परिशिष्टे द्वितीयोऽध्यायः (अथ परिशिष्टे द्वितीयोऽध्याय)

विश्वास-प्रस्तुतिः **उपासितगुरोर्वर्षं विष्णोर्दास्यमभीप्सतः।** **विहिताः पञ्च संस्कारा युक्तस्यैकान्त्यहेतवः॥१॥**
टीका श्रीनारायण के दास्यभाव की इच्छा रखनेवाला अधिकारी एक वर्ष तक पूर्ण निष्ठा से अपने प्रपत्तिदाता आचार्य की सेवाशुश्रूषादि उपासना करे। तब शिष्य के गुणों के उपयुक्त उसे एकान्तीभाव के कारणभूत पांच विहित संस्कार (जो बतलाये हैं उन्हें ) वह आचार्य सम्पन्न करवाए॥१॥
मूलम् **उपासितगुरोर्वर्षं विष्णोर्दास्यमभीप्सतः।** **विहिताः पञ्च संस्कारा युक्तस्यैकान्त्यहेतवः॥१॥**
विश्वास-प्रस्तुतिः तापः पुण्ड्रं तथा नाम मन्त्रो यागश्च पञ्चमः। अमी हि पञ्च संस्काराः पारमैकान्त्यहेतवः॥२॥
टीका ये पांच संस्कार है-चक्रादि से संतप्त कर अंकन रूप ताप, ऊर्ध्व पुण्ड्र का धारण, नाम-करण, मन्त्र-ग्रहण तथा पंचम है याग। ये पाचं संस्कार गर्भाधानादि संस्कारों से विशिष्ठ है तथा इनसे शीघ्र ही मोक्षप्राप्तिका आधार ऐकान्तीभाव प्राप्त होता है॥२॥
मूलम् तापः पुण्ड्रं तथा नाम मन्त्रो यागश्च पञ्चमः। अमी हि पञ्च संस्काराः पारमैकान्त्यहेतवः॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तापयिष्यन् गुरुः शिष्यं चक्राद्यैर्हेतिभिर्हरेः। पुण्येऽह्नि नियतः स्नात्वा स्नातं मन्त्रजलाप्लुतम्॥३॥
टीका सर्वप्रथम आचार्य किसी पवित्र तिथि को नियमपूर्वक स्नान कर फिर मन्त्रोचार पूर्वक तीर्थादि पवित्र जल में स्नान किये हुए शिष्य को श्रीनारायण के चक्र आदि आयुधों को अग्नि में तपाकर उन्हें वैष्णवी ऋचा 'विष्णोर्नु के वीर्याणि' (शुक्ल यजु० ) का उच्चारण कर शिष्य के दाहिने बाजू में स्थापित करे या बिठलावे। इस कार्य को व्यवस्थित रूप में करने के पश्चात् अपने इष्टदेव की स्थापित स्थण्डित पर या किसी बाह्यबिम्ब (प्रतिमा) में अर्चना करे ॥ ३-४ ॥
मूलम् तापयिष्यन् गुरुः शिष्यं चक्राद्यैर्हेतिभिर्हरेः। पुण्येऽह्नि नियतः स्नात्वा स्नातं मन्त्रजलाप्लुतम्॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ऋचा दक्षिणतः कुर्याद्वैष्णव्या बद्धकौतुकम्। ततः समर्चयेद्देवं स्वार्चायां स्थण्डिलेऽपि वा॥४॥
टीका सर्वप्रथम आचार्य किसी पवित्र तिथि को नियमपूर्वक स्नान कर फिर मन्त्रोचार पूर्वक तीर्थादि पवित्र जल में स्नान किये हुए शिष्य को श्रीनारायण के चक्र आदि आयुधों को अग्नि में तपाकर उन्हें वैष्णवी ऋचा 'विष्णोर्नु के वीर्याणि' (शुक्ल यजु० ) का उच्चारण कर शिष्य के दाहिने बाजू में स्थापित करे या बिठलावे। इस कार्य को व्यवस्थित रूप में करने के पश्चात् अपने इष्टदेव की स्थापित स्थण्डित पर या किसी बाह्यबिम्ब (प्रतिमा) में अर्चना करे ॥ ३-४ ॥
मूलम् ऋचा दक्षिणतः कुर्याद्वैष्णव्या बद्धकौतुकम्। ततः समर्चयेद्देवं स्वार्चायां स्थण्डिलेऽपि वा॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः पश्चिमे स्वेन मन्त्रेण कृत्वाग्नेः स्थापनादिकम्। मूलमन्त्रेण हुत्वाज्यं ततः प्रत्यक्षराहुतीः॥५॥
टीका तदनन्तर श्रीहरि से पश्चिमभाग में स्थण्डिलादि पर अग्नि की स्थापना आदि कर्म सम्पन्न कर मूल मन्त्र के द्वारा आज्याहुति प्रदान कर फिर मन्त्र के प्रत्यक्षरों से आहुति करे और फिर अष्टाक्षर मन्त्र से एक आहुति देकर पुरुषसूक्त के षोडश मन्त्रों से सोलह आहुति देकर विष्णुगायत्री - 'नारायणाय [विग्रहे|विद्महे]' इत्यादि से तीन आहुति देवे और श्रीविष्णु के आयुधभूत पांच मन्त्रों से आहूति देवे ॥ ५-६ ॥
मूलम् पश्चिमे स्वेन मन्त्रेण कृत्वाग्नेः स्थापनादिकम्। मूलमन्त्रेण हुत्वाज्यं ततः प्रत्यक्षराहुतीः॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः एकां पुनश्च सर्वेण पौरुषीभिश्चषोडश। हुत्वा त्रीन्विष्णुगायत्र्या वैष्णव्या चाथ हेतिभिः॥६॥
टीका तदनन्तर श्रीहरि से पश्चिमभाग में स्थण्डिलादि पर अग्नि की स्थापना आदि कर्म सम्पन्न कर मूल मन्त्र के द्वारा आज्याहुति प्रदान कर फिर मन्त्र के प्रत्यक्षरों से आहुति करे और फिर अष्टाक्षर मन्त्र से एक आहुति देकर पुरुषसूक्त के षोडश मन्त्रों से सोलह आहुति देकर विष्णुगायत्री - 'नारायणाय [विग्रहे|विद्महे]' इत्यादि से तीन आहुति देवे और श्रीविष्णु के आयुधभूत पांच मन्त्रों से आहूति देवे ॥ ५-६ ॥
मूलम् एकां पुनश्च सर्वेण पौरुषीभिश्चषोडश। हुत्वा त्रीन्विष्णुगायत्र्या वैष्णव्या चाथ हेतिभिः॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः हविर्निवेद्य देवाय तच्छेषेण तथाहुतीः। अथोपसन्नेहैमानि ताम्राणि राजतानि वा॥७॥

प्रक्षाल्य पञ्चगव्येन मन्त्रतोयाप्लुतानि च। बिम्बानि पूर्वहेतीनां स्वभागनिहितानि वै॥८॥

निधाय वह्नौ प्रत्येकं तत्रावाह्य स्वमन्त्रतः। अर्घ्यं पाद्यं तथाचम्यं गन्धं पुष्पञ्च धूपकम्॥९॥

दीपञ्च दत्त्वाथाभ्यर्च्य प्रणम्याग्निसमप्रभम्। आचार्यः स्वयमादाय नियुक्तो वाथ मन्त्रवित्॥१०॥

प्राङ्मुखस्योपविष्टस्य न्यसेद्वाहौ च दक्षिणे। सुदर्शनं तथा वामे पाञ्चजन्यं स्वमन्त्रतः॥११॥

टीका इसके पश्चात् अर्चित इष्टदेव को शेष हवि अर्पित कर उसके शेष भाग से आज्याहुति उसी विधिक्रम में प्रदान करे। इसके पश्चात् समीप में रखी हुई स्वर्ण निर्मित, ताम्रनिर्मित या रजत निर्मित चक्रादि मुद्राओं को पञ्चगव्यसे प्रक्षालित करे और मन्त्र पूर्वक जल से प्रक्षालित करे और फिर अग्नि में तपाकर प्रत्येक आयुधों का अपने मन्त्रों से आवाहन कर उनकी पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, विद्यादि से पूजन करे। इसके बाद शिष्य अपने अग्नि के समान तेजस्वी दीक्षादाता आचार्य को प्रणाम करे। आचार्य उस तपाये हुए हेतिमुद्राभूत श्रीहरि के आयुध को [वयं|स्वयं] लेकर या किसी मन्त्रवेत्ता को नियुक्त करे तो वही पूर्व दिशा में मुख रखे हुए [शष्य|शिष्य] के दक्षिणबाहु पर उस मुद्रा को रखकर अंकित करे। इनमें सुदर्शन चक्र को दक्षिण तथा [पाश्ञ्चजन्य|पाञ्चजन्य] को बायीं भुजा पर विहित मन्त्रों के साथ अंकित करे। (इनमें सुदर्शन चक्र को दक्षिण तथा [पाञ्चजन्य|पाञ्चजन्य] को बायीं भुजा पर अंकित करना चाहिए। ) दोनों आयुध समान (ही) अंकित किये जाते हैं॥ ७-११॥
मूलम् हविर्निवेद्य देवाय तच्छेषेण तथाहुतीः। अथोपसन्नेहैमानि ताम्राणि राजतानि वा॥७॥

प्रक्षाल्य पञ्चगव्येन मन्त्रतोयाप्लुतानि च। बिम्बानि पूर्वहेतीनां स्वभागनिहितानि वै॥८॥

निधाय वह्नौ प्रत्येकं तत्रावाह्य स्वमन्त्रतः। अर्घ्यं पाद्यं तथाचम्यं गन्धं पुष्पञ्च धूपकम्॥९॥

दीपञ्च दत्त्वाथाभ्यर्च्य प्रणम्याग्निसमप्रभम्। आचार्यः स्वयमादाय नियुक्तो वाथ मन्त्रवित्॥१०॥

