०२ अयोध्याकाण्ड

राम-वनगमन

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१७)
महाराज दसरथ मन धारी।
अवधपुरी कौ राज राम दै, लीजै ब्रत बनचारी॥
यह सुनि बोली नारि कैकई, अपनौ बचन सँभारौ।
चौदह बर्ष रहैं बन राघव, छत्र भरत-सिर धारौ॥
यह सुनि नृपति भयौ अति ब्याकुल, कहत कछू नहिं आई।
‘सूर’ रहे समुझाइ बहुत, पै कैकइ-हठ नहिं जाई॥

मूल

(१७)
महाराज दसरथ मन धारी।
अवधपुरी कौ राज राम दै, लीजै ब्रत बनचारी॥
यह सुनि बोली नारि कैकई, अपनौ बचन सँभारौ।
चौदह बर्ष रहैं बन राघव, छत्र भरत-सिर धारौ॥
यह सुनि नृपति भयौ अति ब्याकुल, कहत कछू नहिं आई।
‘सूर’ रहे समुझाइ बहुत, पै कैकइ-हठ नहिं जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथने मनमें निश्चय किया कि अयोध्याका राज्य श्रीरामको देकर अब वानप्रस्थ-आश्रमका व्रत लेना चाहिये। (उनका) यह (निश्चय) सुनकर रानी कैकेयीने कहा—(आपने मुझे जो दो वरदान देनेका वचन दिया है) अपने उस वचनका स्मरण कीजिये। श्रीराम चौदह वर्ष वनमें निवास करें और भरतके मस्तकपर छत्र रखिये (भरतको राज्य दीजिये)।’ (रानी कैकेयीकी) यह (बात) सुनकर महाराज अत्यन्त व्याकुल हो गये, उनसे कुछ भी कहते नहीं बना। सूरदासजी कहते हैं—महाराज अनेक प्रकारसे समझाकर थक गये; किंतु कैकेयीका हठ दूर नहीं हुआ।

विषय (हिन्दी)

राग कान्हरौ

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१८)
महाराज दसरथ यौं सोचत।
हा रघुनाथ, लछन, बैदेही! सुमिरि नीर दृग मोचत॥
त्रिया-चरित मतिमंत न समुझत, उठि प्रछालि मुख धोवत।
अति बिपरीत रीति कछु औरै, बार-बार मुख जोवत॥
परम कुबुद्धि कह्यौ नहिं समुझति, राम-लछन हँकराए।
कौसिल्या सुनि परम दीन ह्वै, नैन नीर ढरकाए॥
बिह्वल तन-मन, चकित भई सो, यह प्रतच्छ सुपनाए।
गदगद-कंठ, ‘सूर’ कोसलपुर सोर, सुनत दुख पाए॥

मूल

(१८)
महाराज दसरथ यौं सोचत।
हा रघुनाथ, लछन, बैदेही! सुमिरि नीर दृग मोचत॥
त्रिया-चरित मतिमंत न समुझत, उठि प्रछालि मुख धोवत।
अति बिपरीत रीति कछु औरै, बार-बार मुख जोवत॥
परम कुबुद्धि कह्यौ नहिं समुझति, राम-लछन हँकराए।
कौसिल्या सुनि परम दीन ह्वै, नैन नीर ढरकाए॥
बिह्वल तन-मन, चकित भई सो, यह प्रतच्छ सुपनाए।
गदगद-कंठ, ‘सूर’ कोसलपुर सोर, सुनत दुख पाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हा रघुनाथ! हा लक्ष्मण! हा जानकी!’ इस प्रकार महाराज दशरथ शोक करने लगे और बार-बार (श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीताजीका) स्मरण करके नेत्रोंसे अश्रु बहाने लगे। बुद्धिमान् होकर भी वे नारीके चरित्रको समझ नहीं पाते, उठकर मुखपर पानी छिड़ककर उसे धोते हैं और बार-बार उसी (कैकेयी)-का मुख देखते हैं (मनानेका प्रयत्न करते हैं); किंतु वह अत्यन्त विरुद्ध हो रही है, उसका व्यवहार कुछ और ही (उपेक्षापूर्ण एवं कठोर) है। समझानेपर भी वह अत्यन्त दुर्बुद्धि समझती नहीं। (अन्तमें महाराजने) श्रीराम-लक्ष्मणको बुलवाया। (सब समाचार) सुनकर माता कौसल्या अत्यन्त दीन (दुःखित) होकर नेत्रोंसे अश्रु ढुलकाने लगीं। उनका शरीर और मन दोनों विह्वल हो गये, आश्चर्यमें पड़कर वे यही नहीं समझ सकीं कि यह सब प्रत्यक्षमें हो रहा है या स्वप्न है; उनका कण्ठ गद्गद हो गया। सूरदासजी कहते हैं कि (इस बातका) कोलाहल अयोध्यामें हो गया और उसे सुनकर सभी दुःखी हो गये।

कैकेयी-वचन श्रीरामके प्रति

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१९)
सकुचनि कहत नहीं महराज।
चौदह बर्ष तुम्हैं बन दीन्हौं, मम सुत कौं निज राज॥
पितु-आयसु सिर धरि रघुनायक, कौसिल्या ढिंग आए।
सीस नाइ बन-आज्ञा माँगी, ‘सूर’ सुनत दुख पाए॥

मूल

(१९)
सकुचनि कहत नहीं महराज।
चौदह बर्ष तुम्हैं बन दीन्हौं, मम सुत कौं निज राज॥
पितु-आयसु सिर धरि रघुनायक, कौसिल्या ढिंग आए।
सीस नाइ बन-आज्ञा माँगी, ‘सूर’ सुनत दुख पाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामके वहाँ आ जानेपर उनसे कैकेयीने कहा—) ‘महाराज तो संकोचके कारण कुछ कह नहीं रहे हैं; किंतु उन्होंने तुमको चौदह वर्षके लिये वनवास दिया है और मेरे पुत्र भरतको राज्य दिया है।’ पिताकी आज्ञा मस्तकपर धारण करके (सादर स्वीकार करके) श्रीरघुनाथजी माता कौसल्याके पास आये और मस्तक झुकाकर (प्रणाम करके) उनसे वनमें जानेकी आज्ञा माँगी। सूरदासजी कहते हैं कि यह सुनकर माताको बहुत दुःख हुआ।

दशरथ-विलाप

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२०)
रघुनाथ पियारे, आजु रहौ (हो)।
चारि जाम बिस्राम हमारैं, छिन-छिन मीठे बचन कहौ (हो)॥
बृथा होहु बर बचन हमारौ, कैकइ जीव कलेस सहौ (हो)।
आतुर ह्वै अब छाँड़ि अवधपुर, प्रान-जिवन! कित चलन कहौ (हो)॥
बिछुरत प्रान पयान करैंगे, रहौ आजु, पुनि पंथ गहौ (हो)।
अब सूरज दिन दरसन दुरलभ, कलित कमल-कर कंठ गहौ (हो)॥

मूल

(२०)
रघुनाथ पियारे, आजु रहौ (हो)।
चारि जाम बिस्राम हमारैं, छिन-छिन मीठे बचन कहौ (हो)॥
बृथा होहु बर बचन हमारौ, कैकइ जीव कलेस सहौ (हो)।
आतुर ह्वै अब छाँड़ि अवधपुर, प्रान-जिवन! कित चलन कहौ (हो)॥
बिछुरत प्रान पयान करैंगे, रहौ आजु, पुनि पंथ गहौ (हो)।
अब सूरज दिन दरसन दुरलभ, कलित कमल-कर कंठ गहौ (हो)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(मातासे विदा लेकर श्रीराम जब फिर महाराजके पास पहुँचे, तब महाराज रोते हुए कहने लगे—) प्यारे रघुनाथ! आज (भर) रह जाओ! मेरे पास (कम-से-कम) चार प्रहर ठहरे रहो और क्षण-क्षणमें मधुर वचन बोलो (जानेकी बात मत कहो)। (कैकेयीको दिया) मेरा वररूपी वचन चाहे झूठा हो जाय और कैकेयी अपने हृदयमें क्लेश पाये। हे प्राणोंके भी जीवन-प्राण! अब आतुर होकर (शीघ्रतामें आकर) अयोध्याका त्याग करके कहाँ चलनेकी बात कहते हो? तुम्हारा वियोग होते ही मेरे प्राण भी प्रयाण करेंगे (देहसे निकल जायँगे); अतः (कम-से-कम) आज तो रह जाओ, फिर मार्ग पकड़ना (चले जाना)। सूरदासजी कहते हैं कि—अब आगेके दिनोंमें तो तुम्हारा दर्शन दुर्लभ है ही; (इस समय तो गोदमें बैठ जाओ और) अपनी सुन्दर कमलनालके समान भुजाओंसे मेरा गला पकड़ लो (गलेमें भुजाएँ डालकर एक बार मिल लो)।

श्रीराम-वचन जानकीके प्रति

विषय (हिन्दी)

राग गूजरी

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२१)
तुम जानकी! जनकपुर जाहु।
कहा आनि हम संग भरमिहौ, गहबर बन दुख-सिंधु अथाहु॥
तजि वह जनक-राज-भोजन-सुख, कत तृन-तलप, बिपिन-फल खाहु।
ग्रीषम कमल-बदन कुम्हिलैहै, तजि सर निकट दूरि कित न्हाहु॥
जनि कछु प्रिया! सोच मन करिहौ, मातु-पिता-परिजन-सुख-लाहु।
तुम घर रहौ सीख मेरी सुनि, नातरु बन बसि कै पछिताहु॥
हौं पुनि मानि कर्म-कृत रेखा, करिहौं तात-बचन-निरबाहु।
‘सूर’ सत्य जो पतिब्रत राखौ, चलौ संग जनि, उतहीं जाहु॥

