अथ प्रथमोऽध्यायः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूय एवर्षिभिः पृष्टो भरद्वाजस्तपोनिधिः॥ अनुक्तानब्रवीद्धर्मानुक्तांश्चैव प्रसादयन्॥१॥
टीका
न्यासोपदेश को सुनकर ऋषिगणों के द्वारा भरद्वाजमुनि से इन्हीं विषयों पर पूछे ग प्रश्नों को सुनकर पूर्व में कथित न्यासोपदेश को और अधिक स्पष्ट करने के सा इसी क्रम में अनुक्त तत्वों को भी दिखलाते हुए भरद्वाज मुनि पुनः उनसे कह लगे॥ १॥मूलम्
भूय एवर्षिभिः पृष्टो भरद्वाजस्तपोनिधिः॥ अनुक्तानब्रवीद्धर्मानुक्तांश्चैव प्रसादयन्॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मो वर्णाश्रमादीनां कार्त्स्न्येन मुनिसत्तमाः॥ शिष्टो व्याससमासाम्यामाषैर्दिव्यैस्तथागमैः॥२॥
टीका
हे मुनिजन! वर्ण तथा आश्रम आदि के धर्मों को ऋषि प्रोक्त वेदादि, धर्मशास्त्र तथ दिव्यआगमों के द्वारा (पञ्चरात्र संहिता आदि से विस्तार तथा संक्षेप में दिखलाय या उपदिष्ट किया गया है) तथा कहीं विस्तार तथा संक्षेप को मिलाक अनतिसंकोच तथा विस्तार से भी बतलाया है || २ ||मूलम्
धर्मो वर्णाश्रमादीनां कार्त्स्न्येन मुनिसत्तमाः॥ शिष्टो व्याससमासाम्यामाषैर्दिव्यैस्तथागमैः॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र केचित्परं तत्त्वं रजोमीलितदृष्टयः॥ अपश्यन्तोऽभिजानन्ति धर्मस्य न परां गतिम्॥३॥
टीका
परन्तु कुछ रजोगुण से युक्त दृष्टि वाले बनकर आर्षदिव्यादि शास्त्रों को न देखते हु धर्म की परमगति को नहीं समझ पाते हैं, अतएव वे उपयुक्त न्यायादि से परिशीलि फलभूत निर्णय से वंचित से हैं ॥ ३ ॥मूलम्
अत्र केचित्परं तत्त्वं रजोमीलितदृष्टयः॥ अपश्यन्तोऽभिजानन्ति धर्मस्य न परां गतिम्॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचित्तु सत्त्वसम्पन्नाः केशवेनावलोकिताः। सारासारविदः प्राज्ञाः परं धर्मं विजानते॥४॥
टीका
और कुछ जो सत्व सम्पन्न हैं तथा इसी कारण श्रीविष्णु से जन्म के समय से ही सम्बद्ध हैं तथा उनके विलोकन के सौभाग्य से युक्त हो चुके हैं वे अपने सत्वगुण की सम्पत्तिगत विशेषता के कारण सारासार के अभिज्ञ होकर तीक्ष्णबुद्धि के द्वारा परमधर्म मोक्ष को जाननेवाले हो जाते हैं || ४ ||मूलम्
केचित्तु सत्त्वसम्पन्नाः केशवेनावलोकिताः। सारासारविदः प्राज्ञाः परं धर्मं विजानते॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदैकान्त्यङ्गता विष्णो भगवत्यात्मभावने। तद्वैष्णवा भागवताः सन्त इत्यपि ते स्मृताः॥५॥
टीका
जो आत्मभावन श्री भगवान् विष्णु के विषय में प्रपत्ति आदि से एकान्तभाव को प्राप्त कर चुके हैं वे वैष्णव तथा भागवत जन ही सन्त कहे जाते हैं || ५ ||मूलम्
यदैकान्त्यङ्गता विष्णो भगवत्यात्मभावने। तद्वैष्णवा भागवताः सन्त इत्यपि ते स्मृताः॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नियोक्ता भगवान्विष्णुर्नियोगस्तस्य वै श्रुतिः। नियोज्याः सत्त्वसम्पन्ना मुख्या मोक्षार्थचिन्तकाः॥६॥
टीका
ज्ञानादि षड्गुण सम्पन्न भगवान् श्रीविष्णु इस धर्म के नियोजक देव हैं तथा श्रुति (वेद) उस पुरुष का नियोग (आज्ञारूप ) है। इस श्रुति प्रतिपादित धर्म में नियुक्ति के योग्य अधिकारी वे हैं जो सात्विकगुणों से सम्पन्न तथा मोक्षतत्व के विचारक हों, वे ही यहाँ मुख्य अधिकारी माने गये हैं || ६ ॥मूलम्
नियोक्ता भगवान्विष्णुर्नियोगस्तस्य वै श्रुतिः। नियोज्याः सत्त्वसम्पन्ना मुख्या मोक्षार्थचिन्तकाः॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यथैवाभिमन्यन्ते सर्वमेतत्कुदृष्टयः। यतो दूरतरास्ते हि परस्य परमात्मनः॥७॥
टीका
परन्तु इस विषय में जिनकी दृष्टि स्पष्ट नहीं है ऐसे जन इस मोक्षादि तत्व को दूसरी ही पद्धति से लेकर समझने की बात करते हैं। क्योंकि वे सभी पदार्थादि से परे रहने वाले परमात्मा श्रीहरि से अपनी निष्ठा तथा आचरणों के कारण दूर बने हुए हैं॥७॥मूलम्
अन्यथैवाभिमन्यन्ते सर्वमेतत्कुदृष्टयः। यतो दूरतरास्ते हि परस्य परमात्मनः॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा पृथग्विधा वर्णा यथा तत्रैव चाश्रमाः। विविक्तमतयस्तत्र तथा भागवता अपि॥८॥
टीका
जैसे ब्राह्मणादि वर्ण परस्पर भिन्नरूपादि वाले हैं तथा इसी प्रकार जैसे ब्रह्मचर्यादि आश्रम भी परस्पर भिन्नरूपादि वाले हैं तथा विभिन्नबुद्धि सम्पन्न होते हैं। इसी प्रकार विविध मतों से युक्त बुद्धिवाले सत्वसम्पन्न अनन्यबुद्धि भागवत भी अनेक प्रकार के हैं जो वर्ण तथा आश्रमों में स्थित हैं। (ये भी भक्त, प्रपन्न तथा शुद्ध, मिश्र आदि भेदों के कारण अनेक भेदों से युक्त हैं ) ॥८॥मूलम्
यथा पृथग्विधा वर्णा यथा तत्रैव चाश्रमाः। विविक्तमतयस्तत्र तथा भागवता अपि॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईशभक्तिफलो पाया ईशैकफलसाधनाः। द्विधा ह्येकान्तिनस्ते च शुद्धा मिश्रा इति द्विधा॥९॥
टीका
परमेश श्रीविष्णु, उनकी भक्ति को क्रमशः जो फल तथा उपायरूप में माननेवाले भक्ति के उपाय निष्ठ रहने वाले प्रथम प्रकार के तथा भगवान् श्रीविष्णु को परमेश मानकर उन्हें ही एकमात्र फल तथा उसकी प्राप्ति का साधन भी मानते हैं ये दूसरे प्रकार के हैं। ये दोनों ही एकान्ती हैं तथा इनके प्रत्येक के शुद्ध तथा मिश्ररूप में दो प्रकार होते हैं || ९ ||मूलम्
ईशभक्तिफलो पाया ईशैकफलसाधनाः। द्विधा ह्येकान्तिनस्ते च शुद्धा मिश्रा इति द्विधा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशुद्धज्ञानकर्माणः श्रौतदिव्यार्षवर्त्मभिः। भक्तिनिष्ठाः परं ब्रह्म नारायणमुपासते॥१०॥
टीका
इनमें प्रथम " ईशभक्तिफलोपाय स्वरूप वाले ( वैष्णव ) फल की आकांक्षा या आ से हीन, ज्ञान तथा कर्मयोग के प्रति निष्ठावान् होते हैं जो भक्ति को साधनरूप लेते हैं। ये भक्तिनिष्ठ होकर मोक्षोपाय में विहित श्रौत दिव्य आगम तथा धर्मशास्त्रादि के द्वारा कथित पद्धति में स्थित रहकर उनका अनुसरण करते नारायणरूप परब्रह्म की उपासना करते हैं ॥ १० ।मूलम्
विशुद्धज्ञानकर्माणः श्रौतदिव्यार्षवर्त्मभिः। भक्तिनिष्ठाः परं ब्रह्म नारायणमुपासते॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणैकशरणाः फलं नारायणः स्वयम्। तैस्तैः स्वादुत्तमैः कल्पैर्यजन्तोऽनुभवन्ति वै॥११॥
टीका
ऐसे जन एकमात्र नारायण को ही एकनिष्ठ भाव से उपाय मानते हैं तथा स्व नारायण ही उनका फलभूत प्राप्तव्य होता है। वे श्रौत, दिव्य तथा आर्ष कल्पों कथित उत्तम विधियों के द्वारा अपने इष्ट की आराधना कर उनका दर्शनादि अनुग्र का अनुभव करते हैं॥ ११ ॥मूलम्
नारायणैकशरणाः फलं नारायणः स्वयम्। तैस्तैः स्वादुत्तमैः कल्पैर्यजन्तोऽनुभवन्ति वै॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये तु वाकनिषन्निष्ठास्तत्तत्संस्कारसंस्कृताः। ते वै भागवताः शुद्धा वासुदेवैकयाजिनः॥१२॥
टीका
इसी प्रकार जो ईश्वरोक्त मूलवाणी वेद तथा उपनिषद् आदि परमविद्या के द्वा विहित संस्कारों से संस्कृत होकर पवित्रभाव से वासुदेव मात्र की यज्ञादि आराधना करनेवाले अनन्य ( एकनिष्ट) भक्त हैं उन्हें शुद्ध तथा भागवत समझन चाहिए ॥ १२ ॥मूलम्
ये तु वाकनिषन्निष्ठास्तत्तत्संस्कारसंस्कृताः। ते वै भागवताः शुद्धा वासुदेवैकयाजिनः॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रय्या विहितसंस्कारास्त्रय्यन्ते परिनिष्ठिताः। यजन्त्येकान्तिनो मिश्रा विष्णुं विश्वतनुं हरिम्॥१३॥