प्राङ्मुखस्योपविष्टस्य न्यसेद्वाहौ च दक्षिणे। सुदर्शनं तथा वामे पाञ्चजन्यं स्वमन्त्रतः॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः एवं गदां धनुः खड्गंललाटे मूर्ध्नि वक्षसि। चक्रं वा शङ्खचक्रे वा धारयेत्सर्वमेव वा॥१२॥
टीका इसी क्रम में [पाञ्चरात्रविधान|पञ्चरात्रोक्तविधान] के अनुरूप क्रमशः गदा, धनुष तथा खड्ग की हेति मुद्रा को ललाटप्रदेश, मूर्ध्विस्थान तथा वक्षः प्रदेश पर अपने अपने मन्त्रों के साथ अंकि करे, इस विधि में भावनानुरूप केवल चक्र ही धारण किया जावे अथवा दोन बाजुओं में चक्र और शंख ही धारण करे या फिर पांचों आयुधों को अंकित कि जाता है ॥१२॥
मूलम् एवं गदां धनुः खड्गंललाटे मूर्ध्नि वक्षसि। चक्रं वा शङ्खचक्रे वा धारयेत्सर्वमेव वा॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तन्त्रं समाप्य देवेशं सहशिष्यः प्रदक्षिणम्। कृत्वा प्रणम्य सान्निध्यं प्रार्थ्य शेषं समापयेत्॥१३॥
टीका इसके पश्चात् होमविधानादि की शेष विधि उतरार्चनादि विधान के साथ पूर्ण और अपने ही नवदीक्षित शिष्य के साथ इष्टदेव नारायण की प्रदक्षिणा व सान्निध्य की प्रार्थना कर क्षमायाचना के साथ इस यज्ञादि कार्य को सम्पन्न व समाप्त करे || १३ |
मूलम् तन्त्रं समाप्य देवेशं सहशिष्यः प्रदक्षिणम्। कृत्वा प्रणम्य सान्निध्यं प्रार्थ्य शेषं समापयेत्॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः कुर्यात्सर्वत्र कर्मान्ते द्विजैः पुण्याहवाचनम्। आचार्यस्यार्चनं चैव वासः स्रग्भूषणादिभिः॥१४॥
टीका वह इस कर्म के अन्त में सर्वत्र ब्राह्मणादि के द्वारा पुण्याहवाचन सम्पन्न करे और आ का वस्त्र, पुष्पमाला, भूषणादि से पूजन तथा सम्मान आदि करे ॥ १४ ॥
मूलम् कुर्यात्सर्वत्र कर्मान्ते द्विजैः पुण्याहवाचनम्। आचार्यस्यार्चनं चैव वासः स्रग्भूषणादिभिः॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सर्वमङ्गलसंयुक्तमिति चिह्नानि शार्ङ्गिणः। धारयित्वा यथोत्साहं वैष्णवानभितर्पयेत्॥१५॥
टीका इस प्रकार श्रीविष्णु के आयुधरूप चिन्हों को सभी मांगलिक कर्म तथा भावना युक्त रहकर उत्साह के अनुरूप धारण करना चाहिए तथा शक्ति के अनु वैष्णवजन को प्रसाद, भोजनादि से संतुष्ट करना चाहिए ॥ १५ ॥
मूलम् सर्वमङ्गलसंयुक्तमिति चिह्नानि शार्ङ्गिणः। धारयित्वा यथोत्साहं वैष्णवानभितर्पयेत्॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः धारयिष्यंस्ततः शिष्यमूर्द्धपुण्ड्रान्यथाविधि। पुण्येऽन्हि नियतः स्नात्वा पूर्ववद्वद्धकौतुकम्॥१६॥
टीका इसके बाद आचार्य विधिवत् शिष्य को ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करवाते हुए आगे वि पुण्यपर्व या पवित्र उत्सवादि तिथि को उस नियमानुचारी शिष्य को ( पूर्व पवित्र होकर) समीप बिठावें तथा अपने इष्टदेव श्रीहरि की विविध उपचार दीपदान तक अर्चना करे। इसके उपरान्त यज्ञकर्ता पुरुष के हस्त के प्रमाण यथोचित् स्थण्डिल का निर्माण करें॥ १६-१७ ॥
मूलम् धारयिष्यंस्ततः शिष्यमूर्द्धपुण्ड्रान्यथाविधि। पुण्येऽन्हि नियतः स्नात्वा पूर्ववद्वद्धकौतुकम्॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः उपवेश्याथ देवेशं भोगैर्दीपान्तमर्चयेत्॥ स्थण्डिलं कल्पयेत्पश्चात्पुरुषस्य प्रमाणतः॥१७॥
टीका इसके बाद आचार्य विधिवत् शिष्य को ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करवाते हुए आगे वि पुण्यपर्व या पवित्र उत्सवादि तिथि को उस नियमानुचारी शिष्य को ( पूर्व पवित्र होकर) समीप बिठावें तथा अपने इष्टदेव श्रीहरि की विविध उपचार दीपदान तक अर्चना करे। इसके उपरान्त यज्ञकर्ता पुरुष के हस्त के प्रमाण यथोचित् स्थण्डिल का निर्माण करें॥ १६-१७ ॥
मूलम् उपवेश्याथ देवेशं भोगैर्दीपान्तमर्चयेत्॥ स्थण्डिलं कल्पयेत्पश्चात्पुरुषस्य प्रमाणतः॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्थानानि सैकतान्यत्र वर्णचूर्णमयानि वा। कुर्याद्वादश पूर्वादिचतुर्दिक्षु समान्तरम्॥१८॥
टीका इस स्थण्डिल पर बालुका (रेती) से या वर्णचूर्ण से पूर्व से लेकर बारह ऊर्ध्वपुण्ड्रस्थानों को बनावे जिनमें परस्पर दूरी एक समान रखी जावे। इस स्थण्डिल के मध्य चार स्थान रखे तथा इस प्रकार इन सोलह स्थानों का प्रथम गन्धादि से अर्चन कर पृथक् आसनों पर केशवादि तथा वासुदेव आदि प्रत्येक का ध्यान कर उनके नामोच्चारण से आवाहन करे तथा बीच में रखे गये चारं स्थानों पर वासुदेवादि चतुर्व्यूह का ध्यान कर उनका नामोच्चारण द्वारा आवाहन करे तथा बाद में इन सभी का यथाक्षण क्रमशः अर्घ्यादि समर्पण कर अर्चन करे तथा अन्त में हवि प्रस्तुत करे॥१८-२०॥
मूलम् स्थानानि सैकतान्यत्र वर्णचूर्णमयानि वा। कुर्याद्वादश पूर्वादिचतुर्दिक्षु समान्तरम्॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तथा मध्येऽस्य चत्वारि तेष्वभ्यर्चासनं पृथक्। केशवादींस्तत्रतत्र वासुदेवादिकांस्तथा॥१९॥
टीका इस स्थण्डिल पर बालुका (रेती) से या वर्णचूर्ण से पूर्व से लेकर बारह ऊर्ध्वपुण्ड्रस्थानों को बनावे जिनमें परस्पर दूरी एक समान रखी जावे। इस स्थण्डिल के मध्य चार स्थान रखे तथा इस प्रकार इन सोलह स्थानों का प्रथम गन्धादि से अर्चन कर पृथक् आसनों पर केशवादि तथा वासुदेव आदि प्रत्येक का ध्यान कर उनके नामोच्चारण से आवाहन करे तथा बीच में रखे गये चारं स्थानों पर वासुदेवादि चतुर्व्यूह का ध्यान कर उनका नामोच्चारण द्वारा आवाहन करे तथा बाद में इन सभी का यथाक्षण क्रमशः अर्घ्यादि समर्पण कर अर्चन करे तथा अन्त में हवि प्रस्तुत करे॥१८-२०॥
मूलम् तथा मध्येऽस्य चत्वारि तेष्वभ्यर्चासनं पृथक्। केशवादींस्तत्रतत्र वासुदेवादिकांस्तथा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्रत्येकं च यथारूपं ध्यात्वा नामभिरावहेत्। हविरन्तैरथार्घ्याद्यैरर्चयेत्तान्यथाक्रमम्॥२०॥
टीका इस स्थण्डिल पर बालुका (रेती) से या वर्णचूर्ण से पूर्व से लेकर बारह ऊर्ध्वपुण्ड्रस्थानों को बनावे जिनमें परस्पर दूरी एक समान रखी जावे। इस स्थण्डिल के मध्य चार स्थान रखे तथा इस प्रकार इन सोलह स्थानों का प्रथम गन्धादि से अर्चन कर पृथक् आसनों पर केशवादि तथा वासुदेव आदि प्रत्येक का ध्यान कर उनके नामोच्चारण से आवाहन करे तथा बीच में रखे गये चारं स्थानों पर वासुदेवादि चतुर्व्यूह का ध्यान कर उनका नामोच्चारण द्वारा आवाहन करे तथा बाद में इन सभी का यथाक्षण क्रमशः अर्घ्यादि समर्पण कर अर्चन करे तथा अन्त में हवि प्रस्तुत करे॥१८-२०॥
मूलम् प्रत्येकं च यथारूपं ध्यात्वा नामभिरावहेत्। हविरन्तैरथार्घ्याद्यैरर्चयेत्तान्यथाक्रमम्॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः **परीत्य सह शिष्येण सर्वांस्तान्प्रणिपत्य च।** **उपविश्याथ शिष्याय प्रणिपत्योपसीदते॥२१॥**

एषां नामानि रूपाणि यथावदुपदर्शयेत्। शिष्यो हृदि समावेश्य तान्सर्वान्क्रमयोगतः॥२२॥

निर्घृष्य मृत्स्नां विधिवन्मूलमन्त्राभिमन्त्रिताम्। आदायाङ्गुलिभिर्दद्याल्ललाटाद्यूर्द्धपुण्ड्रकान्॥२३॥

टीका इसके पश्चात् अर्चित कर इन सभी केशवादि देवगण की दीक्षितेच्छु शिष्य के साथ प्रदक्षिणा कर नमस्कार करे तथा उनके सम्मुख बैठ जावे। फिर देवता को प्रमाण कर बैठे हुए समीपवर्ती शिष्य को केशवादि नाम तथा उनके स्वरूप या विग्रहरूप का यथावत् परिचय वर्णनादि करे जिससे शिष्य के हृदय में इन देवों का ज्ञान हो जाए। तब शिष्य उन सभी को विधिवत् क्रमशः तिलकोपयोगी गोपीचन्दनादि (श्वेत) मृत्तिका को घिसकर मूलमन्त्र से अभिमन्त्रित करते हुए ललाटादि स्थानों पर अंगुलि के द्वारा ऊर्ध्वपुण्ड्रों को लगावे ॥ २१-२३॥
मूलम् **परीत्य सह शिष्येण सर्वांस्तान्प्रणिपत्य च।** **उपविश्याथ शिष्याय प्रणिपत्योपसीदते॥२१॥**

एषां नामानि रूपाणि यथावदुपदर्शयेत्। शिष्यो हृदि समावेश्य तान्सर्वान्क्रमयोगतः॥२२॥

निर्घृष्य मृत्स्नां विधिवन्मूलमन्त्राभिमन्त्रिताम्। आदायाङ्गुलिभिर्दद्याल्ललाटाद्यूर्द्धपुण्ड्रकान्॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः **त्रयोदश द्वादश वा चतुरो वैकमेव वा।** **नमोऽन्तैर्नामभिर्थ्यात्वा स्थापयेत्तत्र तत्र च॥२४॥**

