शूर्पणखा-नासिकोच्छेदन
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(४५)
दंडक बन आए रघुराई।
काम-बिबस ब्याकुल उर अंतर, राच्छसि एक तहाँ चलि आई॥
हँसि कहि कछू राम सीता सौं, तिहि लछिमन के निकट पठाई।
भृकुटी कुटिल, अरुन अति लोचन, अगिनि-सिखा मुख कह्यौ फिराई॥
री बौरी, सठ भई मदन-बस, मेरें ध्यान चरन रघुराई।
बिरह-बिथा तन गई लाज छुटि, बारंबार उठै अकुलाई॥
रघुपति कह्यौ, निलज्ज निपट तू, नारि राच्छसी ह्याँ तें जाई।
‘सूरदास’ प्रभु इक-पतिनी-ब्रत, काटी नाक, गई खिसिआई॥
मूल
(४५)
दंडक बन आए रघुराई।
काम-बिबस ब्याकुल उर अंतर, राच्छसि एक तहाँ चलि आई॥
हँसि कहि कछू राम सीता सौं, तिहि लछिमन के निकट पठाई।
भृकुटी कुटिल, अरुन अति लोचन, अगिनि-सिखा मुख कह्यौ फिराई॥
री बौरी, सठ भई मदन-बस, मेरें ध्यान चरन रघुराई।
बिरह-बिथा तन गई लाज छुटि, बारंबार उठै अकुलाई॥
रघुपति कह्यौ, निलज्ज निपट तू, नारि राच्छसी ह्याँ तें जाई।
‘सूरदास’ प्रभु इक-पतिनी-ब्रत, काटी नाक, गई खिसिआई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(चित्रकूटसे) श्रीरघुनाथ दण्डकवनमें आ गये। वहाँ कामसे अत्यन्त व्याकुल चित्तवाली एक राक्षसी (शूर्पणखा) उनके पास आयी। मुसकराकर श्रीरामने सीताजीसे कुछ कहा और उस राक्षसीको लक्ष्मणजीके पास भेज दिया। (उसकी बात सुनकर श्रीलक्ष्मणजीकी) भौंहें (रोषसे) टेढ़ी हो गयीं, नेत्र अत्यन्त लाल हो उठे, मुख अग्निशिखाकी भाँति तमक उठा, दूसरी ओर मुख घुमाकर बोले—‘अरी पगली! तू तो कामके वश होकर दुष्टा हो गयी है, मेरा चित्त तो श्रीरघुनाथके चरणोंमें लगा है (मैं और किसीको प्यार नहीं कर सकता)।’ वियोगकी व्यथासे (उस राक्षसीकी) शारीरिक लज्जा भी छूट गयी (वह सर्वथा निर्लज्ज हो गयी) और बारम्बार व्याकुल होकर उठने लगी। श्रीरघुनाथजीने कहा—‘तू अत्यन्त निर्लज्ज राक्षसी स्त्री है, अतः यहाँसे चली जा।’ सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु तो एकपत्नी-व्रतधारी हैं, उन्होंने राक्षसीकी नाक कटवा दी। अतः वह रुष्ट होकर चली गयी।
खर-दूषण-वध
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(४६)
खर-दूषन यह सुनि उठि धाए।
तिन के संग अनेक निसाचर, रघुपति-आस्रम आए॥
श्रीरघुनाथ-लक्षन ते मारे, कोउ एक गए पराए।
सूर्पनखा ये समाचार सब, लंका जाइ सुनाए॥
दसकंधर-मारीच निसाचर, यह सुनि कै अकुलाए।
दंडक बन आए छल करि कै, ‘सूर’ राम लखि धाए॥
मूल
(४६)
खर-दूषन यह सुनि उठि धाए।
तिन के संग अनेक निसाचर, रघुपति-आस्रम आए॥
श्रीरघुनाथ-लक्षन ते मारे, कोउ एक गए पराए।
सूर्पनखा ये समाचार सब, लंका जाइ सुनाए॥
दसकंधर-मारीच निसाचर, यह सुनि कै अकुलाए।
दंडक बन आए छल करि कै, ‘सूर’ राम लखि धाए॥
अनुवाद (हिन्दी)
