०१ बालकाण्ड

जन्मोत्सव

विषय (हिन्दी)

राग कान्हरौ

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२)
रघुकुल प्रगटे हैं रघुबीर।
देस-देस तें टीकौ आयौ, रतन-कनक-मनि-हीर॥
घर-घर मंगल होत बधाई, अति पुरबासिनि भीर।
आनँद-मगन भए सब डोलत, कछू न सोध सरीर॥
मागध-बंदी-सूत लुटाए , गो-गयंद हय-चीर।
देत असीस ‘सूर’, चिरजीवौ रामचंद्र रनधीर॥

मूल

(२)
रघुकुल प्रगटे हैं रघुबीर।
देस-देस तें टीकौ आयौ, रतन-कनक-मनि-हीर॥
घर-घर मंगल होत बधाई, अति पुरबासिनि भीर।
आनँद-मगन भए सब डोलत, कछू न सोध सरीर॥
मागध-बंदी-सूत लुटाए , गो-गयंद हय-चीर।
देत असीस ‘सूर’, चिरजीवौ रामचंद्र रनधीर॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुवीर रघुकुलमें प्रकट हुए हैं। (उनके जन्मोपलक्षमें) देश-देश (के अधीनस्थ माण्डलिक राजाओंके पास)-से (महाराज दशरथके पास) भेंटके रूपमें स्वर्ण, मणियाँ तथा हीरे आदि नाना प्रकारके रत्न आये हैं। (अयोध्याके) प्रत्येक घरमें मंगलाचार एवं बधाई हो रही है। (राजभवनमें) नगरवासियोंकी बहुत बड़ी भीड़ हो रही है। सभी लोग आनन्दमग्न हुए घूम रहे हैं, उन्हें अपने शरीरकी भी कोई सुधि नहीं है। (महाराजने) मागध, बंदीजन और सूत आदि यशोगान करनेवालोंको गायें, हाथी, घोड़े और अनेक प्रकारके वस्त्र लुटाये हैं (जिसकी जो इच्छा हो, वह ले ले—ऐसी घोषणा कर दी है)। सूरदास भी आशीर्वाद देते हैं कि रणधीर श्रीरामचन्द्र चिरजीवी हों।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३)
अजोध्या बाजति आजु बधाई।
गर्भ मुच्यौ कौसिल्या माता, रामचंद्र निधि आई॥
गावैं सखी परसपर मंगल, रिषि अभिषेक कराई।
भीर भई दसरथ कें आँगन, सामबेद-धुनि छाई॥
पूछत रिषिहिं अजोध्या कौ पति, कहियै जनम गुसाईं।
भौम बार, नौमी तिथि नीकी, चौदह भुवन बड़ाई॥
चारि पुत्र दसरथ कें उपजे, तिहूँ लोक ठकुराई।
सदा-सर्बदा राज राम कौ, ‘सूर’ दादि तहँ पाई॥

मूल

(३)
अजोध्या बाजति आजु बधाई।
गर्भ मुच्यौ कौसिल्या माता, रामचंद्र निधि आई॥
गावैं सखी परसपर मंगल, रिषि अभिषेक कराई।
भीर भई दसरथ कें आँगन, सामबेद-धुनि छाई॥
पूछत रिषिहिं अजोध्या कौ पति, कहियै जनम गुसाईं।
भौम बार, नौमी तिथि नीकी, चौदह भुवन बड़ाई॥
चारि पुत्र दसरथ कें उपजे, तिहूँ लोक ठकुराई।
सदा-सर्बदा राज राम कौ, ‘सूर’ दादि तहँ पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज अयोध्यामें बधाईके मंगलवाद्य बज रहे हैं। माता कौसल्याका गर्भकाल पूरा हो गया और उससे श्रीरामचन्द्ररूपी महान् निधि (पृथ्वीपर) आ गयी। सखियाँ परस्पर मिलकर मंगल-गान कर रही हैं। महर्षि वसिष्ठजीने (जातकर्म-संस्कारका) अभिषेक कराया। महाराज दशरथके आँगनमें भीड़ हो रही है और (ब्राह्मणोंके मुखसे निकली हुई) सामवेदके गानकी ध्वनि (आकाशमें) छा गयी। अयोध्यानाथ महाराज दशरथ महर्षिसे पूछ रहे हैं—‘हे स्वामी! (बालकका) जन्म-फल बतलाइये!’ (महर्षिने कहा—) मंगलवारको पड़नेवाली नवमी तिथि बहुत उत्तम है; (इस मुहूर्तमें जन्म होनेके कारण) इनका बड़प्पन चौदहों भुवनोंमें व्याप्त होगा। महाराज दशरथके चार पुत्र (श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न) उत्पन्न हुए , जिनका प्रभुत्व तीनों लोकोंपर स्थापित हो गया। (इनमें) श्रीराजा रामका राज्य तो सदा-सर्वदा है ही। सूरदासने भी वहींसे वाह-वाही प्राप्त की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(४)
आजु दसरथ कें आँगन भीर।
ये भू-भार उतारन कारन, प्रगटे स्याम-सरीर॥
फूले फिरत अजोध्या-बासी, गनत न त्यागत चीर।
परिरंभन हँसि देत परसपर, आनँद नैननि नीर॥
त्रिदस-नृपति, रिषि ब्यौम-बिमाननि देखत रह्यौ न धीर।
त्रिभुवन-नाथ दयालु दरस दै, हरी सबनि की पीर॥
देत दान राख्यौ न भूप कछु, महा बड़े नग हीर।
भए निहाल ‘सूर’ सब जाचक, जे जाँचे रघुबीर॥

