पुष्टिमार्गलक्षणानि
विस्तारः (द्रष्टुं नोद्यम्)
वस्तुतो ऽत्र शुद्ध-पुष्टि-मार्ग-लक्षणानि, न मिश्र-पुष्ट्यादि-लक्षणानि।
नात्रोक्तं फलं सर्व-सम्मतम् -
- पूर्वे संयोग-रूपं परम-फलम् आहुः।
- हरिदासो वियोगरूपम् आह।
- तच्छिष्य उभरूपम् परम-फलम् आह।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व-साधन-राहित्यं
+++(लीलासाक्षात्कारात्मक-)+++फलाप्तौ यत्र साधनम् +++(- नाम दीनता)+++ ।
फलं+++(→लीलासाक्षात्कारः)+++ वा साधनं यत्र
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १॥
हिन्दी
जिस मार्ग में लौकिक तथा अलौकिक सभी साधनों का अभाव
पूर्ण आनंदरूप श्री कृष्ण की प्राप्ति में साधन रूप है,
अर्थात सिर्फ दीनता ही जहाँ साधन है,
एवं जहाँ उसी दीनता के माध्यम से
फल रूप प्रभु स्वयं साधन बन जाते हैं,
अर्थात स्वयं कृपा कर जीव के ह्रदय में पधारते हैं,
जहाँ फल ही साधन है वही शुद्ध पुष्टिभक्ति मार्ग है .
मूलम्
सर्वसाधनराहित्यं फलाप्तौ यत्र साधनम् ।
फलं वा साधनं यत्र पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुग्रहेणैव सिद्धिर्
लौकिकी यत्र वैदिकी ।
प्रयत्नाद् अन्यथा विद्मः
पुष्टिमार्गः सः कथ्यते ॥ २॥
हिन्दी
जिस मार्ग में लौकिक तथा वैदिक सिद्धि प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती हैं,प्रभु का आश्रय छोड स्वयं के पुरुषार्थ से उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करने पर सिर्फ विघ्न ही प्राप्त होते हैं,ऐसा प्रभु का अनन्य आश्रय जिस मार्ग में कहा गया है वही शुद्ध पुष्टिभक्ति मार्ग है,पुष्टिमार्ग में सब कुछ भगवत्कृपाधीन है.
मूलम्
अनुग्रहेणैव सिद्धिलौकिकी यत्र वैदिकी ।
प्रयत्नादन्यथा विद्मः पुष्टिमार्गः सः कथ्यते ॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(कृष्णात्मक-)+++स्व-रूप–मात्र-परता-
तात्पर्य-ज्ञान-पूर्वकम् ।
धर्म-निष्ठा यत्र चैव
पुष्टि-मार्गः स कथ्यते ॥ ३॥
हिन्दी
जिस मार्ग में शास्त्रों में कहे हुए
सभी धर्मों का तात्पर्य सिर्फ प्रभु में ही है,
अर्थात् सभी धर्म प्रभु में ही रहे हुए हैं,
ऐसा जानकर एवं प्रभु प्राप्ति में बाधा बन ने वाले सभी धर्मों का त्याग कर
केवल प्रभु में ही निष्ठा रखी जाती है,
वही शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
स्वरूपमात्रपरतातात्पर्यज्ञानपूर्वकम् ।
धर्मनिष्ठा यत्र चैव पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(प्रभुणा)+++ यत्राङ्गीकरणेनैव
योग्यतादि-विचारणम् ।
अविलम्बः प्रभुकृतः
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ४॥
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु जब जीव का अंगीकार करते हैं
तब जीव की योग्यता का विचार नहीं करते
सिर्फ स्वयं की इच्छा से ही जीव का अविलम्ब अंगीकार करते हैं,
जहां सिर्फ प्रभु कृपा ही जीव के अंगीकार में कारण है,
वही शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
यत्राङ्गीकरणेनैव योग्यतादिविचारणम् ।
अविलम्बः प्रभुकृतः पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र प्रभु+++(-विषय-)+++कृतं नैव
गुण-दोष-विचारणम् ।
+++(तत्-तल्-लीलास्व्)+++ अविलम्बः प्रभुकृतः
