परिशिष्टे चतुर्थोऽध्यायः ४

(अथ चतुर्थाध्याय)

विश्वास-प्रस्तुतिः पुनरेव मुनिश्रेष्ठं पप्रच्छुस्ते महर्षयः। कथं निक्षेपजा वृत्तिर्विस्तारोऽस्याश्च कीदृशः॥१॥
टीका सभी महर्षिगण ने यह सुनकर फिर एक प्रश्न भारद्वाजमुनि से किया कि हे मुने! आत्मनिक्षेप के बाद अनुष्ठेय वृत्ति या आचार कैसा रखा जाए तथा इसका विस्तृत तथा तात्विकरूप क्या होता है ॥ १ ॥
मूलम् पुनरेव मुनिश्रेष्ठं पप्रच्छुस्ते महर्षयः। कथं निक्षेपजा वृत्तिर्विस्तारोऽस्याश्च कीदृशः॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः भरद्वाजो महातेजाः श्रुत्वा तेषामिदं वचः। प्रत्युवाच परं हृष्टो भगवद्दास्यतत्ववित्॥
टीका तब महातेजस्वी भरद्वाज मुनि ने उन महर्षियों के इस प्रकार के वचनों को सुनकर प्रसन्नता से हर्षित भाव में भरकर भगवद्दास्यभाव के तात्विक ज्ञान के आधार पर इस प्रकार कहा|| २ ||
मूलम् भरद्वाजो महातेजाः श्रुत्वा तेषामिदं वचः। प्रत्युवाच परं हृष्टो भगवद्दास्यतत्ववित्॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विशुद्धज्ञानसलिलां भक्तिकल्लोलमालिनीम्। सत्सेवनस्वादुरसां दिव्यलक्षणवारिजाम्॥३॥

वैराग्यतीरसुभगामाचारोपवनावृताम्। वृत्त्यापगां निषेवध्वं विष्णुसागरगामिनीम्॥४॥

टीका हे महर्षिजन ! यह वृत्तिरूप नदी ही सेवन के योग्य तथा अनुष्ठेय है। क्योंकि इसमें शुद्ध ज्ञानरूप दृष्टि ही जल है, भक्ति रूपी लहरों की मालाओं से यह भरी हुई है, सत्सेवनरूप स्वादु इसका आस्वाद है, दिव्य लक्षणों वाले ताप, पुण्ड्रादि कमल खिले हुए हैं, वैराग्य के तीर से जो रम्य भाववाली है, विहित आचाररूपी उपवनों से जो वेष्टित है और जो विष्णु रूपी सागर की ओर जाने वाली है (इसका सेवन करना चाहिए ) । ३-४ ॥
मूलम् विशुद्धज्ञानसलिलां भक्तिकल्लोलमालिनीम्। सत्सेवनस्वादुरसां दिव्यलक्षणवारिजाम्॥३॥

वैराग्यतीरसुभगामाचारोपवनावृताम्। वृत्त्यापगां निषेवध्वं विष्णुसागरगामिनीम्॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः न्यासस्तीर्थाभिगमनं सुदृष्टिर्यजनं हृदि। स्वकर्माण्यासनविधिर्लक्ष्मावाहनसत्क्रिया॥५॥

भक्तिस्तु विबिधा भोगाः सत्सेवा हविरुत्तमम्। वैराग्ययोगनिर्विघ्ना यजध्वमनयेज्यया॥६॥

टीका यह भगवदाराधनारूप वृत्ति ही इज्या (यजन, त्याग ) है अथा अनुष्ठेय भी हैं क्योंकि इसमें प्रपत्तिरूप न्यास ही आरम्भक ( स्नान ) हेतु तीर्थाभिगमन होता है ( जिसमें स्नान से हृद्याग पर्यन्त अङ्ग है, ) जहां सुदृष्टि ही हृदयजन है, अपके कर्मों में विहित आचार ही जहां आसनविधि है। जिसमें लक्ष्य, आवाहन, मन्त्र, स्नान, अलंकार, भोग्य, पर्यङ्ग आदि सत्कार है। भक्ति जहां अनेक विद्य गन्ध, माल्यादि भोग हैं, जहां उत्तम हविरूप है, वैराग्य ही जहां योग रूप ध्यान है, जिससे विघ्न दूर हो जाते हैं (वैराग्य के उपाय से जो विघ्नरहित है ) ऐसी इस वृत्तिरूप इज्या से यजन किया जावे॥५-६।
मूलम् न्यासस्तीर्थाभिगमनं सुदृष्टिर्यजनं हृदि। स्वकर्माण्यासनविधिर्लक्ष्मावाहनसत्क्रिया॥५॥

भक्तिस्तु विबिधा भोगाः सत्सेवा हविरुत्तमम्। वैराग्ययोगनिर्विघ्ना यजध्वमनयेज्यया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः भूमाविव परे पुंसि न्यस्तबीजवदात्मनि। विज्ञानमूलसन्तानः क्रियाचारनिबन्धनः॥७॥

भक्तिप्रकाण्डविस्तारो वैराग्यरसपेशलः। नानालक्षणपुष्पाढ्यः सत्सेवनमहाफलः॥८॥

उच्चैस्तरोऽतिविपुलः सर्वसन्तापनाशनः। सम्पद्यते सदा सेव्योहरिर्कैकर्यपादपः॥९॥

टीका यही वृत्ति एक ऐसा वृक्ष है जिसकी आधाररूप भूमि परमपुरुष श्रीविष्णु है जिनमें न्यस्त आत्मा बीज के समान है, जिसकी विज्ञान रूप दृष्टि ही मूल (जड़) स्थानीय है जो परम्परारूप है, जिसकी विहित आचार रूप क्रियाएं उस जड़ की दृढ़ता तथा सुरक्षा के लिये बनाया गया पाला तथा उसके आसपास की वेदिका है, जिसकी शाखाओं का विस्तार भक्ति है, जो वैराग्य के रस ( जलसेक ) से जमा हुआ होकर मजबूत हो रहा है, अपने ताप, पुण्ड्र आदि लक्षणों वाले इसके सुन्दर पुष्प हैं, जो सन्तों की सेवा रूप पुष्ट फलों वाला है, जो आकाश तक ऊंचाई में फैला हुआ तथा बड़ा ही विशाल आकारवाला है तथा जो अपनी छाया से सभी आश्रित विश्राम लेने पथिकों का सभी त्रिविध सन्ताप दूर करनेवाला है तथा जो श्रीहरि का दास्य रूप वृक्ष है। अतः इस ऐसे वृक्ष का ही सेवन सर्वदा करना चाहिए ॥ ७-९ ॥
मूलम् भूमाविव परे पुंसि न्यस्तबीजवदात्मनि। विज्ञानमूलसन्तानः क्रियाचारनिबन्धनः॥७॥

भक्तिप्रकाण्डविस्तारो वैराग्यरसपेशलः। नानालक्षणपुष्पाढ्यः सत्सेवनमहाफलः॥८॥

उच्चैस्तरोऽतिविपुलः सर्वसन्तापनाशनः। सम्पद्यते सदा सेव्योहरिर्कैकर्यपादपः॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः आदौ गुरूणां विज्ञानमथ तन्त्रार्थचिन्तनम्। तत एवात्मनो ज्ञानं तद्धर्माणां च सर्वशः॥१०॥
टीका इसमें सर्वप्रथम अपने तत्ववेत्ता आचार्य के समीप उपसर्पण से आचार्य रूप का ज्ञान तथा आगे उनसे तन्त्र (शास्त्र) के उपदेश रूप अर्थ का चिंतन तथा इसी से स्वयं का आत्मज्ञान एवं उसके सभी धर्मादि का ज्ञान होना, जिससे परम पुरुष रूप श्रीश जो ब्रह्मारुद्रादि के नायकभूत हैं तथा परमात्मा हैं, उन सर्वान्तरात्मा का ज्ञान तथा उनके दिव्यस्वरूप का, उनके विग्रहादि रूप का, उनकी विभूतियों तथा गुणों का तथा उनके कार्यादि का ज्ञान होना, श्रीहरि के गुणों में उनके अवतारादि कार्यों में धारण किये जाने वाले भूषणादि, अस्त्र तथा उनकी पत्नी तथा उनके परिवारजन का ज्ञान तथा उनके दिव्य गुणों तथा कार्यों (जैसे हिरण्यकशिपु, रावण, शिशुपालादि के संहार करने के कार्यों) का चिन्तन करना ॥ १०-१२ ॥
मूलम् आदौ गुरूणां विज्ञानमथ तन्त्रार्थचिन्तनम्। तत एवात्मनो ज्ञानं तद्धर्माणां च सर्वशः॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः परस्य पुंसः श्रीशस्य परेशस्य परात्मनः। स्वरूपरूपविभवगुणव्यापारचिन्तनम्॥११॥
टीका इसमें सर्वप्रथम अपने तत्ववेत्ता आचार्य के समीप उपसर्पण से आचार्य रूप का ज्ञान तथा आगे उनसे तन्त्र (शास्त्र) के उपदेश रूप अर्थ का चिंतन तथा इसी से स्वयं का आत्मज्ञान एवं उसके सभी धर्मादि का ज्ञान होना, जिससे परम पुरुष रूप श्रीश जो ब्रह्मारुद्रादि के नायकभूत हैं तथा परमात्मा हैं, उन सर्वान्तरात्मा का ज्ञान तथा उनके दिव्यस्वरूप का, उनके विग्रहादि रूप का, उनकी विभूतियों तथा गुणों का तथा उनके कार्यादि का ज्ञान होना, श्रीहरि के गुणों में उनके अवतारादि कार्यों में धारण किये जाने वाले भूषणादि, अस्त्र तथा उनकी पत्नी तथा उनके परिवारजन का ज्ञान तथा उनके दिव्य गुणों तथा कार्यों (जैसे हिरण्यकशिपु, रावण, शिशुपालादि के संहार करने के कार्यों) का चिन्तन करना ॥ १०-१२ ॥
मूलम् परस्य पुंसः श्रीशस्य परेशस्य परात्मनः। स्वरूपरूपविभवगुणव्यापारचिन्तनम्॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः परिबर्हविभूषास्त्रपत्नीपरिजनात्मनाम्। सर्वेषां चैव दिव्यानां गुणानामनुचितम्॥१२॥
टीका इसमें सर्वप्रथम अपने तत्ववेत्ता आचार्य के समीप उपसर्पण से आचार्य रूप का ज्ञान तथा आगे उनसे तन्त्र (शास्त्र) के उपदेश रूप अर्थ का चिंतन तथा इसी से स्वयं का आत्मज्ञान एवं उसके सभी धर्मादि का ज्ञान होना, जिससे परम पुरुष रूप श्रीश जो ब्रह्मारुद्रादि के नायकभूत हैं तथा परमात्मा हैं, उन सर्वान्तरात्मा का ज्ञान तथा उनके दिव्यस्वरूप का, उनके विग्रहादि रूप का, उनकी विभूतियों तथा गुणों का तथा उनके कार्यादि का ज्ञान होना, श्रीहरि के गुणों में उनके अवतारादि कार्यों में धारण किये जाने वाले भूषणादि, अस्त्र तथा उनकी पत्नी तथा उनके परिवारजन का ज्ञान तथा उनके दिव्य गुणों तथा कार्यों (जैसे हिरण्यकशिपु, रावण, शिशुपालादि के संहार करने के कार्यों) का चिन्तन करना ॥ १०-१२ ॥
मूलम् परिबर्हविभूषास्त्रपत्नीपरिजनात्मनाम्। सर्वेषां चैव दिव्यानां गुणानामनुचितम्॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विमानमण्डपोद्यानवापीकूपादिशालिनः। नानाश्चर्यमयानन्तदिव्यप्रासादमालिनः॥१३॥