मूल

(४)
आजु दसरथ कें आँगन भीर।
ये भू-भार उतारन कारन, प्रगटे स्याम-सरीर॥
फूले फिरत अजोध्या-बासी, गनत न त्यागत चीर।
परिरंभन हँसि देत परसपर, आनँद नैननि नीर॥
त्रिदस-नृपति, रिषि ब्यौम-बिमाननि देखत रह्यौ न धीर।
त्रिभुवन-नाथ दयालु दरस दै, हरी सबनि की पीर॥
देत दान राख्यौ न भूप कछु, महा बड़े नग हीर।
भए निहाल ‘सूर’ सब जाचक, जे जाँचे रघुबीर॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज महाराज दशरथके आँगनमें भीड़ हो रही है। (क्योंकि उनके यहाँ) पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये (नवजलधर—) श्यामवर्ण श्रीराम प्रकट हुए हैं। अयोध्यानिवासी आनन्दसे प्रफुल्लित हुए घूम रहे हैं, वे अपने (शरीरका) वस्त्रतक त्यागने (बाँटने)-में कुछ भी परवा नहीं करते (वस्त्रोंतककी उन्हें आज अपेक्षा नहीं है)। वे आपसमें एक-दूसरेको हँसते हुए हृदयसे लगाकर भेंटते हैं, उनके नेत्रोंसे आनन्दाश्रु बह रहे हैं। देवताओंके राजा इन्द्र और ऋषिगण आकाशसे विमानोंमें बैठे (यह महोत्सव) देख रहे हैं, उनके चित्तमें भी धैर्य नहीं रहा है। त्रिभुवनके स्वामी दयालु प्रभुने दर्शन देकर सबकी मनोव्यथा हर ली। महाराज दशरथने दान देते समय महामूल्यवान् मणि एवं हीरे आदि कुछ भी शेष नहीं रखा (सब दान कर दिया)। सूरदासजी कहते हैं—जिन्होंने भी श्रीरघुवीरसे याचना की, वे सब याचक निहाल (सदाके लिये परितृप्त) हो गये।

शर-क्रीड़ा

विषय (हिन्दी)

राग बिलावल

विश्वास-प्रस्तुतिः

(५)
करतल सोभित बान-धनुहियाँ।
खेलत फिरत कनकमय आँगन, पहिरें लाल पनहियाँ॥
दसरथ-कौसिल्या के आगें, लसत सुमनकी छहियाँ।
मानौ चारि हंस सरबर तें बैठे आइ सदेहियाँ॥
रघुकुल-कुमुद-चंद चिंतामनि, प्रगटे भूतल महियाँ।
आए ओप दैन रघुकुल कौं, आनँद-निधि सब कहियाँ॥
यह सुख तीनि लोक मैं नाहीं, जो पाए प्रभु पहियाँ।
‘सूरदास’ हरि बोलि भक्त कौं, निरबाहत गहि बहियाँ॥

मूल

(५)
करतल सोभित बान-धनुहियाँ।
खेलत फिरत कनकमय आँगन, पहिरें लाल पनहियाँ॥
दसरथ-कौसिल्या के आगें, लसत सुमनकी छहियाँ।
मानौ चारि हंस सरबर तें बैठे आइ सदेहियाँ॥
रघुकुल-कुमुद-चंद चिंतामनि, प्रगटे भूतल महियाँ।
आए ओप दैन रघुकुल कौं, आनँद-निधि सब कहियाँ॥
यह सुख तीनि लोक मैं नाहीं, जो पाए प्रभु पहियाँ।
‘सूरदास’ हरि बोलि भक्त कौं, निरबाहत गहि बहियाँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अवधराजकुमारोंके) हाथोंमें छोटे-छोटे धनुष और बाण शोभित हो रहे हैं। (चरणोंमें) लाल-लाल जूतियाँ पहने वे (महाराजके) स्वर्णमय आँगनमें खेलते हुए घूम रहे हैं। महाराज दशरथ तथा महारानी कौसल्याके सामने पुष्पवृक्षकी छायामें चारों राजकुमार इस प्रकार शोभा दे रहे हैं मानो मानसरोवरसे निकलकर चार हंस सशरीर बैठ गये हैं। रघुकुलरूपी कुमुदिनीके लिये चन्द्रमाके समान (हर्षदायक), चिन्तामणिस्वरूप (सबकी आशाओं-इच्छाओंको पूर्ण करनेवाले) श्रीराम पृथ्वीपर प्रकट हुए हैं। वे सबके लिये आनन्दनिधि हैं और रघुकुलको शोभित करने पधारे हैं। जो सुख प्रभु श्रीरामसे (अवधवासियोंने) प्राप्त किया है, वह सुख तीनों लोकोंमें (कहीं) नहीं है। सूरदासजी कहते हैं—श्रीहरिका नाम लेनेवाले भक्तका हाथ पकड़कर वे निर्वाह (रक्षा) करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(६)
धनुहीं-बान लए कर डोलत।
चारों बीर संग इक सोभित, बचन मनोहर बोलत॥
लछिमन, भरत, सत्रुहन सुंदर, राजिवलोचन राम।
अति सुकुमार, परम पुरुषारथ, मुक्ति-धर्म-धन-धाम॥
कटि-तट पीत पिछौरी बाँधें, काकपच्छ धरें सीस।
सर-क्रीड़ा दिन देखन आवत, नारद, सुर तैंतीस॥
सिव-मन-सकुच, इंद्र-मन आनँद, सुख-दुख बिधिहि समान।
दिति दुर्बल अति, अदिति हृष्टचित, देखि ‘सूर’ संधान॥

