत हैं, उन) श्रीरघुनाथजीकी लीलाका मैं नित्य गान करता हूँ।
विषय (हिन्दी)
राग मलार
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८०)
बनचर! कौन देस तें आयौ?
कहाँ वे राम, कहाँ वे लछिमन, क्यों करि मुद्रा पायौ?
हौं हनुमंत, राम कौ सेवक, तुम सुधि लैन पठायौ॥
रावन मारि, तुम्हें लै जातौ, रामाज्ञा नहिं पायौ।
तुम जनि डरपौ मेरी माता, राम जोरि दल ल्यायौ।
‘सूरदास’ रावन कुल-खोवन सोवत सिंह जगायौ॥
मूल
(८०)
बनचर! कौन देस तें आयौ?
कहाँ वे राम, कहाँ वे लछिमन, क्यों करि मुद्रा पायौ?
हौं हनुमंत, राम कौ सेवक, तुम सुधि लैन पठायौ॥
रावन मारि, तुम्हें लै जातौ, रामाज्ञा नहिं पायौ।
तुम जनि डरपौ मेरी माता, राम जोरि दल ल्यायौ।
‘सूरदास’ रावन कुल-खोवन सोवत सिंह जगायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीजानकीजीने पूछा)—‘हे कपि! तुम किस देशसे आये हो? वे श्रीराम कहाँ हैं? वे लक्ष्मण कहाँ हैं? (जिनका तुम वर्णन कर रहे हो।) यह अँगूठी तुमको कैसे प्राप्त हुई?’ (श्रीहनुमान् जी बोले—) ‘मैं श्रीरामजीका सेवक हनुमान् हूँ। प्रभुने आपका समाचार जाननेके लिये मुझे भेजा है। मैं तो रावणको मारकर आपको ले जाता; किंतु श्रीरामकी ओरसे (ऐसा कार्य करनेकी आज्ञा नहीं मिली है। मेरी माँ! आप अब डरें मत! श्रीराम सेना एकत्र करके आ ही गये हैं। रावण तो अपने कुलका नाश करनेवाला है, उसने सोते हुए सिंहको जगा दिया है।’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८१)
तुम्हैं पहिचानति नाहीं बीर!
इन नैननि कबहूँ नहिं देख्यौ, रामचंद्र के तीर॥
लंका बसत दैत्य अरु दानव, तिन के अगम सरीर।
तोहि देखि मेरौ जिय डरपत, नैननि आवत नीर॥
तब कर काढ़ि अँगूठी दीन्हीं, जिहिं जिय उपज्यौ धीर।
‘सूरदास’ प्रभु लंका कारन, आए सागर तीर॥
मूल
(८१)
तुम्हैं पहिचानति नाहीं बीर!
इन नैननि कबहूँ नहिं देख्यौ, रामचंद्र के तीर॥
लंका बसत दैत्य अरु दानव, तिन के अगम सरीर।
तोहि देखि मेरौ जिय डरपत, नैननि आवत नीर॥
तब कर काढ़ि अँगूठी दीन्हीं, जिहिं जिय उपज्यौ धीर।
‘सूरदास’ प्रभु लंका कारन, आए सागर तीर॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीजानकीजी हनुमान् जी से कहती हैं—) ‘भाई! मैं तुम्हें पहचानती नहीं। अपनी इन आँखोंसे तुम्हें कभी श्रीरघुनाथजीके पास देखा नहीं। लंकामें दैत्य और दानव (दिति एवं दनुके वंशज राक्षस) रहते हैं, उनके शरीर अगम्य हैं (मायासे वे कब कैसा रूप बना लेंगे, इसका कुछ ठिकाना नहीं)। (इसलिये) तुम्हें देखकर मेरा हृदय डर रहा है और मेरे नेत्रोंमें जल भरा आता है।’ सूरदासजी कहते हैं—तब (हनुमान् जी ने) अँगूठी निकालकर दे दी, जिससे (श्रीजानकीजीके मनमें) धैर्य उत्पन्न हुआ। (श्रीहनुमान् जी बोले—) ‘प्रभु लंका-विजय करनेके लिये समुद्रके किनारे आ गये हैं।’
हनुमान् का सीताके प्रति
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८२)
जानकी! हौं रघुपति कौ चेरौ।
बीरा दै रघुनाथ पठायौ, सोध करन कों तेरौ॥
दस और आठ पदम बनचर लै चाहत हैं गढ़ घेरौ।
तिहारे कारन स्याम मनोहर, निकट दियौ है डेरौ॥
अब जिन सोच करौ मेरी जननी! जनम-जनम हौं चेरौ।
‘सूरदास’ प्रभु तुम्हरे मिलन कौं, सारद रंक कित फेरौं॥
मूल
(८२)
जानकी! हौं रघुपति कौ चेरौ।
बीरा दै रघुनाथ पठायौ, सोध करन कों तेरौ॥
दस और आठ पदम बनचर लै चाहत हैं गढ़ घेरौ।
तिहारे कारन स्याम मनोहर, निकट दियौ है डेरौ॥
अब जिन सोच करौ मेरी जननी! जनम-जनम हौं चेरौ।
‘सूरदास’ प्रभु तुम्हरे मिलन कौं, सारद रंक कित फेरौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीहनुमान् जी ने कहा—) ‘(माता) सीताजी! मैं श्रीरघुनाथजीका सेवक हूँ। श्रीरघुनाथजीने मुझे बीड़ा (उत्तरदायित्व) देकर आपका पता लगानेके लिये भेजा है। अठारह पद्म वानर लंकादुर्गको (चढ़ाई करके) घेर ही लेना चाहते हैं। नवघनसुन्दर श्रीरामजीने आपको छुड़ानेके लिये पास ही पड़ाव डाला है। प्रभु आपसे मिलनेको उत्सुक हैं, अतः मेरी माता! अब आप चिन्ता मत करें। मैं तो जन्म-जन्मका आपका दास हूँ, मुझ कंगाल (दीन)-से आप अपना शरद्-चन्द्रके समान मुख क्यों फेर रही हैं?’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८३)
जानकी! मन संदेह न कीजै।
आए राम-लषन प्रिय तेरे, काहै प्राननि दीजै॥
जामवंत, सुग्रीव, बालिसुत, आए सकल नरेस।
मोहि कह्यौ तुम जाहु खबरि कौं, अब जिनि करहु अँदेस॥
रावन के दस सीस तोरि कै, कुटुँब समेत बहैहौं।
तैंतिस कोटि देवता बंधन, तिनहि समस्त छुड़ैहौं॥
आयसु दीजै मातु! मोहि अब, जाइ प्रभुहि लै आऊँ।
‘सूरदास’ हौं जाइ नाथ पहँ, तेरी कुसल सुनाऊँ॥
मूल
(८३)
जानकी! मन संदेह न कीजै।
आए राम-लषन प्रिय तेरे, काहै प्राननि दीजै॥
जामवंत, सुग्रीव, बालिसुत, आए सकल नरेस।
मोहि कह्यौ तुम जाहु खबरि कौं, अब जिनि करहु अँदेस॥
रावन के दस सीस तोरि कै, कुटुँब समेत बहैहौं।
तैंतिस कोटि देवता बंधन, तिनहि समस्त छुड़ैहौं॥
आयसु दीजै मातु! मोहि अब, जाइ प्रभुहि लै आऊँ।
‘सूरदास’ हौं जाइ नाथ पहँ, तेरी कुसल सुनाऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीहनुमान् जी ने कहा—) ‘(माता) जानकी! अपने मनमें संदेह मत करो। तुम्हारे प्रिय श्रीराम-लक्ष्मण पास आ गये हैं, अपने प्राण देनेकी बात क्यों सोचती हो। जाम्बवान् , अंगद, सुग्रीवादि सभी (वानर एवं ऋक्ष-) नरेश आ रहे हैं; उन्होंने मुझे आज्ञा दी कि ‘तुम समाचार लेने आगे जाओ!’ अतः आप अब कोई चिन्ता न करें। रावणके दसों मस्तक काटकर कुटुम्बके साथ उसका नाश कर दूँगा और उसके बन्धनमें (परवशतामें) जो तैंतीस करोड़ देवता हैं, आपके साथ उन सबको भी (बन्धनसे) छुड़ा दूँगा। माता! आप अब मुझे आज्ञा दें, मैं प्रभुके पास जाकर उन्हें आपका कुशल-समाचार सुनाऊँ और उन त्रिभुवननाथको यहाँ ले आऊँ।’
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८४)
कहौ कपि! कैसें उतरे पार?
दुस्तर अति गंभीर बारिनिधि, सत जोजन बिस्तार॥
इत-उत दैत्य क्रुद्ध मारन कौं, आयुध धरें अपार।
हाटकपुरी कठिन पथ, बानर आए कौन अधार?
राम-प्रताप, सत्य सीता कौ, यहै नाव-कनधार।
तिहि अधार छिन मैं अवलंघ्यौ, आवत भई न बार॥
पृष्ठभाग चढ़ि जनक-नंदिनी, पौरुष देख हमार।
‘सूरदास’ लै जाउँ तहाँ, जहँ रघुपति कंत तुम्हार॥
मूल
(८४)
कहौ कपि! कैसें उतरे पार?
दुस्तर अति गंभीर बारिनिधि, सत जोजन बिस्तार॥
इत-उत दैत्य क्रुद्ध मारन कौं, आयुध धरें अपार।
हाटकपुरी कठिन पथ, बानर आए कौन अधार?
राम-प्रताप, सत्य सीता कौ, यहै नाव-कनधार।
तिहि अधार छिन मैं अवलंघ्यौ, आवत भई न बार॥
पृष्ठभाग चढ़ि जनक-नंदिनी, पौरुष देख हमार।
‘सूरदास’ लै जाउँ तहाँ, जहँ रघुपति कंत तुम्हार॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीजानकीजीने पूछा—) ‘कपि! समुद्र तो सौ योजन विस्तृत अत्यन्त गम्भीर और पार होनेमें दुष्कर है; तुम उसके पार कैसे उतरे? यहाँ (लंकामें) और वहाँ (मार्गमें) भी क्रोधमें भरे हथियार लिये अपार राक्षस मारनेको तत्पर रहते हैं। इस स्वर्णपुरी लंकाका मार्ग (भी) बड़ा कठिन है, कपिवर! तुम किस आधारसे यहाँ पहुँच गये?’ सूरदासजी कहते हैं—(यह सुनकर हनुमान् जी बोले—) ‘श्रीरघुनाथजीका प्रताप और माता जानकीका सत्य (पातिव्रत)—ये ही मेरे लिये नौका और कर्णधार बने, उनके आधारसे (अर्थात् श्रीरघुनाथजीके प्रताप तथा आपके पातिव्रतके प्रभावसे) एक क्षणमें मैंने समुद्र पार कर लिया, मुझे आनेमें देर लगी ही नहीं। यदि आपको मेरा पराक्रम देखना हो तो श्रीजनकराजकुमारीजी! आप मेरी पीठपर बैठ जायँ; जहाँ आपके स्वामी श्रीरघुनाथजी हैं, वहाँ मैं आपको ले जाऊँगा।’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८५)
हनुमत! भली करी, तुम आए।
बारंबार कहति बैदेही, दुख-संताप मिटाए॥
श्रीरघुनाथ और लछिमन के समाचार सब पाए।
अब परतीति भई मन मेरैं, संग मुद्रिका लाए॥
क्यौं करि सिंधु पार तुम उतरे, क्यौं करि लंका आए।
‘सूरदास’ रघुनाथ जानि जिय, तव बल इहाँ पठाए॥
मूल
(८५)
हनुमत! भली करी, तुम आए।
बारंबार कहति बैदेही, दुख-संताप मिटाए॥
श्रीरघुनाथ और लछिमन के समाचार सब पाए।
अब परतीति भई मन मेरैं, संग मुद्रिका लाए॥
क्यौं करि सिंधु पार तुम उतरे, क्यौं करि लंका आए।
‘सूरदास’ रघुनाथ जानि जिय, तव बल इहाँ पठाए॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं कि श्रीजानकीजी (प्रसन्न होकर) बार-बार कहने लगीं—‘हनुमान्! तुम यहाँ आये, यह बड़ा अच्छा किया। तुमने मेरा सब दुःख और संताप दूर कर दिया। श्रीरघुनाथजी और लक्ष्मणलालके सब समाचार (तुमसे) प्राप्त हुए। अब मेरे मनमें (तुमपर) विश्वास हो गया है; (क्योंकि) तुम साथमें (प्रभुकी) अँगूठी ले आये हो। भला, तुम समुद्र पार कैसे हुए? (इस) लंकामें तुम कैसे आ गये? (मैं समझ गयी) श्रीरघुनाथजीने अपने हृदयमें तुम्हारा बल समझकर ही तुम्हें यहाँ भेजा है।’
विषय (हिन्दी)
राग कान्हरौ
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८६)
सुनु कपि, वे रघुनाथ नहीं?
जिन रघुनाथ पिनाक पिता-गृह तोरॺौ निमिष महीं॥
जिन रघुनाथ फेरि भृगुपति-गति डारी काटि तहीं।
जिन रघुनाथ-हाथ खर-दूषन-प्रान हरे सरहीं॥
कै रघुनाथ तज्यौ प्रन अपनौ, जोगिनि दसा गही?
कै रघुनाथ दुखित कानन, कै नृप भए रघुकुलहीं॥
कै रघुनाथ अतुल-बल राच्छस दसकंधर डरहीं?
छाँड़ी नारि बिचारि पवन-सुत, लंक-बाग बसहीं॥
कै हौं कुटिल, कुचील, कुलच्छनि, तजी कंत तबहीं।
‘सूरदास’ स्वामी सौं कहियौ, अब बिरमाहिं नहीं॥
मूल
(८६)
सुनु कपि, वे रघुनाथ नहीं?
जिन रघुनाथ पिनाक पिता-गृह तोरॺौ निमिष महीं॥
जिन रघुनाथ फेरि भृगुपति-गति डारी काटि तहीं।
जिन रघुनाथ-हाथ खर-दूषन-प्रान हरे सरहीं॥
कै रघुनाथ तज्यौ प्रन अपनौ, जोगिनि दसा गही?
कै रघुनाथ दुखित कानन, कै नृप भए रघुकुलहीं॥
कै रघुनाथ अतुल-बल राच्छस दसकंधर डरहीं?