टीका
जिनके संस्कार वेदत्रयी से सम्पन्न हैं तथा इसी त्रयी के अन्त या शीर्षभूत उपनिषद् वेदान्त शास्त्र में जो परिनिष्ठित ज्ञानवाले हैं वे एकान्तभाव से विश्व के शरीर सर्वव्यापी अन्तर्यामी श्री नारायण की स्वविहित यज्ञादि में श्रोतादि विधानों आराधना करते हैं। ये भागवत भक्त मिश्र कोटि के समझना चाहिए ॥ १३ ॥मूलम्
त्रय्या विहितसंस्कारास्त्रय्यन्ते परिनिष्ठिताः। यजन्त्येकान्तिनो मिश्रा विष्णुं विश्वतनुं हरिम्॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयते यत्र यष्टव्या यादृशी या हि देवता। तादृशी सा भवेत्तत्र यजन्त्येकान्तिनो हरिम्॥१४॥
टीका
तथा वेद श्रुति के द्वारा जिस कर्म में जिस देवता के गुण विग्रह आदि दिखलाक उसका यजन उपदष्टि हो तो ऐसी जो भी देवता कर्म में विहित है उसी ( प्रकार की देवता में अन्तर्यामी हरि स्थित हैं ऐसा मान कर एकान्तभाव से उपासना करते ( तो उसी में श्रीहरि स्थित होकर ( सर्वान्तव्यापी होने के कारण) उसके कर्मों व फल देकर उसकी सिद्धि प्रदान कर देते हैं | | १४ ||मूलम्
श्रूयते यत्र यष्टव्या यादृशी या हि देवता। तादृशी सा भवेत्तत्र यजन्त्येकान्तिनो हरिम्॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि वाक् शची दुर्गा धाता शक्रस्त्रियम्बकः। इति नानाभिधारूपो लक्ष्मीशः स्वयमिज्यते॥१५॥
टीका
जैसे विविध धर्मादि अनुष्ठानों में वाणी (सरस्वती), इन्द्राणी, दुर्गा, ब्रह्मा, इन्द्र तथा रुद्र आदि के रूप में जहाँ उपासना की जाती है वहां भी अनन्य भाव से यही मानना चाहिए कि स्वयं लक्ष्मीश श्रीनारायण ही अपने इन विराट्रूपों में यहाँ यज्ञादि से उपासित (हो रहे) हैं॥ १५ ॥मूलम्
तथा हि वाक् शची दुर्गा धाता शक्रस्त्रियम्बकः। इति नानाभिधारूपो लक्ष्मीशः स्वयमिज्यते॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवात्मपृथिव्याद्या यतो लक्ष्मीपतेर्वपुः। अतस्तैरौपनिषदैरिज्यतेऽखिलविग्रहः॥१६॥
टीका
और जैसे श्रीहरि के सभी जीव तथा पृथ्वी आदि सभी अंश स्वरूप माने गये हैं । अतः उपनिषद् के विद्वानों (वेदान्तशास्त्रवेत्ताजन) के द्वारा ब्रह्म को सभी के उपादानभूत शरीर के रूप में माने जाने के कारण अन्तर्यामी तथा विराट्रूप में लक्ष्मीपति के शरीर का अर्चन किया जाता है। ( इस प्रकार परमैकान्तिक रूप में श्रीहरि एकमात्र शरण्य तथा उपास्य बन जाने के कारण अन्तार्यामी रूप हैं, अत: एकनिष्ठता सुरक्षित रहती है ) ॥ १६ ॥मूलम्
तथैवात्मपृथिव्याद्या यतो लक्ष्मीपतेर्वपुः। अतस्तैरौपनिषदैरिज्यतेऽखिलविग्रहः॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शुद्धं परं ब्रह्म विशुद्धपरिवारकम्। इज्यते विविधैर्भोगैर्नित्यं च प्रतिमादिषु॥१७॥
टीका
इसलिए शुद्धरूप वाला परब्रह्म ही दिव्य विग्रह में स्थित तथा विशुद्ध देवीभूषण दिव्यायुधगण आदि परिवार से युक्त प्रतिमादि में विविध समर्पणीय भोगों से नित्य अर्चित होता है (जो मिश्र रूप में अन्तर्यामी तो है पर प्रतिमादि में नित्य एवं शुद्ध यजनीय भी है ) ॥ १७॥मूलम्
ततः शुद्धं परं ब्रह्म विशुद्धपरिवारकम्। इज्यते विविधैर्भोगैर्नित्यं च प्रतिमादिषु॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशुद्धा ब्रह्मरुद्राद्या जीवा विष्णोर्विभूतयः। तान्वै कुदृष्टयः साम्यात्परत्वादप्युपासते॥१८॥
टीका
जो ब्रह्मा तथा रुद्ररूप अशुद्ध कर्मभाव से रहने से जीवभूत होकर देवभाव से अर्चित भी हो तो भी वे श्रीविष्णु की विभूति के रूप में मान्य हैं। उनको समता का स्थान देकर या परमदेवता के रूप की भावना तथा बुद्धि से जो उपासना करते हैं वे तात्विकज्ञान से अनभिज्ञ हैं || १८ ||मूलम्
अशुद्धा ब्रह्मरुद्राद्या जीवा विष्णोर्विभूतयः। तान्वै कुदृष्टयः साम्यात्परत्वादप्युपासते॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरत्वेन चाप्येता ये यजन्ति हि देवताः। तेषां भवति नैकान्त्यमतो नैवाप्नुयुः परम्॥१९॥
टीका
और जो दूसरे पक्ष के विद्वान् हैं तथा जो इन्हें अपररूप या स्थिति में अर्चित करते उपास्य मानते हैं तथा देवतारूप में उनकी यज्ञादि धर्म कार्यों से उपासना करते उनका एकान्त्यभाव नहीं बनता। अतः वे परं निःश्रेयस भाव को (मोक्ष को) प्राप् नहीं कर सकते ॥ १९ ॥मूलम्
अपरत्वेन चाप्येता ये यजन्ति हि देवताः। तेषां भवति नैकान्त्यमतो नैवाप्नुयुः परम्॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गभावेन शुद्धानामर्चा प्रियतमा हरेः। या स्वतन्त्रधिया तत्र सा निहन्ति विविक्तताम्॥२०॥
टीका
परन्तु शुद्धभाववाले नित्यमुक्त अनन्तादि की अङ्गभाव में ( अमुख्यरूप से भी ) अर्चन करना श्रीहरि को अत्यन्त प्रिय होती है परन्तु यदि यज्ञादि क्रियाएं किसी (अन्य देवता) की स्वतन्त्र निष्ठा से की जाए तो उससे भगवन्निष्ठा तथा एकान्त्यभाव के क्षति पहुँचने के कारण यह कार्य निषिद्ध माना जाता है ॥ २० ॥मूलम्
अङ्गभावेन शुद्धानामर्चा प्रियतमा हरेः। या स्वतन्त्रधिया तत्र सा निहन्ति विविक्तताम्॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भावनांनां तु कालुष्यादशुद्धिः कर्मणां भवेत्। तस्मात्तेषां विशुद्धयर्थं विष्णुमेव सदा भजेत्॥२१॥
टीका
तथा ऐसे कर्म में भावना के कलुषित हो जाने के कारण कर्म भी शुद्धरूप में नहीं होते हैं। अतएव समस्त कर्मों की विशुद्धि के लिये सदा श्रीहरि की ही उपासना करनी चाहिए ॥ २१ ॥मूलम्
भावनांनां तु कालुष्यादशुद्धिः कर्मणां भवेत्। तस्मात्तेषां विशुद्धयर्थं विष्णुमेव सदा भजेत्॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाह्यः सदसतां नास्ति भेदः प्रायेण कर्मसु। सङ्कल्पादेव भिन्नानि स हेतुर्बन्धमोक्षयोः॥२२॥
टीका
जो भक्त एकान्ती हैं उनके कर्म में प्रायः बाह्य भेद नहीं माना जाता है (किन् संकल्प के कारण ही भिन्नता वाले सन्तों के कर्म भगवत् - प्राप्ति पर्यन्त फलाग्रह रहित होते है ) यह भेद प्रायः कर्मों में तथा संकल्प से भिन्नता रखता है तथा यही बन्धन एवं मोक्ष का कारण बनता है (असत् संकल्प बन्ध का तथा सत्संकल्प मोक्ष क हेतु बनता है ) || २२ ॥मूलम्
बाह्यः सदसतां नास्ति भेदः प्रायेण कर्मसु। सङ्कल्पादेव भिन्नानि स हेतुर्बन्धमोक्षयोः॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजेच्छुद्धानशुद्धान्वा साम्यात्पारम्यतोऽपि वा। लभते विविधान्कामान्विभोस्तस्यैव शासनात्॥२३॥
टीका
शुद्ध तथा अशुद्ध के साम्य या परमता के आधार पर यजन (अर्चना ) को किय जाता है जो ऐसी विविध कामनाओं को दिलवाता ( प्राप्त करवाता ) है जो परमेश श्रीविष्णु के अनुमत या शासन से होती है ( किन्तु इनसे मोक्ष नहीं प्राप होता है ) ॥२३॥मूलम्
यजेच्छुद्धानशुद्धान्वा साम्यात्पारम्यतोऽपि वा। लभते विविधान्कामान्विभोस्तस्यैव शासनात्॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिभिः प्रजापतेर्भक्तः सप्तभिः शङ्करस्य तु। विंशत्याग्नीन्द्रसूर्यादेर्जन्मभिर्वैष्णवो भवेत्॥२४॥
टीका
प्रजापति ब्रह्मा का आराधक भक्त तीन जन्मों के बाद शंकर का भक्त सात जन्मों के बाद तथा अग्नि, इन्द्र, सूर्य आदि का उपासक बीस जन्मों के बाद वैष्णव भक्त के रूप में जन्म लेता है ||२४||मूलम्
त्रिभिः प्रजापतेर्भक्तः सप्तभिः शङ्करस्य तु। विंशत्याग्नीन्द्रसूर्यादेर्जन्मभिर्वैष्णवो भवेत्॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सांख्येन न योगेन शैवेनापि न तत्पदम्। यदौपनिषदैः प्राप्यं पञ्चरात्रविशारदैः॥२५॥