मूल

(६)
धनुहीं-बान लए कर डोलत।
चारों बीर संग इक सोभित, बचन मनोहर बोलत॥
लछिमन, भरत, सत्रुहन सुंदर, राजिवलोचन राम।
अति सुकुमार, परम पुरुषारथ, मुक्ति-धर्म-धन-धाम॥
कटि-तट पीत पिछौरी बाँधें, काकपच्छ धरें सीस।
सर-क्रीड़ा दिन देखन आवत, नारद, सुर तैंतीस॥
सिव-मन-सकुच, इंद्र-मन आनँद, सुख-दुख बिधिहि समान।
दिति दुर्बल अति, अदिति हृष्टचित, देखि ‘सूर’ संधान॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों भाई एक साथ शोभित हो रहे हैं, वे बड़ी मनोहारिणी वाणी बोलते हैं और छोटे-छोटे धनुष-बाण हाथोमें लिये घूम रहे हैं। श्रीलक्ष्मणलाल, कुमार भरत, परम सुन्दर शत्रुघ्न और कमलनयन श्रीराम—चारों ही अत्यन्त सुकुमार हैं; ये (स्वयं) परम पुरुषार्थरूप तथा अर्थ, धर्म एवं मोक्षके भण्डार हैं। कमरमें पीताम्बरकी पिछौरी (चद्दर) बाँधे, मस्तकपर अलकावली लहराते इन कुमारोंकी बाण-क्रीड़ा देखने देवर्षि नारद तथा तैंतीसों देवता आया करते हैं। सूरदासजी कहते हैं कि इनका शर-संधान (लक्ष्यवेध) देखकर शंकरजीके मनमें संकोच होता है (कि उनके भक्त असुरोंको ये मारेंगे), देवराज इन्द्रके मनमें (अपने शत्रुओंके मारे जानेकी आशासे) आनन्द होता है और ब्रह्माजीके (देवता-असुर दोनोंके पिता होनेसे) सुख-दुःख समानरूपसे होता है; दैत्यमाता दिति अत्यन्त दुर्बल हो रही हैं (क्योंकि उनकी संतानोंको ये मारेंगे) और देवमाता अदिति (अपने पुत्रोंकी विजय सोचकर) अपने चित्तमें हर्षित होती हैं।

विश्वामित्र-यज्ञ-रक्षा

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(७)
दसरथ सौं रिषि आनि कह्यौ।
असुरनि सौं जग होन न पावत, राम-लषन तब संग दयौ॥
मारि ताड़का, यज्ञ करायौ, बिस्वामित्र अनंद भयौ।
सीय-स्वयंबर जानि ‘सूर’-प्रभु कौं लै रिषि ता ठौर गयौ॥

मूल

(७)
दसरथ सौं रिषि आनि कह्यौ।
असुरनि सौं जग होन न पावत, राम-लषन तब संग दयौ॥
मारि ताड़का, यज्ञ करायौ, बिस्वामित्र अनंद भयौ।
सीय-स्वयंबर जानि ‘सूर’-प्रभु कौं लै रिषि ता ठौर गयौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथसे महर्षि विश्वामित्रने आकर कहा कि असुरोंके (उपद्रवके) मारे यज्ञ हो नहीं पाता; तब (महाराज दशरथने) श्रीराम और लक्ष्मणको उनके संग कर दिया। (श्रीरामने) राक्षसी ताड़का (तथा उसके दलके अन्य राक्षसों)-को मारकर यज्ञ (निर्विघ्न) पूर्ण करा दिया, इससे महर्षि विश्वामित्रजीको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। सूरदासजी कहते हैं—(यज्ञ पूर्ण होनेके अनन्तर) सीताजीके स्वयंवरका समाचार पाकर महर्षि मेरे स्वामी श्रीरामको साथ लेकर उस स्थान (जनकपुर)-को गये।

अहल्योद्धार

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(८)
गंगा-तट आए श्रीराम।
तहाँ पषान-रूप पग परसे, गौतम रिषि की बाम॥
गई अकास देव-तन धरि कै, अति सुंदर अभिराम।
‘सूरदास’ प्रभु पतित-उधारन-बिरद, कितौ यह काम!॥

मूल

(८)
गंगा-तट आए श्रीराम।
तहाँ पषान-रूप पग परसे, गौतम रिषि की बाम॥
गई अकास देव-तन धरि कै, अति सुंदर अभिराम।
‘सूरदास’ प्रभु पतित-उधारन-बिरद, कितौ यह काम!॥