छाँड़ी नारि बिचारि पवन-सुत, लंक-बाग बसहीं॥
कै हौं कुटिल, कुचील, कुलच्छनि, तजी कंत तबहीं।
‘सूरदास’ स्वामी सौं कहियौ, अब बिरमाहिं नहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीजानकीजी कहने लगीं—) ‘सुनो हनुमान्! अब वे श्रीरघुनाथजी नहीं रहे, जिन श्रीरघुनाथजीने मेरे पिताके घर (जनकपुरमें मेरे लिये) शंकरजीके पिनाक-धनुषको एक पलमें ही तोड़ दिया, जिन श्रीरघुनाथजीने उलटकर वहींपर परशुरामजीकी दिव्य गति काट दी (नष्ट कर दी), जिन श्रीरघुनाथजीने अपने हाथों एक ही बाणके द्वारा खर-दूषणके प्राण हरण कर लिये (वे श्रीरघुनाथजी अब बदल गये-से लगते हैं)। या तो श्रीरघुनाथजीने अपनी (दुष्ट-दलनकी) प्रतिज्ञा छोड़ दी और योगियोंकी (किसीको भी दण्ड न देनेकी) दशा (नियम) स्वीकार कर लिया है अथवा श्रीरघुनाथजी वनमें दुःखी हो गये हैं (हताश हो गये हैं) अथवा (अयोध्या लौटकर) रघुकुलके नरेश हो गये हैं अथवा हे पवनकुमार! श्रीरघुनाथजी अतुलनीय बली राक्षस रावणसे डरते हैं, विचार करके अपनी स्त्रीको (मुझे) उन्होंने छोड़ दिया है और (कहीं) लंकाके ही बगीचोंमें रहते हैं अथवा मेरे नाथने मुझे कुटिल, मलिन तथा कुलक्षणी समझकर त्याग दिया है। तुम मेरे स्वामीसे कहना कि अब और विलम्ब न करें।’
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८७)
जननी! हौं रघुनाथ पठायौ।
रामचंद्र आए की तुम कौं दैन बधाई आयौ॥
हौं हनुमंत, कपट जिनि समझौ, बात कहत सतभाई।
मुँदरी दूत धरी लै आगै, तब प्रतीति जिय आई॥
अति सुख पाइ उठाइ लई, तब बार-बार उर भेंटै।
ज्यौं मलयागिरि पाइ आपनी जरनि हृदै की मेटै॥
लछिमन पालागन कहि पठयौ, हेत बहुत करि माता।
दई असीस तरनि सन्मुख ह्वै, चिरजीवौ दोउ भ्राता॥
बिछुरन कौ संताप हमारौ, तुम दरसन दै काटॺौ।
ज्यौं रबि-तेज पाइ दसहूँ दिसि, दोष कुहर कौ फाटॺौ॥
ठाढ़ौ बिनती करत पवन-सुत, अब जो आज्ञा पाऊँ।
अपने देखि चले कौ यह सुख, उनहूँ जाइ सुनाऊँ॥
कल्प समान एक छिन राघव, क्रम-क्रम करि हैं बितवत।
तातें हौं अकुलात, कृपानिधि ह्वैहैं पैंड़ौ चितवत॥
रावन हति, लै चलौं साथ ही, लंका धरौं अपूठी।
यातें जिय सकुचात, नाथ की होइ प्रतिज्ञा झूठी॥
अब ह्याँ की सब दसा हमारी, ‘सूर’ सो कहियो जाइ।
बिनती बहुत कहा कहौं, जिहिं बिधि देखौं रघुपति-पाइ॥
मूल
(८७)
जननी! हौं रघुनाथ पठायौ।
रामचंद्र आए की तुम कौं दैन बधाई आयौ॥
हौं हनुमंत, कपट जिनि समझौ, बात कहत सतभाई।
मुँदरी दूत धरी लै आगै, तब प्रतीति जिय आई॥
अति सुख पाइ उठाइ लई, तब बार-बार उर भेंटै।
ज्यौं मलयागिरि पाइ आपनी जरनि हृदै की मेटै॥
लछिमन पालागन कहि पठयौ, हेत बहुत करि माता।
दई असीस तरनि सन्मुख ह्वै, चिरजीवौ दोउ भ्राता॥
बिछुरन कौ संताप हमारौ, तुम दरसन दै काटॺौ।
ज्यौं रबि-तेज पाइ दसहूँ दिसि, दोष कुहर कौ फाटॺौ॥
ठाढ़ौ बिनती करत पवन-सुत, अब जो आज्ञा पाऊँ।
अपने देखि चले कौ यह सुख, उनहूँ जाइ सुनाऊँ॥
कल्प समान एक छिन राघव, क्रम-क्रम करि हैं बितवत।
तातें हौं अकुलात, कृपानिधि ह्वैहैं पैंड़ौ चितवत॥
रावन हति, लै चलौं साथ ही, लंका धरौं अपूठी।
यातें जिय सकुचात, नाथ की होइ प्रतिज्ञा झूठी॥
अब ह्याँ की सब दसा हमारी, ‘सूर’ सो कहियो जाइ।
बिनती बहुत कहा कहौं, जिहिं बिधि देखौं रघुपति-पाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीहनुमान् जी कहते हैं—) ‘माता! मुझे श्रीरघुनाथजीने भेजा है। मैं तुम्हें श्रीरामचन्द्रजीके आनेकी बधाई (शुभ समाचार) देने आया हूँ। मेरा नाम हनुमान् है, इसमें कपट मत समझो, मैं सच्चे भावसे सब बातें कह रहा हूँ।’ (यह कहकर) दूत श्रीहनुमान् जी ने (श्रीरामकी दी हुई) अँगूठीको (श्रीजानकीजीके) आगे रख दिया, तब (उनके) मनमें विश्वास हुआ। अत्यन्त आनन्दित होकर उन्होंने अँगूठी उठा ली और फिर बार-बार उसे हृदयसे लगाने लगीं, जैसे मलयागिरि चन्दनको पाकर (उससे) अपने हृदयकी जलन मिटा रही हों। (हनुमान् जी ने फिर कहा—) ‘माता! लक्ष्मणजीने बड़े प्रेमसे चरण-वन्दन कहला भेजा है।’ (यह सुनकर) सूर्यके सम्मुख होकर आशीर्वाद देते हुए बोलीं—‘दोनों भाई चिरजीवी हों। (पवनकुमार!) तुमने दर्शन देकर मेरे वियोगके संतापको (उसी प्रकार) दूर कर दिया है, जैसे सूर्यके प्रकाशको पाकर दसों दिशाओंमें फैला कुहरेका दोष (अन्धकार) फट गया (मिट गया) हो।’ (संदेश देकर) पवनकुमार खड़े होकर प्रार्थना करने लगे—‘अब यदि मैं आपकी आज्ञा पा जाऊँ तो अपने यहाँ आने तथा आपको देख जानेका यह आनन्द-समाचार जाकर उन लोगों (श्रीराम-लक्ष्मण-सुग्रीवादि)- को भी सुना दूँ। श्रीरघुनाथजी एक-एक क्षणको एक-एक कल्पके समान धीरे-धीरे (बड़े कष्टसे) व्यतीत करते हैं; मैं इसीलिये शीघ्रता कर रहा हूँ कि वे कृपानिधान मेरा मार्ग देखते होंगे। रावणको मारकर मैं आपको साथ ही ले चलता और लंकाको उलटकर धर देता; किंतु मनमें इसलिये संकोच कर रहा हूँ कि मेरे स्वामीकी (रावणको मारनेकी) प्रतिज्ञा झूठी हो जायगी।’ सूरदासजी कहते हैं (श्रीजानकीजीने यह सुनकर कहा—) ‘यहाँकी मेरी उपर्युक्त सब दशा जाकर प्रभुसे कह देना। मैं अब और अधिक क्या प्रार्थना करूँ। (ऐसा करना जिससे) श्रीरघुनाथके श्रीचरणोंके दर्शन कर लूँ।’
सीता-संदेश श्रीरामके प्रति
विषय (हिन्दी)
राग कान्हरौ
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८८)
यह गति देखे जात, सँदेसौ कैसैं कै जु कहौं?
सुनु कपि! अपने प्रान कौ पहरौ, कब लगि देति रहौं?
ये अति चपल, चल्यौ चाहत हैं, करत न कछू बिचार।
कहि धौं प्रान कहाँ लौं राखौं, रोकि देह मुख द्वार?
इतनी बात जनावति तुम सों, सकुचति हौं हनुमंत!
नाहीं ‘सूर’ सुन्यौ दुख कबहूँ, प्रभु करुनामय कंत॥
मूल
(८८)
यह गति देखे जात, सँदेसौ कैसैं कै जु कहौं?
सुनु कपि! अपने प्रान कौ पहरौ, कब लगि देति रहौं?
ये अति चपल, चल्यौ चाहत हैं, करत न कछू बिचार।
कहि धौं प्रान कहाँ लौं राखौं, रोकि देह मुख द्वार?
इतनी बात जनावति तुम सों, सकुचति हौं हनुमंत!
नाहीं ‘सूर’ सुन्यौ दुख कबहूँ, प्रभु करुनामय कंत॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीजानकीजीने कहा—) ‘कपि! तुम मेरी यह दशा देखे ही जा रहे हो, अब और संदेश मैं किस प्रकार सुनाऊँ? बताओ! अपने प्राणोंका पहरा मैं कबतक देती रहूँ? ये प्राण तो अत्यन्त चंचल हैं, चले ही जाना चाहते हैं, कुछ भी विचार नहीं करते (कि शरीरमें रहनेसे प्रभुका मिलन होगा)। अब बताओ तो! भला, शरीरके मुख्य द्वारोंको रोककर कबतक मैं इन्हें रोके रहूँ? हनुमान्! तुमसे इतनी बात प्रकट करनेमें भी मैं संकुचित हो रही हूँ; क्योंकि मेरे स्वामी करुणामय हैं, मेरे उन नाथने कभी दुःख सुना भी नहीं है। ‘मेरे दुःखका समाचार मिलनेसे उन्हें बहुत कष्ट होगा।’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(८९)
कहियौ कपि! रघुनाथ राज सौं, सादर यह इक बिनती मेरी।
नाहीं सही परति मोपै अब, दारुन त्रास निसाचर केरी॥
यह तौ अंध बीसहूँ लोचन, छल-बल करत आनि मुख हेरी।
आइ सृगाल सिंह-बलि चाहत, यह मरजाद जाति प्रभु तेरी॥
जिहिं भुज परसुराम-बल करष्यौ, ते भुज क्यौं न सँभारत फेरी।
‘सूर’ सनेह जानि करुनामय, लेहु छुड़ाइ जानकी चेरी॥
मूल
(८९)
कहियौ कपि! रघुनाथ राज सौं, सादर यह इक बिनती मेरी।
नाहीं सही परति मोपै अब, दारुन त्रास निसाचर केरी॥
यह तौ अंध बीसहूँ लोचन, छल-बल करत आनि मुख हेरी।
आइ सृगाल सिंह-बलि चाहत, यह मरजाद जाति प्रभु तेरी॥
जिहिं भुज परसुराम-बल करष्यौ, ते भुज क्यौं न सँभारत फेरी।
‘सूर’ सनेह जानि करुनामय, लेहु छुड़ाइ जानकी चेरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीजानकीजीने हनुमान् जी से कहा—) ‘कपि! महाराज श्रीरघुनाथजीसे मेरी यह एक प्रार्थना आदरपूर्वक सुना देना कि राक्षसका दारुण त्रास अब मुझसे सहा नहीं जाता। यह (रावण) तो बीसों नेत्रोंसे अंधा (सर्वथा विवेकहीन) है, आकर मेरा मुख देखकर (अनेक प्रकारके) छल-बल करता है। यह सियार आकर (आप) सिंहका भाग चाहता है, प्रभो! यह तो आपकी मर्यादा जा रही है। जिस भुजबलसे आपने परशुरामजीका बल भी खींच लिया (उनके बलके गर्वको नष्ट कर दिया), अपनी भुजाके उसी बलको फिर क्यों नहीं सँभालते? हे करुणामय! मेरा प्रेम समझकर मुझे यहाँसे छुड़ा लो। यह जानकी आपकी ही दासी है।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९०)
मैं परदेसिनि नारि अकेली।
बिनु रघुनाथ और नहिं कोऊ, मातु-पिता न सहेली॥
रावन भेष धरॺौ तपसी कौ, कत मैं भिच्छा मेली।
अति अज्ञान मूढ़ मति मेरी, राम-रेख पग पेली॥
बिरह-ताप तन अधिक जरावत, जैसैं दव द्रुम-बेली।
‘सूरदास’ प्रभु बेगि मिलाऔ, प्रान जात हैं खेली॥
मूल
(९०)
मैं परदेसिनि नारि अकेली।
बिनु रघुनाथ और नहिं कोऊ, मातु-पिता न सहेली॥
रावन भेष धरॺौ तपसी कौ, कत मैं भिच्छा मेली।
अति अज्ञान मूढ़ मति मेरी, राम-रेख पग पेली॥
बिरह-ताप तन अधिक जरावत, जैसैं दव द्रुम-बेली।
‘सूरदास’ प्रभु बेगि मिलाऔ, प्रान जात हैं खेली॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीजानकीजी हनुमान् जी से कह रही हैं—) ‘मैं दूसरे देशकी रहनेवाली (यहाँके लोगोंसे अपरिचित) अकेली स्त्री हूँ। माता-पिता या सखियाँ आदि मेरा श्रीरघुनाथजीको छोड़कर और कोई आश्रय नहीं। रावणने (पंचवटीमें) तपस्वीका वेष धारण कर लिया था; किंतु मैंने उसे भिक्षा क्यों दी। मैं अज्ञानी हूँ, मेरी बुद्धि मूढ़ है जो (श्रीलक्ष्मणद्वारा खींची) राम-नामसे अभिमन्त्रित रेखाका मैंने उल्लंघन किया। जैसे दावाग्नि वृक्षों एवं लताओंको भस्म करता है, वैसे ही (प्रभुके) वियोगका संताप मेरे शरीरको अत्यन्त जला रहा है। मेरे प्राण खेल जा रहे हैं, मुझे शीघ्र प्रभुसे मिला दो।’
सीता-परितोष
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९१)
तू जननी! अब दुख जनि मानहि।
रामचंद्र नहिं दूरि कहूँ, पुनि भूलिहुँ चित चिंता नहिं आनहि॥
अबहिं लिवाइ जाउँ सब रिपु हति, डरपत हौं आज्ञा-अपमानहिं।
राख्यौ सुफल सँवारि, सान दै, कैसै निफल करौं वा बानहि?
हैं केतिक ये तिमिर-निसाचर, उदित एक रघुकुल के भानहिं।
काटन दै दस सीस बीस भुज, अपनौ कृत येऊ जो जानहिं॥
देहिं दरस सुभ नैननि कहँ प्रभु, रिपु कौं नासि सहित संतानहि।
‘सूर’ सपथ मोहि, इनहि दिननि मैं, लै जु आइहौं कृपानिधानहि॥
मूल
(९१)
तू जननी! अब दुख जनि मानहि।
रामचंद्र नहिं दूरि कहूँ, पुनि भूलिहुँ चित चिंता नहिं आनहि॥
अबहिं लिवाइ जाउँ सब रिपु हति, डरपत हौं आज्ञा-अपमानहिं।
राख्यौ सुफल सँवारि, सान दै, कैसै निफल करौं वा बानहि?