केशवादीन् द्वादशसु वासुदेवं त्रयोदशे। केशवं वासुदेवं वा ललाटे केवलं न्यसेत्॥२५॥

व्यूहाँश्चतुर्षु तान्नत्वा सदा सान्निध्यमर्थयेत्। अतो हि वैष्णवस्यांगं विष्णोरायतनं विदुः॥२६॥

हविर्निवेद्य देवाय गुरुः शेषं समापयेत्। तत्र त्वाचार्य्यमभ्यर्च्य भोजयेद्वैष्णवानपि॥२७॥

टीका इनको त्रयोदश, द्वादश, चार अथवा एक ही संख्या में ऊर्ध्वपुण्ड्रों को अंत में नमः कहकर ( ध्यान कर) लगाना चाहिए। तथा बाद में अपने अपने स्थानों पर इनक स्थापना की जावे। यहां बारह ऊर्ध्वपुण्ड्रों पर केशव आदि देवों को स्थापित क तथा यदि सभी देवों को एक ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक लगाया हो तो केशव को ललाट प और वासुदेव को गले के प्रदेश में एक ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाया जाता है, तथा च ऊर्ध्वपुण्ड्र के लगाने के पक्ष में चारों ऊर्ध्वपुण्ड्रों को व्यूहों पर लगावे । इसके उपर उन सभी केशवादि को प्रणाम कर सदा सान्निध्य के लिये प्रार्थना करे। इसी का वैष्णव का शरीर श्रीविष्णु का निवास स्थान माना जाता है। इतना होने पर आच उन देवों को हवि निवेदन करे तथा अर्चन की शेष विधि को पूर्ण कर समाप्त क इसके पश्चात् शिष्य आचार्य की सम्भावनापूर्वक पूजन करे। उत्सव के उपलक्ष अन्त में वैष्णवों को प्रसादादि देकर भोजन करवाया जाए॥ २४-२७॥
मूलम् **त्रयोदश द्वादश वा चतुरो वैकमेव वा।** **नमोऽन्तैर्नामभिर्थ्यात्वा स्थापयेत्तत्र तत्र च॥२४॥**

केशवादीन् द्वादशसु वासुदेवं त्रयोदशे। केशवं वासुदेवं वा ललाटे केवलं न्यसेत्॥२५॥

व्यूहाँश्चतुर्षु तान्नत्वा सदा सान्निध्यमर्थयेत्। अतो हि वैष्णवस्यांगं विष्णोरायतनं विदुः॥२६॥

हविर्निवेद्य देवाय गुरुः शेषं समापयेत्। तत्र त्वाचार्य्यमभ्यर्च्य भोजयेद्वैष्णवानपि॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः करिष्यन् वैष्णवं नाम वैष्णवाश्रयमेव वा। पुण्येऽहनि गुरुः स्नात्वा पूजयित्वा जगद्गुरुम्॥२८॥
टीका नाम संस्कार की दशा में वैष्णव नाम को अथवा वैष्णवाश्रय के अर्थ वाले नाम करने की कामना से आचार्य किसी पुण्यदिन अथवा शुभमुहूर्त में प्रथम स्नान तथा जगद्गुरु श्रीनारायण का अर्चन करे। तत्पश्चात् पूर्वकथित विधि के अनुस स्थण्डिलादि का निर्माण कर उस पर सिकतादि स्थानों को तैयार कर षोड़श प पर देवतादि का स्थापनादि करे तथा उनकी अर्चना कर नाम देवताओं का आवा करे॥२८-२९॥
मूलम् करिष्यन् वैष्णवं नाम वैष्णवाश्रयमेव वा। पुण्येऽहनि गुरुः स्नात्वा पूजयित्वा जगद्गुरुम्॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः पूर्ववत्स्थण्डिलं कृत्वा पूर्ववत्सिकतामये। षोडशे पीठमभ्यर्च्यावाहयेन्नामदेवताम्॥२९॥
टीका नाम संस्कार की दशा में वैष्णव नाम को अथवा वैष्णवाश्रय के अर्थ वाले नाम करने की कामना से आचार्य किसी पुण्यदिन अथवा शुभमुहूर्त में प्रथम स्नान तथा जगद्गुरु श्रीनारायण का अर्चन करे। तत्पश्चात् पूर्वकथित विधि के अनुस स्थण्डिलादि का निर्माण कर उस पर सिकतादि स्थानों को तैयार कर षोड़श प पर देवतादि का स्थापनादि करे तथा उनकी अर्चना कर नाम देवताओं का आवा करे॥२८-२९॥
मूलम् पूर्ववत्स्थण्डिलं कृत्वा पूर्ववत्सिकतामये। षोडशे पीठमभ्यर्च्यावाहयेन्नामदेवताम्॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः भगवद्रूपिणं ध्यात्वा हविरन्तमथार्चयेत्। उपपन्ने ततः शिष्ये कौपीनं कटिबन्धनम्॥३०॥
टीका तब गुरु अपने शिष्य से कौपीन तथा कटिबन्धन दो नवीन वस्त्रों को प्राप्त कर शिष्य बनाए और उसी शिष्य को कौपीन आदि पहनवाये। और जो शिष्य कौ तथा कटिबन्ध धारण कर ले तो शिष्य भी कौपीनादि गुरु को प्रदान कर ग्रहण करवावे। नामाधिदेवता की पूजा से बचे हुए गन्ध तथा पुष्प आदि के साथ निवेदित अन्नादि भी गुरु उसे दिलवाए। और उसे दासादि शब्द के अन्तवाले नाम को (जैसे अनन्तदास आदि ) शिष्य को सुनवाए अथवा केवल श्रीहरि के नाम को सुनावे (जैसे- केशव, वकुलभरण आदि) फिर नामाधिदेवता की प्रदक्षिणा कर प्रणाम करे और उसकी पूजन कर नामाधिदेवता को शिष्य के हृदयप्रदेश पर रखवाना चाहिए ॥ ३०-३२ ॥
मूलम् भगवद्रूपिणं ध्यात्वा हविरन्तमथार्चयेत्। उपपन्ने ततः शिष्ये कौपीनं कटिबन्धनम्॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः निवेद्य वस्त्रे च नवे तस्मै तं ग्राहयेद्गुरुः। तच्छेषं गन्धमाल्यादि तथा चान्नं निवेदितम्॥३१॥
टीका तब गुरु अपने शिष्य से कौपीन तथा कटिबन्धन दो नवीन वस्त्रों को प्राप्त कर शिष्य बनाए और उसी शिष्य को कौपीन आदि पहनवाये। और जो शिष्य कौ तथा कटिबन्ध धारण कर ले तो शिष्य भी कौपीनादि गुरु को प्रदान कर ग्रहण करवावे। नामाधिदेवता की पूजा से बचे हुए गन्ध तथा पुष्प आदि के साथ निवेदित अन्नादि भी गुरु उसे दिलवाए। और उसे दासादि शब्द के अन्तवाले नाम को (जैसे अनन्तदास आदि ) शिष्य को सुनवाए अथवा केवल श्रीहरि के नाम को सुनावे (जैसे- केशव, वकुलभरण आदि) फिर नामाधिदेवता की प्रदक्षिणा कर प्रणाम करे और उसकी पूजन कर नामाधिदेवता को शिष्य के हृदयप्रदेश पर रखवाना चाहिए ॥ ३०-३२ ॥
मूलम् निवेद्य वस्त्रे च नवे तस्मै तं ग्राहयेद्गुरुः। तच्छेषं गन्धमाल्यादि तथा चान्नं निवेदितम्॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः नाम दासादिशब्दान्तं श्रावयेत्केवलं तु वा। परीत्य प्रणतोऽभ्यर्च्य देवतां हृदि निक्षिपेत्॥३२॥
टीका तब गुरु अपने शिष्य से कौपीन तथा कटिबन्धन दो नवीन वस्त्रों को प्राप्त कर शिष्य बनाए और उसी शिष्य को कौपीन आदि पहनवाये। और जो शिष्य कौ तथा कटिबन्ध धारण कर ले तो शिष्य भी कौपीनादि गुरु को प्रदान कर ग्रहण करवावे। नामाधिदेवता की पूजा से बचे हुए गन्ध तथा पुष्प आदि के साथ निवेदित अन्नादि भी गुरु उसे दिलवाए। और उसे दासादि शब्द के अन्तवाले नाम को (जैसे अनन्तदास आदि ) शिष्य को सुनवाए अथवा केवल श्रीहरि के नाम को सुनावे (जैसे- केशव, वकुलभरण आदि) फिर नामाधिदेवता की प्रदक्षिणा कर प्रणाम करे और उसकी पूजन कर नामाधिदेवता को शिष्य के हृदयप्रदेश पर रखवाना चाहिए ॥ ३०-३२ ॥
मूलम् नाम दासादिशब्दान्तं श्रावयेत्केवलं तु वा। परीत्य प्रणतोऽभ्यर्च्य देवतां हृदि निक्षिपेत्॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः हविर्निवेद्य देवाय तन्त्रशेषं समापयेत्। शिष्यो देशिकमभ्यर्च्य वैष्णवान् परितोषयेत्॥३३॥
टीका इस प्रकार इष्ट देव को हवि अर्पित कर शेष कर्म को पूर्ण करे। तब शिष्य अपने दीक्षादाता गुरु का अर्चन कर समागत वैष्णवों का प्रसादादि देकर परितोष करे ॥ ३३॥
मूलम् हविर्निवेद्य देवाय तन्त्रशेषं समापयेत्। शिष्यो देशिकमभ्यर्च्य वैष्णवान् परितोषयेत्॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्वयं ब्रह्मणि निक्षिप्तान्जातानेव च मन्त्रतः। विनीतानथ पुत्रादीन संस्कृत्य प्रतिबोधयेत्॥३४॥
टीका इस प्रकार नामसंस्कार के पश्चात् स्वयं आचार्य मन्त्रसंस्कारों से नवीन ( दूसरा ) जन्म प्राप्त करनेवाले तथा ब्रह्म के प्रति निक्षिस या पुत्रशिष्यादि को संस्कारों से संस्कृत कर मन्त्रार्थ का ज्ञान करवाए ( अतएव मन्त्र संस्कार के होने पर मन्त्रार्थ का ज्ञान करवाया जाना यहां इष्ट है ) ||३४||
मूलम् स्वयं ब्रह्मणि निक्षिप्तान्जातानेव च मन्त्रतः। विनीतानथ पुत्रादीन संस्कृत्य प्रतिबोधयेत्॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अनुकूलेऽहनि शुभे गुरुः स्नात्वा समाहितः। हुताग्निःपूर्ववच्छिष्यं निष्पाद्य कृतकौतुकम्॥३५॥
टीका मन्त्रसंस्कार अनुकूल नक्षत्रादि से युक्त मुहूर्तवाले दिवस में सर्वप्रथम मन्त्रप्रदाता आचार्य (गुरु) स्वयं स्नान करे तथा समाहित चित्त से वह स्थण्डिल पर अग्निस्थापनादि कर विधिवत् हवन करे तथा पूर्वविधि से शिष्य को निर्धारित प्रदेश पर बिठलाकर उसके हस्त में मंगलसूत्र को बांधकर कंकणधारी बनावे। इसके पश्चात् देवाधिदेव नारायण की अर्चना कर अपने गृहयोक्तविधान से अग्नि का स्थापन करे तथा अपने तन्त्रादि के अनुसार विधिवत् पूर्वविधि से आहुति देवे। (पूर्वकथित 'मूलमन्त्रेण' इत्यादि के अनुसार आहुति देवे ) ॥ ३५-३६ ॥
मूलम् अनुकूलेऽहनि शुभे गुरुः स्नात्वा समाहितः। हुताग्निःपूर्ववच्छिष्यं निष्पाद्य कृतकौतुकम्॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ततः सम्पूज्य देवेशं पश्वादग्निंनिधाय वै। स्वेन तन्त्रेण तत्राथ हुत्वा पूर्ववदाहुतीः॥३६॥
टीका मन्त्रसंस्कार अनुकूल नक्षत्रादि से युक्त मुहूर्तवाले दिवस में सर्वप्रथम मन्त्रप्रदाता आचार्य (गुरु) स्वयं स्नान करे तथा समाहित चित्त से वह स्थण्डिल पर अग्निस्थापनादि कर विधिवत् हवन करे तथा पूर्वविधि से शिष्य को निर्धारित प्रदेश पर बिठलाकर उसके हस्त में मंगलसूत्र को बांधकर कंकणधारी बनावे। इसके पश्चात् देवाधिदेव नारायण की अर्चना कर अपने गृहयोक्तविधान से अग्नि का स्थापन करे तथा अपने तन्त्रादि के अनुसार विधिवत् पूर्वविधि से आहुति देवे। (पूर्वकथित 'मूलमन्त्रेण' इत्यादि के अनुसार आहुति देवे ) ॥ ३५-३६ ॥
मूलम् ततः सम्पूज्य देवेशं पश्वादग्निंनिधाय वै। स्वेन तन्त्रेण तत्राथ हुत्वा पूर्ववदाहुतीः॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्थाने हेत्याहुतीनान्तु मूलमन्त्राहुतीः पुनः। हविर्निवेद्य देवाय तच्छेषेण तथादुतीः॥३७॥