मूल

(२१)
तुम जानकी! जनकपुर जाहु।
कहा आनि हम संग भरमिहौ, गहबर बन दुख-सिंधु अथाहु॥
तजि वह जनक-राज-भोजन-सुख, कत तृन-तलप, बिपिन-फल खाहु।
ग्रीषम कमल-बदन कुम्हिलैहै, तजि सर निकट दूरि कित न्हाहु॥
जनि कछु प्रिया! सोच मन करिहौ, मातु-पिता-परिजन-सुख-लाहु।
तुम घर रहौ सीख मेरी सुनि, नातरु बन बसि कै पछिताहु॥
हौं पुनि मानि कर्म-कृत रेखा, करिहौं तात-बचन-निरबाहु।
‘सूर’ सत्य जो पतिब्रत राखौ, चलौ संग जनि, उतहीं जाहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामजीने श्रीजनकनन्दिनीसे कहा—) जानकी! तुम जनकपुर (अपने पिताके घर) चली जाओ। मेरे साथ चलकर कहाँ भटकती फिरोगी, बहुत घने वन हैं और उनमें अथाह दुःखका समुद्र लहराता है। महाराज जनकके यहाँकी भोजनादि सभी सुख-सुविधाको छोड़कर (वनमें) तिनकोंकी शय्यापर सोने और जंगली (कटु-कषाय) फलोंका भोजन करनेका (तुम्हारे लिये) क्या प्रयोजन है। गर्मीके दिनोंमें (धूप लगनेसे) तुम्हारा कमलमुख म्लान हो जायगा। (पिताके घररूपी) सरोवरको छोड़कर दूर (वनमें) स्नान करने (भटकने) क्यों जाती हो? हे प्रिया! तुम अपने मनमें कोई चिन्ता मत करना, (जनकपुर रहनेसे) माता-पिता तथा परिवारके लोगोंसे मिलनेवाले सुखका लाभ प्राप्त होगा (तुम सुखी रहोगी)। मेरी (यह) शिक्षा मानकर तुम घर रहो, नहीं तो वनमें निवास करके तुम्हें पश्चात्ताप करना पड़ेगा। मैं भी भाग्यनिर्मित लिपि (प्रारब्ध-भोग)-का आदर करके पिताकी आज्ञाका निर्वाह (चौदह वर्षका वनवास) करूँगा। सूरदासजी कहते हैं—(श्रीरामने कहा) जो सचमुच (पूर्णतः) पातिव्रतकी रक्षा करनी है तो साथ मत चलो, वहीं (जनकपुर ही) जाओ।

जानकी-वचन श्रीरामके प्रति

विषय (हिन्दी)

राग केदार

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२२)
ऐसौ जिय न धरौ रघुराइ।
तुम-सौ प्रभु तजि मो-सी दासी, अनत न कहूँ समाइ॥
तुम्हरौ रूप अनूप भानु ज्यौं, जब नैननि भरि देखौं।
ता छिन हृदय-कमल प्रफुलित ह्वै, जनम सफल करि लेखौं॥
तुम्हरे चरन-कमल सुख-सागर, यह ब्रत हौं प्रतिपलिहौं।
‘सूर’ सकल सुख छाँड़ि आपनौ, बन-बिपदा सँग चलिहौं॥

मूल

(२२)
ऐसौ जिय न धरौ रघुराइ।
तुम-सौ प्रभु तजि मो-सी दासी, अनत न कहूँ समाइ॥
तुम्हरौ रूप अनूप भानु ज्यौं, जब नैननि भरि देखौं।
ता छिन हृदय-कमल प्रफुलित ह्वै, जनम सफल करि लेखौं॥
तुम्हरे चरन-कमल सुख-सागर, यह ब्रत हौं प्रतिपलिहौं।
‘सूर’ सकल सुख छाँड़ि आपनौ, बन-बिपदा सँग चलिहौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूरदासजी कहते हैं (श्रीरामकी बात सुनकर श्रीजानकीजी बोलीं—) हे श्रीरघुनाथजी! ऐसा विचार आप चित्तमें मत रखिये। आपके समान स्वामीको छोड़कर मेरी-जैसी दासी और कहीं आश्रय नहीं ले सकती। आपके अनुपम सूर्यके समान स्वरूपको जब आँख भरकर देखती हूँ, उसी क्षण मेरा हृदयकमल खिल उठता है और अपना जन्म सफल समझती हूँ। (मेरे लिये तो) आपके चरणकमल ही सुखके समुद्र हैं। अतः मैं इस व्रतका पालन करूँगी कि अपने सभी सुखोंको तिलांजलि देकर वनकी विपत्तिमें आपके संग चलूँगी।

श्रीराम एवं माताका संवाद

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२३)
सुनि सुत स्याम राम कहाँ जैहौ।
रहि चरननि लपटाय जननि दोउ, निरखि बदन पाछैं पछितैहौ॥
कोमल कमल सुभग सुंदर पद तरनि-तेज ग्रीषम दुख पैहौ।
जिन बिन छिन न बिहात बिलोकत, कैसैं चौदस बरस बितैहौ॥
चंपक कुसुम बिसेष बरन तन, बिपति मानि तृन-सेज बिछैहौ।
अति अनूप आनन रसना धरि कैसैं जठर मूल-फल खैहौ॥
तजि मन मोह ईस-अभरन सजि, गिरि-कंदर जानकी बसैहौ।
फाटत नहीं बज्र की छतिया, अब मोहि नाथ अनाथ कहैहौ॥
कहा अपराध किए कौसल्या, पुत्र-बिछोह दुसह दुख दैहौ।
सूर-स्याम भुज गहें समझावत, तुम जननी मम कृतहि बटैहौ॥

मूल

(२३)
सुनि सुत स्याम राम कहाँ जैहौ।
रहि चरननि लपटाय जननि दोउ, निरखि बदन पाछैं पछितैहौ॥
कोमल कमल सुभग सुंदर पद तरनि-तेज ग्रीषम दुख पैहौ।
जिन बिन छिन न बिहात बिलोकत, कैसैं चौदस बरस बितैहौ॥
चंपक कुसुम बिसेष बरन तन, बिपति मानि तृन-सेज बिछैहौ।
अति अनूप आनन रसना धरि कैसैं जठर मूल-फल खैहौ॥
तजि मन मोह ईस-अभरन सजि, गिरि-कंदर जानकी बसैहौ।
फाटत नहीं बज्र की छतिया, अब मोहि नाथ अनाथ कहैहौ॥
कहा अपराध किए कौसल्या, पुत्र-बिछोह दुसह दुख दैहौ।
सूर-स्याम भुज गहें समझावत, तुम जननी मम कृतहि बटैहौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम अभिराम पुत्र श्रीराम! सुनो, तुम कहाँ जाओगे? (इतना कहकर) दोनों माताएँ (कौसल्या-सुमित्रा) चरणोंसे लिपटी रह गयीं (और बोलीं) अब हमारा मुख देख लो (हमारे जीवनकी आशा नहीं है), अतः पीछे पश्चात्ताप करोगे (कि माताओंके भली प्रकार दर्शन नहीं कर सके)। तुम्हारे सुन्दर चरण कमलके समान कोमल तथा चमकीले हैं, (वनमें) गर्मीके दिनोंमें सूर्यकी (प्रचण्ड) धूपमें (जलती भूमिपर चलनेमें) कितना कष्ट पाओगे? जिन (माताओं)-को देखे बिना एक क्षण भी नहीं बीतने देते थे (सदा हमारे पास ही रहते थे) अब उनके बिना चौदह वर्ष कैसे बिताओगे? हाय! तुम्हारा शरीर तो चम्पाके फूलके-से वर्णका है और अब विपत्ति समझकर (वनमें) तिनकोंकी शय्या बिछाओगे (तिनकोंपर सोओगे)। इस अत्यन्त अनुपम मुखमें जिह्वापर रखकर (वनके कड़वे-कसैले) कन्द तथा फल कैसे खाओगे और वे तुम्हें कैसे पचेंगे? मनका मोह (स्नेह) छोड़कर शंकरजीके लिये उचित आभूषण भस्मादिसे सजाकर अब श्रीजनकनन्दिनीको पर्वतकी गुफामें बसाओगे? हमारा यह हृदय वज्रका बना है जो अब भी नहीं फटता, हाय! हम सबके स्वामी (पालक) होकर भी अब तुम अनाथ कहे जाओगे! इस कौसल्याने क्या अपराध किया है जो इसे पुत्र-वियोगका दारुण दुःख दोगे? सूरदासजी कहते हैं—(श्रीरामने) माताओंको हाथ पकड़कर समझाया कि माँ! तुम मेरे कर्मफलको बँटा लोगी (तुम्हें मेरे दुर्भाग्यसे ही कष्ट मिला है, पर तुम्हारे इस कष्टसे मेरा भाग्य बँट जायगा और मुझे कम दुःख होगा, अतः धैर्य धारण करो)।

श्रीराम-वचन लक्ष्मणके प्रति

विषय (हिन्दी)

राग गूजरी

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२४)
तुम लछिमन! निज पुरहि सिधारौ।
बिछुरन-भेंट देहु लघु बंधू, जियत न जैहै सूल तुम्हारौ॥
यह भावी कछु और काज है, को जो याकौ मेटनहारौ।
याकौ कहा परेखौ-निरखौ, मधु छीलर, सरितापति खारौ॥
तुम मति करौ अवज्ञा नृप की, यह दुख तौ आगे कौं भारौ।
‘सूर’ सुमित्रा अंक दीजियौ, कौसिल्याहिं प्रनाम हमारौ॥

