०६ वल्लभ के शुद्धाद्वैत का इतिहास

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०१. विष्णुस्वामी

नाभादास ने भक्तमाल में वैष्णव-मत के चार सम्प्रदायों की गणना की है
जिनमें से एक मत विष्णुस्वामी का है।
उनके मतानुसार विष्णुस्वामी के सम्प्रदाय में
संत ज्ञानदेव हुए थे
जिनके शिष्य नामदेव और त्रिलोचन थे।
आगे इसी परम्परा में वल्लभाचार्य हुए। स्वयं वल्लभाचार्य तत्त्वार्थदीपनिबन्ध में शास्त्रार्थ-प्रकरण की पुष्पिका में लिखते हैं

“इति श्री-कृष्ण–व्यास–विष्णु-स्वामि-मत-वर्ति
श्रीवल्लभ-दीक्षित-विरचिते तत्त्वार्थ-दीप-निबन्धे
शास्त्रार्थ-कथनं प्रथमं प्रकरणम्।”

अतः बाह्य तथा आन्तरिक उभय साक्ष्य के आधार पर
यह सिद्ध है कि वल्लभाचार्य विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के अनुवर्ती हैं।

सकल-चर्या-मत-संग्रह में, जिसके लेखक का नाम अज्ञात है,
विष्णुस्वामी का मत दिया गया है।
किन्तु वह वल्लभमत को सामने रखकर
उसका किया गया संक्षेप लगता है।
वैसे वल्लभाचार्य के अनुयायी निर्भयराम भट्ट ने
अपने ग्रन्थ अधिकरणसंग्रह में दिखाया है
कि विष्णुस्वामी और मध्वाचार्य सेव्यसेवकभाव को मानते हुए
ब्रह्माद्वैत को न मानकर,
शुद्ध भेद को स्वीकार करते हैं,
और वल्लभाचार्य शुद्ध अद्वैतवाद का प्रतिपादन करते हैं।
स्वयं वल्लभाचार्य ‘सुबोधिनी’ (३-३२-३७) में लिखते हैं -
कि विष्णुस्वामी के अनुयायी और रामानुज,
ब्रह्म और जगत् में गुणागत भेद मानते हैं,
और वे स्वयं निर्गुणवाद का प्रतिपादन करते हैं।
इस प्रकार विष्णुस्वामी के सम्प्रदाय से
वल्लभ के सम्प्रदाय में कुछ भिन्नता यत्र-तत्र दीख पड़ती है।

चूंकि वैष्णव-सम्प्रदाय-चतुष्टय में
विष्णुस्वामी का सम्प्रदाय परिगणित है
अतः उसमें अपने को गिनाने के लिए
वल्लभ तथा उनके अनुयायी भी
अपने सम्प्रदाय को विष्णुस्वामी से जोड़ते हैं।
विष्णुस्वामी के ही मत के अनुयायी गोविन्दाचार्य थे
जिनके शिष्य वल्लभाचार्य थे।
कुछ कहते हैं कि
वल्लभाचार्य के पिता लक्ष्मण भट्ट भी
विष्णुस्वामी के ही सम्प्रदाय में दीक्षित थे।

पं. बलदेव उपाध्याय ने विष्णुस्वामी नाम के तीन आचार्यों का उल्लेख किया है।
(१. वैष्णवसम्पदार्यों का साहित्य और इतिहास. पृ. ३६.)
गो. यदुनाथ महाराज रचित वल्लभदिग्विजय के अनुसार
संत बिल्वमंगल जिस विष्णुस्वामी की परम्परा में थे,
उसी में वल्लभाचार्य भी थे।
किन्तु पं. बलदेव उपाध्याय ने
इन दोनों विष्णुस्वामियों को भिन्न-भिन्न व्यक्ति माना है।

बिल्वमंगल की प्रसिद्ध कृति कृष्णकर्णामृत है
जिसको चैतन्यमहाप्रभु प्रायः गाया करते थे।
वह माधुर्य-भक्ति का प्रथम गायक ग्रन्थ है।
इस पर जीवगोस्वामी की टीका है।
वल्लभाचार्य के अनुयायी जयगोपाल भट्ट ने भी
इस पर एक टीका लिखी है।

माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में
रसेश्वर दर्शन में
विष्णुस्वामी के अनुयायी गर्भ श्रीकान्त मिश्र की
साकारसिद्धि का उद्धरण दिया गया है
और उन्हें नृसिंहमूर्ति का उपासक बताया गया है।
इस उल्लेख के आधार पर
महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज ने
विष्णुस्वामी का समय १२५० ई. निश्चित किया है।
(२. भारतीय संस्कृति और साधना, द्वितीय भाग, पृ. २३८.)

विष्णुस्वामी की कोई रचना उपलब्ध नहीं है।
परन्तु इतना निर्विवाद है कि वे मुख्य रूप से
नृसिंह के उपासक थे
और उनके अनुयायी बहुत थे।
उनके सम्प्रदाय में नृसिंह-पूर्वतापनीयोपनिषद्
और नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद् को प्रमुखता मिली थी।
संभवतः इन उपनिषदों का संकलन
१२वीं शती में ही हुआ था
जिसका प्रभाव विष्णुस्वामी पर पड़ा।

०२. वल्लभाचार्य

जन्म

वल्लभाचार्य का जन्म १८ अप्रैल १४७८ ई. में
मध्य प्रदेश के जिला रायपुर के निकट
चम्पारन ग्राम में हुआ था।

उनके पिता लक्ष्मणभट्ट तैलंग ब्राह्मण थे
और काशी में हनुमान घाट पर रहते थे।
यवनों के आक्रमण की आशंका से
वे सपत्नीक काशी छोड़कर आन्ध्रप्रदेश जा रहे थे।
मार्ग में ही वल्लभाचार्य का जन्म हो गया।
उनकी माता का नाम यल्लममगारु था।

शिक्षा

वे कृष्णयजुर्वेदी दीक्षित ब्राह्मण थे।
इस कारण कहीं-कहीं वे वल्लभ दीक्षित के नाम से भी जाने जाते हैं।
उनके पूर्वज कृष्णोपासक थे
और विष्णुस्वामी के सम्प्रदाय को मानते थे।
वल्लभ की शिक्षा वाराणसी में हुई।
आठवें वर्ष में पिता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया
और विष्णुचित्त को उनका आदि विद्या-गुरु नियुक्त किया।
बाद में वल्लभ ने चिरम्मलय, अन्धनारायण दीक्षित, और माधव यतीन्द्र से वेदों का अध्ययन किया।
ये सभी माध्व-सम्प्रदाय के गुरु थे।
इससे माध्व-सम्प्रदाय से वल्लभ का बड़ा गाढ़ा सम्बन्ध सिद्ध होता है।

विजयनगरे जयः

वल्लभ के जीवन की प्रथम मुख्य घटना
विजयनगर राज्य के राजा कृष्णदेव राय के दरबार में आयोजित शास्त्रार्थ में
उनकी विजय थी।
यह शास्त्रार्थ मूलतः
माध्व दार्शनिक व्यासतीर्थ
और किसी शांकर मतानुयायी के मध्य था।
विषय था सविशेषब्रह्मवाद।

[[४२०]]

इसमें प्रायः सभी वैष्णव तथा अद्वैतवेदान्ती आमंत्रित थे।
वल्लभाचार्य भी अपने शिष्यों सहित इसमें भाग लेने गये
और उन्होंने शुद्धाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया
जिसके अनुसार ब्रह्म की आनन्दस्वरूपता ही उसका आकार है
और जिसे एकमात्र भक्ति से भी प्राप्त किया जा सकता है।
उन्होंने अन्य सभी पक्षधरों को परास्त कर
विजय प्राप्त की।

तत्पश्चात् व्यासतीर्थ की अध्यक्षता में
उनका कनकाभिषेक किया गया
और उन्हें एक सौ मन सुवर्ण मिला ।
किन्तु इससे वल्लभाचार्य ने
एक सुवर्ण-मेखला बनवाकर
विजयनगर में स्थित श्रीविठ्ठल स्वामी के मंदिर को अर्पित कर दिया।
उनके इस त्याग से सभी विद्वान् अत्यन्त प्रभावित हुए।

काशीत्याग

इसके पूर्व काशी में भी
उपेन्द्र नामक एक अद्वैतवेदान्ती से वल्लभाचार्य का शास्त्रार्थ हुआ था।
उसके बाद उपेन्द्र ने वल्लभाचार्य को मार डालने की धमकी दी।
फलस्वरूप वल्लभाचार्य काशी छोड़ कर
१५१० ई. में इलाहाबाद के पास अरैल गाँव में आकर बस गये।
उनकी पत्नी का नाम महालक्ष्मी था।
उनके दो पुत्र थे - गोपीनाथ और विट्ठल,
जिनके जन्म क्रमशः १५१० और १५१५ ई. में हुए थे।
गोपीनाथ का जन्म अरैल में हुआ था
और विठ्ठल का जन्म चुनार में।
विट्ठलजन्म के समय वल्लभाचार्य सपत्नीक
वैद्यनाथ धाम की यात्रा पर थे।
अरैल में ही वल्लभ ने अपने अधिकांश ग्रन्थों की रचना की थी,
विशेषतः सुबोधिनी की।
यहीं गोपीनाथ और विट्ठल की शिक्षा हुई थी।
विठ्ठल के गुरु प्रयाग के संन्यासी माधव सरस्वती थे।