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ५॥
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु के गुण एवं दोषों का विचार नहीं किया जाता ,
(क्योंकि प्रेम यदि गुण-दोषों पर आधारित है तो वह भी गुण के साथ बढेगा और दोष देख कर घटेगा )
परंतु प्रभु की सभी लीलायें उत्तम ही हैं,
यही विचार हमेशा मन में रहता है,
वही मार्ग शुद्ध्पुष्टिभक्ति मार्ग है,इसीलिये जीव को यह विचार हमेशा मन में रखना चाहिये कि सुख एवं दु:ख भी भगवत्कृत हैं,अत: उन्हें आनंद से स्वीकारना चाहिये
मूलम्
यत्र प्रभुकृतं नैव गुणदोषविचारणम् ।
अविलम्बः प्रभुकृतः पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न लोक-वेद-सापेक्षं +++(क्षुद्र-फलं)+++
सर्वथा यत्र वर्तते ।
सापेक्षता स्वामि-सुखे +++(लीलाजन्ये)+++
पूष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ६॥
हिन्दी
जिस मार्ग में सेवक द्वारा
स्वयं के स्वामी प्रभु के सुख को ही प्रधानता दी जाती है,
तथा लोक एवं वेद से प्राप्त होने वाले
किसी भी तरह के फल की अपेक्षा नहीं रखी जाती,
जहां सिर्फ “तत्सुख” की ही प्रधानता है,वही शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
न लोकवेदसापेक्षं सर्वथा यत्र वर्तते ।
सापेक्षता स्वामिसुखे पूष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(प्रभुणा)+++ वरणे दृश्यते यत्र
हेतुर् नाणुर् अपि स्वतः ।
वरणं च निजेच्छातः
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ७॥
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु जीव के किसी भी साधन का विचार किये बिना
सिर्फ उसकी निःसाधनता देख कर
अपनी इच्छा से उसका अंगीकार करते हैं
(क्योंकि साधन संपन्नता से अभिमान आता है )
वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
वरणे दृश्यते यत्र हेतुर्नाणुरपि स्वतः ।
वरणं च निजेच्छातः पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र स्वतन्त्रता भक्तेर्
+++(भगवद्-)+++आविर्-भावानपेक्षणात् ।
सानुभाव+++(→संवादादि)+++–स्व-रूपत्वं +++(→भक्तेः)+++
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ८॥
पूर्णानन्दः
सानुभावः अस्मिन् सन्दर्भे भगवतः कोपि अस्माभिः सह अलौकिकः संवाद उच्यते। यथा केन सह साक्षाद्वार्ता अथवा स्वप्ने दर्शनदानम्, अथवा स्वप्ने कापि आज्ञा दत्ता, यद्वा कुत्रचित् संकेतमाध्यमेन किञ्चिद् अभिव्यनक्ति इत्यादि।
पूर्णानन्दः - हिन्दी
अन्यत्र जो साधन है प्रीति वो यहाँ फल है। अन्यत्र भक्ति और प्रीति को भगवान् के साक्षात्कार के लिए उपायरूप माना जाता है। अन्यत्र जो फल है भगवत्प्राप्ति वो यहाँ साधन है। भगवत्प्राप्ति ब्रह्मसम्बन्ध के ही काल में नित्य मूलगुरु महाप्रभुजी और दीक्षागुरु की कृपा से हो जाती है। ततः प्रेम आसक्ति और व्यसन से भक्ति को दृढ करना और चरमभक्ति और चरमप्रीति प्राप्त करना ही फल है।
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु प्रकट होकर रसदान करें
ऐसी भी अपेक्षा भक्त द्वारा नहीं रखी जाती,
एवं भगवद् गुणगान द्वारा स्वतंत्र भक्ति की जाती है
वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है.