हैं केतिक ये तिमिर-निसाचर, उदित एक रघुकुल के भानहिं।
काटन दै दस सीस बीस भुज, अपनौ कृत येऊ जो जानहिं॥
देहिं दरस सुभ नैननि कहँ प्रभु, रिपु कौं नासि सहित संतानहि।
‘सूर’ सपथ मोहि, इनहि दिननि मैं, लै जु आइहौं कृपानिधानहि॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीहनुमान् जी ने कहा—) ‘माता! आप अब दुःखी न हों। श्रीरघुनाथजी कहीं दूर नहीं हैं, अब आप भूलकर भी चित्तमें चिन्ता न लायें। (मैं तो) सब शत्रुओंको मारकर आपको अभी (साथ ही) लिवा जाऊँ, किंतु (प्रभुकी) आज्ञाके अपमानसे डरता हूँ। (प्रभुने अपने बाणकी) तीक्ष्ण नोकको सँभालकर, सान चढ़ाकर रखा है, मैं उस बाणको निष्फल कैसे करूँ। एक श्रीरघुकुलके सूर्य (श्रीरामके) उदय होनेपर (यहाँ आनेपर) ये अन्धकाररूपी राक्षस हैं कितने (किस गणनामें)। दस सिर और बीस भुजाएँ (रावणकी आप प्रभुको) काटने दें, ये (राक्षस) भी तो अपने किये (दुष्कर्मके फल)-को जान लें। प्रभु शत्रुको उसकी संतानोंके साथ नष्ट करके आपके नेत्रोंको मंगलमय दर्शन देंगे। मैं शपथपूर्वक कहता हूँ, इन्हीं दिनों मैं कृपानिधान प्रभुको ले आऊँगा!’
विषय (हिन्दी)
राग राजैश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९२)
अगम पंथ अति दूरि जानकी, मोहि पंथ-श्रम ब्याप्यौ।
कछू भयौ छुधा रत तबहीं सत जोजन जल माप्यौ॥
मात! रजायस देहु मोहि तौ देखौं बन जाइ।
किछु माँगत फल पाइये, फाँदत भुजबल होइ॥
मूल-मूल लंकेस के बैठे हनू असोच।
जाउ पुत्र मनसा फुरौ, भलो होउ कै पोच॥
तब मन मैं फूल्यौ हनू, प्रगटॺौ बन-उद्यान।
आपुन सूरज देखि हैं ‘सूर’ जु रामचंद्र की आन॥
मूल
(९२)
अगम पंथ अति दूरि जानकी, मोहि पंथ-श्रम ब्याप्यौ।
कछू भयौ छुधा रत तबहीं सत जोजन जल माप्यौ॥
मात! रजायस देहु मोहि तौ देखौं बन जाइ।
किछु माँगत फल पाइये, फाँदत भुजबल होइ॥
मूल-मूल लंकेस के बैठे हनू असोच।
जाउ पुत्र मनसा फुरौ, भलो होउ कै पोच॥
तब मन मैं फूल्यौ हनू, प्रगटॺौ बन-उद्यान।
आपुन सूरज देखि हैं ‘सूर’ जु रामचंद्र की आन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीहनुमान् जी कहते हैं—) ‘माता सीताजी! मार्ग बड़ा दुर्गम था, बहुत दूर आना था, मुझे मार्ग चलनेसे थकावट आ गयी है। मुझे तो उसी समय कुछ भूख लग आयी थी, जब मैंने सौ योजन समुद्र पार किया था। (अतः) माता! आप आज्ञा दें तो वनमें (अशोक वाटिकामें) जाकर देखूँ। (रक्षकोंसे) माँगनेपर कुछ फल मिल सकते हैं और उछलने-कूदनेसे भुजाओंमें कुछ बल आयेगा (थकावट दूर होगी)।’ (इस प्रकार कहते हुए) रावणकी जड़की भी जड़ लंकाके भी अन्तः-उद्यानमें हनुमान् जी चिन्ताहीन (निर्भय) बैठे हैं। (यह देखकर श्रीजानकीजीने कहा—) ‘पुत्र! जाओ! तुम अपने इच्छानुसार कार्य करो, फिर अच्छा हो या बुरा (प्रभु तुम्हारी रक्षा करेंगे)।’ यह सुनकर श्रीहनुमान् जी आनन्दमें भर गये और अशोकवाटिकाके उपवनमें प्रकट हो गये। सूरदासजी कहते हैं—श्रीरामचन्द्रजीकी शपथ, ये (हनुमान् जी) स्वयं सूर्यको देखेंगे (जबतक सूर्यका अस्तित्व है तबतक अमर रहेंगे; अभी तो इनके लिये कोई भय है ही नहीं)।
अशोक-वन-भंग
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९३)
हनुमत-बल प्रगट भयौ, आज्ञा जब पाई।
जनक-सुता-चरन बंदि, फूल्यौ न समाई॥
अगनित तरु-फल सुगंध-मृदुल-मिष्ट-खाटे।
मनसा करि प्रभुहि अर्पि, भोजन करि डाटे॥
द्रुम गहि उतपाटि लिए , दै-दै किलकारी।
दानव बिन प्रान भए , देखि चरित भारी।
बिहबल-मति कहन गए , जोरें सब हाथा।
बानर-बन बिघन कियौ, निसिचर-कुल-नाथा॥
वह निसंक, अतिहिं ढीठ, बिडरै नहिं भाजै।
मानौ बन-कदलि मध्य, उनमत गज गाजै॥
भानै मठ, कूप, बाइ, सरबर कौ पानी।
गौरि-कंत पूजत जहँ, नूतन जल जानी॥
पहुँची तब असुर-सैन, साखामृग जान्यौ।
मानो जल-जीव सिमिट जाल मैं समान्यौ॥
तरुबर तब इक उपाटि, हनुमत कर लीन्यौ।
किंकर कर पकरि बान तीनि खंड कीन्यौ॥
जोजन-बिस्तार सिला पवन-सुत उपाटी।
किंकर करि बान-लच्छ अंतरिच्छ काटी॥
आगर इक लोह-जटित, लीन्ही बरिबंड।
दुहूँ करनि असुर हयौ, भयौ मांस-पिंड॥
दुर्धर परहस्त संग आइ, सैन भारी।
पवन-पूत दानव-दल, ताड़े दिसि चारी॥
रोम-रोम हनूमंत, लच्छ-लच्छ बान।
तहाँ-तहाँ दीसत, कपि करत राम-आन॥
मंत्री-सुत पाँच सहित अछयकुँवर सूर।
सैन सहित सबै हते, झपटि कै लंगूर॥
चतुरानन-बल सँभारि, मेघनाद आयौ।
मानौ घन पावस मैं, नगपति है छायौ॥
देख्यौ जब, दिब्य बान निसिचर कर तान्यौ।
छाँड़ॺौ तब ‘सूर’ हनू ब्रह्म-तेज मान्यौ॥
मूल
(९३)
हनुमत-बल प्रगट भयौ, आज्ञा जब पाई।
जनक-सुता-चरन बंदि, फूल्यौ न समाई॥
अगनित तरु-फल सुगंध-मृदुल-मिष्ट-खाटे।
मनसा करि प्रभुहि अर्पि, भोजन करि डाटे॥
द्रुम गहि उतपाटि लिए , दै-दै किलकारी।
दानव बिन प्रान भए , देखि चरित भारी।
बिहबल-मति कहन गए , जोरें सब हाथा।
बानर-बन बिघन कियौ, निसिचर-कुल-नाथा॥
वह निसंक, अतिहिं ढीठ, बिडरै नहिं भाजै।
मानौ बन-कदलि मध्य, उनमत गज गाजै॥
भानै मठ, कूप, बाइ, सरबर कौ पानी।
गौरि-कंत पूजत जहँ, नूतन जल जानी॥
पहुँची तब असुर-सैन, साखामृग जान्यौ।
मानो जल-जीव सिमिट जाल मैं समान्यौ॥
तरुबर तब इक उपाटि, हनुमत कर लीन्यौ।
किंकर कर पकरि बान तीनि खंड कीन्यौ॥
जोजन-बिस्तार सिला पवन-सुत उपाटी।
किंकर करि बान-लच्छ अंतरिच्छ काटी॥
आगर इक लोह-जटित, लीन्ही बरिबंड।
दुहूँ करनि असुर हयौ, भयौ मांस-पिंड॥
दुर्धर परहस्त संग आइ, सैन भारी।
पवन-पूत दानव-दल, ताड़े दिसि चारी॥
रोम-रोम हनूमंत, लच्छ-लच्छ बान।
तहाँ-तहाँ दीसत, कपि करत राम-आन॥
मंत्री-सुत पाँच सहित अछयकुँवर सूर।
सैन सहित सबै हते, झपटि कै लंगूर॥
चतुरानन-बल सँभारि, मेघनाद आयौ।
मानौ घन पावस मैं, नगपति है छायौ॥
देख्यौ जब, दिब्य बान निसिचर कर तान्यौ।
छाँड़ॺौ तब ‘सूर’ हनू ब्रह्म-तेज मान्यौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब श्रीजानकीजीकी आज्ञा मिल गयी, तब उनके चरणोंमें प्रणाम करके हनुमान् जी अत्यन्त आनन्दित हुए और उनका पराक्रम प्रकट हो गया। अगणित वृक्षोंके सुगन्धित, कोमल, खट्टे और मीठे फल मनसे (ही) प्रभुको अर्पित करके (पहले उन्होंने) डटकर भोजन किया, फिर बार-बार किलकारी मारकर पेड़ोंको पकड़-पकड़कर उखाड़ने लगे। उनका यह भारी (भयानक) कार्य देखकर (उपवनके रक्षक) सब राक्षस (भयसे) प्राणहीन-से हो गये। सब हाथ जोड़े व्याकुल-बुद्धि (रावणके पास) यह समाचार कहने गये (और बोले—) ‘हे राक्षसकुलके स्वामी! एक बंदरने सारे अशोकवनको नष्ट कर दिया। वह निःशंक है, अत्यन्त ढीठ है, न तो बिदकता है (न भगानेसे) भागता है, ऐसा लगता है जैसे जंगली केलेके वृक्षोंको रौंदकर उनके बीचमें कोई उन्मत्त गजराज चिग्घाड़े मारता हो। जिस सरोवरके जलको नवीन जल समझकर आप जहाँ (नित्य) शंकरजीकी पूजा करते हैं, वहीं भवनोंको, कुओंको, बावलियोंको वह तोड़ रहा है तथा उस सरोवरके जलको भी भ्रष्ट कर रहा है।’ तब (रावणके भेजनेसे) वहाँ असुरसेना पहुँची। (यह देखकर) हनुमान् जी को ऐसा लगा, जैसे जलके सब जीव एकत्र होकर (मरनेके लिये) जालमें आ गये हों (अर्थात् यह राक्षसदल एकत्र होकर मरनेके लिये उनके पास आ गया, यही उन्हें लगा)। तब हनुमान् जी ने एक वृक्ष उखाड़कर हाथमें ले लिया; किंतु किंकर राक्षसने हाथमें बाण लेकर (बाणके द्वारा) उस वृक्षको काटकर तीन टुकड़े कर दिये। फिर पवनकुमारने एक योजन विस्तारवाली शिला उखाड़कर फेंकी; किंतु किंकरने बाणका निशाना लगाकर उसे आकाशमें ही टुकड़े-टुकड़े कर दिया। तब बलनिधान महावीरजीने एक लोहेसे मढ़ा डंडा उठाया और दोनों हाथोंमें लेकर असुर किंकरको इस प्रकार मारा कि वह (पिसकर) मांसका लोथड़ा बन गया। दुर्धर तथा प्रहस्त नामके राक्षसनायकोंके साथ जो बड़ी भारी सेना आयी थी, श्रीपवनकुमारने चारों ओरसे (कूद-कूदकर) उस राक्षसदलपर प्रहार किया। श्रीहनुमान् जी के रोम-रोममें लाखों बाण लगे थे (लेकिन उन बाणोंकी उन्हें कोई पीड़ा नहीं थी; जहाँ-जहाँ राक्षस भागकर जाते थे,) वहाँ-वहाँ श्रीरामकी दुहाई (जयनाद) करते हनुमान् जी उन्हें दीखते थे। मन्त्रियोंके पाँच पुत्रोंके साथ (रावणका पुत्र) शूरवीर अक्षयकुमार भी आया; किंतु अपनी पूँछ फटकारकर हनुमान् जी ने सेनाके साथ उन सबको मार दिया। (अन्तमें) मेघनाद ब्रह्माजी (-के वरदान)-के बलको सँभालकर (धनुषपर ब्रह्मास्त्र चढ़ाकर) इस प्रकार आया जैसे वर्षा-ऋतुमें पर्वतपर मेघ छा रहे हों। सूरदासजी कहते हैं कि जब हनुमान् जी ने देखा कि राक्षस मेघनादने दिव्यास्त्र (ब्रह्मास्त्र)-का संधान किया है, तब उन्होंने अपना बल छोड़ दिया (मूर्च्छित हो गये), इस प्रकार उन्होंने (जान-बूझकर शक्ति रहते) ब्रह्मतेजका सम्मान किया।
हनुमान्-रावण-संवाद
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९४)
राजमद सकल दृष्टि है छाई।
महाराज रघुपति सौं तोरत, सीता है हरि लायौ काई॥
रावन अजहुँ न जानही रामचंद्र कौ भेव।
अपनीं ही बुधि बल चलत, नहिं छाँडत कठिन कुटेव॥
रामचंद्र आएँ बिनै कहाँ कहौं अब तोहि।
अबहीं कहा कह्यौ आयौ जानैं मोहि॥
बड़ौ धीठ अति पवनसुत, समझि कहत नहिं बात।
बिभीषन मोहि बरजई, नातरि मारौं लात॥
रे हनुमंत तुं कवन कैसैं लंका आयौ।
धर-अंबर यह राक्षिसी, कैसैं जीवन पायौ॥
अपनौ काल न जानही, कहै और की बात।
अबहीं रघुपति आइहैं लंका कौ उतपात॥
वुहै राम तृन साँथरे, लछिमन ताके संग।
मो जीवत नहिं आवई, रे बंदर मतिमंद॥
बाय पित्त कफ कंठ तब ब्याकुल वचन कहंत।
एकहि बानहिं राम कै सब राषिस भसमंत॥
कटुक बचन हनुमत सुने, किल क्यौं लेत उसास।
अधर कंपि कर सिर धुनैं, असुर सेन दल पास॥
मंदोदरि बिनती करै, सुनि असुरनि के ईस।
सीता प्रभु की दीजिये, ह्वै हौ बिना भुज बीस॥
यह किन बोली कटक मैं, बात कहत इहाँ आइ।
पवनपूत कै बाँधि कैं देखि-देखि पछिताइ॥
हनुमत तबहीं बोलियौ, मोहि सकै को राखि।
लै आऊँ रघुनाथ कौं, ‘सूर’ कहौ यह भाखि॥
मूल
(९४)
राजमद सकल दृष्टि है छाई।
महाराज रघुपति सौं तोरत, सीता है हरि लायौ काई॥
रावन अजहुँ न जानही रामचंद्र कौ भेव।
अपनीं ही बुधि बल चलत, नहिं छाँडत कठिन कुटेव॥