यात्रा

वल्लभाचार्य जी ने
सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था।
वे महाप्रभुचैतन्य तथा निम्बार्की वेदान्ती केशव काश्मीरी के भी
सौहार्दपूर्ण सम्पर्क में थे।
समस्त वैष्णव उनसे प्रभावित थे।
सन् १४८२ ई. में वे मथुरा और वृन्दावन गये।
वहाँ गोवर्धन पर उन्हें स्वप्न में आदेश हुआ
कि नीचे श्रीनाथ जी की मूर्ति गड़ी है
और उसे निकाल कर वे उसकी पूजा करें।
वल्लभाचार्य ने मूर्ति को खुदवाई
और उसकी विधिवत् पूजा करने लगे।
प्रतिवर्ष चातुर्मास्य वे वहीं बिताया करते थे।

गद्यमन्त्र

कहते हैं कि
सं. १५४६ श्रावण शुक्ल पक्ष एकादशी को अर्धरात्रि में
श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिया।
उन्होंने श्रीकृष्ण का सायुज्य-लाभ किया।
श्रीकृष्ण ने उन्हें पुष्टिमार्ग की भक्ति का प्रचार करने को कहा
और गद्यमन्त्र दिया।
यह सब वृत्तान्त उनके प्रकरण ग्रन्थ सिद्धान्तरहस्य में वर्णित है।
गद्यमन्त्र निम्नलिखित है
जिसको जनसाधारण के लिए
सर्वप्रथम मूलचन्द्र तुलसीदास तेलीवाला ने १६२४ ई. में प्रकाशित किया

“सहस्रपरिवत्सरमितकालजातकृष्णवियोगजनि(त)तापक्लेशानन्दतिरोभावो ऽहं भगवते कृष्णाय देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणानि तद्धार्मांश्च
दारागारपुत्राप्तवित्तेहापराणि आत्मना सह समर्पयामि, दासोऽहं, कृष्ण तवास्मि”।

की इस गद्यमन्त्र की प्राप्ति को
ब्रह्म-सम्बन्ध कहा जाता है।
तब से उन्होंने सेवामार्ग, अर्थात् भक्तिपूर्वक अष्टधाम कृष्ण-सेवा का विधान किया।

शिष्य

कहते हैं कि केशव काश्मीरी ने
वल्लभाचार्य से भागवत-श्रवण किया था
और दक्षिणा में अपने शिष्य माधवभट्ट काश्मीरी को दिया था।
इन्हीं माधवभट्ट काश्मीरी से वल्लभाचार्य बोलकर अपने ग्रन्थों को लिखवाते थे।
वे उनके सचिव थे।

वल्लभाचार्य के चौरासी ग्रन्थ
और चौरासी शिष्य प्रसिद्ध है।
चौरासी वैष्णवों की वार्ता में
उनके शिष्यों का परिचय दिया गया है।
सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदास और परमानन्ददास-
व्रजभाषा के ये चार महाकवि वल्लभाचार्य के शिष्य थे।
गोविन्ददास, छतस्वामी, नन्ददास और चतुर्भुजदास-
ये चार कवि उनके पुत्र विट्ठलनाथ के शिष्य थे।
इन आठ कवियों को अष्टछाप के नाम से जाना जाता है।
हिन्दी साहित्य में ब्रजभाषा काव्य में अष्टछाप का सर्वाधिक योगदान है।

संन्यास

१५३० ई. में ५२ बर्ष की आयु में वल्लभाचार्य ने
त्रिदण्डि संन्यास ग्रहण किया
और काशी में हनुमान् घाट पर रहने लगे।
वहीं उसी वर्ष उनका गोलोकवास हो गया।

सार

विठ्ठलनाथ के शब्दों में
उनके मत का सार निम्न श्लोक में है

श्रीवल्लभाचार्यमते फलं तत्-
प्राकट्यम्, अत्राव्यभिचारिहेतुः …।
प्रेमैव, तस्मिन् नवधोक्तभक्तिस्,
तत्रोपयोगो ऽखिल-साधनानाम्" ।।

अर्थात् -
वल्लभाचार्य के मत में
भगवत् प्राकट्य फल है
और उसका अव्यभिचारी साधन प्रेम है।
इस प्रेम में नवधा भक्ति तथा अन्य समस्त साधनाओं का उपयोग है।

रचनाः

वल्लभाचार्य की कृतियों में प्रमुख हैं
सुबोधिनी, तत्त्वार्थदीपनिबन्ध, अणुभाष्य, मधुराष्टक आदि कुछ स्तोत्र
और षोडशप्रकरण ग्रन्थ ।

सुबोधिनी श्रीमद्भागवतपुराण के प्रथम, द्वितीय, तृतीय, दशम और एकादश स्कन्ध की बड़ी युक्तिपूर्ण व्याख्या है।
कुछ लोग एकादश स्कन्ध की टीकाओं को एक स्वतन्त्र ग्रन्थ
अर्थात् सुबोधिनी से भिन्न ग्रन्थ मानते हैं।
यह टीका एकादशस्कन्ध के केवल पाँच अध्यायों पर ही उपलब्ध है।
भागवत सम्बन्धी उनकी अन्य कृतियां हैं-
भागवतसूक्ष्मटीका जो पूरी अप्राप्त है,
दशमस्कन्धार्थानुक्रमणिका,
एकादशस्कन्धार्थनिरूपणकारिका,
पुरुषोत्तमसहस्रनाम,
श्रीभगवत्पीठिका
और त्रिविधलीलानामावली।

तत्वार्थदीपनिबन्ध के भागवतार्थ प्रकरण में
सुबोधिनी टीका का संक्षेप दिया गया है।
सुबोधिनी के बारे में हरिराम का निम्न मूल्यांकन अन्यन्त्र प्रसिद्ध है

“नाश्रितो वल्लभाधीशो
न च दृष्टा सुबोधिनी
नाराधि राधिकानाथो
वृथा तज्जन्म भूतले”॥

वल्लभाचार्य ने अपने को भगवान् श्रीकृष्ण का वदनावतार घोषित किया है।
इसीलिए वे अपने को अग्नि या वैश्वानर कहते हैं,
क्योंकि यही भगवान् श्रीकृष्ण का मुख है।+++(5)+++
इस मुखारविन्द से सुबोधिनी का निर्गम हुआ है।
भागवत के अर्थ सप्तधा है

“शास्त्रे, स्कन्धे, प्रकरणे
ऽध्याये वाक्ये पदेऽक्षरे।
एकार्थं सप्तधा जानन्न्
अविरोधेन युज्यते”॥
(भागवतार्थप्रकरणकारिका १/२)

शास्त्रार्थ, स्कन्धार्थ, प्रकरणार्थ और अध्यायार्थ का निरूपण
तत्त्वार्थदीपनिबन्ध में किया गया है
और शेष तीन अर्थों का, जर्थात् वाक्यार्थ, पदार्थ और अक्षरार्थ का निरूपण
सुबोधिनी में किया गया है।
अध्यायों को सुसंगत प्रकरणों में बांटना
और उनकी संगति बैठाना-
ये दोनों कार्य जिस प्रकार सूक्ष्मता से सुबोधिनी में प्रदर्शित किये गये हैं
वह किसी अन्य टीका में उपलब्ध नहीं है।

दशमस्कन्ध की सुबोधिनी तो एक प्रकार से इस स्कन्ध का भाष्य है।
यह अद्भुत तथा चमत्कारपूर्ण पाण्डित्य से लिखा गया भाष्य है।
इस कारण भागवत की समस्त टीकाओं में
सुबोधिनी का महत्त्व सर्वाधिक है।
यह गद्य और पद्य दोनों में है।
पद्य-भाग को कारिका कहते हैं।

सुबोधिनी पर विठ्ठलेश्वर की श्रीमती टिप्पणी,
गोस्वामी पुरुषोत्तम की श्रीसुबोधिनी-प्रकाश-टीका
वल्लभमहाराज की श्री सुबोधिनीलेख,
लालूभट्ट दीक्षित की श्रीसुबोधिनीयोजना,
निर्भयराम भट्ट की श्री सुबोधिनीकारिका व्याख्या
और गोस्वामी योगिगोपेश्वर कृत शास्त्ररीत्या बुभुत्सुबोधिका-
ये छः टीकाएं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

तत्त्वार्थदीपनिबन्ध में तीन प्रकरण हैं-
शास्त्रार्थप्रकरण, सर्वनिर्भयप्रकरण और भागवतार्थप्रकरण।

‘प्रमाणबलमाश्रित्य शास्त्रार्थो विनिरूपितः’,
अर्थात्
शास्त्रार्थप्रकरण में प्रमाण का निरूपण है।

‘प्रमेयबलमाश्रित्य सर्वनिर्णय उच्यते’
अर्थात्
सर्वनिर्णय प्रकरण में प्रमेय का निरूपण है।