विवरण:-
भक्ति दो प्रकार की हैं,
संयोगजन्य एवं विप्रयोगजन्य,
संयोग भक्ति में प्रभु की भक्त के सन्मुख उपस्थिति आवश्यक है,
उसमें प्रभु एवं भक्त दोनों परस्पर बंध जाते हैं,
जब कि विप्रयोग भक्ति में प्रभु भक्त के सन्मुख उपस्थित रहें ऐसा आवश्यक नहीं है,
इसीलिये इसे स्वतंत्र भक्ति भी कहा गया है,
संयोग भक्ति में जो लीला हो रही है उसी का अनुभव होता है,
परंतु विप्रयोग भक्ति में तो प्रभु कृपा से सभी लीलाओं का अनुभव होता है,
ऐसी विप्रयोग भक्ति जिस मार्ग में है, वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
यत्र स्वतन्त्रता भक्तेराविर्भावानपेक्षणात् ।
सानुभावस्वरूपत्वं पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोक-वेद-भयाभावो
यत्र +++(प्रभु-विषयक-)+++भावातिरेकतः ।
सर्व-बाधकता-स्फूर्तिः +++(अपि भावातिरेकतः)+++
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ९॥
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु के प्रति जीव का भाव (प्रेम)
इतनी उच्च कोटि (व्यसन दशा) पर पहूंच जाता है
कि फिर उसे लौकिक और वैदिक की जरा भी परवाह नहीं रहती
इतना ही नहीं -
बल्कि उसके लिये भगवत्-संबंध-रहित वस्तु मात्र दुःख जनक हो जाती है़,
ऐसा उच्च कोटि का भगवद्भाव जिस मार्ग में है
वह शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
लोकवेदभयाभावो यत्र भावातिरेकतः ।
सर्वबाधकतास्फूर्तिः पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्बन्धः साधनं यत्र
फलं +++(लीलासाक्षात्कारेण)+++ सम्बन्ध एव हि ।
सोऽपि कृष्णेच्छया जातः
पुष्टिमार्गः सकथ्यते ॥ १०॥
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु से सम्बंध होना साधन रूप भी है एवं फल रूप भी.साधनरूप = ब्रह्मसम्बंध एवं फलरूप = प्रभु की लीला का साक्षात्कार.इन साधन एवं फल की प्राप्ति में भी प्रभु की कृपा ही एकमात्र कारण है न कि जीव का प्रयत्न या पुरुषार्थ.ऐसा प्रभु कृपा का माहात्म्य जिस मार्ग में है,वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है.
मूलम्
सम्बन्धः साधनं यत्र फलं सम्बन्ध एव हि ।
सोऽपि कृष्णेच्छया जातः पुष्टिमार्गः सकथ्यते ॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्-सम्बन्धिषु तद्-भावस्
तद्-भिन्नेषु विरोधिता ।
उदासीनेषु समता
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ११॥+++(4)+++
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु के जो भक्त हैं, उनसे प्रेम
एवं जो प्रभु के विरोधी हैं, उनसे विरोध,
एवं जो प्रभु के प्रति उदासीनता रखते हैं, उनसे उदासीनता ऐसी समता का व्यवहार होता हो,
अर्थात जहां लौकिक व्यवहार में भी
प्रभु की ही प्रधानता रखी जाती हो
वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है.
मूलम्
तत्सम्बन्धिषु तद्भावस्तद्भिन्नेषु विरोधिता ।
उदासीनेषु समता पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्यमानस्य देहादेर्
न स्वीयत्वेन भावनम् ।
+++(प्रभोः)+++ परोक्षे ऽपि तद्+++(→प्रभ्व्)+++-अर्थित्वं
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १२॥
हिन्दी
जिस मार्ग में देह, इंद्रिय, इत्यादि में ममता न रखते हुए
सिर्फ प्रभु सेवा के उद्देश्य से ही उनका पोषण किया जाता है
एवं विप्रयोग में भी देह इत्यादि की सम्भाल इसलिये रखी जाती है कि
वह प्रभु दर्शन में सहायक होगी
जिस मार्ग में जीव की आसक्ति सिर्फ प्रभु में ही केन्द्रित होती है,
और उसके जीवन का उद्देश्य सिर्फ प्रभु सेवा ही होता है
वह मार्ग ही शुद्ध पुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
विद्यमानस्य देहादेर्न स्वीयत्वेन भावनम् ।
परोक्षेऽपि तदर्थित्वं पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजने यत्र सेव्यस्य
नोपकार-कृतिः क्वचित् ।
पोषणं भाव-मात्रस्य
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १३॥+++(5)+++
हिन्दी
