०४ किष्किन्धाकाण्ड

सुग्रीव-मिलन

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(५८)
रिष्यमूक परबत बिख्याता।
इक दिन अनुज सहित तहँ आए , सीतापति रघुनाथा॥
कपि सुग्रीव बालि के भय तें, बसत हुतौ तहँ आइ।
त्रास मानि तिहिं पवन-पुत्र कौं दीनौ तुरत पठाइ॥
को ये बीर फिरैं बन बिचरत किहिं कारन ह्याँ आए।
‘सूरज’ प्रभुके निकट आइ कपि, हाथ जोरि सिर नाए॥

मूल

(५८)
रिष्यमूक परबत बिख्याता।
इक दिन अनुज सहित तहँ आए , सीतापति रघुनाथा॥
कपि सुग्रीव बालि के भय तें, बसत हुतौ तहँ आइ।
त्रास मानि तिहिं पवन-पुत्र कौं दीनौ तुरत पठाइ॥
को ये बीर फिरैं बन बिचरत किहिं कारन ह्याँ आए।
‘सूरज’ प्रभुके निकट आइ कपि, हाथ जोरि सिर नाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋष्यमूक नामका पर्वत प्रसिद्ध है, एक दिन छोटे भाई लक्ष्मणके साथ सीतापति श्रीरघुनाथजी वहाँ (उस पर्वतके पास) पहुँचे। बालिके भयसे वहाँ (उसपर) वानरश्रेष्ठ सुग्रीव आकर निवास करते थे। (श्रीराम-लक्ष्मणसे) भयभीत होकर उन्होंने तुरंत (यह पता लगाने) हनुमान् जी को भेजा कि ‘ये जो (दोनों) वीर वनमें घूमते फिर रहे हैं, वे कौन हैं और यहाँ किस कारणसे आये हैं?’ सूरदासजी कहते हैं—प्रभुके पास आकर हनुमान् जी ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर अभिवादन किया।

हनुमत्-राम-संवाद

विषय (हिन्दी)

राग मारू

विश्वास-प्रस्तुतिः

(५९)
मिले हनु, पूछी प्रभु यह बात।
महा मधुर प्रिय बानी बोलत, साखामृग! तुम किहि के तात?
अंजनि कौ सुत, केसरि के कुल पवन-गवन उपजायौ गात।
तुम को बीर, नीर भरि लोचन, मीन हीनजल ज्यौं मुरझात?
दसरथ-सुत कोसलपुर-बासी, त्रिया हरी तातें अकुलात।
इहि गिरि पर कपिपति सुनियत है, बालि-त्रास कैसैं दिन जात॥
महादीन, बलहीन, विकल अति, पवन-पूत देखे बिलखात।
‘सूर’ सुनत सुग्रीव चले उठि, चरन गहे, पूछी कुसलात॥