साप्सरो भूरिसङ्घस्य सदिव्यमृगपक्षिणः। पुरस्य दिवि लोकानां लोकस्य परिचिन्तनम्॥१४॥

तथा भगवतो व्यूहविभवार्चाव्यवस्थितेः। अन्तःस्थितेश्चचजगतां सृष्ट्यादेश्व विचिन्तनम्॥१५॥

टीका इसी क्रम में आगे ऐसे पुरी (नगरी) का जिसमें विमान, मण्डप, उद्यान, वापी तथा कूप विद्यमान है, जिसमें अनेक आश्चर्यकारी, अनन्त एवं दिव्य प्रासाद ( मन्दिरों) की पंक्तियों से (जो) शोभित हैं, जहां अप्सराओं से पूर्ण अनेक समुदाय विद्यमान है, जहां दिव्य मृग तथा पक्षिगण हैं ऐसे दिव्य लोक (स्वर्ग) के निवासीजन तथा लोक का चिन्तन किया गया है। इसी प्रकार जहां भगवान् श्रीवासुदेव तथा इनके चतुर्व्यूह उनके रामादि अवतार मय विभव, अर्चा में श्रीवैकुण्ठनाथादि की व्यवस्था तथा जगत् में अन्तर्यामित्व तथा सृष्टि, प्रलयादि का विचार है ॥ १३-१५॥
मूलम् विमानमण्डपोद्यानवापीकूपादिशालिनः। नानाश्चर्यमयानन्तदिव्यप्रासादमालिनः॥१३॥

साप्सरो भूरिसङ्घस्य सदिव्यमृगपक्षिणः। पुरस्य दिवि लोकानां लोकस्य परिचिन्तनम्॥१४॥

तथा भगवतो व्यूहविभवार्चाव्यवस्थितेः। अन्तःस्थितेश्चचजगतां सृष्ट्यादेश्व विचिन्तनम्॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः प्रधानमहदादीनां तत्त्वानामवबोधनम्। अण्डानां कालतत्त्वानां लोकानां भूतसंहतेः॥१६॥
टीका जहाँ प्रकृति तथा महत् तत्व, इन्द्रिय तथा तन्मात्रादि तत्वों का स्वरूप, ब्रह्माण्डों लोकों तथा काल तत्वों, पञ्चमहाभूतों तथा उनसे उत्पन्न जन्तुगण का भी विचार करना है ॥ १६ ॥
मूलम् प्रधानमहदादीनां तत्त्वानामवबोधनम्। अण्डानां कालतत्त्वानां लोकानां भूतसंहतेः॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः परसम्बन्धविज्ञानं प्रकृतेः पुरुषस्य च। कर्मयोगस्य विज्ञानं धर्माणां चाप्यशेषतः॥१७॥

ज्ञानयोगस्य विज्ञानं भक्तियोगस्य चाखिलम्। तथैव न्यासयोगस्य साङ्गस्य परिचिन्तनम्॥१८॥

टीका प्रकृति तथा पुरुष के भगवत्शरीर स्वरूप तथा सम्बन्ध का विशेष चिन्तन, कर्मयोग तथा विशेषरूप में धर्मों का चिन्तन, इसी प्रकार ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का समग्र विचिन्तन करना और बाद में सांग समग्र न्यासयोग विषयक विवरण तथा इस विषय पर चिन्तन करना ॥ १७ ॥ १८ ।
मूलम् परसम्बन्धविज्ञानं प्रकृतेः पुरुषस्य च। कर्मयोगस्य विज्ञानं धर्माणां चाप्यशेषतः॥१७॥

ज्ञानयोगस्य विज्ञानं भक्तियोगस्य चाखिलम्। तथैव न्यासयोगस्य साङ्गस्य परिचिन्तनम्॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः इहैव फलरूपाया वृत्तेः सम्यक् प्रदर्शनम्। देहान्निष्क्रमणस्यापि मार्गस्य च विचिन्तनम्॥१९॥
टीका इस लोक में फल प्राप्ति रूप वृत्ति के पूर्णरूप से विवरण के बाद इस शरीर के छोड़ने के पश्चात् निष्क्राम प्राप्त जीव के अर्चिरादि मार्गों से उत्तमकान्तिरूप यात्रा का चिन्तन ॥ १९ ॥
मूलम् इहैव फलरूपाया वृत्तेः सम्यक् प्रदर्शनम्। देहान्निष्क्रमणस्यापि मार्गस्य च विचिन्तनम्॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः दिव्यलोकस्य संप्राप्त्या भर्तुरालोकनार्चया। निरस्तातिशया प्रीतिः सदा तस्याश्च भावना॥२०॥
टीका जीवकी यात्रा के क्रम में उसका दिव्य लोक की प्राप्ति तथा अपने स्वामी इष्ट देश परमेश्वर का जो परमपद के साधन भी हैं - दर्शन प्राप्ति से निरवधि प्रीति तथा उसकी स्थिति का चिन्तन ॥ २० ॥
मूलम् दिव्यलोकस्य संप्राप्त्या भर्तुरालोकनार्चया। निरस्तातिशया प्रीतिः सदा तस्याश्च भावना॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः भगवच्चरणाम्भोजानुभवप्रीतिजन्मनः। कैङ्कर्यस्य पराकाष्ठा या तस्याश्च विचिन्तनम्॥२१॥
टीका और आगे दिव्यलोक में अवस्थित श्रीमन्नारायण के चरण कमलों का दर्शन, सेवा का अनुभव तथा उससे होनेवाली प्रीति की उत्पत्ति से दासभावना की परमानन्दा दात्री स्थिति की पराकाष्ठा का विचार ॥ २१ ॥
मूलम् भगवच्चरणाम्भोजानुभवप्रीतिजन्मनः। कैङ्कर्यस्य पराकाष्ठा या तस्याश्च विचिन्तनम्॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अनादेर्मोहकलनात्संसारावृत्तिहेतवः। प्रभवन्त्यात्मनां कर्मवासनारुचयो यथा॥२२॥
टीका इसी क्रम में अनादिभूत माया (अविद्या) के सम्बन्ध में संसार में बार बार आकर जन्म प्राप्त करने के कारणभूत कर्मों की वासना तथा रुचि जैसी उत्पन्न होती है तथा अहिंसा आदि अध्यात्मगुणों के अनुरोधक राग आदि पुण्य पापकर्मादि के द्वारा संसार के बीजभूत तत्व बनकर दोषरूप में आते हैं तथा वे ही कारण होकर जीव को ऐसै अपचारों (पातकादि दोषों) में गिरा देते हैं, कैसी बुद्धि के उत्पन्न हो जाने की चिन्तना ॥ २२-२३ ॥
मूलम् अनादेर्मोहकलनात्संसारावृत्तिहेतवः। प्रभवन्त्यात्मनां कर्मवासनारुचयो यथा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यथा रागादयो दोषा नित्यं चात्मगुणच्छिदः। कारणान्यपचारेषु क्षिपन्ति च तथा मतिः॥२३॥
टीका इसी क्रम में अनादिभूत माया (अविद्या) के सम्बन्ध में संसार में बार बार आकर जन्म प्राप्त करने के कारणभूत कर्मों की वासना तथा रुचि जैसी उत्पन्न होती है तथा अहिंसा आदि अध्यात्मगुणों के अनुरोधक राग आदि पुण्य पापकर्मादि के द्वारा संसार के बीजभूत तत्व बनकर दोषरूप में आते हैं तथा वे ही कारण होकर जीव को ऐसै अपचारों (पातकादि दोषों) में गिरा देते हैं, कैसी बुद्धि के उत्पन्न हो जाने की चिन्तना ॥ २२-२३ ॥
मूलम् यथा रागादयो दोषा नित्यं चात्मगुणच्छिदः। कारणान्यपचारेषु क्षिपन्ति च तथा मतिः॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विमर्श इह दुःखानां यातनानां परत्र च। विषयाणां च हेयत्वदर्शनं वृष्टिरुच्यते॥२४॥
टीका इस लोक में प्राप्त होनेवाली दुःखोंकी तथा परलोक में प्राप्त होनेवाली यातनाओं का विचार तथा सुखदुःखादि सांसारिक विषयों की हेयता का प्रतिपादन करना आदि ये सभी ‘दृष्टि' कहलाते हैं ||२४||
मूलम् विमर्श इह दुःखानां यातनानां परत्र च। विषयाणां च हेयत्वदर्शनं वृष्टिरुच्यते॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सैषासुदृष्टिर्वृत्त्याख्यतरोर्मूलमुदाहृता। अतोऽन्यथा कुदृष्टिर्हितस्य सा मूलघातिनी॥२५॥
टीका यह दृष्टि ही इस वृत्तिभूत पूर्व कथित वृक्ष की मूल या जड़ मानी गयी है तथा इसके विपरीत दृष्टि कुदृष्टि कहलाती है जिससे मूल का ही विधात माना गया है॥२५॥
मूलम् सैषासुदृष्टिर्वृत्त्याख्यतरोर्मूलमुदाहृता। अतोऽन्यथा कुदृष्टिर्हितस्य सा मूलघातिनी॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्रथमासनसंस्कारो निषेको विधिपूर्वकः संस्कारास्त्वाव्रतादेशात्तत्र भोगक्रमा हरेः॥२६॥
टीका वृत्तिरूप वृक्ष का मूलबन्ध तथा विहिताचार भगवदिज्या आदि के विचारक्रम में सर्वप्रथम वेदादि शास्त्राविधि से विहित गृहाश्रम में होनेवाला गर्भाधान संस्कार तथा इसी के आगे व्रतादेश तक के ( पुंसवन, सीमान्तोन्नयन, जातकर्म, नामकर्म, अन्नप्राशन, चौल तथा उपनयनादि व्रतवन्ध तक) संस्कारों का उपचारक्रम श्रीहरि के उपचार के क्रम में प्रथम संस्कार माना गया है ॥ २६ ॥
मूलम् प्रथमासनसंस्कारो निषेको विधिपूर्वकः संस्कारास्त्वाव्रतादेशात्तत्र भोगक्रमा हरेः॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः द्वितीयमासनं विष्णोरस्योपनयनक्रिया। स्नानान्तास्तत्र संस्कारा बोद्धव्या भोगसम्पदः॥२७॥
टीका इसके आगे श्रीहरि के उपचार क्रम के द्वितीय संस्कार के क्रम में इसका उपनयन क्रिया से लेकर वेदारम्भ तथा समावर्तन पर्यन्त संस्कार इसके भोग सम्पत्ति के क्रम में ज्ञानासन के रूप में आते हैं ॥ २७ ॥
मूलम् द्वितीयमासनं विष्णोरस्योपनयनक्रिया। स्नानान्तास्तत्र संस्कारा बोद्धव्या भोगसम्पदः॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वैवाहिको विधिर्धर्मोयस्तृतीयं तदासनम्। गृहस्थधर्मा ये तत्र ते प्रसाधनविग्रहाः॥२८॥
टीका तथा धर्मभाव से अनुष्ठित विवाह संस्कार तृतीय आसन रूप है जहां गृहस्थों के आचार योग्य धर्मों का पालन होना प्रसाधनभूत अलंकार सदृश उपाचार क्रम में श्रीहरि के आता है ॥ २८ ॥
मूलम् वैवाहिको विधिर्धर्मोयस्तृतीयं तदासनम्। गृहस्थधर्मा ये तत्र ते प्रसाधनविग्रहाः॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः योगक्षेमविधिर्नित्यस्तच्चतुर्थमिहासनम्। ततः परेऽखिला यज्ञा हविषां विनिवेदनम्॥२९॥