रामचंद्र आएँ बिनै कहाँ कहौं अब तोहि।
अबहीं कहा कह्यौ आयौ जानैं मोहि॥
बड़ौ धीठ अति पवनसुत, समझि कहत नहिं बात।
बिभीषन मोहि बरजई, नातरि मारौं लात॥
रे हनुमंत तुं कवन कैसैं लंका आयौ।
धर-अंबर यह राक्षिसी, कैसैं जीवन पायौ॥
अपनौ काल न जानही, कहै और की बात।
अबहीं रघुपति आइहैं लंका कौ उतपात॥
वुहै राम तृन साँथरे, लछिमन ताके संग।
मो जीवत नहिं आवई, रे बंदर मतिमंद॥
बाय पित्त कफ कंठ तब ब्याकुल वचन कहंत।
एकहि बानहिं राम कै सब राषिस भसमंत॥
कटुक बचन हनुमत सुने, किल क्यौं लेत उसास।
अधर कंपि कर सिर धुनैं, असुर सेन दल पास॥
मंदोदरि बिनती करै, सुनि असुरनि के ईस।
सीता प्रभु की दीजिये, ह्वै हौ बिना भुज बीस॥
यह किन बोली कटक मैं, बात कहत इहाँ आइ।
पवनपूत कै बाँधि कैं देखि-देखि पछिताइ॥
हनुमत तबहीं बोलियौ, मोहि सकै को राखि।
लै आऊँ रघुनाथ कौं, ‘सूर’ कहौ यह भाखि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मेघनादद्वारा राजसभामें लाये जानेपर हनुमान् जी रावणसे कहते हैं—) ‘राजमदसे तुम्हारी पूरी दृष्टि ढक गयी है (तुम अंधे हो रहे हो), क्यों तुम श्रीजानकीजीको हरण करके ले आये और अब महाराज श्रीरघुनाथसे अकारण शत्रुता कर रहे हो? रावण! अब भी तुम श्रीरामचन्द्रजीका रहस्य (उनका माहात्म्य) नहीं जानते, अपनी ही बुद्धि और बलके अनुसार चलते (व्यवहार करते) हो और कठिन कुटेव (पाप करनेका बुरा अभ्यास) नहीं छोड़ते। अब श्रीरामचन्द्रजीके यहाँ आये बिना मैं तुमसे क्या कहूँ; अबतक मैं क्या कह आया हूँ (अबतक तो मैंने कुछ कहा या किया नहीं), प्रभुके आनेपर तुम मुझे (मेरे पराक्रमको) जान सकोगे।’ (यह सुनकर रावण बोला—) ‘यह पवनपुत्र बड़ा ढीठ है, समझकर बात नहीं कहता। विभीषण मुझे मना कर रहे हैं, नहीं तो मैं इसे लात मारता। अरे हनुमान्! तू है कौन? लंकामें कैसे आ गया? यहाँ पृथ्वी और आकाशमें सर्वत्र राक्षस (पहरा देते) हैं, तू जीवित कैसे रह सका?’ (यह रावणकी बात सुनकर हनुमान् जी बोले—) ‘तू अपनी मृत्युको तो जानता नहीं, दूसरेकी (मृत्युकी) बात कहता है। अभी श्रीरामचन्द्रजी यहाँ आ जायँगे और लंकाको ध्वंस कर देंगे।’ (रावण बोला—) ‘वही तो राम है, जो तिनके बिछाकर सोता है और उसके साथ लक्ष्मण है। अरे मन्दबुद्धि बंदर! मेरे जीवित रहते वह (लंकामें) नहीं आ सकता।’ (तब हनुमान् जी बोले—) ‘तेरे कण्ठको वात, पित्त, कफ (त्रिदोष)-ने रोक लिया है (अर्थात् तुझे संनिपात हो गया है) इसीसे व्याकुल होकर तू (पागलोंके समान) अटपटी बातें कह रहा है। श्रीरामके एक ही बाणसे सब राक्षस भस्म हो जायँगे।’ (रावणके) कठोर वचन सुनकर हनुमान् जी ने दीर्घश्वास लेकर किलकारी मारी, उनके होठ फड़कने लगे, हाथोंसे अपना सिर (क्रोधसे)पीटने लगे। राक्षसी-सेनाके अनेक दल उनके पास (उन्हें घेरे) थे। तब रानी मन्दोदरी प्रार्थना करने लगी कि ‘हे असुरोंके स्वामी! सुनो। श्रीसीताजीको प्रभुको दे दो। अन्यथा बीस भुजाओंसे रहित हो जाओगे।’ (पत्नीकी बात सुनकर रावण गर्जा—) ‘यह क्यों बोली? सेनामें यह आयी क्यों? यहाँ आकर ऐसी बातें कहती है?’ (मन्दोदरी चुप हो गयी; किंतु) श्रीपवनकुमारको बन्धनमें पड़ा देखकर बार-बार पश्चात्ताप करने लगी। सूरदासजी कहते हैं—उसी समय हनुमान् जी ने (सबको) सम्बोधित करके यह कहा—‘मुझे बाँधकर कौन रख सकता है? मैं श्रीरघुनाथको यहाँ ले आऊँगा।’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९५)
सीतापति-सेवक तोहि देखन कौं आयौ।
का कैं बल बैर तैं जु राम तैं बढ़ायौ॥
जे-जे तुव सूर सुभट, कीट सम न लेखौं।
तो कौं दसकंध अंध, प्राननि बिनु देखौं॥
नख-सिख ज्यौं मीन जाल, जड़ॺौ अंग-अंगा।
अजहुँ नाहिं संक धरत, बानर मति-भंगा॥
जोइ-सोइ मुखहिं कहत, मरन निज न जानै।
जैसैं नर संनिपात भऐं बुध बखानैं॥
तब तू गयौ सून भवन, भस्म अंग पोते।
करते बिन प्रान तोहिं, लछिमन जौ होते॥
पाछे तैं हरी सिया, न मरजाद राखी।
जौ पै दसकंध बली, रेख क्यौं न नाखी॥
अजहूँ सिय सौंपि, नतरु बीस भुजा भानै।
रघुपति यह पैज करी, भूतल धरि पानैं॥
ब्रह्मबान कानि करी, बल करि नहिं बाँध्यौ।
कैसैं परताप घटै, रघुपति आराध्यौ॥
देखत कपि-बाहु-दंड तन प्रस्वेद छूटे।
जै-जै रघुनाथ कहत, बंधन सब टूटे॥
देखत बल दूरि करॺौ, मेघनाद गारौ।
आपुन भयौ सकुचि ‘सूर’ बंधन तैं न्यारौ॥
मूल
(९५)
सीतापति-सेवक तोहि देखन कौं आयौ।
का कैं बल बैर तैं जु राम तैं बढ़ायौ॥
जे-जे तुव सूर सुभट, कीट सम न लेखौं।
तो कौं दसकंध अंध, प्राननि बिनु देखौं॥
नख-सिख ज्यौं मीन जाल, जड़ॺौ अंग-अंगा।
अजहुँ नाहिं संक धरत, बानर मति-भंगा॥
जोइ-सोइ मुखहिं कहत, मरन निज न जानै।
जैसैं नर संनिपात भऐं बुध बखानैं॥
तब तू गयौ सून भवन, भस्म अंग पोते।
करते बिन प्रान तोहिं, लछिमन जौ होते॥
पाछे तैं हरी सिया, न मरजाद राखी।
जौ पै दसकंध बली, रेख क्यौं न नाखी॥
अजहूँ सिय सौंपि, नतरु बीस भुजा भानै।
रघुपति यह पैज करी, भूतल धरि पानैं॥
ब्रह्मबान कानि करी, बल करि नहिं बाँध्यौ।
कैसैं परताप घटै, रघुपति आराध्यौ॥
देखत कपि-बाहु-दंड तन प्रस्वेद छूटे।
जै-जै रघुनाथ कहत, बंधन सब टूटे॥
देखत बल दूरि करॺौ, मेघनाद गारौ।
आपुन भयौ सकुचि ‘सूर’ बंधन तैं न्यारौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीहनुमान् जी रावणसे कह रहे हैं—) ‘मैं श्रीजानकीनाथका सेवक हूँ, तुझे देखनेके लिये यहाँ आया हूँ। तूने किसके बलपर श्रीरामसे वैर बढ़ाया है? क्योंकि तेरे जितने शूरवीर सेनानायक हैं, उन्हें तो (अकेला) मैं (ही) कीड़ोंके समान भी नहीं समझता। अरे अंधे रावण! तुझे भी मैं निष्प्राण (मृतपाय) ही देखता हूँ।’ (तब रावण बोला—) ‘जैसे मछली जालमें पड़ी हो, ऐसे तेरे अंग-प्रत्यंग (बन्धनसे) जकड़े हैं; अरे नष्टबुद्धि बंदर! इतनेपर भी तू शंकित नहीं होता? चाहे जो कुछ मुखसे बक रहा है, अपनी मृत्युको जानता नहीं? बुद्धिमान् लोग कहते हैं कि संनिपात होनेपर मनुष्य ऐसे ही बकने लगते हैं, जैसे तू बोल रहा है।’ (तब श्रीहनुमान् जी ने कहा—) ‘उस समय (पंचवटीमें) सूनी कुटियामें तू शरीरमें भस्म पोतकर (साधुका वेश बनाकर) गया था; यदि लक्ष्मणजी वहाँ होते तो (तभी) तुझे प्राणहीन कर देते। तूने (वीरोंकी) मर्यादा भी नहीं रखी, उनके पीछे सीताजीका हरण किया। अरे दशानन! यदि तू बली है तो वह (लक्ष्मणजीकी खींची) रेखा तूने क्यों पार नहीं की? अब भी श्रीजानकीजीको (श्रीरामको) सौंप दे, नहीं तो वे तेरी बीसों भुजाएँ काट देंगे। श्रीरघुनाथजीने हाथसे पृथ्वीका स्पर्श करके यह प्रतिज्ञा कर ली है। (तू मेरे बन्धनकी बात करता है? तो सुन—) किसीने बलपूर्वक मुझे नहीं बाँधा है, केवल ब्रह्मास्त्रका मैंने सम्मान किया है।’ (श्रीहनुमान् जी ने) श्रीरघुनाथजीकी आराधना की है, अतः उनका प्रताप कैसे घट सकता है। उनके भुजदण्डको देखकर (भयसे रावणके) शरीरसे पसीना निकलने लगा। हनुमान् जी के ‘जय-जय श्रीरघुनाथ’ कहते ही सब बन्धन टूट गये। उनके बलको देखकर मेघनादका (अपने बलका) गर्व दूर हो गया। सूरदासजी कहते हैं—स्वयं संकुचित होकर (छोटा रूप बनाकर) हनुमान् जी बन्धनसे अलग हो गये।
लंका-दहन
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९६)
मंत्रिनि नीकौ मंत्र बिचारॺौ।
राजन कहौ, दूत काहू कौ, कौन नृपति है मारॺौ॥
इतनी सुनत बिभीषन बोले, बंधू पाइ परौं।
यह अनरीति सुनी नहिं स्रवननि, अब नइ कहा करौ॥
हरी बिधाता बुद्धि सबनि की, अति आतुर ह्वै धाए।
सन अरु सूत, चीर-पाटंबर, लै लंगूर बँधाए॥
तेल-तूल पावक-पुट धरि कै, देखन चहैं जरौ।
कपि मन कह्यौ भली मति दीनी, रघुपति-काज करौं॥
बंधन तोरि, मोरि मुख असुरनि, ज्वाला प्रगट करी।
रघुपति-चरन-प्रताप ‘सूर’ तब, लंका सकल जरी॥
मूल
(९६)
मंत्रिनि नीकौ मंत्र बिचारॺौ।
राजन कहौ, दूत काहू कौ, कौन नृपति है मारॺौ॥
इतनी सुनत बिभीषन बोले, बंधू पाइ परौं।
यह अनरीति सुनी नहिं स्रवननि, अब नइ कहा करौ॥
हरी बिधाता बुद्धि सबनि की, अति आतुर ह्वै धाए।
सन अरु सूत, चीर-पाटंबर, लै लंगूर बँधाए॥
तेल-तूल पावक-पुट धरि कै, देखन चहैं जरौ।
कपि मन कह्यौ भली मति दीनी, रघुपति-काज करौं॥
बंधन तोरि, मोरि मुख असुरनि, ज्वाला प्रगट करी।
रघुपति-चरन-प्रताप ‘सूर’ तब, लंका सकल जरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(रावणके) मन्त्रियोंने अच्छी सलाह सोची (उन्होंने रावणसे कहा—) ‘महाराज! बताइये तो, किस नरेशने किसीके दूतको मारा है? (आप भी दूतको न मारें। इसकी पूँछ जला दें।)’ यह बात सुनकर विभीषणजी बोले—‘भाई! मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ, ऐसा अन्याय कहीं होते कानोंसे सुना नहीं गया, अब आप नवीन बात क्यों करते हैं?’ (रावणने दूतको मारनेकी बात तो छोड़ दी; किंतु) विधाता (भाग्य)-ने सब राक्षसोंकी बुद्धि हरण कर ली थी (वे परिणाम नहीं समझ पाते थे)। वे अत्यन्त आतुरतापूर्वक दौड़े और सन, सूत, रेशमी वस्त्र एवं चिथड़े—सब लाकर हनुमान् जी की पूँछमें बाँध दिये। उस लिपटी हुई रूई आदिको तेलसे भिगाकर उसमें अग्नि लगाकर वे श्रीहनुमान् जी को भस्म होते देखना चाहते थे। (यह देखकर) हनुमान् जी ने अपने मनमें कहा—‘भगवान् ने इन्हें अच्छी बुद्धि दे दी। श्रीरघुनाथजीका (लंका नष्ट करनेका) काम अब मैं करूँगा। राक्षसोंने (हनुमान् जी के) बन्धनोंको तोड़कर तथा (झुलसनेके भयसे) मुँह फेरकर अग्नि प्रज्वलित कर दी। सूरदासजी कहते हैं—श्रीरघुनाथजीके चरणोंके प्रतापसे सम्पूर्ण लंका भस्म हो गयी।
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९७)
रावन मंत्र ये हमाही।
बंदर सुबस होइ कैसैऊँ मति सोचत सब याही॥
चल तैं पापी तिहिं कही, ररकत है मतिमंद।
अब काकौ मुख देखिहै, जौ पासि परैगी कंठ॥
बचन एक बुहमत कहै, सुनि रावन मतिमंद।
पास कंठ कहि क्यौं परै, ताकै रघुपति कंध॥
तौ याकी बाँछ प्रजा पौरि-पौरि प्रति राखि।
एक बंधन सब मिलै सो, जनक-सुता-सौं भाखि॥
जितौ सौं कछु जानकी, प्रात कह्यौ हौ आइ।
सो कपि लंकापति गह्यौ, मारत दुःख दिखाइ॥
