परिशिष्टे तृतीय अध्याय

विश्वास-प्रस्तुतिः भूयः स्फुटतरं वक्ष्ये शृणुध्वं मुनिसत्तमाः। सनातनीं सतां वृत्तिं परेषां लक्षणानि च॥१॥
टीका हे मुनियो ! अब मैं पुनः आपको अविच्छिन्न सम्प्रदाय वाली सतानतभूत सन्तों की वृत्ति तथा असन्तों के लक्षणों को बतलाता हूं || १ ||
मूलम् भूयः स्फुटतरं वक्ष्ये शृणुध्वं मुनिसत्तमाः। सनातनीं सतां वृत्तिं परेषां लक्षणानि च॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सर्वभूतांतरात्मानमीशमाराध्यमच्युतम्। बुद्धा चरंति सुधियो धर्मांस्तप्रीतये परम्॥२॥
टीका जो सन्त या ज्ञानीजन है वे सभी जीवों के अन्तराल में स्थित रहनेवाले तथा उन सभी के स्वामी श्रीनारायण की आराधना को जानकर उनकी प्रीति के सम्पादनार्थ केवल स्वधर्मादि का आचरण करते हैं || २ ||
मूलम् सर्वभूतांतरात्मानमीशमाराध्यमच्युतम्। बुद्धा चरंति सुधियो धर्मांस्तप्रीतये परम्॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः व्यासुग्धमतयःकेचित् क्षुद्रा नानाफलार्थिनः। तमेव हि यजन्त्यन्ये तथान्या अपि देवताः॥३॥
टीका अज्ञभाववाले (कुछ) अनेक ( दृष्ट तथा अनुश्रविक) फलों की आकांक्षा करने वाले होकर कुछ व्यक्तियों के अन्य देवताओं का भजन करने पर भी उनमें सभी में स्थित अच्युत का ही अर्चन करते हैं। ( इसी प्रकार अन्य देवता का भजन भी अन्तःस्थित अच्युत भाव से करने से वे भी सन्त हैं | ) || ३॥
मूलम् व्यासुग्धमतयःकेचित् क्षुद्रा नानाफलार्थिनः। तमेव हि यजन्त्यन्ये तथान्या अपि देवताः॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः कल्पिताः कर्मबन्धेन विष्णुमायाविमोहिताः। अपि देवा न जानन्ति स्वात्मानं किमुतापरे॥४॥
टीका अपने संस्कार तथा कर्मों के बन्धन से कल्पित और श्रीविष्णु की माया से मोह प्राप्त रहने के कारण जब देवगण की आत्मा के अन्तस्थ श्रीविष्णु का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ हो तो फिर मनुष्य आदि अन्यों को यह तत्व कैसे जानने में आ सकता है ||४||
मूलम् कल्पिताः कर्मबन्धेन विष्णुमायाविमोहिताः। अपि देवा न जानन्ति स्वात्मानं किमुतापरे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वदन्ति धर्मान्व्यामिश्रान्वेदाः स्कन्धमयाः किल। श्रुतिर्मोक्षमयी प्राह शुद्धं मोक्षैकलक्षणम्॥५॥
टीका अनुवाकादि स्कन्ध तथा उपनिषदात्मक वेद भी देवतान्तर्यामिभूत आराधना वाले मिश्रित (धर्मों का) काम्य धर्मों का कथन करते हैं तथा मोक्षमयी ( मोक्षपुण्य ) श्रुति मोक्षप्रयोजन रूप धर्म को ही शुद्ध ( भी ) कहती है ||५||
मूलम् वदन्ति धर्मान्व्यामिश्रान्वेदाः स्कन्धमयाः किल। श्रुतिर्मोक्षमयी प्राह शुद्धं मोक्षैकलक्षणम्॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्रायेण धर्मान्व्यामिश्रानूचुर्मन्वत्रिपूर्वकाः। शुद्धाँस्तु वयमन्ये च पञ्चरात्रपथानुगाः॥६॥
टीका मनु तथा अत्रि जैसे शास्त्र एवं धर्मवेत्ता तथा पुरातन स्मृतिकारों ने प्राय इसी प्रकार के वेदानुगत व्यामिश्र धर्मों के प्रतिपादन करते हुए धर्मविषयक बातें बतलाई हैं। [पांचरात्र|पञ्चरात्र] आगम के अनुगत धर्म के अनुगामी हम तथा हमारे जैसे अन्य अनुगत विद्वानों ने शुद्ध धर्म का प्रतिपादन कर धर्मतत्व को बतलाया || ६ ||
मूलम् प्रायेण धर्मान्व्यामिश्रानूचुर्मन्वत्रिपूर्वकाः। शुद्धाँस्तु वयमन्ये च पञ्चरात्रपथानुगाः॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः व्यामिश्रः पंचरात्रेऽपि धर्मः क्वाप्यनुकृष्यते। तत्र चागमसिद्धान्ते शुद्ध एवोपदिश्यते॥७॥
टीका पञ्चरात्र आगम में भी कहीं कहीं व्यामिश्र धर्म का अनुकर्षण कर धर्म का आगमानुमत प्रतिपादन किया है पर सिद्धान्तरूप में इस आगम में शुद्ध धर्म का उपदेश ही रखा गया है ||७||
मूलम् व्यामिश्रः पंचरात्रेऽपि धर्मः क्वाप्यनुकृष्यते। तत्र चागमसिद्धान्ते शुद्ध एवोपदिश्यते॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः हरेः शुद्धतनोः शुद्धं व्यामिश्रं कल्पितात्मनः। अशुद्धं कल्पितानान्तु केवलं यजनादिकम्॥८॥
टीका इनमें रज तथा तमोगुण से कल्पित शरीरों से भिन्न देवताओं के अन्तः स्थित अन्तर्यामीभाववाले सत्वमय शुद्धशरीर श्रीहरि के आराधनात्मक धर्म को शुद्ध, रज तथा तम गुणों से कल्पित इंद्राग्निदेवगणों को अन्तर्यामिभूत हरि से व्यामिश्र, केवल यजनादि कर्म हेतु शुद्ध तथा रज आदि गुणों से कल्पित अन्य देवता का मात्र यजनादि आराधन अशुद्ध होता है ||८||
मूलम् हरेः शुद्धतनोः शुद्धं व्यामिश्रं कल्पितात्मनः। अशुद्धं कल्पितानान्तु केवलं यजनादिकम्॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ते ह्यशुद्धतमाः सर्वे तमोनिष्ठतया स्मृताः। श्रीकण्ठप्रमुखैरुक्ता ये धर्माः कामकामिनाम्॥९॥
टीका श्रीकण्ठ आदि के द्वारा तामस तन्त्रादि में प्रसिद्ध तम गुणों से कल्पित यजनादि कर्म होने के कारण ऐसे धर्म अशुद्धतम माने गये हैं जिनमें किसी विशिष्ट कामना को लेकर अनुष्ठानादि विहित हों (तथा वेदबाह्य होने से कुदृष्टि निर्माण करती हैं अतः ये निष्फल भी हैं ) ॥ ९ ॥
मूलम् ते ह्यशुद्धतमाः सर्वे तमोनिष्ठतया स्मृताः। श्रीकण्ठप्रमुखैरुक्ता ये धर्माः कामकामिनाम्॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः त्रैविद्यानां सदामिश्राः प्रायेण विहिताः क्रियाः। ज्ञानं भक्तिश्व वैराग्यं सर्वं शुद्धमुदाहृतम्॥१०॥
टीका त्रैविद्य वेदनिष्ठ प्रायुर्वेण मिश्ररूप की क्रियाएं करते हैं तथा विहित भी हैं। परंतु जो ज्ञान, भक्ति और वैराग्य के अनुगत क्रियादि हैं वे 'शुद्ध' होती हैं क्योंकि इनमें परमैकान्तभाव से अन्तर्यामी रूप का आराधन कर्म होता है ॥ १०॥
मूलम् त्रैविद्यानां सदामिश्राः प्रायेण विहिताः क्रियाः। ज्ञानं भक्तिश्व वैराग्यं सर्वं शुद्धमुदाहृतम्॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः न्यासनिर्द्धूतपाप्मानः प्रियैः प्रियतमैरपि। मिश्रैः शुद्धैश्च नियमैर्विष्णुमाराधयन्ति ये॥११॥
टीका प्रपत्तिरूप वल के परिग्रह से न्यासयोग के द्वारा जिसने अपने समस्त पातकों को समाप्त कर दिया वे त्रैविद्य जन भी क्रमशः प्रिय, प्रियतम तथा मिश्र और शुद्ध कर्मोंबाले नियमों से श्रीहरि की आराधना करते हैं ॥ ११ ॥
मूलम् न्यासनिर्द्धूतपाप्मानः प्रियैः प्रियतमैरपि। मिश्रैः शुद्धैश्च नियमैर्विष्णुमाराधयन्ति ये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः निन्दितक्रियया हानाद्विहीनानांश्च कुप्यति। ऐच्छैरपि पुनः शुद्धैःपरं तुष्यति माधवः॥१२॥
टीका विहित कर्मों के परित्याग करने से तथा निषिद्ध कर्मों के आचरण करने से श्रीनारायण अप्रसन्न होते हैं परंतु किसी इच्छा के अधीन किये जाने वाले अनुष्ठानादि शुद्ध कर्मों से श्रीनारायण संतुष्ट होते हैं ॥ १२ ॥
मूलम् निन्दितक्रियया हानाद्विहीनानांश्च कुप्यति। ऐच्छैरपि पुनः शुद्धैःपरं तुष्यति माधवः॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विशुद्धपरिवारस्य नित्यं शुद्धा हरेः क्रिया। तयैव शुद्धकर्मेति त्रैविद्योऽपि न गद्यते॥१३॥
टीका रजस्तमः गुणों से अस्पष्ट: विशुद्ध सात्विक गुणों से परिवृत श्रीहरि की आराधना क्रिया भी शुद्ध रूपवाली होती है तथा इसी प्रकार नित्यार्चनात्मक क्रिया के द्वारा त्रैविद्य व्यामिश्र धर्म का अनुष्ठान करनेवाला भी शुद्ध कर्म का अनुष्ठाता माना जाता है ॥ १३ ॥
मूलम् विशुद्धपरिवारस्य नित्यं शुद्धा हरेः क्रिया। तयैव शुद्धकर्मेति त्रैविद्योऽपि न गद्यते॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः शुद्धो मिश्रस्तथान्यो वा समर्पितभरो हि यः। सद्यःस वासुदेवस्य कैंकर्य्यामन्दमश्नुते॥१४॥