वनस्थाश्रमसम्प्राप्तिर्हरेः पञ्चममासनम्। नियमा ये च तत्र स्युस्ते वै भोगास्तदाश्रयाः॥३०॥

टीका इस गृहस्थ की वृत्ति के लिये भोग्यासन के रूप में जो अर्थार्ज्जनरूप योगक्षेम विधिवत् नित्य अपेक्षित है तथा जिसमें अग्निष्टोमादि यज्ञों के द्वारा ( श्रीहरि एवं देवगण को ), हवि समर्पण करने के आचारभूत कर्मवाला श्रीहरि के उपचार का आसन चतुर्थ स्थानीय है। इस आश्रम के आगे वानप्रस्थ के प्राप्त हो जाने पर वह श्रीहरि के उपचारभूत रूप में पंचम आसन (होता) है जहां वन में स्थित रहकर आश्रम के नियत तथा उनके अनुरूप पदार्थों का भोगरूप में सेवन करना विहित है ॥ २९-३०॥
मूलम् योगक्षेमविधिर्नित्यस्तच्चतुर्थमिहासनम्। ततः परेऽखिला यज्ञा हविषां विनिवेदनम्॥२९॥

वनस्थाश्रमसम्प्राप्तिर्हरेः पञ्चममासनम्। नियमा ये च तत्र स्युस्ते वै भोगास्तदाश्रयाः॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः यत्प्रव्रजन्ति तत्षष्ठमासनं परमात्मनः। योगाख्यमतुलं शुद्धं तद्धर्मास्तत्र सत्क्रियाः॥३१॥
टीका इसके बाद अधिकारानुरूप जो प्रवजनरूप ( सन्यास नामक ) आश्रम है वह परमेश्वर के उपचार क्रम में षष्ठ स्थानीय है जिसका नाम योगसंस्कार है जो परमशुद्ध तथा अतुलनीय है। सन्यास के धर्मों में किये जाने वाले कर्मभूत उपचार सद्धर्मानुष्ठानरूप है जहां सत्सेवा की जाए ॥ ३१ ॥
मूलम् यत्प्रव्रजन्ति तत्षष्ठमासनं परमात्मनः। योगाख्यमतुलं शुद्धं तद्धर्मास्तत्र सत्क्रियाः॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सतामुत्क्रमणादेश्व कर्त्तव्या विधयः परे। उद्वासनोपचारा वै भवन्ति दिवि शार्ङ्गिणः॥३२॥
टीका ऐसे सन्त के प्राषों के उत्सर्ग के उपरान्त उसकी उत्तरकालिक विधियों को सम्पन्न करना चाहिए। जिसमें श्रीहरि को अर्पित उद्वासनादि उपचार होते हैं। इसमें अग्नि तथा परम आकाश में स्थित अच्युत का ध्यान करते हैं ( क्रमशः) ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के लिये और वैश्य के लिये समुद्र में स्थित तथा शुद्र के लिये पृथ्वी पर स्थित अच्युत का ध्यान करते हैं ॥ ३२-३३॥
मूलम् सतामुत्क्रमणादेश्व कर्त्तव्या विधयः परे। उद्वासनोपचारा वै भवन्ति दिवि शार्ङ्गिणः॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अग्नौ तु परमे व्योम्नि ध्यायेतां नित्यमच्युतम्। वैश्यत्वे चार्णवगतं शूद्रत्वे च भुवि स्थितम्॥३३॥
टीका ऐसे सन्त के प्राषों के उत्सर्ग के उपरान्त उसकी उत्तरकालिक विधियों को सम्पन्न करना चाहिए। जिसमें श्रीहरि को अर्पित उद्वासनादि उपचार होते हैं। इसमें अग्नि तथा परम आकाश में स्थित अच्युत का ध्यान करते हैं ( क्रमशः) ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के लिये और वैश्य के लिये समुद्र में स्थित तथा शुद्र के लिये पृथ्वी पर स्थित अच्युत का ध्यान करते हैं ॥ ३२-३३॥
मूलम् अग्नौ तु परमे व्योम्नि ध्यायेतां नित्यमच्युतम्। वैश्यत्वे चार्णवगतं शूद्रत्वे च भुवि स्थितम्॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः इत्थं वर्णाश्रमादीनां नित्यनैमित्तिकादिकम्। विहितं कर्म सकलं विष्णोराराधनं परम्॥३४॥
टीका इस प्रकार वर्ण तथा आश्रम आदि के नित्य एवं वैमित्रिक सम्पूर्ण विहित कर्म श्री विष्णु की परमाराधना है || ३४ ||
मूलम् इत्थं वर्णाश्रमादीनां नित्यनैमित्तिकादिकम्। विहितं कर्म सकलं विष्णोराराधनं परम्॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः निबोधत महाप्राज्ञास्तदेतदखिलं पुनः। वृत्त्याख्यस्य तरोरेव सुदृढं मूलबन्धनम्॥३५॥
टीका हे मुनिगण! इस सभी को निश्चित रूप में आपको समझाना आवश्यक है जो कि वृत्तिनामक वृक्ष के सुदृढ़ मूलबन्ध के रूप में सदा अब स्थित है ॥ ३५ ॥
मूलम् निबोधत महाप्राज्ञास्तदेतदखिलं पुनः। वृत्त्याख्यस्य तरोरेव सुदृढं मूलबन्धनम्॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः त्यागेन कर्मणां स्वस्य निषिद्धकरणेन च। आज्ञातिक्रमणं यत्तन्मूलबन्धोपघातकम्॥३६॥
टीका विहिताचारान्मनोवृत्त्याख्यतरुमूलबन्धनस्य अकृत्यकरणकृत्याकरणाभ्यां भगवदाज्ञाविलङ्घनं मूलबन्धोपघातकमित्याह-त्यागेनेति स्वस्य कर्मणां स्ववर्णाश्रमविहितकर्मणामित्यर्थः॥३६॥
मूलम् त्यागेन कर्मणां स्वस्य निषिद्धकरणेन च। आज्ञातिक्रमणं यत्तन्मूलबन्धोपघातकम्॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विहितैवमुपावृत्तिर्विशुद्धपरिवारके। विशुद्धे ब्रह्माणि परे प्रीत्या सा भक्तिरुच्यते॥३७॥
टीका अतएव विशुद्ध भावादि सम्पन्न परिवारवाले ( देवतान्तर्यामिभाव सहित ) अपने स्वरूप में अवस्थित परब्रह्म में जो वृत्ति आराधनात्मक रूप में विधिपूर्वक बतलायी गयी है वही अतिप्रीति से सम्पन्न की जाए तो भक्ति कहलाती है ॥ ३७॥
मूलम् विहितैवमुपावृत्तिर्विशुद्धपरिवारके। विशुद्धे ब्रह्माणि परे प्रीत्या सा भक्तिरुच्यते॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः श्रुतिस्मृतीतिहासाद्यैर्दिव्यार्षागमविस्तरैः। ब्रह्मसूत्रपदैर्मन्त्रैः सन्निवन्धैः सुयुक्तिभिः॥३८॥
टीका इस प्रकार यह भी उस तरु की शाखा, टहनियां, ऊपर पहुंचनेवाली शाखाएं उसके पत्ते तथा अंकुर रूप विस्तार है परन्तु अन्य या अनेक देवताओं की भक्ति इस वृक्ष पर गिरनेवाली बिजली समझाना चाहिए (जो इस वृक्ष को क्षति पहुंचाती है)॥४६॥
मूलम् श्रुतिस्मृतीतिहासाद्यैर्दिव्यार्षागमविस्तरैः। ब्रह्मसूत्रपदैर्मन्त्रैः सन्निवन्धैः सुयुक्तिभिः॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः नाथस्य रूपविभवस्वरूपगुणकर्मणाम्। कीर्त्तनं ख्यापनं चिन्ता भृशं व्यक्तिषु चादरः॥३९॥
टीका इस प्रकार यह भी उस तरु की शाखा, टहनियां, ऊपर पहुंचनेवाली शाखाएं उसके पत्ते तथा अंकुर रूप विस्तार है परन्तु अन्य या अनेक देवताओं की भक्ति इस वृक्ष पर गिरनेवाली बिजली समझाना चाहिए (जो इस वृक्ष को क्षति पहुंचाती है)॥४६॥
मूलम् नाथस्य रूपविभवस्वरूपगुणकर्मणाम्। कीर्त्तनं ख्यापनं चिन्ता भृशं व्यक्तिषु चादरः॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्तुतिर्नतिः परिक्रामः प्रीतिरात्मनिवेदनम्। उपहाराच्छेषरतिः समीपपरिवर्त्तनम्॥४०॥
टीका इस प्रकार यह भी उस तरु की शाखा, टहनियां, ऊपर पहुंचनेवाली शाखाएं उसके पत्ते तथा अंकुर रूप विस्तार है परन्तु अन्य या अनेक देवताओं की भक्ति इस वृक्ष पर गिरनेवाली बिजली समझाना चाहिए (जो इस वृक्ष को क्षति पहुंचाती है)॥४६॥
मूलम् स्तुतिर्नतिः परिक्रामः प्रीतिरात्मनिवेदनम्। उपहाराच्छेषरतिः समीपपरिवर्त्तनम्॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः दिव्यार्चायतनग्रामपुरराष्ट्रादिसम्पदाम्। निष्पादनं तथारामतटाकादिप्रकल्पनम्॥४१॥
टीका इस प्रकार यह भी उस तरु की शाखा, टहनियां, ऊपर पहुंचनेवाली शाखाएं उसके पत्ते तथा अंकुर रूप विस्तार है परन्तु अन्य या अनेक देवताओं की भक्ति इस वृक्ष पर गिरनेवाली बिजली समझाना चाहिए (जो इस वृक्ष को क्षति पहुंचाती है)॥४६॥
मूलम् दिव्यार्चायतनग्रामपुरराष्ट्रादिसम्पदाम्। निष्पादनं तथारामतटाकादिप्रकल्पनम्॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्थापनार्चनयात्रादिमङ्गलानां प्रवर्तनम्। आस्थानासनयोग्यानां पात्रोपकरणस्य च॥४२॥
टीका इस प्रकार यह भी उस तरु की शाखा, टहनियां, ऊपर पहुंचनेवाली शाखाएं उसके पत्ते तथा अंकुर रूप विस्तार है परन्तु अन्य या अनेक देवताओं की भक्ति इस वृक्ष पर गिरनेवाली बिजली समझाना चाहिए (जो इस वृक्ष को क्षति पहुंचाती है)॥४६॥
मूलम् स्थापनार्चनयात्रादिमङ्गलानां प्रवर्तनम्। आस्थानासनयोग्यानां पात्रोपकरणस्य च॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्नानप्रसाधनहविःशय्यान्तःपुरसंपदाम्। संग्राममृगयाणाञ्च क्रीडोपकरणस्य च॥४३॥
टीका इस प्रकार यह भी उस तरु की शाखा, टहनियां, ऊपर पहुंचनेवाली शाखाएं उसके पत्ते तथा अंकुर रूप विस्तार है परन्तु अन्य या अनेक देवताओं की भक्ति इस वृक्ष पर गिरनेवाली बिजली समझाना चाहिए (जो इस वृक्ष को क्षति पहुंचाती है)॥४६॥
मूलम् स्नानप्रसाधनहविःशय्यान्तःपुरसंपदाम्। संग्राममृगयाणाञ्च क्रीडोपकरणस्य च॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः दिव्यानां मानुषाणां च सेवकानां पृथक्पृथक्। अन्येषां चैव भोगानां चेतनाचेतनात्मनाम्॥४४॥