बीच-बीच मैं नर रुई सीचत घृत अरु तेल।
पूँछहि अंत न पावहीं राखिस लाने खेलि॥
जौ कबहूँ रघुनाथ हित मो मन भयौ न भंग।
तौ पावक जलरूप ह्वै जरौ न कपि कौ अंग॥
कछु यक डरप्यौ नाथ ते, कछू हनू कौ दाप।
पावक ज्वाल न छाँड़ई, डरप्यौ सीय-सराप॥
पूँछ न जरॺौ रोम नहिं डाढॺौ, फिरि देख्यौ भरमाइ।
कछु रघुनाथ दया करी, सीता सत्त सहाइ॥
इहाँ गवन कपि तैं कियौ, तातैं कारन कौन।
काकै हित तामस भरॺौ, फिरॺौ निहारत भौन॥
जनक सुता के कारनैं प्रभु आयस दीनौ मोहि।
कौतूहल लंका-धनी! हौं देखन आयो तोहि॥
श्रवन बचन सुनि परजरॺौ रिस करि कै भूपाल।
आपन ही मुदगर धरे, करि लोचन बिकराल॥
बिभीषन बिनती करै, अस न होइ अजगुत्त।
जुग-जुग गारी बैठिहैं सनमुख मारे दुत्त॥
अरे सुभट केतिक जुरे तोसे राघव पास।
पवन-पूत साँची कहै, छोरि कंठ दै सास॥
हलदल्यौ सब सेवकन मैं, अरु पौरुष बल हीन।
वो छौकार पुजानि कैं, प्रभु मोहि रजायस दीन॥
पद्म अष्टदस सेन मैं तिनहिन बल-मरजाद।
ते तूँ रावन देखिहै ‘सूर’ सु कवन बिबाद॥
मूल
(९७)
रावन मंत्र ये हमाही।
बंदर सुबस होइ कैसैऊँ मति सोचत सब याही॥
चल तैं पापी तिहिं कही, ररकत है मतिमंद।
अब काकौ मुख देखिहै, जौ पासि परैगी कंठ॥
बचन एक बुहमत कहै, सुनि रावन मतिमंद।
पास कंठ कहि क्यौं परै, ताकै रघुपति कंध॥
तौ याकी बाँछ प्रजा पौरि-पौरि प्रति राखि।
एक बंधन सब मिलै सो, जनक-सुता-सौं भाखि॥
जितौ सौं कछु जानकी, प्रात कह्यौ हौ आइ।
सो कपि लंकापति गह्यौ, मारत दुःख दिखाइ॥
बीच-बीच मैं नर रुई सीचत घृत अरु तेल।
पूँछहि अंत न पावहीं राखिस लाने खेलि॥
जौ कबहूँ रघुनाथ हित मो मन भयौ न भंग।
तौ पावक जलरूप ह्वै जरौ न कपि कौ अंग॥
कछु यक डरप्यौ नाथ ते, कछू हनू कौ दाप।
पावक ज्वाल न छाँड़ई, डरप्यौ सीय-सराप॥
पूँछ न जरॺौ रोम नहिं डाढॺौ, फिरि देख्यौ भरमाइ।
कछु रघुनाथ दया करी, सीता सत्त सहाइ॥
इहाँ गवन कपि तैं कियौ, तातैं कारन कौन।
काकै हित तामस भरॺौ, फिरॺौ निहारत भौन॥
जनक सुता के कारनैं प्रभु आयस दीनौ मोहि।
कौतूहल लंका-धनी! हौं देखन आयो तोहि॥
श्रवन बचन सुनि परजरॺौ रिस करि कै भूपाल।
आपन ही मुदगर धरे, करि लोचन बिकराल॥
बिभीषन बिनती करै, अस न होइ अजगुत्त।
जुग-जुग गारी बैठिहैं सनमुख मारे दुत्त॥
अरे सुभट केतिक जुरे तोसे राघव पास।
पवन-पूत साँची कहै, छोरि कंठ दै सास॥
हलदल्यौ सब सेवकन मैं, अरु पौरुष बल हीन।
वो छौकार पुजानि कैं, प्रभु मोहि रजायस दीन॥
पद्म अष्टदस सेन मैं तिनहिन बल-मरजाद।
ते तूँ रावन देखिहै ‘सूर’ सु कवन बिबाद॥
अनुवाद (हिन्दी)
(रावणके मन्त्री) परस्पर सबसे उपाय पूछते हैं (और कहते हैं—) ‘महाराज रावणने हम सबसे सलाह माँगी है कि यह बंदर कैसे वशमें हो।’ उस पापी रावणने (हनुमान् जी से) कहा—‘अरे मन्दबुद्धि! चल तो। क्यों व्यर्थमें तंग करता है; अब जब गलेमें फाँसी पड़ेगी, तब किसका मुख देखेगा? (कौन तेरी सहायता करेगा?)’ (तब माल्यवान्-जैसे किसी) विचारवान् ने कहा—‘अरे मन्दबुद्धि रावण! बता तो, उस (कपि)-के गलेमें फाँसी कैसे पड़ सकती है? उसके कंधोंपर (उसके रक्षक) तो श्रीरघुनाथजी हैं। इस बातकी इच्छा चाहे तू द्वार-द्वार प्रत्येक प्रजाजनसे कर ले (नगरके सबराक्षसोंको इस कपिको पकड़नेमें लगा दे); परंतु यह तो एक ही बन्धनसे भली प्रकार मिल सकता है, यदि श्रीजनकनन्दिनीकी शपथ इसे दिला दे।’ (तात्पर्य यह कि श्रीजानकीजीकी शपथ देकर ही इसे पकड़ सकते हो, बलसे इसे पकड़ा नहीं जा सकता।) इधर (दूसरी ओर अशोकवाटिकामें) श्रीजानकीसे सबेरे आकर किसीने कुछ कहा क ‘उस बंदरको तो लंकानरेशने पकड़ लिया और दुःख दिला-दिलाकर उसे मार रहे हैं। बीच-बीचमें लोग (उसकी पूँछमें) रूई लपेटकर तेलसे भिगाते हैं; (परन्तु आश्चर्य है कि) पूँछका अन्त नहीं पा रहे हैं। राक्षसोंके लिये तो (इस प्रकार बंदरको जलाना) एक खेल मिल गया है।’ (यह सुनकर श्रीजानकीजीने संकल्प किया—) ‘यदि कभी श्रीरघुनाथजीके प्रति मेरे मनका स्नेह टूटा न हो तो अग्नि जलके समान शीतल हो जायँ! कपिका अंग न जले!’ अग्निदेव कुछ तो श्रीरघुनाथजीसे डर गये, कुछ हनुमान् जी का दबाव था (उन्हें भस्म न करनेका वरदान वे दे चुके थे) और श्रीजानकीजीके शापसे भी वे भयभीत हो गये (अतः हनुमान् जी के ऊपर) अपनी ज्वाला (उष्णता) नहीं छोड़ते थे। कुछ श्रीरघुनाथजीने दया की और श्रीजानकीजीका सतीत्व सहायक हो गया, इससे हनुमान् जी की पूँछ नहीं जली; (लंकामें) चारों ओर घूमते हुए पूरा नगर उन्होंने देखा (जलाया); किंतु उनका एक रोम भी नहीं झुलसा। (रावणने उनसे पूछा—) ‘कपि! तू यहाँ किस लिये आया? किस कारणसे क्रोधमें भरकर प्रत्येक घरको देखता घूमता रहा?’ (श्रीहनुमान् जी ने कहा—) ‘श्रीजनकनन्दिनीजीका पता लगानेके लिये प्रभुने मुझे आज्ञा दी थी। लंकानरेश! कौतूहलवश मैं तुझे देखने यहाँ आया हूँ।’ राजा रावण यह बात कानसे सुनकर क्रोधसे जल उठा, विकराल नेत्र करके उसने (हनुमान् जी को मारनेके लिये) अपने हाथोंसे ही मुद्गर उठाया। तब विभीषणने प्रार्थना की—‘ऐसी अनुचित चेष्टा नहीं करनी चाहिये। दूतको सम्मुख (प्रत्यक्ष) मार देनेपर युग-युगतक आपको गाली मिलती रहेगी।’ (तब रावणने पूछा—) ‘पवनकुमार! सच बता, तेरे समान कितने योद्धा रामचन्द्रके पास एकत्र हुए हैं। राक्षसो! इसका कण्ठ खोल दो। इसे श्वास लेने दो (जिससे यह उत्तर दे सके)।’ सूरदासजी कहते हैं—(तब हनुमान् जी ने कहा—) ‘प्रभुके सेवकोंमें मैं सबसे छोटा तथा पुरुषार्थ और बलसे रहित हूँ। अपने सेवकोंमें सबसे छोटा समझकर प्रभुने मुझे (यहाँ आनेकी) आज्ञा दी है। अठारह पद्म सेनामें उन प्रभुका ही बल तथा उन्हींकी मर्यादा है। (पूरी सेना प्रभुके बलसे बलवान् है और उनके पूर्णतः नियन्त्रणमें है।) अब विवादकी क्या बात है, रावण! तू उन सब सेनाको अब देखेगा ही।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९८)
जारौं गढ़ आजु, जैसैं रावन भै मानै।
सीतापति-सेवक मुहि आयौ को जानै॥
एक-एक रोम हनु छल छल छवाना।
त्यौं-त्यौं कपि करत हैं रामचंद्र-आना॥
एक भेट उन की लै उनही कौं दीजै।
ज्यौं-ज्यौं लंगूर जरै, त्यौं-त्यौं कपि छूजै॥
रामचंद बिपति-दहन कबहूँ नहिं फूले।
सीता-दुख परम कठिन ब्यापति अनसूले॥
दूत सखन कनक-भवन इहि तजि निधि हारे।
तिवमद्रि पवनपूत बिषम ज्वाल जारे॥
बीच-बीच धूर धूम बीच-बीच झंका।
बिच-बिच देखियत ‘सूर’ स्याम-बरन लंका॥
मूल
(९८)
जारौं गढ़ आजु, जैसैं रावन भै मानै।
सीतापति-सेवक मुहि आयौ को जानै॥
एक-एक रोम हनु छल छल छवाना।
त्यौं-त्यौं कपि करत हैं रामचंद्र-आना॥
एक भेट उन की लै उनही कौं दीजै।
ज्यौं-ज्यौं लंगूर जरै, त्यौं-त्यौं कपि छूजै॥
रामचंद बिपति-दहन कबहूँ नहिं फूले।
सीता-दुख परम कठिन ब्यापति अनसूले॥
दूत सखन कनक-भवन इहि तजि निधि हारे।
तिवमद्रि पवनपूत बिषम ज्वाल जारे॥
बीच-बीच धूर धूम बीच-बीच झंका।
बिच-बिच देखियत ‘सूर’ स्याम-बरन लंका॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीहनुमान् जी ने सोचा—) ‘लंकादुर्गको आज जला दूँ , जिससे रावण (कुछ तो) भयभीत हो जाय। (नहीं तो) श्रीजानकीनाथका सेवक मैं यहाँ आया था, यह कोई कैसे जानेगा।’ (इस प्रकार सोचकर हनुमान् जी ने इतना विशाल रूप धारण किया कि) उनका एक-एक रोम फड़कने लगा, हनुमान् जी बढ़कर आकाशमें छा गये, बार-बार वे कपिश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीकी जयध्वनि करने लगे। (वे सोचने लगे—) यह अग्निकी एक भेंट इन (राक्षसों)-से लेकर इनको ही दे देना चाहिये। जैसे-जैसे पूँछमें अग्नि बढ़ती थी, वैसे-वैसे कपि-शिरोमणि धूम मचाते (अधिक वेगसे कूदते) थे। श्रीरामचन्द्रजीकी विपत्ति ही जो कभी फूली (प्रकट हुई) नहीं थी, मानो अग्निके रूपमें प्रकट हो गयी। बिना कष्टके ही श्रीजानकीजीका कठिन दुःख (अग्नि बनकर लंकामें) व्याप्त हो गया। पवनकुमारने रामदूतके सखा (विभीषण)-के एक घरको छोड़कर समुद्रसे घिरे त्रिकूट पर्वतपर बसे सभी स्वर्णभवनोंको विषम ज्वालासे जला दिया। सूरदासजी कहते हैं—बीच-बीचमें धुएँके अंबार उठ रहे थे, उनके बीच-बीचमें लपटें उठ रही थीं और उनके बीच-बीचमें जलकर काली हुई लंका दिखायी पड़ती थी।
विषय (हिन्दी)
राग धनाश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(९९)
सोचि जिय पवन-पूत पछिताइ।
अगम अपार सिंधु दुस्तर तरि, कहा कियौ मैं आइ॥
सेवक कौ सेवा-पन एतौ, आज्ञाकारी होइ।
बिन आज्ञा मैं भवन पजारे, अपजस करिहैं लोइ॥
वे रघुनाथ चतुर कहियत हैं, अंतरजामी सोइ।
या भय भीत देखि लंका मैं, सीय जरी मति होइ॥
इतनी कहत गगन-बानी भइ, हनू! सोच कत करई।
चिरंजीवि सीता तरुबर तर, अटल न कबहूँ टरई॥
फिरि अवलोकि ‘सूर’ सुख लीजै, पुहुमी रोम न परई।
जाके हिय अंतर रघुनंदन, सो क्यौं पावक जरई॥
मूल
(९९)
सोचि जिय पवन-पूत पछिताइ।
अगम अपार सिंधु दुस्तर तरि, कहा कियौ मैं आइ॥
सेवक कौ सेवा-पन एतौ, आज्ञाकारी होइ।
बिन आज्ञा मैं भवन पजारे, अपजस करिहैं लोइ॥
वे रघुनाथ चतुर कहियत हैं, अंतरजामी सोइ।
या भय भीत देखि लंका मैं, सीय जरी मति होइ॥
इतनी कहत गगन-बानी भइ, हनू! सोच कत करई।
चिरंजीवि सीता तरुबर तर, अटल न कबहूँ टरई॥
फिरि अवलोकि ‘सूर’ सुख लीजै, पुहुमी रोम न परई।
जाके हिय अंतर रघुनंदन, सो क्यौं पावक जरई॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी यह विचार करके पश्चात्ताप करने लगे कि ‘अगम्य अपार दुस्तर समुद्रको पार करके यहाँ आकर मैंने यह क्या किया?’ सेवकका सेवा-व्रत तो इतना ही है कि वह आज्ञाका पालन करनेवाला हो। मैंने प्रभुकी बिना आज्ञाके ही भवनोंको जला दिया, इसलिये लोग मुझे अपयश देंगे (मेरी निन्दा करेंगे); किंतु वे श्रीरघुनाथजी चतुर कहे जाते हैं, वे अन्तर्यामी हैं। (वे मेरे हृदयके भावको जानकर रोष नहीं करेंगे।) किंतु मैं तो यह देखकर डर रहा हूँ कि कहीं लंकामें सीताजी भी न जल गयी हों। सूरदासजी कहते हैं—(हनुमान् जी के) इतना कहते ही आकाशवाणी हुई—‘हनुमान्! चिन्ता क्यों कर रहे हो? श्रीजानकीजी चिरंजीवी हैं, वे वृक्षके नीचे अविचल बैठी हैं, वहाँसे हिलीतक नहीं हैं। उनका फिर दर्शन करके आनन्द प्राप्त करो, उनका तो एक रोम भी पृथ्वीपर गिर नहीं सकता। भला, जिनके हृदयमें श्रीरघुनाथजी हैं, वे अग्निमें कैसे जल सकती हैं।’