विशेषतः ब्रह्म का भागवतार्थप्रकरण में
भागवतपुराण के शास्त्रार्थ स्कन्धार्थ, प्रकारणार्थ तथा अध्यायार्थ का निरूपण है।
वास्तव में शास्त्र का अर्थ भागवत शास्त्र है।
भागवत ब्रह्मसूत्र का भाष्य है।+++(4)+++
वल्लभाचार्य भागवतपुराण में
तीन प्रकार की भाषा का उल्लेख करते हैं

  • (क) लौकिकी भाषा, जैसे १०/७०/ में “तदनन्तर प्रभात होने पर” ।
  • (ख) परमतभाषा, जैसे भागवत ६/१४/६ में “इसे द्वैपायन के मुख से सुना है” ।
  • (ग) समाधि-भाषा, जिसे व्यास ने स्वयं अनुभव करके लिखा है।

यह समाधि-भाषा प्रमाण है।
इस आधार पर भागवतपुराण को व्यास की समाधि-भाषा कहा जाता है।
वल्लभाचार्य को निम्न चार प्रमाण स्वीकार्य हैं

“वेदाः श्रीकृष्णवाक्यानि
व्याससूत्राणि चैव हि।
समाधिभाषा व्यासस्य
प्रमाणं तच्चतुष्टयम्”।।
(तत्त्वार्थदीपनिबन्ध १/७)

अर्थात्
वेद, श्रीकृष्ण के वचन (अर्थात् गीता) व्याससूत्र (अर्थात् ब्रह्मसूत्र) और व्यास की समाधिभाषा (अर्थात् भागवत) -
ये चार ऐसे प्रमाण हैं जिसमें उत्तरोत्तर पूर्वपूर्व के सन्देह का निवारक है।

इस प्रकार भागवत का प्रमाण सर्वसंशय-निवारक तथा असन्दिग्ध है।
वल्लभाचार्य ने वेदान्त में प्रस्थानचतुष्टय की संकल्पना पर बल दिया
तथा श्रुति, स्मृति और न्याय (ब्रह्मसूत्र) के अतिरिक्त
भागवतपुराण को भी प्रस्थान कोटि में ही नहीं रखा,
अपि तु सर्वश्रेष्ठ प्रमाण के रूप में स्वीकारा ।
उनका दर्शन जितना भागवतपुराण के सन्निकट है
उतना ब्रह्मसूत्र के नहीं है।

फिर भी तेलीवाला कहते हैं कि
अणुभाष्य अन्य भाष्यों की अपेक्षा अधिक ब्रह्मसूत्रानुसारी है।
कदाचित् वे ऐसा इसलिए कहते हैं
कि अणुभाष्य भागवत का संक्षेप है
और भागवत ब्रह्मसूत्र का बृहद्भाष्य है।

पुनश्च, स्वयं वल्लभाचार्यकृत तत्त्वार्थदीपनिबन्ध पर
कई टीकाए हैं
जिनमें उनकी स्वोपज्ञ टीका, ‘प्रकाश’,
गोस्वामी पुरुषोत्तमकृत आवरणभंग, तथा निबन्धयोजना
और सप्रकाश तत्त्वार्थदीपनिबन्ध पर गोस्वामी कल्याणराम की श्रीमती टिप्पणी
और लालूभट्ट की योजना टीका,
एवं गढूलाल कृत सत्स्नेहभाजन मुख्य हैं।

अणुभाष्य वल्लभाचार्यकृत ब्रह्मसूत्र का भाष्य है।
वे उसे पूरा नहीं कर सके थे।
उनके पुत्र विट्ठलनाथ ने इसे पूरा किया।
अतएव सम्प्रदाय में वल्लभ और विट्ठल दोनों ही
शुद्धाद्वैत के समतुल्य प्रवर्तक माने जाते हैं।
दोनों ही उपलब्ध अणुभाष्य के संयुक्त लेखक हैं।
सम्प्रदाय में प्रसिद्ध है
कि ब्रह्मसूत्र ३-२-३४ से अन्त तक का अणुभाष्य विट्ठलनाथ की कृति है
और उसके पहले का अंश वल्लभाचार्य की कृति है।

इस पर दो दर्जन से अधिक टीकाएं हैं।
उनमें से गोस्वामी पुरुषोत्तमकृत अणुभाष्यप्रकाश,
योगिगोपेश्वरकृत अणुभाष्यप्रकाशरश्मि
और इच्छाराम कृत अणुभाष्यपदप्रदीप
अत्यन्त लोकप्रिय और उत्कृष्ट टीकाएं हैं।
पुरुषोत्तम और योगिगोपेश्वर ने
अणुभाष्य के अर्थ को प्रकाशित करने में
महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

गो. पुरुषोत्तम ने अपने प्रकाश में
शंकर, भास्कर, रामानुज, निम्बार्क, श्रीकंठ, मध्व और [[४२४]] विज्ञानभिक्षु के
ब्रह्मसूत्र भाष्यों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए
सिद्ध किया है कि
ब्रह्मसूत्र का सर्वोत्तम भाष्य शुद्धाद्वैतवादी अणुभाष्य है।

योगिगोपेश्वर “रश्मि" के अन्त में लिखते हैं

‘ब्रह्मज्ञः कृतकृत्यश्च
हृदीश्वरज्ञ एव च।
कृतार्थश्च प्रमाणज्ञस्
तत्कृतिं ज्ञातुं पश्यत"।।

अर्थात्

रश्मिकार गोपेश्वर
अपने को संपूर्ण वेत्ता ब्रह्मज्ञ घोषित करते हैं
और जो उनकी इस कृति को समझेगा वह भी उन्हीं जैसा हो जायेगा।

रश्मि के गम्भीर अनुशीलन से
यह उक्ति गर्वोक्ति नहीं सिद्ध होती है।
रश्मिकार ने अणुभाष्य और उसकी टीका प्रकाश के हार्द को
स्पष्ट कर दिया है।
सम्प्रदाय में उनका स्थान इसीलिए गोस्वामी पुरुषोत्तम के बाद
सर्वोपरि माना गया है।

गोस्वामी पुरुषोत्तम तो वल्लभाचार्य और विट्ठलेश्वर के पश्चात्
सम्प्रदाय में सर्वश्रेष्ठ आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं
जैसा कि निम्न श्लोक बताता है

“जयति श्रीवल्लभार्यो
जयति च विट्ठलेश्वरः प्रभुः श्रीमान् ।
पुरुषोत्तमश्च तैश्च
निर्दिष्टा पुष्टिपद्धतिर्जयति”।।

पुनश्च, षोडश ग्रन्थ या षोडशप्रकरण ग्रन्थों में

(१) यमुनाष्टक, (२) बालबोध, (३) सिद्धान्तमुक्तावली, (४) पुष्टिपवाहमर्यादाभेद, (५) सिद्धान्त-रहस्य, (६) नवरत्न, (७) अन्तःकरणप्रबोध (८) विवेकधैर्यग्रन्थ, (९) कृष्णाश्रम, (१०) चतुःश्लोकी, (११) भक्तिवर्धिनी, (१२) जलभेद (१३) पंचपद्यानि, (१४) संन्यास-निर्णय, (१५) निरोधलक्षण और (१६) सेवाफल हैं।

इनमें से अन्तिम पर वल्लभ ने स्वयं एक टीका भी लिखी है- सेवाफलविवृति।
इनमें सभी ग्रन्थों पर
सम्प्रदाय के विद्वानों ने विविध टीकाएं लिखी हैं
जिससे सिद्ध होता है
कि षोडश ग्रन्थों का जितना पठन-पाठन होता है
उतना कदाचित् उनके अन्य ग्रन्थों का नहीं होता।

षोडश ग्रन्थों में सिद्धान्त-रहस्य तो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
इस पर ११ टीकाएं चतुर्थपीठ, मथुरा से प्रकाशित हैं।
इसमें वल्लभाचार्य और श्रीकृष्ण का उस समय का संवाद वर्णित है
जिस समय वल्लभाचार्य ने श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त किया था।
उस संवाद को परम्परा के अनुसार
वल्लभाचार्य के सेवक दामोदर हरसानी ने भी सुना था।
परन्तु उसने कुछ समझा नहीं था।

तय उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त
गायत्रीभाष्य, शिक्षाश्लोक, पंचावलम्बन, मधुराष्टक, श्रीपरिवृढाष्टक, श्रीगिरिराजधार्यष्टक, श्रीनन्दकुमाराष्टक, श्रीकृष्णाष्टक, श्री गोपीजनवल्लभाष्टक, पूर्वमीमांसाभाष्य, सुदर्शनकवचस्तोत्र, किशोरकिशोरीस्तोत्र, मथुरेशनामावली, वाल्मीकिरामायण की लोकेश्वरटीका, विष्णुपद, स्वोयज्ञटीकासहित प्रेमाकृत, भागवतस्तर समुच्चय, मथुरामाहात्म्य और राजलीलानाथ भी वल्लभाचार्य के ग्रन्थ हैं।