मूल

(२४)
तुम लछिमन! निज पुरहि सिधारौ।
बिछुरन-भेंट देहु लघु बंधू, जियत न जैहै सूल तुम्हारौ॥
यह भावी कछु और काज है, को जो याकौ मेटनहारौ।
याकौ कहा परेखौ-निरखौ, मधु छीलर, सरितापति खारौ॥
तुम मति करौ अवज्ञा नृप की, यह दुख तौ आगे कौं भारौ।
‘सूर’ सुमित्रा अंक दीजियौ, कौसिल्याहिं प्रनाम हमारौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूरदासजी कहते हैं (माताओंसे विदा लेकर श्रीरामने लक्ष्मणसे कहा—) भाई लक्ष्मण! तुम अपने नगरको लौट जाओ (अयोध्यामें ही रहो)। मेरे छोटे भाई! अब पृथक् होते समय मुझे अंकमाल दो (एक बार हृदयसे लगकर मिल लो)। तुम्हारे वियोगकी पीड़ा जीते-जी दूर नहीं होगी। यही होनहार (भाग्य-विधान) था और कुछ दूसरा काम भी (इसमें निहित) है। ऐसा कौन (समर्थ) है जो इसको मिटा सके। इस भाग्य-विधानका दुःख या शोच क्या करना है (यह तो सदासे ही अटपटा है। देखो न,) छोटे गड्ढोंका जल मीठा होता है और अपार समुद्र खारा है (यह विधिका अटपटा विधान ही तो है)। अतः तुम महाराज (पिता)-का अपमान मत करो। (ऐसा करनेपर) यह दुःख तो आगेके लिये (मेरे वनवाससे भी) भारी हो जायगा। (मेरी ओरसे) माता सुमित्राको अंकमाल देना और माता कौसल्याको मेरा प्रणाम कहना।

लक्ष्मणका उत्तर

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२५)
लछिमन नैन नीर भरि आए।
उत्तर कहत कछू नहिं आयौ, रहे चरन लपटाए॥
अंतरजामी प्रीति जानि कै, लछिमन लीन्हे साथ।
‘सूरदास’ रघुनाथ चले बन, पिता-बचन धरि माथ॥

मूल

(२५)
लछिमन नैन नीर भरि आए।
उत्तर कहत कछू नहिं आयौ, रहे चरन लपटाए॥
अंतरजामी प्रीति जानि कै, लछिमन लीन्हे साथ।
‘सूरदास’ रघुनाथ चले बन, पिता-बचन धरि माथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामकी यह बात सुनकर) श्रीलक्ष्मणजीके नेत्रोंमें आँसू भर आये। उनसे कोई उत्तर देते नहीं बन पड़ा, (बड़े भाईके) चरणोंमें (केवल) लिपट गये। अन्तर्यामी श्रीरामने (उनके) प्रेमको समझकर श्रीलक्ष्मणजीको साथ ले लिया। सूरदासजी कहते हैं—पिताकी आज्ञा सिरपर धारण करके (सादर स्वीकार करके) श्रीरघुनाथजी वनको चल पड़े।

महाराज दशरथका पश्चात्ताप

विषय (हिन्दी)

राग कान्हरौ

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२६)
फिरि-फिरि नृपति चलावत बात।
कहु री! सुमति कहा तोहि पलटी,प्रान-जिवन कैसैं बनजात॥
ह्वै बिरक्त, सिर जटा धरैं, द्रुम-चर्म, भस्म सब गात।
हा हा राम, लछन अरु सीता, फल-भोजन जु डसावैं पात॥
बिन रथ रूढ़, दुसह दुख मारग, बिन पद-त्रान चलैं दोउ भ्रात।
इहिं बिधि सोच करत अतिहीं नृप, जानकि ओर निरखि बिलखात॥
इतनी सुनत सिमिट सब आए , प्रेम सहित धारे अँसुपात।
ता दिन ‘सूर’ सहर सब चक्रित, सबर-सनेह तज्यौ पितु-मात॥

मूल

(२६)
फिरि-फिरि नृपति चलावत बात।
कहु री! सुमति कहा तोहि पलटी,प्रान-जिवन कैसैं बनजात॥
ह्वै बिरक्त, सिर जटा धरैं, द्रुम-चर्म, भस्म सब गात।
हा हा राम, लछन अरु सीता, फल-भोजन जु डसावैं पात॥
बिन रथ रूढ़, दुसह दुख मारग, बिन पद-त्रान चलैं दोउ भ्रात।
इहिं बिधि सोच करत अतिहीं नृप, जानकि ओर निरखि बिलखात॥
इतनी सुनत सिमिट सब आए , प्रेम सहित धारे अँसुपात।
ता दिन ‘सूर’ सहर सब चक्रित, सबर-सनेह तज्यौ पितु-मात॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथ बार-बार रानी कैकेयीसे यही बात छेड़ते हैं—‘अरी! बता तो सही, तुम्हारी सुन्दर मति कैसे पलट गयी? मेरे प्राणजीवन वनमें कैसे जा रहे हैं? हा राम! हा लक्ष्मण! हा जानकी! विरक्त होकर इन्होंने मस्तकपर जटाएँ रख लीं, पेड़ोंकी छाल पहन ली, सारे शरीरमें भस्म लगा ली, फलोंका भोजन करते हैं और पत्ते बिछाकर सोते हैं। (महाराजको शोकके कारण मानसिक रूपमें ही यह सब प्रत्यक्ष-सा दीख रहा है।) बिना रथपर चढ़े असहनीय कष्टोंसे भरे मार्गमें दोनों भाई बिना पैरोंमें जूते पहने (नंगे पैर) चले जा रहे हैं।’ इस प्रकार महाराज अत्यन्त शोक करते हैं और श्रीजानकीजीकी ओर देखकर क्रन्दन करने लगते हैं। सूरदासजी कहते हैं—महाराजका यह विलाप सुनकर (राजसदनके) सब लोग वहाँ आकर एकत्र हो गये। प्रेमके कारण सबके आँसू बह रहे थे। सारा नगर उस दिन चकित (शोकविमोहित) हो रहा था—‘माता-पिताने भी धैर्य और प्रेम छोड़ दिया?’ (लोग यही सोच रहे थे)।

राम-वनगमन

विषय (हिन्दी)

राग नट

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२७)
आजु रघुनाथ पयानौ देत।
बिह्वल भए स्रवन सुनि पुरजन, पुत्र-पिता कौ हेत॥
ऊँचें चढ़ि दसरथ लोचन भरि सुत-मुख देखे लेत।
रामचंद्र-से पुत्र बिना मैं भूँजब क्यौं यह खेत॥
देखत गमन नैन भरि आए , गात गह्यौ ज्यौं केत।
तात-तात कहि बैन उचारत, ह्वै गए भूप अचेत॥
कटि-तट तून, हाथ सायक-धनु, सीता-बंधु समेत।
‘सूर’ गमन गह्वर कौं कीन्हौ जानत पिता अचेत॥

मूल

(२७)
आजु रघुनाथ पयानौ देत।
बिह्वल भए स्रवन सुनि पुरजन, पुत्र-पिता कौ हेत॥
ऊँचें चढ़ि दसरथ लोचन भरि सुत-मुख देखे लेत।
रामचंद्र-से पुत्र बिना मैं भूँजब क्यौं यह खेत॥
देखत गमन नैन भरि आए , गात गह्यौ ज्यौं केत।
तात-तात कहि बैन उचारत, ह्वै गए भूप अचेत॥
कटि-तट तून, हाथ सायक-धनु, सीता-बंधु समेत।
‘सूर’ गमन गह्वर कौं कीन्हौ जानत पिता अचेत॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज श्रीरघुनाथ प्रस्थान कर रहे हैं, यह बात कानोंसे सुनकर और पिता-पुत्रका परस्पर प्रेम देखकर सभी नगरवासी बेसुध हो गये। महाराज दशरथ (राजभवनमें) ऊँचाईपर चढ़कर पुत्रका मुख (आज भली प्रकार अन्तिम बार) देख ले रहे हैं। (वे कहते हैं—) ‘श्रीरामचन्द्र-जैसे पुत्रके बिना मैं इस राज्यका उपभोग क्योंकर करूँगा?’ श्रीरामको वन जाते देखकर उनके नेत्रोंमें जल भर आया और शरीर ऐसा विवर्ण हो गया जैसे चन्द्रमाको राहुने पकड़ लिया हो। ‘बेटा! बेटा!’ कहकर पुकारते हुए महाराज मूर्च्छित हो गये। सूरदासजी कहते हैं—कटिमें तरकस बाँधे, हाथोंमें धनुष-बाण लिये श्रीराम, सीताजी तथा छोटे भाई लक्ष्मणके साथ, यह जानते हुए भी कि पिता मूर्च्छित हो गये हैं (पिताके सत्यकी रक्षाके लिये) वनको चल पड़े।

लक्ष्मण-केवट-संवाद

विषय (हिन्दी)

राग मारू

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२८)
लै भैया केवट! उतराई।
महाराज रघुपति इत ठाढ़े, तैं कत नाव दुराई॥
अबहिं सिला तें भई देव-गति, जब पग-रेनु छिवाई।
हौं कुटुंब काहैं प्रतिपारौं, वैसी मति ह्वै जाई॥
जाकी चरन रेनु की महि मैं, सुनियत अधिक बड़ाई।
‘सूरदास’ प्रभु अगनित महिमा, बेद-पुराननि गाई॥