टीका तथा जो शुद्ध कर्म का व्यामिश्र कर्म तथा अन्य अशुद्ध कर्म के अनुष्ठान करने पर श्रीहरि की प्रपत्ति को न्यासयोग के द्वारा धारण करता हो तो शीघ्र ही वह श्रीनारायण के कैकर्यभाव तथा मुक्ति के परमानन्द का सुख प्राप्त करता है॥१४॥
मूलम् शुद्धो मिश्रस्तथान्यो वा समर्पितभरो हि यः। सद्यःस वासुदेवस्य कैंकर्य्यामन्दमश्नुते॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः शुद्धादीनां तु धर्माणामधिकारादियोगतः। क्रियते पुरुषादीनां व्यपदेशस्तथाविधः॥१५॥
टीका शुद्ध आदि धर्मों का अधिकारादि के योग के आधार पर पुरुषों का उनके उपयुक्त आचारों के पौर्वापर्य तथा गुणावगुण के परामर्श को विचार कर इस प्रकार शुद्धधर्माधिकारी आदि के रूप में व्यवहार रखा गया है ॥ १५ ॥
मूलम् शुद्धादीनां तु धर्माणामधिकारादियोगतः। क्रियते पुरुषादीनां व्यपदेशस्तथाविधः॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः एकायने ह्यधिकृताः सर्वे यान्त्यञ्जसा हरिम्। ये च नानापथेऽन्यत्र प्रतिबुद्धास्तु केचन॥१६॥
टीका अतएव जो मूलवेदों के अधिकृत ब्राह्मणादि वर्ण हैं वे सभी अविलम्ब श्रीहरि को प्राप्त करने के अधिकारी ( भी ) हैं परन्तु जो त्रैविद्य के अनुसार विभिन्न पदों से त्रिवर्गमात्र की साधना में लग्न हैं उनमें कुछ ही अपवर्ग तथा उसके उपायों के साधनों के अनुष्ठान करने में सक्रिय होकर जागृत रहते हैं। क्योंकि वे अपवर्ग तथा उसके उपाय का ज्ञान रखने से श्रीहरि को प्राप्त कर लेते हैं ) ॥ १६ ॥
मूलम् एकायने ह्यधिकृताः सर्वे यान्त्यञ्जसा हरिम्। ये च नानापथेऽन्यत्र प्रतिबुद्धास्तु केचन॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः एकायना ब्रजन्तोऽपि त्रैविद्या वा स्ववर्त्मना। स्खलन्तो दृष्टिवैषम्याच्यवन्त्यैकान्त्यतो हरेः॥१७॥
टीका और ऐसे एकान्ती वैष्णव त्रैविद्य का ज्ञान रखने के कारण तथा उनके अनुगत स्वयं रहते हुए भी दृष्टिगत विषमता को (साथ में ) रखने के कारण विपरीत ज्ञान (के सहानुगम) से श्रीहरि के एकान्तभाव से स्खलित हो जाते हैं तथा अन्त में उनको इष्ट प्राप्ति नहीं हो पाती है ॥ १७ ॥
मूलम् एकायना ब्रजन्तोऽपि त्रैविद्या वा स्ववर्त्मना। स्खलन्तो दृष्टिवैषम्याच्यवन्त्यैकान्त्यतो हरेः॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यायाच्छुद्धेन मार्गेण मिश्रेष्वन्यतमेन वा। परं भगवदैकान्त्यं पूर्वैराचरितेन वा॥१८॥
टीका अतएव शुद्ध कर्म के मार्ग का अनुगमन करना उचित है अथवा मिश्र या इनमें से किसी एक का अनुगमन करे जो अपने परम्परा में पूर्वजों के द्वारा चली आ रही हो तथा वे ऐसे मार्ग से श्रीनारायण के परम एकान्त्य को प्राप्त करें ॥ १८ ॥
मूलम् यायाच्छुद्धेन मार्गेण मिश्रेष्वन्यतमेन वा। परं भगवदैकान्त्यं पूर्वैराचरितेन वा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यथैवाश्रमिणः पूर्वे ब्रजन्त्युत्तममाश्रमम्। तथैव शुद्धंत्रैविद्यामिश्रं नैकायनाः पुनः॥१९॥
टीका जैसे पूर्व के ब्रह्मचर्य आदि आश्रम गृहस्थाश्रम जैसे उत्तम आश्रम की प्रगतावस्था प्राप्त कर लेते हैं, इसी प्रकार त्रैविद्य व्यामिश्र कर्मानुष्ठानों से एकायनभाव प्राप्त करते हैं पर शुद्धकर्म मिश्रभाव को प्राप्त नहीं करते ॥ १९ ॥
मूलम् यथैवाश्रमिणः पूर्वे ब्रजन्त्युत्तममाश्रमम्। तथैव शुद्धंत्रैविद्यामिश्रं नैकायनाः पुनः॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ऐच्छञ्च नियतञ्चेति नित्यनैमित्तिकं तथा। काम्यञ्च विविधं सर्वं शुद्धाशुद्धोभयात्मकम्॥२०॥
टीका ऐसे कर्म श्रीनारायण का इष्ट सम्पाद रूप जो 'एच्छ्र' दीपारोपण मालाकरणादिरूप नियत रूपवाले हैं जो सन्ध्योपासनादि 'नित्य' हैं, जो एकादशी आदि उपवासानुष्ठान के कारण 'नियत' हैं किसी सूर्यचन्द्रग्रहणादि के कारण 'नैमित्तिक' हैं जो किन्हीं अपेक्षित कामनाओं के कारण अनुष्ठित कारीरादि यजनात्मक 'काम्य' हैं। ये सभी शुद्ध तथा अशुद्ध अथवा उभयात्मकरूप वाले कर्मों में आते हैं। ( जिनमें एकायन का शुद्ध कर्म में विहित अनुष्ठान इष्ट है ) ||२०||
मूलम् ऐच्छञ्च नियतञ्चेति नित्यनैमित्तिकं तथा। काम्यञ्च विविधं सर्वं शुद्धाशुद्धोभयात्मकम्॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्वतः सङ्कल्पतश्चापि कर्मणां भिद्यते गतिः। फलानामिह सर्वेषां प्रदाता स्वयमच्युतः॥२१॥
टीका विषयगत तथा फलकामना आदि के अनुष्ठानों के कारण स्वतः संकल्प के भेद हो जाने से कर्मों की गति में भी भिन्नता आ जाती है। इस प्रकार होने पर भी सभी कर्म तथा फलों का प्रदाता तो स्वयं श्रीनारायण ही रहते हैं (अतएव किसी भी अन्य देवता के आराधन करने पर भी उनके फलदाता भी अच्युत ही हो जाते हैं ) ॥ २१ ।
मूलम् स्वतः सङ्कल्पतश्चापि कर्मणां भिद्यते गतिः। फलानामिह सर्वेषां प्रदाता स्वयमच्युतः॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यथा कामफला यज्ञाः सृष्टा भगवता स्वयम्। त एव विदुषां तर्हि निर्वाणाय निराशिषाम्॥२२॥
टीका क्योंकि श्रीभगवन्नारायण ने हीं स्वयं जिस प्रकार स्वर्गादि कामनाओं के प्रदाता यज्ञादि की सृष्टि की थी वे ही तथारूपवाले कामनाओं के प्रदाता यज्ञादि जब बिना किसी कामना या कर्मफल के अनुष्ठित किये जाएं तो ज्ञानी जन के लिये मोक्ष प्रदाता भी हो जाते हैं ||२२||
मूलम् यथा कामफला यज्ञाः सृष्टा भगवता स्वयम्। त एव विदुषां तर्हि निर्वाणाय निराशिषाम्॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अबुद्धा परमात्मानं हरिमन्या हि देवताः। ये यजन्ति निरस्ताशास्तेषां ज्ञानाय तच्छनैः॥२३॥
टीका केवल श्रीहरि को न लक्ष्यकर (बिना ज्ञान से देखे) वैदिकादि अनुष्ठानों के अनुरोध पर अन्य अग्नि, इन्द्रादि देवगणों का यज्ञों में यजन करनेवाले किन्तु फल की इच्छा न रखनेवाले विद्वानों को यह यजन आगे चलकर शनैः शनैः (भगवन्नारायणविषयक) ज्ञान तथा भक्ति और उसी के बाद प्राप्य मोक्ष को भी प्रदान कर देते ज्ञान तथा भक्ति और उसी के बाद प्राप्य मोक्ष को प्रदान कर देता है ) ||२३||
मूलम् अबुद्धा परमात्मानं हरिमन्या हि देवताः। ये यजन्ति निरस्ताशास्तेषां ज्ञानाय तच्छनैः॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः बुद्धापि परमात्मानं पारमैकान्त्यवर्जिताः। इष्ट्वापि परमेर्यज्ञैः स्थानं यान्ति न शाश्वतम्॥२४॥
टीका अन्तर्यामीभूत श्रीनारायण की ज्ञान की स्थिति रखकर भी जो एकान्त भाव से रहित होकर उत्तम प्रकारों वाले वेदादि से अनुमत विविध यज्ञादि से यजन करने पर भी ऐसे विद्वान् परमपद की प्राप्ति (परमैकान्त्यभाव के न रहने से) नहीं प्राप्त करते हैं॥२४॥
मूलम् बुद्धापि परमात्मानं पारमैकान्त्यवर्जिताः। इष्ट्वापि परमेर्यज्ञैः स्थानं यान्ति न शाश्वतम्॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः व्यामिश्राँश्चापि शुद्धाँश्च तत्तत्कालविभागवित्। यथान्यायं प्रयुञ्जीत धर्मानैकान्त्यनिष्ठितः॥२५॥
टीका अतएव विद्वान् अवसरों के विभागों को देखकर जो ज्ञानपूर्वक यथाक्रम, यथाविभाग तथा यथाधिकार व्यामिश्र धर्म तथा शुद्ध कर्मों का एकान्त्यभाव में स्थित रहकर अनुष्ठान करें (जिससे उसे परमपद प्राप्ति में बाधा न रहे ॥ २५ ॥
मूलम् व्यामिश्राँश्चापि शुद्धाँश्च तत्तत्कालविभागवित्। यथान्यायं प्रयुञ्जीत धर्मानैकान्त्यनिष्ठितः॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः बुद्धापि परमात्मानमशुद्धं कर्म कामिनाम्। शुद्धं सर्वमकामानामेतद्धि परमं मतम्॥२६॥