०३. विट्ठलेश्वर

विट्ठलेश्वर (१५१५-१५६० ई.) एक सुयोग्य पिता के सुयोग्य पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता के अधूरे ग्रन्थों को पूरा किया, कहीं-कहीं उनके ग्रन्थों का संपादन किया, उनके कई ग्रन्थों पर गंभीर टीकाएं लिखी, स्वयं अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखे तथा पुष्टिमार्ग-सम्प्रदाय की स्थापना तथा प्रचार किया। उनका सम्पर्क तत्कालीन सम्राट् अकबर तथा उनके नवरत्नों में से टोडरमल, बीरबल तथा रहीम से था और ये सभी लोग उनकी आध्यात्मिकता से प्रभावित थे। उनके बड़े भाई गोपीनाथ का देहान्त अल्पायु में ही हो गया था। उनके बाद वे स्वयं आचार्यपीठ पर आसीन हुए। सन् १५६५ ई. में उन्होंने अरैल छोड़ दिया और वृन्दावन के पास गोकुल में रहने लगे। उनके सात पुत्र थे-गिरिधर, गोविन्द, बालकृष्ण, गोकुलनाथ, रघुनाथ, यदुनाथ और घनश्यामा प्रथम छः पुत्र उनकी प्रथम पत्नी रुक्मिणी से उत्पन्न हुए थे। रुक्मिणी के निधन के पश्चात् उन्होंने १५६३ ई. में पद्मावती से विवाह किया जिससे घनश्याम का जन्म हुआ था। विट्टलेश्वर ने प्रत्येक पुत्र को श्रीकृष्ण का एक विशेष स्वरूप पूजा करने को दिया और उन्हें एक-एक स्थान पर पीट का आचार्य भी नियुक्त किया। यह ब्योरा यों है

आचार्य स्वरूप र

पीठासीन का १. गिरिधर श्रीमथुरेश

कोटा मानना गोविन्द श्रीविठ्ठलनाथ नाथद्वारामा बालकृष्ण श्रीद्वारकाधीश कांकरोली गोकुलनाथ श्रीगोकुलनाथ गोकुल रघुनाथ श्रीगोकुलचन्द्रमा कामवन (भरतपुर) यदुनाथ

श्रीबालकृष्ण

सूरत (गुजरात) घनश्याम श्रीमदनमोहन

कामवन इन सब आचार्यों और उनके वंशजों को गोस्वामी (गुसाईं) कहा जाता है। दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता के अनुसार विट्टलेश प्रतिदिन कम से कम एक व्यक्ति को पुष्टिमार्ग में दीक्षित करते थे। १५६० ई. में वे गोवर्धन की कन्दरा में नित्यलीला में लीन हो गये। उनके गोलोकवास के समय अष्टछाप के कवि चतुर्भुजदास उपस्थित थे। वे लिखते हैं: -

“श्री विठ्ठलेस से प्रभु भये न वै । पाछे सुने न देखे आगे, वह संग फिर न बने हैं। को फिर नन्दराय को वैभव ब्रजवासिन बिलसैहैं।

[[४२६]]

बेदान्त-खण्ड

“श्रीवल्लभसुत, दरसन कारन, अब सब कोई पछितहैं।

चतुर्भुजदास आस इतनी, जो सुमिरन जननु सिरौ हैं”। द्वारकादास परिक्खि ने श्रीविठ्ठलेशचरितामृत नामक एक चरितकाव्य लिखा है। विट्ठलेश ने अपने पिताश्री के ग्रन्थों पर टीका लिखने के अतिरिक्त निम्नलिखित मौलिक ग्रन्थों की भी रचना की है

(१) विद्वन्मण्डन। यह अद्वैतवेदान्त के खण्डनार्थ लिखा गया एक प्रौढ़ ग्रन्थ है। इसमें युक्तियों द्वारा श्रुतियों और ब्रह्मसूत्रों को सुव्यवस्थित रूप से प्रतिपादित किया गया है

“श्रुतिसूत्रादिमणिराजिभिजटितं युक्तिमौक्तिकैः।

ग्रथितं कुरुते विद्वन्मण्डनं विट्ठलः सुधीः”।। इसके द्वारा या इसके आधार पर इसके पाठक शुद्धाद्वैतवाद के विरोधी सिद्धान्तों का खण्डन सरलता से कर सकते हैं। इस पर गो. पुरुषोत्तम की सुवर्णसूत्र नामक टीका है। इस पर सिद्धान्त-शोभा टीका तथा दो अन्य टीकाएं भी हैं। इन चार टीकाओं से युक्त विद्वन्मण्डन १६२६ ई. में कामवन (भरतपुर) से प्रकाशित हुआ है। इसका खण्डन सदानन्द यति नामक अद्वैतवेवदान्ती ने १८६८ ई. में सहस्राक्ष नामक ग्रन्थ में किया है। १६वीं शती में एक विट्ठलनाथ ने सहस्राक्ष का भी खण्डन प्रभंजन नामक ग्रन्थ में किया है। उस पर गोवर्धन शर्मा (बीसवीं शती) ने एक टीका भी लिखी है। इस प्रकार विद्वन्मण्डन का महत्त्व अद्यतन बना है।

(२) श्रृंगार समण्डन । इसमें तीन विभाग हैं-रससर्वस्व या व्रतचर्या, दानलीला और उल्लास।

(३) भक्तिहंस और (४) भक्तिहेतुनिर्णय। ये दो वाद-ग्रन्थ हैं जिनमें भक्तिमार्ग का निरूपण है। कहते हैं कि किन्हीं मुरारिदेव के कहने पर इन ग्रन्थों का निर्माण हुआ था।

(५), (६) और (७) श्रीवल्लभाष्टक, श्रीस्फुरत्कृष्णप्रेमाकृत और सर्वोत्तमस्तोत्र। ये तीनों ग्रन्थ वल्लभाचार्य की प्रशस्ति में लिखे गये हैं। अन्तिम में उनके १०८ नाम बताये गयें हैं। इनके अतिरिक्त उनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ निम्न है

जयदेव के गीतगोविन्द की प्रथम अष्टपदी पर विवृति, वेदान्तदेशिक के न्यासादेश के एक श्लोक की विवृति, भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के २० श्लोकों पर गीतातत्त्वदीपिका, स्वतंत्रालेखन, गोकुलाष्टक, स्वामिस्तोत्र, अष्टाक्षरनिरूपण, जन्माष्टमीनिर्णय, रामनवमीनिर्णय, तथा नौ विसप्तियाँ । वास्तव में विट्ठलेश मूलतः धर्माचार्य या सम्प्रदाय-संस्थापक थे। उनके अधिकांश ग्रन्थ पूजा-पद्धति, व्रत-उपवास आदि से सम्बन्धित हैं। अपने मन्दिरों में उन्होंने संगीत और कला को भी उतना ही प्रश्रय दिया जितना संस्कृत के अध्ययन तथा शास्त्रानुशीलन को।

[[४२७]]

वल्लभ के शुद्धाद्वैत का इतिहास

०४. अन्य आचार्य गण

वल्लभाचार्य के वंशजों तथा उनके सम्बन्धियों ने उनके सम्प्रदाय की बड़ी सेवा की है और अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। कुछ ग्रन्थ उनके वंशजों के शिष्यों ने भी लिखे हैं। इन समस्त कृतियों का वर्णन प्रो. कण्ठमणिशास्त्री ने कांकरोली से प्रकाशित शुद्धाद्वैतपुष्टिमार्गीय संस्कृत वाङ्मय (२ खण्डों) में किया है। उनमें से निम्नलिखित ग्रन्थकारों और उनकी कृतियों का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक है

(9) गोस्वामी पुरुषोत्तम एक महान् ग्रन्थकार हैं। उनकी सब कृतियां मिलाकर । महाभारत के बराबर हैं। ऊपर उनके प्रमुख टीका-ग्रन्थों का विवरण दिया गया है। अणुभाष्यप्रकाश के अतिरिक्त अणुभाष्य विषयक उनके दो और ग्रन्थ हैं-वेदान्ताधिकरणमाला

और भावप्रकाशिका। वे वल्लभाचार्य और विटुलेश के ग्रन्थों के सर्वमान्य प्रामाणिक टीकाकार हैं। उन्होंने गौडपादकारिका तथा नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद् पर भी टीकाएं की हैं। इस प्रकार उन्होंने सम्प्रदाय में उपनिषद् पर भाष्य लिखने की परम्परा चला दी और कई उपनिषदों पर दीपिका नामक टीकाएं लिखी। भगवद्गीता पर इनकी अमृततरंगिणी नामक टीका विख्यात है। भागवतपुराण पर सुबोधिनी टिप्पणी प्रकाश के अतिरिक्त इन्होंने एक और लघुग्रन्थ लिखा है जिसका नाम है श्रीमद्भागवतस्वरूप विषयक शंकानिरासवाद । उनके मौलिक ग्रन्थों में अवतारवादावलि, प्रस्थानरत्नाकर, द्रव्यशुद्धि, प्रार्थना, रत्नाकर, ख्यातिवाद, भेदाभेदवादनिर्णय. सष्टिभेदवाद, अन्धकारवाद, जीवप्रतिबिम्बवादखण्डन, आविर्भाव, तिरोभाववाद, भक्त्युत्कर्षवाद, ऊर्ध्वपुण्ड्रधारणवाद, मालाधारणवाद, मूर्तिपूजनवाद, शंखचक्रधारणवाद, भगवत्प्रतिकृतिपूजनवाद, गीता-टीका आदि हैं। इनमें से प्रस्थानरत्नाकर का महत्त्व सर्वोपरि है। वल्लभ-सम्प्रदाय में उन्होंने ही सर्वप्रथम प्रस्थानत्रयी या कहिए, प्रस्थानचतुष्टय पर भाष्य लिखा। इस अर्थ में वे अद्वितीय दार्शनिक हैं।