स शिष्योऽथ गुरुः कृत्वा साग्निंदेवंप्रदक्षिणम्। प्रणम्य पुनरासीनः प्रणिपत्योपसेदुषः॥३८॥

संहारादिक्रमं कुर्याद्विधिवच्छोषणादिकम्। अस्त्रमन्त्रेण रक्षाञ्च प्रणमय्य गुरूंस्ततः॥३९॥

न्यासाख्यं परमं मन्त्रं वाचयित्वाथ बोधयेत्।

टीका इसके पश्चात् श्रीविष्णु के शस्त्रों की नामोच्चारपूर्वक मन्त्रादि से की जानेवाली आहुति के स्थान पर यहां मूलमंत्र से आहुति देनी चाहिए फिर इष्टदेव को हवि का अर्पण करे और शेष को भी इसी मूलमन्त्र से हवि के रूप में आहुति देकर आचार्य अपने शिष्य के साथ अग्नि तथा पूजित इष्टदेव की प्रदक्षिणा कर फिर प्रणाम करे और समीप बिठलाकर शिष्य का संहारादिक्रम से न्यास को विधिवत् सम्पन्न करे तथा शोषणादि कर्म (दाह को प्रशान्त या दबाने आदि) को करने के पश्चात् अस्त्र मन्त्रों के द्वारा रक्षण क्रिया करे। तब शिष्य को आचार्य परंपरानुगतविधि से प्रणाम करवाकर न्यासनामक परममन्त्र का उससे वाचन करवाए तथा उस मन्त्र का उच्चारण करवाकर उसका ज्ञान करवाए ॥ ३७ - ३९॥
मूलम् स्थाने हेत्याहुतीनान्तु मूलमन्त्राहुतीः पुनः। हविर्निवेद्य देवाय तच्छेषेण तथादुतीः॥३७॥

स शिष्योऽथ गुरुः कृत्वा साग्निंदेवंप्रदक्षिणम्। प्रणम्य पुनरासीनः प्रणिपत्योपसेदुषः॥३८॥

संहारादिक्रमं कुर्याद्विधिवच्छोषणादिकम्। अस्त्रमन्त्रेण रक्षाञ्च प्रणमय्य गुरूंस्ततः॥३९॥

न्यासाख्यं परमं मन्त्रं वाचयित्वाथ बोधयेत्।

विश्वास-प्रस्तुतिः श्रीमन्नारायणः स्वामी दासस्त्वमसि तस्य वै॥४०॥

परमीप्सुस्तमेवार्थमनुकूलो विवर्जयेत्। प्रातिकूल्यं सुविस्त्रब्धःसंप्रार्थ्यशरणं हरिम्॥४१॥

व्रज तस्यैव चरणौ तत्रैवात्मानमर्पय। इति सम्बोधितस्त्वेवं मन्त्रेणात्मानमर्पयेत्॥४२॥

टीका आचार्य शिष्य को इस मन्त्र का पारंपरिक आशय बतलाते हुए उसे उपदेश दे ि श्रीमन्नारायण महालक्ष्मी से युक्त नित्यभूत तथा स्वामी है तथा तुम उस देव के किङ्कर (दास) हो। उसी नारायण को प्राप्त करने के इच्छुक होकर तुम अनुकूल सङ्कल्पविशिष्ट या आग्रह रखकर आचरण करो तथा प्रतिकूल बुद्धि का नियन्त्र तथा विवर्जना रखो। इस प्रकार अपने रक्षण में समर्थ श्रीहरि पर विश्वास रखक उन्हीं के चरणों की शरण प्राप्त करो। इस प्रकार श्रीहरि की प्रार्थना कर एवं गुरु सम्बोधित उपदेश सुनकर वह शिष्य इसी मन्त्र से स्वयं को श्रीहरि को समर्पित करे॥४०-४२॥
मूलम् श्रीमन्नारायणः स्वामी दासस्त्वमसि तस्य वै॥४०॥

परमीप्सुस्तमेवार्थमनुकूलो विवर्जयेत्। प्रातिकूल्यं सुविस्त्रब्धःसंप्रार्थ्यशरणं हरिम्॥४१॥