टीका
रजस्तमो मुलक दर्शनादि के अनुगमन से मोक्ष प्राप्ति का विचार कर कहते हैं कि यह मोक्ष कपिलादि प्रणीत सांख्य-शास्त्र के तथा पातञ्जल या हिरण्यगर्भीय योग- शास्त्र के, पाशुपतादिमत के शैवागम के अनुगमन या सिद्धांतो के मानने पर वैसा (मोक्ष) प्राप्त नहीं होता जैसा कि उपनिषद् के सिद्धान्तों के अथवा पञ्चरात्र - आगम के विद्वानों के अनुगमन करने पर सहज ही प्राप्त हो जाता है ॥२५॥मूलम्
न सांख्येन न योगेन शैवेनापि न तत्पदम्। यदौपनिषदैः प्राप्यं पञ्चरात्रविशारदैः॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकैकं वापि नैकान्ती भजेन्नैकान्त्यलक्षणम्। कालेनैकान्त्यमाप्नोति नरो विगतकल्मषः॥२६॥
टीका
मनुष्य इन पूर्व कथित मार्गों में से एक का भी अनुसरण करते हुए अन्य देवता की उपासना करे तो भी समय आने पर या जन्मादि की अवधि के पश्चात् विगतकल्मष या पवित्रता प्राप्त कर वहीं एकान्ती विष्णु भक्त होकर अन्त में परम मोक्ष को प्राप्त कर लेता है॥२६।मूलम्
एकैकं वापि नैकान्ती भजेन्नैकान्त्यलक्षणम्। कालेनैकान्त्यमाप्नोति नरो विगतकल्मषः॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणैकनिष्ठा ये सात्त्विकास्तान्निबोधत। पुरुषा राजसा ज्ञेया नानादैवतयाजिनः॥२७॥
टीका
अतः जो भगवान् श्रीहरि के एकान्त भक्त या तन्निष्ठ हैं वे सात्विक - आराधक हैं तथा जो अनेक देवताओं के आराधक तथा अर्चनादिकारी हैं वे पुरुष राजस-आराधक कहलाते हैं॥२७॥मूलम्
नारायणैकनिष्ठा ये सात्त्विकास्तान्निबोधत। पुरुषा राजसा ज्ञेया नानादैवतयाजिनः॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाह्या निर्देवताश्चैव तामसाः परिकीर्त्तिताः। रजस्तमोऽभिभूतानां न तु मोक्षः कथंचन॥२८॥
टीका
वे पुरुष जो किसी देवता की आराधना ही नहीं करते हों तो ऐसे निरीश्वरवादी तामस तथा बाह्यजन है। राजस तथा तामस गुणों से अभिभूत जन को ( अन्यदेवतादि के आराधन करने के कारण ) मोक्ष प्राप्ति नहीं होती है । २८ ॥मूलम्
बाह्या निर्देवताश्चैव तामसाः परिकीर्त्तिताः। रजस्तमोऽभिभूतानां न तु मोक्षः कथंचन॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनयः सत्त्वनिष्ठानां लक्षणानि निबोधत। विष्णोर्दास्यैकफलता तदेकोपायता स्थितिः॥२९॥
टीका
हे मुनिजन! अब सात्विक गुणोंवाले श्रीनारायण के सात्विक उपासकों के स्वरूप को बतलाता हूं। इनका श्रीनारायण के दास्यभाव को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्ति ही फल है तथा भगवान् ही इस प्राप्ति के उपायभूत आधार होकर अंग भी हो जाते हैं (अतः इस प्रकार श्रीहरि ही मोक्ष के प्रति उपाय तथा उपेय हैं ) ॥ २९ ॥मूलम्
मुनयः सत्त्वनिष्ठानां लक्षणानि निबोधत। विष्णोर्दास्यैकफलता तदेकोपायता स्थितिः॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदाज्ञाकरणे प्रीतिस्तत्कर्मगुणकीर्त्तनम्। तचिह्नाङ्कितदेहत्वं तदीयाराधने रतिः॥३०॥
टीका
इन सात्विक उपासकों को अपने नित्य तथा नैमित्तिक अनुष्ठानों में भगवदाज्ञारूपी वचनों के पालनादि में प्रीति रखना है तथा उनके कर्मों तथा गुणों का कीर्तन करना, उनके चक्रादि चिन्हों से शरीर को अंकित करना तथा उनकी आराधना में ही रति रखना कार्य हो जाते हैं ||३०||मूलम्
तदाज्ञाकरणे प्रीतिस्तत्कर्मगुणकीर्त्तनम्। तचिह्नाङ्कितदेहत्वं तदीयाराधने रतिः॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदन्यस्पर्शवैराग्यमिन्द्रियार्थेष्वलोलता। आचार्य्याधीनवृत्तित्वमाचार्यार्थांत्मवृत्तिता॥३1॥
टीका
उन्हें भगवन्नारायण के अतिरिक्त अन्य जन के स्पर्शादि तक से विराग हो जाता है तथा इन्द्रियादि के भौतिक आलम्बनों के प्रति लोलुपता नहीं रहती । इनकी कार्यादिवृत्ति भी अपने आचार्यों के प्रति अर्पित होकर उनके अधीन रहती है तथा आत्मवृत्ति भी आचार्यादि के अर्थों के प्रति ही रहनेवाली हो जाती है । ३१ ॥मूलम्
तदन्यस्पर्शवैराग्यमिन्द्रियार्थेष्वलोलता। आचार्य्याधीनवृत्तित्वमाचार्यार्थांत्मवृत्तिता॥३1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधलोभमदालस्यमानमोहविहीनता। सत्यशौचदयाधैर्य्यक्षमासन्तोषयुक्तता॥३२॥
टीका
और वे क्रोध, लोभ, मद, आलस्य, मान तथा मोह से रहित हो जाते हैं। तब उनमें सत्य,, शौच, दया, धैर्य, क्षमा तथा सन्तोष के भाव स्वतः ही उत्पन्न हो जाते हैं॥३२॥मूलम्
क्रोधलोभमदालस्यमानमोहविहीनता। सत्यशौचदयाधैर्य्यक्षमासन्तोषयुक्तता॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतैर्लक्षणैर्युक्ता वैष्णवा वीतकल्मषाः। सभाज्या दर्शनेनैव नावज्ञेयाः कदाचन॥२३॥
टीका
इस प्रकार इन लक्षणों से युक्त वैष्णव भक्त रहते हैं जो अतिशय पवित्र तथा निष्कल्पषरूप वाले हैं। ऐसे वैष्णवजन के दर्शन प्राप्त होने पर पूज्यभाव से उनकी सम्भावना करनी चाहिए तथा इनकी न तो उपेक्षा ही करना चाहिए और न तिरस्कार करना चाहिए | | ३३ ॥मूलम्
इत्येतैर्लक्षणैर्युक्ता वैष्णवा वीतकल्मषाः। सभाज्या दर्शनेनैव नावज्ञेयाः कदाचन॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञैः कुदृष्टिभिर्बाह्यैर्नास्तिकैः संशयात्मभिः। न तु भागवतः किंचित्प्रच्युतैश्व समाचरेत्॥३४॥
टीका
ऐसे लोग जो शास्त्रज्ञान से रहित हैं, जो वेद को प्रमाण मान कर भी उसकी प्रतिपत्ति से विपरीत व्याख्या करते हैं, जो नास्तिक बुद्धि वाले तथा संशयात्मा पुरुष हैं तथा जो तन्त्रादि आगम के व्रतधारी हों तो ऐसे पुरुषों के साथ भागवत वैष्णव कुछ भी आचरण या संसर्ग न रखें ||३४||मूलम्
अज्ञैः कुदृष्टिभिर्बाह्यैर्नास्तिकैः संशयात्मभिः। न तु भागवतः किंचित्प्रच्युतैश्व समाचरेत्॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्याभिजनचारित्रा बान्धवास्तुल्यदृष्टयः। आपाद्य दृष्टयोऽपि स्युर्न कदापि कुदृष्टयः॥३५॥
टीका
और जो बाह्य तथा अन्तररूप में कुल तथा वृत्ति में समानता रखते हों, जो ज्ञानादि में भी बराबर समान हों, ऐसे बान्धवजन यदि आपत्ति में इन पूर्वोक्त आचारों से हीन (विपरीत भाववाले) भी हो जाएं तो ऐसे बान्धवजन बाद में कुदृष्टि नहीं होते (या यदि वैसे ही हो तो वे बान्धव नहीं होंगे ) ॥ ३५ ॥मूलम्
तुल्याभिजनचारित्रा बान्धवास्तुल्यदृष्टयः। आपाद्य दृष्टयोऽपि स्युर्न कदापि कुदृष्टयः॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवाहयज्ञाध्ययनस्पर्शसंवासभोजनम्। एकान्तिनान्तु कर्त्तव्यं तादृशैः सह बान्धवैः॥३६॥
टीका
विवाह, यज्ञादि अनुष्ठान, अध्ययनकाल, स्पर्श, साथ में निवास करना तथा भोजनादि कर्मों में उपयुक्त व्यवहार वाले अपने सम्बन्धी या कुल के व्यक्तियों के साथ भी भागवत अथवा एकान्तीजन को भी सम्बन्ध रखना चाहिए या काम बनाये रखना चाहिए ॥ ३६ ॥मूलम्
विवाहयज्ञाध्ययनस्पर्शसंवासभोजनम्। एकान्तिनान्तु कर्त्तव्यं तादृशैः सह बान्धवैः॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतामनवकाशत्वात्कालांशेषु न लौकिकम्। तस्मादलौकिकैरेव सकलं कर्म कारयेत्॥३७॥
टीका
अपने इष्टदेव के पांच निर्धारित समयों में आराधना से ही रहने के कारण इनके काल भागों में लोकयात्रा या सम्बन्धीजन से सम्पर्क या व्यवहार का समय ही नहीं होगा। अतएव इस समय लोकयात्रा से विमुख अतिरिक्त समय के अंशों में ही इनसे कार्य रखे या इनका कार्य करवाए ॥ ३७॥मूलम्