मूल

(५९)
मिले हनु, पूछी प्रभु यह बात।
महा मधुर प्रिय बानी बोलत, साखामृग! तुम किहि के तात?
अंजनि कौ सुत, केसरि के कुल पवन-गवन उपजायौ गात।
तुम को बीर, नीर भरि लोचन, मीन हीनजल ज्यौं मुरझात?
दसरथ-सुत कोसलपुर-बासी, त्रिया हरी तातें अकुलात।
इहि गिरि पर कपिपति सुनियत है, बालि-त्रास कैसैं दिन जात॥
महादीन, बलहीन, विकल अति, पवन-पूत देखे बिलखात।
‘सूर’ सुनत सुग्रीव चले उठि, चरन गहे, पूछी कुसलात॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीहनुमान् जी के मिलनेपर प्रभुने उनसे यह बात पूछी—‘कपिवर! तुम अत्यन्त मधुर और प्रिय वाणी बोलते हो, किसके पुत्र हो तुम?’ (श्रीहनुमान् जी ने कहा—) ‘मैं माता अंजनाका पुत्र हूँ, वानरराज केसरीके कुलमें (उनकी पत्नीमें) पवनकी गतिसे यह शरीर उत्पन्न हुआ है (अर्थात् मैं किसीका वीर्यज पुत्र नहीं हूँ। पवनकी गतिका स्पर्शमात्र होनेसे वानरराज केसरीकी पत्नी अंजना देवीको गर्भ रहा और उसीसे मेरी उत्पत्ति हुई)। आप कौन हैं? वीर होनेपर भी क्यों जलसे निकली मछलीकी भाँति नेत्रोंमें आँसू भरे व्याकुल हो रहे हैं?’ (श्रीरघुनाथजीने कहा—) ‘हम तो अयोध्याके निवासी और महाराज दशरथके पुत्र हैं। हमारी पत्नीका हरण हो गया है, इसलिये व्याकुल हो रहे हैं। सुना है कि इस पर्वतपर वानरराज सुग्रीव निवास करते हैं। बालिके भयसे उनके दिन किस प्रकार बीत रहे हैं?’ सूरदासजी कहते हैं—(इस प्रकार) पवनपुत्र (हनुमान् जी ने) (प्रभुको) अत्यन्त दीन-दशामें, बलहीन (खिन्न) तथा अत्यन्त व्याकुल होकर विलाप करते देखा। (यह सब हाल) सुनते ही सुग्रीव उठकर वहाँ आये और प्रभुके चरण पकड़कर (चरणोंमें प्रणाम करके) कुशल पूछी।

बालि-वध

विषय (हिन्दी)

राग मारू

विश्वास-प्रस्तुतिः

(६०)
बड़े भाग्य इहिं मारग आए।
गद्‍गद कंठ, सोक सौं रोवत, बारि बिलोचन छाए॥
महा धीर गंभीर बचन सुनि, जामवंत समुझाए।
बढ़ी परस्पर प्रीति-रीति तब, भूषन सिया दिखाए॥
सप्त ताल सर साँधि, बालि हति, मन अभिलाष पुजाए।
‘सूरदास’ प्रभु-भुज के बलि-बलि, बिमल-बिमल जस गाए॥

मूल

(६०)
बड़े भाग्य इहिं मारग आए।
गद्‍गद कंठ, सोक सौं रोवत, बारि बिलोचन छाए॥
महा धीर गंभीर बचन सुनि, जामवंत समुझाए।
बढ़ी परस्पर प्रीति-रीति तब, भूषन सिया दिखाए॥
सप्त ताल सर साँधि, बालि हति, मन अभिलाष पुजाए।
‘सूरदास’ प्रभु-भुज के बलि-बलि, बिमल-बिमल जस गाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरघुनाथजीका) कण्ठ गद्‍गद हो रहा (भरा हुआ) है, शोकसे वे रो रहे हैं, (उनके सुन्दर) नेत्रोंमें अश्रु भरे हुए हैं (और वे कह रहे हैं—) ‘बड़े भाग्यसे हम इस मार्गसे आ गये हैं’ (इस मार्गसे आनेके कारण ही आपसे भेंट हुई)। प्रभुकी अत्यन्त धीर एवं गम्भीर वाणी सुनकर (उस वाणीका यह तात्पर्य समझकर कि यह मिलन हम दोनोंके लिये सौभाग्यका कारण तथा दोनोंके दुःख दूर करनेवाला होगा) जाम्बवन्तजीने प्रभुको समझाया—आश्वासन दिया। (इस प्रकार) जब परस्पर प्रेमका व्यवहार बढ़ गया, तब (सुग्रीवने) श्रीजानकीजीके आभूषण (जो ऊपरसे जाते समय जानकीजी पर्वतपर डाल गयी थीं) प्रभुको दिखलाये। सात ताल-वृक्षोंको (एक ही) बाणसे बेधकर और बालिका वध करके (सुग्रीवका) मनोरथ प्रभुने पूर्ण कर दिया। सूरदास तो (भक्तभयहारी) प्रभुकी भुजाओंपर बार-बार न्योछावर है और उनके परम निर्मल यशका गान करता है।