टीका अतएव परमात्मा श्रीनारायण को तात्विकभाव से अन्तर्यामी मानकर भी कामनाओं के अनुरूप काम्य यज्ञादि यजन कर्मोंका अनुष्ठान करना भी अशुद्ध कर्म है तथा विना कामना के काम्य यज्ञादि का यजन ही शुद्ध कर्म होता है तथा यही सिद्धान्तभूत मत या तत्व भी है ॥ २६॥
मूलम् बुद्धापि परमात्मानमशुद्धं कर्म कामिनाम्। शुद्धं सर्वमकामानामेतद्धि परमं मतम्॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः नानाफलक्रियायोगदेवताव्याकुलात्मभिः। दुर्ज्ञानं दुरवाप्यञ्च दास्यं विष्णोः परं पदम्॥२७॥
टीका इसलिये अनेक फलों, अनेक क्रियाओं के योग तथा देवताओं के कारण तथा अनेक उपायों से युक्त होने से व्याकुल रहकर त्रैविद्य यजनादि काम्य कर्मों के विस्तीर्ण रहने से जिनका पूर्णतः ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता है तथा जिनसे प्राप्य फलों की भी प्राप्ति बड़े आयास के बाद संभव होती है परन्तु इन सभी की अपेक्षा तो श्रीविष्णु की दास्यभक्ति द्वारा प्रपत्ति धारण करना या न्यासयोग का ग्रहण ही अधिक सरल है॥२७॥
मूलम् नानाफलक्रियायोगदेवताव्याकुलात्मभिः। दुर्ज्ञानं दुरवाप्यञ्च दास्यं विष्णोः परं पदम्॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यत्तु विश्वपतेर्विष्णोर्नित्यं दासत्वमात्मनः। तज्ज्ञानन्तक्रिया वा तत्प्रसादादेव सिध्यति॥२८॥
टीका और इस प्रकार विश्व के अधिपति श्रीविष्णु को अर्पित अपना नित्य दास्यभाव का ज्ञान रखना रूप जो किया है वही या उसी के प्रभाव से श्रीविष्णु के प्रपत्ति के प्रसाद से परमपद की प्राप्ति रूप सिद्धि भी मिल सकती है ||२८||
मूलम् यत्तु विश्वपतेर्विष्णोर्नित्यं दासत्वमात्मनः। तज्ज्ञानन्तक्रिया वा तत्प्रसादादेव सिध्यति॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्रसादनानामीशस्य श्रेयसी शरणागतिः। तत्प्रधाना हि सिध्यन्ति यथान्याः सकलाः क्रियाः॥२९॥
टीका परमेश्वर के प्रसादन के उपायों में उनकी शरणागतिरूप जो प्रपत्ति है वही श्रेयस्करी या सर्वोत्तम उपाय है, क्योंकि उसकी मुख्यता से अन्य उपायभूत सभी क्रियाएं अंगभाव में होकर सिद्ध हो जाती है ( अतः शरणागति ही उत्तम क्रिया या उपाय है)॥२९॥
मूलम् प्रसादनानामीशस्य श्रेयसी शरणागतिः। तत्प्रधाना हि सिध्यन्ति यथान्याः सकलाः क्रियाः॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यश्चायमात्मनिक्षेपः क्रियते परमात्मनि। तेनैष हि भरन्यासस्तथा फलसमर्पणम्॥३०॥
टीका अतः जिस मन्त्र से परमेश्वर श्रीहरि में आत्मनिक्षेप किया जाए उसी मन्त्र से कायों का भर न्यास तथा उनके फल का समर्पण भी किया जाता है ॥ ३०॥
मूलम् यश्चायमात्मनिक्षेपः क्रियते परमात्मनि। तेनैष हि भरन्यासस्तथा फलसमर्पणम्॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यः शरण्यमशेषाणां प्राप्नोति शरणं हरिम्। समुक्तः सर्वपापेभ्यः स्वकुलञ्च समुद्धरेत्॥३१॥
टीका और जो श्रीहरि सभी विश्व का शरण्य (रक्षक) है ऐसे श्रीहरि की जो शरणागति प्राप्त कर लेता है वह सभी पातकों से मुक्त होकर अपने कुल का भी उद्धार करता है॥ ३१ ॥
मूलम् यः शरण्यमशेषाणां प्राप्नोति शरणं हरिम्। समुक्तः सर्वपापेभ्यः स्वकुलञ्च समुद्धरेत्॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः न तथा विविधैर्दानैर्न तपोभिर्न चाध्वरैः। यथैव गुरुतां यान्ति नरा नारायणाश्रयात्॥३२॥
टीका मनुष्यगण विविध दानादि के पुण्यकर्मों से तथा अपने कपटमय आचरण तथा त्रैविद्य वेदादि अनुष्ठानों वाले यज्ञों के यजन से इतना उत्कर्ष या महत्व प्राप्त नहीं कर पाते हैं जितना श्रीनारायण की शरणागति से प्राप्त कर लेते हैं ||३२||
मूलम् न तथा विविधैर्दानैर्न तपोभिर्न चाध्वरैः। यथैव गुरुतां यान्ति नरा नारायणाश्रयात्॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यथैव भगवान्विष्णुर्देवानां परमो गुरुः। तथैव हि मनुष्याणां वैष्णवः परमो गुरुः॥३३॥
टीका जैसे सभी देवगणों का परमगुरु तथा अत्यन्त वन्दनीय देव श्री श्रीनारायण होता है उसी प्रकार सभी मनुष्यों का वन्दनीय तथा सर्वश्रेष्ठ गुरु वैष्णव (भक्त) होता है ॥ ३३॥
मूलम् यथैव भगवान्विष्णुर्देवानां परमो गुरुः। तथैव हि मनुष्याणां वैष्णवः परमो गुरुः॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः न परीक्ष्य वद्योवन्द्या नारायणपरायणाः। अपि स्युर्हीनजन्मानो मान्या निघ्नेन चेतसा॥३४॥
टीका जो श्रीनारायण के शरणागत वैष्णवजन हैं उनकी आयु तथा अवस्थादि की परीक्षा करने के पश्चात् उनकी वन्दना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो अपने अधीन विद्यमान वैष्णव तेज से सम्पन्न हैं वे हीनवर्ण में जन्म लेकर भी मान्य तथा वन्दनीय स्थितिवाले हो जाते हैं ॥ ३४ ||
मूलम् न परीक्ष्य वद्योवन्द्या नारायणपरायणाः। अपि स्युर्हीनजन्मानो मान्या निघ्नेन चेतसा॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः समर्पितात्मनः श्रीशे सत्त्वयुक्तेन चेतसा। नापायोऽभिभवेत्सन्तं सद्यः प्रशमयेदपि॥३५॥
टीका ऐसे वैष्णवजन जितने श्रीविष्णु अच्युत के प्रति अपने सात्विक गुणवाले चित्त से आत्मा का भार न्यस्त कर दिया हो तो न्यासयोग से समृद्ध इनको उत्तमाधिकारता के प्राप्त रहने से कोई अन्याय या दोष की प्रवृत्ति या प्राप्ति नहीं होती तथा दैववश यदि किसी अपाय की प्राप्ति हो भी जाए तो वह शीघ्र दूर हो जाती हैं ॥ ३५ ॥
मूलम् समर्पितात्मनः श्रीशे सत्त्वयुक्तेन चेतसा। नापायोऽभिभवेत्सन्तं सद्यः प्रशमयेदपि॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्रपन्नमपि यं कञ्चित्प्रसक्तं पापकर्मणि। चिरात्संयोज्य विनयैः परिगृह्णाति माधवः॥३६॥
टीका और ऐसे वैष्णवजन अपने किसी दुर्भाग्य के कारण पापकर्मों में लीन भी हो जाए तो उनको अपने निषिद्ध कर्मों के फलस्वरूप शरीर दण्ड देकर (या उन्हें लंगड़ा, कुबड़ा शरीरवाला व्याधियुक्त बनाकर ) प्रकाशित करवाते हुए श्रीनारायण ही उसे उचित बुद्धि प्रदान कर अपने किकिरभाव में स्थित रखते हैं॥ ३६ ॥
मूलम् प्रपन्नमपि यं कञ्चित्प्रसक्तं पापकर्मणि। चिरात्संयोज्य विनयैः परिगृह्णाति माधवः॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः पूर्वेषामुत्तरेषां च न्यासो न्यासाय पाप्मनाम्। सर्वेषामपचाराणामयं हि क्ष्मापणं परम्॥३७॥
टीका न्यासयोग ग्रहण करने के पूर्व अनादिकाल से अर्जित पातकों का तथा न्यासग्रहण के पश्चात् किये गये प्रमादजन्य पातकों को तथा सभी प्रकार के उपचारों को हटाने के लिये यह न्यासयोग ही एक मात्र निवारक उपाय माना गया है ॥ ३७॥
मूलम् पूर्वेषामुत्तरेषां च न्यासो न्यासाय पाप्मनाम्। सर्वेषामपचाराणामयं हि क्ष्मापणं परम्॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः नारी वा पुरुषो वापि प्रपद्य शरणं हरिम्। तत्र चैकान्त्यवृत्त्यैव गच्छतां भुवि भाव्यताम्॥३८॥

सकृदेव कृतो न्यासो वृत्तिर्भवति शाश्वती। तथापि तन्मूलतया तस्यास्तादात्म्यमीरितम्॥३९॥

टीका कोई स्त्री अथवा पुरुष श्रीहरि की शरणागति लेते हुए तथा एकान्तिक वृत्ति रखकर अनन्यभाव से पृथ्वी पर अपना जीवन चलाते रहे। अतएव एक बार भी किया गया यह 'न्यास' जीवन पर्यन्त शाश्वत वृत्ति से चलाया जाएगा क्योंकि न्यास मूलकता होने से वृत्ति का न्यासरूप में तादात्म्य हो जाता है ॥ ३८-३९ ॥
मूलम् नारी वा पुरुषो वापि प्रपद्य शरणं हरिम्। तत्र चैकान्त्यवृत्त्यैव गच्छतां भुवि भाव्यताम्॥३८॥