खर-दूषण यह सुनकर (कि हमारी बहिन शूर्पणखाकी नाक राम-लक्ष्मणने काट दी) उठकर दौड़ पड़े (आक्रमण कर दिया)। उनके साथ बहुत-से राक्षस (पूरा राक्षसी सैन्यदल) श्रीरामके आश्रमपर चढ़ आये। श्रीराम और लक्ष्मणने उन सबोंको मार डाला; जो कुछ बच रहे, वे भाग गये। शूर्पणखाने यह सब समाचार लंका जाकर (रावणको) सुनाया। यह सुनकर—ये दोनों राक्षस रावण और मारीच व्याकुल हो गये और कपट करके (मायारूप बनाकर) दण्डक वनमें आये। सूरदासजी कहते हैं—उनको (उनमें मारीचके मायासे बने मृगरूपको) देखकर श्रीराम (उसके पीछे) दौड़ पड़े।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(४७)
राम धनुष अरु सायक साँधे।
सिय हित मृग पाछैं उठि धाए , बलकल बसन फेंट दृढ़ बाँधे॥
नव-घन, नील-सरोज-बरन बपु, बिपुल बाहु, केहरि-फल-काँधे।
इंदु-बदन, राजीव-नैन बर, सीस जटा सिव-सम सिर बाँधे॥
पालत, सृजत, सँहारत, सैंतत, अंड अनेक अवधि पल आधे।
‘सूर’ भजन-महिमा दिखरावत, इमि अति सुगम चरन आराधे॥
मूल
(४७)
राम धनुष अरु सायक साँधे।
सिय हित मृग पाछैं उठि धाए , बलकल बसन फेंट दृढ़ बाँधे॥
नव-घन, नील-सरोज-बरन बपु, बिपुल बाहु, केहरि-फल-काँधे।
इंदु-बदन, राजीव-नैन बर, सीस जटा सिव-सम सिर बाँधे॥
पालत, सृजत, सँहारत, सैंतत, अंड अनेक अवधि पल आधे।
‘सूर’ भजन-महिमा दिखरावत, इमि अति सुगम चरन आराधे॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीसीताजीके लिये (उनके कहनेसे) श्रीराम धनुषपर बाण चढ़ाकर (मायासे बने) मृगके पीछे दौड़ पड़े। वल्कल-वस्त्रका कटिमें उन्होंने कसकर फेंटा बाँध लिया है, उनका शरीर नवजलधर तथा नीलकमलके-से वर्णका है, विशाल भुजाएँ हैं, सिंहके समान भरे हुए कंधे हैं, चन्द्रमाके समान मुख है, श्रेष्ठ उत्फुल्ल कमलदलके समान (अरुणाभ विशाल) लोचन हैं और शंकरजीके समान मस्तकपर जटा बाँधे हैं। (ये वही सर्वसमर्थ प्रभु हैं) जो (अपने) आधे पलके समयमें ही अनेक ब्रह्माण्डोंकी रचना कर डालते हैं, उनका पालन करते हैं और उनका प्रलय करके सबको अपने भीतर ही समेट लेते हैं। सूरदासजी कहते हैं—(मारीचके पीछे दौड़कर) वे अपने भजनका माहात्म्य दिखला रहे हैं कि इनके चरणोंकी आराधना करनेसे ये इस प्रकार सहज प्राप्त हो जाते हैं।
सीता-हरण
विषय (हिन्दी)
राग केदार
विश्वास-प्रस्तुतिः
(४८)
सीता पुहुप-बाटिका लाई।
बारंबार सराहत तरुबर, प्रेम-सहित सींचे रघुराई॥
अंकुर मूल भए सो पोषे, क्रम-क्रम लगे फूल-फल आई।
नाना भाँति पाँति सुंदर, मनो कंचन की हैं लता बनाई॥
मृग-स्वरूप मारीच धरॺौ तब, फेरि चल्यौ बारक जो दिखाई।
श्रीरघुनाथ धनुष कर लीन्हौ, लागत बान देव-गति पाई॥
हा लछिमन, सुनि टेर जानकी, बिकल भई, आतुर उठि धाई।
रेखा खैंचि, बारि बंधनमय, हा रघुबीर! कहाँ हौ, भाई॥
रावन तुरत बिभूति लगाएँ, कहत आइ, भिच्छा दै माई।
दीन जानि, सुधि आनि भजनकी, प्रेम सहित भिच्छा लै आई॥
हरि सीता लै चल्यौ डरत जिय, मानो रंक महानिधि पाई।
‘सूर’ सीय पछिताति यहै कहि, करम-रेख मेटी नहिं जाई॥
मूल
(४८)
सीता पुहुप-बाटिका लाई।
बारंबार सराहत तरुबर, प्रेम-सहित सींचे रघुराई॥
अंकुर मूल भए सो पोषे, क्रम-क्रम लगे फूल-फल आई।