व्रज तस्यैव चरणौ तत्रैवात्मानमर्पय। इति सम्बोधितस्त्वेवं मन्त्रेणात्मानमर्पयेत्॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ततश्च व्यापकान्मन्त्रानन्यांश्चाङ्गैः समन्वितान्। दत्त्वास्मै पुनरेवैवं गृहीत्वा वृत्तिमादिशेत्॥४३॥
टीका तब व्यापक कर छ: अक्षरों तथा द्वादश अक्षरों वाले मन्त्रों को न्यासादि अंगों साथ तथा अन्य अव्यापक संज्ञक मन्त्र इसी शिष्य को उपदेश देवे तथा इसे शिष्य में मान्य कर वृत्ति का पारंपरिक उपदेश इसे प्रदान करें ||४३||
मूलम् ततश्च व्यापकान्मन्त्रानन्यांश्चाङ्गैः समन्वितान्। दत्त्वास्मै पुनरेवैवं गृहीत्वा वृत्तिमादिशेत्॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः नित्यं विष्णुपरं कर्म कुरु निंद्यानि मा कृथाः। सदात्मानं विबुध्यस्व मा कामेषु मनः कृथाः॥४४॥
टीका तुम सदा श्रीविष्णु के अनुगत इष्ट कर्मों को करते रहो तथा निन्द्य कर्मों का आचरण छोड़ो। अपने आत्मा को सदा जागृत रखते हुए रहो तथा किसी कामना से युक्त अनुष्ठानों को मन से दूर रखो ॥ ४४ ॥
मूलम् नित्यं विष्णुपरं कर्म कुरु निंद्यानि मा कृथाः। सदात्मानं विबुध्यस्व मा कामेषु मनः कृथाः॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः **यजस्व नित्यमात्मेशं मानंसीरन्यदेवताः।** **लक्ष्यस्व लक्षणैर्भर्तुर्लक्षिष्ठा मान्यलक्षणैः॥४५॥**
टीका आत्माधिपति जीवेश श्रीनारायण का नित्य ही यज्ञादि से यजन ( अर्चन) करना चाहिए तथा अन्य देवताओं की उपासना से दूर रहना चाहिए। अपने इष्ट का ज्ञान उनके धारण किये जानेवाले चक्रादि चिन्हों से रखो तथा इससे भिन्न अन्य लक्षणों से उन्हें मन में भी मत लाओ या इनकी कल्पना मत करो ॥ ४५ ॥
मूलम् **यजस्व नित्यमात्मेशं मानंसीरन्यदेवताः।** **लक्ष्यस्व लक्षणैर्भर्तुर्लक्षिष्ठा मान्यलक्षणैः॥४५॥**
विश्वास-प्रस्तुतिः उपास्स्व वैष्णवान्नित्यमसतो मोपसीसरः। गुरुं प्रणम्योमित्युक्त्वा ह्यात्मानञ्च निवेदयेत्॥४६॥
टीका प्रतिदिनं (नित्य) ही वैष्णवजन की सेवा सुश्रुषादि के द्वारा उपासना किया करो तथा एकान्त्यविमुख अवैष्णवजन का ससर्ग छोड़ो (अथवा उनकी संगति मत रखो)। अपने उपदेष्टा गुरु को प्रणाम करो तथा ओम् का उच्चारण करते हुए गुरु को अपने आने को निवेदित करना चाहिए ॥ ४६ ॥
मूलम् उपास्स्व वैष्णवान्नित्यमसतो मोपसीसरः। गुरुं प्रणम्योमित्युक्त्वा ह्यात्मानञ्च निवेदयेत्॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ततः समापिते शेषे देवमात्मनि निक्षिपेत्। गुरुं विधिवदभ्यर्च्य वैष्णवान्परितोषयेत्॥४७॥
टीका इस उपदेश को ग्रहण कर होमशेष की समाप्ति विधि होने के पश्चात् श्रीनारायण को अपने हृदय में स्थापित करे। यहीं 'न्यासविधि' है। तब अपने उपदेष्टा आचार्य की विधिवत् अर्चना करने के बाद वैष्णवजन को भी भोजन तथा दक्षिणादि देते हुए संतुष्ट करे॥४७॥
मूलम् ततः समापिते शेषे देवमात्मनि निक्षिपेत्। गुरुं विधिवदभ्यर्च्य वैष्णवान्परितोषयेत्॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः **योजयिष्यन् गुरुः शिष्यं नित्यार्चनविधौ हरेः।** **शोभनेऽहनि नक्षत्रे देवमभ्यर्च्य पूर्ववत्॥४८॥**
टीका अब योगसंस्कार के लिये गुरु (आचार्य) अपने शिष्य को श्रीनारायण के नित्य अर्चन करने की विधि में लगाने के लिये किसी शुभ दिन तथा नक्षत्र को देखकर तथा पूर्वविधि के अनुसार श्रीनारायण की पूजन करे। फिर मंत्रसंस्कार में किये गये विधान के अनुसार अग्नि में होम करने के बाद नित्य उपासना करने के बाद संस्कार के लिये उक्त विधि के साथ आज्याहुति तथा अन्नाहुति का होम करने के पश्चात् आवरण से उत्पन्न प्रतिष्ठाशास्त्र के अनुसार स्थापित परमेश का शुभविग्रह श्रीदेवी तथा भूमि देवी की लीला से युक्त तथा भूषणों, आयुधों एवं परिजन, परिच्छदादि के रूप में संग्रह कर फिर यज्ञ करवाये ॥ ४८- ५० ॥
मूलम् **योजयिष्यन् गुरुः शिष्यं नित्यार्चनविधौ हरेः।** **शोभनेऽहनि नक्षत्रे देवमभ्यर्च्य पूर्ववत्॥४८॥**
विश्वास-प्रस्तुतिः मन्त्रवत्तु हुतं हुत्वा निष्ठयाथोपसादितम्। यथोक्तविधिना पूर्वंस्थापितं शुभविग्रहम्॥४९॥
टीका अब योगसंस्कार के लिये गुरु (आचार्य) अपने शिष्य को श्रीनारायण के नित्य अर्चन करने की विधि में लगाने के लिये किसी शुभ दिन तथा नक्षत्र को देखकर तथा पूर्वविधि के अनुसार श्रीनारायण की पूजन करे। फिर मंत्रसंस्कार में किये गये विधान के अनुसार अग्नि में होम करने के बाद नित्य उपासना करने के बाद संस्कार के लिये उक्त विधि के साथ आज्याहुति तथा अन्नाहुति का होम करने के पश्चात् आवरण से उत्पन्न प्रतिष्ठाशास्त्र के अनुसार स्थापित परमेश का शुभविग्रह श्रीदेवी तथा भूमि देवी की लीला से युक्त तथा भूषणों, आयुधों एवं परिजन, परिच्छदादि के रूप में संग्रह कर फिर यज्ञ करवाये ॥ ४८- ५० ॥
मूलम् मन्त्रवत्तु हुतं हुत्वा निष्ठयाथोपसादितम्। यथोक्तविधिना पूर्वंस्थापितं शुभविग्रहम्॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः श्रीभूमिलीलासहितं परिवारैः समन्वितम्। अव्यक्तपरिवारं वा देवं संग्राह्य याजयेत्॥५०॥
टीका अब योगसंस्कार के लिये गुरु (आचार्य) अपने शिष्य को श्रीनारायण के नित्य अर्चन करने की विधि में लगाने के लिये किसी शुभ दिन तथा नक्षत्र को देखकर तथा पूर्वविधि के अनुसार श्रीनारायण की पूजन करे। फिर मंत्रसंस्कार में किये गये विधान के अनुसार अग्नि में होम करने के बाद नित्य उपासना करने के बाद संस्कार के लिये उक्त विधि के साथ आज्याहुति तथा अन्नाहुति का होम करने के पश्चात् आवरण से उत्पन्न प्रतिष्ठाशास्त्र के अनुसार स्थापित परमेश का शुभविग्रह श्रीदेवी तथा भूमि देवी की लीला से युक्त तथा भूषणों, आयुधों एवं परिजन, परिच्छदादि के रूप में संग्रह कर फिर यज्ञ करवाये ॥ ४८- ५० ॥
मूलम् श्रीभूमिलीलासहितं परिवारैः समन्वितम्। अव्यक्तपरिवारं वा देवं संग्राह्य याजयेत्॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः श्रौतदिव्यार्षकल्पानामिष्टेनान्यतमेन च। स्थापनं यजनं वापि मिश्रा ह्यत्राधिकारिणः॥५१॥
टीका श्रतादि कल्प में मिश्रव्यामिश्र (दिव्य ) अथवा आर्ष-कल्पों के मध्य किसी एक विधि को इष्ट समझकर उसी के अनुसार स्थापना तथा यजन विधि की जावे । मिश्र अर्थात् व्यामिश्र तथा आर्ष दोनों अधिकारी हो सकते हैं। अतः किसी भी विधि को इष्टतम मानकर उसी के द्वारा स्थापनादि कार्य किया जा सकता है ॥ ५१ ॥
मूलम् श्रौतदिव्यार्षकल्पानामिष्टेनान्यतमेन च। स्थापनं यजनं वापि मिश्रा ह्यत्राधिकारिणः॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः **ततः परिगृहीतेन गुरुभिर्येन केनचित्।** **विधिना याजयित्वैवमथ शेषं समापयेत्॥५२॥**
टीका और आचार्य अपने सम्प्रदाय के अनुरूप भी इन विधियों में से किसी एक विधि को इष्टतम मानकर उसी से स्थापना तथा यजन करवाकर शेष (उत्तर) विधि को पूर्ण करवाए ॥ ५२ ॥
मूलम् **ततः परिगृहीतेन गुरुभिर्येन केनचित्।** **विधिना याजयित्वैवमथ शेषं समापयेत्॥५२॥**
विश्वास-प्रस्तुतिः ततः स्वकाले स्वाध्यायं ततो योगं च कारयेत्। इज्यान्ते गुरुपूजां च वैष्णवानां च तर्पणम्॥५३॥
टीका इसके बाद उसे आचार्य के द्वारा स्वाध्याय के नियत समय पर स्वाध्याय तथा योग के निय समय पर योग करवाना चाहिए। यजन के अन्त में अपने गुरु की पूजा औ वैष्णवजन को भोजनादि से तृप्त करना भी अभीष्ट है ॥ ५३ ॥
मूलम् ततः स्वकाले स्वाध्यायं ततो योगं च कारयेत्। इज्यान्ते गुरुपूजां च वैष्णवानां च तर्पणम्॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः केचिच्चतुर्णां पूर्वेषां क्रमं नेच्छन्ति कर्मणाम्। सहैकदिवसे वाब्दे त्रीणि चत्वारि पञ्च वा॥५४॥
टीका कुछ मुनियों का मत है कि इन पूर्वकथित ताप, पुण्ड्र, नाम तथा मंत्रसंस्कार नामक इन चार कर्मों में कोई क्रम नहीं माना जाए। एक दिन में भी दो संस्कार या एक वर्ष में तीन, चार तथा पांच संस्कार भी किये जा सकते हैं ॥ ५४ ॥
मूलम् केचिच्चतुर्णां पूर्वेषां क्रमं नेच्छन्ति कर्मणाम्। सहैकदिवसे वाब्दे त्रीणि चत्वारि पञ्च वा॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तदान्यतमहोमान्ते कृत्वाग्न्याद्युपसन्मुखम्। समापयेत्प्रधानं च न मन्त्रस्यान्यशेषता॥५५॥
टीका यदि एक दिन में एक साथ अनेक संस्कारगत अनुष्ठान की स्थिति हो तो किसी एव अग्नि की उपस्थापना अधिक विस्तृत स्थण्डितादि पर रखते हुए अग्निस्थापनादि होम कर्म करते हुए किसी अन्यतम संस्कार (जो सबके बाद क्रम में रहे उस) के होम को समाप्त करना चाहिए। ( क्योंकि संस्कारों में सभी के सकभाव में सम्पन्न होने के बाद ही होम कार्य सम्पन्न होता है ) ॥५५॥
मूलम् तदान्यतमहोमान्ते कृत्वाग्न्याद्युपसन्मुखम्। समापयेत्प्रधानं च न मन्त्रस्यान्यशेषता॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः **यद्येकदिवसे पञ्च तथा मन्त्राहुतेः परम्।** **कृत्वा यागान्तमखिलं तन्त्रशेषं समापयेत्॥५६॥**
टीका यदि एक ही दिवस में पांच संस्कार किये जाए तो मन्त्राहुति के पश्चात् ( एक ही अग्नि में) यागादि सभी कार्य किये जाएं तथा एक साथ सभी शेष कर्म पूर्ण किये जाएं ( अथवा एक साथ सभी संस्कारों की समाप्ति होनी चाहिए ॥ ५६||
मूलम् **यद्येकदिवसे पञ्च तथा मन्त्राहुतेः परम्।** **कृत्वा यागान्तमखिलं तन्त्रशेषं समापयेत्॥५६॥**
विश्वास-प्रस्तुतिः एकदेशयुतोऽप्यन्यसंस्काराणां गुणान्वितः। युक्तः परमसंस्कारैः स वै भागवतः स्मृतः॥५७॥
टीका अन्यथा सभी वर्णादि समुचित संस्कारों में कुल संस्कारों के सम्पन्न होने की स्थिति वाला रहने पर तथा पांच संस्कारों से युक्त होनेवाला गुणकारी या उत्तम माना जाता है क्योंकि वह उत्तम पांच संस्कारों से पूर्ण है तथा उसे ही 'भागवत' समझना चाहिए ॥ ५७॥
मूलम् एकदेशयुतोऽप्यन्यसंस्काराणां गुणान्वितः। युक्तः परमसंस्कारैः स वै भागवतः स्मृतः॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तापस्तपांसि तीर्थानि पुण्ड्रं नाम नमस्क्रिया। आम्नायाः सकला मन्त्रः क्रतवः पूजनं हरेः॥५८॥
टीका इनमें ताप तप रूप है, पुण्ड्र तीर्थभूत है (जिसका फल समस्त तीर्थों का स्नान करने जैसा है), नाम ही इष्ट की नमस्क्रिया है, मन्त्र का जप समस्त वेदों का आम्नायभूत है तथा नारायण का पूजन ही यज्ञ का सम्पादन है ॥ ५८ ॥