सकृदेव कृतो न्यासो वृत्तिर्भवति शाश्वती। तथापि तन्मूलतया तस्यास्तादात्म्यमीरितम्॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ईशे न्यस्तभराणां हि कर्त्तव्यं नास्ति किंचन। यद्यस्ति शुद्धमैच्छन्तत्सामान्यमिति यौक्तिकाः॥४०॥
टीका परमेश्वर के प्रति अपने को न्यासरूप में समर्पित करने के बाद कृतकृत्य हो जाने के कारण आगे कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । यदि कोई है भी तो वह शुद्ध होकर भी कर्ता की इच्छा पर निर्भर है। वह नित्यभूत सन्ध्यादि कर्म होने से सामान्यरूपवाला है जिसके न करने से प्रत्यवाय होता है, ऐसा युक्तिवादी जन का मत है ॥ ४० ॥
मूलम् ईशे न्यस्तभराणां हि कर्त्तव्यं नास्ति किंचन। यद्यस्ति शुद्धमैच्छन्तत्सामान्यमिति यौक्तिकाः॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः दृप्ताः प्रपद्य लक्ष्मीशं चपला मुक्तमानिनः। प्राप्यान्तमपि देहस्य च्यवन्त्युज्झितवृत्तयः॥४१॥
टीका श्री नारायण को प्राप्त करने के अहंकार से अभिभूत तथा इन्द्रियार्थों पर चंचलभाव से आसक्त रहनेवाले तथा अपने को मुक्त रूप में समझने वाले तथा ईश की एकान्तीवृत्ति का परित्याग करते हुए शरीर का अन्त प्राप्त करने पर भी वे अन्त में मुक्ति प्राप्ति से वंचित होते हैं ||४१ ॥
मूलम् दृप्ताः प्रपद्य लक्ष्मीशं चपला मुक्तमानिनः। प्राप्यान्तमपि देहस्य च्यवन्त्युज्झितवृत्तयः॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अथैतत्परमर्षीणां ज्ञेयं तत्त्वविदां मतम्। दास्यं हि शुद्धंमिश्रंवा व्यामिश्रंचोदितं पृथक्॥४२॥
टीका तथा परमऋषि नारदादि का यह मन्तव्य ध्यान में रखना आवश्यक है कि भगवान् श्रीहरि का दास्य के शुद्ध या व्यामिश्र रूप एक दूसरे से सदा पृथक् हैं जिनमें एकायन व्यक्तियों को शुद्ध तथा त्रैविद्यजन को व्यामिश्र दास्य मोक्षप्राप्ति पर्यन्त यथासम्बन्ध बराबर आचरण में रखना चाहिए | | ४२ ॥
मूलम् अथैतत्परमर्षीणां ज्ञेयं तत्त्वविदां मतम्। दास्यं हि शुद्धंमिश्रंवा व्यामिश्रंचोदितं पृथक्॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सामान्या च विभक्ता च वृत्तिः सर्वस्य देहिनः। दुस्त्यजां नियतामेवमिमां प्रत्यवधार्य्यताम्॥४३॥
टीका सभी शरीरधारी मानव की वृत्ति एक तो साधारण तथा दूसरी विभक्त रूप में मानी गयी है। जिनमें प्रथम तो देहसाधारणी तथा दूसरी वर्णाश्रमादि प्रतिनियता रूपवाली नियत रहती है जो दुरूपजा या कष्ट से हटनेवाली होती है यह बात भी ध्यान देकर समझना चाहिए ||४३||
मूलम् सामान्या च विभक्ता च वृत्तिः सर्वस्य देहिनः। दुस्त्यजां नियतामेवमिमां प्रत्यवधार्य्यताम्॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यथा यथा निषेवेत सतो वृद्धान्निरन्तरम्। तथा तथास्य वै वृत्तिर्निरपाया हि वर्द्धते॥४४॥
टीका अतिशय एकान्तीजन भी सत्सेवा के भाव से जैसे जैसे अपने से वृद्ध तथा अनुभवी गुरुजन का सेवन करते हैं वैसे वैसे उनकी वृत्ति उपायों से रहित होकर अभिमतरूप में वृद्धि प्राप्त करती है ॥ ४४ ॥
मूलम् यथा यथा निषेवेत सतो वृद्धान्निरन्तरम्। तथा तथास्य वै वृत्तिर्निरपाया हि वर्द्धते॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वीर्य्यं स्वकर्मधीर्दृष्टिस्तेजोऽकः शक्तिरर्चनम्। बलं वैराग्यमैश्वर्य्यं सत्सङ्गः षड्गुणा हि सा॥४५॥
टीका इस सत्सेवा से वृत्ति में षड्गुणों का अभिवर्द्धन होता है- जैसे स्वकर्म के विहित आचार से वीर्य, ज्ञान की प्राप्ति से दृष्टि रूप वृद्धि, अंक या चिन्ह के धारण करने से तेज, अर्चना भक्ति, उससे प्राप्त शक्ति से वैराग्य, नित्य पदार्थों से हटना, रूप बल, इस प्रकार सत्सेवा छः गुणों वाली हो जाती है ॥ ४५ ॥
मूलम् वीर्य्यं स्वकर्मधीर्दृष्टिस्तेजोऽकः शक्तिरर्चनम्। बलं वैराग्यमैश्वर्य्यं सत्सङ्गः षड्गुणा हि सा॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सेव्योऽयं कर्महस्तांघ्निर्ज्ञानदृष्टिर्भजाननः। सत्सेवनशिरा धर्मोवैराग्यौजाः सुलक्षणः॥४६॥
टीका वृत्ति के आश्रित लक्षणादि से अनुगत षड्गुणरूप इस धर्म के कर्म से विहित आचार हाथ तथा पैर रूप वाले हैं, ज्ञान ही इसकी दृष्टिभूत नेत्र है, भक्ति ही इसका मुख स्थानीय है, सत्सेवा ही इसका मस्तक या शिरस्स्थानीय रूप है तथा नित्य वर्णन रूप वैराग्य ही इसका 'ओज' (बल) होता है ॥ ४६ ॥
मूलम् सेव्योऽयं कर्महस्तांघ्निर्ज्ञानदृष्टिर्भजाननः। सत्सेवनशिरा धर्मोवैराग्यौजाः सुलक्षणः॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वदन्तोऽपि गुणान्विष्णोः कुर्वन्तोऽपि च तत्क्रियाः। मन्दपुण्या न विन्दन्ति पारमैकान्त्यसम्पदम्॥४७॥
टीका श्रीहरि का गुणगान करनेवाले होकर तथा उनके अनुगत अनुष्ठानादि सत्क्रियाओं का आचरण करनेवाले होने पर भी जिनके पुण्य अल्प होते हैं वे परम एकान्तभाव की प्राप्ति करने में अक्षम रहते हैं (अर्थात् पुण्यशाली वैष्णवजन ही परमैकान्त्यभाव की स्थिति में रह पाते हैं ) ||४७ ॥
मूलम् वदन्तोऽपि गुणान्विष्णोः कुर्वन्तोऽपि च तत्क्रियाः। मन्दपुण्या न विन्दन्ति पारमैकान्त्यसम्पदम्॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सम्भूय च कुले श्लाघ्ये सर्वान्वेदानधीत्य च। विधाय च महत्कर्म विष्णोर्दास्यं हि दुर्लभम्॥४८॥
टीका अतिविशिष्ट तथा प्रशंसनीय कुल में जन्म प्राप्त करने पर तथा सभी वेदों का विधिवत् साङ्ग अध्ययन कर लेने पर तथा दुष्कर यज्ञादि धर्मानुष्ठानों के पूर्णतः विधिवत् सम्पन्न कर लेने पर भी श्रीविष्णु की दास्यभाव की प्राप्ति हो जाना दुर्लभ है॥४८ ॥
मूलम् सम्भूय च कुले श्लाघ्ये सर्वान्वेदानधीत्य च। विधाय च महत्कर्म विष्णोर्दास्यं हि दुर्लभम्॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सतां निषेवणं वापि जननं वा सतांकुले। विविक्तमथवा ज्ञानं विष्णोर्दास्यावलम्बनम्॥४९॥
टीका परन्तु सज्जन एवं सन्तजन का सेवन अथवा एकान्ती परमवैष्णवजन के कुल में जन्म प्राप्त कर असंशय रूप केवल श्रीविष्णु की दृष्टि या ज्ञान की प्राप्ति हो जाना श्रीहरि के दास्यभाव की प्राप्ति के साधनभूत आधार होते हैं ॥ ४९ ।
मूलम् सतां निषेवणं वापि जननं वा सतांकुले। विविक्तमथवा ज्ञानं विष्णोर्दास्यावलम्बनम्॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अस्वतन्त्राः सदा नार्य्यःस्थिता गुर्वादिशासने। वर्जयेयुर्विरुद्धानि यत्किंचिद्धर्मसंश्रयाः॥५०॥
टीका जो स्त्रियां है उनके अलग से या स्वतंत्र रूप में धर्माचरण के न होने के कारण वे अपने मन्त्रदाता आचार्य तथा पति पिता आदि के अनुशासन में रहकर विरुद्ध वर्जनादि के साथ अपने लिये उचित तथा विहित धर्म के अनुष्ठान को करते हुए वृत्ति की पूर्णता सम्पादित कर सकते हैं। इनके तापादि संस्कार अमन्त्रक तथा होमादि क्रिया के बिना किये जाते हैं, केवल इन्हें प्रदत्त मन्त्र को सुनाने तथा होमादि क्रिया के बिना किये जाते हैं। अन्य ऋषियों का मत है कि स्त्रियों को धर्मग्रन्थों का वाचन मन्त्र का धारण तथा इष्टदेव का अर्चन भी करना चाहिए जिसकी विधियां बतलाई जावें॥५०-५१॥
मूलम् अस्वतन्त्राः सदा नार्य्यःस्थिता गुर्वादिशासने। वर्जयेयुर्विरुद्धानि यत्किंचिद्धर्मसंश्रयाः॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तूष्णीं प्रायाः क्रियाः स्त्रीणां मन्त्रश्रावणबोधने। वाचनञ्च परेऽन्येऽपि धारणं चार्चने पुनः॥५१॥