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१००)
लंका हनूमान सब जारी।
राम-काज, सीता की सुधि लगि, अंगद-प्रीति बिचारी॥
जा रावन की सकति तिहूँ पुर, कोउ न आज्ञा टारी।
ता रावन के अछत, अछयसुत-सहित सैन संहारी॥
पूँछ बुझाइ गए सागर-तट, जहँ सीता की बारी।
कर दंडवत, प्रेम पुलकित ह्वै, कह्यौ सुनि राघव-प्यारी॥
तुम्हरेहिं तेज-प्रताप रही बचि, तुम्हरी यहै अटारी।
‘सूरदास’ स्वामी के आगैं, जाइ कहौं सुख भारी॥
मूल
(१००)
लंका हनूमान सब जारी।
राम-काज, सीता की सुधि लगि, अंगद-प्रीति बिचारी॥
जा रावन की सकति तिहूँ पुर, कोउ न आज्ञा टारी।
ता रावन के अछत, अछयसुत-सहित सैन संहारी॥
पूँछ बुझाइ गए सागर-तट, जहँ सीता की बारी।
कर दंडवत, प्रेम पुलकित ह्वै, कह्यौ सुनि राघव-प्यारी॥
तुम्हरेहिं तेज-प्रताप रही बचि, तुम्हरी यहै अटारी।
‘सूरदास’ स्वामी के आगैं, जाइ कहौं सुख भारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामजीका कार्य करने, श्रीसीताजीका समाचार लेने तथा श्रीअंगदजीके प्रिय कार्यका विचार करके (लंका आकर) हनुमान् जी ने सारी लंका जला दी। जिस रावणमें ऐसी शक्ति थी कि तीनों लोकोंमें कोई भी उसकी आज्ञा टाल नहीं सकता था, उस रावणके रहते-रहते उसके पुत्र अक्षयकुमारको सेनासहित उन्होंने मार डाला। सूरदासजी कहते हैं—(नगर जलाकर) समुद्रके किनारे जलमें पूँछ बुझाकर वे वहाँ गये, जहाँ सीताजीकी अशोकवाटिका थी। दण्डवत् प्रणिपात करके प्रेमसे पुलकित होते हुए बोले—‘श्रीरामकी प्रियतमे जानकीजी! आप सुनें; आपके ही तेज और प्रतापसे आपका यह (अशोकवनका) भवन बच गया है (शेष सारी लंका जल गयी। अब मुझे आज्ञा दीजिये)। मैं स्वामीके पास जाकर यह अत्यन्त सुखपूर्ण समाचार कहूँ।’
श्रीजानकीका संदेश
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१०१)
कपि! तुम यह संदेसौ कहियौ।
रघुपति! तुम पत पतिब्रत हमरैं करुनानाथ! सोध अब लहियौ॥
बिनती करियौ नाथ सौं, जहाँ सुलछिमन लाल।
वह सायक किन संभरौ, तीन लोक कौ काल॥
मोहि चिंता नहिं आपनी, तुमही हँसिहैं लोग।
मानौ राघव बल नहीं रावन मारन जोग॥
सकल सराहत देव-मुनि राघौ-लछिमन बान।
मानौ वे निःपाल भए , देखि हमारैं जान॥
छत्री ह्वै आयुध गहैं, गनैं सुभट समकीय।
ताहि अछित कैसैं बसै जाके घर की तीय॥
जौ पैं राघौ सुठि सही आयसु देते मोहि।
तौऊ अर्ध निमेष मैं अब लै जातौं तोहि॥
हीन-गात कपि देखियै, बात कहत बलबीर।
क्यौं सरितापति लाँघिहै अब गवनै मैं भीर॥
माता मरम न जानई, मोहि दिखावत सिंधु।
सबहि लंक उतपाटतौ, जौ न होत साबंध॥
अरुन नैन, बिकराल मुख, पर्बत तुलिय सरीर।
‘सूर’ साधु सीता कहै, साँचौ हनुमत बीर॥
मूल
(१०१)
कपि! तुम यह संदेसौ कहियौ।
रघुपति! तुम पत पतिब्रत हमरैं करुनानाथ! सोध अब लहियौ॥
बिनती करियौ नाथ सौं, जहाँ सुलछिमन लाल।
वह सायक किन संभरौ, तीन लोक कौ काल॥
मोहि चिंता नहिं आपनी, तुमही हँसिहैं लोग।
मानौ राघव बल नहीं रावन मारन जोग॥
सकल सराहत देव-मुनि राघौ-लछिमन बान।
मानौ वे निःपाल भए , देखि हमारैं जान॥
छत्री ह्वै आयुध गहैं, गनैं सुभट समकीय।
ताहि अछित कैसैं बसै जाके घर की तीय॥
जौ पैं राघौ सुठि सही आयसु देते मोहि।
तौऊ अर्ध निमेष मैं अब लै जातौं तोहि॥
हीन-गात कपि देखियै, बात कहत बलबीर।
क्यौं सरितापति लाँघिहै अब गवनै मैं भीर॥
माता मरम न जानई, मोहि दिखावत सिंधु।
सबहि लंक उतपाटतौ, जौ न होत साबंध॥
अरुन नैन, बिकराल मुख, पर्बत तुलिय सरीर।
‘सूर’ साधु सीता कहै, साँचौ हनुमत बीर॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीजानकीजी कहती हैं—) ‘हनुमान्! तुम यह संदेश (जाकर) कह देना कि हे रघुनाथजी! मेरे पातिव्रत्यकी रक्षामें ही आपकी प्रतिष्ठा है; अतः हे करुणामय स्वामी! अब मेरी सुधि (शीघ्र) लीजिये। जब श्रीलक्ष्मणलाल पास हों, तब प्रभुसे प्रार्थना करना कि आप अपने उस बाणको क्यों नहीं सँभालते, जो त्रिलोकीका काल (तीनों लोकोंको नष्ट करनेमें समर्थ) है। मुझे अपनी (अपने दुःखकी) चिन्ता नहीं है; (चिन्ता तो यह है कि) लोग यह कहकर तुम्हारी हँसी उड़ायेंगे कि श्रीरघुनाथमें रावणको मारनेयोग्य बल ही नहीं ज्ञात होता। (लोग कहेंगे—) ‘सभी देवता और मुनिगण श्रीराम एवं लक्ष्मणके बाणकी प्रशंसा करते हैं; किंतु हमारी समझसे तो वे पालनमें असमर्थ हो गये जान पड़ते हैं। क्षत्रिय होकर जिसने हथियार धारण करके भी समान बलशाली शूरकी गणना की (उसका भय माना) तथा जिसके घरकी स्त्री हरी गयी हो; उसके रहते (उसके राज्यमें) कोई कैसे बसे, उसकी प्रजा निश्चिन्त कैसे रह सकती है)’ (यह सुनकर हनुमान् जी ने कहा—) ‘यदि श्रीरघुनाथजीने सचमुच भली प्रकार (स्पष्ट) आज्ञा मुझे दे दी होती तो आधे क्षणमें ही मैं अभी आपको यहाँसे ले जाता।’ (श्रीजानकीजी मन-ही-मन संदेह करने लगीं—) इस वानरका शरीर तो बहुत छोटा दीखता है और बातें यह बड़े बलवान् वीरों-जैसी कर रहा है; भला यह समुद्रको कैसे पार कर सकेगा! अब तो इसके लौटनेमें ही भय हो गया (क्योंकि रावण इसे जान गया) है।’ (जानकीजीके मनका भाव समझकर हनुमान् जी ने भी सोचा—) ‘माता श्रीजानकीजी (मेरी शक्तिका) रहस्य तो जानती नहीं, मुझे समुद्र दिखला रही हैं कि तुम समुद्र पार कैसे जा सकोगे। अरे! यदि मुझपर उस (प्रभुकी मर्यादा)-का बन्धन न होता तो मैं पूरी लंकाको ही उखाड़ फेंकता।’ सूरदासजी कहते हैं—(यह सोचकर हनुमान् जी ने अपना रूप प्रकट किया।) उनके लाल-लाल नेत्र, बड़ा विकराल मुख और पर्वतके समान विशाल देह प्रकट हो गया। (यह देखकर श्रीजानकीजीने कहा—) ‘साधु! साधु! हनुमान्! तुम सच्चे वीर हो।’
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१०२)
अबहीं जननि चलौ, लै जाऊँ।
कितौ यक सिंधु अगम गोपद-सौ तिरबे कहा डराऊँ॥
चढ़ि मम जठर पानि ग्रीवा गहि उपै अकासहि जाऊँ।
जैसैं सोध न लहै निसाचर, बीच बिलंब न लाऊँ॥
तुमहि परसि रघुपति के पायनि सनमुख ह्वै सिर नाऊँ।
उद्यम सुफल होइ सब मेरौ, तीन लोक जस पाऊँ॥
श्रीरघुनाथ-पतिब्रत मेरै, सुनौ बच्छ सतिभाऊँ।
हम अबला पर-पुरुष पीठ पर कैसैं धरियै पाऊँ॥
जौ तुम कौं पकरौं उतिरबे कौ होइ चतुर-गुन चाऊ।
बूड़ौं सिंधु कौन मिति करिहौ, जौ पूछै रघुराऊ॥
तुमहिं चलत निसहर सुधि पावै, देइ आपनौ दाऊ।
रोकै जाइ सिंधु कौ मारग, जुरै मेघ ज्यूँ बाऊ॥
एकै सुभट लच्छ क्यौं जीतै, तुम सिर मेलै घाऊ।
जाते तुम दुख होइ पवन-सुत, सो लालच बहि जाऊ॥
निरमोलिक मनि छोरि गूँथि जो, दीनी हनुमत हाथ।
जाऔ पुत्र! जहाँ रघुनंदन, कहौ बिपति कै गाथ॥
काहे कौं प्रभु ‘सूर’ धनुष लियौ, अरु बाँध्यौ कटि भाथ।
यह पापी, तुम पतित-उधारन, कहाँ बिलंबे नाथ॥
मूल
(१०२)
अबहीं जननि चलौ, लै जाऊँ।
कितौ यक सिंधु अगम गोपद-सौ तिरबे कहा डराऊँ॥
चढ़ि मम जठर पानि ग्रीवा गहि उपै अकासहि जाऊँ।
जैसैं सोध न लहै निसाचर, बीच बिलंब न लाऊँ॥
तुमहि परसि रघुपति के पायनि सनमुख ह्वै सिर नाऊँ।
उद्यम सुफल होइ सब मेरौ, तीन लोक जस पाऊँ॥
श्रीरघुनाथ-पतिब्रत मेरै, सुनौ बच्छ सतिभाऊँ।
हम अबला पर-पुरुष पीठ पर कैसैं धरियै पाऊँ॥
जौ तुम कौं पकरौं उतिरबे कौ होइ चतुर-गुन चाऊ।
बूड़ौं सिंधु कौन मिति करिहौ, जौ पूछै रघुराऊ॥
तुमहिं चलत निसहर सुधि पावै, देइ आपनौ दाऊ।
रोकै जाइ सिंधु कौ मारग, जुरै मेघ ज्यूँ बाऊ॥
एकै सुभट लच्छ क्यौं जीतै, तुम सिर मेलै घाऊ।
जाते तुम दुख होइ पवन-सुत, सो लालच बहि जाऊ॥
निरमोलिक मनि छोरि गूँथि जो, दीनी हनुमत हाथ।
जाऔ पुत्र! जहाँ रघुनंदन, कहौ बिपति कै गाथ॥
काहे कौं प्रभु ‘सूर’ धनुष लियौ, अरु बाँध्यौ कटि भाथ।
यह पापी, तुम पतित-उधारन, कहाँ बिलंबे नाथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीहनुमान् जी ने कहा—) ‘माता! आप (साथ) चलें, अभी ले जाऊँ। यह एक समुद्र भला, क्या अगम्य होगा, यह तो गायके खुरसे बने गड्ढेके समान है; इसे पार करनेमें क्या भय करूँ। आप मेरी पीठपर चढ़कर हाथोंसे मेरा गला पकड़ लें, मैं उड़कर (कूदकर) आकाशमें चला जाता हूँ और बीचमें थोड़ा भी विलम्ब नहीं करूँगा, जिससे राक्षसराज रावणको कुछ भी पता न लग सके। आपका स्पर्श करके (आपको साथ लेकर) श्रीरघुनाथजीके चरणोंके सम्मुख होकर (प्रसन्नतासे) मस्तक झुकाऊँ (प्रणाम करूँ)। मेरा सब उद्योग सफल हो जाय, त्रिलोकीमें मैं यश प्राप्त करूँ।’ (श्रीजानकीजीने यह सुनकर कहा—) ‘पुत्र! सच्चे भावसे कहती हूँ, सुनो! श्रीरघुनाथके प्रति मेरा (सच्चा) पतिव्रतका भाव है, स्त्री होकर मैं (जान-बूझकर) दूसरे पुरुषकी पीठपर पैर कैसे रख सकती हूँ। यदि मैं तुम्हें पकड़ भी लूँ तो (शीघ्र-से-शीघ्र) समुद्र पार करनेके लिये चौगुनी उमंग (मेरे मनमें) होगी। (ऐसी दशामें कहीं हाथ छूट जाय, तो) मेरे समुद्रमें डूब जानेपर, यदि श्रीरघुनाथ पूछेंगे (कि जानकी कहाँ हैं?) तब तुम क्या उत्तर दोगे? अथवा तुम्हारे चलनेका समाचार (किसी प्रकार) राक्षस (रावण) पा जाय तो अपना दाव वह हाथसे जाने देगा? (अपितु बदला लेनेका प्रयत्न अवश्य करेगा)। वह जाकर समुद्रका मार्ग रोक लेगा, वायुकी प्रेरणासे मेघोंके समान उसकी प्रेरणासे उसकी सेना एकत्र हो जायगी। अकेला वीर लाखोंको कैसे जीत सकता है, वह तुम्हारे मस्तकपर आघात करेगा; अतः हे पवनकुमार! जिससे तुम्हें दुःख हो (विपत्तिमें पड़ना पड़े), वह लोभ बह जाय (नष्ट हो जाय)।’ (यह कहकर श्रीजानकीजीने) मस्तकमें गूँथी हुई अमूल्य चूड़ामणि खोलकर श्रीहनुमान् जी के हाथपर रख दीं (और बोलीं—) ‘हे पुत्र! जहाँ श्रीरघुनाथजी हैं, वहाँ जाओ और उनसे मेरी विपत्ति-कथा कहो। (जब मेरा उद्धार नहीं करना था, तब) प्रभुने क्यों हाथमें धनुष लिया और कटिमें तरकस बाँधा।’ सूरदासजी यहीं अपने सम्बन्धमें भी कहते हैं—‘प्रभो! यह ‘सूर’ तो पापी है और आप पतितोंका उद्धार करनेवाले हैं; (फिर आकर मेरा उद्धार क्यों नहीं करते?) कहाँ रुककर विलम्ब कर रहे हैं?’
