४ न्यासोपदेशः

अथ चतुर्थोऽध्यायः

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतिरूपांस्तथा विष्णोः स्वधर्मानाचरेद्यथा। तथैवाप्रीतिरूपाणि प्रतिषिद्धानि वर्जयेत्॥१॥

टीका प्रपत्ति या न्यास-योग में स्थित साधक भक्त को अपने इष्टभूत श्रीविष्णु के प्रीतिख या प्रीतिकारक स्वधर्म का आचरण जैसे इष्ट होता है उनका अनुगमन करे वैसे ह उन्हें अप्रीतिरूप जो प्रतिषिद्ध धर्म है उनको निषिद्ध मान कर वह उनका परित्याग भी करे ॥ १ ॥
मूलम्

प्रीतिरूपांस्तथा विष्णोः स्वधर्मानाचरेद्यथा। तथैवाप्रीतिरूपाणि प्रतिषिद्धानि वर्जयेत्॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णोर्ध्यानप्रणामार्च्चास्तुतिचिह्नादिवर्जितम्। समारब्धं तु यत्कर्म तत्कर्म विफलं भवेत्॥२॥

टीका जिस धर्माचरणभूत कर्म में श्रीविष्णु के ध्यान, प्रणाम, अर्चन, स्तुति तथा ऊर्ध्वपुण् जैसे चिह्न का विधान न रहे और यदि ऐसा कोई कर्म आरम्भ किया गया हो तो व कर्म निष्फल होता है || २ ||
मूलम्

विष्णोर्ध्यानप्रणामार्च्चास्तुतिचिह्नादिवर्जितम्। समारब्धं तु यत्कर्म तत्कर्म विफलं भवेत्॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्वक्सेनः स्मृतो नेता भगवाँच्छुद्धकर्मणाम्। तस्मान्नान्यमुपासीत कर्मणां विघ्नशान्तये॥३॥

टीका आरब्ध एवं अनुष्ठित सभी शुद्धकर्मों के भगवान् विष्यक्-सेन (श्रीविष्णु ) ही प्रभु य पूर्णकर्ता माने गये हैं। अतएव विघ्नादि की शान्ति हेतु भी अन्य देवता की उपासन नहीं करना चाहिए ॥ ३ ॥
मूलम्

विष्वक्सेनः स्मृतो नेता भगवाँच्छुद्धकर्मणाम्। तस्मान्नान्यमुपासीत कर्मणां विघ्नशान्तये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मरुद्रदिगीशार्कतच्छक्तिप्रसवादयः। नित्यमभ्यर्चने वर्ज्याः कामोऽपि स्यान्न तन्मुखः॥४॥

टीका ब्रह्मा, [विक्पाल|दिक्पाल], सूर्य, इन ब्रह्मादि की शक्तियां (मातृकाएं) तथा इन देवगण के पुत्र देवगणों की नित्य अर्चा ( कर्मविशेष में कभी अपेक्षित होने पर भी वर्जित मानी गयी है। अतएव काम्य कर्म के रहने की अपेक्षा पर भी इनकी अर्चा के अत न रहे॥४॥
मूलम्

ब्रह्मरुद्रदिगीशार्कतच्छक्तिप्रसवादयः। नित्यमभ्यर्चने वर्ज्याः कामोऽपि स्यान्न तन्मुखः॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातु परमां वृत्तिं कुर्वीत विरसाशयः। प्रमादालस्यनास्तिक्यकामाद्यैर्न च हापयेत्॥५॥

टीका [नियात|नियत] की निष्ठा गयी वृत्ति को भक्तिहीन भाव से कभी न रखे तथा [उहिन्दीटीकासहित|उसे] प्रमाद, आलस्य नास्तिक बुद्धि के काम क्रोध आदि के कारण भी कभी न छोड़े ( क्योंकि यह चर्या नित्यविधि है, अपरिहार्य है ) ||५||
मूलम्

न जातु परमां वृत्तिं कुर्वीत विरसाशयः। प्रमादालस्यनास्तिक्यकामाद्यैर्न च हापयेत्॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशकालकुलादीनां विना पापेन संविदः। आस्त्रीभ्यश्चाखिलाचारान्नातिक्रमेत्कदाचन॥६॥

टीका वह देश, काल तथा कुलादि के निर्धारित आचारों को बिना निषिद्ध किये हुए तथा स्त्रियों के भी इसी प्रकार के विहित आचारों का उल्लंघन ( भी ) न करे ॥६॥
मूलम्