जिस मार्ग में “मैं प्रभु के लिये इतना कर रहा हूं“ऐसा अहंकार नहीं रखा जाता बल्कि प्रभु ही कृपा करके मेरे भाव का पोषण कर रहे हैं ऐसी भावना ही सतत रहती है | मर्यादा मार्ग में तो प्रभु से भी अपेक्षा रखी जाती है, और पुष्टिमार्ग में तो यही भावना रखी जाती है कि “प्रभु कृपा करके मेरी सेवा का स्वीकार कर रहे हैं“ऐसी दीनता की भावना जहां हमेशा जीव के हृदय में रहती है, वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
भजने यत्र सेव्यस्य नोपकारकृतिः क्वचित् ।
पोषणं भावमात्रस्य पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजनस्यापवादो न
क्रियते +++(क्षुद्र-)+++फल-दानतः … ।
प्रभुणा, यत्र +++(स्थिरात् लीलासाक्षाच्चिकीर्षात्मकात्)+++ तद्-भावात्
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १४॥
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु के द्वारा दिये गये फल के कारण
भक्त द्वारा प्रभु के भजन = सेवा का अपवाद नहीं किया जाता,
अर्थात् प्रभु की सेवा भक्त जिस प्रकार से
एवं जिस भाव से कर रहा है
वैसे ही स्थिर भाव से करता रहता है,
एवं प्रभु के द्वारा दिये गये कैसे भी फल से
उस के भाव में फर्क नहीं आता,
वह उस फल को प्रभु की कृपा ही समझ कर स्वीकार करता है,
जिस मार्ग में ऐसा शुद्ध एवं दृढ भाव
भक्त के हृदय में रहता है
वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
भजनस्यापवादो न क्रियते फलदानतः ।
प्रभुणा यत्र तद्भावात्पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र वा सुख-सम्बधो
वियोगे सङ्गमाद् अपि ।
सर्व-लीलानुभावेन +++(वियोगे, न तु सङ्गमे)+++
पुष्टिमार्ग सः कथ्यते ॥ १५॥+++(5)+++
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु की वियोग दशा में भी
उनकी सभी लीलाओं का अनुभव जीव को होने से,
संयोग से भी अधिक आनंद की अनुभूति होती है,
क्योंकि संयोग में तो प्रभु की उसी लीला के दर्शन होते हैं
जो संयोग के समय हो रही है,
परंतु वियोग में तो जीव प्रभु की जिस लीला का स्मरण करता है,
उसी लीला के दर्शन उसे होते हैं,
जिस मार्ग में वियोग में भी आनंद है,
वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
यत्र वा सुखसम्बधो वियोगे सङ्गमादपि ।
सर्वलीलानुभावेन पुष्टिमार्ग सः कथ्यते ॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फले +++(वियोग-रूपे [लेखकस्याभिप्राये])+++ च साधने+++(→भगवद्-अनुग्रहात्मके)+++ चैव
सर्वत्र विपरीतता ।
+++(तथापि-)+++ फलं +++(वियोगेऽपि प्रभोः)+++ भावः, साधनं +++(अपि)+++ स
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १६॥
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु की लीला का दर्शन फल रूप है,
परंतु हृदय में उस लीला के दर्शन का भाव होना साधन दशा है,
इसलिये साधन एवं फल में विपरीतता दिखाई देती है,
परंतु हृदय में ऐसा भाव होने में प्रभु कृपा ही साधन है,
एवं लीला का दर्शन रूपी फल भी प्रभु कृपा से ही प्राप्त होता है,
अर्थात जिस मार्ग में विपरीतता में भी एकता है,
अर्थात फल और साधन विपरीत होते हुए भी एक ही हैं,
ऐसा विलक्षण मार्ग पुष्टिभक्तिमार्ग है.
मूलम्
फले च साधने चैव सर्वत्र विपरीतता ।
फलाभावः साधनस्य पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्चात्-तापः सदा यत्र
+++(एकतम-लीलानुभव-रूपायां)+++ तत्-सम्बन्धि-कृताव् अपि ।
+++(लीलान्तर-)+++वैन्योद्भावाय सततं
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १७॥
हिन्दी
जिस मार्ग में प्रभु की सभी लीलाओं का अनुभव होते हुए भी
अपनी दीनता को जागृत करने के लिये
भक्त सदैव ( प्रभु की अन्य लीलाओं से वंचित रहने के कारण ) पश्चात्ताप किया करता है,
गोपियां भी प्रभु की माखन चोरी इत्यादि लीलाओं के दर्शन करते हुए भी
गौ चारण लीला के दर्शन से वंचित रहने के कारण पश्चाताप करती थीं.
दीनता से जीव में निःसाधनता आती है,
और निःसाधन जीव पर प्रभु अवश्य ही कृपा करते हैं.
ऐसी दीनता की प्रमुखता जिस मार्ग में है,
वही शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है.