नाना भाँति पाँति सुंदर, मनो कंचन की हैं लता बनाई॥
मृग-स्वरूप मारीच धरॺौ तब, फेरि चल्यौ बारक जो दिखाई।
श्रीरघुनाथ धनुष कर लीन्हौ, लागत बान देव-गति पाई॥
हा लछिमन, सुनि टेर जानकी, बिकल भई, आतुर उठि धाई।
रेखा खैंचि, बारि बंधनमय, हा रघुबीर! कहाँ हौ, भाई॥
रावन तुरत बिभूति लगाएँ, कहत आइ, भिच्छा दै माई।
दीन जानि, सुधि आनि भजनकी, प्रेम सहित भिच्छा लै आई॥
हरि सीता लै चल्यौ डरत जिय, मानो रंक महानिधि पाई।
‘सूर’ सीय पछिताति यहै कहि, करम-रेख मेटी नहिं जाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दण्डकवनमें) श्रीजानकीजीने पुष्प-वाटिका लगायी। श्रीरघुनाथजी उसके श्रेष्ठ पौधोंकी प्रशंसा बार-बार करते थे और प्रेमपूर्वक उन्हें सींचते थे। जिन जड़ोंमें अंकुर निकले, उनका उन्होंने (सींचकर) पोषण किया, धीरे-धीरे (बड़े होनेपर) उनमें पुष्प और फल लगने लगे। नाना प्रकारके पौधोंकी सुन्दर पंक्तियाँ इस प्रकार लगी थीं जैसे स्वर्णकी लताएँ सजायी गयी हों। राक्षस मारीचने तब (वहाँ आकर) मृगका रूप धारण किया और (उस वाटिकाको चीरता हुआ) एक बार दिखलायी पड़ा, फिर भाग चला। श्रीरघुनाथजीने हाथमें धनुष उठाया (और बाण चढ़ाकर आघात किया)। बाण लगते ही मारीचने देवगति (स्वर्ग) प्राप्त कर ली। (मरते समय उसके द्वारा कपटपूर्वक की गयी) ‘हा लक्ष्मण!’ यह पुकार सुनकर श्रीजानकीजी व्याकुल हो गयीं और उठकर वेगसे दौड़ पड़ीं। (श्रीलक्ष्मणजीने श्रीजानकीजीके चारों ओर) जलसे बन्धनमय रेखा (मन्त्र पढ़कर) खींची (कि जो इसके भीतर आयेगा, वह यहीं बँधा पड़ा रहेगा। वे (स्वयं) ‘वीर! हे भाई! आप कहाँ हैं?’ यह कहते (वनमें) चले। (उनके चले जानेपर) तुरंत ही रावण शरीरमें विभूति लगाकर (साधुका वेश बनाकर) आया और बोला—‘माताजी! भिक्षा दो।’ (श्रीजानकीजी) उसे दीन (भूखा) समझकर, भजनका स्मरण करके (कि भजन करनेवाले साधुका सत्कार गृहस्थका धर्म है) प्रेमसे भिक्षा लेकर (रेखाके बाहर) आ गयीं। (रावणने) सीताजीका हरण कर लिया और उन्हें उठाकर इस प्रकार हृदयमें डरता हुआ भागा, मानो कंगालने महान् निधि (अमूल्य सम्पत्ति) पा ली हो। सूरदासजी कहते हैं—श्रीजानकीजी यही कहकर पश्चात्ताप कर रही थीं कि भाग्यकी रेखा मिटायी नहीं जा सकती।
विषय (हिन्दी)
राग मारू
विश्वास-प्रस्तुतिः
(४९)
इहिं बिधि बन बसे रघुराइ।
डासि के तृन भूमि सोवत, द्रुमनि के फल खाइ॥
जगत-जननी करी बारी, मृगा चरि-चरि जाइ।
कोपि कै प्रभु बान लीन्हौ, तबहिं धनुष चढ़ाइ॥
जनक-तनया धरि अगिनि मैं, छाया-रूप बनाइ।
यह न कोऊ भेद जानै, बिना श्रीरघुराइ॥
कह्यौ अनुज सौं, रहौ ह्याँ तुम, छाँड़ि जनि कहुँ जाइ।
कनक-मृग मारीच मारॺो, गिरॺौ, ‘लषन’ सुनाइ॥
गयौ सो दै रेख, सीता कह्यौ सु कहि नहिं जाइ।
तबहिं निसिचर गयौ छल करि, लई सीय चुराइ॥
गीध ताकौं देखि धायौ, लरॺौ ‘सूर’ बनाइ।
पंख काटैं गिरॺौ, असुर तब गयौ लंका धाइ॥
मूल
(४९)