टीका इस प्रकार यह भी उस तरु की शाखा, टहनियां, ऊपर पहुंचनेवाली शाखाएं उसके पत्ते तथा अंकुर रूप विस्तार है परन्तु अन्य या अनेक देवताओं की भक्ति इस वृक्ष पर गिरनेवाली बिजली समझाना चाहिए (जो इस वृक्ष को क्षति पहुंचाती है)॥४६॥
मूलम् दिव्यानां मानुषाणां च सेवकानां पृथक्पृथक्। अन्येषां चैव भोगानां चेतनाचेतनात्मनाम्॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः निष्पादनं रक्षणं च संस्क्रियोपनयादि च। भक्त्या च नियतौत्सुक्यं स्वयमाराधनक्रियाः॥४५॥
टीका इस प्रकार यह भी उस तरु की शाखा, टहनियां, ऊपर पहुंचनेवाली शाखाएं उसके पत्ते तथा अंकुर रूप विस्तार है परन्तु अन्य या अनेक देवताओं की भक्ति इस वृक्ष पर गिरनेवाली बिजली समझाना चाहिए (जो इस वृक्ष को क्षति पहुंचाती है)॥४६॥
मूलम् निष्पादनं रक्षणं च संस्क्रियोपनयादि च। भक्त्या च नियतौत्सुक्यं स्वयमाराधनक्रियाः॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः इत्येतत्सकलं काण्डस्कन्धशाखादलाङ्करम्। देवतान्तरभक्तिस्तु निरासस्तस्य हा शनिः॥४६॥
टीका इस प्रकार यह भी उस तरु की शाखा, टहनियां, ऊपर पहुंचनेवाली शाखाएं उसके पत्ते तथा अंकुर रूप विस्तार है परन्तु अन्य या अनेक देवताओं की भक्ति इस वृक्ष पर गिरनेवाली बिजली समझाना चाहिए (जो इस वृक्ष को क्षति पहुंचाती है)॥४६॥
मूलम् इत्येतत्सकलं काण्डस्कन्धशाखादलाङ्करम्। देवतान्तरभक्तिस्तु निरासस्तस्य हा शनिः॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अथ पुष्पं फलञ्चास्य लक्ष्म सत्सेवनन्तथा। युक्तोऽप्यन्यैर्विना पुष्पैः फलैरवति कस्तरुः॥४७॥
टीका इस वृत्तिरूप वृक्ष का 'पुष्प' होता है पंचलक्ष्म (चिन्ह) तथा सत्सेवन इसका फल माना जाता है अतएव यदि वृक्ष पुष्प तथा फल से युक्त न हो तो उसकी रक्षा कौन करेगा (अतः पुष्प तथा फलों के लिये वृक्ष का रक्षण करना आवश्यक है ) ॥ ४७ ॥
मूलम् अथ पुष्पं फलञ्चास्य लक्ष्म सत्सेवनन्तथा। युक्तोऽप्यन्यैर्विना पुष्पैः फलैरवति कस्तरुः॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्रतप्तैर्भगवद्दिव्यायुधैर्गात्रेषु लाञ्छनम्। सततं च हरिक्षेत्रोद्धृतमृत्स्रोर्द्धपुण्ड्रकः॥४८॥
टीका लक्षणों में शरीर के उपयुक्त स्थानों पर अग्रजन्मा जन को श्रीहरि के प्रतप्त दिव्यायुधों का लाच्छन अंकित करवाना चाहिए तथा सदैव श्रीहरि के पुण्यक्षेत्रों से लायी गयी मृत्तिका से ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाना चाहिए, कमल के बीजों की बनी हुई माला को तथा तुलसी हरिद्रा के चूर्ण को ( मस्तक पर ) धारण करना चाहिए, शुभ्र धौत एवं पवित्र कौपीन तथा कटिसूत्र का धारण करना चाहिए ॥ ४८-४९ ॥
मूलम् प्रतप्तैर्भगवद्दिव्यायुधैर्गात्रेषु लाञ्छनम्। सततं च हरिक्षेत्रोद्धृतमृत्स्रोर्द्धपुण्ड्रकः॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः पद्मबीजमयी माला तुलसीदिव्यचूर्णकम्। पवित्रञ्चाथ कौपीनं व्यतिस्यूताच मेखला॥४९॥
टीका लक्षणों में शरीर के उपयुक्त स्थानों पर अग्रजन्मा जन को श्रीहरि के प्रतप्त दिव्यायुधों का लाच्छन अंकित करवाना चाहिए तथा सदैव श्रीहरि के पुण्यक्षेत्रों से लायी गयी मृत्तिका से ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाना चाहिए, कमल के बीजों की बनी हुई माला को तथा तुलसी हरिद्रा के चूर्ण को ( मस्तक पर ) धारण करना चाहिए, शुभ्र धौत एवं पवित्र कौपीन तथा कटिसूत्र का धारण करना चाहिए ॥ ४८-४९ ॥
मूलम् पद्मबीजमयी माला तुलसीदिव्यचूर्णकम्। पवित्रञ्चाथ कौपीनं व्यतिस्यूताच मेखला॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः पञ्चायुधाब्जतार्क्ष्यादिलक्षणाभरणादिकम्। वेषश्चावनुल्बणः शौक्ल्यंदन्तहृत्पुण्ड्रवाससाम्॥५०॥
टीका शरीर पर श्रीहरि के पंचायुध शंख, गरुत्मादि लक्षणों वाले अलंकार तथा उष्णीय आदि को धारण करना चाहिए तथा शुक्ल वर्ण के सूक्ष्म वस्त्रादि का परिशुद्धरूप में धारण तथा दन्त, हृदयपुण्ड्र तथा वस्त्रों को शुभ्ररूप में रखना तथा श्रीविष्णु के नाम से उन्हीं के आश्रित चेतन तथा अचेतन रूपवाले व्यक्तियों नामों से व्यवहार रखना ये लक्षण संतों के होते हैं । ५०-५१ ॥
मूलम् पञ्चायुधाब्जतार्क्ष्यादिलक्षणाभरणादिकम्। वेषश्चावनुल्बणः शौक्ल्यंदन्तहृत्पुण्ड्रवाससाम्॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विष्णोस्तत्संश्रयाणाञ्च चेतनाचेतनात्मनाम्। आख्ययाव्यपदेशश्च लक्षणानि सतां विदुः॥५१॥
टीका शरीर पर श्रीहरि के पंचायुध शंख, गरुत्मादि लक्षणों वाले अलंकार तथा उष्णीय आदि को धारण करना चाहिए तथा शुक्ल वर्ण के सूक्ष्म वस्त्रादि का परिशुद्धरूप में धारण तथा दन्त, हृदयपुण्ड्र तथा वस्त्रों को शुभ्ररूप में रखना तथा श्रीविष्णु के नाम से उन्हीं के आश्रित चेतन तथा अचेतन रूपवाले व्यक्तियों नामों से व्यवहार रखना ये लक्षण संतों के होते हैं । ५०-५१ ॥
मूलम् विष्णोस्तत्संश्रयाणाञ्च चेतनाचेतनात्मनाम्। आख्ययाव्यपदेशश्च लक्षणानि सतां विदुः॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः लक्ष्मणामपचारेण विरुद्धानाञ्च धारणात्। कैंकर्य्यामोदसम्पत्तिर्नश्येन्मोहश्च जायते॥५२॥
टीका इन लक्षणों के धारण न करने पर अपचार से तथा अन्य देवगण के चिन्हादि के धारण करने पर वृत्ति के कैंकर्यामोदन सम्पदा का विघात होता है तथा इससे मोह रूप भ्रम की भी सम्भावना (या स्थिति) निर्मित हो जाती है ॥ ५२॥
मूलम् लक्ष्मणामपचारेण विरुद्धानाञ्च धारणात्। कैंकर्य्यामोदसम्पत्तिर्नश्येन्मोहश्च जायते॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः पत्युर्ज्ञानमयी वृत्तिर्विष्णोः प्रियमिहोच्यते। ये सन्ति तत्र निरतास्ते सन्त इति कीर्त्तिताः॥५३॥
टीका अब स्वामी श्रीनारायण की ज्ञानमयी तथा प्रिय वृत्ति को बतलाते हैं। जो श्रीविष्णु के आराधक इस इष्टज्ञान की दृष्टि रखते हुए अपने आराध्य में निरत रहें उन्हें सत्जन या सन्त कहते हैं। तथा इनमें जो भक्तिमयी उत्कृष्ट वृत्ति सर्वात्मना अपने इष्ट परमात्मा में पराकाष्ठा तक पहुँच जाती हो वही भक्ति की पराकाष्ठा रूप सद्वृत्ति हैं। संत आचार्यों को समान, अपने आराध्य देव के समान, माता और पिता के समान, अपने विश्वस्त मित्र की तरह, अपने स्वामी के समान तथा अपने शासक नृप के समान देखते हुए उनके अनुरूप प्रीति रखना चाहिए ॥ ५३-५५॥
मूलम् पत्युर्ज्ञानमयी वृत्तिर्विष्णोः प्रियमिहोच्यते। ये सन्ति तत्र निरतास्ते सन्त इति कीर्त्तिताः॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सर्वात्मना हि या वृतिस्तेषु भक्तिमयी परा। सा भक्तेः परमा काष्टा वृत्तेश्च परमात्मनि॥५४॥
टीका अब स्वामी श्रीनारायण की ज्ञानमयी तथा प्रिय वृत्ति को बतलाते हैं। जो श्रीविष्णु के आराधक इस इष्टज्ञान की दृष्टि रखते हुए अपने आराध्य में निरत रहें उन्हें सत्जन या सन्त कहते हैं। तथा इनमें जो भक्तिमयी उत्कृष्ट वृत्ति सर्वात्मना अपने इष्ट परमात्मा में पराकाष्ठा तक पहुँच जाती हो वही भक्ति की पराकाष्ठा रूप सद्वृत्ति हैं। संत आचार्यों को समान, अपने आराध्य देव के समान, माता और पिता के समान, अपने विश्वस्त मित्र की तरह, अपने स्वामी के समान तथा अपने शासक नृप के समान देखते हुए उनके अनुरूप प्रीति रखना चाहिए ॥ ५३-५५॥
मूलम् सर्वात्मना हि या वृतिस्तेषु भक्तिमयी परा। सा भक्तेः परमा काष्टा वृत्तेश्च परमात्मनि॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः आचार्यवद्दैवतवन्मातृवत्पितृवत्स्ववत्। सुहृद्वत्स्वामिवत्सन्तो द्रष्टव्या राजवत्तथा॥५५॥
टीका अब स्वामी श्रीनारायण की ज्ञानमयी तथा प्रिय वृत्ति को बतलाते हैं। जो श्रीविष्णु के आराधक इस इष्टज्ञान की दृष्टि रखते हुए अपने आराध्य में निरत रहें उन्हें सत्जन या सन्त कहते हैं। तथा इनमें जो भक्तिमयी उत्कृष्ट वृत्ति सर्वात्मना अपने इष्ट परमात्मा में पराकाष्ठा तक पहुँच जाती हो वही भक्ति की पराकाष्ठा रूप सद्वृत्ति हैं। संत आचार्यों को समान, अपने आराध्य देव के समान, माता और पिता के समान, अपने विश्वस्त मित्र की तरह, अपने स्वामी के समान तथा अपने शासक नृप के समान देखते हुए उनके अनुरूप प्रीति रखना चाहिए ॥ ५३-५५॥
मूलम् आचार्यवद्दैवतवन्मातृवत्पितृवत्स्ववत्। सुहृद्वत्स्वामिवत्सन्तो द्रष्टव्या राजवत्तथा॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः श्रुत्वैव सहसोत्थानम्प्रत्युत्थानं सुदूरतः। दर्शनानुभवः प्रीतिः प्रणिपातोऽभिवादनम्॥५६॥