मूलम्
पश्चात्तापः सदा यत्र तत्सम्बन्धिकृतावपि ।
वैन्योद्भावाय सततं पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आविर्भावाय सापेक्षं
+++(लीला-काङ्क्षात्मकं)+++ दैन्यं यत्र हि साधनम् ।
फलं +++(लीला-साक्षात्कार-)+++वियोगजं दैन्यं
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १८॥
हिन्दी
जिस मार्ग में भगवद्दर्शन से पहले
भक्त को होने वाला दैन्य
भगवद्दर्शन का निरपेक्ष साधन है,
निरपेक्ष इसलिये कि भक्त जो दीनता पूर्वक भक्ति-सेवा करता है,
वहां तो उसे प्रभु के दर्शन की भी अपेक्षा नहीं है,
उसे तो सिर्फ तत्-सुख की ही भावना है,
प्रभु भक्त की दीनता और निरपेक्षता से प्रसन्न हो कर
उसे स्वानुभव कराते हैं,
परंतु स्वानुभव के पश्चात्
भक्त को प्रभु का जो वियोग होता है,
उससे उत्पन्न होने वाली दीनता फल है,
क्योंकि संयोग मान को जन्म देता है
और वियोग दीनता को,
और उस विरह जन्य दैन्य के कारण ही
प्रभु कृपा करते हैं,
इसीलिये विरह जन्य दीनता फल रूप है,
ऐसे दीनता के दो प्रकार
जिस मार्ग में हैं
वह शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
आविर्भावाय सापेक्षं दैन्यं यत्र हि साधनम् ।
फलं वियोगजं दैन्यं पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समस्त-विषय-त्यागः
सर्व-भावेन यत्र हि।
समर्पणं च देहादेः
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥
हिन्दी
जिस मार्ग में भक्त द्वारा समस्त विषयों का त्याग कर दिया जाता है, (विषय से यहां लौकिक विषय मतलब है ) अर्थात घर,परिवार,द्रव्य,धंधा इत्यादि सभी लौकिक विषयों से आसक्ति हटा कर सिर्फ प्रभु में ही उसे लगाया जाता है,और बाकि सभी कार्य सिर्फ कर्तव्य भावना से ही किये जाते हैं. ऐसा ही देह के विषय में भी है, कि देह का उपयोग सिर्फ प्रभु सेवार्थ ही किया जाता है, बाकि उसका उपयोग सिर्फ कर्तव्य भावना से ही किया जाता है. ऐसा समस्त विषयों और देह का जिस मार्ग में सर्वात्मना समर्पण सिर्फ प्रभु सेवार्थ ही कहा गया है, वह शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है.
मूलम्
समस्तविषयत्यागः सर्वभावेन यत्र हि।
समर्पणं च देहादेः पुष्टिमार्गः स कथ्यते॥
+++(क्वचिन् न विद्यते ऽसौ। )+++
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयत्वेन तत्-त्यागः
स्वस्मिन् विषयाता-स्मृतेः ।
यत्र वै सर्वभावेन
पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १९॥
हिन्दी
जिस मार्ग में भक्त द्वारा विषयों का
विषय के रूप में त्याग किया जाता है,
तथा उन्हें भगवदीय (वे भगवान के हैं ) के रूप में गृहीत किया जाता है,
अर्थात विषयों में ममता न रखते हुए,
वे प्रभु के ही हैं,
इस रूप में उनका ग्रहण है.
एवं जहां प्रभु के द्वारा भक्त का स्मरण किया जाता है,
( जब प्रभु भक्त का स्मरण करते हैं
तब उसकी भक्ति=सेवा सफल होती है ).
यह विलक्षणता जिस मार्ग में है, वह शुद्धपुष्टिभक्तिमार्ग है
मूलम्
विषयत्वेन तत्त्यागः स्वस्मिन् विषयातास्मृतेः ।
यत्र वै सर्वभावेन पुष्टिमार्गः स कथ्यते ॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधैर् विशेषेण
प्रकारैस्तु सदाश्रितैः ।
हृदि धृत्वा निजाचार्यान्
पुष्टिमार्गो हि बुध्यताम् ॥ २०॥
हिन्दी
अब श्री हरिरायजी उपसंहार करते हैं कि, भगवदाश्रित जीवों को,जो विशेषतायें इस ग्रंथ में बताई गई हैं, उससे युक्त जो पुष्टिमार्ग है, उसे एवं श्री वल्लभ को सदैव हृदय में धारण करना चाहिये एवं उनका माहात्म्य समझना चाहिये. तभी उनके जीवन की सार्थकता है.
मूलम्
एवंविधैर्विशेषेण प्रकारैस्तु सदाश्रितैः ।
हृदि धृत्वा निजाचार्यान्पुष्टिमार्गो हि बुध्यताम् ॥ २०॥
इति श्रीहरिदासनिरूपितपुष्टिमार्गलक्षणानि सम्पूर्णानि ।