इहिं बिधि बन बसे रघुराइ।
डासि के तृन भूमि सोवत, द्रुमनि के फल खाइ॥
जगत-जननी करी बारी, मृगा चरि-चरि जाइ।
कोपि कै प्रभु बान लीन्हौ, तबहिं धनुष चढ़ाइ॥
जनक-तनया धरि अगिनि मैं, छाया-रूप बनाइ।
यह न कोऊ भेद जानै, बिना श्रीरघुराइ॥
कह्यौ अनुज सौं, रहौ ह्याँ तुम, छाँड़ि जनि कहुँ जाइ।
कनक-मृग मारीच मारॺो, गिरॺौ, ‘लषन’ सुनाइ॥
गयौ सो दै रेख, सीता कह्यौ सु कहि नहिं जाइ।
तबहिं निसिचर गयौ छल करि, लई सीय चुराइ॥
गीध ताकौं देखि धायौ, लरॺौ ‘सूर’ बनाइ।
पंख काटैं गिरॺौ, असुर तब गयौ लंका धाइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथ इस प्रकार (दण्डक) वनमें रहते थे—वे तिनके (कुश) बिछाकर भूमिपर शयन करते थे और वृक्षोंके फलोंका भोजन करते थे। जगज्जननी श्रीजानकीजीने फुलवारी लगा रखी थी, उसे (मारीचरूपी) हिरन चर-चरकर भाग जाता था। प्रभुने क्रोध करके हाथमें बाण लिया और तत्काल उसे धनुषपर चढ़ाया। (पहले ही) उन्होंने श्रीजनकनन्दिनीको अग्निमें रख दिया था और उनका एक छाया-रूप बना लिया था। श्रीरघुनाथको छोड़कर इस रहस्यको और कोई नहीं जानता था। (मारीचके पीछे जाते समय प्रभुने) छोटे भाईसे कहा—‘तुम यहीं रहना। जानकीजीको छोड़कर कहीं जाना मत।’ जब (श्रीरामने) स्वर्णमृग मारीचको मारा, तब वह ‘हा लक्ष्मण!’ यह शब्द सुनाकर गिर पड़ा (और मर गया। उसके शब्दको सुनकर) सीताजीने (लक्ष्मणसे) जो कुछ (कठोर बातें) कहीं, वे तो (मुझसे) कही नहीं जातीं। (विवश होकर) लक्ष्मणजी (श्रीजानकीके) चारों ओर रेखा खींचकर (वनमें) चले गये। उसी समय राक्षस (रावण) छल करके (साधुवेष बनाकर वहाँ) गया और उसने सीताजीको चुरा लिया। सूरदासजी कहते हैं—(श्रीजानकीजीको लेकर जाते हुए) उसे देखकर गृध्रराज (जटायु) दौड़े और बड़े पराक्रमसे उन्होंने युद्ध किया, किंतु रावणने उनके पंख काट दिये, इससे वे (भूमिपर) गिर पड़े और तब वह राक्षस दौड़ता हुआ (आकाशमार्गसे शीघ्रतापूर्वक) लंका चला गया।
सीताका अशोक वनवास
विषय (हिन्दी)
राग सारंग
विश्वास-प्रस्तुतिः
(५०)
बन असोक मैं जनक-सुता कौं रावन राख्यौ जाइ।
भूखऽरु प्यास, नींद नहिं आवै, गई बहुत मुरझाइ॥
रखवारी कौं बहुत निसाचरि, दीन्हीं तुरत पठाइ।
‘सूरदास’ सीता तिन्ह निरखत, मन-हीं-मन पछिताइ॥
मूल
(५०)
बन असोक मैं जनक-सुता कौं रावन राख्यौ जाइ।
भूखऽरु प्यास, नींद नहिं आवै, गई बहुत मुरझाइ॥
रखवारी कौं बहुत निसाचरि, दीन्हीं तुरत पठाइ।
‘सूरदास’ सीता तिन्ह निरखत, मन-हीं-मन पछिताइ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणने श्रीजनकनन्दिनीको ले जाकर अशोकवाटिकामें रख दिया। उन्हें न भूख लगती थी, न प्यास और न निद्रा ही आती थी। (श्रीरामके वियोगमें) वे अत्यन्त ही म्लान हो गयी थीं। (रावणने) उनकी रखवाली करनेके लिये बहुत-सी राक्षसियाँ तुरंत भेज दीं। सूरदासजी कहते हैं—श्रीसीताजीको देखकर वे सब भी मन-ही-मन पश्चात्ताप करती थीं।
राम-विलाप
विषय (हिन्दी)