टीका जो स्त्रियां है उनके अलग से या स्वतंत्र रूप में धर्माचरण के न होने के कारण वे अपने मन्त्रदाता आचार्य तथा पति पिता आदि के अनुशासन में रहकर विरुद्ध वर्जनादि के साथ अपने लिये उचित तथा विहित धर्म के अनुष्ठान को करते हुए वृत्ति की पूर्णता सम्पादित कर सकते हैं। इनके तापादि संस्कार अमन्त्रक तथा होमादि क्रिया के बिना किये जाते हैं, केवल इन्हें प्रदत्त मन्त्र को सुनाने तथा होमादि क्रिया के बिना किये जाते हैं। अन्य ऋषियों का मत है कि स्त्रियों को धर्मग्रन्थों का वाचन मन्त्र का धारण तथा इष्टदेव का अर्चन भी करना चाहिए जिसकी विधियां बतलाई जावें॥५०-५१॥
मूलम् तूष्णीं प्रायाः क्रियाः स्त्रीणां मन्त्रश्रावणबोधने। वाचनञ्च परेऽन्येऽपि धारणं चार्चने पुनः॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः भर्तुरासनदानाद्यैः स्रापनालंक्रियादिभिः। यथा चाभ्यवहाराद्यैः परिचय हरेस्तथा॥५२॥
टीका जिस प्रकार एक स्त्री अपने स्वामी की आसनदान, आदि तथा स्नान करवाने चन्दनादि चर्चा आदि से अलंकिया करती हुई सुश्रुषा करती है तथा भोजनादि के द्वारा उनकी सेवा करती है उसी प्रकार वह विश्वेश श्रीहरि की भी इसी प्रकार परिचर्या करे ॥ ५२ ॥
मूलम् भर्तुरासनदानाद्यैः स्रापनालंक्रियादिभिः। यथा चाभ्यवहाराद्यैः परिचय हरेस्तथा॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यद्वा परमसंस्काराः प्राप्या गुणसमानतः। सर्वत्र हरिरेवार्च्योनाग्निकर्मेति केचन॥५३॥
टीका अथवा तापादि पूर्वोक्त परमसंस्कारों को गुण की समानता के गुरु लाघव का विचार करते हुए सम्पन्न करवाने चाहिए। इनमें सभी में सम्पन्न होने के अवसर पर श्रीहरि की ( चर्या तथा ) अर्चना ही प्रथम मुख्य कर्म है तथा तापादि संस्कार और होमादि कर्म की विधिकर्म के अनुगत बाद में स्थिति रहती है ऐसा अन्य विद्वानों का यहां मत है॥५३॥
मूलम् यद्वा परमसंस्काराः प्राप्या गुणसमानतः। सर्वत्र हरिरेवार्च्योनाग्निकर्मेति केचन॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः परमैकान्तिनां नित्या या वृत्तिर्विहिता गुरौ। तदभावे तु तत्पुत्रे गुर्वर्चा दैवतेषु सा॥५४॥
टीका परमैकान्ती वैष्णव की अपने गुरु के विषय में रखी जानेवाली जो विहित वृत्ति है उनके अभाव में उसके पुत्र के द्वारा गुरु तथा देवादि अर्चा सम्पन्न करवाने में रहती ही है ॥ ५४ ॥
मूलम् परमैकान्तिनां नित्या या वृत्तिर्विहिता गुरौ। तदभावे तु तत्पुत्रे गुर्वर्चा दैवतेषु सा॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सर्वेषां याग एवायं सामान्यो मुनिभिः स्मृतः। अभ्येत्यप्रणिपत्याग्रेदेवायात्मनिवेदनम्॥५५॥
टीका पुरातन मुनिजन ने प्रायः यह सभी के लिये सामान्यरूप में यज्ञ की तरह विधिरूप में दिखलाया है कि देवता के समक्ष उपस्थित होकर उसे प्रणाम कर आत्मनिवेदन करे। यह कार्य यजन या यज्ञ के आचरण के तुल्य है ॥ ५५ ॥
मूलम् सर्वेषां याग एवायं सामान्यो मुनिभिः स्मृतः। अभ्येत्यप्रणिपत्याग्रेदेवायात्मनिवेदनम्॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सर्वेषामुपचाराणामर्घ्यंपरममुच्यते। कृतेनैकेन तेनैव सर्वमेव कृतं भवेत्॥५६॥
टीका और सभी पाद्यादि उपचारों में अर्घ्य अर्पण करना श्रेष्ठ माना गया है अतः इस एक के ही प्रस्तुत या अर्पित कर देने से सभी उपचार अर्पित माने गये हैं॥५६॥
मूलम् सर्वेषामुपचाराणामर्घ्यंपरममुच्यते। कृतेनैकेन तेनैव सर्वमेव कृतं भवेत्॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अर्च्योऽर्चायां हरिर्नित्यं तदभावे तु कुत्रचित्। पुष्पेणार्घ्येण हविषा नत्या स्तुत्यापि वा परम्॥५७॥
टीका श्रीहरि के शालिग्रामादि बिम्ब में अर्चना नित्य होना चाहिए जिसमें अर्घ्य प्रस्तुत हो तथा इसके अभाव में उनकी व्यापकता की दृष्टि से सूर्याग्नि में भी अर्चना हो सकती है. जिसे पुष्प, अर्घ्य, हवि, प्रदान, प्रणति तथा परम स्तुति आदि के द्वारा सम्पन्न किया जाता है ॥ ५७॥
मूलम् अर्च्योऽर्चायां हरिर्नित्यं तदभावे तु कुत्रचित्। पुष्पेणार्घ्येण हविषा नत्या स्तुत्यापि वा परम्॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः शालग्रामशिलायांतु पूजनं स्नापनादपि। सा हि दिव्या हरेर्मूर्त्तिदर्शनादेव सिद्धिकृत्॥५८॥
टीका शालिग्राम शिला बिम्ब का पूजन उनका स्नान करवाने से ही माना जाता है क्योंकि वह श्रीहरि की दिव्य मूर्ति मानी गयी है जिसके दर्शनमात्र से सिद्धि को प्राप्ति होती है ॥ ५८ ॥
मूलम् शालग्रामशिलायांतु पूजनं स्नापनादपि। सा हि दिव्या हरेर्मूर्त्तिदर्शनादेव सिद्धिकृत्॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्राप्त्याभिगमनं दृष्ट्योपादानं नमसार्चनम्। स्वाध्यायः कीर्तनाद्योगः स्वार्पणादपि केवलम्॥५९॥
टीका श्रीहरि की मात्र सन्निधि प्राप्ति कर लेना ही उनके प्रति अभिगमन हो जाता है केवल ज्ञान मात्र की दृष्टि से सभी उपचारों का उपादान हो जाता है तथा उनके नमस्कार करने से अर्चना सम्पन्न हो जाती है, उनके नामकीर्तन के कार्य से स्वाध्याय तथा केवल अपने आत्मनिवेदन रूप समर्पण से योग की सम्पन्नता होती है। ( अतएव इस विकल्प को भी यथासमय प्रस्तुत कर श्रीहरि की नित्य अर्चना की पूर्ति की जावे ॥ ५९ ॥
मूलम् प्राप्त्याभिगमनं दृष्ट्योपादानं नमसार्चनम्। स्वाध्यायः कीर्तनाद्योगः स्वार्पणादपि केवलम्॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः एवं विद्वानेकदापि कुर्वन्सन्पाञ्चकालिकः। कृतम्भवति वा सर्वमिज्ययैव हि केवलम्॥६०॥
टीका इस प्रकार के विधानभूत आचार से विद्वान् तत्व की दृष्टि से एक बार सम्पन्न कर एकान्तीजन अथवा पांच समय सभी वर्णों की सामान्यविधि से केवल एक भगवद् अर्चना रूप कर्म सभी अभिगमनादि कर्मों को करनेवाला हो जाता है। ( क्योंकि अर्चना में ही सभी भगवत् अर्चना के अन्य कर्म भी प्रथमाङ्ग रहने से अनुप्रविष्ट माने जाते हैं॥६०॥
मूलम् एवं विद्वानेकदापि कुर्वन्सन्पाञ्चकालिकः। कृतम्भवति वा सर्वमिज्ययैव हि केवलम्॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्वाध्यायेनापि विदुषा सर्वं योगेन वा कृतम्। पूजनेन गुरोर्वापि सताञ्चापि निषेवणात्॥६१॥
टीका इसी प्रकार अन्य कर्म जैसे स्वाध्याय या योग कर्म, गुरु के अर्चन कर्म तथा सत्सेवनादि कर्म की भी इस श्रीहरि की सामान्य पांचकालिक इज्या (अर्चनारूप अनुष्ठान ) से पूर्ति हो जाती है ॥ ६१ ॥
मूलम् स्वाध्यायेनापि विदुषा सर्वं योगेन वा कृतम्। पूजनेन गुरोर्वापि सताञ्चापि निषेवणात्॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः विशुद्धं वैष्णवं विम्बं गृहीत्वा न्यासतत्त्ववित्। सलिले देवमावाह्याभिषिञ्चेत्स्थापनं हि तत्॥६२॥
टीका अतएव न्यासयोग का तात्विक ज्ञान रखनेवाला एकान्ती भक्त, विशुद्ध श्रीविष्णु के शालिग्रामादि को लेकर जल में नारायण का आवाहन कर्म कर उससे उन्हें अभिषिक्त करना ही यहां उनकी स्थापना कर्म है ॥ ६२॥
मूलम् विशुद्धं वैष्णवं विम्बं गृहीत्वा न्यासतत्त्ववित्। सलिले देवमावाह्याभिषिञ्चेत्स्थापनं हि तत्॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः महाभागवतो मन्त्रैः शुद्धैर्यदभिषिंचति। बिम्बं सर्वापचाराणां प्रायश्चित्तमिदं परम्॥६३॥
टीका और जो महाभागवत पुरुष शुद्ध देवताभिसम्बद्ध काव्यों मन्त्रों से श्रीहरि के शालिग्रामादि बिम्ब पर अभिषेक करता है तो यह कार्य सभी अपचारों का परम प्रायश्चित् हो जाता है॥६३॥
मूलम् महाभागवतो मन्त्रैः शुद्धैर्यदभिषिंचति। बिम्बं सर्वापचाराणां प्रायश्चित्तमिदं परम्॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः न परैः सङ्करं कुर्यात्पात्राणां यज्ञकर्मणि। कांस्यानां भोजने पाके मृन्मयानां विशेषतः॥६४॥