टीका इनके आगमन को सुनते ही बिना किसी विलम्ब के अपने स्थान से उठ जाना चाहिए तथा दूर तक आगे चलकर इनकी अगवानी करना चाहिए, इनके दर्शन के साथ अपनी प्रीति का अनुभव तथा उन्हें आदरपूर्वक नमस्कार अथवा अभिवादन करना चाहिए ॥ ५६ ॥
मूलम् श्रुत्वैव सहसोत्थानम्प्रत्युत्थानं सुदूरतः। दर्शनानुभवः प्रीतिः प्रणिपातोऽभिवादनम्॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः नीचैः संश्लेषणं हस्तदानं मार्गप्रदर्शनम्। पश्चात्पार्श्वपुरोयानञ्जयालोकाभिभाषणम्॥५७॥
टीका झुककर विनयपूर्वक उनके हाथ को लेते हुए किसी बात को बतलाना चाहिए तथा बाद में उनकी बाजू से आगे चलकर उनकी जय का उद्घोषण आदि करना चाहिए ॥ ५७॥
मूलम् नीचैः संश्लेषणं हस्तदानं मार्गप्रदर्शनम्। पश्चात्पार्श्वपुरोयानञ्जयालोकाभिभाषणम्॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः गृहोपनयनञ्चान्तर्देशक्रमणमासनम्। पादावनेजनञ्चायपहारः स्वागतादि च॥५८॥
टीका उन्हें अपने निवास पर लाना चाहिए तथा घर के सभी कक्षादि स्थानों पर उन्हें ले जाना चाहिए तथा योग्य आसन पर उन्हें बिठाकर उनके पादप्रक्षालन, अर्थ्योपहार तथा स्वागतादि प्रस्तुत करना चाहिए || ५८ ॥
मूलम् गृहोपनयनञ्चान्तर्देशक्रमणमासनम्। पादावनेजनञ्चायपहारः स्वागतादि च॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्रसादनं क्ष्मापणञ्च प्रीतिसंकथनानि च। उपासनं प्रश्रयणमात्मात्मीयनिवेदनम्॥५९॥
टीका उनके प्रसादन हेतु प्रसीद जैसे शब्दों का कथन विनयपूर्वक करना चाहिए तथा क्षमा प्रार्थना कर प्रीतिपूर्वक संभाषण करना चाहिए, उनके समीप ही स्वयं को बैठना, विनय तथा आत्मीयभाव का निवेदन करना चाहिए ॥ ५९ ॥
मूलम् प्रसादनं क्ष्मापणञ्च प्रीतिसंकथनानि च। उपासनं प्रश्रयणमात्मात्मीयनिवेदनम्॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः आज्ञाभ्यर्थनमालोकनिदेशवचनादरः। साधनं सम्पदामिष्टादरोऽनिष्टनिवर्त्तनम्॥६०॥
टीका किसी कार्य के होने पर उनसे आज्ञा कीजिये कहना, उनके द्वारा देखने आने पर उनके आज्ञा वचनों पर आदर करते हुए उनके लिये शाकफलादि भोजनयोग्य सामग्री का पकाना आदि कार्य के साथ (इष्ट आदर तथा उसी से अपना अनिष्ट का निवारण बतलाना चाहिए ) ॥ ६० ॥
मूलम् आज्ञाभ्यर्थनमालोकनिदेशवचनादरः। साधनं सम्पदामिष्टादरोऽनिष्टनिवर्त्तनम्॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विरहानर्थपीडावमाननाद्यसहिष्णुता। दास्याभिमानोऽनुव्रज्या श्रवणं कीर्त्तनं स्मृतिः॥६१॥
टीका उनके विरुद्ध की, उनकी अर्थहानि की, उनकी पीड़ा की, उनके किसी द्वेषी जन द्वारा किये गये तिरस्कार की असहिष्णुता का निवेदन करना चाहिए तथा उनके दास्य का अपना निश्चय तथा उसका अभिमान बतला कर उसके अनुगमन, उनके योगक्षेम तथा गुणों का श्रवण, स्वयं उनकी बातों का तथा नामादि का उल्लेख कर बात करना तथा उनकी पिछले गौरव का स्मरण करना, उनके द्वारा आचरित या बुद्ध भक्ति, ज्ञान का तथा वैराग्यमय आचारादि का अनुमोदन करना, उन्हीं के उद्देश्य से उनके समीप जाना तथा उनके पीछे स्थित होना, बैठना आदि करना चाहिए। ६१-६२॥
मूलम् विरहानर्थपीडावमाननाद्यसहिष्णुता। दास्याभिमानोऽनुव्रज्या श्रवणं कीर्त्तनं स्मृतिः॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः भक्तिज्ञानसमाचारवैराग्याद्यनुमोदनम्। संगमेच्छोपगमनमन्वक्स्थानासनादिकम्॥६२॥
टीका उनके विरुद्ध की, उनकी अर्थहानि की, उनकी पीड़ा की, उनके किसी द्वेषी जन द्वारा किये गये तिरस्कार की असहिष्णुता का निवेदन करना चाहिए तथा उनके दास्य का अपना निश्चय तथा उसका अभिमान बतला कर उसके अनुगमन, उनके योगक्षेम तथा गुणों का श्रवण, स्वयं उनकी बातों का तथा नामादि का उल्लेख कर बात करना तथा उनकी पिछले गौरव का स्मरण करना, उनके द्वारा आचरित या बुद्ध भक्ति, ज्ञान का तथा वैराग्यमय आचारादि का अनुमोदन करना, उन्हीं के उद्देश्य से उनके समीप जाना तथा उनके पीछे स्थित होना, बैठना आदि करना चाहिए। ६१-६२॥
मूलम् भक्तिज्ञानसमाचारवैराग्याद्यनुमोदनम्। संगमेच्छोपगमनमन्वक्स्थानासनादिकम्॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः समानसुखदुःखत्वं मिथश्वार्थविचिन्तनम्। क्रियाकाले तु वरणं सदस्याग्रे तु पूजनम्॥६३॥
टीका उनके मुख तथा दुःखों में अपनी समान स्थिति निदर्शित करना, परस्पर किसी शास्त्रादि अर्थ पर विचार करना ( या उसमें सहयोग करना) स्वयं के यज्ञादि अनुष्ठानों के सम्पादन में उनका योग्य स्थिति में वरण करना, श्रेष्ठ सदस्य के रूप में उनकी अनुरूप अर्चना, परिषद् या सभा में उनके समीप रहना, उनकी किसी शास्त्रादि प्रतिज्ञा के होने पर उनका विषयादि प्रवर्तन करना तथा सभी अपेक्षित कार्यों में उनकी आदेशमयी अनुज्ञा के अनुरूप कार्यों का सम्पादन करना॥६३-६४ ॥
मूलम् समानसुखदुःखत्वं मिथश्वार्थविचिन्तनम्। क्रियाकाले तु वरणं सदस्याग्रे तु पूजनम्॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः परिषत्सु च सान्निध्यं संविदाञ्च प्रवर्त्तनम्। तथाभ्यनुज्ञापूर्वं च सर्वार्थेषु प्रवृत्तयः॥६४॥
टीका उनके मुख तथा दुःखों में अपनी समान स्थिति निदर्शित करना, परस्पर किसी शास्त्रादि अर्थ पर विचार करना ( या उसमें सहयोग करना) स्वयं के यज्ञादि अनुष्ठानों के सम्पादन में उनका योग्य स्थिति में वरण करना, श्रेष्ठ सदस्य के रूप में उनकी अनुरूप अर्चना, परिषद् या सभा में उनके समीप रहना, उनकी किसी शास्त्रादि प्रतिज्ञा के होने पर उनका विषयादि प्रवर्तन करना तथा सभी अपेक्षित कार्यों में उनकी आदेशमयी अनुज्ञा के अनुरूप कार्यों का सम्पादन करना॥६३-६४ ॥
मूलम् परिषत्सु च सान्निध्यं संविदाञ्च प्रवर्त्तनम्। तथाभ्यनुज्ञापूर्वं च सर्वार्थेषु प्रवृत्तयः॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्रच्छादनञ्च दोषाणां गुणानां ख्यापनन्तथा। क्वचिच्चैवाप्यधर्मेण कृच्छ्रेणाप्यर्थसाधनम्॥६५॥
टीका उनके स्खलन या दोषों का प्रच्छादन करना तथा गुणों का प्रख्यापन करना तथा आवश्यक होने पर किसी अवसर पर कष्ट के उपस्थित हो जाने पर किसी अधर्म की भी किञ्चिद् वृत्ति का आश्रय लेकर उद्दिष्ट अर्थ साधन कर लेना। ये सभी तथा इन्हीं के समान कुछ दूसरी भी भक्ति से प्रेरित तथा संचालित वृत्तियां है जिनकी प्रवृत्ति रखी जाए। ये ही विष्णु भक्तों में वृत्तिनामक वृक्ष की रसपूर्ण फलवृत्ति या सम्पत्ति कहलाती है ॥ ६५-६६॥
मूलम् प्रच्छादनञ्च दोषाणां गुणानां ख्यापनन्तथा। क्वचिच्चैवाप्यधर्मेण कृच्छ्रेणाप्यर्थसाधनम्॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः एताश्चान्याश्च विविधा वृत्तयो रसनिर्भराः। विष्णुभक्तेषु वृत्त्याख्यतरोर्हि फलसम्पदः॥६६॥
टीका उनके स्खलन या दोषों का प्रच्छादन करना तथा गुणों का प्रख्यापन करना तथा आवश्यक होने पर किसी अवसर पर कष्ट के उपस्थित हो जाने पर किसी अधर्म की भी किञ्चिद् वृत्ति का आश्रय लेकर उद्दिष्ट अर्थ साधन कर लेना। ये सभी तथा इन्हीं के समान कुछ दूसरी भी भक्ति से प्रेरित तथा संचालित वृत्तियां है जिनकी प्रवृत्ति रखी जाए। ये ही विष्णु भक्तों में वृत्तिनामक वृक्ष की रसपूर्ण फलवृत्ति या सम्पत्ति कहलाती है ॥ ६५-६६॥
मूलम् एताश्चान्याश्च विविधा वृत्तयो रसनिर्भराः। विष्णुभक्तेषु वृत्त्याख्यतरोर्हि फलसम्पदः॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सतामाचार्यमुख्यानामपचाराः पृथग्विधाः। असतामिव संसर्गास्समूलफलनाशनाः॥६७॥
टीका सन्तभूत वैष्णव तथा आचार्यों के विषय में होनेवाले अपचारों को अलग रूपवाले समझना चाहिए जो असज्जन के संसर्गवत् मूलसहित फल के विघातक होते हैं॥६७॥
मूलम् सतामाचार्यमुख्यानामपचाराः पृथग्विधाः। असतामिव संसर्गास्समूलफलनाशनाः॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः दास्यामृतरसास्वादतर्षादत्यन्तमीशितुः। वैरस्येन विरुद्धानां हानं वैराग्यमुच्यते॥६८॥
टीका परमेश्वर श्रीहरि के दास्यरूप अमृत के आस्वादन की तृष्णा के कारण अत्यन्त विरस लगने वाले संसार के त्याग करनेवाला तथा संसार को विघ्न माननेवाला भाव 'वैराग्य' कहलाता है ॥ ६८ ॥
मूलम् दास्यामृतरसास्वादतर्षादत्यन्तमीशितुः। वैरस्येन विरुद्धानां हानं वैराग्यमुच्यते॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः श्रुतिभिः पञ्चरात्रेण स्मृतिभिस्तत्त्वदर्शिनाम्। दर्शितान्यर्थतत्त्वानि न हि मन्दधियो विदुः ॥६९॥