सतामनवकाशत्वात्कालांशेषु न लौकिकम्। तस्मादलौकिकैरेव सकलं कर्म कारयेत्॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समित्पुष्पहविस्तोयपात्रोपनयनादिषु। अवैष्णवान्विशेषेण न कर्मसु नियोजयेत्॥३८॥
टीका
जैसे यज्ञीय अपेक्षा से समिधाओं, पुष्पपल्लवादि, जल-पात्रों का लाना जैसे कार्यों में विशेषरूप से जो अवैष्णवजन हों तो उनकी नियुक्ति नहीं की जाती है ||३८||मूलम्
समित्पुष्पहविस्तोयपात्रोपनयनादिषु। अवैष्णवान्विशेषेण न कर्मसु नियोजयेत्॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोभोक्तव्यमन्नाद्यमवैष्णवनिवेदितम्। नावैष्णवाय दातव्यं स्वयं विष्णोर्निवेदितम्॥३९॥
टीका
किसी अवैष्णवजन से अर्पित या निवेदित स्वादु अन्नादि का उपभोग या अशनादि नहीं करना चाहिए तथा स्वयं भी श्रीहरि को समर्पित प्रसादादि अन्न को किसी अवैष्णवजन को प्रदान नहीं करना चाहिए ॥ ३९ ॥मूलम्
नोभोक्तव्यमन्नाद्यमवैष्णवनिवेदितम्। नावैष्णवाय दातव्यं स्वयं विष्णोर्निवेदितम्॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये त्ववैष्णवभर्तव्या ये चावैष्णभर्तृकाः। ऐकान्त्यस्योपघातेन न तैः कर्माण्यनापदि॥४०॥
टीका
आपत्ति की स्थिति को छोड़कर यदि जिनका पालन किया जा रहा हो ऐसे पुत्र, स्त्री आदि के वैष्णव न रहने या जो पालन करनेवाले पिता माता आदि भी वैष्णव न हो तो अनैकान्ती भाव के उपघात हो जाने से इनसे भी कार्य तथा सम्बन्ध को दूर रखे और आपत्काल में इसे पालनयोग्य न समझे ॥ ४० ॥मूलम्
ये त्ववैष्णवभर्तव्या ये चावैष्णभर्तृकाः। ऐकान्त्यस्योपघातेन न तैः कर्माण्यनापदि॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्ताचारस्त्यक्तदृष्टिस्त्यक्तार्थस्त्यक्तलक्षणः। त्यक्ताचार्यस्त्यक्तमन्त्रः प्रत्येकं प्रच्युतो नरः॥४१॥
टीका
अब प्रच्युत का स्वरूप बतलाते हैं कि जो वैष्णवानुमत वृत्ति के आचारों को पालन न करता हो, जिसने दृष्टि (नामक अवयव ) का ध्यान न रखा हो, जो वैष्णवार्थ मे भक्ति आदि का सम्यक् ज्ञान न रखता हो तथा जो ऊर्ध्वपुण्ड्र आदि धारण के भगव चिन्हों का परित्याग करता हो तो उसे 'प्रच्युत' समझना चाहिए, जो कि अपने मन्त्रादिकों के प्रदाता गुरु तथा उनके दिये गए मन्त्रों का भी परित्याग कर देत हो॥४१॥मूलम्
त्यक्ताचारस्त्यक्तदृष्टिस्त्यक्तार्थस्त्यक्तलक्षणः। त्यक्ताचार्यस्त्यक्तमन्त्रः प्रत्येकं प्रच्युतो नरः॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पातकेन कुदृष्ट्यान्यभजनेनान्यलक्षणैः। अवैष्णवोपसत्त्यान्यमन्त्रेणापि च्यवन्ति वै॥४२॥
टीका
विहित आचार के विरुद्ध आचरण के पातक से, दृष्टि विरुद्ध अन्य देवता के भजन तथा भक्ति करने से, अन्य लक्ष्म के धारण करने से तथा अवैष्णवजन की संगति के कारण सत्सेवा न करने से और अन्य देवता के मन्त्र को लेने के कारणों में प्रत्येक की स्थिति में वह पतित या 'प्रच्युत' हो जाता है ॥ ४२ ॥मूलम्
पातकेन कुदृष्ट्यान्यभजनेनान्यलक्षणैः। अवैष्णवोपसत्त्यान्यमन्त्रेणापि च्यवन्ति वै॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो दिव्यशास्त्रमन्त्रेषु कुरुते त्ववधीरणाम्। तथान्यशास्त्रमन्त्रेषु प्रसक्तिं न च वैष्णवः॥४३॥
टीका
जो [पश्ञ्चरात्रागमादि|पञ्चरात्रागमादि] प्रोक्त दिव्यशास्त्रीय मन्त्र तथा इन शास्त्रों के मन्त्रों की अवधीरणा करे तथा अन्य शास्त्रों के प्रति श्रद्धा या आसक्ति रखने लगे तो वह 'वैष्णव' नहीं माना जाता है ||४३||मूलम्
यो दिव्यशास्त्रमन्त्रेषु कुरुते त्ववधीरणाम्। तथान्यशास्त्रमन्त्रेषु प्रसक्तिं न च वैष्णवः॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वैश्च लक्षणैर्युक्तो नियतश्च स्वकर्मसु। यस्तु भागवतान्द्वेष्टि सुदूरं प्रच्युतो हि सः॥४४॥
टीका
और जो पूर्व में दिखलाये गये सभी लक्षणों से युक्त हो, अपने कर्म तथा आचार में जो निष्ठा रखता हो किन्तु जो भागवतजन से द्वेष करनेवाला या उनका तिरस्का करनेवाला हो तो उसे भी 'प्रच्युत' ही समझना चाहिए ||४४ ||मूलम्
सर्वैश्च लक्षणैर्युक्तो नियतश्च स्वकर्मसु। यस्तु भागवतान्द्वेष्टि सुदूरं प्रच्युतो हि सः॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि चेत्सेवनपरो न चेत्तापादिसंस्कृतः। अनर्चार्हतया विष्णोर्दास्यात्प्रच्यवते ध्रुवम्॥४५॥
टीका
और यदि भागवतजन की सेवा में रत होकर भी जो तापादि चक्रांकित रूप से संस्कार प्राप्त न किया हुआ हो तो उसे श्रीनारायण की अर्चना करने का अधिकार न मिलने से वह भी निश्चितरूप से श्रीविष्णु के दास्यभाव से पतित हो जाता है ( श्रीविष्णु की भक्ति का अधिकारी भी नहीं रह पाता है ) ||४५ ||मूलम्
अपि चेत्सेवनपरो न चेत्तापादिसंस्कृतः। अनर्चार्हतया विष्णोर्दास्यात्प्रच्यवते ध्रुवम्॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु प्राप्य गुरोर्विद्यां नार्चयेत्पुरुषोत्तमम्। प्रणमेदन्यदेवाय न स भागवतः स्मृतः॥४६॥
टीका
जो उत्तम आचार्य से विद्या की शिक्षा तथा मन्त्रादि की दीक्षा प्राप्त करने पर भी श्री पुरुषोत्तम की अर्चना (नित्य) नहीं करे और अन्य देवताओं की प्रणामादि अर्चना करता हो तो वह भी भागवतजन या वैष्णव नहीं है ॥ ४६ ॥मूलम्
यस्तु प्राप्य गुरोर्विद्यां नार्चयेत्पुरुषोत्तमम्। प्रणमेदन्यदेवाय न स भागवतः स्मृतः॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये नात्मानमनात्मानं विद्याविद्ये फलाफले। उपास्यमनुपास्यञ्च वेत्ति भागवतो न सः॥४७॥
टीका
जो आत्मा तथा अनात्मा का, विद्या और अविद्या का, फल और फल विरोधी अफल का तथा इष्ट एवं उपास्य देव तथा अनुपास्य देवता का भेद न समझता हो तो उसे भी भागवतजन या वैष्णव नहीं समझना चाहिए || ४७ ॥मूलम्
ये नात्मानमनात्मानं विद्याविद्ये फलाफले। उपास्यमनुपास्यञ्च वेत्ति भागवतो न सः॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवतानाञ्च याथात्म्यं कैङ्कर्य्यस्य हरेरपि। अविदित्वाचरन् कर्म विहीनां गतिमश्नुते॥४८॥
टीका
जो अग्नि तथा इन्द्र आदि देवगण का भगवद् देह भाव तथा श्रीहरि के किंङ्करभाव को न जानकर कर्म, वर्ण तथा आश्रम में अपने नियतकर्मों का आचरण करते हुए न रहे तो वह भी प्रच्युत है तथा उसे भी सद्गति प्राप्त नहीं होती है ॥ ४८ ॥मूलम्
देवतानाञ्च याथात्म्यं कैङ्कर्य्यस्य हरेरपि। अविदित्वाचरन् कर्म विहीनां गतिमश्नुते॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवर्षिभूतात्मतया त्यजन्केवलमेव वा। विष्णुं तत्तत्फलाकांक्षी पारमैकान्त्यतश्च्यवेत्॥४९॥
टीका
और जो देव तथा ऋषियों के यजनादि कर्मों को नियत विधि से सम्पन्न करते हुए तथा उनमें केवल विष्णु का अर्चन कर उससे कार्य के फल की इच्छा रखे तो वह भी परमैकान्त्य-भाव से च्युत (होता) है ॥ ४९ ॥मूलम्
देवर्षिभूतात्मतया त्यजन्केवलमेव वा। विष्णुं तत्तत्फलाकांक्षी पारमैकान्त्यतश्च्यवेत्॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां न परिशुद्धानि योनिर्विद्याञ्च कर्म च। ये विष्णुचरणैकान्त्यविहीना ब्राह्मणादयः॥५०॥
टीका
जिनको श्रीविष्णु के चरणों से एकान्त्य प्राप्त नहीं है वे ब्राह्मणादि वर्ण की योनि (वर्ण या जाति में ) उत्पत्ति विद्या तथा कर्मों को परिशुद्ध नहीं माना जाता है ॥ ५०॥मूलम्