राग केदार
विश्वास-प्रस्तुतिः
(५१)
रघुपति कहि प्रिय-नाम पुकारत।
हाथ धनुष लीन्हे, कटि भाथा, चकित भए दिसि-बिदिसि निहारत॥
निरखत सून भवन जड़ ह्वै रहे, खिन लोटत धर, बपु न सँभारत।
हा सीता, सीता कहि सियपति, उमड़ि नयनजल भरि-भरि ढारत॥
लगत सेष-उर बिलखि जगत गुरु, अद्भुत गति नहिं परति बिचारत।
चिंतत चित्त ‘सूर’ सीतापति, मोह मेरु-दुख टरत न टारत॥
मूल
(५१)
रघुपति कहि प्रिय-नाम पुकारत।
हाथ धनुष लीन्हे, कटि भाथा, चकित भए दिसि-बिदिसि निहारत॥
निरखत सून भवन जड़ ह्वै रहे, खिन लोटत धर, बपु न सँभारत।
हा सीता, सीता कहि सियपति, उमड़ि नयनजल भरि-भरि ढारत॥
लगत सेष-उर बिलखि जगत गुरु, अद्भुत गति नहिं परति बिचारत।
चिंतत चित्त ‘सूर’ सीतापति, मोह मेरु-दुख टरत न टारत॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुपति बार-बार अपनी प्रियाका नाम लेकर उन्हें पुकार रहे हैं। हाथमें धनुष लिये हैं, कटिमें तरकस बँधा है, चकित होकर दिशा-विदिशामें (इधर-उधर चारों ओर) देखते हैं। कुटियाको सूनी देखकर वे विचाररहित-से हो गये हैं, कभी (शोकसे) पृथ्वीमें लोटने (पछाड़ खाने) लगते हैं, अपने शरीरको भी सँभाल नहीं पाते। ‘हा सीता! हा सीता!’ कहकर श्रीसीतानाथ नेत्रोंसे उमड़ती हुई अश्रुधारा बहा रहे हैं। वे जगद्गुरु बार-बार विलाप करते हुए लक्ष्मणजीके हृदयसे लिपट जाते हैं। सूरदासजी कहते हैं—उनकी गति अद्भुत है, विचार करनेसे (भी) समझमें नहीं आती। श्रीसीतापति मनमें अत्यन्त चिन्तित हैं, उनका (वियोगजन्य) दुःख सुमेरुके समान हो रहा है, जो टालनेसे भी टलता नहीं है; उससे वे बार-बार मूर्च्छित हो रहे हैं।
रामका लक्ष्मणके प्रति
विषय (हिन्दी)
राग केदार
विश्वास-प्रस्तुतिः
(५२)
हो लछिमन! सीता कौनें हरी?
यह जु मढ़ी बैरिन भई हम कौं, कंचन-मृग जो छरी॥
जो पै सीता होय मढ़ी मैं, झाँकत द्वार खरी।
सूनी मढ़ी देख रघुनंदन, आवत नयन भरी॥
एक दुख हतौ पिता दसरथ कौ, दूजौ सीय करी।
‘सूरदास’ प्रभु कहत भ्रात सौं, बन मैं बिपति परी॥
मूल
(५२)
हो लछिमन! सीता कौनें हरी?
यह जु मढ़ी बैरिन भई हम कौं, कंचन-मृग जो छरी॥
जो पै सीता होय मढ़ी मैं, झाँकत द्वार खरी।
सूनी मढ़ी देख रघुनंदन, आवत नयन भरी॥
एक दुख हतौ पिता दसरथ कौ, दूजौ सीय करी।
‘सूरदास’ प्रभु कहत भ्रात सौं, बन मैं बिपति परी॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे लक्ष्मण! जानकीका किसने हरण किया? यह कुटिया ही हमारे लिये शत्रु हो गयी, स्वर्णके मृगने हमें छल लिया। यदि जानकी कुटियामें होतीं तो द्वारपर खड़ी होकर (हमारे आनेका मार्ग) देखती होतीं।’ कुटियाको सूनी देखकर श्रीरघुनाथजीके नेत्र भर-भर आते हैं। (वे कहते हैं—) ‘एक दुःख तो पिता दशरथकी मृत्युका था ही, दूसरा दुःख यह सीता-हरणका हो गया।’ सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु भाई (लक्ष्मण)— से कहते हैं—‘वनमें यह (कैसी) विपत्ति पड़ गयी!’