सुग्रीवको राज्य-प्राप्ति

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(६१)
राज दियौ सुग्रीव कौं, तिन हरि-जस गायौ।
पुनि अंगद कौं बोल ढिंग, या बिधि समुझायौ॥
होनहार सो होत है, नहिं जात मिटायौ।
चतुरमास ‘सूरज’ प्रभू, तिहिं ठौर बितायौ॥

मूल

(६१)
राज दियौ सुग्रीव कौं, तिन हरि-जस गायौ।
पुनि अंगद कौं बोल ढिंग, या बिधि समुझायौ॥
होनहार सो होत है, नहिं जात मिटायौ।
चतुरमास ‘सूरज’ प्रभू, तिहिं ठौर बितायौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरघुनाथजीने) सुग्रीवको (किष्किन्धाका) राज्य दिया, उन्होंने (सुग्रीवने) श्रीहरिका यशोगान किया (श्रीरामके प्रति कृतज्ञ हुए)। फिर (प्रभुने) अंगदको समीप बुलाकर इस प्रकार समझाया—‘जो भाग्यका विधान होता है, वह होकर ही रहता है; उसे मिटाया नहीं जा सकता (तुम्हारे पिताकी मृत्यु भाग्यवश ही हुई, यह समझकर शोक त्याग दो)। सूरदासजी कहते हैं कि प्रभुने (वर्षाके) चार महीने उसी स्थानपर (ऋष्यमूकपर ही) व्यतीत किये।

सीता-शोध

विषय (हिन्दी)

राग राजश्री

विश्वास-प्रस्तुतिः

(६२)
जामवंत रघुनाथ बचन भाष्यौ सोइ कीनौ।
रामचंद्र बलधीर बीर दोउ कृपा सहित बीरा लै दीनौ॥
पठए देस-बिदेसनि सबही तीन लोक के ईस।
जनकसुता के सोध कौं अवधि बदी दिन तीस॥
सुनि सँदेस संपाति कौ सबनि भयो मन चाय।
मानौं मृतकनि कैं हृदै प्रान परे ते आय॥
बीरा लै अंगद चल्यौ जामवंत संजूत।
दछिन दिसा समुद्रतट ‘सूर’ सुआनि पऊँत॥

मूल

(६२)
जामवंत रघुनाथ बचन भाष्यौ सोइ कीनौ।
रामचंद्र बलधीर बीर दोउ कृपा सहित बीरा लै दीनौ॥
पठए देस-बिदेसनि सबही तीन लोक के ईस।
जनकसुता के सोध कौं अवधि बदी दिन तीस॥
सुनि सँदेस संपाति कौ सबनि भयो मन चाय।
मानौं मृतकनि कैं हृदै प्रान परे ते आय॥
बीरा लै अंगद चल्यौ जामवंत संजूत।
दछिन दिसा समुद्रतट ‘सूर’ सुआनि पऊँत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथने जैसी आज्ञा दी, जाम्बवान् ने (सीतान्वेषणके लिये) वैसा ही प्रबन्ध किया। कृपापूर्वक धैर्यशाली तथा वीर श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाइयोंने (उन्हें सीताकी खोजका) बीड़ा (उत्तरदायित्व) दिया था। उन त्रिलोकीनाथने सभी देश-विदेशोंमें सब वानरोंको श्रीजनकनन्दिनीका पता लगानेके लिये भेजा और कार्य करके लौट आनेका समय तीस दिन निश्चित कर दिया। सूरदासजी कहते हैं कि बीड़ा (उत्तरदायित्व) लेकर युवराज अंगद जाम्बवान् के साथ चल पड़े और दक्षिण दिशामें समुद्रके तटपर पहुँच गये। वहाँ गीध सम्पातीके संदेशको सुनकर सबके मनमें उत्साह हुआ। (उनकी ऐसी अवस्था हुई) मानो मृतक लोगोंके हृदयमें पुनः प्राणने आकर प्रवेश किया हो।