(२) गोस्वामी हरिराय ने ११ कारिकाओं में ब्रह्मवाद का, २१ कारिकाओं में पुष्टिमार्ग का तथा १३५ कारिकाओं में सिद्धान्तरहस्य का वर्णन किया है। उनके ये तीनों ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी और प्रामाणिक हैं। उनका समय बालकृष्णभट्ट के पहले है, क्योंकि बालकृष्ण भट्ट ने प्रमेयरत्नार्णव में उनके श्रीपुष्टिमार्गलक्षणानि को पूर्णतया उद्धृत किया है। डॉ. सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त ने उनका जन्म १५६३ ई. माना है।

(३) बालकृष्ण भट्ट “लालू भट्ट” (जन्म १६६७ ई.) गो. पुरुषोत्तम के समकालीन थे। उनका मुख्य ग्रन्थ प्रमेयरत्नार्णव है जिसमें शुद्धाद्वैतवाद के सभी पहलुओं का विवेचन है। इसके अतिरिक्त निर्णयार्णव, सेवाकौमुदी, सेवाफलटीका, जन्मप्रकरणसुबोधिनीयोजना, दशमतामसफलप्रकरणसुबोधिनी, योजना, सिद्धान्तमुक्तावली-टीका, सिद्धान्त-रहस्य-टीका,

अप्रभाष्यटीका, तत्त्वार्थदीपनिबन्धयोजना (केवल प्रथम प्रकरण पर) आदि हैं।४२८

(४) योगिगोपेश्वर की रश्मि के अतिरिक्त अन्य कृतियों में जन्मप्रकरणसुबोधिनी की शास्त्रटीका बुभुत्सुटीका, छान्दोग्योपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद् तथा गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद् पर उनकी टीकाएं प्रसिद्ध हैं। मूलतः वे वल्लभाचार्य के ग्रन्थों तथा उपनिषदों के टीकाकार

(५) वल्लभाचार्य के एक वंशज वल्लभ थे जिन्होंने भगवद्गीता पर तत्त्वदीपिका नामक टीका लिखी। भूल से बहुत से लोग इस टीकाकार वल्लभ को श्रीमहाप्रभु वल्लभाचार्य ही समझ लेते हैं।

(६) गिरिधर महाराजकृत शुद्धाद्वैतमार्तण्ड और हरिरायकृत ब्रह्मवाद, भक्तिरसवाद आदि ग्रन्थ सम्प्रदाय में प्रायः प्रसिद्ध हैं। किन्तु अभी सम्प्रदाय का विपुल साहित्य पाण्डलिपियों में ही सरक्षित है और उसके प्रकाशन की आवश्यकता है। इस सम्प्रदाय का प्रभाव व्रजभाषा, खड़ी बोली हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती साहित्य पर बहुत अधिक पड़ा है। यदि इन भाषाओं के भी साहित्य को सम्प्रदाय के साहित्य में शामिल कर लिया जाय तो इस सम्प्रदाय की साहित्य-राशि वेदान्त के समस्त प्रस्थानों से अधिक हो जायेगी।

संक्षेप में वल्लभाचार्य का मत निम्न श्लोक में अभिव्यक्त है

“वेदाः सूत्राणि गीतामितिरुत शुकगीश्चार्षशास्त्रं तदिष्टं ब्रह्माभिन्नः प्रपञ्चः कनककटकवद् ब्रह्मणोंऽशौणुरात्मा। मुक्तिः स्वानन्दरूपा भजनमपि हरेः साधनं श्रौतमाज्ञा रूपं कर्त्तव्यमेव सरणिरभिहिता श्रीमदाचार्यवयः”।।

०५. शुद्धाद्वैतवादमार्तण्ड

विट्ठलनाथ के षष्ठ पुत्र श्री यदुनाथ की आठवीं पीढ़ी में शुद्धाद्वैतमार्तण्ड के लेखक गिरिधरजी महाराज का जन्म १८३० ई. में हुआ था।
शुद्धाद्वैतमार्तण्ड ६६ श्लोकों में लिखा एक ग्रन्थ है
जिसमें उन्होंने शुद्धाद्वैतवाद का यथार्थ विवेचन किया है।
वे कहते हैं

शुद्धाद्वैतपदे ज्ञेयः
समासः कर्मधारयः +++(शुद्धं मायारहितम् अद्वैतम् इति)+++।
अद्वैतं शुद्धयोः +++(ब्रह्म-जीवयोः)+++ प्राहुः
षष्ठीतत्पुरुषं बुधाः ॥
कार्य-कारणरूपं हि
शुद्धं ब्रह्म न मायिकम्॥

इस प्रकार शुद्धाद्वैत की व्याख्या दो प्रकार से की जाती है।
प्रथम, इसमें कर्मधारय समास मानकर इसका अर्थ किया जाता है
शुद्धम् अद्वैतम् अर्थात् मायारहितं एकम् अद्वितीयम् सत् या ब्रह्म ।
पुनः षष्ठी-तत्पुरुष समास मानकर इसका अर्थ किया जाता है कि
दो शुद्ध प्रमेयों का अद्वैत
अर्थात् ब्रह्म शुद्ध है
और जीव शुद्ध है
तथा इन दोनों का जो ऐक्य या अद्वैत है वही शुद्धाद्वैत है।+++(5)+++
अथवा शुद्ध सत् ब्रह्म तथा शुद्ध सत् जगत् का अद्वैत या ऐक्य ।

वास्तव में ‘शुद्ध’ पद अद्वैत का विशेषण है।
ब्रह्म माया-सम्बन्ध से रहित है।
अतएव उसे ही शुद्ध अद्वैत कहा गया है,
क्योंकि वह एक और अद्वितीयं सत् है।
वह मायिक नहीं है।
ब्रह्म कारणरूप है
और वही कार्यरूप भी है।
कारणब्रह्म और कार्यब्रह्म दोनों का ऐक्य है।

मायारहितम् ही शुद्धम् है।
अतएव इसका अर्थ करते हुए वल्लभाचार्य तत्त्वार्थदीपनिबन्थशास्त्रप्रकरण में कहते हैं

‘प्रपंचो न प्राकृतः, नापि परमाणुजन्यः, नापि विवर्तात्मा,
नापि अदृष्टादिद्वारा जातः, नाप्यसतः सत्तारूपः,
किन्तु भगवत्-कार्यः परम-काष्ठापन्न-वस्तु-कृति-साध्यः।
तादृशोऽपि भगवद्रूपः।
अन्यथा असतः सत्ता स्यात्,
सा चाग्रे वैनाशिकप्रक्रियानिराकरणे निराकरिष्यते।
वैदिकस्तु एतावानेव सिद्धान्तः ।

अर्थात् मायारहितम् का अर्थ है प्रकृति परमाणु-माया-अदृष्ट-असत् आदि से रहितम् ।।
शुद्धाद्वैत की संकल्पना के साथ कार्यकरणवाद का एक सिद्धान्त जुड़ा है
जिसे अविकृत परिणामवाद कहा जाता है।
इस सिद्धान्त के अनुसार कारणब्राहा का ही परिणाम या विकार कार्यब्रह्म है।
अथवा कार्यब्रह्म में कारणब्रह्म का आविर्भाव होता है,
जो पहले तिरोहित था वही प्रभु-इच्छा से आविर्भूत हो जाता है।
आविर्भाव-तिरोभाव की इस प्रक्रिया में
ब्रह्म में कोई विकार नहीं आता है।
इस कारण इसे अविकृत परिणामवाद कहा जाता है।

परन्तु यहां प्रश्न उठता है-क्या अविकृत रहना और विकारवान् होना
दोनों विरुद्ध धर्म नहीं है?
इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि
इन दोनों में विरोध मान्य है।
अर्थात् यह इष्टापत्ति है।

किन्तु यह कोई दोष नहीं है
क्योंकि ब्रह्म विरुद्ध धर्मों का आश्रय है।
उसमें अचिन्त्य शक्ति है।
इस शक्ति के कारण ही वह विरुद्ध धर्मों का एक साथ आश्रय हो सकता है।

गो. श्याममनोहर ने शुद्धाद्वैतवाद का विश्लेषण करते हुए
ललितकृष्ण गोस्वामीकृत अणुभाष्य के हिन्दी अनुवाद की भूमिका में
इसमें निहित ७ सिद्धान्तों को बताया है
जो ब्रह्मवाद, विरुद्धाश्रयवाद, सत्कारणवाद, सत्कार्यवाद, आविर्भावतिरोभाववाद, अविकृतपरिणामवाद तथा कार्यकारणतादात्म्यवाद हैं।