तेषां न परिशुद्धानि योनिर्विद्याञ्च कर्म च। ये विष्णुचरणैकान्त्यविहीना ब्राह्मणादयः॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरणं जन्मने जन्म मरणायैव केवलम्। तेषां भगवदैकान्त्यविमुखा ये नराधमाः॥५१॥
टीका
और जो भगवच्चरणों से विमुख एकान्त्य रहित ब्राह्मणादि वर्ण है उनका जन्म केवल मरण के लिये होता है तथा मरण भी केवल मरण के लिये होता है तथा मरण भी केवल पुनर्जन्म के लिये होता है और बाद में ये भी मनुष्यों में हीन स्थिति के ही रखनेवाले बन जाते हैं ( तथा ये मोक्ष से वंचित हो जाते हैं ) ॥ ५१ ॥मूलम्
मरणं जन्मने जन्म मरणायैव केवलम्। तेषां भगवदैकान्त्यविमुखा ये नराधमाः॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न विद्या केवलार्थाय नाचारो नार्चनं हरेः। न चक्राद्यङ्कदेहत्वं विना भागवतार्चनम्॥५२॥
टीका
श्रीहरि के अर्चन का कार्य न करने पर उनकी प्राप्त की गयी विद्या भी व्यर्थ है, उनकी आचारनिष्ठता तथा चक्रादि का शरीर पर धारण करना भी बिना श्रीहरि के अर्चन के साथ भागवतजन की सत्सेवारूप अर्चन भी निरर्थक होता है ॥ ५२॥मूलम्
न विद्या केवलार्थाय नाचारो नार्चनं हरेः। न चक्राद्यङ्कदेहत्वं विना भागवतार्चनम्॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न प्रपत्तेः परा विद्या न विष्णोर्दैवतम्परम्। न तद्दास्यात्परा सिद्धिर्न गुरुर्वैष्णवात्परः॥५३॥
टीका
क्योंकि श्रीहरि की प्रपत्ति के 'न्यास - योग' से श्रेष्ठ कोई विद्या नहीं है तथा श्रीविष्णु से उत्तम कोई अन्य देवता नहीं। उनकी दास्यता प्राप्ति से उत्तम कोई सिद्धि नहीं होती तथा वैष्णवजन से उत्तम दूसरा कोई आचार्य या गुरु भी नहीं होता है॥५३॥मूलम्
न प्रपत्तेः परा विद्या न विष्णोर्दैवतम्परम्। न तद्दास्यात्परा सिद्धिर्न गुरुर्वैष्णवात्परः॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यमच्युतभक्तानां कुर्यात्पादावनेजनम्। नम्रः समुपभुञ्जीत सर्वंपातकनाशनम्॥५४॥
टीका
अतएव जो श्रीविष्णु के परमभक्तजन वैष्णव हों तो उनके नित्य पाद प्रक्षालन करना चाहिए तथा ऐसे चरणतीर्थ जल का विनम्रभाव से सेवन करना सभी पातकों का विनाश करनेवाला होता है ॥ ५४ ॥मूलम्
नित्यमच्युतभक्तानां कुर्यात्पादावनेजनम्। नम्रः समुपभुञ्जीत सर्वंपातकनाशनम्॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैष्णवस्याकशय्यायां वैष्णवस्य गृहेऽपि वा। देशे वा तद्विचरिते संस्थिता यान्ति सद्गतिम्॥५५॥
टीका
यदि किसी वैष्णव की गोद में अन्तिम समय मस्तक रखकर या किसी वैष्णव के गृह में अथवा श्रीवैष्णव के द्वारा संचालित भूमि या स्थान पर स्थित रहकर यदि प्राण निकले तो उसकी सद्गति हो जाती है ॥ ५५ ॥मूलम्
वैष्णवस्याकशय्यायां वैष्णवस्य गृहेऽपि वा। देशे वा तद्विचरिते संस्थिता यान्ति सद्गतिम्॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र क्वाप्यथ वा देशे वैष्णवो म्रियते यदा। तदा तत्राशु सान्निध्यं करोति गरुडध्वजः॥५६॥
टीका
और वैष्णव भक्त जहाँ कहीं भी स्थित रहकर अपना प्राण छोड़ता है तो उन सभी स्थानों पर श्रीगरुड़ध्वज विष्णु उसके समीप आकर उसको करुणावश विष्णुलोक में ले जाते हैं॥५६॥मूलम्
यत्र क्वाप्यथ वा देशे वैष्णवो म्रियते यदा। तदा तत्राशु सान्निध्यं करोति गरुडध्वजः॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जन्मनो नाध्ययनान्न यज्ञान्न तपःश्रमात्। न त्यागादश्नुते ब्रह्म गुरूपसदनं विना॥५७॥
टीका
उपदेष्टा आचार्य की सेवा का आश्रय ही मुख्य है। अतः इसके बिना यदि ब्राह्मणादि उत्तमवर्ण में जन्म हो जाने से या वेदादि शास्त्रों के अध्ययन सम्पन्न हो जाने से, यज्ञादि अनुष्ठानों के कराने से तथा विरक्तिभाव से इन्द्रियादि के विषयों का त्याग करने से भी ब्रह्म की प्राप्ति (मोक्ष की प्राप्ति) नहीं हो सकती है ॥५७॥मूलम्
न जन्मनो नाध्ययनान्न यज्ञान्न तपःश्रमात्। न त्यागादश्नुते ब्रह्म गुरूपसदनं विना॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहकृन्मन्त्रविन्न स्यान्मंत्री संस्कारकृत्परः। तौ च नात्मविदौ स्यातामन्यस्त्वात्मविदात्मकृत्॥५८॥
टीका
यदि जन्म प्रदान करनेवाला पिता ही मन्त्र का प्रदाता भी हो जाए ऐसी कभी स्थिति नहीं हो पाती है क्योंकि जो मन्त्रवेत्ता विद्वान है वही उपनयन आदि संस्कार का सम्पादन करनेवाला आचार्य नहीं हो पाता है और पिता तथा सँस्कार और मन्त्र का संपादन करनेवाला आचार्यरूप में रहकर भी ये ब्रह्म या आत्मतत्व के विद्वान् नहीं हो पाते। अतः यदि ब्रह्मवेत्ता पिता ही मन्त्रवेत्ता हो तो वहीं संस्कार का सम्पादन करनेवाला आचार्य भी होना उचित है ॥ ५८ ॥मूलम्
देहकृन्मन्त्रविन्न स्यान्मंत्री संस्कारकृत्परः। तौ च नात्मविदौ स्यातामन्यस्त्वात्मविदात्मकृत्॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चक्राद्यंकनं नेज्या न ज्ञानं न विरागता। न मन्त्रः पारमैकान्त्यं तैर्युक्ता गुरुवश्यता॥५९॥
टीका
केवल चक्रादि का शरीर पर अंकन मात्र और न ही इष्ट के प्रति उपपादित यज्ञादि, न केवल दृष्टि या ज्ञान तथा न ही वैराग्य भाव, न दीक्षा में प्राप्त मन्त्र ही 'पारमैकान्त्यम्' होता है। किन्तु इन सभी के साथ अपने मन्त्रादि उपदेष्टा आचार्य (गुरु) के अधीन रहकर भगवदाराधना कर्म ही 'पारमैकान्त्य' होता है ॥ ५९ ॥मूलम्
न चक्राद्यंकनं नेज्या न ज्ञानं न विरागता। न मन्त्रः पारमैकान्त्यं तैर्युक्ता गुरुवश्यता॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्या विभूषणं पुंसस्तस्या वृत्तं विभूषणम्। विष्णुभक्तिर्विभूषास्य सा चक्राद्यंकभूषणा॥६०॥
टीका
पुरुष की विद्या के अर्जन से प्राप्त दृष्टि अलंकार या भूषण होती है और विद्या से विहित वृत्त या आचार विभूषण होता है। इस वृत्त का विभूषण श्रीनारायण की भक्ति है तथा इसका विभूषण शरीर पर श्रीविष्णु के चक्रादि का अंकन ( कार्य ) होता है ॥ ६० ॥मूलम्
विद्या विभूषणं पुंसस्तस्या वृत्तं विभूषणम्। विष्णुभक्तिर्विभूषास्य सा चक्राद्यंकभूषणा॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यानेन मन्त्रयोगेन पूजनेनांकनेन च। तोषयन्ति जगन्नाथं वासुदेवं युगक्रमात्॥६१॥
टीका
आराधकजन अपने इष्ट श्रीहरि को अपने ध्यानयोग के द्वारा मन्त्र के जप अनुष्ठान के द्वारा क्रमशः युगों में तुष्ट करते हैं। (इनमें कृतयुग में ध्यान, त्रेतायुग मन्त्र योग, द्वापर में पूजन तथा कलियुग में चक्रांद्यंकन कार्य नारायण की प्रसन्नता अतिशय आपादक है। यह तत्व दिखलाया गया ) ॥ ६१ ॥मूलम्
ध्यानेन मन्त्रयोगेन पूजनेनांकनेन च। तोषयन्ति जगन्नाथं वासुदेवं युगक्रमात्॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टमात्षोडशब्दाद्वा धार्य्यं चक्रादिभूषणम्। प्रतप्तैरंकनं पश्चात् सदा वा भूषणं स्त्रियाः॥६२॥
टीका
आठ वर्ष की आयु से लेकर सोलह वर्ष की आयु तक का काल विहित रहने से इस चक्रादि पञ्च आयुध के भूषण का धारण किया जा सकता है। ( जो ब्राह्मण उपनयनकाल का आरम्भ तथा गौण उपनयन का अन्तिम अवधि का काल है) इन मुहूर्त में प्रत```markdown प्रतप्त चक्रादि से अंकन किया जावे, अथवा स्त्रीजन के लिये भी इनका स धारण या भूषणरूप में इनका धारण भी अभीष्ट (होता) है ॥ ६२॥मूलम्
अष्टमात्षोडशब्दाद्वा धार्य्यं चक्रादिभूषणम्। प्रतप्तैरंकनं पश्चात् सदा वा भूषणं स्त्रियाः॥६२॥विश्वास-प्रस्तुतिः
शिष्यपुत्रकलत्राणां भृत्यानाञ्च गवामपि। कुर्यादचेतनानाञ्च वैष्णवं नाम लक्ष्म च॥६३॥टीका