मूलम् तापस्तपांसि तीर्थानि पुण्ड्रं नाम नमस्क्रिया। आम्नायाः सकला मन्त्रः क्रतवः पूजनं हरेः॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः वृत्तिर्भागवतानां हि सर्वा भगवतः क्रियाः। प्रायश्चित्तिरियं तस्याः सैव यत्क्रियते पुनः॥५९॥
टीका भागवत जन की विहित आचार वाली सभी वृत्ति श्रीनारायण की सेवा रूप है। इस सेवावृत्ति के बार बार अनुष्टान करते रहने से दोषरूप आचरणों का प्रायश्चित्त हो जाता है। (अर्थात् प्रमाद या क्रिया लोप रूप दोष के होने पर सेवावृत्ति को दोहराने से ही प्रायश्चित होकर कर्ता की शुद्धि हो जाती है ) ॥ ५९ ॥
मूलम् वृत्तिर्भागवतानां हि सर्वा भगवतः क्रियाः। प्रायश्चित्तिरियं तस्याः सैव यत्क्रियते पुनः॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः तस्मादाराधनं विष्णोः शान्तिकर्म विधीयते। तथैव विष्णुभक्तानां पूजनं शान्तिरुत्तमा॥६०॥
टीका इसलिये श्रीनारायण की आराधना ही समस्त प्रत्यवायों को दूर करने का शान्तिकर्म है और उसे ही सदा बार बार करते रहना इष्ट है। इसी प्रकार विष्णु-भक्त-जन की अर्चनादि धर्म-कर्म उत्तम शान्ति कर्म है ( क्योंकि इससे श्रीभगवान् की पूजन ही होती है ) ॥ ६० ॥
मूलम् तस्मादाराधनं विष्णोः शान्तिकर्म विधीयते। तथैव विष्णुभक्तानां पूजनं शान्तिरुत्तमा॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः मन्त्रसंस्कारयुक्तस्य न चेत्तापादिकं तदा। परमाख्या भवेच्छान्तिरविभागे सतामपि॥६१॥
टीका यदि मन्त्र संस्कार से युक्त पुरुष के तापादि संस्कार न हुए हों, परमशान्ति के हेतु परमशान्तिभूत अनुष्ठान बिना क्रम तथा विभाग के पांच संस्कार को सम्पन्न करनेवाली परमशान्ति विधि ही की जाना उचित है || ६१ ॥
मूलम् मन्त्रसंस्कारयुक्तस्य न चेत्तापादिकं तदा। परमाख्या भवेच्छान्तिरविभागे सतामपि॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः परमाख्याथ वैयूही मूर्त्याख्या वैभवीति च। आनन्ती गारुडी चैव वैष्वक्सेनी सुदर्शनी॥६२॥
टीका इस परमशान्ति के क्रम में परमनामकशान्ति, वैयूही शान्ति, मूर्ति शान्ति, वैभव-शान्ति, आनन्ती- शान्ति, गारुडी - शान्ति, वैष्वक्सैनी - शान्ति तथा सुदर्शनी- शान्ति आती हैं ॥ ६२॥
मूलम् परमाख्याथ वैयूही मूर्त्याख्या वैभवीति च। आनन्ती गारुडी चैव वैष्वक्सेनी सुदर्शनी॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः चतुष्टयी महाशान्तिरुपशान्तिश्चतुष्टयी। यथानिमित्तं कर्त्तव्यास्तथान्याः श्रीभुवादयः॥६३॥
टीका इनमें परमारव्य, वैय्ही, मूर्त्याख्या तथा वैभवी ये चार महाशान्ति कहलाती है तथा आनन्त, गारुडी, वैष्वक्सेनी तथा सुदर्शना ये चार उपशान्ति है। जिन्हें जैसा कारण या अपेक्षा ही तदनुसार इन्हें करना चाहिए। इसी के समान भूशान्ति आदि अन्य शान्तिकर्म भी हैं जिन्हें यथानिमित्त करना चाहिए || ६३ ॥
मूलम् चतुष्टयी महाशान्तिरुपशान्तिश्चतुष्टयी। यथानिमित्तं कर्त्तव्यास्तथान्याः श्रीभुवादयः॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः दानहोमजपार्चानामेकद्वित्र्यखिलान्वयात्। नैकभेदविभिन्नास्ताः पात्रोत्कर्षश्च शक्तितः॥६४॥
टीका ये शान्ति, कर्म, दान, होम, जप, पूजा आदि में एक, दो, तीन तथा चारों के साथ सम्बद्ध होकर अनेक भेदों से युक्त हो जाती हैं जिनमें पांचों के शक्ति के अनुसार वरण करने से शक्ति के अल्प बहुलत्व के कारण उत्कर्ष हो जाता है॥ ६४॥
मूलम् दानहोमजपार्चानामेकद्वित्र्यखिलान्वयात्। नैकभेदविभिन्नास्ताः पात्रोत्कर्षश्च शक्तितः॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः **हीनाः परमसंस्कारैर्देवतान्तरबुद्धयः।** **ऋत्विजो यजमानाश्च च्यावयन्ति परस्परम्॥६५॥**
टीका क्योंकि जो तापादि पांच परम संस्कार हैं उनमें जो हीन होते हैं तथा अनेक दूसरे देवताओं की अर्चना तथा उनके यज्ञों को जो सम्पन्न करनेवाले होते हैं तो ऐसे याजक ऋत्विक्गण तथा उनके अनुगत यजमान थे दोनों ही परस्पर (श्रीविष्णु के विमुख होने से ) एक दूसरे को लक्ष्य से गिराकर (उन्हें) पतित बनाते हैं॥ ६५॥
मूलम् **हीनाः परमसंस्कारैर्देवतान्तरबुद्धयः।** **ऋत्विजो यजमानाश्च च्यावयन्ति परस्परम्॥६५॥**
विश्वास-प्रस्तुतिः अपराधेषु सर्वेषु वृत्त्यङ्गानां यथाविधि। वृत्तेश्च परिपोषाय शान्तिं शश्वत्प्रयोजयेत्॥६६॥
टीका इस प्रकार के सभी वृत्ति तथा उनके अंगो के न करने या उनके विरुद्ध आचरण जैसे वृत्ति के परिपोष के लिये विधिवत् प्रतिबन्धक दुरित की निवृत्ति के लिये वृत्ति की ही शान्ति हेतु आधारभूत अनुष्ठान करना उचित है ||६६ ॥
मूलम् अपराधेषु सर्वेषु वृत्त्यङ्गानां यथाविधि। वृत्तेश्च परिपोषाय शान्तिं शश्वत्प्रयोजयेत्॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः करणे प्रतिषिद्धानां विहिताकरणे तथा। विधेया महती शान्तिर्विज्ञाय गुरुलाघवम्॥६७॥
टीका विहित कर्मों के आचरण न करने पर तथा प्रतिषिद्ध आचरणों के करने पर उनके द्वारा होनेवाले कारण के अल्पमात्रा में या विस्तृत रहने पर उनके गुरुलाघव का विचार कर परम आदि महाशान्ति में से जो भी उपयुक्त हो उसको सम्पन्न करना चाहिए ॥ ६७ ॥
मूलम् करणे प्रतिषिद्धानां विहिताकरणे तथा। विधेया महती शान्तिर्विज्ञाय गुरुलाघवम्॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अवैष्णवेभ्यो यत्किञ्चित्प्रतिगृह्य प्रदाय वा। कृत्वोपशान्तिंशुद्धयेत परिवादे सतामपि॥६८॥
टीका जो वैष्णव न हों उन्हें किसी वस्तु आदि को देने अथवा उनसे किसी पदार्थ के ग्रहण करने पर गारुडी आदि उपशान्ति में से जो भी उपयुक्त या विहित हो उस शान्ति को करने पर दोष से शुद्धि होती है, किन्तु एकान्ती वैष्णव की निन्दा के अपराध पर उन्हें महाशान्ति कर्म के बाद गारुडी आदि उपशान्ति भी करना चाहिए ॥ ६८ ॥
मूलम् अवैष्णवेभ्यो यत्किञ्चित्प्रतिगृह्य प्रदाय वा। कृत्वोपशान्तिंशुद्धयेत परिवादे सतामपि॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः असतः प्रतिगृह्णीयात्पुत्रदारादिकं यदि। विधाय परमां शान्तिंवृत्तिमाचारयेन्निजाम्॥६९॥
टीका यदि अवैष्णवजन से पुत्र अथवा स्त्री आदि का सम्बन्धादि का योग हो तो ऐसे सम्बन्ध के हो जाने पर परमाशान्ति का कर्म करवाये तथा अपनी वैष्णव वृत्ति को उन पुत्र तथा दास आदि से भी करवाए और उन्हें अपने आचार से समान कार्यवाले बना ले॥६९॥
मूलम् असतः प्रतिगृह्णीयात्पुत्रदारादिकं यदि। विधाय परमां शान्तिंवृत्तिमाचारयेन्निजाम्॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः भजने चान्यदेवानामपचारे च शार्ङ्गिणः। वैयूहीं परमां वापि कुर्य्याच्छांतिं विशुद्धये॥७०॥
टीका अन्य देवता के प्रति भक्ति रखने तथा श्रीविष्णु की इष्टदेव के रूप में उपासना में कमी कर देने पर इस उपचार (दोष) की शुद्धि के लिये वैयूही अथवा परमा नामक शान्ति कर्म को किया जाता है || ७० ॥
मूलम् भजने चान्यदेवानामपचारे च शार्ङ्गिणः। वैयूहीं परमां वापि कुर्य्याच्छांतिं विशुद्धये॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः लक्षणानामकरणे धारणे चान्यलक्ष्मणाम्। मूर्तिं कुर्यान्महाशांतिमपि सौदर्शनींतथा॥७१॥
टीका तापादि वैष्णव चिन्हों के धारण न करने तथा तदनुरूप कर्म से अन्य चिन्हों के धारणादि से विमुख रहने की वृत्ति में रहने पर मूर्ति नामक महाशान्ति अथवा सौदर्शनी नामक उपशान्ति कर्म को गुरु लाघव का विचार कर करना चाहिए ॥ ७१ ॥
मूलम् लक्षणानामकरणे धारणे चान्यलक्ष्मणाम्। मूर्तिं कुर्यान्महाशांतिमपि सौदर्शनींतथा॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अपचारे गुरूणां च वैष्णवानाञ्च सर्वशः। वैष्वक्सेन्यथ वानन्ती कार्य्या चासन्निषेवणे॥७२॥
टीका वैष्णव गुरु तथा वैष्णवों के साथ होने वाले असन्निषेवणरूप उपचार होने पर वैष्वकसेनी या आनन्ती नामक शान्तिकर्म को विचार कर करना चाहिए ॥ ७२ ॥
मूलम् अपचारे गुरूणां च वैष्णवानाञ्च सर्वशः। वैष्वक्सेन्यथ वानन्ती कार्य्या चासन्निषेवणे॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः असच्छास्त्राभियोगे तु सच्छास्त्राणां निराकृतौ। कर्त्तव्या गारुडी शांतिर्दुर्निमित्तेषु वैभवी॥७३॥
टीका वैष्णवशास्त्रों के विरोधी शास्त्रों के अध्ययन करने तथा वेद एवं वैष्णवादि अस शास्त्रों के निराकरण करने पर गारुडी शान्ति कर्म करना चाहिए तथा दुर्निमित्तोंके या बुरे शकुनों के दिखाई देने पर वैभवी नामक शान्ति की जाए ॥ ७३ ॥
मूलम् असच्छास्त्राभियोगे तु सच्छास्त्राणां निराकृतौ। कर्त्तव्या गारुडी शांतिर्दुर्निमित्तेषु वैभवी॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अवैष्णवस्य भुक्त्वान्नमनिवेदितमेव वा। पीत्वा पादोदकं भक्त्या वैष्णवानां विशुद्धयति॥७४॥
टीका श्रीनारायण को निवेदित या अर्पण न किया गया अवैष्णवजन का अन्न खा लेने पर वैष्णवों के पादोदक को पीकर प्रायश्चित करने पर शुद्धि हो जाती है ||७४ ||
मूलम् अवैष्णवस्य भुक्त्वान्नमनिवेदितमेव वा। पीत्वा पादोदकं भक्त्या वैष्णवानां विशुद्धयति॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सर्वपातकसंप्राप्तौ श्रियं गारुडमेव वा। समभ्यर्च्य विधानेन तच्छेषं प्राश्य शुद्धयति॥७५॥
टीका सभी प्रकार के पातकों के किये जाने पर शान्ति के कारणीभूत अन्य पातकादि के होने पर श्री लक्ष्मी, पृथ्वी तथा अपने आचार्य का विधि पूर्वक अर्चन कर उनको अर्पित अन्नादि का शेष भाग प्रसादरूप में प्राशन करने से ( श्रीशान्ति एवं भूशान्ति को ऐसे कारणों के होने पर करने से ) शुद्धि हो जाती है ॥ ७५ ॥
मूलम् सर्वपातकसंप्राप्तौ श्रियं गारुडमेव वा। समभ्यर्च्य विधानेन तच्छेषं प्राश्य शुद्धयति॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः देवतान्तरशेषंतु भुक्त्वास्पृष्ट्वापि वा पुनः। वैष्वक्सेनींक्रियां कृत्वा तच्छेषं प्राश्य शुद्धयति॥७६॥
टीका (यदि ) अन्य देवता के प्रसाद रूप शेषान्न को स्पर्श करने या उसे भक्षण करने का कार्य हो गया हो वैष्वकसेनी शान्तिकर्म को कर उसका शेष प्रसाद का प्राशन करने से शुद्धि हो जाती है ॥ ७६ ॥