शुद्धाद्वैत पद का प्रयोग स्वयं वल्लभाचार्य ने सुबोधिनी १०/२/३५ के भाष्य में किया है। वे कहते हैं

‘भेदनाशकं तु भगवद्विज्ञानं…

साक्षात्कारे…शुद्धाद्वैतं च स्फुरति’। अद्वैत को द्वैत से भिन्न करते हुए द्वैत को शुद्धाद्वैतमार्तण्डकार यों परिभाषित करते

“द्विधा ज्ञानं तु यद्यत्स्यानामरूपात्मना मुहुः। ईशजीवात्मना वापि कार्यकारणतोऽथवा।। द्वीतं तदेव द्वैतं स्वादद्वैतं तु ततोऽन्यथा।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति पठ्यते”।।

भागवत का प्रामाण्य मानते हुए
वे उपनिषद् के ब्रह्म को ही परमात्मा तथा भगवान् मानते हैं।
भगवान् का नित्य रूप द्विभुजीय किशोर श्रीकृष्ण हैं।
उन्हीं श्रीकृष्ण से भगवान् के सभी अवतारों के रूप प्रकट होते हैं,
उन्हीं से समस्त जगत् तथा जीव प्रकट होते हैं।
अन्ततः जो भी प्रकार होते हैं
वे उन्हीं में ही तिरोहित हो जाते हैं।
यह प्राकट्य विविध है

“अनित्ये जननं नित्ये परिच्छिन्ने समागमः। जीत नित्यापरिच्छिन्नेतनौ प्राकट्यं चेति सा त्रिधा”।। (सुबोधिनी २/६/१)।

अर्थात् अनित्य पदार्थों के जन्म तथा नाश होते हैं, नित्य और परिच्छिन्न पदार्थ (अर्थात् जीव) के समागम और अपगम होते हैं तथा नित्य और अपरिच्छिन्न पदार्थ अर्थात् ब्रह्म कब पराकद (और अप्राकट्य) होते हैं।

ब्रह्म सच्चिदानन्द है।
उसके सद्-अंश से जड़, नाम-रूप और कर्म के आविर्भाव (प्राकट्य) होते हैं,
चिद्-अंश से जीवात्माएँ प्रकट होती हैं तथा आनन्दांश से अन्तर्यामी, गुणावतार (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) लीलावतार (वाराह, नृसिंह, )

इस प्रकार शुद्धाद्वैतवाद ने सम्प्रति अद्वैतवाद और विशिष्टाद्वैतवाद के समकक्ष एक तत्त्वमीमांसा का रूप ले लिया है।

०६. ब्रह्मवाद

ब्रह्म के तीन रूप हैं-
आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक ।
उसका आधिदैविक रूप नराकृति श्रीकृष्ण पर पुरुषोत्तम हैं।

आध्यात्मिक रूप अक्षर ब्रह्म है।
पुरुषोत्तम ही पर ब्रह्म है।
उसे निर्गुण ब्रह्म कहा जाता है,
क्योंकि उसके अनन्त अप्राकृतगुण हैं
और वह हेय गुणों से रहित है।+++(4)+++
अतः वह मूलतः सगुण है।

उसके छः गुण विशेष उल्लेख्य हैं।
ये हैं-ज्ञान, यश, वीर्य, वैराग्य, श्री और ऐश्वर्य ।
ब्रह्म का वर्णन भी त्रिविध है।

वेद का कर्मकाण्ड भाग उसका वर्णन क्रियाविशिष्ट ब्रह्म के रूप में करता है,
ज्ञानकाण्ड उसे ज्ञानविशिष्ट ब्रह्म कहता है
और गीता, भागवत आदि ग्रन्थ उसे ज्ञान और क्रिया दोनों से विशिष्ट कहते हैं।

वहीं सच्चिदानन्द है।
उसका मुख्य रूप आनन्द है।
सत् और चित् आनन्द के अंग हैं, अंगी आनन्द ही है।
इस प्रकार वल्लभ का ब्रह्मवाद मुख्यतः आनन्दवाद है।

अक्षर ब्रह्म का आध्यात्मिक स्वरूप है।
वह अपर ब्रह्म है।
उसे ही कारणब्रह्म कहा जाता है,
क्योंकि वही जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादानकारण है।
अक्षरब्रह्म अधिकारिभेद से दो प्रकार से भासित होता है।
भक्तों के लिए वह परम धाम, परम व्योम या अव्यक्त है।
इसी को वैकुण्ठ या गोलोक कहा जाता है।
यह शुद्ध अर्थात् अप्राकृत सत्त्व है।
ज्ञानियों के लिए वह सच्चिदानन्द, स्वप्रकाश तथा देशकाल से अपरिच्छिन्न है।
अक्षरब्रह्म से ही जीवों का आविर्भाव होता है।

अक्षरब्रह्म के चार रूप हैं-
(१) अक्षर, (२) काल, (३) कर्म और (४) स्वभाव ।
ये चारों नित्य हैं।
अक्षररूप से ही प्रकृति और पुरुष का आर्विभाव होता है।
प्रकृति और पुरुष के अनन्तर उन्हीं २३ तत्त्वों का आविर्भाव होता है
जिनकी गणना सांख्य दर्शन में की गयी हैं।

अन्तर्यामी रूप से ब्रह्म प्रत्येक जीव में निवास करता है।
इसी रूप के कारण (अन्तर्यामी होने के कारण) ब्रह्म अवतार लेता है।
ब्रह्मा, विष्णु और शंकर उसके गुणावतार हैं।
मत्स्य, कच्छप आदि दशावतार उसके लीलावतार हैं।
ये अवतार कल्पानुसार और युगानुसार होते रहते हैं।

०७. जगत् का सिद्धान्त

जगत् ब्रह्म का आधिभौतिक रूप है।
वह ब्रह्म के स्वरूप का परिणाम है।
वह सत्य है, मिथ्या नहीं।

किन्तु जगत् और संसार में अन्तर है।
जो ब्रह्म को जानते हैं
उनके लिए जगत् की प्रत्येक वस्तु में ब्रह्म विद्यमान है।
उनके लिए संसार नहीं है।
उन्हें अख्याति या भ्रम नहीं होता है।

किन्तु जो अज्ञानी हैं
वे जगत् की वस्तुओं को अन्य प्रकार से देखते हैं।
उन्हें अन्य ख्याति होती है।
यह अन्यख्याति अन्यथाख्याति से भिन्न है।
अन्यख्याति विषयता को उत्पन्न करती है।
विषयता द्विविध है ‘आच्छादिका और अन्यथाप्रतीतिहेतुका।
विषयता मायाजन्य है, जबकि विषय भगवान है’।
(सुबोधिनी २/६/३३)।

आच्छादिक विषयता
जगत् की ब्रह्मरूपता को प्रकाशित नहीं करती।
दूसरी विषयता जगद्रूपता को प्रकाशित करती है।

इस प्रकार विषयता पदार्थों की अन्यथाप्रतीति है।
किन्तु इससे पदार्थ अन्यथा नहीं हो जाते हैं।
उभयविध विषयता के निराकरण के लिए ही
सभी प्रमाणों की प्रवृत्ति है।

संसार और जगत् में बड़ा अन्तर है,
ऐसा वल्लभाचार्य मानते हैं।
संसार असत् है।
वह जीव के अज्ञान से उत्पन्न होता है।
इसके विपरीत जगत् सत्य है,
क्योंकि वह आधिभौतिक ब्रह्म है।
संसार अहंता और ममता से निर्मित होता है।
उसका नाश विद्या से होता है।
अविद्या और विद्या दोनों भगवान् की मायाशक्ति से उत्पन्न होती हैं।
विद्या पांच प्रकार की है-
(१) वैराग्य, (२) सांख्य, (३) योग, (४) तप और (५) केशव के प्रति भक्ति।
अविद्या भी पांच प्रकार की है-
(१) आत्मा की अज्ञानावस्था,
(२) अन्तःकरण का अध्यास,
(३) प्राणों का अध्यास,
(४) इन्द्रियों का अध्यास तथा
(५) शरीर का अध्यास।

पांचों प्रकार की अविद्या को दूर करके
विद्या द्वारा ब्रह्मानन्द का अनुभव किया जाता है।

०८. जीव

जीव अणु है, किन्तु वह संपूर्ण शरीर में व्याप्त है।
वह ब्रह्म का अंश है
और इस कारण ब्रह्म से अभिन्न है।+++(5 तर्हि ब्रह्मणि दुःखादिदोषाः। )+++

किन्तु उसमें भगवान् के छः गुणों का तिरोधान रहता है।
ऐश्वर्य के तिरोधान से वह आश्रित है।
वीर्य के तिरोधान से वह दुःखी है।
यश के तिरोधान से वह निम्न है।
श्री के तिरोधान से वह जन्म-मरण के चक्र में फंसा है।
ज्ञान के तिरोधान से उसमें अहंकार और अज्ञान हैं।
वैराग्य के तिरोधान से उसमें ममता और आसक्ति हैं।
प्रथम छः गुणों के तिरोधान से जीव बन्धन में पड़ता है
और अन्तिम दो गुणों के तिरोधान से
वह अज्ञानी हो जाता है।