टीका यज्ञादि कर्मों में भगवदाराधन में उनके निमित्त निर्मित किये जाने वाले भोजन तथा पाकादि द्रव्यों के लिये निर्धारित कांस्य के तथा विशेष कर मिट्टी के पात्रों का दूसरे तथा अन्य कार्यों में निर्धारित पात्रों के साथ विशेषरूप में सांकर्य ( मिलाना) इष्ट नहीं है॥६४॥
मूलम् न परैः सङ्करं कुर्यात्पात्राणां यज्ञकर्मणि। कांस्यानां भोजने पाके मृन्मयानां विशेषतः॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः शुद्धव्यामिश्रपात्राणां न कुर्याच्च परस्परम्। व्यामिश्रे शुद्धशेषं स्यात्तच्छेषं न शुचौ क्वचित्॥६५॥
टीका शुद्ध किया या कर्मों में विनियुक्त शुद्ध पात्रों का तथा मिश्र क्रिया में विनियुक्त मिश्रपात्रों का भी परस्पर सांकर्य उचित नहीं क्योंकि पात्रों (जिन्हें मिश्र क्रियाओं में विनियोजित किया जाता है) से शुद्ध पात्र शेष हो सकते हैं किन्तु शुद्ध क्रिया में विनियोजित पात्रों को मिश्र कर्म में विनियोजित नहीं किया जा सकता है॥६५॥
मूलम् शुद्धव्यामिश्रपात्राणां न कुर्याच्च परस्परम्। व्यामिश्रे शुद्धशेषं स्यात्तच्छेषं न शुचौ क्वचित्॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सतां पादोदकं पात्रे काञ्चने मृन्मयेऽपि वा। पावनं धारयेन्नित्यं प्रच्युताद्यैरदूषितम्॥६६॥
टीका प्रच्युत आदि से अदूषित या अस्पृष्ट गुरुजन आदि पूज्यजन का पादोदक कांचन अथवा मिट्टी के पात्र में पवित्रभाव में रखकर उसे नित्य धारण आदि किया जाता है ( धारण करना चाहिए ) ॥ ६६ ॥
मूलम् सतां पादोदकं पात्रे काञ्चने मृन्मयेऽपि वा। पावनं धारयेन्नित्यं प्रच्युताद्यैरदूषितम्॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सन्तोनुपनतारब्धविलयात्यन्तनिर्मलः। अशुद्धैरतथाभावान्नाश्लिष्येयुः कथञ्चन॥६७॥
टीका सञ्चित प्रारब्ध के विलय हो जाने से जो अतिशय निर्मल हो चुके हों ऐसे सन्तजन वैसी स्थिति प्राप्त न किये हुए तथा इसी कारण परमशुद्धता से रहित अशुद्धजन से आश्लेष न करें (न ही हीन स्थिति के ऐसे व्यक्ति से संपर्क या सांकर्य होने दे)॥६८॥
मूलम् सन्तोनुपनतारब्धविलयात्यन्तनिर्मलः। अशुद्धैरतथाभावान्नाश्लिष्येयुः कथञ्चन॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः कृत्वा मन्त्रान्वयं तत्र विवाहं परिवर्जयेत। वैवाहिकोऽन्वयः पूर्वो न तु मन्त्रं निवारयेत्॥६८॥
टीका आचार्य या पूज्यगुरु से मन्त्र का सम्बन्ध दीक्षा से प्राप्त करने पर फिर उस वंश के साथ विवाहादि सम्बन्ध ( अथवा उस वंश की कन्या का विवाहार्थ ग्रहण ) नहीं करना चाहिए ( मन्त्र सम्बन्ध लेकर उस परिवार से विवाह अनुचित है किन्तु ) यदि पूर्व में विवाह हो गया हो तो बाद में मन्त्र लेने का सम्बन्ध करना निषिद्ध नहीं है॥६८॥
मूलम् कृत्वा मन्त्रान्वयं तत्र विवाहं परिवर्जयेत। वैवाहिकोऽन्वयः पूर्वो न तु मन्त्रं निवारयेत्॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः न्यासस्य सर्वयोगस्य शुद्धस्यात्यन्तिकस्य च। अन्यादृशस्य च विधेर्नानुवन्धं परे विदुः॥६९॥
टीका सभी के अधिकार वाले शुद्ध योग तथा मिश्र योग रूप न्यास के साथ इससे भिन्न विवाहादि सम्बन्ध की विधि का कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसी दूसरी मुनिजन की मान्यता है (अतएव न्यास-योग का मन्त्र सम्बन्ध तथा विवाह जैसे वंश-सम्बन्ध का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं समझना उचित है, ऐसा कुछ दूसरे मुनिजन का मत है)॥६९॥
मूलम् न्यासस्य सर्वयोगस्य शुद्धस्यात्यन्तिकस्य च। अन्यादृशस्य च विधेर्नानुवन्धं परे विदुः॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्राप्तुंलक्ष्मीपतेर्दास्यं शाश्वतं परमात्मनः। तमेव शरणं प्राप्य गच्छेदात्मविदं गुरुम्॥७०॥
टीका परमात्मा श्रीलक्ष्मीपति नारायण के नियत या शाश्वत दास्यभाव को शरण को प्राप्त करने के लिये ही श्रेष्ठ तथा आत्मज्ञ आचार्य (गुरु) को प्राप्त किया जाता है जिससे प्रपत्तिभूत न्यासयोग की दीक्षा ली जा सके ॥ ७० ॥
मूलम् प्राप्तुंलक्ष्मीपतेर्दास्यं शाश्वतं परमात्मनः। तमेव शरणं प्राप्य गच्छेदात्मविदं गुरुम्॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः संवत्सरमुपासीत तमेव सुसमाहितः। वर्षवातातपादीनां सोढायुक्तोऽस्य कर्मसु॥७१॥
टीका वह गुरु की सेवाशुश्रुषादि में निरत रहकर वर्षा, वात, आतप (आदि का सहन करने) जैसे तप को साधते हुए तथा गुरु की सदैव शुश्रूषादि की चिन्ता रखते हुए एक वर्ष पर्यंत उनके साथ निवास करे॥७१॥
मूलम् संवत्सरमुपासीत तमेव सुसमाहितः। वर्षवातातपादीनां सोढायुक्तोऽस्य कर्मसु॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः गुरुरस्य परं स्थैर्य्यंशौचमास्तिक्यमार्जवम्। ज्ञात्वा चान्यगुणान्सम्यक्संस्कारैर्योजयेत्ततः॥७२॥
टीका इस प्रकार समय बीतने पर फिर गुरु इसके स्थिर भाव, बाह्य तथा आभ्यतर शुचिता ( पवित्रता ), वेदादि अर्थों तथा इष्टदेव के प्रति दृढ़ विश्वास, वाणी, मन तथा शरीर के एकरूपतावाली ऋजुता आदि अन्य गुणों को समझ कर बाद में उसको तापादि पञ्च संस्कारों से युक्त ( संस्कारित ) करे ॥ ७२ ॥
मूलम् गुरुरस्य परं स्थैर्य्यंशौचमास्तिक्यमार्जवम्। ज्ञात्वा चान्यगुणान्सम्यक्संस्कारैर्योजयेत्ततः॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अथ कञ्चिदनुग्राह्यमबुद्धं स्वयमेव वा। परिगृह्य परं प्राज्ञः प्रापयेच्छरणं हरिम्॥७३॥
टीका तथा यदि कोई ) स्वयं करने की विधि तथा आचार से अनभिज्ञ तथा असमर्थ हो और उस पर करुणा बुद्धि से अनुग्रह करना उचित दिखता हो तो मनीषी आचार्य उस पर कृपा कर उसे स्वयं श्रीहरि की प्रपत्ति करवाकर श्रीहरि की शरणागत दीक्षा प्रदान करे॥७३॥
मूलम् अथ कञ्चिदनुग्राह्यमबुद्धं स्वयमेव वा। परिगृह्य परं प्राज्ञः प्रापयेच्छरणं हरिम्॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः क्रमाच्च बुद्ध्यमानन्तं बोधनीयानि बोधयेत्। कारयेत्करणीयानि प्रापयेत्परमां स्थितिम्॥७४॥
टीका आगे फिर समय बीतने पर क्रमशः अपने ईश के विषय में दृष्टि प्राप्त कर उसका ज्ञान प्राप्त कर लेने के उपरान्त उसे आवश्यक कर्तव्यों का तथा रहस्यों का ज्ञान करवाना चाहिए फिर उससे कर्तव्यों का पालन करवाने और वृत्ति का उपदेश देकर एकान्तीजन की स्थिति तक उसे विकसित कर पहुँचावे जिससे वह उत्कृष्ट एकान्ती हो जाए ॥७४ ||
मूलम् क्रमाच्च बुद्ध्यमानन्तं बोधनीयानि बोधयेत्। कारयेत्करणीयानि प्रापयेत्परमां स्थितिम्॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अजिह्मा सात्त्विकी बुद्धिर्येषां शास्त्रावगाहिनी। तेषां नारायणे भक्तिर्भवत्यव्यभिचारिणी॥७५॥
टीका जिनकी बुद्धि शास्त्र का अर्थ ग्रहण करने में समर्थ सत्वगुणवाली तथा सरलवृत्ति की है उनकी अन्य देवताओं की आराधनाओं से टूट कर एकनिष्ट भाव से श्रीहरि में स्थित भक्तिवाली बुद्धि हो जाती है ॥ ७५ ॥
मूलम् अजिह्मा सात्त्विकी बुद्धिर्येषां शास्त्रावगाहिनी। तेषां नारायणे भक्तिर्भवत्यव्यभिचारिणी॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः येषां शास्त्रेषु गाढापि राजसी कुटिला मतिः। तेषां न जायते भक्तिर्हरौ जातापि च स्खलेत्॥७६॥
टीका और जिनकी प्रतिशास्त्र में अर्थावगाहिनी बुद्धि राजसी गुणोंवाली हो तथा जिसमें कुटिलवृत्ति के कारण अनेक देवताओं में अपेक्षावश निष्ठा निर्माण होती है तो उनकी श्रीनारायण में भक्ति उत्पन्न नहीं होती और कदाचित् उत्पन्न होती भी है तो वह स्थिर नहीं होने से बाद में स्खलित या दूर हो जाती है ॥ ७६ ॥