मूल

(२८)
लै भैया केवट! उतराई।
महाराज रघुपति इत ठाढ़े, तैं कत नाव दुराई॥
अबहिं सिला तें भई देव-गति, जब पग-रेनु छिवाई।
हौं कुटुंब काहैं प्रतिपारौं, वैसी मति ह्वै जाई॥
जाकी चरन रेनु की महि मैं, सुनियत अधिक बड़ाई।
‘सूरदास’ प्रभु अगनित महिमा, बेद-पुराननि गाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शृंगवेरपुरमें श्रीलक्ष्मणजी केवटसे कह रहे हैं—) ‘भैया केवट! तू अपनी उतराई (गंगापार करनेकी मजदूरी) पहले ही ले ले। यहाँ महाराज श्रीरघुनाथजी (पार होनेके लिये) खड़े हैं, तुमने नौका छिपा क्यों दी?’ (यह सुनकर केवट कहता है—) ‘जब इन्होंने अपने चरणोंकी धूलिका स्पर्श कराया, तब अभी-अभी (कुछ ही दिन पहले) तो एक पत्थरकी शिला देव-नारी बनकर देवगतिको प्राप्त हो गयी है, कहीं मेरी नौका भी वैसी न हो जाय। (वैसा होनेपर) मैं अपने कुटुम्बका पालन-पोषण किसके द्वारा करूँगा।’ सूरदासजी कहते हैं—जिनकी चरणधूलिकी पृथ्वीमें (ऐसी) अपार बड़ाई सुनी जाती है, उन प्रभुकी महिमा तो अगणित है, वेद-पुराणोंने उसका गान किया है?

केवट-विनय

विषय (हिन्दी)

राग कान्हरौ

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२९)
नौका हौं नाहीं लै आऊँ।
प्रगट प्रताप चरन कौ देखौं, ताहि कहाँ पुनि पाऊँ॥
कृपासिंधु पै केवट आयौ कँपत करत सो बात।
चरन परसि पाषान उड़त है, कत बेरी उड़ि जात॥
जो यह बधू होइ काहू की, दारु-स्वरूप धरें।
छूटै देह, जाइ सरिता तजि, पग सौं परस करें॥
मेरी सकल जीविका यामैं, रघुपति मुक्त न कीजै।
‘सूरजदास’ चढ़ौ प्रभु पाछैं, रेनु पखारन दीजै॥

मूल

(२९)
नौका हौं नाहीं लै आऊँ।
प्रगट प्रताप चरन कौ देखौं, ताहि कहाँ पुनि पाऊँ॥
कृपासिंधु पै केवट आयौ कँपत करत सो बात।
चरन परसि पाषान उड़त है, कत बेरी उड़ि जात॥
जो यह बधू होइ काहू की, दारु-स्वरूप धरें।
छूटै देह, जाइ सरिता तजि, पग सौं परस करें॥
मेरी सकल जीविका यामैं, रघुपति मुक्त न कीजै।
‘सूरजदास’ चढ़ौ प्रभु पाछैं, रेनु पखारन दीजै॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपासिन्धु श्रीरामके पास केवट आया। वह बात करते हुए भी (भयसे) काँप रहा था। (उसने कहा—) ‘मैं नौका नहीं ले आऊँगा। आपके चरणोंका प्रत्यक्ष प्रभाव मैंने देखा है; आपके चरणोंका स्पर्श पाकर तो पत्थर (स्त्री बनकर) उड़ जाता है, फिर बेरकी लकड़ीसे बनी नौकाको उड़ जानेमें क्या देर लगेगी? अभी तो यह नौका लकड़ीके रूपमें है; किंतु यदि (आपके चरणोंके छू जानेसे) इसका यह रूप छूट जाय और गंगाजीको छोड़कर यह किसीकी स्त्री बनकर चली जाय तो फिर उसे मैं कहाँ पाऊँगा। मेरी तो सब आजीविका इस नौकासे ही है, इसलिये हे रघुनाथजी! इसे मुक्त मत कीजिये।’ सूरदासजी कहते हैं—(केवटने आग्रह किया) ‘स्वामी! नौकापर आप पीछे चढ़ियेगा, पहले अपने चरणोंकी धूलि मुझे धो लेने दीजिये।’

राग रामकली

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३०)
मेरी नौका जनि चढ़ौ त्रिभुवनपति राई।
मो देखत पाहन तरे, मेरी काठ की नाई॥
मैं खेई ही पार कौं, तुम उलटि मँगाई।
मेरौ जिय यौं ही डरै, मति होहि सिलाई॥
मैं निरबल, बित-बल नहीं, जो और गढ़ाऊँ।
मो कुटुंब याही लग्यौ, ऐसी कहँ पाऊँ॥
मैं निरधन, कछु धन नहीं, परिवार घनेरौ।
सेमर-ढाकहि काटि कै, बाँधौं तुम बेरौ॥
बार-बार श्रीपति कहैं, धीवर नहिं मानै।
मन प्रतीति नहिं आवई, उड़िबौ ही जानै।
नेरैं ही जलथाह है, चलौ, तुम्हें बताऊँ।
‘सूरदास’ की बीनती, नीकैं पहुँचाऊँ॥

मूल

(३०)
मेरी नौका जनि चढ़ौ त्रिभुवनपति राई।
मो देखत पाहन तरे, मेरी काठ की नाई॥
मैं खेई ही पार कौं, तुम उलटि मँगाई।
मेरौ जिय यौं ही डरै, मति होहि सिलाई॥
मैं निरबल, बित-बल नहीं, जो और गढ़ाऊँ।
मो कुटुंब याही लग्यौ, ऐसी कहँ पाऊँ॥
मैं निरधन, कछु धन नहीं, परिवार घनेरौ।
सेमर-ढाकहि काटि कै, बाँधौं तुम बेरौ॥
बार-बार श्रीपति कहैं, धीवर नहिं मानै।
मन प्रतीति नहिं आवई, उड़िबौ ही जानै।
नेरैं ही जलथाह है, चलौ, तुम्हें बताऊँ।
‘सूरदास’ की बीनती, नीकैं पहुँचाऊँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(केवट कहता है—) ‘हे स्वामी! हे त्रिभुवननाथ! (कृपा करके) मेरी नौकापर मत चढ़िये। मेरे देखते-देखते (आपके चरणोंके स्पर्शसे) पत्थरकी मुक्ति हो गयी, मेरी नौका तो लकड़ीकी बनी है। मैंने तो उस पार ले जानेके लिये खेना प्रारम्भ किया था, आपने इसे लौटाकर यहाँ मँगवा लिया। कहीं उस शिलाकी-सी दशा इसकी भी न हो जाय, मेरा हृदय इसी बातसे भयभीत हो रहा है। मैं निर्बल हूँ (स्वयं दूसरी नौका गढ़ नहीं सकता); धनका बल भी मेरे पास नहीं जो (दूसरोंसे) दूसरी गढ़वा लूँ। मेरा कुटुम्ब इसीके आश्रित है (इसीपर कुटुम्बका निर्वाह निर्भर है), ऐसी नौका मैं (फिरसे) कहाँ पाऊँगा? मैं निर्धन हूँ, मेरे पास धन नहीं (कि बैठे खा सकूँ) और परिवार बहुत बड़ा है। (आपको गंगापार ही तो होना है) सेमर और ढाककी डालियाँ काटकर आपके लिये एक बेड़ा बाँध दूँ (और उसपर बैठकर आप पार हो जायँ)।’ श्रीराम बार-बार अनुरोध करते हैं, किंतु केवट उनकी बात मानता नहीं है। उसके मनमें विश्वास नहीं होता, वह तो (शिलाका) उड़ना ही जानता है (और उसी प्रकार नौका उड़ जायगी, यह शंका किये अड़ा है)। सूरदासजी कहते हैं—उसने कहा—‘प्रभो! मेरी यह प्रार्थना है कि पास ही थाह मिलने (पैदल चलकर पार होने) योग्य जल है; आप मेरे साथ चलें, वह स्थान आपको बता दूँ और (स्वयं साथ चलकर) आपको भली प्रकार (पार) पहुँचा दूँ।’

पुरवधू-प्रश्न

विषय (हिन्दी)

राग रामकली

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३१)
सखी री! कौन तिहारे जात।
राजिवनैन धनुष कर लीन्हे, बदन मनोहर गात॥
लज्जित होहिं पुरबधू पूछैं, अंग-अंग मुसकात।
अति मृदु चरन पंथ बन-बिहरत, सुनियत अद्भुत बात॥
सुंदर तन, सुकुमार दोउ जन, सूर-किरिन कुम्हिलात।
देखि मनोहर तीनौं मूरति, त्रिबिध-ताप तन जात॥