अनुवाद (हिन्दी)

(जनकपुरके मार्गमें जाते हुए) श्रीराम गंगाजीके किनारे आये। वहाँ उन्होंने गौतम ऋषिकी पत्नी (अहल्या)-को, जो पत्थरके रूपमें थी, अपने चरणसे स्पर्श किया। (श्रीरामके चरणोंका स्पर्श होते ही) वह अत्यन्त सुन्दर मनोहारी देवस्वरूप धारण करके आकाशमें (देवलोकको) चली गयी। सूरदासजी कहते हैं—प्रभु श्रीरामका तो सुयश ही पतितोद्धारक है, उनके लिये यह काम क्या महत्त्व रखता है।

जनकपुरमें

विषय (हिन्दी)

राग केदार

विश्वास-प्रस्तुतिः

(९)
देखौ माई! राम-लखन दोउ आवत।
मधुर चालि, दृग भले मनोहर, खंजन लोल कुरंग लजावत॥
कनक लता……..विकट तरल मधि लोल पवन बिचलावत।
पिक सरोज कुंचित लोहित………….निमिष………….बुलावत॥
मृगमद तिलक…………………..कर पंकज…………………….।
लेन सकल नवनलिन सुर सिहरति जिय पराग अलि तो कुल पावत।
कबहुँक मिलत सहज ही अँकवति, निपट प्रीति बिलसावत।
किसलय-चारु बदन चितवत…………नगन बिथा…………..।
यद्यपि हुते दूर ‘सूरज’ प्रभु, तिय अंतर लपटावत॥

मूल

(९)
देखौ माई! राम-लखन दोउ आवत।
मधुर चालि, दृग भले मनोहर, खंजन लोल कुरंग लजावत॥
कनक लता……..विकट तरल मधि लोल पवन बिचलावत।
पिक सरोज कुंचित लोहित………….निमिष………….बुलावत॥
मृगमद तिलक…………………..कर पंकज…………………….।
लेन सकल नवनलिन सुर सिहरति जिय पराग अलि तो कुल पावत।
कबहुँक मिलत सहज ही अँकवति, निपट प्रीति बिलसावत।
किसलय-चारु बदन चितवत…………नगन बिथा…………..।
यद्यपि हुते दूर ‘सूरज’ प्रभु, तिय अंतर लपटावत॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरी माई! (हे सखी!) देखो, राम-लक्ष्मण दोनों भाई (इधर) आ रहे हैं। इनकी चाल (गति) बहुत सुन्दर है और इनके नेत्र तो इतने सुन्दर एवं मनोहारी हैं कि खंजन तथा चंचल मृग (मृगके चंचल नेत्र)-को भी लज्जित करते हैं। (शरीर) स्वर्णलताके समान (सुन्दर है।) मध्यभाग कटि अत्यन्त पतली है, जिसे चंचल पवन विचलित कर देता है। (इतने सुकुमार हैं कि वायु लगनेसे ही सूक्ष्म कटि हिल जाया करती है।) वाणी कोकिलके समान मधुर है, कमल (नेत्र) कुछ लालिमा लिये तथा (नम्रतासे) झुके हैं और पलकें इस प्रकार गिरती हैं, मानो (देखनेवालोंको) पास बुला रहे हों। (ललाटपर) कस्तूरीका तिलक लगा है। (लाल-लाल) कमलदलके समान करोंमें (धनुष और बाण शोभित हो रहा है)। सभी देवता इस (श्रीराम-लक्ष्मणके) मुखरूपी नवविकसित कमलमुखका पराग लेनेके लिये अपने चित्तरूपी भ्रमरको उत्सुक रखते हैं (देवताओंका चित्त भी इस श्रीमुखकी शोभापर लुब्ध रहता है), वे अपने मनमें सदा उत्सुक रहते हैं कि इस मुखकमलका पराग पाकर हम अपने कुलको पवित्र कर लें। (इस प्रकार कामना तथा बातचीत करती हुई जनकपुरकी नारियाँ) कभी तो बड़ी सावधानीसे (मन-ही-मन श्रीरामसे) मिलती हैं और उन्हें अंकमाल देती हैं और (हृदयमें) अत्यन्त प्रेमोद्रेकको प्रकट करती हैं और कभी उनके नूतन पल्लवके समान सुन्दर मुखको देखती हुई (हृदयकी) खुली व्यथा (मिल न सकनेकी पीड़ा)-से (अपनी सुध-बुध भी खो देती हैं)। सूरदासजी कहते हैं कि यद्यपि प्रभु श्रीराम दूर (मार्गपर) थे, किंतु (जनकपुरकी) स्त्रियाँ मन-ही-मन उन्हें हृदयसे लगा लेती थीं।

धनुष-भंग

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१०)
चितै रघुनाथ-बदन की ओर।
रघुपति सों अब नेम हमारौ, बिधि सों करति निहोर॥
यह अति दुसह पिनाक, पिता-प्रन, राघव-बयस किसोर।
इन पै दीरघ धनुष चढ़ै क्यौं, सखि! यह संसय मोर॥
सिय-अंदेस जानि ‘सूरज’ प्रभु लियौ करज की कोर।
टूटत धनु नृप लुके जहाँ-तहँ, ज्यौं तारागन भोर॥