इसके अतिरिक्त अपने शिष्य, पुत्र, भार्या तथा अपने सेवकजन का तथा अपने द्वा संग्रहीत पशु में गौ आदि का तथा अचेतनभूत स्वगृह तथा अन्य पदार्थों का नाम भ श्रीविष्णु से सम्वन्द्व रखना चाहिए तथा इनमें चेतन जीवों के शरीर पर चक्रादि क अंकन भी करवाना चाहिए ॥ ६३ ॥ |मूलम्
शिष्यपुत्रकलत्राणां भृत्यानाञ्च गवामपि। कुर्यादचेतनानाञ्च वैष्णवं नाम लक्ष्म च॥६३॥विश्वास-प्रस्तुतिः
**आमा ह्यतप्ततनवस्तप्ताङ्गा हरिलाञ्छनैः।** **सुश्रुता भोग्यतां प्राप्य भुज्यन्ते परमात्मना॥६४॥**टीका
जो शरीर तप्तचक्र से अंकित नहीं किये गये वे अपक्व या पापों को दग्ध करनेवाले होते हैं तथा श्रीहरि के चिन्ह चक्रादि से तप्ताङ्ग होने पर उनके सभी पातक दग्ध हो जाने से परमात्मा श्रीहरि के द्वारा भोगयोग्य होकर उनके द्वारा उपभोग के योग्य बन जाते हैं ॥ ६४ ॥मूलम्
**आमा ह्यतप्ततनवस्तप्ताङ्गा हरिलाञ्छनैः।** **सुश्रुता भोग्यतां प्राप्य भुज्यन्ते परमात्मना॥६४॥**विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्द्ध्वपुण्ड्रान्तरालस्थांश्चक्रादीन्धारयेत्सदा। बहिष्कृता ह्यतिक्रुद्धाः पदात्प्रच्यावयन्ति ते॥६५॥टीका
इसलिये शरीर पर उचित प्रदेशों पर चक्रादि चिन्ह तथा ऊर्ध्वपुण्ड्र को सदा धारण करना चाहिए (चक्रादि चिन्ह से अंकित या ऊर्ध्वपुण्ड्रादि पूर्व निर्दिष्ट स्थानों पर धारण करते हैं)। यदि इन चक्रादि तथा ऊर्ध्वपुण्ड्रादि का धारण कर इन्हें उपेक्षित करेंगे तो वे उन्हें अपने स्थान से गिरा देंगे ॥ ६५ ॥मूलम्
ऊर्द्ध्वपुण्ड्रान्तरालस्थांश्चक्रादीन्धारयेत्सदा। बहिष्कृता ह्यतिक्रुद्धाः पदात्प्रच्यावयन्ति ते॥६५॥विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातर्मध्यंदिने सायमूर्द्ध्वपुण्ड्रेण केशवः। अकृतैर्वापि सुकृतैस्तैस्तैः प्रीणाति कर्मभिः॥६६॥टीका
यदि प्रातःकाल, मध्याह्न तथा सायंकाल त्रिसन्ध्य वेला में ऊर्ध्वपुण्ड्र ही शरीर पर धारण किया जाए (और अन्य नित्यादि कर्मों के अनुष्ठान में कमी भी आ जाए) तो भी श्रीनारायण की प्रीति रहने से ऐसे प्रत्यवाय की शान्ति शीघ्र हो जाती है ॥ ६६॥मूलम्
प्रातर्मध्यंदिने सायमूर्द्ध्वपुण्ड्रेण केशवः। अकृतैर्वापि सुकृतैस्तैस्तैः प्रीणाति कर्मभिः॥६६॥विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभाते दिव्यलोकस्थं मध्याह्ने चार्कमध्यगम्। तोषयन्त्यूर्द्ध्वपुण्ड्रेण सायं स्वात्मगतं हरिम्॥६७॥टीका
यदि प्रभातकाल में ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करे तो दिव्यलोक स्थित श्रीनारायण की मध्याह्नकाल में आदित्य में स्थित नारायण की तथा सायंकाल आत्मस्थ नारायण की प्रसन्नता प्राप्त होती है ॥६७॥मूलम्
प्रभाते दिव्यलोकस्थं मध्याह्ने चार्कमध्यगम्। तोषयन्त्यूर्द्ध्वपुण्ड्रेण सायं स्वात्मगतं हरिम्॥६७॥विश्वास-प्रस्तुतिः
**सन्तः सतोऽनुगृह्णन्ति दर्शनादेव लक्ष्मभिः।** **त्यजन्त्यन्ये तदुभयं मुख्यमेकान्त्यकारणम्॥६८॥**टीका
वैष्णव सन्त चक्रादि चिन्हों को देखने मात्र से उन्हें आत्मीय समझ कर उन पर अनुग्रह करते हैं तथा जो असन्त या अवैष्णवजन हैं वे इन वैष्णव चिन्हों को देखते ही उनसे दूर हट जाते हैं। ये दोनों ही एकान्त्य भाव में कारणभूत होते हैं अतः लक्ष्म (चिन्ह) तथा ऊर्ध्वपुण्ड्रादि का धारण आवश्यक है ॥ ६८ ॥मूलम्
**सन्तः सतोऽनुगृह्णन्ति दर्शनादेव लक्ष्मभिः।** **त्यजन्त्यन्ये तदुभयं मुख्यमेकान्त्यकारणम्॥६८॥**विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रमाप्त भगवन्मन्त्रः कल्पविच्छुद्धमानसः। धृतोर्द्धपुण्ड्रश्चक्रादिलाञ्छितो हरिमर्चयेत्॥६९॥टीका
सम्प्रदाय (के क्रम) के अनुसार दीक्षित होकर भगवन्मन्त्र को प्राप्त कर मन्त्र तथा भगवतस्समाराधन के विधान को जानकर ऊर्ध्वपुण्ड्र को धारण कर चक्रादि लक्ष्म से युक्त रहकर वैष्णव श्रीनारायण की अर्चना करे ॥ ६९ ॥मूलम्
क्रमाप्त भगवन्मन्त्रः कल्पविच्छुद्धमानसः। धृतोर्द्धपुण्ड्रश्चक्रादिलाञ्छितो हरिमर्चयेत्॥६९॥विश्वास-प्रस्तुतिः
यथापूर्वाकृतीन्नित्यान्मुक्ताँश्चैव यथागमम्। यथावतारदेहं च पूजयेद्धरिमिच्छया॥७०॥टीका
श्रीहरि का अर्चन [पश्ञ्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम के अनुगत यथावत् आकृति में युक्त तथा नित्यरूपवाले अवतार के अनुरूप देहादि विग्रह वाले श्री हरि की ध्यानादि के पश्चात् अपनी इच्छा के अनुरूप विधिवत् अर्चना करे ॥ ७० ॥मूलम्
यथापूर्वाकृतीन्नित्यान्मुक्ताँश्चैव यथागमम्। यथावतारदेहं च पूजयेद्धरिमिच्छया॥७०॥विश्वास-प्रस्तुतिः
अवैष्णवाद्वैष्णवाद्वा चेतनं वाप्यचेतनम्। यदवाप्तं समस्तं तद्विष्णवे विनिवेदयेत्॥७१॥टीका
वैष्णव अथवा अवैष्णव से प्राप्त होनेवाली चेतना चेतनात्मक भाव की जो भी सामग्री प्राप्त हो उस सभी को श्रीनारायण को अर्पित कर उन्हें निवेदित करे॥७१॥मूलम्
अवैष्णवाद्वैष्णवाद्वा चेतनं वाप्यचेतनम्। यदवाप्तं समस्तं तद्विष्णवे विनिवेदयेत्॥७१॥विश्वास-प्रस्तुतिः
वासः स्रग्गन्धभूषादि भक्ष्यभोज्यादिकं तथा। न किञ्चिदुपभोक्तव्यमनिवेद्य श्रियः पतेः॥७२॥टीका
यह सामग्री वस्त्र, पुष्पादि की मालाएं, गन्ध, धूप, भूषणादि तथा भक्ष्य भोज्यादिरूप में होती है अतः प्राप्त ऐसी सभी सामग्री को श्रीनारायण को बिन निवेदित या अर्पित किये उनका उपभोग या ग्रहण नहीं करन चाहिए ॥ ७२ ॥मूलम्
वासः स्रग्गन्धभूषादि भक्ष्यभोज्यादिकं तथा। न किञ्चिदुपभोक्तव्यमनिवेद्य श्रियः पतेः॥७२॥विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो वेदान्तपरिनिष्ठितः। मीमांसान्यायनिपुणो धर्मशास्त्रविशारदः॥७३॥टीका
अतएव वेद तथा वेदाङ्गों के तत्वों का पूर्ण ज्ञान करनेवाला, वेदान्तादि शास्त्रों में पारंगत, मीमांसा तथा न्याय शास्त्रों में निपुण विद्वान्, धर्मशास्त्रादि का पूर्णज्ञाता इतिहास तथा पुराणों का अनुशीलन किया हुआ तथा [पांचरात्र|पञ्चरात्र] आदि वैष्णवागमों के तत्वों का विशेषज्ञान रखनेवाला विद्वान् नारायण की अनन्यता को समझ कर स्वधर्म का पालन करे ॥ ७३-७४ ॥मूलम्
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो वेदान्तपरिनिष्ठितः। मीमांसान्यायनिपुणो धर्मशास्त्रविशारदः॥७३॥विश्वास-प्रस्तुतिः
इतिहासपुराणज्ञः पंचरात्रार्थतत्त्ववित्। परं भगवदैकान्त्यं ज्ञात्वा धर्मं समाचरेत्॥७४॥टीका
अतएव वेद तथा वेदाङ्गों के तत्वों का पूर्ण ज्ञान करनेवाला, वेदान्तादि शास्त्रों में पारंगत, मीमांसा तथा न्याय शास्त्रों में निपुण विद्वान्, धर्मशास्त्रादि का पूर्णज्ञाता इतिहास तथा पुराणों का अनुशीलन किया हुआ तथा [पांचरात्र|पञ्चरात्र] आदि वैष्णवागमों के तत्वों का विशेषज्ञान रखनेवाला विद्वान् नारायण की अनन्यता को समझ कर स्वधर्म का पालन करे ॥ ७३-७४ ॥मूलम्
इतिहासपुराणज्ञः पंचरात्रार्थतत्त्ववित्। परं भगवदैकान्त्यं ज्ञात्वा धर्मं समाचरेत्॥७४॥विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वसंस्कारसंस्कारो ज्ञानं भागवतं परम्। तत्संस्कृता हि संस्काराः कल्पन्ते मुक्तिहेतवः॥७५॥टीका
भगवद्विषयक ज्ञान परमोत्तम है क्योंकि वही सभी वर्णाश्रमनियत संस्कारों क अतिशय आपादक संस्कार होता है तथा अतिशय संस्कृत रूप के कारण (यह ज्ञा संस्कृत संस्कार) मुक्ति में कारणभूत हो जाते हैं। (इसलिए भगवद्विषयक ज्ञान ह सर्व संस्कारभूत है)।७५ ॥मूलम्