मूल

(३१)
सखी री! कौन तिहारे जात।
राजिवनैन धनुष कर लीन्हे, बदन मनोहर गात॥
लज्जित होहिं पुरबधू पूछैं, अंग-अंग मुसकात।
अति मृदु चरन पंथ बन-बिहरत, सुनियत अद्भुत बात॥
सुंदर तन, सुकुमार दोउ जन, सूर-किरिन कुम्हिलात।
देखि मनोहर तीनौं मूरति, त्रिबिध-ताप तन जात॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वनके मार्गमें) ग्रामीण नारियाँ पूछनेमें लज्जित होती हुई (संकोचके साथ) पूछती हैं, (पूछते समय) उनका अंग-अंग मुसकरा रहा है (प्रत्येक अंग-भंगीसे) लज्जा एवं आनन्द व्यक्त हो रहा है। वे श्रीजानकीजीसे पूछती हैं—) हे सखी! ये (मार्गमें) चलते हुए (दोनों कुमार) तुम्हारे कौन लगते हैं? इनके नेत्र कमलके समान (सुन्दर) हैं, बड़ा ही मनोहारी मुख और शरीर है, हाथोंमें धनुष लिये हुए हैं। यह बहुत अद्भुत बात सुनी (देखी) जा रही है कि ये अत्यन्त कोमल चरणोंसे वनके मार्गमें घूम रहे हैं। (बड़ा) सुन्दर शरीर है, दोनों ही कुमार इतने सुकुमार हैं कि सूर्यकी किरणोंके लगनेसे ही कुम्हिला जाते हैं। सूरदासजी कहते हैं—(श्रीराम, लक्ष्मण और जानकीजी—) इन तीनों मनोहर मूर्तियोंको देखनेसे शरीरके तीनों (आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक) संताप दूर हो जाते हैं।

विषय (हिन्दी)

राग गौरी

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३२)
अरी अरी सुंदरि नारि सुहागिनि, लागैं तेरे पाउँ।
किहिं घाँ के तुम बीर बटाऊ, कौन तुम्हारौ गाउँ॥
उत्तर दिसि हम नगर अजोध्या, है सरजू के तीर।
बढ़ कुल, बड़े भूप दसरथ सखि, बड़ौ नगर गंभीर॥
कौनैं गुन बन चली बधू तुम, कहि मोसों सति भाउ।
वह घर-द्वार छाँड़ि कै सुंदरि, चली पियादे पाँउ॥
सासु की सौति सुहागिनि सो सखि, अतिहिं पीय की प्यारी।
अपने सुत कौं राज दिवायौ, हम कों देस निकारी॥
यह बिपरीत सुनि जब सबहीं, नैननि ढारॺौ नीर।
आजु सखी चलु भवन हमारे, सहित दोउ रघुबीर॥
बरष चतुरदस भवन न बसिहैं, आज्ञा दीन्ही राइ।
उन के बचन सत्य करि सजनी, बहुरि मिलैंगे आइ॥
बिनती बिहँसि सरस मुख सुंदरि, सिय सौं पूछी गाथ।
कौन बरन तुम देवर सखि री, कौन तिहारौ नाथ॥
कटि-तट पट पीतांबर काछे, धारे धनु-तूनीर।
गौर-बरन मेरे देवर सखि, पिय मम स्याम-सरीर॥
तीनि जने सोभा त्रिलोक की, छाँड़ि सकल पुर-धाम।
‘सूरदास’ प्रभु-रूप चकित भए , पंथ चलत नर-बाम॥

मूल

(३२)
अरी अरी सुंदरि नारि सुहागिनि, लागैं तेरे पाउँ।
किहिं घाँ के तुम बीर बटाऊ, कौन तुम्हारौ गाउँ॥
उत्तर दिसि हम नगर अजोध्या, है सरजू के तीर।
बढ़ कुल, बड़े भूप दसरथ सखि, बड़ौ नगर गंभीर॥
कौनैं गुन बन चली बधू तुम, कहि मोसों सति भाउ।
वह घर-द्वार छाँड़ि कै सुंदरि, चली पियादे पाँउ॥
सासु की सौति सुहागिनि सो सखि, अतिहिं पीय की प्यारी।
अपने सुत कौं राज दिवायौ, हम कों देस निकारी॥
यह बिपरीत सुनि जब सबहीं, नैननि ढारॺौ नीर।
आजु सखी चलु भवन हमारे, सहित दोउ रघुबीर॥
बरष चतुरदस भवन न बसिहैं, आज्ञा दीन्ही राइ।
उन के बचन सत्य करि सजनी, बहुरि मिलैंगे आइ॥
बिनती बिहँसि सरस मुख सुंदरि, सिय सौं पूछी गाथ।
कौन बरन तुम देवर सखि री, कौन तिहारौ नाथ॥
कटि-तट पट पीतांबर काछे, धारे धनु-तूनीर।
गौर-बरन मेरे देवर सखि, पिय मम स्याम-सरीर॥
तीनि जने सोभा त्रिलोक की, छाँड़ि सकल पुर-धाम।
‘सूरदास’ प्रभु-रूप चकित भए , पंथ चलत नर-बाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

(भोली ग्राम-नारियोंने श्रीजानकीजीको सम्बोधित करके पूछा—) ‘हे सौभाग्यवती सुन्दरी नारी! हम (सब) तुम्हारे पैर पड़ती हैं (कृपा करके यह बता दो—) तुम और ये वीर (तुम्हारे साथके दोनों) यात्री किस ओर के हैं? तुम्हारा कौन-सा गाँव है?’ (श्रीजानकीजीने उत्तर दिया—) ‘सखियो! यहाँसे उत्तर दिशामें सरयू-किनारे हमारा नगर अयोध्या है। (वह कोई गाँव नहीं है) वहाँ बहुत अधिक लोग रहते हैं, वहाँके महाराज दशरथ सबसे बड़े राजा हैं, वह बहुत बड़ा और घनी बस्तीका नगर है।’ (यह सुनकर ग्राम्य नारियोंने फिर पूछा—) ‘बहू! हमें सच्चे भावसे बता दो कि किस गुण (दोष)-के कारण तुम वनमें जा रही हो? हे सुन्दरी! (अपने ऐसे बड़े नगरका) वह घर-द्वार छोड़कर तुम पैदल क्यों जा रही हो?’ (श्रीजानकीजीने कहा—) ‘सखियो! मेरी सासकी सौभाग्यवती सौत अपने पति (मेरे श्वशुर)-की अत्यन्त प्यारी हैं। उन्होंने अपने पुत्रको राज्य दिलवाया और हमलोगोंको देश-निकाला।’ जब यह उलटी (दुःखपूर्ण) बात सबने सुनी, तब वे आँखोंसे आँसू बहाने लगीं (और आग्रहपूर्वक बोलीं—) ‘हे सखी! दोनों रघुवीर कुमारोंके साथ आज हमारे घर चलो।’ (श्रीजानकीजीने कहा—) ‘महाराजने चौदह वर्ष वनमें रहनेकी आज्ञा दी है, अतः (इस अवधिमें) हम किसीके घर नहीं रह सकते। सखियो! उन ‘महाराज’ के वचनोंको सत्य करके लौटकर फिर तुमसे मिलूँगी।’ सुन्दरी ग्राम-नारियोंने हँसकर प्रेमपूर्वक प्रार्थनाके स्वरमें श्रीजानकीजीसे यह बात पूछी—‘सखी! तुम्हारे देवर किस वर्णके हैं और तुम्हारे स्वामी कौन हैं?’ (श्रीजानकीजीने बताया—) ‘सखियो! ये जो दोनों भाई कमरमें पीताम्बर पहने, धनुष और तरकस लिये हैं, उनमें गौर वर्णवाले मेरे देवर हैं और श्याम अंगवाले मेरे पतिदेव हैं।’ सूरदासजी कहते हैं—ये तीनों ही पथिक त्रिलोकीकी शोभा हैं, (आज) ये अपने नगर एवं भवनादि सभी ऐश्वर्योंका त्याग करके (वनके) मार्गमें चल रहे हैं। पथके सभी नर-नारी प्रभुके परम सुन्दर रूपको देखकर चकित हो रहे हैं।

राग धनाश्री

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३३)
कहि धौं सखी! बटाऊ को हैं।
अद्भुत बधू लिए सँग डोलत, देखत त्रिभुवन मोहैं॥
परम सुसील सुलच्छन जोरी, बिधि की रची न होइ।
काकी तिन कौं उपमा दीजै, देह धरे धौं कोइ॥
इन मैं को पति आहि तिहारे, पुरजनि पूछैं धाइ।
राजिवनैन मैन की मूरति, सैननि दियौ बताइ॥
गईं सकल मिलि संग दूरि लौं, मन न फिरत पुर-वास।
‘सूरदास’ स्वामी के बिछुरत, भरि-भरि लेति उसास॥

मूल

(३३)
कहि धौं सखी! बटाऊ को हैं।
अद्भुत बधू लिए सँग डोलत, देखत त्रिभुवन मोहैं॥
परम सुसील सुलच्छन जोरी, बिधि की रची न होइ।
काकी तिन कौं उपमा दीजै, देह धरे धौं कोइ॥
इन मैं को पति आहि तिहारे, पुरजनि पूछैं धाइ।
राजिवनैन मैन की मूरति, सैननि दियौ बताइ॥
गईं सकल मिलि संग दूरि लौं, मन न फिरत पुर-वास।
‘सूरदास’ स्वामी के बिछुरत, भरि-भरि लेति उसास॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ग्रामके लोग दौड़कर पास जाते हैं और ग्राम-नारियाँ श्रीजानकीजीसे पूछती हैं—) ‘हे सखी! बताओ तो ये यात्री कौन हैं? (तुम्हारी-जैसी) अद्भुत (सुन्दरी) बहूको साथ लिये घूम रहे हैं। ये (अपने) दर्शनसे त्रिभुवनको मोहे लेते हैं। यह परम सुशील एवं सुन्दर लक्षणोंवाली जोड़ी ब्रह्माजीकी रची हुई नहीं हो सकती। इनको किसकी उपमा दी जाय, ये तो शरीर धारण किये हुए न जाने कौन हैं। इनमें तुम्हारे पतिदेव कौन हैं?’ (श्रीजानकीजीने) संकेतसे कमललोचन मूर्तिमान् कामदेवके समान श्रीरामको बता दिया। सूरदासजी कहते हैं—वे सब (ग्रामनारियाँ) एकत्र होकर दूरतक साथ गयीं। अपने ग्राम एवं घरोंको लौटनेका उनका मन नहीं होता था। त्रिभुवननाथ श्रीरामके अलग होनेपर वे बार-बार दीर्घ श्वास लेने लगीं।