देशकालकुलादीनां विना पापेन संविदः। आस्त्रीभ्यश्चाखिलाचारान्नातिक्रमेत्कदाचन॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वृत्तेरधिकामृद्धिं न मृत्युं न च जीवितम्। न चाप्रशस्तान्विषयानिच्छेदिह परत्र वा॥७॥

टीका इस लोक में वह अपनी वृत्ति से अधिक समृद्धिकी मृत्यु की या जीवन की अभिलाषा न करे। इसी प्रकार वह वेदादि से निषिद्ध अप्रशस्त विषयों की इस या परलोक के विषय में भी अभिलाषा न रखे॥७॥
मूलम्

न वृत्तेरधिकामृद्धिं न मृत्युं न च जीवितम्। न चाप्रशस्तान्विषयानिच्छेदिह परत्र वा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पापेन न पुण्येन नात्यायासेन कर्मणा। सम्पदां संग्रहं कुर्याद्विपदां च प्रतिक्रियाम्॥८॥

टीका वह अपनी सम्पत्ति का संग्रह तथा आपत्तियों का प्रतीकार चौर्य या हिंसादि कृत्यों के कारण पापों के द्वारा प्राप्त सम्पत्ति कारणभूत लक्ष्मीव्रतादि पुण्याचरणों के द्वारा अथवा अविहित या प्रतिषिद्ध काम्यकर्मों को अतिशय प्रयत्नों के द्वारा सम्पादित नहीं करे। (विहित तथा अप्रतिषिद्ध ऐसे कर्म जो अतिशय प्रयासकारी न हो - उन्हीं से सम्पत्ति का संग्रह तथा विपत्ति का प्रतीकार करना चाहिए ) ॥ ८ ॥
मूलम्

न पापेन न पुण्येन नात्यायासेन कर्मणा। सम्पदां संग्रहं कुर्याद्विपदां च प्रतिक्रियाम्॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनैव प्रतिषिद्धेन सर्वार्थान्साधयेत्सुधीः। नोपेक्षेत च भूतानां व्यसनं शक्यवारणम्॥९॥

टीका उत्तमबुद्धि सम्पन्न पुरुष बिना किसी प्रतिषिद्ध कर्म के आचरण के अपने तथा आचार्यादि के सभी अभीष्ट अर्थों की सिद्धि करे । तथा असद्भूत चेतन के जो स्वयं के द्वारा निवारण योग्य व्यसन (कष्ट विपत्तियां) की उपेक्षा न करे ( अर्थात् शक्य भूतादि व्यसनों की संभव विपत्तियों को स्वयं ही दूर करने का उद्यम करे ) किन्तु पूज्य गुरु आदि सत्पुरुषों की अशक्य विपत्तियों के निवारणार्थ स्वयं के अतिशय प्रयास के द्वारा भी निवारण किया जाना उचित है ॥ ९ ॥
मूलम्

विनैव प्रतिषिद्धेन सर्वार्थान्साधयेत्सुधीः। नोपेक्षेत च भूतानां व्यसनं शक्यवारणम्॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विषज्वरभूतादिहरणं स्तम्भनादि च। नाद्भुतानि तथान्यानि साधयेत्सत्त्वसंश्रयः॥१०॥

टीका वह सत्वादि का आश्रय या शक्ति को प्राप्त कर उसके द्वारा न सर्पादि के विष या ज्वरादि व्याधि, ब्रह्मराक्षस आदि का मन्त्रों से निवारण, अग्नि तथा जल का स्तम्भन, उच्चाटन आदि अन्य अद्भूत कर्मों की साधना न करे ॥ १० ॥
मूलम्

न विषज्वरभूतादिहरणं स्तम्भनादि च। नाद्भुतानि तथान्यानि साधयेत्सत्त्वसंश्रयः॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विपत्तिषु वैक्लव्यं नोदयेषु समुन्नतिम्। न कामेषु प्रसक्तिञ्च भजेदच्युतमानसः॥११॥

टीका वह विपत्ति के अवसर पर अधीरता (वैक्लव्य) तथा उदय एव उन्नति की दशा में उन्नतभाव न रखे। वह भोगादि में अतिशय संगभाव भी न रखकर एकाग्रमन से स बिना स्थितियों के प्रभावों के श्री अच्युत का भजन करता रहे॥ ११॥
मूलम्