मूल

(१०)
चितै रघुनाथ-बदन की ओर।
रघुपति सों अब नेम हमारौ, बिधि सों करति निहोर॥
यह अति दुसह पिनाक, पिता-प्रन, राघव-बयस किसोर।
इन पै दीरघ धनुष चढ़ै क्यौं, सखि! यह संसय मोर॥
सिय-अंदेस जानि ‘सूरज’ प्रभु लियौ करज की कोर।
टूटत धनु नृप लुके जहाँ-तहँ, ज्यौं तारागन भोर॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीजानकी) श्रीरघुनाथके श्रीमुखकी ओर देखकर विधातासे निहोरा करती हैं कि हमारा नियम (विवाहका मेरा निश्चय) तो अब श्रीरघुपतिसे ही है; (हे भाग्यविधाता! तुम उसे पूरा करो!) यह पिनाक (श्रीशंकरजीका धनुष) और (इसे तोड़नेका) पिताका प्रण—ये दोनों दुःसह हैं (बड़ी कठिनाईसे धनुष किसीसे कदाचित् ही उठ सकता है) और श्रीराघव अभी किशोरावस्थाके (अत्यन्त सुकुमार) हैं; (फिर सखीसे कहती हैं—) हे सखी! यह मुझे बड़ा संदेह है कि इनसे यह विशाल धनुष कैसे चढ़ाया जायगा। सूरदासजी कहते हैं—प्रभुने श्रीजानकीका यह असमंजस जान करके हाथके नखकी नोकपर धनुष उठा लिया (और चढ़ाकर तोड़ दिया)। धनुषके टूटते ही (स्वयंवरसभामें आये हुए) सब नरेश जहाँ-तहाँ इस प्रकार छिप गये, जैसे सबेरा होनेपर तारे छिप जाते हैं।

दशरथका जनकपुर-आगमन

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(११)
महाराज दसरथ तहँ आए।
बैठे जाइ जनक-मंदिर महँ, मोतिनि चौक पुराए॥
बिप्र लगे धुनि बेद उचारन, जुबतिनि मंगल गाए।
सुर-गँधर्ब-गन कोटिक आए , गगन बिमाननि छाए॥
राम-लषन अरु भरत-सत्रुहन-ब्याह निरखि सुख पाए।
‘सूर’ भयौ आनंद नृपति-मन, दिबि दुंदुभी बजाए॥

मूल

(११)
महाराज दसरथ तहँ आए।
बैठे जाइ जनक-मंदिर महँ, मोतिनि चौक पुराए॥
बिप्र लगे धुनि बेद उचारन, जुबतिनि मंगल गाए।
सुर-गँधर्ब-गन कोटिक आए , गगन बिमाननि छाए॥
राम-लषन अरु भरत-सत्रुहन-ब्याह निरखि सुख पाए।
‘सूर’ भयौ आनंद नृपति-मन, दिबि दुंदुभी बजाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथ वहाँ (जनकपुरमें बारात सजाकर) आये और महाराज जनकके राजभवनमें जाकर बैठे, जहाँ मोतियोंसे चौक पुराये (वैवाहिक मण्डप सजाये) गये थे। ब्राह्मणवृन्द वेद-पाठ करने लगे और युवतियोंने मंगलगान प्रारम्भ किया। (श्रीराम-विवाह देखने) करोड़ों देवता और गन्धर्वोंके समूह आये, उनके विमानोंसे आकाश भर गया। श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्नका विवाह देखकर उन्होंने अत्यन्त आनन्दका अनुभव किया। सूरदासजी कहते हैं कि महाराज दशरथके हृदयमें अत्यन्त आनन्द हुआ। देवतागण आकाशमें नगारे बजाने लगे।

कंकण-मोचन

विषय (हिन्दी)

राग आसावरी

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१२)
कर कंपै, कंकन नहिं छूटै।
राम सिया-कर-परस मगन भए , कौतुक निरखि सखी सुख लूटैं॥
गावत नारि गारि सब दै-दै, तात-भ्रात की कौन चलावै।
तब कर-डोरि छुटै रघुपति जू, जब कौसिल्या माता आवै॥
पूँगीफल-जुत जल निरमल धरि, आनी भरि कुंडी जो कनक की।
खेलत जूप सकल जुबतिनि मैं हारे रघुपति, जिती जनक की॥
धरे निसान अजिर गृह मंगल, बिप्र बेद-अभिषेक करायौ।
‘सूर’ अमित आनंद जनकपुर, सोइ सुकदेव पुराननि गायौ॥