दशरथ-तन-त्याग

विषय (हिन्दी)

राग धनाश्री

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३४)
तात-बचन रघुनाथ माथ धरि, जब बन गौन कियौ।
मंत्री गयौ फिरावन रथ लै, रघुबर फेरि दियौ॥
भुजा छुड़ाइ, तोरि तृन ज्यों हित, कियौ प्रभु निठुर हियौ।
यह सुनि भूप तुरत तनु त्याग्यौ, बिछुरन-ताप-तयौ॥
सुरति-साल-ज्वाला उर अंतर, ज्यौं पावकहि पियौ।
इहिं बिधि बिकल सकल पुरबासी, नाहिन चहत जियौ॥
पसु-पंछी तृन-कन त्याग्यौ, अरु बालक पियौ न पयौ।
‘सूरदास’ रघुपति के बिछुरैं, मिथ्या जनम भयौ॥

मूल

(३४)
तात-बचन रघुनाथ माथ धरि, जब बन गौन कियौ।
मंत्री गयौ फिरावन रथ लै, रघुबर फेरि दियौ॥
भुजा छुड़ाइ, तोरि तृन ज्यों हित, कियौ प्रभु निठुर हियौ।
यह सुनि भूप तुरत तनु त्याग्यौ, बिछुरन-ताप-तयौ॥
सुरति-साल-ज्वाला उर अंतर, ज्यौं पावकहि पियौ।
इहिं बिधि बिकल सकल पुरबासी, नाहिन चहत जियौ॥
पसु-पंछी तृन-कन त्याग्यौ, अरु बालक पियौ न पयौ।
‘सूरदास’ रघुपति के बिछुरैं, मिथ्या जनम भयौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताकी आज्ञा सिरपर चढ़ाकर जब श्रीरघुनाथ वनके लिये चल पड़े, तब मन्त्री सुमन्त्र रथ लेकर उन्हें लौटा लाने गये; किंतु श्रीरघुवीरने उन्हें (अयोध्या) लौटा दिया। (लौटकर सुमन्त्रने महाराजसे कहा—) ‘प्रभु (श्रीराम)-ने तो अपना हृदय निष्ठुर बना लिया (मेरी कोई प्रार्थना स्वीकार नहीं की); प्रेमको तिनकेके समान तोड़कर, हाथ छुड़ाकर वे चले गये।’ यह सुनते ही वियोगके संतापसे तप्त शरीरको महाराजने तुरंत छोड़ दिया (उनका परलोकवास हो गया) और अयोध्याके सभी निवासी ऐसे व्याकुल हो गये जैसे उन्होंने अग्नि-पान कर लिया हो और वही हृदयमें श्रीरामके स्मरणकी वेदनाके रूपमें अपनी लपटोंसे हृदयको जला रहा हो; कोई भी (नागरिक) जीवित रहना नहीं चाहता था। पशुओंने घास चरना छोड़ दिया, पक्षियोंने दाने चुगने त्याग दिये, शिशुओंतकने दूध नहीं पिया। सूरदासजी कहते हैं—श्रीरघुपतिका वियोग होनेसे यह जीवन ही व्यर्थ हो गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३५)
राजा तेल-द्रोनि में डारे।
सात दिवस मारग में बीते, देखे भरत पिआरे॥
जाइ निकट हिय लाइ दोउ सिसु, नैन उमँग जलधारे।
कुसलछेम पूँछत कौसिल्या राजा कुसल तिहारे॥
कुसल राम लछमन बैदेही, ते हैं प्रान हमारे।
कूसलछेम अवध के पुरजन दासि-दास प्रतिहारे॥
कुसल राम लछमन बैदेही, तुम हित काज हँकारे।
‘सूर’ सुमंत ज्ञानि ज्ञानाद्भुत महिमा समय बिचारे॥

मूल

(३५)
राजा तेल-द्रोनि में डारे।
सात दिवस मारग में बीते, देखे भरत पिआरे॥
जाइ निकट हिय लाइ दोउ सिसु, नैन उमँग जलधारे।
कुसलछेम पूँछत कौसिल्या राजा कुसल तिहारे॥
कुसल राम लछमन बैदेही, ते हैं प्रान हमारे।
कूसलछेम अवध के पुरजन दासि-दास प्रतिहारे॥
कुसल राम लछमन बैदेही, तुम हित काज हँकारे।
‘सूर’ सुमंत ज्ञानि ज्ञानाद्भुत महिमा समय बिचारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथका शरीर तेलसे भरी नौकामें रख दिया गया। (ननिहालसे आनेमें) मार्गमें ही सात दिन बीत गये, तब (माता कौसल्याने) प्यारे भरतको (अयोध्या आनेपर) देखा। माता कौसल्या पास गयीं और उन्होंने दोनों बालकों (भरत-शत्रुघ्न)-को हृदयसे लगा लिया, उनके नेत्रोंसे आँसूकी धारा उमड़ पड़ी। माता कौसल्यासे भरतजी कुशल-मंगल पूछने लगे—‘आपके महाराज (हमारे पिता) कुशलपूर्वक तो हैं? श्रीराम, लक्ष्मण और जानकीजी कुशलसे हैं? वे तो हमारे प्राण ही हैं। अयोध्याके नगरवासी, दास-दासियाँ और रक्षकलोग तो कुशलसे हैं?’ (माता! आप रो क्यों रही हैं?) सूरदासजी कहते हैं—(माता कौसल्याने इतना ही कहा—) ‘श्रीराम, लक्ष्मण और जानकी कुशलपूर्वक हैं। मन्त्री सुमन्त्र ज्ञानी हैं, उनके ज्ञानकी महिमा अद्भुत है, समयका विचार करके तुम्हारे भलेके लिये ही उन्होंने तुम (दोनों भाइयों)-को बुलवाया है।’ (तात्पर्य यह कि अब तुम मन्त्रीकी सम्मतिके अनुसार कार्य करना।)

कौसल्या-विलाप, भरत-आगमन

विषय (हिन्दी)

राग गूजरी

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३६)
रामहिं राखौ कोऊ जाइ।
जब लगि भरत अजोध्या आवैं, कहति कौसिला माइ॥
पठवौ दूत भरत कौं ल्यावन, बचन कह्यौ बिलखाइ।
दसरथ-बचन राम बन गवने, यह कहियौ अरथाइ॥
आए भरत, दीन ह्वैं बोले, कहा कियौ कैकइ माइ।
हम सेवक, वे त्रिभुवनपति, कत स्वान सिंह-बलि खाइ॥
आजु अजोध्या जल नहिं अँचवौं, मुख नहिं देखौं माइ।
सूरदास राघव-बिछुरन तैं, मरन भलौ दव लाइ॥

मूल

(३६)
रामहिं राखौ कोऊ जाइ।
जब लगि भरत अजोध्या आवैं, कहति कौसिला माइ॥
पठवौ दूत भरत कौं ल्यावन, बचन कह्यौ बिलखाइ।
दसरथ-बचन राम बन गवने, यह कहियौ अरथाइ॥
आए भरत, दीन ह्वैं बोले, कहा कियौ कैकइ माइ।
हम सेवक, वे त्रिभुवनपति, कत स्वान सिंह-बलि खाइ॥
आजु अजोध्या जल नहिं अँचवौं, मुख नहिं देखौं माइ।
सूरदास राघव-बिछुरन तैं, मरन भलौ दव लाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(महाराज दशरथका शरीर छूट जानेपर) माता कौसल्या कहने लगीं—‘जबतक भरतलाल अयोध्या आ जायँ, तबतकके लिये कोई जाकर श्रीरामको रोक लो।’ विलाप करते हुए माताने कहा—‘भरतको ले आनेके लिये दूत भेजो! यह समझाकर कह देना कि महाराज दशरथकी आज्ञासे श्रीराम वनको चले गये।’ (समाचार पाकर) श्रीभरतजी अयोध्या आ गये और (माता कौसल्यासे) दीन होकर (बड़ी करुणासे) बोले—‘माता कैकेयीने यह क्या किया? हम (दोनों भाई) तो सेवक हैं और वे (श्रीरघुनाथजी) त्रिभुवनके स्वामी हैं। भला, कुत्ता सिंहका उपहार कैसे खा सकता है? (मैं श्रीरघुनाथके राज्यका उपभोग कैसे कर सकता हूँ?)’ सूरदासजी कहते हैं—(श्रीभरतजीने प्रतिज्ञा की) आज अयोध्यामें जलका आचमनतक नहीं करूँगा और न माता कैकेयीका मुख देखूँगा। श्रीरघुनाथजीके वियोगकी अपेक्षा तो अग्नि जलाकर (चितामें जलकर) मर जाना भला है।’

भरत-वचन माताके प्रति

विषय (हिन्दी)

राग केदार

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३७)
तैं कैकई कुमंत्र कियौ।
अपने कर करि काल हँकारॺौ, हठ करि नृप-अपराध लियौ॥
श्रीपति चलत रह्यौ कहि कैसैं, तेरौ पाहन-कठिन हियौ।
मो अपराधी के हित कारन, तैं रामहि बनबास दियौ॥
कौन काज यह राज हमारैं, इहिं पावक परि कौन जियौ।
लोटे ‘सूर’ धरनि दोउ बंधू, मनो तपत बिष बिषम पियौ॥