उसमें सत् और चित् तो रहते हैं,
किन्तु आनन्द पूर्णतया तिरोहित रहता है।
जब आनन्द का स्फुरण हो जाता है
तो जीव ब्रह्म की भाँति विभु हो जाता है।

सभी जीव एक दूसरे से भिन्न हैं।
जीव और जगत् भगवान् की आत्मसृष्टि हैं
अर्थात् भगवान् के स्वरूप से ही आविर्भूत होते हैं।

जीवों को जो कुछ सुख तथा दुःख मिलते हैं
उसके लिए भगवान् जिम्मेदार नहीं है,
अपि तु उनके पूर्वकर्म ही जिम्मेदार हैं।
ये कर्म नित्य तत्त्व के रूप में
अक्षर में रहते हैं।

कर्म के अतिरिक्त अदृष्ट, धर्म, अधर्म आदि को
वल्लभ नहीं मानते हैं।
उनकी तत्त्वमीमांसा में अक्षर-तत्त्व को प्रमुखता दी जाती है।

डा. पी.एम. मोदी ने इसको लेकर अंग्रेजी में एक ग्रन्थ लिखा है-
अक्षर, ए फारगाटेन चैप्टर इन इण्डियन फिलासफी
(भारतीय दर्शन का एक भुलाया हुआ अध्ययन-अक्षर तत्त्व)।

०९. पुष्टिमार्ग

वल्लभाचार्य ने जीवों को तीन कोटियों में बांटा है-
प्रवाह, मर्यादा और पुष्टि।

[[४३३]]

प्रवाह-जीव वे जीव हैं जो निरुद्देश्य जगत् में व्यस्त रहते हैं
और भगवान् के बारे में तनिक भी नहीं सोचते हैं।

पुनः, जो जीव धर्मग्रन्थों का अध्ययन करते हैं,
उनके द्वारा भगवान् के वास्तविक स्वरूप को समझते हैं
और विधिपूर्वक उसकी उपासना करते हैं
उन्हें मर्यादा कहा जाता है।

अन्त में, जो जीव ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त करते हैं
और तन-मन-धन से उसकी उपासना करते हैं
उन्हें पुष्टि-जीव कहा जाता है।

मर्यादा जीव नवधा भक्ति करते हैं
जिनमें श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन, पादसेवन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन हैं।

पुष्टिभक्ति इन नौ प्रकारों से भिन्न है।
यह दशमी भक्ति है
जिसे चैतन्यमत में रागानुगा भक्ति कहते हैं।
पुष्टिभक्ति का आरम्भ ईश्वर का अनुग्रह है।
पुष्टि का अर्थ ही पोषण या भगवान् का अनुग्रह है।

गोस्वामी हरिराय ने श्रीपुष्टिमार्गलक्षणानि में
पुष्टिमार्ग का वर्णन २१ श्लोकों में किया है।
वल्लभमत में पुष्टिमार्ग का विशिष्ट महत्त्व होने के कारण
इन श्लोकों को जानना आवश्यक है।
अतः ये नीचे दिये जा रहे हैं -

इन श्लोकों की भाषा स्वतः सरल, प्राञ्जल और स्पष्ट है। अतः इनका अनुवाद यहाँ नहीं दिया गया है।

उपर्युक्त प्रकार से जिस पुष्टि का वर्णन है
वह वास्तव में शुद्धपुष्टिभक्ति का वर्णन है,
मात्र पुष्टि का नहीं।
पुष्टिमार्ग के अनुसार प्रवाह, मर्यादा तथा पुष्टि-जीवों में भी
पुष्टि, मर्यादा तथा प्रवाह के भेद हैं,
इनमें जो पुष्टि है वह मिश्रपुष्टि है।
उससे भिन्न शुद्धपुष्टि है।

हरिराय की उपर्युक्त कारिकाओं में
केवल शुद्धपुष्टि का वर्णन है।
इस प्रकार जीवों का वर्गीकरण निम्नलिखित है

  • पुष्टि
    • शुद्ध
    • मिश्र
      • पुष्टि
      • मर्यादा
      • प्रवाह
  • मर्यादा
    • शुद्ध
    • मिश्र
      • पुष्टि
      • मर्यादा
      • प्रवाह
  • प्रवाह
    • शुद्ध
    • मिश्र
      • पुष्टि
      • मर्यादा
      • प्रवाह

[[४३६]]

इस प्रकार कुल १२ प्रकार के जीव हैं।
पुष्टि-मर्यादा-प्रवाह के दो और वर्गीकरण कहीं-कहीं अन्य प्रकार से भी
जीवों का जो वर्गीकरण किया गया है
उसके लिए गोस्वामी श्याममनोहर ने
पुष्टिप्रवाहमर्यादा की भूमिका में
ऐसे दो और वर्गीकरणों का जो उल्लेख किया है
उसे देखा जा सकता है।

मार्गभेद, सर्गभेद तथा फलभेद के आधार पर
पुष्टिमार्गीय जीव अन्य जीवों से भिन्न हैं

पुष्टिमार्गीय जीवों का साधन एकमात्र भगवान् की पुष्टि का अनुग्रह है
और फल एकमात्र भगवान स्वयं हैं।
इस साधन और फल को
अन्य साधनों तथा फलों से मिलाने पर
विभिन्न प्रकार की पुष्टिभक्ति हो जाती है।

भक्ति के विकास में सात अवस्थाएं हैं
जिन्हें- भाव, प्रेम, प्रणय, स्नेह, राग, अनुराग तथा व्यसन कहा जाता है।
अन्तिम अवस्था भगवान् के बिना जीने का असामर्थ्य है।+++(4)+++
इस अवस्था में गृहस्थ आश्रम से वैराग्य हो जाता है।
वल्लभ ने भी इसी कारण
अपने गोलोकवास से पूर्व संन्यास लिया था।

भक्ति का फल अलौकिक है।
यह भगवान् से सायुज्यलाभ करना है
और तदर्थ से सेवोपयोगी देह प्राप्त करना है।

भक्ति और सेवा में अन्तर है।
जब तक सब प्रकार से भगवान् के प्रति समर्पण न हो
तब तक सेवा नहीं हो सकती है,
यद्यपि भक्ति हो सकती है।
सेवाधर्म को इसीलिए अत्यन्त कठिन कहा गया है।
भगवान् की सेवा वही कर सकता कि है
जो आठों याम भगवान के साथ ही रहने को कृतसंकल्प है।
जो लोक तथा वेद की विधियों की परवाह न करते हुए
भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति निरुपाधिक तथा निरवधिक प्रेम करता है
वही सेवा का अधिकारी है।+++(5)+++

सेवा पूजा से अत्यन्त उत्कृष्ट है।
वह नवधा भक्ति से भी श्रेष्ट है।

व्रज की गोपिकाओं का कृष्ण के प्रति प्रेम
विशेषतः श्रीराधा का कृष्ण के प्रति प्रेम
पुष्टिमार्गीय भक्तों का आदर्श है।
गोपीजनवल्लभाय नमः,
इस मंत्र का तात्पर्य यही अहैतुकी निरपेक्ष सेवापरायणा परमभक्ति है।

“एकं शास्त्रं देवकीपुत्र-गीतम्
एको देवो देवकीपुत्र एव।
मंत्रोऽप्येकस्तस्य नामानि यानि
कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा” ।।

अर्थात् शास्त्र एक ही है, वह गीताशास्त्र है। देव एक ही है, वह श्रीकृष्ण है। मंत्र भी एक ही है, वह श्रीकृष्ण का प्रत्येक नाम है। कर्म भी एक ही है, वह श्रीकृष्ण की सेवा है। इस प्रकार ज्ञान, भक्ति तथा कर्म का अद्भुत समन्वय पुष्टिमार्ग में किया गया है।

स्पष्ट है कि वल्लभ-वेदान्त में ज्ञानमार्ग तथा जीवन्मुक्ति को अपर्याप्त माना गया है।
उनका कहना है कि ज्ञानमार्ग कठिन है
और अनेक जन्मों में सम्भव होता है।
तथापि उसमें भक्ति की आवश्यकता है
और वह भक्ति-निरपेक्ष होने पर अकिंचित्कर है।

अतएव भक्तिमार्ग ही सर्वसुलभ तथा प्रभावकारी मोक्षमार्ग है।
मोक्ष का अर्थ भगवान् के साथ सायुज्यलाभ करना है
और उसकी लीलाओं की रसात्मक अनुभूति करना है।

श्रीकृष्ण और गोपियों की लीला का रसास्वादन करना
इस भौम वृन्दावन का आनन्द है।
उसी को नित्य अनुभव करना
अप्राकृत वृन्दावन या अक्षरधाम का अनुभव है।

अक्षर-तत्त्व का उद्घाटन करना
तथा उसे तत्त्ववाद और भक्तिमार्ग में महत्त्व देना
वल्लभ-वेदान्त की एक प्रमुख विशेषता है।