मूल

(१२)
कर कंपै, कंकन नहिं छूटै।
राम सिया-कर-परस मगन भए , कौतुक निरखि सखी सुख लूटैं॥
गावत नारि गारि सब दै-दै, तात-भ्रात की कौन चलावै।
तब कर-डोरि छुटै रघुपति जू, जब कौसिल्या माता आवै॥
पूँगीफल-जुत जल निरमल धरि, आनी भरि कुंडी जो कनक की।
खेलत जूप सकल जुबतिनि मैं हारे रघुपति, जिती जनक की॥
धरे निसान अजिर गृह मंगल, बिप्र बेद-अभिषेक करायौ।
‘सूर’ अमित आनंद जनकपुर, सोइ सुकदेव पुराननि गायौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम जनकनन्दिनी श्रीसीताजीके हाथका स्पर्श करके प्रेममग्न हो गये। (प्रेमाधिक्यके कारण) उनका हाथ काँपने लगा, इससे कंकण छूट नहीं पाता था; इस दृश्यको देखकर (श्रीजानकीकी) सखियाँ बहुत आनन्द प्राप्त कर रही थीं। सब (जनकपुरकी) स्त्रियाँ ताली बजा-बजाकर गाली गाने लगीं। (उन्होंने गायनमें ही कहा—) ‘हे रघुपतिजी! तुम्हारे पिता और भाइयोंकी क्या बिसात है; यह (श्रीजानकीके) हाथकी कंकण-डोरी तब खुलेगी, जब माता कौसल्या आयें।’ स्वर्णकी कुण्डी (जलपात्र)-में सुपारी और फलके साथ निर्मल जल भरकर ले आकर (नारियोंने वर-वधूके सामने) रख दिया। जूप (वर-वधूका जुआ) युवतियोंके मध्यमें खेलते हुए श्रीरघुपति हार गये और श्रीजनकनन्दिनी जीत गयीं। भवनके आँगनमें मंगल-चिह्न रखे हुए थे, ब्राह्मणोंने वेद-पाठके साथ (वर-वधूद्वारा) उनका अभिषेक करवाया। सूरदासजी कहते हैं कि उस समय जनकपुरमें अपार आनन्द फैल रहा था, उसीका वर्णन श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवतपुराणमें किया है।

धनुष-भंग, पाणिग्रहण

विषय (हिन्दी)

राग नट

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१३)
ललित गति राजत अति रघुबीर।
नरपति-सभा-मध्य मनौ ठाढ़े, जुगल हंस मतिधीर॥
अलख अनंत अपरिमित महिमा, कटि-तट कसे तुनीर।
कर धनु, काकपच्छ सिर सोभित, अंग-अंग दोउ बीर॥
भूषन बिबिध बिसद अंबर जुत, सुंदर स्याम सरीर।
देखत मुदित चरित्र सबै सुर, ब्यौम बिमाननि भीर॥
प्रमुदित जनक निरखि मुख-अंबुज, प्रगट नैन मधि नीर।
तात कठिन प्रन जानि जानकी, आनति नहिं उर धीर॥
करुनामय जब चाप लियौ कर, बाँधि सुदृढ़ कटि-चीर।
भूभृत-सीस नमित जो गर्बगत, पावक सींच्यौ नीर॥
डोलत महि अधीर भयौ फनिपति, कूरम अति अकुलान।
दिग्गज चलित, खलित मुनि-आसन, इंद्रादिक भय मान॥
रबि मग तज्यौ, तरकि ताके हय, उत्पथ लागे जान।
सिव-बिरंचि ब्याकुल भए धुनि सुनि, तब तोरॺौ भगवान॥
भंजन-सब्द प्रगट अति अद्भुत, अष्ट दिसा नभ पूरि।
स्रवन-हीन सुनि भए अष्टकुल नाग गरब भय चूरि॥
इष्ट-सुरनि बोलत नर तिहि सुनि, दानव-सुर बड़ सूर।
मोहित बिकल जानि जिय सबही, महाप्रलय कौ मूर॥
पानि-ग्रहन रघुबर बर कीन्ह्यौ, जनकसुता सुख दीन।
जय-जय धुनि सुनि करत अमरगन, नर-नारी लवलीन॥
दुष्टनि दुख, सुख संतनि दीन्हौ, नृप-ब्रत पूरन कीन।
रामचंद्र-दसरथहि बिदा करि ‘सूरदास’ रस-भीन॥

मूल

(१३)
ललित गति राजत अति रघुबीर।
नरपति-सभा-मध्य मनौ ठाढ़े, जुगल हंस मतिधीर॥
अलख अनंत अपरिमित महिमा, कटि-तट कसे तुनीर।
कर धनु, काकपच्छ सिर सोभित, अंग-अंग दोउ बीर॥
भूषन बिबिध बिसद अंबर जुत, सुंदर स्याम सरीर।
देखत मुदित चरित्र सबै सुर, ब्यौम बिमाननि भीर॥
प्रमुदित जनक निरखि मुख-अंबुज, प्रगट नैन मधि नीर।
तात कठिन प्रन जानि जानकी, आनति नहिं उर धीर॥
करुनामय जब चाप लियौ कर, बाँधि सुदृढ़ कटि-चीर।
भूभृत-सीस नमित जो गर्बगत, पावक सींच्यौ नीर॥
डोलत महि अधीर भयौ फनिपति, कूरम अति अकुलान।
दिग्गज चलित, खलित मुनि-आसन, इंद्रादिक भय मान॥
रबि मग तज्यौ, तरकि ताके हय, उत्पथ लागे जान।
सिव-बिरंचि ब्याकुल भए धुनि सुनि, तब तोरॺौ भगवान॥
भंजन-सब्द प्रगट अति अद्भुत, अष्ट दिसा नभ पूरि।
स्रवन-हीन सुनि भए अष्टकुल नाग गरब भय चूरि॥
इष्ट-सुरनि बोलत नर तिहि सुनि, दानव-सुर बड़ सूर।
मोहित बिकल जानि जिय सबही, महाप्रलय कौ मूर॥
पानि-ग्रहन रघुबर बर कीन्ह्यौ, जनकसुता सुख दीन।
जय-जय धुनि सुनि करत अमरगन, नर-नारी लवलीन॥
दुष्टनि दुख, सुख संतनि दीन्हौ, नृप-ब्रत पूरन कीन।
रामचंद्र-दसरथहि बिदा करि ‘सूरदास’ रस-भीन॥