मूल

(३७)
तैं कैकई कुमंत्र कियौ।
अपने कर करि काल हँकारॺौ, हठ करि नृप-अपराध लियौ॥
श्रीपति चलत रह्यौ कहि कैसैं, तेरौ पाहन-कठिन हियौ।
मो अपराधी के हित कारन, तैं रामहि बनबास दियौ॥
कौन काज यह राज हमारैं, इहिं पावक परि कौन जियौ।
लोटे ‘सूर’ धरनि दोउ बंधू, मनो तपत बिष बिषम पियौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(भरतजी कैकेयी मातासे कहते हैं—) ‘कैकेयी! तूने बहुत बुरा विचार किया, अपने हाथसे तूने कालरूपी हाथीको बुलवाया और दुराग्रह करके महाराजकी मृत्युका पाप अपने सिर लिया। बता तो! श्रीरामके (वन) जाते समय तेरा पत्थरके समान कठोर हृदय (फट नहीं गया?) बचा कैसे रहा? मुझ पापीके प्रेमके कारण तूने श्रीरामको वनवास दे दिया? यह राज्य मेरे किस काम आयेगा? इस (राज्य-लोभरूपी) अग्निमें पड़कर कौन जीवित रह सका है?’ सूरदासजी कहते हैं—दोनों भाई इस प्रकार भूमिमें पड़कर तड़पने लगे, जैसे भयानक विष पी लिया हो और उसकी ज्वालासे दग्ध हो रहे हों।

विषय (हिन्दी)

राग सोरठ

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३८)
राम जू कहाँ गए री माता?
सूनौ भवन, सिंहासन सूनौ, नाहीं दसरथ ताता॥
धृग तव जन्म, जियन धृग तेरौ, कही कपट-मुख बाता।
सेवक राज, नाथ बन पठए , यह कब लिखी बिधाता॥
मुख-अरविंद देखि हम जीवत, ज्यौं चकोर ससि राता।
‘सूरदास’ श्रीरामचंद्र बिनु कहा अजोध्या नाता॥

मूल

(३८)
राम जू कहाँ गए री माता?
सूनौ भवन, सिंहासन सूनौ, नाहीं दसरथ ताता॥
धृग तव जन्म, जियन धृग तेरौ, कही कपट-मुख बाता।
सेवक राज, नाथ बन पठए , यह कब लिखी बिधाता॥
मुख-अरविंद देखि हम जीवत, ज्यौं चकोर ससि राता।
‘सूरदास’ श्रीरामचंद्र बिनु कहा अजोध्या नाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूरदासजी कहते हैं—(श्रीभरतजीने फिर कैकेयी मातासे कहा—) ‘अरी माता! श्रीरामजी कहाँ गये? यह राजभवन सुनसान हो गया, राजसिंहासन सूना हो गया, पिता महाराज दशरथ भी नहीं रहे (यह सब तूने क्या किया)! तेरे जन्मको धिक्कार है! तेरे जीवित रहनेको धिक्कार है! जो तूने (अपने) कपटभरे मुखसे ऐसी बात कही। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने (भी) ऐसा विधान कब लिखा है कि सेवकके लिये तूने राज्य माँगा और स्वामीको वनमें भेज दिया? जैसे चकोर चन्द्रमासे अनुराग करता है, वैसे ही जिनका मुख-कमल देखकर हम जीवित रहते हैं, उन श्रीरामके बिना अयोध्यासे हमारा क्या सम्बन्ध!’

महाराज दशरथकी अन्त्येष्टि

विषय (हिन्दी)

राग कान्हरौ

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३९)
गुरु बसिष्ठ भरतहि समुझायौ।
राजा कौ परलोक सँवारौ, जुग-जुग यह चलि आयौ॥
चंदन अगर सुगंध और घृत, बिधि करि चिता बनायौ।
चले बिमान संग गुरु-पुरजन, तापर नृप पौढ़ायौ॥
भस्म अंत तिल-अंजलि दीन्हीं, देव बिमान चढ़ायौ।
दिन दस लौं जलकुंभ साजि सुचि, दीप-दान करवायौ॥
जानि एकादस बिप्र बुलाए , भोजन बहुत करायौ।
दीन्हौ दान बहुत नाना बिधि, इहिं बिधि कर्म पुजायौ॥
सब करतूति कैकई के सिर, जिन यह दुख उपजायौ।
इहिं बिधि ‘सूर’ अयोध्या-बासी, दिन-दिन काल गँवायौ॥

मूल

(३९)
गुरु बसिष्ठ भरतहि समुझायौ।
राजा कौ परलोक सँवारौ, जुग-जुग यह चलि आयौ॥
चंदन अगर सुगंध और घृत, बिधि करि चिता बनायौ।
चले बिमान संग गुरु-पुरजन, तापर नृप पौढ़ायौ॥
भस्म अंत तिल-अंजलि दीन्हीं, देव बिमान चढ़ायौ।
दिन दस लौं जलकुंभ साजि सुचि, दीप-दान करवायौ॥
जानि एकादस बिप्र बुलाए , भोजन बहुत करायौ।
दीन्हौ दान बहुत नाना बिधि, इहिं बिधि कर्म पुजायौ॥
सब करतूति कैकई के सिर, जिन यह दुख उपजायौ।
इहिं बिधि ‘सूर’ अयोध्या-बासी, दिन-दिन काल गँवायौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरु वसिष्ठजीने भरतजीको समझाया—‘(जीवन-मरणका यह क्रम) युग-युगसे (अनादिकालसे) चला आ रहा है, (अतः शोक छोड़कर) अब महाराजके परलोकको सुधारो (उनका अन्त्येष्टि-संस्कार करो।)’ (गुरुकी आज्ञा मानकर भरतजीने) चन्दन, अगुरु आदि सुगन्धित काष्ठोंसे विधिपूर्वक चिता बनवायी और घृतादि पदार्थ उसमें डाले। महाराजके विमान (शव-यात्रा)-के साथ गुरु वसिष्ठ और सभी नगरवासी चले तथा उस चितापर महाराजके शरीरको सुला दिया। शरीरके भस्म हो जानेपर सबने तिलांजलि दी। महाराजको तो देवता विमानमें बैठाकर देवलोक ले गये। (भरतजीने) दस दिनतक जलभरा घड़ा सजाया (घट-बन्धन कर्म पूरा किया) और वहाँ दीप-दान करते रहे। एकादशाहके दिनको समझकर (शास्त्रानुसार उसका निश्चय करके) उस दिन ब्राह्मणोंको निमन्त्रित किया और उन्हें नाना प्रकारके भोजनोंसे तृप्त किया। अनेक प्रकारके दान उन्हें दिये। इस प्रकार अन्त्येष्टि-कर्म सम्पूर्ण किया। सूरदासजी कहते हैं—इन सब दुःखोंका दोष कैकेयीके सिर गया; जिन्होंने इस दुःखको उत्पन्न किया था। इस प्रकार अयोध्यावासियोंने किसी प्रकार एक-एक दिन गिनकर इतना समय व्यतीत किया।

भरतका चित्रकूट-गमन

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(४०)
राम पै भरत चले अतुराइ।
मनहीं मन सोचत मारग मैं, दई! फिरैं क्यों राघवराइ॥
देखि दरस चरननि लपटाने, गदगद कंठ न कछु कहि जाइ।
लीनो हृदय लगाइ ‘सूर’ प्रभु, पूछत भद्र भए क्यौं भाइ?॥

मूल

(४०)
राम पै भरत चले अतुराइ।
मनहीं मन सोचत मारग मैं, दई! फिरैं क्यों राघवराइ॥
देखि दरस चरननि लपटाने, गदगद कंठ न कछु कहि जाइ।
लीनो हृदय लगाइ ‘सूर’ प्रभु, पूछत भद्र भए क्यौं भाइ?॥

अनुवाद (हिन्दी)

(पिताका अन्त्येष्टि-कर्म पूरा हो जानेपर) श्रीभरतलाल बड़ी आतुरतापूर्वक श्रीरामके पास चले। मार्गमें मन-ही-मन वे यही चिन्ता कर रहे थे—‘हे विधाता! श्रीराघवेन्द्र कैसे लौटें?’ (चित्रकूट पहुँचकर) दर्शन करके श्रीरामके चरणोंमें लिपट गये, उनका कण्ठ गद्गद हो रहा था और वे कुछ बोल नहीं पाते थे। सूरदासजी कहते हैं—प्रभुने भाईको हृदयसे लगा लिया और पूछने लगे—‘भैया! तुमने सिर क्यों मुँडवा लिया?’