विश्वास-प्रस्तुतिः
(५३)
सुनौ अनुज, इहिं बन इतननि मिलि जानकि प्रिया हरी।
कछु इक अंगनि की सहिदानी, मेरी दृष्टि परी॥
कटि केहरि, कोकिल कल बानी, ससि मुख-प्रभा धरी।
मृग मूसी नैननि की सोभा, जाति न गुप्त करी॥
चंपक बरन चरन-कर कमलनि, दाड़िम दसन-लरी।
गति मराल अरु बिंब अधर-छबि, अहि अनूप कबरी॥
अति करुना रघुनाथ गुसाईं, जुग ज्यौं जाति घरी।
‘सूरदास’ प्रभु प्रिया-प्रेम-बस, निज महिमा बिसरी॥
मूल
(५३)
सुनौ अनुज, इहिं बन इतननि मिलि जानकि प्रिया हरी।
कछु इक अंगनि की सहिदानी, मेरी दृष्टि परी॥
कटि केहरि, कोकिल कल बानी, ससि मुख-प्रभा धरी।
मृग मूसी नैननि की सोभा, जाति न गुप्त करी॥
चंपक बरन चरन-कर कमलनि, दाड़िम दसन-लरी।
गति मराल अरु बिंब अधर-छबि, अहि अनूप कबरी॥
अति करुना रघुनाथ गुसाईं, जुग ज्यौं जाति घरी।
‘सूरदास’ प्रभु प्रिया-प्रेम-बस, निज महिमा बिसरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीराम वियोग-व्याकुल होकर कहते हैं—) ‘भाई लक्ष्मण! सुनो—इस वनमें इतनोंने मिलकर मेरी प्रियतमा श्रीजानकीजीका हरण किया है। (श्रीसीताके) अंगोंका कुछ-कुछ चिह्न (इन सबके पास) मेरी दृष्टिमें पड़ा है। सिंहने उनकी कटि, कोकिलने सुमधुर वाणी और चन्द्रमाने उनके मुखकी छटा धारण कर ली है। मृगोंने उनके नेत्रोंकी शोभा चुरा ली है, जो उनसे छिपाते नहीं बनती। चम्पाके पुष्पने वर्णकी, कमल-पुष्पोंने चरणों एवं हाथोंकी, अनारके दानोंने दन्तावलीकी, हंसने गतिकी, बिम्बाफल (जंगली कुंदरू)-ने ओष्ठकी तथा सर्पोंने उनकी अनुपम वेणीकी शोभा चुरायी है।’ सूरदासजी कहते हैं—मेरे स्वामी श्रीरघुनाथ अत्यन्त दुःखी हैं, एक घड़ी उन्हें युगके समान बीत रही है। वे समर्थ होकर (भी) परम प्रियतमा श्रीजानकीके प्रेमसे विवश हैं, इससे अपनी महिमा उन्हें भूल गयी है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
(५४)
फिरत प्रभु पूछत बन-द्रुम-बेली।
अहो बंधु, काहू अवलोकी, इहिं मग बधू अकेली?
अहो बिहंग, अहो पन्नग-नृप, या कंदर के राइ।
अब कें मेरी बिपति मिटाऔ, जानकि देहु बताइ॥
चंपक-पुहुपबरन तन सुंदर, मनो चित्र-अवरेखी।
हो रघुनाथ, निसाचर के सँग अबै जात हौं देखी॥
यह सुनि धावत धरनि, चरन की प्रतिमा पथ में पाई।
नैन-नीर रघुनाथ सानि सो, सिव ज्यौं गात चढ़ाई॥
कहुँ हिय-हार, कहूँ कर-कंकन, कहुँ नूपुर, कहुँ चीर।
‘सूरदास’ बन-बन अवलोकत, बिलख-बदन रघुबीर॥
मूल
(५४)
फिरत प्रभु पूछत बन-द्रुम-बेली।
अहो बंधु, काहू अवलोकी, इहिं मग बधू अकेली?