विषय (हिन्दी)
राग जैतश्री
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१०३)
लंक हनुमंत तोरि सुहनवंत सीता पैं जाय।
कछु बिलख्यौ, कछु हरषवंत ह्वै हरये बैठौ आय॥
फिरि आयौ उद्यान मैं, कह्यौ जु सुचित सँदेस।
अब हौं यहँ लै आयहौं श्रीरघुनाथ नरेस॥
धनि राघव बल परखिहैं धनि अंजनी सुमाइ।
ऐसे समरथ दूत बिनु कैसें काज सिराय॥
पूँछ जरैं जीवन नहीं, मगन भयौ श्री जोय।
लै आऊँ रघुनाथ कौं, मात रजायस होय॥
देखैं ही गति जात है, कहा कहौं कहि तोहि।
कहियौ श्रीरघुनाथ सौं असुर सँतावत मोहि॥
पूँछ बुझाई लहर करि रावन कैं बिदिमान।
तौऊँ जरत बुझाइहौं रामचंद्र कैं बान॥
सौ जोजन तहाँ सिखर अति, चढ़ौ हनू तहाँ धाय।
फाँदत जंघा-बल भयौ रह्यौ पतालहि जाय॥
उपै हनू आकास महँ मनहुँ धनुष कौ बान।
आगम अंगद कौं भयौ, पवनपूत पहिचान॥
आवत भई न बार कपि, जैसैं कंठ उसास।
मानौ दिनकर की कला बिथुरत भयौ प्रकास॥
देखन कौं कपि अलनले चढ़े सिखर पर धाय।
जामवंत अंगद तहाँ प्रथम पहूँचे आय॥
सिला एक चाकरि तहाँ, लै बैठे सब बीर।
सबै कथा कारन कह्यौ, क्यौं लाँघ्यौ सागर-तीर॥
पवन-पूत! साँची कहौ, तूँ आयौ सिय देखि।
कितौ कि रावन और दल, गज-बाजीन बिसेषि॥
गढ ऊँचौ, लंका घनी, तहाँ असुर कौ राज।
अतिबल रावन तहाँ बसै, सब भूपति सिरताज॥
बिभीषन मन मिलन कौ हौं जानत उनमान।
‘सूर’ सुहर रघुनाथ की रावन कैं बिदिमान॥
मूल
(१०३)
लंक हनुमंत तोरि सुहनवंत सीता पैं जाय।
कछु बिलख्यौ, कछु हरषवंत ह्वै हरये बैठौ आय॥
फिरि आयौ उद्यान मैं, कह्यौ जु सुचित सँदेस।
अब हौं यहँ लै आयहौं श्रीरघुनाथ नरेस॥
धनि राघव बल परखिहैं धनि अंजनी सुमाइ।
ऐसे समरथ दूत बिनु कैसें काज सिराय॥
पूँछ जरैं जीवन नहीं, मगन भयौ श्री जोय।
लै आऊँ रघुनाथ कौं, मात रजायस होय॥
देखैं ही गति जात है, कहा कहौं कहि तोहि।
कहियौ श्रीरघुनाथ सौं असुर सँतावत मोहि॥
पूँछ बुझाई लहर करि रावन कैं बिदिमान।
तौऊँ जरत बुझाइहौं रामचंद्र कैं बान॥
सौ जोजन तहाँ सिखर अति, चढ़ौ हनू तहाँ धाय।
फाँदत जंघा-बल भयौ रह्यौ पतालहि जाय॥
उपै हनू आकास महँ मनहुँ धनुष कौ बान।
आगम अंगद कौं भयौ, पवनपूत पहिचान॥
आवत भई न बार कपि, जैसैं कंठ उसास।
मानौ दिनकर की कला बिथुरत भयौ प्रकास॥
देखन कौं कपि अलनले चढ़े सिखर पर धाय।
जामवंत अंगद तहाँ प्रथम पहूँचे आय॥
सिला एक चाकरि तहाँ, लै बैठे सब बीर।
सबै कथा कारन कह्यौ, क्यौं लाँघ्यौ सागर-तीर॥
पवन-पूत! साँची कहौ, तूँ आयौ सिय देखि।
कितौ कि रावन और दल, गज-बाजीन बिसेषि॥
गढ ऊँचौ, लंका घनी, तहाँ असुर कौ राज।
अतिबल रावन तहाँ बसै, सब भूपति सिरताज॥
बिभीषन मन मिलन कौ हौं जानत उनमान।
‘सूर’ सुहर रघुनाथ की रावन कैं बिदिमान॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीहनुमान् जी ने लंकाको (जलाकर) नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और फिर माता सीताजीके पास आनन्दपूर्वक जाकर कुछ तो दुःखी हुए (श्रीजानकीजीको देखकर) और कुछ हर्षित हुए (रावणका मान-मर्दन करके) तथा धीरेसे समीप जाकर बैठ गये। (उन्होंने श्रीजानकीजीसे कहा—) ‘मैं उपवनमें घूम आया, अब आप स्वस्थ चित्तसे अपना संदेश कहें। अब मैं महाराज श्रीरघुनाथजीको यहाँ ले आऊँगा।’ (श्रीजानकीजी बोलीं—) ‘बलके पारखी श्रीरघुनाथजी धन्य हैं और तुम्हारी श्रेष्ठ माता अंजनादेवी (जिन्होंने तुम्हारे-जैसे शूरको उत्पन्न किया) धन्य हैं! ऐसे समर्थ दूतके बिना भला, (लंकाविजय-जैसा) काम कैसे पूर्ण हो सकता है।’ श्रीहनुमान् जी की पूँछके जल जानेपर (हनुमान् जी का) जीवित रहना सम्भव नहीं था; परंतु श्रीजानकीजीका दर्शन करके वे मग्न हो गये। (बोले—) ‘माता! मुझे आज्ञा मिले, मैं श्रीरघुनाथजीको ले आऊँ!’ (श्रीसीताजीने कहा—) ‘तुम तो मेरी दशा देखे ही जा रहे हो, तुमसे अब और मुँहसे क्या कहूँ। श्रीरघुनाथजीसे कहना कि मुझे असुर (रावण) सता रहा है।’ रावणके विद्यमान रहते ही (हनुमान् जी ने समुद्रकी) लहरोंमें पूँछ (-की अग्नि) बुझा दी (और बोले—) ‘माता! श्रीरामचन्द्रके बाणोंद्वारा आपकी जलन भी (रावणका वध कराके) दूर कर दूँगा।’ वहाँ सौ योजन ऊँचा एक पर्वत शिखर था, हनुमान् जी दौड़कर उसपर चढ़ गये। परंतु जंघापर जोर देकर जब वे कूदने लगे, वह पर्वत (धँसकर) पातालमें चला गया। श्रीहनुमान् जी आकाशमें इस प्रकार उड़े जा रहे थे, जैसे धनुषसे छूटा बाण जा रहा हो। (समुद्रके दूसरे तटसे) युवराज अंगदने लक्षणोंसे पवनपुत्रको पहचान लिया। (इधर) कपिश्रेष्ठ (हनुमान् जी)-को आनेमें वैसे ही देरी नहीं लगी, जैसे गलेमें आकर जम्हाईको आनेमें देर नहीं लगा करती। (उनके आनेसे वानर-समूहमें ऐसी प्रसन्नता हुई) मानो प्रातःकाल सूर्यकी किरणके फैलनेसे प्रकाश हो गया हो। (श्रीहनुमान् जी को) देखनेके लिये सभी वानर उतावले होकर पर्वतशिखरपर जा चढ़े, उनमें भी (सबसे) पहले जाम्बवान् और अंगद ही पहुँचे थे। एक चौड़ी शिला देखकर उसपर सब वीर वानर बैठ गये। तब (हनुमान् जी ने) किस प्रकार समुद्रको पार किया, यह सब बात कारणसहित बतायी। (जाम्बवान् आदिने पूछा—) ‘पवनकुमार! सच-सच बताओ, तुम श्रीजानकीजीको देखकर आये हो? रावण कितना बलवान् है? हाथी और घोड़ोंसहित उसकी सेना कितनी है?’ सूरदासजी कहते हैं—(हनुमान् जी ने बताया) लंकाका दुर्ग बहुत ऊँचा है, नगर घना बसा है, वहाँ राक्षसोंका ही प्रभुत्व है। समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ अत्यन्त बलवान् रावण वहाँ निवास करता है। अनुमानसे मैं यह जानता हूँ कि विभीषणका मन प्रभुसे मिलनेका है। रावणके विद्यमान रहते ही (लंकामें) श्रीरघुनाथजीकी प्रशंसा फैल गयी है।’
मन्दोदरीका रावणके प्रति
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१०४)
आजु रघुबीर कौ दूत आयौ।
जारि लंका सकल, मारि राच्छस बहुत,
सीय-सुधि लै कुसल फिर सिधायौ॥
कहत मंदोदरी, सुनहु दसकंध पिय!
बड़ौ अपमान करि गयौ तेरौ।
अजहुँ मन समझिकै, मूढ़! मिलि राम सौं,
‘सूर’ मतिमंद कह्यौ मान मेरौ॥
मूल
(१०४)
आजु रघुबीर कौ दूत आयौ।
जारि लंका सकल, मारि राच्छस बहुत,
सीय-सुधि लै कुसल फिर सिधायौ॥
कहत मंदोदरी, सुनहु दसकंध पिय!
बड़ौ अपमान करि गयौ तेरौ।
अजहुँ मन समझिकै, मूढ़! मिलि राम सौं,
‘सूर’ मतिमंद कह्यौ मान मेरौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीहनुमान् जी के चले जानेपर) मन्दोदरी कहती है—‘प्रियतम दशानन! सुनो। आज यहाँ श्रीरघुनाथका दूत आया था, उसने सारी लंका जला दी, बहुत-से राक्षसोंको मार दिया और (इतनेपर भी) श्रीजानकीजीका समाचार लेकर सकुशल लौट गया। वह तुम्हारा बहुत अपमान कर गया (किंतु तुम उसका कुछ भी बिगाड़ न सके)। अरे नादान! अब भी मनमें विचार करो! ओ मन्दबुद्धि! मेरा कहना मानो और श्रीरामचन्द्रजीसे जाकर मिलो!’