ब्रह्मरुद्रमुखा देवा विविधाश्च महर्षयः। मनुष्या नागयक्षाश्च सिद्धविद्याधरास्तथा ॥७०॥

तत्तत्कार्योपपत्यर्थं शासनाच्च जगत्पतेः। रजस्तमोऽभिभूत्या च जगुः शास्त्राण्यनेकशः ॥७१॥

विपरीतार्थतत्त्वानि क्षुद्रनानाफलानि च। अपवर्गकथावन्ति मोहनान्यद्भुतानि च ॥७२॥

टीका [श्रुतिपञ्चरात्रमन्वादिस्मृतिसात्त्विकपुराणेतिहासदृष्टिः|श्रुतिपञ्चरात्रमन्वादिस्मृतिसात्त्विकपुराणेतिहासदृष्टि], तद्विरुद्धवर्जनं दृष्टिविरुद्धवर्जनभित्याह। श्रुतिभिरित्यादिभिः पञ्चदशभिः श्लोकैः। श्रुतिभिरिति। श्रुतिशब्देन वेदः। वदार्थस्मरणमूलतया इतिहासपुराणयोरपि संग्रहः। तत्त्वदर्शिनां स्मृतिभिरित्यनेन रजस्तमोमूलव्यावृत्तिः। तत्तत्कार्योपपत्त्यर्थम्। असुरमोहनादिकार्यसिद्ध्यर्थम्। 'शासनाच्च जगत्पतेरित्यनेन '[सत्वं|सत्त्वं] हि रुद्रमहाशास्त्रादिकारये'त्यादिकं स्मारितम् विपरीतान्यर्थतत्त्वानि येषामिति बहुव्रीहिः। क्षुद्रनानाफलानि क्षुद्राणि शिशुभावे नानाविधानि फलानि येषां तानि। अपवर्गकथावन्ति मोक्षप्रस्ताववन्ति मोक्षकथनमात्रमेव न मोक्ष इति भावः। मोहनानि मोहाविपरीतभूतानि विशेषेण पाषाणभेदनाद्भुतकार्यकरत्वाद्वा आश्चर्यकथायुतत्वाद्वा अद्भुतत्वम् ॥ ६९॥७०॥७१॥७२॥
मूलम् श्रुतिभिः पञ्चरात्रेण स्मृतिभिस्तत्त्वदर्शिनाम्। दर्शितान्यर्थतत्त्वानि न हि मन्दधियो विदुः ॥६९॥

ब्रह्मरुद्रमुखा देवा विविधाश्च महर्षयः। मनुष्या नागयक्षाश्च सिद्धविद्याधरास्तथा ॥७०॥

तत्तत्कार्योपपत्यर्थं शासनाच्च जगत्पतेः। रजस्तमोऽभिभूत्या च जगुः शास्त्राण्यनेकशः ॥७१॥