अहो बिहंग, अहो पन्नग-नृप, या कंदर के राइ।
अब कें मेरी बिपति मिटाऔ, जानकि देहु बताइ॥
चंपक-पुहुपबरन तन सुंदर, मनो चित्र-अवरेखी।
हो रघुनाथ, निसाचर के सँग अबै जात हौं देखी॥
यह सुनि धावत धरनि, चरन की प्रतिमा पथ में पाई।
नैन-नीर रघुनाथ सानि सो, सिव ज्यौं गात चढ़ाई॥
कहुँ हिय-हार, कहूँ कर-कंकन, कहुँ नूपुर, कहुँ चीर।
‘सूरदास’ बन-बन अवलोकत, बिलख-बदन रघुबीर॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभु श्रीराम वनकी लताओं तथा वृक्षोंसे पूछते घूम रहे हैं—‘हे बन्धुओ! तुममेंसे किसीने इस मार्गसे जाती मेरी अकेली पत्नीको देखा है? अरे पक्षियो, अरे सर्पोंके राजा, अरे इस कन्दराके स्वामी! अबकी बार श्रीजानकीको बता दो और मेरी विपत्ति मिटा दो। उनका शरीर चम्पाके पुष्पके समान सुन्दर है, मानो चित्रमें बनायी हुई (अनुपम सुन्दरी) हो।’ (यह विलाप सुनकर वनदेवताने कहा—) ‘श्रीरघुनाथजी! उन्हें (श्रीजानकीजीको) राक्षसके साथ जाते मैंने अभी देखा है।’ यह सुनकर श्रीराम दौड़ पड़े—उन्होंने पृथ्वीपर पड़ा (श्रीजानकीका) चरणचिह्न मार्गमें पाया, श्रीरघुनाथने अपने नेत्रोंके अश्रुसे उस चिह्नकी धूलिको गीलाकर इस प्रकार शरीरमें लगा लिया, जैसे शंकरजी विभूति लगाते हैं। (आगे मार्गमें) कहीं (सीताजीके) हृदयका हार मिला, कहीं हाथका कंकण मिला, कहीं (चरणोंका) नूपुर मिला (ये सब वे चिह्नकी भाँति गिराती-फेंकती गयी थीं) और कहीं उत्तरीय वस्त्र मिला। सूरदासजी कहते हैं—श्रीरघुवीर व्याकुल-मुख बने एक वनसे दूसरे वनमें (श्रीजानकीको) ढूँढ़ रहे हैं।
गृध्र-उद्धार
विषय (हिन्दी)
राग केदार
विश्वास-प्रस्तुतिः
(५५)
तुम लछिमन या कुंज-कुटी में देखौ जाइ निहारि।
कोउ इक जीव नाम मम लै-लै उठत पुकारि-पुकारि॥
इतनी कहत कंध तें कर गहि लीन्हौ धनुष सँभारि।
कृपानिधान नाम हित धाए , अपनी बिपति बिसारि॥
अहो बिहंग, कहौ अपनौ दुख, पूछत ताहि खरारि।
किहिं मति-मूढ़ हत्यौ तनु तेरौ, किधौं बिछोही नारि?
श्रीरघुनाथ-रमनि, जग-जननी, जनक-नरेस-कुमारि।
ताकौ हरन कियौ दसकंधर, हौं तिहि लग्यौ गुहारि॥
इतनी सुनि कृपालु कोमल प्रभु, दियौ धनुष कर झारि।
मानौ ‘सूर’ प्रान लै रावन गयौ देह कौं डारि॥
मूल
(५५)
तुम लछिमन या कुंज-कुटी में देखौ जाइ निहारि।
कोउ इक जीव नाम मम लै-लै उठत पुकारि-पुकारि॥
इतनी कहत कंध तें कर गहि लीन्हौ धनुष सँभारि।
कृपानिधान नाम हित धाए , अपनी बिपति बिसारि॥
अहो बिहंग, कहौ अपनौ दुख, पूछत ताहि खरारि।
किहिं मति-मूढ़ हत्यौ तनु तेरौ, किधौं बिछोही नारि?