मूलम् देवतान्तरशेषंतु भुक्त्वास्पृष्ट्वापि वा पुनः। वैष्वक्सेनींक्रियां कृत्वा तच्छेषं प्राश्य शुद्धयति॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः **पीत्वानैकान्तिनां सोमं सह पंक्तो प्रभुज्य च।** **कृतञ्च तेन भुक्त्वान्नं वैयूहीं प्राप्य शुद्धयति॥७७॥**
टीका अवैष्णव यज्ञों में ऋत्विक् बन कर पंक्ति के साथ बैठकर सोम का पान करने और उन वैदिक ब्राह्मणों के साथ भोजन करने पर अथवा उन (अवैष्णव) ब्राह्मणों के द्वारा पक्व अन्नादि भोजन को ग्रहण करने पर वैयूही शान्तिकर्म कर शेषान्न ग्रहण करने से शुद्धि हो जाती है ॥ ७७ ॥
मूलम् **पीत्वानैकान्तिनां सोमं सह पंक्तो प्रभुज्य च।** **कृतञ्च तेन भुक्त्वान्नं वैयूहीं प्राप्य शुद्धयति॥७७॥**
विश्वास-प्रस्तुतिः विप्रानैकान्तिनः प्राज्ञानृत्विजः शान्तिकर्मसु। गोभूधान्यहिरण्याद्यैः प्रभूतैः परितोषयेत्॥७८॥
टीका प्राज्ञ तथा एकान्तिक वैष्णव ब्राह्मणों को शान्तिकर्म में आमंत्रित करे तथा शान्तिकर्म के पूर्ण करवाने के पश्चात् उन्हें गोप्रदान, धान्य तथा हिरण्य आदि प्रभूत मात्रा में देकर संतुष्ट करना चाहिए ॥ ७८ ॥
मूलम् विप्रानैकान्तिनः प्राज्ञानृत्विजः शान्तिकर्मसु। गोभूधान्यहिरण्याद्यैः प्रभूतैः परितोषयेत्॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अन्ते चैषां प्रकुर्वीत सर्वेषां शान्तिकर्मणाम्। नारायणस्य परमां प्रपत्तिं सर्वपूरणीम्॥७९॥
टीका इस प्रकार पूर्व में कथित सभी शान्तिकर्मों की समाप्ति कर सभी न्यूनाधिक कर्मों की पूरक तथा समृद्धिकारक श्रीनारायण की प्रपत्ति को सम्पन्न करना चाहिए ॥ ७२ ॥
मूलम् अन्ते चैषां प्रकुर्वीत सर्वेषां शान्तिकर्मणाम्। नारायणस्य परमां प्रपत्तिं सर्वपूरणीम्॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः शान्तिं पुण्येषु देशेषु स्वक्षेत्रे स्वगृहेऽपि वा। कुर्यात्पुण्येषु कालेषु स्वजन्मादिषु वा पुनः॥८०॥
टीका ये शान्तिकर्म पुण्य तीर्थ तथा प्रदेशों में, अपने तीर्थ या क्षेत्रों में, अपने निवास पर, किसी पुण्य काल, पुण्यकारी मुहूर्त में तथा अपने जन्मनक्षत्र अथवा जन्मदिवसादि के समय भी करना चाहिए ॥ ८० ॥
मूलम् शान्तिं पुण्येषु देशेषु स्वक्षेत्रे स्वगृहेऽपि वा। कुर्यात्पुण्येषु कालेषु स्वजन्मादिषु वा पुनः॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ध्यायन्नाधारशक्त्यादिपारिषद्यान्तदेवताः। नामभिर्वरयेद्विद्वान्परमायां विपश्चितः॥८१॥
टीका परमा शान्ति कर्म के अवसर पर विद्वान् आचार्य के द्वारा आधार-शक्ति से आरम्भ कर पारिषद्-देवता तक के देवगणों का ध्यान करते हुए उनके नामादि को बतलाते हुए उनका वरणादि करना चाहिए ॥ ८१ ॥
मूलम् ध्यायन्नाधारशक्त्यादिपारिषद्यान्तदेवताः। नामभिर्वरयेद्विद्वान्परमायां विपश्चितः॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः आसनेषु यथाकाममुपवेश्य यथाक्रमम्। पाद्यमर्घ्यंतथा भोगान्दद्यात्तेभ्यश्च मन्त्रतः॥८२॥
टीका आधारशक्ति आदि स्थानों पर वरण किये गये ब्राह्मणों के द्वारा उन उन मन्त्रों की एक सौ आठ बार आवृत्ति से होम करवाया जाता है। आधारशक्ति आदि के स्थण्डिल पर उन सभी की अर्चा का कार्य भी स्वयं अथवा ब्राह्मणादि से करवाना चाहिए। (यह सभी जप तथा होमादि कार्य यज्ञमान शिष्य स्वयं भी कर सकता है)॥८२-८४॥
मूलम् आसनेषु यथाकाममुपवेश्य यथाक्रमम्। पाद्यमर्घ्यंतथा भोगान्दद्यात्तेभ्यश्च मन्त्रतः॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः स्नातेभ्यश्च यथाकामं वस्त्रभूषानुलेपनम्। माल्यानि धूपदीपौ च दद्याद्भक्त्या धनानि च॥८३॥
टीका आधारशक्ति आदि स्थानों पर वरण किये गये ब्राह्मणों के द्वारा उन उन मन्त्रों की एक सौ आठ बार आवृत्ति से होम करवाया जाता है। आधारशक्ति आदि के स्थण्डिल पर उन सभी की अर्चा का कार्य भी स्वयं अथवा ब्राह्मणादि से करवाना चाहिए। (यह सभी जप तथा होमादि कार्य यज्ञमान शिष्य स्वयं भी कर सकता है)॥८२-८४॥
मूलम् स्नातेभ्यश्च यथाकामं वस्त्रभूषानुलेपनम्। माल्यानि धूपदीपौ च दद्याद्भक्त्या धनानि च॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः अष्टोत्तरशतावृत्त्या जपं होमं च कारयेत्। स्थण्डिले तत्तदर्चांच सर्वं कुर्वीत वा स्वयम्॥८४॥
टीका आधारशक्ति आदि स्थानों पर वरण किये गये ब्राह्मणों के द्वारा उन उन मन्त्रों की एक सौ आठ बार आवृत्ति से होम करवाया जाता है। आधारशक्ति आदि के स्थण्डिल पर उन सभी की अर्चा का कार्य भी स्वयं अथवा ब्राह्मणादि से करवाना चाहिए। (यह सभी जप तथा होमादि कार्य यज्ञमान शिष्य स्वयं भी कर सकता है)॥८२-८४॥
मूलम् अष्टोत्तरशतावृत्त्या जपं होमं च कारयेत्। स्थण्डिले तत्तदर्चांच सर्वं कुर्वीत वा स्वयम्॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः सर्वत्राग्निमुखस्यांते समिदन्नघृताहुतीः। भोजयित्वा द्विजवरान्समभ्यर्च्य विसज्जयेत्॥८५॥
टीका अष्टोत्तर शत आवृत्ति को देते हुए किया जानेवाला होम अग्निस्थापन के बाद अग्निमुख होने पर समिधा, अन्न, घृतादि की आहुति प्रदान कर करते हैं (अर्थात् अष्टोत्तरशत संख्या में समिधायें, अन्न तथा घृत की आहुतियां प्रदान करते हैं। ) होम की समाप्ति पर उत्तम ब्राह्मणों को भोजन करवाकर तथा उनकी यथोत्साह अर्चना कर उन्हें प्रस्थान करवाए। ८५ ॥
मूलम् सर्वत्राग्निमुखस्यांते समिदन्नघृताहुतीः। भोजयित्वा द्विजवरान्समभ्यर्च्य विसज्जयेत्॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः **चतुरो वासुदेवादीन्वैयूह्यां वरयेद्विजान्।** **मूर्त्त्याख्यायां द्वादशैव केशवादीननुक्रमात्॥८६॥**
टीका वैयूही शान्तिकर्म में वासुदेवादि चार व्यूह देवों के नाम पर चार ब्राह्मणों का वरण करना चाहिए। मूर्तिनामक शान्ति कर्म में केशवादि क्रम के बारह ब्राह्मणों का वरण करे॥८६॥
मूलम् **चतुरो वासुदेवादीन्वैयूह्यां वरयेद्विजान्।** **मूर्त्त्याख्यायां द्वादशैव केशवादीननुक्रमात्॥८६॥**
विश्वास-प्रस्तुतिः मत्स्यं कर्मं वराहञ्च नृसिंहं वामनं तथा। वैभव्यां वरयेद्विप्रान्यथेच्छमितरानपि॥८७॥
टीका वैभवी शान्तिकर्म में मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह तथा वामन नामक पांच ब्राह्मणों का वरण करे तथा इच्छानुसार अन्य वरण कर इसे परशुरामादि दस संख्या तक किया जा सकता है ॥ ८७ ॥
मूलम् मत्स्यं कर्मं वराहञ्च नृसिंहं वामनं तथा। वैभव्यां वरयेद्विप्रान्यथेच्छमितरानपि॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः आनन्त्याञ्चतुरोऽनन्तशेषनागेन्द्रभूधरान्। गारुड्याङ्गरुडं तार्क्ष्यंवैनतेयं पतत्पतिम्॥८८॥
टीका आनन्ती शान्तिकर्म में अनन्त, शेष, नागेन्द्र तथा भूधर नामक चार ( संख्या में ब्राह्मणों का वरण करे तथा गारुडी शांतिकर्म में तार्क्ष्य, वैनतेय तथा पतत्पति नामक तीन ब्राह्मणों का वरण करें ॥ ८८ ॥
मूलम् आनन्त्याञ्चतुरोऽनन्तशेषनागेन्द्रभूधरान्। गारुड्याङ्गरुडं तार्क्ष्यंवैनतेयं पतत्पतिम्॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः गजाननाद्यैः सहितं विष्वक्सेनं तदर्चने। सौदर्शिन्यां शंखगदाशार्ङ्गखङ्गैः सुदर्शनम्॥८९॥
टीका विष्वक्सेनी शान्तिकर्म में गजानन आदि (गजानन, जयत्सेन, हरिर्वक्त्र, काल, प्रकृति, संज्ञादि) पारिषद सहित विष्वक्सेन का वरण करे तथा सौदर्शिनी शान्तिकर्म में शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्ग के साथ सुदर्शन नाम से वरण करना चाहिए || ८९ ॥
मूलम् गजाननाद्यैः सहितं विष्वक्सेनं तदर्चने। सौदर्शिन्यां शंखगदाशार्ङ्गखङ्गैः सुदर्शनम्॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ऋद्धया समृद्धया कीर्त्या च श्रीशान्त्यां वरयेच्छ्रियम्। क्षमां प्रतिष्ठां बहुलां भुवञ्चाथ भुवोऽर्चने॥९०॥
टीका श्री शान्तिकर्म में ऋद्धि, समृद्धि तथा कीर्ति के सहित श्री लक्ष्मी देवी का वरण तथा भूशान्ति के कर्म में क्षमा, प्रतिष्ठा तथा बहुला के साथ श्री पृथ्वी देवी का वरण किया जावे॥९०॥
मूलम् ऋद्धया समृद्धया कीर्त्या च श्रीशान्त्यां वरयेच्छ्रियम्। क्षमां प्रतिष्ठां बहुलां भुवञ्चाथ भुवोऽर्चने॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः गुरूंस्तदर्च्यान्विप्रान्वा विधिनाभ्यर्च्य शक्तितः। यद्दद्यात्सा पराशान्तिः सर्वपातकनाशिनी॥९१॥
टीका अपने गुरुभूत, आचार्य, उनके द्वारा मान्य विद्वान् ब्राह्मणों की विधिपूर्वक अर्चना करते हुए उन्हें जो भी दक्षिणादि प्रदान की जाती है वह सभी पातकों का विनाश कर परमशान्तिकर्म ( विशिष्ट रूप में ) मानी गयी है ॥ ९१ ॥
मूलम् गुरूंस्तदर्च्यान्विप्रान्वा विधिनाभ्यर्च्य शक्तितः। यद्दद्यात्सा पराशान्तिः सर्वपातकनाशिनी॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः प्रधानं स्थण्डिलं मध्ये महावेद्यां प्रकल्पयेत्। प्रत्यङ्मुखः प्राङ्मुखः सन् सर्वञ्च परिकल्पयेत्॥९२॥
टीका महावेदी पर प्रधान स्थण्डिल सदा पश्चिमामिमुखी बनाया जावे तथा अन्य सभी पूर्व-मुख के रहने चाहिए॥९२॥
मूलम् प्रधानं स्थण्डिलं मध्ये महावेद्यां प्रकल्पयेत्। प्रत्यङ्मुखः प्राङ्मुखः सन् सर्वञ्च परिकल्पयेत्॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः इत्येवं शान्तयः प्रोक्ताः संस्काराश्च द्विजन्मनाम्। यथार्हमितरेषाञ्च योजनीयः क्रियाविधिः॥९३॥
टीका इस प्रकार मैंने द्विजों के लिये किये जाने वाले संस्कारों तथा शान्ति कर्मों का कथन किया। इनकी योजना योग्यतानुसार इनमें तथा इसी प्रकार अन्य जन में रखी जाए तथा अनुष्ठानादि की विधि भी तदनुरूप रहे॥९३॥
मूलम् इत्येवं शान्तयः प्रोक्ताः संस्काराश्च द्विजन्मनाम्। यथार्हमितरेषाञ्च योजनीयः क्रियाविधिः॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः इतिसंस्कारसम्पन्नः सम्प्राप्य गुरुवश्यताम्। आराधनं हरेरेव कुर्वाणः कर्म चोदितम्॥९४॥
टीका इस प्रकार बतलाये गये विधान से सभी संस्कारों से सम्पन्न होकर तथा अपने आचार्य की आज्ञा में स्थित रहते हुए उनका सान्निध्य प्राप्त करते हुए श्रीनारायण का ही समाराधन रूप विहित कर्मों का पालन करना चाहिए ॥ ९४ ॥
मूलम् इतिसंस्कारसम्पन्नः सम्प्राप्य गुरुवश्यताम्। आराधनं हरेरेव कुर्वाणः कर्म चोदितम्॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः **तदप्रीतिकराण्याशु प्रतिषिद्धानि वर्जयेत्।** **पश्यन्सदागमैः स्वेशफलोपायविरोधिनः॥९५॥**