१०. ज्ञानमीमांसा

हु वल्लभवेदान्त में कहीं-कहीं उपसम्प्रदायों की चर्चा है। एक उपसम्प्रदाय प्रमेयमत कहा

जाता है। इसमें ब्रह्म का मुख्यतया वर्णन किया जाता है। विपरीततः दूसरा उपसम्प्रदाय ही प्रमाणमत कहा जाता है। इसमें मुख्यतः प्रमाणों की चर्चा की जाती है। एक तीसरा मत

केवल भक्ति की ही चर्चा करता है जिसे पुष्टिमार्ग कहा जाता है। वैसे ब्रह्मसूत्र के चार अध्याय क्रमशः प्रमाण, प्रमेय, साधन तथा फल के नाम से विख्यात हैं। वल्लभ-वेदान्त में इन्हीं चार अध्यायों के नाम पर न्यूनाधिक बल देने से क्रमशः प्रमाणमत, प्रमेयमत, साध

नमत तथा फलमत हो गये हैं। किन्तु ये वास्तव में उपसम्प्रदाय के निकाय के रूप में नहीं। हैं। यहाँ मत का अर्थ केवल सिद्धान्त है। PIDIRICITAINEERIATI HEAR

वल्लभ ‘मेयाधीनं मानम्’ को मानते हैं। वे अलौकिक अर्थ के लिए केवल शब्द त प्रमाण को प्रमाण मानते हैं और लौकिक अर्थ के लिए वे प्रत्यक्ष, अनुमान तथा ऐतिह्य को

प्रमाण मानते हैं। शब्द-प्रमाण में वे वेद, स्मृति तथा पुराण को मानते हैं। उनके मत से मा भागवतपुराण का प्रामाण्य सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वह वेद का उपबृहण है, ब्रह्मसूत्र का भाष्य है, गायत्री-मंत्र की व्याख्या है. तथा व्यास की समाधि-भाषा है साक्षात् हरि या भगवान् श्रीकृष्ण है। मेय को इतना महत्त्व वल्लभाचार्य के पूर्व किसी ने नहीं दिया था।

प्रत्यक्ष इन्द्रियार्थसम्प्रयोगजन्य ज्ञान है। यह छः प्रकार का है, चाक्षुष, स्पार्श, श्रावण, घ्राण, रासन तथा मानस । इस मत में मन एक इन्द्रिय है। इससे भिन्न ४ प्रकार के अन्तःकरण का ज्ञान है। मन का कार्य संकल्प-विकल्प है। उसका ज्ञान संशयकोटि का है। बुद्धि का ज्ञान निश्चय है। अहंकार का ज्ञान स्वप्न है। चित्त का ज्ञान स्वप्नरहित सुषुप्ति

में आत्मज्ञान है। मन को एक और मानस प्रत्यक्ष से जोड़ा जाता है तो दूसरी ओर संशय मिसे। अतः मन के ये द्विविध व्यापार हैं। अनुमान व्याप्तिजन्य ज्ञान है। व्याप्ति हेतु तथा

साध्य का निरुपाधिक साहचर्य है। व्याप्ति के दो भेद हैं, समव्याप्ति और विषमव्याप्ति । जैसे कृतकत्व और अनित्यत्व के मध्य समव्याप्ति है और धूम और अग्नि के मध्य विषमव्याप्ति है। गोस्वामी पुरुषोत्तम अनुमान के दो प्रकार मानते हैं-केवल-व्यतिरेकि और अन्वय-व्यतिरेकि । वे केवलान्वयि अनुमान को नहीं मानते हैं। वे उपमान तथा अनुपलब्धि को स्वतंत्र प्रमाण

नहीं मानते हैं और इनका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष में करते हैं। वे अर्थापत्ति को भी एक स्वतंत्र शा प्रमाण मानते हैं। उनका यह मानना वल्लभमत में एक विशिष्टता रखता है। किन्तु

+मियाधीनं मानम्’, इस मत के अनुसार अर्थापत्ति का अन्तर्भाव अनुमान के अन्तर्गत है। इस मत से तीन ही प्रमाण सिद्ध होते हैं, प्रत्यक्षा, अनुमान और शब्द। मा

ऐतिहा को वल्लभमत में एक स्वतन्त्र प्रमाण माना जाता है। इसके लिए इतिहास, पुराण तथा जनश्रुतियों की गणना की जाती है। किन्तु इस प्रमाण को परीक्षोपरान्त ही स्वीकारा जाता है। कभी-कभी मिथ्या प्रवाद भी ऐतिहा के अन्तर्गत आ जाते हैं। उनसे बचने के लिए ऐतिहा की परीक्षा अपेक्षित है। वैसे ऐतिहा शब्द-प्रमाण के अन्तर्गत है।

सत्त्वसहिता बुद्धि प्रमाण है। प्रत्यक्ष-ज्ञान में मात्र इन्द्रियों का ही योगदान नहीं है, अपि तु बुद्धि को भी भूमिका है। बालकृष्णभट्ट कहते है कि प्रत्यक्ष-ज्ञान में मन, इन्द्रिय और विषय सामान्य ज्ञान के उत्पादक हैं और ज्ञान के विशिष्ट आकारों या रूपों की उत्पत्ति बुद्धि से होती हैं। इस प्रकार प्रायः जर्मन दार्शनिक काण्ट की मांति वे बुद्धिवाद तथा अनुभववाद का समन्वय करते हैं।

पुनश्च, सुबोधिनी (२/६/३३) के अनुसार विषयताजनितं ज्ञानम् आन्तम् और विषयजनितं (ज्ञानम्) प्रमा है। अर्थात् विषयजन्य ज्ञान प्रमा है और विषयताजन्य ज्ञान अम है। विषयत्ता औषाधिक है, मायिक है। विषय ब्रह्म है। विषय और विषयता का वह अन्तर वल्लभमत का एक वैशिष्ट्य है। विषयता के उत्पत्ति तथा नाश होते हैं। जब शक्ति में रजत का प्रम होता है तो रजत मायिक या औपाधिक है। विषय-ज्ञान से यह प्रम दूर हो जाता है। अतएच वल्लभ अन्यख्यातिवाद को मानते हैं, अन्यथाख्यातिवाद को नहीं । श्रम का विषय रजत है, वह शुक्ति से अन्य है और शुक्ति की अन्यवाख्याति नहीं है। गोस्वामी पुरुषोत्तम प्रस्थानरत्नाकर (पं. १७) में इसका वर्णन यों करते हैं

‘पूर्वोत्पन्नस्य अनुभवस्य संस्कारात्मना स्थितस्य म

उबोधकैः प्राबल्ये मायिकार्याकारवती बुद्धिवृत्ति जालना या मायया बहिः क्षिप्यते। तदा सा पुरोवर्तिनं सर्वतः । कम हाली अंशतो वा आवृत्य बहिरवभासत इति मायिकस्य अन्यस्यैव

ख्यानाद् अन्वख्यातिरित्यत्र व्यवहियते’। कि सभी प्रमाणों को वल्लभवेदान्त स्वतः प्रामाण्य मानता है। यदि प्रमाण के प्रामाण्य को - परतः माना जाय तो अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। अतएव स्वतः प्रामाण्यवाद ही तर्कसंगत वाद है।

११. शुद्धाद्वैत का प्रभाव

वल्लभ ने शंकर, रामानुज, मध्व तथा निम्बार्क के ब्रह्मवादों का खण्डन किया है
और शुद्धाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है
जिसमें आनन्द ही ब्रह्मा का मुख्य लक्षण है।
इसके साथ पुष्टिमार्ग का प्रतिपादन करते हुए
वल्लभ ने सभी वर्गों और जातियों के सदस्यों को
एक मोक्षमार्ग प्रदान किया है।

चित्रकला, संगीत तथा साहित्य के क्षेत्र में
उनके मत का युगान्तरकारी प्रभाव पड़ा है।
इसके कारण हिन्दी तथा गुजराती में विपुल भक्तिसाहित्य का सृजन हुआ है।
संस्कृत में भी उनका प्रभाव उनके सम्प्रदाय के बाहर भी फैला है।

चैतन्य सम्प्रदाय तथा वल्लभसम्प्रदाय दोनों का उद्भव तथा विकास
परस्पर सहयोग से हुआ है
और दोनों में मधुराभक्ति या रसिक-सम्प्रदाय का जो विकास हुआ है
उससे संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य
अत्यन्त प्रभावित हुआ है।

इसके अतिरिक्त शुद्धाद्वैत के क्षेत्र में
वल्लभ का प्रभाव आज तक बना हुआ है।
न जाने कितने मनुष्यों ने उनके सम्प्रदाय से
ब्रह्मासंबंध स्थापित किया है
और भक्ति की उत्कट भूमिकाओं का अनुभव किया है।
सम्प्रति वल्लभमत सनातन धर्म का एक अनिवार्य अंग बन गया है।
उत्तरी भारत में उसका पूर्ण तादात्म्य
कृष्णभक्ति से हो गया है।

उसका आनन्दवाद
वल्लभोत्तर समस्त वेदान्त का सामान्य मत हो गया है।
उत्तरी भारत की संत-परस्परा पर उसका अमिट प्रभाव है।

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