श्रीरघुनाथ-रमनि, जग-जननी, जनक-नरेस-कुमारि।
ताकौ हरन कियौ दसकंधर, हौं तिहि लग्यौ गुहारि॥
इतनी सुनि कृपालु कोमल प्रभु, दियौ धनुष कर झारि।
मानौ ‘सूर’ प्रान लै रावन गयौ देह कौं डारि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(आगे जाकर एक लतामण्डपके पास पहुँचकर श्रीराम बोले—) ‘लक्ष्मण! तुम इस लतामण्डपके भीतर जाकर भली प्रकार देखो तो (इसके भीतरसे) कोई जीव बार-बार मेरा नाम लेकर पुकार उठता है (कराह-सा रहा है)। इतना कहते-कहते कृपानिधान प्रभुने स्वयं कंधेसे उतारकर धनुषको सँभालकर हाथमें ले लिया और अपनी विपत्तिको भूलकर अपने नाम (-की महिमा)-की रक्षाके लिये दौड़ पड़े। (कुंजमें जाकर उन्होंने घायल जटायुको देखा,) उस पक्षीसे खरारि (श्रीराम) पूछने लगे—‘पक्षी! तुम अपना दुःख (दुःखका कारण) बतलाओ! किस मूढ़बुद्धिने तुम्हारे शरीरपर आघात किया है? अथवा तुमसे भी तुम्हारी पत्नीका वियोग हो गया है?’ (जटायु बोले—) ‘जगज्जननी श्रीरघुनाथजीकी प्रिया महाराज श्रीजनककी पुत्रीका हरण रावणने किया, मैं उनकी आर्त पुकार सुनकर रक्षा करने दौड़ा था।’ इतना सुनते ही कृपामय अत्यन्त कोमलहृदय प्रभुने हाथसे धनुष फेंक दिया। सूरदासजी कहते हैं—(प्रभुको ऐसा लगा) मानो रावण प्राण हरण करके ले गया और शरीरको यहीं फेंक गया। (अर्थात् जटायुका शरीर श्रीजानकीके शरीरके समान परम प्रिय प्रभुको लगा।)
गृध्रको हरिपद-प्राप्ति
विषय (हिन्दी)
राग केदार
विश्वास-प्रस्तुतिः
(५६)
रघुपति निरखि गीध सिर नायौ।
कहि कै बात सकल सीता की, तन तजि चरन-कमल चित लायौ॥
श्रीरघुनाथ जानि जन अपनौ, अपने कर करि ताहि जरायौ।
‘सूरदास’ प्रभु-दरस-परस करि, ततछन हरि के लोक सिधायौ॥
मूल
(५६)
रघुपति निरखि गीध सिर नायौ।
कहि कै बात सकल सीता की, तन तजि चरन-कमल चित लायौ॥
श्रीरघुनाथ जानि जन अपनौ, अपने कर करि ताहि जरायौ।
‘सूरदास’ प्रभु-दरस-परस करि, ततछन हरि के लोक सिधायौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुपतिका दर्शन करके गृध्रराज जटायुने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। श्रीसीताजीका सब समाचार सुनाकर, (प्रभुके) चरणकमलमें चित्त लगाकर उसने शरीर छोड़ दिया। श्रीरघुनाथजीने उसे अपना भक्त समझकर अपने हाथसे उसका दाह-कर्म किया। सूरदासजी कहते हैं कि प्रभुका दर्शन तथा स्पर्श पाकर वह उसी समय श्रीहरिके धाम—वैकुण्ठको चला गया।
शबरी-उद्धार
विषय (हिन्दी)
राग केदार
विश्वास-प्रस्तुतिः
(५७)
सबरी-आस्रम रघुबर आए।
अरघासन दै प्रभु बैठाए॥
खाटे फल तजि मीठे ल्याई।
जूँठे भए सो सहज सुहाई॥
अंतरजामी अति हित मानि।
भोजन कीने, स्वाद बखानि॥
जाति न काहू की प्रभु जानत।
भक्ति-भाव हरि जुग-जुग मानत॥
करि दंडवत भई बलिहारी।
पुनि तन तजि हरि-लोक सिधारी॥
‘सूरज’ प्रभु अति करुना भई।
निज कर करि तिल-अंजलि दई॥
मूल
(५७)
सबरी-आस्रम रघुबर आए।
अरघासन दै प्रभु बैठाए॥
खाटे फल तजि मीठे ल्याई।
जूँठे भए सो सहज सुहाई॥
अंतरजामी अति हित मानि।
भोजन कीने, स्वाद बखानि॥
जाति न काहू की प्रभु जानत।
भक्ति-भाव हरि जुग-जुग मानत॥
करि दंडवत भई बलिहारी।
पुनि तन तजि हरि-लोक सिधारी॥
‘सूरज’ प्रभु अति करुना भई।
निज कर करि तिल-अंजलि दई॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथ (आगे चलते हुए) शबरीके आश्रमपर आये। उसने प्रभुको अर्घ्य देकर आसनपर बैठाया। खट्टे फलोंको छोड़कर वह मीठे फल ले आयी, (इससे चखनेमें) वे स्वभावसे ही जूठे हो गये। अन्तर्यामी प्रभुने (उसके हृदयका) अत्यन्त शुद्ध प्रेम समझकर स्वादकी प्रशंसा करके उनका भोजन किया। प्रभु किसीकी जातिका विचार नहीं करते, वे श्रीहरि तो युग-युगसे (सदासे) भक्ति-भावका ही आदर करते आये हैं। (शबरी) दण्डवत् प्रणिपात करके (श्रीरामके चरणोंपर ही) न्योछावर हो गयी। फिर वह देहका त्याग करके भगवद्धाम चली गयी। सूरदासजी कहते हैं—प्रभुको (उसपर) अत्यन्त दया आयी, अपने हाथसे प्रभुने उसे तिलांजलि दी।