मूलम् येषां शास्त्रेषु गाढापि राजसी कुटिला मतिः। तेषां न जायते भक्तिर्हरौ जातापि च स्खलेत्॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तमसाभिप्लुता येषां शास्त्रेषु क्रमते न धीः। न ते स्वात्मानमीशं वा बुध्यंते देहबुद्धयः॥७७॥
टीका तथा जिनकी बुद्धि शास्त्रादि के अनुशीलन से नहीं चलती, ऐसे जो व्यक्ति तमोगुण से युक्त होते हैं वे देहादिस्थूल पदार्थ तक ज्ञान के पहुँचने के कारण आत्मा के अधिपति परमात्मा को जानने में असमर्थ रहते हैं। ( तथा वे श्रीहरि के ज्ञान तथा भक्ति की प्राप्ति से वंचित हो जाते हैं ) । ७७ ॥
मूलम् तमसाभिप्लुता येषां शास्त्रेषु क्रमते न धीः। न ते स्वात्मानमीशं वा बुध्यंते देहबुद्धयः॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः लोभाद्वा यदि वा मोहाच्छिष्यं शास्ति न यो गुरुः। नास्मात्संशृणुते यश्च प्रच्युतौ तावुभावपि॥७८॥
टीका जो आचार्य लोभ या मोह के वश में होकर अपने शिष्य को अनुशासन में नहीं रख पाते तथा जिसके उपदेशादि शास्त्रवृत्त को शिष्य नहीं सुनते न उस पर ध्यान देते हों तो ऐसे आचार्य तथा शिष्य दोनों का पतन हो जाता है (अतएव सात्विक गुणवाले शिष्य को ही गुरु उपदेश देकर उसे कल्याण प्राप्ति करवा सकता है तथा ऐसे ही शिष्य रखना उचित है ) ॥ ७८ ॥
मूलम् लोभाद्वा यदि वा मोहाच्छिष्यं शास्ति न यो गुरुः। नास्मात्संशृणुते यश्च प्रच्युतौ तावुभावपि॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अपरीक्ष्य चिरं क्षेत्रं यः परं ज्ञानमावहेत्। प्रमाद्यतः सुगोप्तव्ये परमार्थोऽस्य हीयते॥७९॥
टीका इसीलिये शिष्यरूप क्षेत्र की बिना चिरकाल तक परीक्षा के ही जो उसमें परमार्थसाधक परम ज्ञानरूप बीज का आधार उपदेश द्वारा सम्पन्न करता है तो अत्यंत गोपनीय मोक्षोपायभूत ज्ञान के प्रदानरूप प्रमाद करने से उस आचार्य की भी अपने उद्देश्य या परमप्रयोजन में हानि होकर प्रमादवश पतन हो जाता है॥७९॥
मूलम् अपरीक्ष्य चिरं क्षेत्रं यः परं ज्ञानमावहेत्। प्रमाद्यतः सुगोप्तव्ये परमार्थोऽस्य हीयते॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः न्यासे हि देहिनोऽपायैर्जायते प्रच्युतिः फलात्। वारयत्याप्रशमनात्सा हि सद्व्यवहार्यताम्॥८०॥
टीका किसी शिष्य के द्वारा आत्मा के प्रपत्तिरूप न्यास के सम्पन्न करने पर भी बाद में उपायों के प्राकृतजन संसर्गादि से बन जाने पर श्रीहरि के दास भाव की प्राप्तिरूप फल से प्रच्युति से उदिष्टार्थ से वंचित होना पड़ता है, अतएव प्रायश्चितादि से प्रशमन कर्म के आचरण तक वह प्रायश्चित रूप में शिष्टजन से बहिष्कृत होकर रहेगा तथा इस समय वह भगवत् कैङ्कर्य के अधिकार से हीन भी हो जाएगा ॥ ८० ॥
मूलम् न्यासे हि देहिनोऽपायैर्जायते प्रच्युतिः फलात्। वारयत्याप्रशमनात्सा हि सद्व्यवहार्यताम्॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः यज्ज्ञानपूर्वं न्यसनं मन्त्रेण गुरुणा हरौ। स एव सर्वसंस्कारः प्राक्तस्मात्प्राकृता नराः॥८१॥
टीका आचार्य के द्वारा मन्त्रार्थ के ज्ञान को देते हुए जो शरणागति मन्त्र से श्रीनारायण के प्रति प्रपत्ति या न्यासयोग के साथ शिष्य का समर्पण करवाया जाता है उस सभी पूर्ण संस्कार के किये गये विधान से पूर्व वह जन अवैष्णवभूत था, अतः वह तब तक प्राकृत जन था॥८१॥
मूलम् यज्ज्ञानपूर्वं न्यसनं मन्त्रेण गुरुणा हरौ। स एव सर्वसंस्कारः प्राक्तस्मात्प्राकृता नराः॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्राकृताद्यैः परिहृतो निवसेन्नासहायवान्। वसँश्चाभ्यन्तरान्प्राज्ञः संसर्गान्परिवर्जयेत्॥८२॥
टीका न्यासयोग प्राप्त शिष्य अकेली ही रहे वह प्राकृतादि की संगति से दूर रहे तथा अपनी कुशलबुद्धि के साथ इनसे व्यवहार रखते हुए किसी आंतरिक संसर्गवाला व्यवहार भी (जैसे साथ रहना एक साथ शयन तथा भोजन आदि व्यवहार ) नहीं रखे॥८२॥
मूलम् प्राकृताद्यैः परिहृतो निवसेन्नासहायवान्। वसँश्चाभ्यन्तरान्प्राज्ञः संसर्गान्परिवर्जयेत्॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः श्रद्धापूतमवैद्यस्याप्यन्नाद्यं तु कदाचन। इज्यासु विनियुञ्जीत न श्राद्धे सति किंचन॥८३॥
टीका अवैष्णवभूत श्रीहरि की प्रपत्ति न पाने वाले किसी प्राकृतजन का श्रद्धावश अर्पित अन्न (पक्व या अपक्व ) या किसी श्राद्ध कर्म के या सामान्यरूप में यज्ञादि के प्रसंग में अनापत् या आपत् स्थिति में भी उपयोग न करे ( इस अवैष्णव दत्त अन्नका भोजनादि में लेना या उपयोग भी फल प्राप्ति में बाधक समझना चाहिए ) ॥ ८३ ॥
मूलम् श्रद्धापूतमवैद्यस्याप्यन्नाद्यं तु कदाचन। इज्यासु विनियुञ्जीत न श्राद्धे सति किंचन॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः गुणासहास्त्यजन्त्यार्य्या न सन्तश्चिरमंहसे। दोषासहास्त्यजन्त्येव सन्तश्च श्रेयसे परान्॥८४॥
टीका आर्यजन या सज्जन किसी के गुणवश ही उसका चिरकाल तक पातकादि के चलाने पर उसका परित्याग करना उचित मानकर बाद में उसे छोड़ते हैं और दोषों को देखकर सज्जन रहने पर भी उसी के लिये प्रायश्चित्तादि आचरण के काल में उसका परित्याग करते हैं ॥ ८४ ॥
मूलम् गुणासहास्त्यजन्त्यार्य्या न सन्तश्चिरमंहसे। दोषासहास्त्यजन्त्येव सन्तश्च श्रेयसे परान्॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः धर्मच्छद्मभृतो धर्मान् घ्नन्ति वेदपराङ्मुखाः। वैदिकाभास्तथा वेदान्कृष्णैकान्त्यपराङ्मुखाः॥८५॥
टीका वेद प्रतिपादित धर्म से हटकर चैत्यवन्दनादि बौद्ध धर्म का ज्ञान तथा आचरण करने (या उस पर आस्था रखने) वाले केवल धर्म का छदम् धारण करते हुए ( धार्मिक होना दिखलाते हुए) धर्मों का ( ज्योतिष्टोमादि सत्रो का जो कि धर्म प्राप्ति के आधार हैं) हनन करते हैं तथा जो परमार्थतः वैदिक नहीं होकर भी अपनी वैदिक स्थिति दिखला कर वेदों का हनन करते हैं ये श्री नारायण के एकान्त्यभाव में बाधक रहने से उसके प्रतिपक्षी (ही) समझना चाहिए ॥ ८५ ॥
मूलम् धर्मच्छद्मभृतो धर्मान् घ्नन्ति वेदपराङ्मुखाः। वैदिकाभास्तथा वेदान्कृष्णैकान्त्यपराङ्मुखाः॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः य आत्मनां परो वेद्यस्तं विष्णुं वेदयन्ति यत्। तद्वेदानां हि वेदत्वं यस्तं वेद स वेदवित्॥८६॥
टीका जिनसे चेतनभूत जीवात्माओं से उत्कृष्ट ज्ञानवेद्य परमात्मरूप श्रीविष्णु का ब्रह्मरूप में ज्ञान प्राप्त हो यही वेदों की सत्ज्ञानवत्ता है तथा जो वेदों के अनुशीलन से इसी रहस्यभूत ज्ञान की प्राप्ति करे वही वेदवेत्ता है। तथा इससे भिन्न तत्वों के विज्ञाता वेद के वेत्ता नहीं वे वेदविद्यघातक हैं ॥ ८६ ॥
मूलम् य आत्मनां परो वेद्यस्तं विष्णुं वेदयन्ति यत्। तद्वेदानां हि वेदत्वं यस्तं वेद स वेदवित्॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः दर्शयन्त इव श्रेयो विप्लुतैर्हेतुभिर्बलात्। च्यावयन्ति श्रुतिपथाद्दूरं बाह्याः स्थिरानपि॥८७॥
टीका हेतुवादिक अवैष्णव व कुदृष्टि रखनेवाला विद्वान् (बौद्धादि दार्शनिक) स्खलनशील हेत्वाभास जैसे हेतुओं को अपने बुद्धिबल से श्रेयस्कारी दिखलाते हुए स्थित श्रद्धाभक्तिवाले बुधजन को भी स्थिर सिद्धान्तवाले वेदमार्ग से दूर हटाकर वे उन्हें अपथगामी बना देते हैं ॥ ८७ ॥
मूलम् दर्शयन्त इव श्रेयो विप्लुतैर्हेतुभिर्बलात्। च्यावयन्ति श्रुतिपथाद्दूरं बाह्याः स्थिरानपि॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वैदिका इव चाप्यन्ये दर्शयन्तोऽन्यथा श्रुतेः। अर्थमच्युतकैङ्कर्याच्च्यावयन्ति कुदृष्टयः॥८८॥