सर्वसंस्कारसंस्कारो ज्ञानं भागवतं परम्। तत्संस्कृता हि संस्काराः कल्पन्ते मुक्तिहेतवः॥७५॥विश्वास-प्रस्तुतिः
परमात्मा हरिः स्वामी स्वतोऽहं तस्य किङ्करः। कैङ्कर्य्यमखिला वृत्तिरित्येष ज्ञानसंग्रहः॥७६॥टीका
भागवत ज्ञान को यदि संग्रह रूप में देखें तो यह है कि समस्त आत्माओं अन्तरात्मास्वरूप परमात्मा हरि ही स्वामी हैं तथा अहंवृत्तिवेद्य प्रत्यगात्मरूप स्वयं इन हरि का दासभूत किंकर मैं हूं तथा मेरे सभी वृत्तिभूत व्यापार कैंकर्यभूत है यही इसका संग्राहक संग्रह है ॥ ७६ ॥मूलम्
परमात्मा हरिः स्वामी स्वतोऽहं तस्य किङ्करः। कैङ्कर्य्यमखिला वृत्तिरित्येष ज्ञानसंग्रहः॥७६॥विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यमर्चाजपध्यानस्नानदानव्रतादिकम्। विशुद्धमेव कर्त्तव्यमनन्यैर्न विमिश्रितम्॥७७॥टीका
(वृत्ति के विहिताचारों में) नित्य ही इष्टदेव श्रीहरि की अर्चना करना, निष्ठा मन का नित्यजप, उनका ही स्मरणरूप ध्यान धरना, नित्य स्नान, दान तथा एकादश आदि साम्प्रदायिक व्रत उपवास आदि रखना, ये सभी अर्चादि तत्व तथ एकान्तीभाव से विशुद्धरूप में करना चाहिए। अर्थात् अन्य देवगण की अर्चनादि के साथ इन्हें मिलाकर नहीं करना चाहिए || ७७ ॥मूलम्
नित्यमर्चाजपध्यानस्नानदानव्रतादिकम्। विशुद्धमेव कर्त्तव्यमनन्यैर्न विमिश्रितम्॥७७॥विश्वास-प्रस्तुतिः
**सद्ब्रह्म वासुदेवाद्यैर्विविक्तैर्यत्र नामभिः** । **प्रोच्यते भगवान्विष्णुस्तद्विशुद्धमुदाहृतम्॥७८॥**टीका
जिस कर्म में केवल श्रीहरि के वाचक सद्ब्रह्म वासुदेवादि नामों से भगवान् श्रीहरि अभिहित होते हैं, वही कर्म विशुद्ध तथा जहाँ साक्षात् भगवद्देवता विषयक केवल कर्म हो वह भी विशुद्ध है ॥ ७८ ॥मूलम्
**सद्ब्रह्म वासुदेवाद्यैर्विविक्तैर्यत्र नामभिः** । **प्रोच्यते भगवान्विष्णुस्तद्विशुद्धमुदाहृतम्॥७८॥**विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्राविविक्तैः शब्देस्तु प्रोच्यते पुरुषोत्तमः। देवादीनामशुद्धानां व्यामिश्रं तत्प्रचक्षते॥७९॥टीका
तथा जहाँ सद्द्ब्रह्मादि से भिन्न देवादि शब्दों से परमेश्वर को अभिहित किया जाता है तो ऐसा अर्चनादि कर्म 'मिश्र' ( व्यामिश्र) होता है ॥ ७९ ॥मूलम्
यत्राविविक्तैः शब्देस्तु प्रोच्यते पुरुषोत्तमः। देवादीनामशुद्धानां व्यामिश्रं तत्प्रचक्षते॥७९॥विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्निमित्तमये पापे ग्रहादीनां विपर्य्यये। विष्णुतद्भक्तपूजाभिः शान्तिं कुर्वीत नान्यथा॥८०॥टीका
दुर्निमित्तादि से युक्त भयोत्पादक किसी पातक के कारण या सूर्य, शनि आदि के जन्मादि से द्वादशादि स्थान में आने से अनिष्टकारक योग रहने के कारण या आ जाने पर उन्हें श्री विष्णु तथा उनके परिवारभूत देवादि की पूजनादि अनुष्ठानों ( विष्णुपूजा के पारम्परिक परमादि रूपों से तथा उपशान्तिरूप परिवारभूत अनुष्ठानों) के द्वारा इसकी शान्ति की जाए। अन्यथारूप में केवल ग्रहयज्ञादि के द्वारा इस शान्ति को नहीं करें ॥ ८० ॥मूलम्
दुर्निमित्तमये पापे ग्रहादीनां विपर्य्यये। विष्णुतद्भक्तपूजाभिः शान्तिं कुर्वीत नान्यथा॥८०॥विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राज्यैः प्रियतमैर्भोगैर्विशेषेण जनार्दनम्। आराधयेन्निमित्तेषु वैष्णवाँश्च विशेषतः॥८१॥टीका
वैष्णवोत्सवादि निमित्तों के अवसर पर श्रेष्ठ तथा प्रियभाव के रूप में स्वेष्ट गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, सूप तथा अपूपादि पदार्थों से विशेषतः परमेश नारायण की आराधना की जाए तथा विशेष रूप में वैष्णवजन की भी प्रसन्नतापादक आराधना प्रसादादि के प्रदानरूप में रखी जाए ॥ ८१ ॥मूलम्
प्राज्यैः प्रियतमैर्भोगैर्विशेषेण जनार्दनम्। आराधयेन्निमित्तेषु वैष्णवाँश्च विशेषतः॥८१॥विश्वास-प्रस्तुतिः
कुर्वन्ति वैष्णवार्थाय स्वधर्माणाञ्च सिद्धये। शान्तिकर्म हरेः केचित्प्रपत्तिं केवलं हरेः॥८२॥टीका
ग्रहादि शान्ति के हेतु कुछ वैष्णव लोग श्रीविष्णु के उद्देश से तथा अपने साम्प्रदायिक धर्मों की सिद्धि के लिये श्रीहरि की पूजनादि के अनुष्ठान से शान्तिकर्म करते हैं तथा अन्य केवल ( दुनिर्मित्त तथा ग्रहादि के भय के प्राप्त होने पर) श्रीहरि की प्रपत्ति या शरण का ही कार्य करते हैं (जो शान्ति आदि कर्मों में असमर्थ या अधिकारी नहीं होते हैं ) ॥८२॥मूलम्
कुर्वन्ति वैष्णवार्थाय स्वधर्माणाञ्च सिद्धये। शान्तिकर्म हरेः केचित्प्रपत्तिं केवलं हरेः॥८२॥विश्वास-प्रस्तुतिः
यास्तत्रतत्रश्रूयन्ते पुंसां काम्यतया श्रुतौ। ताः किलैकान्तिना दिव्या भगवद्भोगसम्पदः॥८३॥टीका
वेदादि में जो जो क्रियाएं पुरुषों के लिये काम्यरूप में बतलाई गयी है एकान्ती वैष्णव विद्या से विशुद्ध ऐसी दिव्य क्रियाओं को श्रीनारायण की अभिमत या प्रियरूप में भगवदाराधनरूप किंकरभाव से सम्पन्न होकर सम्पादन करे॥८३॥मूलम्
यास्तत्रतत्रश्रूयन्ते पुंसां काम्यतया श्रुतौ। ताः किलैकान्तिना दिव्या भगवद्भोगसम्पदः॥८३॥विश्वास-प्रस्तुतिः
आरम्भे कर्मणां सिद्ध्यै विघ्नानां प्रशमाय च। कुर्यात्सपरिवारस्य विष्वक्सेनस्य पूजनम्॥८४॥टीका
इन क्रियाओं के आरम्भ में कर्म की सिद्धि के लिये तथा विघ्नों की शान्ति के लिए विष्वक्सेन श्रीविष्णु का परिवार सहित पारम्परिक अर्चन करना चाहिए ॥ ८४ ॥मूलम्
आरम्भे कर्मणां सिद्ध्यै विघ्नानां प्रशमाय च। कुर्यात्सपरिवारस्य विष्वक्सेनस्य पूजनम्॥८४॥विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वल्पापि हन्ति भूयांसं स्वधर्मंनिन्दिता क्रिया। दृष्टिं कुदृष्टिर्भकिन्तु देवतान्तरसंश्रयः॥८५॥टीका
थोड़ी भी इष्टादि की निन्दा से युक्त किया बड़े से बड़े धार्मिक अर्चनादि के अनुष्ठानों का विघात कर देती है तथा अश्रद्धा या कुदृष्टि अपने इष्ट की गौण दृष्टि का तथा ऐसी भक्ति अन्य देवता की उपासना का आश्रय ग्रहण करती है ॥ ८५ ॥मूलम्
स्वल्पापि हन्ति भूयांसं स्वधर्मंनिन्दिता क्रिया। दृष्टिं कुदृष्टिर्भकिन्तु देवतान्तरसंश्रयः॥८५॥विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्सेवनमसत्सेवा लक्षणं चान्यलक्ष्मता। तस्माद्विरुद्धान्येकान्ती विशेषेण विवर्ज्जयेत्॥८६॥टीका
और जैसे असत् सेवा सत्सेवा का विघात करती है इसी तरह अन्य देवताओं के चिन्हभूत ( तिलकादि का ) धारणरूप लक्ष्म से अपना लक्ष्य विनष्ट हो जाता है अतः विरुद्ध कार्यभूत ऐसे लक्ष्मादि का धारण अनन्य या एकान्ती वैष्णव को नही रखना चाहिए ॥ ८६ ॥मूलम्
सत्सेवनमसत्सेवा लक्षणं चान्यलक्ष्मता। तस्माद्विरुद्धान्येकान्ती विशेषेण विवर्ज्जयेत्॥८६॥विश्वास-प्रस्तुतिः
**----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------**१.॥
सत्यन्तरविरहाच्छोद्भून्नाशकं सम्यक्श्लोकमिमम्॥
एकस्यापि हि धर्मस्य विनाशे च विरोधिभिः। अनन्वयापचारेण नश्यत्येकान्तिवृत्तिता॥८७॥
टीका
एक भी विहिताचारावि संपन्न धर्म की विरोधी भूत निन्दित क्रियाओं के अनुष्ठान से नष्ट हो जाने पर धर्म के न करने पर दोष से एकांती वृत्ति का विनाश हो जात है॥८७॥मूलम्
**----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------**१.॥
सत्यन्तरविरहाच्छोद्भून्नाशकं सम्यक्श्लोकमिमम्॥
एकस्यापि हि धर्मस्य विनाशे च विरोधिभिः। अनन्वयापचारेण नश्यत्येकान्तिवृत्तिता॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परमैकान्तिनां धर्मः कृते पूर्णः प्रवर्त्तते। क्षीयमाणः क्रमेणायं कलौ स्थास्यति वा न वा॥८८॥टीका