सीताका चूड़ामणि-प्रदान
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१०५)
मेरी केती बिनती करनी।
पहिलैं करि प्रनाम, पाइनि परि, मनि रघुनाथ-हाथ लै धरनी॥
मंदाकिनि-तट फटिक-सिला पर, मुख-मुख जोरि तिलक की करनी॥
कहा कहौं, कछु कहत न आवै, सुमिरत प्रीति होइ उर अरनी॥
तुम हनुमंत, पबित्र पवन-सुत, कहियौ जाइ जोइ मैं बरनी।
‘सूरदास’ प्रभु आनि मिलावहु, मूरति दुसह दुःख-भय हरनी॥
मूल
(१०५)
मेरी केती बिनती करनी।
पहिलैं करि प्रनाम, पाइनि परि, मनि रघुनाथ-हाथ लै धरनी॥
मंदाकिनि-तट फटिक-सिला पर, मुख-मुख जोरि तिलक की करनी॥
कहा कहौं, कछु कहत न आवै, सुमिरत प्रीति होइ उर अरनी॥
तुम हनुमंत, पबित्र पवन-सुत, कहियौ जाइ जोइ मैं बरनी।
‘सूरदास’ प्रभु आनि मिलावहु, मूरति दुसह दुःख-भय हरनी॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(हनुमान् जी जब लौटनेको उद्यत हुए , तब श्रीजानकीजीने कहा—) ‘मेरी ओरसे प्रभुसे प्रार्थना करना। पहले (मेरी ओरसे) उनके चरणोंमें पड़कर प्रणाम करना और तब चूड़ामणि श्रीरघुनाथके हाथपर रख देना। क्या कहूँ, कुछ कहा नहीं जाता—(चित्रकूटमें) मन्दाकिनीके किनारे स्फटिक-शिलापर बैठे हुए प्रभु मेरे मुखके पास मुख ले आकर जब (मुझे) तिलक लगा रहे थे, उस समयकी प्रीतिका स्मरण करके हृदयमें संताप होता है। हनुमान्! तुम तो पवित्र पवनकुमार हो, (तुमसे यह बात कहनेमें भी मुझे संकोच नहीं हुआ;) मैंने जो कुछ कहा, (वह वैसा ही) प्रभुसे जाकर कह देना। (अब और क्या कहूँ,) असहनीय दुःख और भयको दूर करनेवाली तो प्रभुकी मूर्ति ही है (उनके दर्शनसे ही दुःख और भय दूर होगा), अतः प्रभुको ले आकर (शीघ्र) मिला दो।’
हनुमान्-प्रत्यागमन
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१०६)
हनूमान अंगद के आगैं लंक-कथा सब भाषी।
अंगद कही, भली तुम कीनी, हम सब की पति राखी॥
हरषवंत ह्वै चले तहाँ तें, मग मैं बिलम न लाई।
पहुँचे आइ निकट रघुबर के, सुग्रिव आयौ धाई॥
सबनि प्रनाम कियौ रघुपति कौं, अंगद बचन सुनायौ।
‘सूरदास’ प्रभु-पद-प्रताप करि, हनू सीय-सुधि ल्यायौ॥
मूल
(१०६)
हनूमान अंगद के आगैं लंक-कथा सब भाषी।
अंगद कही, भली तुम कीनी, हम सब की पति राखी॥
हरषवंत ह्वै चले तहाँ तें, मग मैं बिलम न लाई।
पहुँचे आइ निकट रघुबर के, सुग्रिव आयौ धाई॥
सबनि प्रनाम कियौ रघुपति कौं, अंगद बचन सुनायौ।
‘सूरदास’ प्रभु-पद-प्रताप करि, हनू सीय-सुधि ल्यायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीहनुमान् जी ने अंगदसे लंकाका सब समाचार कहा। (उसे सुनकर) अंगदने कहा—‘तुमने बहुत अच्छा किया, हम सबोंकी लाज बचा ली।’ फिर सब हर्षित होकर वहाँसे चले, उन्होंने मार्गमें विलम्ब नहीं किया। जब श्रीरघुनाथजीके समीप आ पहुँचे, तब (आगेसे) दौड़कर सुग्रीव उनसे मिले। सूरदासजी कहते हैं—सबने श्रीरघुनाथजीको प्रणाम किया, फिर अंगद बोले—‘प्रभुके चरणोंके प्रतापसे हनुमान् जी श्रीजानकीजीका समाचार ले आये।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१०७)
हनु! तैं सब कौ काज सँवारॺौ।
बार-बार अंगद यौं भाषै, मेरौ प्रान उबारॺौ॥
तुरतहिं गमन कियौ सागर तैं, बीचहिं बाग उजारॺौ।
कीन्हौ मधुबन चौर चहूँ दिसि, माली जाइ पुकारॺौ॥
धनि हनुमत, सुग्रीव कहत हैं, रावन कौ दल मारॺौ।
‘सूर’ सुनत रघुनाथ भयौ सुख, काज आपनौ सारॺौ॥
मूल
(१०७)
हनु! तैं सब कौ काज सँवारॺौ।
बार-बार अंगद यौं भाषै, मेरौ प्रान उबारॺौ॥
तुरतहिं गमन कियौ सागर तैं, बीचहिं बाग उजारॺौ।
कीन्हौ मधुबन चौर चहूँ दिसि, माली जाइ पुकारॺौ॥
धनि हनुमत, सुग्रीव कहत हैं, रावन कौ दल मारॺौ।
‘सूर’ सुनत रघुनाथ भयौ सुख, काज आपनौ सारॺौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बार-बार अंगद इस प्रकार कहने लगे—‘हनुमान्! तुमने सब काम पूरा कर दिया और मेरे प्राण बचा लिये।’ सब वानर तुरंत ही समुद्र-किनारेसे चल पड़े, बीच (मार्ग)-में ही (फलादि खाकर सुग्रीवका) बगीचा उन्होंने उजाड़ डाला। उस मधुवनको उन लोगोंने चारों ओरसे चौपट कर दिया, इससे (उपवनके) रक्षकोंने जाकर (सुग्रीवसे) पुकार की। (सब बातें सुनकर) सुग्रीव कहने लगे—‘हनुमान् धन्य हैं, जिन्होंने रावणकी सेनाको मारा।’ सूरदासजी कहते हैं कि अपना कार्य पूर्ण हुआ सुनकर श्रीरघुनाथजीको भी आनन्द हुआ।
हनुमान्-राम-संवाद
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१०८)
कहौ कपि! जनक-सुता-कुसलात।
आवागमन सुनावहु अपनौ, देहु हमैं सुख-गात॥
सुनौ पिता! जल अंतर ह्वै कै, रोक्यौ मग इक नारि।
धर-अंबर लौं रूप निसाचरि, गरजी बदन पसारि॥
तब मैं डरपि कियौ छोटौ तनु, पैठॺौ उदर मँझारि।
खरभर परी, दियौ उन पैंड़ौ, जीती पहिली रारि॥
गिरि मैनाक उदधि मैं अद्भुत, आगैं रोक्यौ जात।
पवन पिता कौ मित्र न जान्यौ, धोखैं मारी लात॥
तबहूँ और रह्यौ सरितापति आगैं जोजन सात।
तुव प्रताप परली दिसि पहुँच्यौ, कौन बढ़ावै बात॥
लंका पौरि-पौरि मैं ढ़ूँढ़ी, अरु बन-उपबन जाइ।
तरु असोक तर देखि जानकी, तब हौं रह्यौ लुकाइ॥
रावन कह्यौ सो कह्यौ न जाई, रह्यौ क्रोध अति छाइ।
तबहीं अवधि जानि कै, राख्यौ मंदोदरि समुझाइ॥
पुनि हौं गयौ सुफल-बारी मैं, देखी दृष्टि पसारि।
असी सहस किंकर-दल तेहि के, दौरे मोहि निहारि॥
तुव प्रताप तिन कौं छिन भीतर जूझत लगी न बार।
उन कौं मारि तुरत मैं कीन्ही मेघनाद सौं रार॥
ब्रह्म-फाँस उन लई हाथ करि, मैं चितयौ कर जोरि।
तज्यौ कोप, मरजादा राखी, बँध्यौ आपही भोरि॥
रावन पै लै गए सकल मिलि, ज्यौं लुब्धक पसु जाल।
करुवौ बचन स्रवन सुनि मेरौ, अति रिस गही भुवाल॥
आपुन ही मुगदर लै धायौ, करि लोचन बिकराल।
चहुँ दिसि ‘सूर’ सोर करि धावैं, ज्यौं करि हेरि सृगाल॥
मूल
(१०८)
कहौ कपि! जनक-सुता-कुसलात।
आवागमन सुनावहु अपनौ, देहु हमैं सुख-गात॥
सुनौ पिता! जल अंतर ह्वै कै, रोक्यौ मग इक नारि।
धर-अंबर लौं रूप निसाचरि, गरजी बदन पसारि॥
तब मैं डरपि कियौ छोटौ तनु, पैठॺौ उदर मँझारि।
खरभर परी, दियौ उन पैंड़ौ, जीती पहिली रारि॥
गिरि मैनाक उदधि मैं अद्भुत, आगैं रोक्यौ जात।
पवन पिता कौ मित्र न जान्यौ, धोखैं मारी लात॥
तबहूँ और रह्यौ सरितापति आगैं जोजन सात।
तुव प्रताप परली दिसि पहुँच्यौ, कौन बढ़ावै बात॥
लंका पौरि-पौरि मैं ढ़ूँढ़ी, अरु बन-उपबन जाइ।
तरु असोक तर देखि जानकी, तब हौं रह्यौ लुकाइ॥
रावन कह्यौ सो कह्यौ न जाई, रह्यौ क्रोध अति छाइ।
तबहीं अवधि जानि कै, राख्यौ मंदोदरि समुझाइ॥
पुनि हौं गयौ सुफल-बारी मैं, देखी दृष्टि पसारि।
असी सहस किंकर-दल तेहि के, दौरे मोहि निहारि॥
तुव प्रताप तिन कौं छिन भीतर जूझत लगी न बार।
उन कौं मारि तुरत मैं कीन्ही मेघनाद सौं रार॥
ब्रह्म-फाँस उन लई हाथ करि, मैं चितयौ कर जोरि।
तज्यौ कोप, मरजादा राखी, बँध्यौ आपही भोरि॥
रावन पै लै गए सकल मिलि, ज्यौं लुब्धक पसु जाल।
करुवौ बचन स्रवन सुनि मेरौ, अति रिस गही भुवाल॥
आपुन ही मुगदर लै धायौ, करि लोचन बिकराल।
चहुँ दिसि ‘सूर’ सोर करि धावैं, ज्यौं करि हेरि सृगाल॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूरदासजी कहते हैं—(श्रीरघुनाथजी हनुमान् जी से पूछने लगे—) ‘कपिवर! श्रीजनकनन्दिनीकी कुशल कहो। अपने जाने और लौटनेका समाचार सुनाओ और हमें अपने शरीरका सुखद स्पर्श कराओ!’ (श्रीहनुमान् जी बोले—) ‘मेरे पिताके समान प्रभु! सुनो। (जब मैं समुद्र पार करने लगा, तब) जलके भीतरसे एक स्त्रीने मुझको रोका। उस राक्षसीका शरीर पृथ्वीसे आकाशतक फैला था, वह मुख फैलाकर गर्जना करने लगी। तब मैंने डरकर अपने शरीरको छोटा बना लिया और उसके पेटमें घुस गया। (मेरे पेटमें जाकर उछल-कूद करनेसे) उसके पेटमें खलबली मच गयी, तब उसने मार्ग दे दिया; इस प्रकार पहला युद्ध मैंने जीत लिया। समुद्रमें एक मैनाक नामक अद्भुत पर्वत रहता है, उसने भी मुझे आगे जानेसे रोका; मैं नहीं जानता था कि वह मेरे पिता पवनका मित्र है, अतः धोखेमें मैंने उसे एक लात मार दी। किंतु उससे आगे भी सात योजन समुद्र (पार करनेको) शेष था; अब बातको कौन बढ़ाये, आपके प्रतापसे (उसे भी पार करके) मैं दूसरे तटपर पहुँच गया। लंकाके एक-एक द्वारमें (प्रत्येक भवनमें) तथा वनों एवं उपवनोंमें जा-जाकर मैंने ढूँढ़ा। अशोकवाटिकामें जब मैंने एक वृक्षके नीचे बैठी श्रीजानकीजीको देखा, तब (अवसरकी प्रतीक्षामें) छिपकर बैठ गया। (उसी समय वहाँ आकर) रावणने (श्रीजानकीजीसे) जो कुछ कहा, वह तो मुझसे कहा नहीं जाता है, (उसकी बात सुनकर) मेरे शरीरमें क्रोध छा गया है (मैं वहीं रावणको मार देनेको उतावला हो गया था; किंतु) उसी समय मन्दोदरीने (रावणद्वारा दी हुई एक महीनेकी) अवधि पूरी हुई न समझकर समझाकर रावणको रोक लिया। फिर मैं फलोंके उत्तम बगीचेंमें गया, वहाँ चारों ओर दृष्टि फैलाकर देखा तो रावणके अस्सी सहस्र सेवक उसके रक्षक थे, वे सब मुझे देखते ही (मारने) दौड़ पड़े; किंतु आपके प्रतापसे उनसे युद्ध करनेमें एक क्षणका विलम्ब भी नहीं हुआ। उन सबोंको मारकर मैं तुरंत ही मेघनादसे युद्ध करने लगा। उसने अपने हाथमें जब ब्रह्मपाश लिया, तब मैंने हाथ जोड़कर उस पाशको देखा (प्रणाम किया) और क्रोधको छोड़कर उसकी मर्यादाकी रक्षा की, स्वयं ही मूर्च्छित होकर बन्धनमें पड़ गया। जैसे व्याध पशुको जालमें फँसाकर ले जाय, वैसे ही सब राक्षस मिलकर मुझे (बाँधकर) रावणके पास ले गये। मेरे कठोर वचन सुनकर राजा रावण बहुत क्रुद्ध हुआ, भयंकर नेत्र बनाकर स्वयं ही हाथमें मुद्गर लेकर मुझे मारने दौड़ा। चारों ओरसे राक्षस चिल्लाते हुए इस प्रकार दौड़ते थे, जैसे हाथीको देखकर सियार दौड़ें।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(१०९)
कैसैं पुरी जरी कपिराइ!
बड़े दैत्य कैसैं कै मारे, अंतर आप बचाइ?
प्रगट कपाट बिकट दीन्हे हे, बहु जोधा रखवारे।
तैंतिस कोटि देव बस कीन्हे, ते तुम सौं क्यौं हारे॥
तीनि लोक डर जाके काँपैं, तुम हनुमान न पेखे?
तुम्हरें क्रोध स्राप सीता कें, दूरि जरत हम देखे॥
हौ जगदीस, कहा कहौं तुम सौं, तुम बल-तेज मुरारी।
‘सूरजदास’ सुनो सब संतो! अबिगत की गति न्यारी॥
मूल
(१०९)
कैसैं पुरी जरी कपिराइ!
बड़े दैत्य कैसैं कै मारे, अंतर आप बचाइ?
प्रगट कपाट बिकट दीन्हे हे, बहु जोधा रखवारे।
तैंतिस कोटि देव बस कीन्हे, ते तुम सौं क्यौं हारे॥
तीनि लोक डर जाके काँपैं, तुम हनुमान न पेखे?
तुम्हरें क्रोध स्राप सीता कें, दूरि जरत हम देखे॥
हौ जगदीस, कहा कहौं तुम सौं, तुम बल-तेज मुरारी।
‘सूरजदास’ सुनो सब संतो! अबिगत की गति न्यारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीरघुनाथजीने पूछा—) ‘कपिराज! लंकानगरी जली कैसे? बड़े राक्षसोंको तुमने कैसे मारा? और उनके बीचमें अपनेको कैसे बचाया? वहाँ तो प्रत्यक्ष ही बड़े भारी किवाड़ लगे रहे होंगे और बहुत-से योद्धा वहाँ नगर-रक्षक होंगे। (जिस रावणने) तैंतीस करोड़ देवताओंको अपने वशमें कर रखा है, वह तुमसे कैसे हार गया? हनुमान्! तीनों लोक जिसके भयसे काँपते हैं, उसने तुम्हें नहीं देखा?’ (प्रभुकी बात सुनकर नम्रतासे हनुमान् जी बोले—) तुम्हारे क्रोध और जानकीके शाप (-की अग्नि)-से लंकाके भवनोंको जलते हुए हमने दूरसे देखा था। हे मुर असुरके नाशक प्रभु! आप तो (साक्षात्) जगदीश्वर हैं; मैं आपसे क्या कहूँ, (मैंने तो कुछ किया नहीं); आपके बल और प्रतापसे ही सब कुछ हुआ।’ सूरदासजी कहते हैं—सब सज्जनो! सुनो। अविज्ञातगति प्रभुकी गति ही निराली है। (सचमुच लंका प्रतापसे ही जली; किंतु अपने सेवक हनुमान् जी को उन्होंने सुयश दिया।)