विपरीतार्थतत्त्वानि क्षुद्रनानाफलानि च। अपवर्गकथावन्ति मोहनान्यद्भुतानि च ॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः अपरेषामपि पुनस्तत्तन्मार्गानुसारिणाम्। धर्मवादच्छलोपेता ये च स्युर्ग्रन्थविस्तराः॥७३॥
टीका इसके अतिरिक्त कुछ अन्य हैरण्यगर्भ, पशुपत आदि आगमों के जो पूर्वकथित शास्त्रों से भिन्न हैं तथा ये धर्मवाद के छलों से भरे हुए हैं। इनके समान ही अन्य जो ग्रन्थ तथा उनके तात्विक विस्तार मूलक ग्रन्थ है वे भी धर्मवाद का भ्रम उत्पन्न करनेवाले हैं। ये सभी श्रीविष्णु के तात्विक ज्ञानमय प्रकाश से रहित हैं जिन पर श्रीहरि की दृष्टि नहीं तथा ऐसे अनेक प्रबन्ध ग्रन्थ तथा उनके विस्तार से तात्पर्य दिखलाने वाले प्रबन्धों के अनुशीलन करने से ज्ञान का विप्लव होता है यह तत्व ध्यान देने योग्य हैं॥७३-७४॥
मूलम् अपरेषामपि पुनस्तत्तन्मार्गानुसारिणाम्। धर्मवादच्छलोपेता ये च स्युर्ग्रन्थविस्तराः॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः हरेरालोकहीनानामद्यापि किल पश्यत। तेषु तेष्ववगाहेन भवन्ति ज्ञानविप्लवाः॥७४॥
टीका इसके अतिरिक्त कुछ अन्य हैरण्यगर्भ, पशुपत आदि आगमों के जो पूर्वकथित शास्त्रों से भिन्न हैं तथा ये धर्मवाद के छलों से भरे हुए हैं। इनके समान ही अन्य जो ग्रन्थ तथा उनके तात्विक विस्तार मूलक ग्रन्थ है वे भी धर्मवाद का भ्रम उत्पन्न करनेवाले हैं। ये सभी श्रीविष्णु के तात्विक ज्ञानमय प्रकाश से रहित हैं जिन पर श्रीहरि की दृष्टि नहीं तथा ऐसे अनेक प्रबन्ध ग्रन्थ तथा उनके विस्तार से तात्पर्य दिखलाने वाले प्रबन्धों के अनुशीलन करने से ज्ञान का विप्लव होता है यह तत्व ध्यान देने योग्य हैं॥७३-७४॥
मूलम् हरेरालोकहीनानामद्यापि किल पश्यत। तेषु तेष्ववगाहेन भवन्ति ज्ञानविप्लवाः॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वेदानां सोपनिषदां पौरुषेयत्वचिन्तनम्। पञ्चरात्रे च सकले तन्त्रान्तरसमत्वधीः॥७५॥
टीका ऐसे ग्रन्थों तथा प्रबन्धादि में उपनिषद् के सहित सभी वेदों को पौरुषेय प्रतिपादित करने की मति या तर्कादि दिये गये हैं। समग्र पञ्चरात्र जैसे आगम या तन्त्र को इसी आधार पर अन्य तन्त्रोंकी समान कोटि में रखकर उनके समान रूप से मानने की बुद्धि होती है || ७५ ॥
मूलम् वेदानां सोपनिषदां पौरुषेयत्वचिन्तनम्। पञ्चरात्रे च सकले तन्त्रान्तरसमत्वधीः॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वृद्धानां चैव मुक्तानां नित्यानां च तथात्मनाम्। अच्युतादन्यशेषत्वशंका च समताश्रमः॥७६॥
टीका जिन शिवादि देवों में अच्युत श्रीनारायण की समता बुद्धि आ जाती है तथा वृद्ध, मुक्त तथा नित्यभूत जीवों की अन्य शेष के समान स्थिति की आशंका को दिखलाकर जहाँ समता कही है ॥ ७६ ॥
मूलम् वृद्धानां चैव मुक्तानां नित्यानां च तथात्मनाम्। अच्युतादन्यशेषत्वशंका च समताश्रमः॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तस्य चान्येशितव्यत्वबुद्धिर्विश्वपृथक्तधीः। विभूतिगुणरूपादिविशेषविरहभ्रमः॥७७॥
टीका और इस प्रकार उन श्रीनारायण का अन्य इष्टदेव के समान ही महत्व तथा ज्ञान को दिया जाता है तथा उनकी विभूति, गुण तथा रूपादि विशेष से रहित तत्व से विश्व से अप्रथत्व की बुद्धि दिखलाकर भ्रम उत्पन्न किया जाता है ॥ ७७ ॥
मूलम् तस्य चान्येशितव्यत्वबुद्धिर्विश्वपृथक्तधीः। विभूतिगुणरूपादिविशेषविरहभ्रमः॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अन्यतो जगदुत्पत्तिस्थितिप्रलयचिन्तनम्। योगानां चैव सर्वेषां नित्यादेः कर्मणस्तथा॥७८॥
टीका जगत् की उत्पत्ति आदि का श्रीनारायण के अतिरिक्त किसी अन्य से निरूपण करना तथा सभी कर्म, ज्ञान तथा भक्ति योगों का तथा नित्यादि पदार्थों तथा कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों का भी इसी प्रकार नारायण से भिन्न उपादान के रूपों में चिन्तन करना तथा दान या दृष्टि, शंख चक्रादि अंकों, सत्सेवा आदि के तत्वों की विचिन्तना से दूर हट जाना और सभी विरोधी उपायों, तत्वों (दृष्टि, अंक, सत्सेवा के विरुद्ध उपायों का जैसे महत् तत्व आदि का स्वरूपादि विचार करना। इसी प्रकार अमादि माया स्वरूप अविद्या का स्वरूपगत विचान न करना तथा उसी अविद्या की श्रीहरि के दर्शन या प्राप्ति के बाद निवृत्ति होने की स्थिति को न मानकर किसी अन्य उपाय से निवृत्ति का ज्ञान रखना । इसी प्रकार मोक्षरूप फल की श्रीहरि के अतिरिक्त किसी दूसरी विधि से प्राप्ति मानना और श्रीहरि के दासभाव की प्राप्ति से भिन्न अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्ति की स्थिति का चिन्तन करना या उसे मानना। ये सभी तथा इनके अतिरिक्त देहादि स्थूल पदार्थों में विशेषरूप में आत्मत्व की निष्ठा बुद्धि रखना आदि ये अनेक प्रकार के कुदृष्टि रूप महाघातक हैं जो भ्रमोत्पादक तथा श्रीहरि की भक्ति में बाधक हैं ॥ ७८ ||
मूलम् अन्यतो जगदुत्पत्तिस्थितिप्रलयचिन्तनम्। योगानां चैव सर्वेषां नित्यादेः कर्मणस्तथा॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ज्ञानभक्त्यंकसत्सेवातत्त्वानां चाविचिन्तनम्। विरुद्धानां च सर्वेषामपायत्वविमर्शनम्॥७९॥
टीका जगत् की उत्पत्ति आदि का श्रीनारायण के अतिरिक्त किसी अन्य से निरूपण करना तथा सभी कर्म, ज्ञान तथा भक्ति योगों का तथा नित्यादि पदार्थों तथा कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों का भी इसी प्रकार नारायण से भिन्न उपादान के रूपों में चिन्तन करना तथा दान या दृष्टि, शंख चक्रादि अंकों, सत्सेवा आदि के तत्वों की विचिन्तना से दूर हट जाना और सभी विरोधी उपायों, तत्वों (दृष्टि, अंक, सत्सेवा के विरुद्ध उपायों का जैसे महत् तत्व आदि का स्वरूपादि विचार करना। इसी प्रकार अमादि माया स्वरूप अविद्या का स्वरूपगत विचान न करना तथा उसी अविद्या की श्रीहरि के दर्शन या प्राप्ति के बाद निवृत्ति होने की स्थिति को न मानकर किसी अन्य उपाय से निवृत्ति का ज्ञान रखना । इसी प्रकार मोक्षरूप फल की श्रीहरि के अतिरिक्त किसी दूसरी विधि से प्राप्ति मानना और श्रीहरि के दासभाव की प्राप्ति से भिन्न अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्ति की स्थिति का चिन्तन करना या उसे मानना। ये सभी तथा इनके अतिरिक्त देहादि स्थूल पदार्थों में विशेषरूप में आत्मत्व की निष्ठा बुद्धि रखना आदि ये अनेक प्रकार के कुदृष्टि रूप महाघातक हैं जो भ्रमोत्पादक तथा श्रीहरि की भक्ति में बाधक हैं ॥ ७८ ||
मूलम् ज्ञानभक्त्यंकसत्सेवातत्त्वानां चाविचिन्तनम्। विरुद्धानां च सर्वेषामपायत्वविमर्शनम्॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तथानादेरविद्यायाः स्वरूपस्यानिरूपणम्। हरेरालोकनान्तायास्तस्याञ्चान्यनिवर्त्यधीः॥८०॥
टीका जगत् की उत्पत्ति आदि का श्रीनारायण के अतिरिक्त किसी अन्य से निरूपण करना तथा सभी कर्म, ज्ञान तथा भक्ति योगों का तथा नित्यादि पदार्थों तथा कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों का भी इसी प्रकार नारायण से भिन्न उपादान के रूपों में चिन्तन करना तथा दान या दृष्टि, शंख चक्रादि अंकों, सत्सेवा आदि के तत्वों की विचिन्तना से दूर हट जाना और सभी विरोधी उपायों, तत्वों (दृष्टि, अंक, सत्सेवा के विरुद्ध उपायों का जैसे महत् तत्व आदि का स्वरूपादि विचार करना। इसी प्रकार अमादि माया स्वरूप अविद्या का स्वरूपगत विचान न करना तथा उसी अविद्या की श्रीहरि के दर्शन या प्राप्ति के बाद निवृत्ति होने की स्थिति को न मानकर किसी अन्य उपाय से निवृत्ति का ज्ञान रखना । इसी प्रकार मोक्षरूप फल की श्रीहरि के अतिरिक्त किसी दूसरी विधि से प्राप्ति मानना और श्रीहरि के दासभाव की प्राप्ति से भिन्न अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्ति की स्थिति का चिन्तन करना या उसे मानना। ये सभी तथा इनके अतिरिक्त देहादि स्थूल पदार्थों में विशेषरूप में आत्मत्व की निष्ठा बुद्धि रखना आदि ये अनेक प्रकार के कुदृष्टि रूप महाघातक हैं जो भ्रमोत्पादक तथा श्रीहरि की भक्ति में बाधक हैं ॥ ७८ ||
मूलम् तथानादेरविद्यायाः स्वरूपस्यानिरूपणम्। हरेरालोकनान्तायास्तस्याञ्चान्यनिवर्त्यधीः॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः फलानां चान्यतः प्राप्तिश्विन्ता निःश्रेयसस्य च। हरेः कैङ्कर्यसम्प्राप्तिर्व्यतिरिक्तामृतत्वधीः॥८१॥
टीका जगत् की उत्पत्ति आदि का श्रीनारायण के अतिरिक्त किसी अन्य से निरूपण करना तथा सभी कर्म, ज्ञान तथा भक्ति योगों का तथा नित्यादि पदार्थों तथा कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों का भी इसी प्रकार नारायण से भिन्न उपादान के रूपों में चिन्तन करना तथा दान या दृष्टि, शंख चक्रादि अंकों, सत्सेवा आदि के तत्वों की विचिन्तना से दूर हट जाना और सभी विरोधी उपायों, तत्वों (दृष्टि, अंक, सत्सेवा के विरुद्ध उपायों का जैसे महत् तत्व आदि का स्वरूपादि विचार करना। इसी प्रकार अमादि माया स्वरूप अविद्या का स्वरूपगत विचान न करना तथा उसी अविद्या की श्रीहरि के दर्शन या प्राप्ति के बाद निवृत्ति होने की स्थिति को न मानकर किसी अन्य उपाय से निवृत्ति का ज्ञान रखना । इसी प्रकार मोक्षरूप फल की श्रीहरि के अतिरिक्त किसी दूसरी विधि से प्राप्ति मानना और श्रीहरि के दासभाव की प्राप्ति से भिन्न अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्ति की स्थिति का चिन्तन करना या उसे मानना। ये सभी तथा इनके अतिरिक्त देहादि स्थूल पदार्थों में विशेषरूप में आत्मत्व की निष्ठा बुद्धि रखना आदि ये अनेक प्रकार के कुदृष्टि रूप महाघातक हैं जो भ्रमोत्पादक तथा श्रीहरि की भक्ति में बाधक हैं ॥ ७८ ||
मूलम् फलानां चान्यतः प्राप्तिश्विन्ता निःश्रेयसस्य च। हरेः कैङ्कर्यसम्प्राप्तिर्व्यतिरिक्तामृतत्वधीः॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विशेषेणाप्यनर्थेषु देहादिष्वर्थतामतिः। इत्यादयो बहुविधा महापापाः कुदृष्टयः॥८२॥
टीका जगत् की उत्पत्ति आदि का श्रीनारायण के अतिरिक्त किसी अन्य से निरूपण करना तथा सभी कर्म, ज्ञान तथा भक्ति योगों का तथा नित्यादि पदार्थों तथा कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों का भी इसी प्रकार नारायण से भिन्न उपादान के रूपों में चिन्तन करना तथा दान या दृष्टि, शंख चक्रादि अंकों, सत्सेवा आदि के तत्वों की विचिन्तना से दूर हट जाना और सभी विरोधी उपायों, तत्वों (दृष्टि, अंक, सत्सेवा के विरुद्ध उपायों का जैसे महत् तत्व आदि का स्वरूपादि विचार करना। इसी प्रकार अमादि माया स्वरूप अविद्या का स्वरूपगत विचान न करना तथा उसी अविद्या की श्रीहरि के दर्शन या प्राप्ति के बाद निवृत्ति होने की स्थिति को न मानकर किसी अन्य उपाय से निवृत्ति का ज्ञान रखना । इसी प्रकार मोक्षरूप फल की श्रीहरि के अतिरिक्त किसी दूसरी विधि से प्राप्ति मानना और श्रीहरि के दासभाव की प्राप्ति से भिन्न अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्ति की स्थिति का चिन्तन करना या उसे मानना। ये सभी तथा इनके अतिरिक्त देहादि स्थूल पदार्थों में विशेषरूप में आत्मत्व की निष्ठा बुद्धि रखना आदि ये अनेक प्रकार के कुदृष्टि रूप महाघातक हैं जो भ्रमोत्पादक तथा श्रीहरि की भक्ति में बाधक हैं ॥ ७८ ||