अनुवाद (हिन्दी)

(धनुष-भंगसे लेकर पूरे विवाह-प्रसंगका फिर एक पदमें वर्णन करते हुए) सूरदासजी कहते हैं—श्रीरघुवीर राम-लक्ष्मण अपनी सुन्दर चालके द्वारा अत्यन्त शोभा पा रहे थे, वे धीरबुद्धि राजाओंकी सभाके मध्यमें इस प्रकार खड़े हो गये, जैसे दो हंस खड़े हों। जो अलक्ष्य हैं, अनन्त हैं, जिनका माहात्म्य अपार है, वे ही कमरमें तरकस बाँधे हुए (आज राजसभामें साकार उपस्थित हैं)। दोनों भाइयोंके हाथमें धनुष है, मस्तकपर अलकें लहरा रही हैं, उनके सभी अंग शोभामय हैं। अनेक प्रकारके आभूषण धारण किये हैं और निर्मल सुहावना वस्त्र है। श्रीरामका शरीर सुन्दर श्याम-वर्ण है। सभी देवता उनकी लीलाओंको देखकर आनन्दित हो रहे हैं, आकाशमें (उन देवताओंके) विमानोंकी भीड़ हो रही है। महाराज जनक (श्रीरामके) कमल-मुखको देखकर आनन्दमग्न हो गये और उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु भर आये। किंतु पिताके (धनुष-भंगकी) कठोर प्रतिज्ञाका स्मरण करके श्रीजानकीजी हृदयमें धैर्य नहीं ला पातीं (अधीर हो रही हैं)। (उनकी अवस्था समझकर) जब करुणामय श्रीरामने कटिमें दृढ़तापूर्वक पटुका बाँधकर धनुष उठा लिया, तब गर्वसे उठे राजाओंके मस्तक इस प्रकार झुक गये, जैसे जलसे सींचनेपर अग्निकी लपटें शान्त हो जाती हैं। पृथ्वी हिलने लगी, जिसके कारण शेषनाग अधीर हो उठे, कूर्मदेव (कच्छपभगवान्) अत्यन्त व्याकुल हो गये, दिग्गज अपने स्थानोंसे डगमगा उठे, मुनियोंके आसन शिथिल हो गये और इन्द्रादि देवता (कहीं प्रलय तो नहीं हो रही है, इस भयसे) भयभीत हो गये। भगवान् सूर्य मार्गसे हट गये, उनके घोड़े भड़ककर इधर-उधर ताकने लगे और मार्ग छोड़कर जाने लगे। उसकी टंकारको सुनकर शंकर और ब्रह्माजी भी व्याकुल हो गये। तब भगवान् श्रीरामने धनुष तोड़ दिया। धनुषके तोड़नेका अत्यन्त अद्भुत शब्द हुआ, वह आठों दिशाओं तथा आकाशमें पूर्ण हो गया। नागोंके आठों कुल उस महाशब्दको सुनकर बहिरे हो गये, भयसे उनका गर्व चूर्ण हो गया। उस (धनुष टूटनेके शब्द)-को सुनकर मनुष्य अपने-अपने इष्टदेवताओंको (रक्षाके लिये) पुकारने लगे। सभी बड़े-बड़े शूरवीर दानव और देवता भी मोहित होकर (भ्रममें पड़कर) चित्तमें (उस शब्दको) महाप्रलयका मूल कारण समझकर व्याकुल हो गये। (धनुष-भंगके अनन्तर) श्रीरामने दुलहा बनकर श्रीजनकनन्दिनीका पाणिग्रहण करके उन्हें सुख प्रदान किया। यह सुनकर देववृन्द ‘जय हो! जय हो!’ यह घोष करने लगे। जनकपुरके सभी नर-नारी प्रेममग्न हो गये। (धनुष तोड़कर श्रीरामने) दुष्टोंको दुःख तथा सत्पुरुषोंको आनन्द दिया एवं महाराज जनककी प्रतिज्ञा पूर्ण कर दी। (विवाहके अनन्तर) प्रेमरससे भीगे महाराज जनकने श्रीरामचन्द्रजी एवं महाराज दशरथको (बारातके साथ) विदा किया।

दशरथ-विदा

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१४)
दसरथ चले अवध आनंदत।
जनकराइ बहु दाइज दै करि, बार-बार पद बंदत॥
तनया जामातनि कौं समदत, नैन नीर भरि आए।
‘सूरदास’ दसरथ आनंदित, चले निसान बजाए॥