टीका कुछ विद्वान् वेद का अनुगमन करनेवाले होने से वेद के आशयों को अपनी तार्किक बुद्धि के बल से अन्यरूपों में दिखलाने वाले कुदृष्टि होकर अच्युत के कैङ्कर्यभाव से दृढभक्ति वैष्णवों को भी भटका देते हैं ॥ ८८ ॥
मूलम् वैदिका इव चाप्यन्ये दर्शयन्तोऽन्यथा श्रुतेः। अर्थमच्युतकैङ्कर्याच्च्यावयन्ति कुदृष्टयः॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तस्मात्कुदृष्टिभिर्वाह्यैरप्रकम्प्यो गतव्यथः। ऐकान्त्यममलं विष्णोरातिष्ठेत्परमं सुधीः॥८९॥
टीका अतएव बुद्धिमान् स्थिर भक्तिवाला एकान्ती बाह्यजन की ऐसी हेतु प्रदर्शन तार्किक कुदृष्टियों से अपने धर्म से न हटे तथा बिना किसी कथा के श्रीहरि के परम एकान्त्यभाव में दृढ़ता से स्थिर रहे तथा अपने धर्मादि का पालन करत रहे॥८९॥
मूलम् तस्मात्कुदृष्टिभिर्वाह्यैरप्रकम्प्यो गतव्यथः। ऐकान्त्यममलं विष्णोरातिष्ठेत्परमं सुधीः॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः नास्तिकः संशयी मूढ इत्यदूरतरा नराः। विज्ञाय लक्षणैस्तास्तु सम्यग्व्यवसितस्त्यजेत्॥९०॥
टीका अपने साथ रहने वाले निकटस्थ नास्तिक, सन्देहशील तथा मूढमति के मनुष्यों क उनके लक्षणों से भली प्रकार समझते हुए ऐसे सभी कुदृष्टि जन को निश्चय क उनका साहचर्य तथा संगादि छोड़ देवे ॥ ९० ॥
मूलम् नास्तिकः संशयी मूढ इत्यदूरतरा नराः। विज्ञाय लक्षणैस्तास्तु सम्यग्व्यवसितस्त्यजेत्॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः मत्प्रत्यक्षन्तदेवास्ति नास्त्यन्यदिति निश्चिताः। अर्थकामपराः पापा नास्तिका देहकिङ्कराः॥९१॥
टीका जो मुझे प्रत्यक्ष हो वही विद्यमान या सत्य है तथा अन्य पदार्थ या ईश्वरादि अप्रत्य तत्व कुछ भी नहीं है ऐसा निश्चय दिखलाने वाले अर्थ तथा कामरूप पुरुषार्थ के सेवन में रत रहनेवाले अपने शरीर के धर्म के जो दास हैं वे 'नास्तिक' है ( तथा कुदृषि हैं ) ॥ ९१ ॥
मूलम् मत्प्रत्यक्षन्तदेवास्ति नास्त्यन्यदिति निश्चिताः। अर्थकामपराः पापा नास्तिका देहकिङ्कराः॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः नानाविधेषु ज्ञानेषु नराः संशयिनोऽधमाः। निश्चयं नाधिगच्छन्ति लिङ्गमात्रधराः क्वचित्॥९२॥
टीका इसी प्रकार अनेक प्रकार के शास्त्रज्ञानों के कारण परस्पर विपरीत कथ्यों को प्राप् कर संशय में स्थित रहनेवाले होकर किसी निश्चय पर नहीं पहुँचने से 'संशयी' तय अघमजन हैं। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्ति केवल अपने मत के अनुरू वस्त्रादिवेषधारी मात्र होते हैं ॥ ९२ ॥
मूलम् नानाविधेषु ज्ञानेषु नराः संशयिनोऽधमाः। निश्चयं नाधिगच्छन्ति लिङ्गमात्रधराः क्वचित्॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः देहात्मस्वर्गनरकपुण्यपापाविमर्शिनः। गतानुगतिका मूढा नश्यन्ति पशुबुद्धयः॥९३॥
टीका कुछ देहात्मवादी, स्वर्ग, नरक, पुण्य तथा पाप के विचार से शून्य होते हुए केव अपने प्रविचारित मार्ग में स्थित रहनेवाले अज्ञानी हैं जो, इस वृत्ति के कारण पशु समान विवेक रहित हैं। ऐसे सभी प्रायः मोक्षप्राप्ति के अपात्र होने से अन्त में ना प्राप्त करते हैं ॥ ९३ ॥
मूलम् देहात्मस्वर्गनरकपुण्यपापाविमर्शिनः। गतानुगतिका मूढा नश्यन्ति पशुबुद्धयः॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः कुदृष्टयो बहुविधा वृथा वैदिकमानिनः। तथा मिथ्यादृशो बाह्याः सर्वैरेवावृतञ्जगत्॥९४॥
टीका नास्तिक एवं कुदृष्टिजन के अनेक प्रकार होते हैं। कुछ वृथा ही अपने को वेदज्ञानसे सम्पन्न मानने वाले वैष्णवविरोधी हैं, इसी प्रकार कुछ हेतु आदि के प्रयोगों मिथ्यादृष्टि का निर्माण करनेवाले बाह्य विद्वान् हैं ( अवैदिकजनक ) । इस प्रकार अनेक जन से संसार आच्छादित है। अतः ठीक से इस आवरण में से अपने दृष्टि प्रकाश के अनुसार परीक्षा कर ऐसे मनुष्यों की संगति से दूर रहें ॥ ९४ ॥
मूलम् कुदृष्टयो बहुविधा वृथा वैदिकमानिनः। तथा मिथ्यादृशो बाह्याः सर्वैरेवावृतञ्जगत्॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञा नारायणपरायणाः। धन्याः केचन तेभ्योऽपि तेषामादेशवृत्तिनः॥९५॥
टीका और जो वेद तथा वेदांगोके तात्विक आशयों के विज्ञाता हों, जो श्रीनारायण के प्रति वेदों की निष्ठा के जानने वाले हैं, वे ही धन्य हैं तथा उनसे जो उपदेश लेकर वृत्ति में स्थित हो वे भी धन्य हैं तथा दुर्लभ हैं ॥ ९५ ॥
मूलम् वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञा नारायणपरायणाः। धन्याः केचन तेभ्योऽपि तेषामादेशवृत्तिनः॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः आदिष्टाः पुण्ड्रमन्त्रार्चानामतापपराङ्मुखाः। धूतावधूतनिर्द्धूतविधूतोद्धूतसंज्ञकाः॥९६॥
टीका जो वैष्णवाभिमत पुण्ड्र, मन्त्र, अर्चा, नाम, ताप नामक पंचसंस्कारों से रहित हैं उन्हें क्रमशः धूत, अवधूत, निर्द्धत, विधूत तथा उद्भूत के रूप में शास्त्रकारों ने बतलाया है॥९६॥
मूलम् आदिष्टाः पुण्ड्रमन्त्रार्चानामतापपराङ्मुखाः। धूतावधूतनिर्द्धूतविधूतोद्धूतसंज्ञकाः॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः आदिष्टा एव चान्यार्चामन्त्रपुण्ड्राङ्कनामकाः। राक्षसासुरवेतालव्यालप्रेता नराधमाः॥९७॥
टीका इसी प्रकार जो अन्य अर्चनादि में लीन हैं उन्हें राक्षस, अन्य मन्त्रादि का जपादि करने वाले असुर, अन्य पुण्ड्रादि धारी बेताल, अन्य देवता के शस्त्रादि चिन्हों के धारण करनेवाले व्याल तथा अन्य नाम को धारण करनेवाले 'प्रेत' हैं, ऐसा भी आगमादि शास्त्रों में निद्दिष्ट किया गया है ॥ ९७ ॥
मूलम् आदिष्टा एव चान्यार्चामन्त्रपुण्ड्राङ्कनामकाः। राक्षसासुरवेतालव्यालप्रेता नराधमाः॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तथा स्वकर्मशास्त्रेशगुरुसत्सङ्गवर्जिताः। ऊना हीनाः स्त्रस्ता नष्टा दग्धा ज्ञेयास्समाख्यया॥९८॥
टीका इसी प्रकार जो अपने कर्म तथा विहिताचार से हीन हों वे 'ऊन' शास्त्र तथा दृष्टि से रहित वे 'हीन', जो इष्ट श्रीश से रहित हैं वे 'स्रत' जो गुरु प्राप्ति से वंचित हैं वे 'नष्ट', जो सत्संग से हीन है वे 'दग्ध' इन नामों से भी शास्त्रकारों ने दिखलाये हैं।
मूलम् तथा स्वकर्मशास्त्रेशगुरुसत्सङ्गवर्जिताः। ऊना हीनाः स्त्रस्ता नष्टा दग्धा ज्ञेयास्समाख्यया॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः भिन्नोऽन्यनाथो भिन्नोऽन्यफलो भिन्नोऽथनिन्द्यकृत्। भग्नोऽन्यदेशिकादेशोऽनृतोऽन्यजनसंश्रयः॥९९॥
टीका इसी प्रकार जिसका आराध्य अन्य देवता हो वह 'भिन्न' जिसका फल मोक्ष से अन्य है वह 'अन्यफल, और जो निन्द्य कर्मकारी है वह 'निन्द्य' जो अनेक विद्वान् गुरुजन की आज्ञाएं माने वह ‘भग्न' तथा जो दूसरे देवताओं का यजन करे वह 'अनज्ञ' नाम से शास्त्र में दिखलाया गया है ॥ ९८-९९ ॥
मूलम् भिन्नोऽन्यनाथो भिन्नोऽन्यफलो भिन्नोऽथनिन्द्यकृत्। भग्नोऽन्यदेशिकादेशोऽनृतोऽन्यजनसंश्रयः॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः निहीनान् प्राकृतेभ्योऽपि प्रच्युतान्परिवर्जयेत्। भक्तानाराधयन्विष्णोः प्राप्नोति परमम्पदम्॥१००॥
टीका प्राकृतजन से भी हीन ये सभी प्रच्युत कहलाते हैं अतः इनसे अपने को दूर रखते हुए तथा श्रीविष्णु की तथा इनके भक्तजन की आराधना करते हुए श्री विष्णु के परमपद मोक्ष को प्राप्त करना चाहिए ॥ १०० ॥
मूलम् निहीनान् प्राकृतेभ्योऽपि प्रच्युतान्परिवर्जयेत्। भक्तानाराधयन्विष्णोः प्राप्नोति परमम्पदम्॥१००॥

इति श्रीनारदपञ्चरात्रे भारद्वाजसंहितायां परिशिष्टे तृतीयोऽध्यायः॥३॥ (इति श्रीभारद्वाजसंहितायां परिशिष्टटीकायां तृतीयोऽध्यायः॥३॥)