मूलम् विशेषेणाप्यनर्थेषु देहादिष्वर्थतामतिः। इत्यादयो बहुविधा महापापाः कुदृष्टयः॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः हरेः प्रियतमं ज्ञानं सन्तो ज्ञानधना ह्यतः। तथैव चापचाराणां काष्ठा ज्ञानविपर्य्ययः॥८३॥
टीका अतएव श्रीहरि को एक तो सत् दृष्टि वाला ज्ञान तथा इस ज्ञान के रखने वाले सन्त ही प्रिय हैं। इसी प्रकार अपकारों की पराकाष्ठा ( अधिक प्रमाण में आचरण होते रहना) इस ज्ञान की विरोधी स्थिति होती है ( जो हेय है ) || ८३॥
मूलम् हरेः प्रियतमं ज्ञानं सन्तो ज्ञानधना ह्यतः। तथैव चापचाराणां काष्ठा ज्ञानविपर्य्ययः॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ज्ञानस्य कर्मणा गुप्तिर्हतं ज्ञानमकर्मणा। प्रवृत्त्या प्रतिषिद्धेषु ज्ञानं कर्म च नश्यति॥८४॥
टीका सत् ज्ञान का संरक्षण विहित कर्म के द्वारा होता है तथा कर्मों के आचरण न करने पर ज्ञान का भी हनन हो जाता है, क्योंकि यदि प्रवृत्ति इनमें अवरुद्ध हो जाए तो उनमें कर्म तथा सत्ज्ञान का भी विनाश हो जाता हैं ॥८४॥
मूलम् ज्ञानस्य कर्मणा गुप्तिर्हतं ज्ञानमकर्मणा। प्रवृत्त्या प्रतिषिद्धेषु ज्ञानं कर्म च नश्यति॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अचिन्ता च विनिन्दा च मतिपूर्वं च वर्जनम्। विहितानाञ्च धर्माणां सर्वज्ञात्मावघातकम्॥८५॥
टीका इसलिए वास्तविक तत्वों का चिन्तन न करना, ऐसी धर्मादि प्रवृत्ति की निन्दा या तर्कादि के सहारे से ऐसे तत्वों का बुद्धिपूर्वक प्रतिरोध करना तथा विहित धर्म तथा कर्माचरणों का ऐसी सर्वत्र आत्स्था से विघात करना उसके स्वरूप के नाश करनेवाला है। इसी प्रकार जो निन्द्य ( त्याज्य) कर्मों में रुचि रखना तथा सभी विषयादि में रुचि तथा लौल्य वृत्ति रखना विषपूर्ण मधु की स्पृहा के करने जैसी विघातक होती है। इसके अतिरिक्त जो श्रीनारायण के प्रति द्वेषभाव या अनास्था से युक्त है तथा इनके सम्यक् ज्ञान से जो विमुख है, जो दोषों या अपचारों में स्वार्थवश प्रवृत्ति रख रहा हो तो ये सभी कार्य आत्मविनाशक होते हैं॥ ८५-८७॥
मूलम् अचिन्ता च विनिन्दा च मतिपूर्वं च वर्जनम्। विहितानाञ्च धर्माणां सर्वज्ञात्मावघातकम्॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्वरूपस्य विनाशाय रुचिर्निन्द्येषु कर्मसु। विषयेषु च सर्वेषु लौल्यं विषमधुस्पृहा॥८६॥
टीका इसलिए वास्तविक तत्वों का चिन्तन न करना, ऐसी धर्मादि प्रवृत्ति की निन्दा या तर्कादि के सहारे से ऐसे तत्वों का बुद्धिपूर्वक प्रतिरोध करना तथा विहित धर्म तथा कर्माचरणों का ऐसी सर्वत्र आत्स्था से विघात करना उसके स्वरूप के नाश करनेवाला है। इसी प्रकार जो निन्द्य ( त्याज्य) कर्मों में रुचि रखना तथा सभी विषयादि में रुचि तथा लौल्य वृत्ति रखना विषपूर्ण मधु की स्पृहा के करने जैसी विघातक होती है। इसके अतिरिक्त जो श्रीनारायण के प्रति द्वेषभाव या अनास्था से युक्त है तथा इनके सम्यक् ज्ञान से जो विमुख है, जो दोषों या अपचारों में स्वार्थवश प्रवृत्ति रख रहा हो तो ये सभी कार्य आत्मविनाशक होते हैं॥ ८५-८७॥
मूलम् स्वरूपस्य विनाशाय रुचिर्निन्द्येषु कर्मसु। विषयेषु च सर्वेषु लौल्यं विषमधुस्पृहा॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विष्णोर्विद्वेषयुक्तस्य वैमुख्यं प्रतिपत्तिषु। प्रवृत्तिश्चापचारेषु सम्यगात्मविनाशनम्॥८७॥
टीका इसलिए वास्तविक तत्वों का चिन्तन न करना, ऐसी धर्मादि प्रवृत्ति की निन्दा या तर्कादि के सहारे से ऐसे तत्वों का बुद्धिपूर्वक प्रतिरोध करना तथा विहित धर्म तथा कर्माचरणों का ऐसी सर्वत्र आत्स्था से विघात करना उसके स्वरूप के नाश करनेवाला है। इसी प्रकार जो निन्द्य ( त्याज्य) कर्मों में रुचि रखना तथा सभी विषयादि में रुचि तथा लौल्य वृत्ति रखना विषपूर्ण मधु की स्पृहा के करने जैसी विघातक होती है। इसके अतिरिक्त जो श्रीनारायण के प्रति द्वेषभाव या अनास्था से युक्त है तथा इनके सम्यक् ज्ञान से जो विमुख है, जो दोषों या अपचारों में स्वार्थवश प्रवृत्ति रख रहा हो तो ये सभी कार्य आत्मविनाशक होते हैं॥ ८५-८७॥
मूलम् विष्णोर्विद्वेषयुक्तस्य वैमुख्यं प्रतिपत्तिषु। प्रवृत्तिश्चापचारेषु सम्यगात्मविनाशनम्॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अन्यतान्त्रिकदेवानां संसर्गप्रतिपत्तिषु। प्रवृत्तिरच्युतैकान्त्यनियमाध्वरनाशिनी॥८८॥
टीका इसी प्रकार अन्य तन्त्रादि में निर्दिष्ट उपास्य देवों में निष्ठा, उनके उपासकों के साथ संसर्ग तथा उनकी आचार तथा कर्मादि विधि में ज्ञान तथा ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति रखना ये सभी कार्य श्रीनारायण के अनन्यभाव (एकात्य) के नियमरूप यज्ञ को विनाश करनेवाले कहे गये हैं ॥ ८८ ॥
मूलम् अन्यतान्त्रिकदेवानां संसर्गप्रतिपत्तिषु। प्रवृत्तिरच्युतैकान्त्यनियमाध्वरनाशिनी॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः लक्षणानि हि पुष्पाणि मुकुन्दचरणार्चने। तदभावपरीभावौ प्रद्धंसनकरावुभौ॥८९॥
टीका शंखचक्रादि अंकनरूप लक्षणों का धारण करना श्रीहरि के चरणों में अर्पित अर्चना के पुष्प हैं तथा इनको न धारण करना या इनका तिरस्कार करना, ये दोनों कार्य श्रीनारायण के एकान्त्यभाव के विघातक हैं ॥ ८९ ॥
मूलम् लक्षणानि हि पुष्पाणि मुकुन्दचरणार्चने। तदभावपरीभावौ प्रद्धंसनकरावुभौ॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अन्यपुण्ड्राङ्कनादीनां धारणं दृष्टिनाशनम्। परचिह्नत्रणं ग्रात्रे भ्रंशाय नरकाय च॥९०॥
टीका अन्य आगमों में बतलाए हुए चिन्ह तथा पुण्ड्रादि का अंकन तथा धारण करना श्रीहरि की दृष्टि में विघातक है। अतएव दूसरे चिन्हों का शरीर पर रहना केवल व्रणमात्र है जो उसका पतन करता और नरक प्राप्ति करवाने वाला होता है॥९०॥
मूलम् अन्यपुण्ड्राङ्कनादीनां धारणं दृष्टिनाशनम्। परचिह्नत्रणं ग्रात्रे भ्रंशाय नरकाय च॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सतामसेवनान्नित्यमसताश्च निषेवणात्। क्षीयन्ते चाथ नश्यन्ति ज्ञानवैराग्यभक्तयः॥९१॥
टीका सत्सेवा के भाव से प्रेरित न होकर सज्जनों (वैष्णव सन्तों) की सेवा न करने तथा अन्य सन्तभूत असंन्तों के संसर्ग तथा सेवन करने से ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति क्षीण होकर बाद में नष्ट हो जाते हैं॥९१॥
मूलम् सतामसेवनान्नित्यमसताश्च निषेवणात्। क्षीयन्ते चाथ नश्यन्ति ज्ञानवैराग्यभक्तयः॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः महापचारो देवस्य भक्तानाम्भुवि शार्ङ्गिणः।
टीका श्रीहरि नारायण देव के भक्तों का पृथ्वी पर अपचार या उनकी उपेक्षारूप दोष का आचरण धर्म की रक्षा से नियुक्त जन की मर्यादा का उल्लंघन होता है॥९२॥
मूलम् महापचारो देवस्य भक्तानाम्भुवि शार्ङ्गिणः।
विश्वास-प्रस्तुतिः धर्मरक्षानियुक्तानां समयस्य व्यतिक्रमः॥९२॥
टीका श्रीहरि नारायण देव के भक्तों का पृथ्वी पर अपचार या उनकी उपेक्षारूप दोष का आचरण धर्म की रक्षा से नियुक्त जन की मर्यादा का उल्लंघन होता है॥९२॥
मूलम् धर्मरक्षानियुक्तानां समयस्य व्यतिक्रमः॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः एते चान्ये च विविधा ह्यपचाराः सुदुःसहाः। वैराग्यं वर्जनं तेषां लज्जामानमदादिभिः॥९३॥
टीका अतएव इन बतलाये गये तथा इसी प्रकार के दूसरे उपचार असह्य होते हैं (अतएव इनका आचरण छोड़ देना ही उचित है ) । इनके प्रति वैराग्य रखना उचित है तथा इनकी वर्जना है जो लज्जा, मान तथा मद आदि के द्वारा होती है ॥ ९३ ॥
मूलम् एते चान्ये च विविधा ह्यपचाराः सुदुःसहाः। वैराग्यं वर्जनं तेषां लज्जामानमदादिभिः॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वृत्तेर्हि जीवितं गुप्तिः सारो वैराग्यमुच्यते। वैराग्ययुक्ता हि नरा यजन्त्यप्रच्युतान्तराः॥९४॥
टीका वृत्ति का निरन्तर जीवन है उसका सरंक्षण करना और संरक्षण का सारभूत तत्व वैराग्य है क्योंकि वैराग्य से युक्त मनुष्य ही बिना किसी प्रयुत्ति या आपदाओं के बीच में आये निर्वाध रूप से श्रीहरि का यजन करने में समर्थ होते हैं ॥ ९४॥
मूलम् वृत्तेर्हि जीवितं गुप्तिः सारो वैराग्यमुच्यते। वैराग्ययुक्ता हि नरा यजन्त्यप्रच्युतान्तराः॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अनुज्झितक्रियायोगा ज्ञानवैराग्यशालिनी। इति भक्तिमयी वृत्तिः पुनरेव प्रपञ्चिता॥९५॥
टीका जिनमें कर्मयोग निरन्तर बना रहता है तथा ज्ञान और वैराग्य समृद्ध होकर प्रकाशित है ऐसी भक्तिमयी जो वृत्ति है पुनः यहां उसे हमने और भी स्पष्ट दिखला दिया है ॥ ९५ ॥
मूलम् अनुज्झितक्रियायोगा ज्ञानवैराग्यशालिनी। इति भक्तिमयी वृत्तिः पुनरेव प्रपञ्चिता॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः इत्थं किलात्मनो न्यासाज्जातो वृत्त्याख्यपादपः। असौ फलमयः सेव्यस्तन्न[^9]चोत्पद्यते विना[^10]॥९६॥
टीका इस प्रकार आत्मभर के न्यासयोग से वृत्तिरूप वृक्ष जन्म प्राप्त करता है जिसे फल से सम्पन्न रूप में अवश्य सेवन करना चाहिए जिससे पुनः उत्पत्ति (जन्मादि) की प्राप्ति न हो॥९६॥
मूलम् इत्थं किलात्मनो न्यासाज्जातो वृत्त्याख्यपादपः। असौ फलमयः सेव्यस्तन्न[^9]चोत्पद्यते विना[^10]॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सुसूक्ष्मत्वाद्दुरापत्वान्महत्त्वाद्गौरवादपि। मयायं परमो धर्मः प्रोक्तः स्थित्यै पुनः पुनः॥९७॥
टीका अत्यन्त सूक्ष्म रहनेवाले, कष्ट से प्राप्त होनेवाले, महत्व सम्पन्न तथा गौरव पूर्ण होने के कारण मैंने इस परमतत्वभूत धर्म को बार बार इसीलिये दिखलाया कि इसकी स्थिति दृढ़ हो सके॥९७॥
मूलम् सुसूक्ष्मत्वाद्दुरापत्वान्महत्त्वाद्गौरवादपि। मयायं परमो धर्मः प्रोक्तः स्थित्यै पुनः पुनः॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वृत्तिं सन्तोऽनुभूयेमामनुरूपहिमात्मनः। परत्र चानुमोदन्ते परमेण विपश्चिता॥९८॥
टीका सज्जन सन्तजन आत्मा के अनुरूप इस वृत्ति का अनुभव करने पर उस बैकुण्ठ लोक में परमज्ञान के साथ प्रसन्नभाव से आनन्द प्राप्त करते रहेंगे॥९८॥
मूलम् वृत्तिं सन्तोऽनुभूयेमामनुरूपहिमात्मनः। परत्र चानुमोदन्ते परमेण विपश्चिता॥९८॥

इति श्रीनारदपञ्चरात्रे भारद्वाजसंहितायां परिशिष्टे चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ (इति श्रीनारदपञ्चरात्र की भारद्वाजसंहिता के परिशिष्टभूत चतुर्थ अध्याय की ‘तत्वप्रकाशिका’ नामक हिन्दी व्याख्या समाप्त)

समाप्तोऽयं ग्रन्थः।