[परमैकान्तिनामाचारस्यान्यदुर्लभत्त्वं|परमैकान्तिताधर्म] ज्ञापयितुं तस्य कृते पूर्णतां क्रमेण हानिं चाह-परमैकान्तिनामिति। कृते कृतयुगे क्रमेण युगक्रमेण स्थास्यति वा न वेत्यन्त्रयस्य 'यस्य चेतसि गोविन्दो हृदये यस्य नाच्युतः। कलिः कृतयुगं तस्य कृतं तस्य कलिर्भवेत्' इति। कलावपि कृतयुगसम्भवादिति विरलतया क्वचिदेव महानुभावे पुरुषधौरेये परमेकान्तिधर्मोऽयं वर्तते न प्रचुरतयेति भावः॥८८॥मूलम्
परमैकान्तिनां धर्मः कृते पूर्णः प्रवर्त्तते। क्षीयमाणः क्रमेणायं कलौ स्थास्यति वा न वा॥८८॥विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाकामहतज्ञाना नानादेवतयाजिनः। नरा भगवदैकान्त्ये न स्थास्यन्ति कलौ युगे॥८९॥टीका
अनेक कामना या अभिलाषाओं को रखने से जिनकी बुद्धि नष्ट हो गयी हो, ऐसे लोग जो अनेक देवगण का इष्ट रखते हुए उनकी पूजा करनेवाले होते हैं वे मनुष्य कलियुग में भगवदेकान्त्य कि परमैकान्त्यभाव में स्थित नहीं रहेंगे ॥ ८९ ॥मूलम्
नानाकामहतज्ञाना नानादेवतयाजिनः। नरा भगवदैकान्त्ये न स्थास्यन्ति कलौ युगे॥८९॥विश्वास-प्रस्तुतिः
परं भागवतं वर्त्म दृष्ट्वापि कलिमोहिताः। प्रभवन्ति न विद्वांसस्त्यक्तुंपूर्वान्धवर्त्मनीम्॥९०॥टीका
कलियुग के प्रभाव से मोह को प्राप्त ऐसे मनुष्य परमश्रेष्ठ भागवत मार्ग को जानने वाले एवं विद्वान् होकर भी वे अपने पूर्वजों के द्वारा अनुसृत एवं रूढ़ मार्ग को छोड़ने में समर्थ नहीं होंगे॥९०॥मूलम्
परं भागवतं वर्त्म दृष्ट्वापि कलिमोहिताः। प्रभवन्ति न विद्वांसस्त्यक्तुंपूर्वान्धवर्त्मनीम्॥९०॥विश्वास-प्रस्तुतिः
भविष्यन्ति कलौ केचित्क्वाचिदेकान्तिनो हरेः। मोहयिष्यन्ति च परे कुतर्कैस्तान्कुदृष्टयः॥९१॥टीका
अतएव कलियुग में श्रीनारायण के भक्तिभाव से एकान्ती - जन किसी स्थान पर कुछ ही बचे होंगे। (अल्पमात्रा में ही प्राप्त होंगे) और उन्हें भी कुछ तार्किक या हेतुवादी जन अपनी अपनी बुद्धि से किये गये कुतर्कों से भटका कर मोह में डाल देंगे ( भ्रान्त बना डालेंगे ) ॥ ९१ ॥मूलम्
भविष्यन्ति कलौ केचित्क्वाचिदेकान्तिनो हरेः। मोहयिष्यन्ति च परे कुतर्कैस्तान्कुदृष्टयः॥९१॥विश्वास-प्रस्तुतिः
निरीश्वराः कर्मफला निष्क्रिया ब्रह्मवादिनः। परावरविमूढाश्च भविष्यन्ति कलौ युगे॥९२॥टीका
उस समय कलियुग में कर्मादि अनुष्ठान में लगे हुए तथा ईश्वर की भक्ति न करनेवाले नास्तिकजन होंगे और कुछ ब्रह्मवादीजन क्रियादि-अनुष्ठान से हीन (राहुमीमांसक) होंगे तथा कुछ पर (श्रेष्ठ) तथा अपर (हीन) ज्ञान से रहित होंगे॥९२॥मूलम्
निरीश्वराः कर्मफला निष्क्रिया ब्रह्मवादिनः। परावरविमूढाश्च भविष्यन्ति कलौ युगे॥९२॥विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीणायुर्ज्ञानशक्तित्वान्मनुष्याणां कलौ युगे। विद्यानां परमा विद्या न्यास एव परायणम्॥९३॥टीका
कलियुग में जब पुरुषों की आयु क्षयशील या अल्पायु रहने से बहुकाल साध्य उपाय करने में अशक्त होने तथा ज्ञानशक्ति के भी क्षीण या अल्प रहने के कारण उस समय विद्याओं में उत्तम विद्या कहलाने वाला केवल 'न्यासयोग' ही उनके लिये उपयुक्त उपायभूत ( सहायक ) होगा ( अन्य दूसरा कोई नहीं ) ॥ ९३ ॥मूलम्
क्षीणायुर्ज्ञानशक्तित्वान्मनुष्याणां कलौ युगे। विद्यानां परमा विद्या न्यास एव परायणम्॥९३॥विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्म ज्ञानञ्च भक्तिश्च साधनानि मनीषिणाम्। न्यास एवाचिरात्सिद्धिं वाञ्छतां सर्वदेहिनाम्॥९४॥टीका
ज्ञानीजन के कर्म, ज्ञान तथा भक्तियोग ही साध्यभूत मोक्ष के साधन ( द्वारभूत ) माने गये हैं परन्तु सभी शरीरधारी प्राणियों के लिये शीघ्र सिद्धि को देनेवाला केवल एक 'न्यास- योग' ही है ॥ ९४ ॥मूलम्
कर्म ज्ञानञ्च भक्तिश्च साधनानि मनीषिणाम्। न्यास एवाचिरात्सिद्धिं वाञ्छतां सर्वदेहिनाम्॥९४॥विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानानन्दमयो नित्यः शुद्धो देहान्तरं हरेः। जीवोऽयं संसरत्यस्य माययैव विमोहितः॥९५॥टीका
यह ज्ञान तथा आनन्दमय स्वरूपवाला जीव जो नित्य तथा शुद्ध श्रीहरि का दूसरा शरीरभूत माना जाता है परन्तु यह उसी हरि की अधीन माया से विमोहित होकर जन्म मृत्यु के चक्र में घूमता रहता है ॥ ९५ ॥मूलम्
ज्ञानानन्दमयो नित्यः शुद्धो देहान्तरं हरेः। जीवोऽयं संसरत्यस्य माययैव विमोहितः॥९५॥विश्वास-प्रस्तुतिः
अनीश्वरोऽहमीशोऽहमिति धीर्मायया हरेः। भवेत्सा संसृतेर्मूलं तं प्रपद्यैव तां त्यजेत्॥९६॥टीका
मेरा कोई ईश्वर नहीं अथवा मैं ईश से रहित या उसे न माननेवाला हूं अथवा मैं ही ईश्वर हूँ ऐसी श्रीहरि की माया से विमोहित होने पर बुद्धि हो जाती है । यही बुद्धि संसार का मूल है अतः श्रीहरि की प्रपत्ति का न्यासयोग धारण कर इस माया का अन्त किया जाता है जिससे माया का त्याग ( मोहनाश) संभव होता है॥९६॥मूलम्
अनीश्वरोऽहमीशोऽहमिति धीर्मायया हरेः। भवेत्सा संसृतेर्मूलं तं प्रपद्यैव तां त्यजेत्॥९६॥विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानानन्दमयोऽनन्तो दिव्यात्मगुणविग्रहः। नारायणो जगद्योनिः प्राप्यो लक्ष्मीपतिः स्वयम्॥९७॥टीका
इस प्रकार नारायण भगवान् जो ज्ञान तथा आनन्दमय रूपवाला है, जो दिव्य आत्मा, गुण तथा शरीर वाला है जो संसार की सृष्टिका आधार है वही लक्ष्मीपति स्वयं ही प्राप्य हो जाता है ॥ ९७॥मूलम्
ज्ञानानन्दमयोऽनन्तो दिव्यात्मगुणविग्रहः। नारायणो जगद्योनिः प्राप्यो लक्ष्मीपतिः स्वयम्॥९७॥विश्वास-प्रस्तुतिः
आब्रह्मलोकाल्लोकानां यदैश्वर्यं न तद्ध्रुवम्। अथ नित्यं महत्साधु यद्दास्यं परमात्मनः॥९८॥टीका
( सृष्टिकर्ता ब्रह्मदेव के ) ब्रह्मलोक से लेकर सभी सातों लोकों का जो ऐश्वर्य या सम्पत्ति है वह सभी स्थिर रहनेवाली (शाश्वत) नहीं है। केवल जो नित्य, महान् तथा उपयुक्त वस्तु है वह परमात्मा श्रीहरि की दास्यभाव में स्थिति ही है ॥ ९८ ॥मूलम्
आब्रह्मलोकाल्लोकानां यदैश्वर्यं न तद्ध्रुवम्। अथ नित्यं महत्साधु यद्दास्यं परमात्मनः॥९८॥विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधस्वधर्मेण युक्तस्यानन्यचेतसः। नित्यमाराधनं विष्णोर्यत्तद्दास्यमिहोच्यते॥९९॥टीका
अतएव इस प्रकार अपने नित्य तथा नियत दास्य धर्म में अवस्थित रहनेवाले तथा एकान्ती (अनन्य चित्तवाले) का जो नित्य ही श्रीहरि की आराधना में रत ( दास्य भाव में स्थित ) रहना है वही 'दास्य' या कैचर्य भाव है ॥ ९९ ॥मूलम्
एवंविधस्वधर्मेण युक्तस्यानन्यचेतसः। नित्यमाराधनं विष्णोर्यत्तद्दास्यमिहोच्यते॥९९॥विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञाताः स्त्रियश्चैवमर्चयन्त्यो जगद्गुरुम्। यथार्हमपि शूद्राद्याः सर्वे यान्ति परां गतिम्॥१००॥टीका
भगवान् के आराधना कर्म दास्यभाव में स्थित होकर उनकी अर्चना करने में स्त्री शूद्र आदि को भी आचार्यों ने मान्यता दी है। अतएव इस प्रपत्ति को उपयुक्त रूप में प्रयुक्त या अनुष्ठित करनेवाले ये स्त्री शूद्रादि सभी जन परमगति मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं ॥ १०० ॥मूलम्
अनुज्ञाताः स्त्रियश्चैवमर्चयन्त्यो जगद्गुरुम्। यथार्हमपि शूद्राद्याः सर्वे यान्ति परां गतिम्॥१००॥इति श्रीनारदपंचरात्रे भारद्वाजसंहितायां परिशिष्टे प्रथमोऽध्यायः॥१॥
(इति श्रीनारदपञ्चरात्र भारद्वाजसंहितापरिशिष्टटीकायांप्रथमोऽध्यायः॥१॥)