मूल

(१४)
दसरथ चले अवध आनंदत।
जनकराइ बहु दाइज दै करि, बार-बार पद बंदत॥
तनया जामातनि कौं समदत, नैन नीर भरि आए।
‘सूरदास’ दसरथ आनंदित, चले निसान बजाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथ आनन्द मनाते हुए अयोध्याको चल पड़े। महाराज जनकने बहुत अधिक दहेज देकर बार-बार उनके चरणोंकी वन्दना की। पुत्रियों तथा जामाताओंसे प्रेमपूर्वक मिलते समय उनके नेत्रोंमें अश्रु भर आये। सूरदासजी कहते हैं कि बाजे बजवाते हुए महाराज दशरथ आनन्दपूर्वक अयोध्याको चल पड़े।

परशुराम-मिलाप

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१५)
परसुराम तेहिं औसर आए।
कठिन पिनाक कहौ किन तोरॺौ, क्रोधित बचन सुनाए॥
बिप्र जानि रघुबीर धीर दोउ हाथ जोरि सिर नायौ।
बहुत दिननि कौ हुतौ पुरातन, हाथ छुअत उठि आयौ॥
तुम तौ द्विज, कुल-पूज्य हमारे, हम-तुम कौन लराई।
क्रोधवंत कछु सुन्यौ नहीं, लियौ सायक-धनुष चढ़ाई॥
तबहूँ रघुपति कोप न कीन्हौ, धनुष न बान सँभारॺौ।
‘सूरदास’ प्रभु-रूप समुझि, बन परसुराम पग धारॺौ॥

मूल

(१५)
परसुराम तेहिं औसर आए।
कठिन पिनाक कहौ किन तोरॺौ, क्रोधित बचन सुनाए॥
बिप्र जानि रघुबीर धीर दोउ हाथ जोरि सिर नायौ।
बहुत दिननि कौ हुतौ पुरातन, हाथ छुअत उठि आयौ॥
तुम तौ द्विज, कुल-पूज्य हमारे, हम-तुम कौन लराई।
क्रोधवंत कछु सुन्यौ नहीं, लियौ सायक-धनुष चढ़ाई॥
तबहूँ रघुपति कोप न कीन्हौ, धनुष न बान सँभारॺौ।
‘सूरदास’ प्रभु-रूप समुझि, बन परसुराम पग धारॺौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय* (महाराज दशरथके अयोध्या लौटते समय) परशुरामजी आये। उन्होंने क्रोधपूर्वक कहा—‘बताओ, (इस) कठोर पिनाक (शिवधनुष)-को किसने तोड़ा?’ धैर्यशाली श्रीरघुवीरने उनको ब्राह्मण समझकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया (और बोले—) ‘वह (धनुष) तो बहुत दिनोंका पुराना था, हाथसे छूते ही उठ गया (और टूट गया)। आप तो ब्राह्मण हैं, मेरे कुलके पूज्य हैं; मुझसे और आपसे भला क्या लड़ाई?’ किंतु क्रोधके मारे परशुरामजीने कुछ सुना नहीं (श्रीरामकी नम्रतापर ध्यान नहीं दिया), धनुषपर बाण चढ़ा लिया, इतनेपर भी श्रीरघुपतिने क्रोध नहीं किया और न धनुष-बाण ही (प्रतीकारके लिये) सँभाला। सूरदासजी कहते हैं—अन्तमें प्रभु श्रीरामके परमात्मस्वरूपको समझकर परशुरामजी वनमें (तपस्या करने) चले गये।

पादटिप्पनी
  • वाल्मीकीय रामायणके अनुसार परशुरामजी महाराज दशरथको अयोध्या लौटते समय मार्गमें मिले हैं।

अवधपुरी-प्रवेश

विषय (हिन्दी)

राग सारंग

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१६)
अवधपुर आए दसरथ राइ।
राम, लषन अरु भरत, सत्रुहन, सोभित चारौ भाइ॥
घुरत निसान, मृदंग-संख-धुनि, भेरि-झाँझ-सहनाइ।
उमँगे लोग नगर के निरखत, अति सुख सबहिनि पाइ॥
कौसिल्या आदिक महतारी, आरति करहिं बनाइ।
यह सुख निरखि मुदित सुर-नर-मुनि, ‘सूरदास’ बलि जाइ॥

मूल

(१६)
अवधपुर आए दसरथ राइ।
राम, लषन अरु भरत, सत्रुहन, सोभित चारौ भाइ॥
घुरत निसान, मृदंग-संख-धुनि, भेरि-झाँझ-सहनाइ।
उमँगे लोग नगर के निरखत, अति सुख सबहिनि पाइ॥
कौसिल्या आदिक महतारी, आरति करहिं बनाइ।
यह सुख निरखि मुदित सुर-नर-मुनि, ‘सूरदास’ बलि जाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज दशरथ अयोध्या आ गये। (उनके साथ) श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न—चारों भाई शोभित हो रहे हैं। नगारे बज रहे हैं; मृदंग, शंख, दुन्दुभि, झाँझ एवं शहनाईकी मंगल-ध्वनि हो रही है। नगरके लोग उमंगके साथ (लौटी बारातको) देख रहे हैं, सभीको अत्यन्त सुख मिल रहा है। कौसल्यादि माताएँ सजाकर आरती कर रही हैं। यह सुख देखकर देवता, मनुष्य, मुनिगण—सभी आनन्दित हो रहे हैं। सूरदासजी इसी सुखपर न्योछावर हैं।