तथा कुदृष्टिकृपणशास्त्राणि परिवर्जयेत्। भक्त्या परमया नित्यमचैयेत्पुरुषोत्तमम्॥९६॥

कुदृष्टिकल्पितान्देवान्कामजांश्च विवर्जयेत्॥९७॥

टीका ऐसे कर्म जो श्रीहरि के चित्त को कलुषित करते हों तथा जो प्रतिषिद्ध कर्म हों तो ऐसे कर्मों का आचरण नहीं करना चाहिए। आगमादि वैष्णवशास्त्रों के द्वारा अपने इष्ट तथा फल की प्राप्ति के प्रतिकूल एवं अशुद्ध दृष्टि से परिकल्पित शास्त्रों का भी परित्याग करना उचित है। अतएव परमश्रद्धा भक्ति से नित्य ही श्रीपुरुषोत्तम विष्णु की अर्चना करे तथा दृष्टि को या पुरुषोत्तम से भिन्न देवगण की उपासना को वर्जित करे तथा विशेष कर काम्य कर्मों की ओर अभिमुख न हो॥ ९५-९७॥
मूलम् **तदप्रीतिकराण्याशु प्रतिषिद्धानि वर्जयेत्।** **पश्यन्सदागमैः स्वेशफलोपायविरोधिनः॥९५॥**

तथा कुदृष्टिकृपणशास्त्राणि परिवर्जयेत्। भक्त्या परमया नित्यमचैयेत्पुरुषोत्तमम्॥९६॥

कुदृष्टिकल्पितान्देवान्कामजांश्च विवर्जयेत्॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः धृतोर्द्धपुण्ड्रश्चद्यैरंकितो हरिलाञ्छनैः। मुद्रापुण्ड्राङ्कनादीनि तामसानि विवर्जयेत्॥९८॥
टीका वह स्वयं ऊर्ध्वपुण्ड्र को तथा श्रीहरि के चक्रादि आयुधों से अंकित शरीर का रहता है। अतः तामस गुणवाले शास्त्रों में परिकल्पित मुद्रादि तथा अन्य देवता के पुण्ड्रादि का धारण करना भी छोड़ दे। (जो कि लक्ष्यविरुद्ध आचरण के हों ) ॥ ९८ ॥
मूलम् धृतोर्द्धपुण्ड्रश्चद्यैरंकितो हरिलाञ्छनैः। मुद्रापुण्ड्राङ्कनादीनि तामसानि विवर्जयेत्॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः आचार्य प्रमुखान्नित्यं विशेषेण प्रसादयेत्। प्रच्युतान्प्राकृताँश्चैवं सर्वत्र परिवर्जयेत्॥९९॥
टीका वह अपने आचार्य आदि प्रमुख वैष्णव जन को विशेष रूप से प्रसन्न रखता रहे तथा वृत्ति को छोड़ने या उपेक्षा करनेवाले और अन्य प्राकृतजन की सदा ही उपेक्षा करे तथा उनकी संगति में न रहे ॥ ९९||
मूलम् आचार्य प्रमुखान्नित्यं विशेषेण प्रसादयेत्। प्रच्युतान्प्राकृताँश्चैवं सर्वत्र परिवर्जयेत्॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः आतिष्ठेत्पारमैकान्त्यमपायानपमार्जयन्। अपायवदिहैकान्त्यमशुद्धकरणान्वयात्। निरापायं भवेत्प्राप्यं तद्विष्णोः परमं पदम्॥१००॥
टीका अपने उपायुक्त दोषों का परिमार्जित करते हुए पारमैकान्त्य भाव में स्थित रहे क्योंकि अशुद्ध कर्मादि के आचरण से तथा उनसे सम्बन्ध रखने से अपाय के समान दोषवता आ जाती है। अतएव सदा अपायों से रहित होकर यदि रहेगा तो यही कम श्रीनारायण के परमपद को प्राप्त स्थिति निर्माण करेगा ॥ १०० ॥
मूलम् आतिष्ठेत्पारमैकान्त्यमपायानपमार्जयन्। अपायवदिहैकान्त्यमशुद्धकरणान्वयात्। निरापायं भवेत्प्राप्यं तद्विष्णोः परमं पदम्॥१००॥

इति श्रीनारदपञ्चरात्रे भारद्वाजसंहितायां परिशिष्टे द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
(इति श्रीनारदपञ्चरात्र भारद्वाजसंहितायां परिशिष्टे टीकायां द्वितीयोऽध्यायः॥२॥)