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(६३)
श्रीरघुपति सुग्रीव कौं, निज निकट बुलायौ।
लीजै सुधि अब सीय की, यह कहि समुझायौ॥
जामवंत-अंगद-हनू, उठि माथौ नायौ।
हाथ मुद्रिका प्रभु दई, संदेस सुनायौ॥
आए तीर समुद्र के, कछु सोध न पायौ।
‘सूर’ सँपाती तहँ मिल्यौ, यह बचन सुनायौ॥

मूल

(६३)
श्रीरघुपति सुग्रीव कौं, निज निकट बुलायौ।
लीजै सुधि अब सीय की, यह कहि समुझायौ॥
जामवंत-अंगद-हनू, उठि माथौ नायौ।
हाथ मुद्रिका प्रभु दई, संदेस सुनायौ॥
आए तीर समुद्र के, कछु सोध न पायौ।
‘सूर’ सँपाती तहँ मिल्यौ, यह बचन सुनायौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीने सुग्रीवको अपने पास बुलाया और उन्हें यह कहकर समझाया कि ‘अब श्रीजानकीका पता लगाना चाहिये।’ (यह सुनकर) जाम्बवान् , अंगद और हनुमान् जी ने उठकर मस्तक झुकाया। प्रभुने (हनुमान् जी को) अपने हाथकी अँगूठी (चिह्नस्वरूप) दी और (श्रीजानकीसे कहनेके लिये) संदेश कहा। वे लोग (वहाँसे) समुद्रके किनारे आये, उन्हें कुछ भी पता (जानकीजीका) नहीं मिला था। सूरदासजी कहते हैं—वहाँ उनसे सम्पाती मिला और यह बात (जो अगले पदमें है) बोला।

सम्पाती-वानर-संवाद

विषय (हिन्दी)

राग-सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(६४)
बिछुरी मनो संग तें हिरनी।
चितवत रहत चकित चारों दिसि, उपजि बिरह तन-जरनी॥
तरुबर मूल अकेली ठाढ़ी, दुखित राम की घरनी।
बसन कुचील, चिहुर लपिटाने, बिपति जाति नहिं बरनी॥
लेति उसास नयन जल भरि-भरि, धुकि सो परै धरि धरनी।
‘सूर’ सोच जिय पोच निसाचर, राम नाम की सरनी॥

मूल

(६४)
बिछुरी मनो संग तें हिरनी।
चितवत रहत चकित चारों दिसि, उपजि बिरह तन-जरनी॥
तरुबर मूल अकेली ठाढ़ी, दुखित राम की घरनी।
बसन कुचील, चिहुर लपिटाने, बिपति जाति नहिं बरनी॥
लेति उसास नयन जल भरि-भरि, धुकि सो परै धरि धरनी।
‘सूर’ सोच जिय पोच निसाचर, राम नाम की सरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूरदासजी कहते हैं (सम्पातीने बताया—) ‘जैसे कोई मृगी अपने दलसे अलग हो गयी हो, श्रीरामजीकी पत्नी श्रीजानकी उसी प्रकार दुःखी हैं। वे चकित होकर (भयसे) चारों दिशाओंमें (इधर-उधर) देखती रहती हैं, शरीरको भस्म कर देनेवाला वियोगाग्नि उत्पन्न हो गया है। वृक्षके नीचे वे अकेली खड़ी हैं, उनके वस्त्र मैले हो रहे हैं, केशोंकी लटें बँध गयी हैं, उनकी विपत्तिका वर्णन नहीं किया जा सकता। बार-बार दीर्घ श्वास लेती हैं, नेत्रोंमें अश्रु भर-भर लेती हैं और (दुर्बलताके कारण) पृथ्वी पकड़कर बार-बार झुक पड़ती हैं। नीच राक्षस (रावण)-की चिन्ता (आशंका) उनके मनमें बनी रहती है, केवल राम-नामकी शरण हैं (सदा राम-नाम लेती रहती हैं)।’