विषय (हिन्दी)

राग केदार

विश्वास-प्रस्तुतिः

(४१)
भ्रात-मुख निरखि राम बिलखाने।
मुंडित केस सीस, बिहबल दोउ, उमँगि कंठ लपटाने॥
तात-मरन सुनि स्रवन कृपानिधि धरनि परे मुरझाइ।
मोह-मगन, लोचन जल-धारा, बिपति न हृदय समाइ॥
लोटति धरनि परी सुनि सीता, समुझति नहिं समुझाई।
दारुन दुख दवारि ज्यौं तृन-बन, नाहिंन बुझति बुझाई॥
दुरलभ भयौ दरस दसरथ कौ, सो अपराध हमारे।
‘सूरदास’ स्वामी करुनामय, नैन न जात उघारे॥

मूल

(४१)
भ्रात-मुख निरखि राम बिलखाने।
मुंडित केस सीस, बिहबल दोउ, उमँगि कंठ लपटाने॥
तात-मरन सुनि स्रवन कृपानिधि धरनि परे मुरझाइ।
मोह-मगन, लोचन जल-धारा, बिपति न हृदय समाइ॥
लोटति धरनि परी सुनि सीता, समुझति नहिं समुझाई।
दारुन दुख दवारि ज्यौं तृन-बन, नाहिंन बुझति बुझाई॥
दुरलभ भयौ दरस दसरथ कौ, सो अपराध हमारे।
‘सूरदास’ स्वामी करुनामय, नैन न जात उघारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाई (भरतजी)- का मुख देखकर श्रीराम रुदन करने लगे। दोनों भाइयोंके मस्तकके केश मुण्डित हो चुके थे, वे अत्यन्त व्याकुल होकर आतुरतापूर्वक श्रीरामके गले लिपट गये थे। कृपानिधान श्रीरामने जैसे ही पिताकी मृत्यु कानोंसे सुनी, वे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। शोकमें मग्न होकर नेत्रोंसे अश्रुधारा बहाने लगे, पीड़ा हृदयमें समा नहीं रही थी। श्रीजानकीजी यह समाचार सुनकर (व्याकुल होकर) पृथ्वीपर पछाड़ें खाने लगीं, समझानेसे भी समझती नहीं थीं (उन्हें धैर्य नहीं होता था)। जैसे तृणोंके (कास या मूँजके) वनमें दावाग्नि लग जाय और बुझानेपर भी न बुझे, ऐसा ही दारुण दुःख यह आया। सूरदासजी कहते हैं—करुणामय प्रभुसे नेत्र भी खोले नहीं जाते थे। वे यही सोच रहे थे कि महाराज दशरथका दर्शन अब दुर्लभ हो गया और वह मेरे ही दोषसे।

श्रीराम-भरत-संवाद

विषय (हिन्दी)

राग केदार

विश्वास-प्रस्तुतिः

(४२)
तुमहि बिमुख रघुनाथ, कौन बिधि जीवन कहा बनै।
चरन-सरोज बिना अवलोके, को सुख धरनि गनै॥
हठ करि रहे, चरन नहिं छाँड़े, नाथ तजौ निठुराई।
परम दुखी कौसल्या जननी, चलौ सदन रघुराई॥
चौदह बरष तात की आज्ञा, मोपै मेटि न जाई।
‘सूर’ स्वामि की पाँवर सिर धरि,भरत चले बिलखाई॥

मूल

(४२)
तुमहि बिमुख रघुनाथ, कौन बिधि जीवन कहा बनै।
चरन-सरोज बिना अवलोके, को सुख धरनि गनै॥
हठ करि रहे, चरन नहिं छाँड़े, नाथ तजौ निठुराई।
परम दुखी कौसल्या जननी, चलौ सदन रघुराई॥
चौदह बरष तात की आज्ञा, मोपै मेटि न जाई।
‘सूर’ स्वामि की पाँवर सिर धरि,भरत चले बिलखाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीभरतजी बोले)—‘श्रीरघुनाथजी! आपसे विमुख होकर किस प्रकार जीवित रहा जा सकता है, आपके चरणकमलोंको देखे बिना इस पृथ्वीके सुखोंकी भला, कौन परवा करेगा!’ (यह कहकर) आग्रहपूर्वक चरणोंको पकड़े रहे, उन्हें छोड़ा नहीं (और प्रार्थना करने लगे—) ‘स्वामी! अब निष्ठुरता छोड़ दो! माता कौसल्या अत्यन्त दुःखी हो रही हैं, अतः श्रीरघुनाथजी! अब आप घर लौट चलें।’ (यह सुनकर श्रीरामजीने कहा)—‘पिताकी आज्ञा चौदह वर्ष वनमें रहनेकी है, वह मुझसे तोड़ी नहीं जाती।’ सूरदासजी कहते हैं—(विवश होकर विलाप करते हुए भरतजी स्वामी (श्रीराम)-की चरणपादुका मस्तकपर रखकर (अयोध्या) लौट चले।

रामोपदेश भरतके प्रति

विषय (हिन्दी)

राग मारू

विश्वास-प्रस्तुतिः

(४३)
बंधू! करियो राज सँभारें।
राजनीति अरु गुरु की सेवा, गाइ-बिप्र प्रतिपारें॥
कौसल्या-कैकई-सुमित्रा-दरसन साँझ-सवारें।
गुरु बसिष्ठ और मिलि सुमंत सौं, परजा-हेतु बिचारें॥
भरत-गात सीतल ह्वै आयौ, नैन उमँगि जल ढारे।
‘सूरदास’ प्रभु दई पाँवरी, अवधपुरी पग धारे॥

मूल

(४३)
बंधू! करियो राज सँभारें।
राजनीति अरु गुरु की सेवा, गाइ-बिप्र प्रतिपारें॥
कौसल्या-कैकई-सुमित्रा-दरसन साँझ-सवारें।
गुरु बसिष्ठ और मिलि सुमंत सौं, परजा-हेतु बिचारें॥
भरत-गात सीतल ह्वै आयौ, नैन उमँगि जल ढारे।
‘सूरदास’ प्रभु दई पाँवरी, अवधपुरी पग धारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीरामजीने चलते समय भरतजीको समझाया—) ‘भाई! राजकार्य सावधानीसे करना। राजनीतिके अनुसार व्यवहार करना, गुरुकी सेवा करना, गौ तथा ब्राह्मणोंका पालन करना। कौसल्या, कैकेयी तथा सुमित्रा—तीनों ही माताओंका प्रातः-सायं दर्शन कर लिया करना (उनकी देख-भाल रखना)। गुरु वसिष्ठजी तथा (मन्त्री) सुमन्त्रसे मिलकर प्रजाके हितका विचार करना।’ (यह सुनकर) भरतजीका शरीर शिथिल हो गया, उनके नेत्रोंसे आँसूकी धारा उमड़ चली। सूरदासजी कहते हैं—श्रीरामने अपनी चरणपादुका उन्हें दी, (उसे लेकर) वे अयोध्या लौटे।

भरत-विदा

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(४४)
राम यौं भरत बहुत समझायौ।
कौसिल्या, कैकई, सुमित्रहि पुनि-पुनि सीस नवायौ॥
गुरु बसिष्ठ अरु मिलि सुमंत सौं, अतिहीं प्रेम बढ़ायौ।
बालक प्रतिपालक तुम दोऊ, दसरथ-लाड़ लड़ायौ॥
भरत-शत्रुहन कियौ प्रनाम, रघुबर तिन्ह कंठ लगायौ।
गद्गद गिरा, सजल अति लोचन, हिय सनेह-जल छायौ॥
कीजै यहै बिचार परसपर, राजनीति समुझायौ।
सेवा मातु, प्रजा-प्रतिपालन, यह जुग-जुग चलि आयौ॥
चित्रकूट तें चले खीन-तन, मन बिस्राम न पायौ।
‘सूरदास’ बलि गयौ राम कैं, निगम नेति जिहिं गायौ॥

मूल

(४४)
राम यौं भरत बहुत समझायौ।
कौसिल्या, कैकई, सुमित्रहि पुनि-पुनि सीस नवायौ॥
गुरु बसिष्ठ अरु मिलि सुमंत सौं, अतिहीं प्रेम बढ़ायौ।
बालक प्रतिपालक तुम दोऊ, दसरथ-लाड़ लड़ायौ॥
भरत-शत्रुहन कियौ प्रनाम, रघुबर तिन्ह कंठ लगायौ।
गद्गद गिरा, सजल अति लोचन, हिय सनेह-जल छायौ॥
कीजै यहै बिचार परसपर, राजनीति समुझायौ।
सेवा मातु, प्रजा-प्रतिपालन, यह जुग-जुग चलि आयौ॥
चित्रकूट तें चले खीन-तन, मन बिस्राम न पायौ।
‘सूरदास’ बलि गयौ राम कैं, निगम नेति जिहिं गायौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामने इस प्रकार श्रीभरतजीको बहुत समझाया। (फिर) माता कौसल्या, कैकेयी और सुमित्राके चरणोंमें बार-बार मस्तक झुकाकर उनकी वन्दना की। गुरु वसिष्ठजी तथा मन्त्री सुमन्त्रसे मिलकर उनके प्रेमको अत्यन्त बढ़ा दिया। (उनसे बोले)—‘आप दोनोंने पिता दशरथजीके समान हम बालकोंका प्यार-दुलार किया है, हमारा पालन करनेवाले तो अब (भी) आप (ही) दोनों हैं।’ भरत और शत्रुघ्नने (चलते समय) प्रणाम किया, श्रीरघुनाथने दोनों भाइयोंको गले लगा लिया। वाणी गद्गद हो गयी, नेत्रोंमें अश्रु भर आये, प्रेमके रससे हृदय उमड़ पड़ा। (भाइयोंको) राजनीति समझाते हुए बोले—‘परस्पर (मिलकर) यही विचार करना कि माताओंकी सेवा और प्रजाका पालन—यही युग-युगसे चलता आया (राजाका) सनातन धर्म है।’ (इस प्रकार विदा होकर भरत-शत्रुघ्न) चित्रकूटसे क्षीण-शरीर होकर लौटे, उनके मनको शान्ति नहीं मिली थी। सूरदासजी कहते हैं—मैं तो श्रीरामपर न्योछावर हूँ; जिनका वर्णन वेद भी ‘नेति-नेति’ (इनकी महिमाका अन्त नहीं) कहकर करते हैं।