न विपत्तिषु वैक्लव्यं नोदयेषु समुन्नतिम्। न कामेषु प्रसक्तिञ्च भजेदच्युतमानसः॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनिन्दितः प्रशस्तो वा विमतः संमतोऽपि वा। विलुप्तोऽभ्यर्चितो वापि विक्रियेत न तत्त्ववित्॥१२॥

टीका वह तत्वभूत श्रीविष्णु का स्मरण तथा ज्ञान रखते हुए अपनी दुर्जनों के द्वारा निन्द के किये जाने या सद्गुणों के कारण स्तुति किये जाने, किसी के अविश्वास से चाहने पर अथवा किसी के विश्वासपात्र हो जाने की स्थिति में, किसी से अपमानित (विलप्त ) अथवा आदर प्रदान करने की दशा में ( को प्राप्त करने पर) हर्ष य शोकादि विकारों को प्राप्त न करे ॥ १२॥
मूलम्

विनिन्दितः प्रशस्तो वा विमतः संमतोऽपि वा। विलुप्तोऽभ्यर्चितो वापि विक्रियेत न तत्त्ववित्॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च क्रियान्तरङ्गाणां नायस्येदप्यसम्भवे। हानिं निवेद्य देवाय मनसैव प्रपूरयेत्॥१३॥

टीका वह अपने इष्टदेव की अर्चना में अपेक्षित द्रव्यों के सम्भव या प्राप्त न होने प अधिक प्रयास न करे या बिल्कुल ही न मिलने पर अधिक प्रयास न करे या बिल्कु ही न मिलने पर दुष्करायास भी न करते हुए इष्टदेव को उस पदार्थ का अभा निवेदित करते हुए केवल उस पदार्थ को मन से निवेदित कर दे ( तथा वह न प्राप्त हो वाले पदार्थों की मानसिक भाव से पूर्ति कर लेवे ) ॥१३॥
मूलम्

न च क्रियान्तरङ्गाणां नायस्येदप्यसम्भवे। हानिं निवेद्य देवाय मनसैव प्रपूरयेत्॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्जयेत्प्रतिषिद्धानि सर्वाण्यस्खलितः शुचिः। प्रवृत्ते कारणं चात्र कामक्रोधादिकं त्यजेत्॥१४॥

टीका वह पवित्रभाव में स्थित रहते हुए बिना किसी अर्चनादि की त्रुटि करते हुए सभ निषिद्ध कार्यों तथा पदार्थों का परित्याग कर दे तथा इन प्रतिषिद्धों में अपनी प्रवृि जाने के कारणभूत काम तथा क्रोधादि की वृत्तियों का भी वह परित्याग क देवे ॥ १४ ॥
मूलम्

वर्जयेत्प्रतिषिद्धानि सर्वाण्यस्खलितः शुचिः। प्रवृत्ते कारणं चात्र कामक्रोधादिकं त्यजेत्॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगम्यागमनं हिंसामभक्ष्याणां च भक्षणम्। असत्यवचनं स्तेयं तद्वत्सङ्गांश्च वर्जयेत्॥१५॥

टीका वह परदारादि अगम्यगमन, हिंसादि कर्मों, अभक्ष्यपदार्थों का भक्षण, अस सम्भाषण जैसे कर्मों, चोरी आदि दुष्कर्मों (पापाचरण) को तथा ऐसे कार्यों करनेवालों की संगति का भी परित्याग कर दे ॥ १५ ॥
मूलम्

अगम्यागमनं हिंसामभक्ष्याणां च भक्षणम्। असत्यवचनं स्तेयं तद्वत्सङ्गांश्च वर्जयेत्॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पातकानि समस्तानि गुरूणि च लघूनि च। विभोः कालुष्यकारीणि मनसापि न चिन्तयेत्॥१६॥

टीका वह गुरु तथा लघु रूपवाले सभी पातकों को भी जो इष्टदेव के प्रति मन में उत्पन्न करते हो तो ऐसे कार्यों की मन से भी चिन्तना छोड़ देवे ॥ १६ ॥
मूलम्

पातकानि समस्तानि गुरूणि च लघूनि च। विभोः कालुष्यकारीणि मनसापि न चिन्तयेत्॥१६॥

इति विहिताचारविरुद्धवर्जनम्॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं तु स्वपरोपायफलान्वयविरोधिनाम्। अन्यथा विपरीतं वा ज्ञानं हानिकरं परम्॥१७॥

टीका वह ऐसे ज्ञान को (दृष्टि को ) जिसमें प्रत्यगात्म स्व तथा प्राप्य ब्रह्म के उपाय, फल तथा सम्बन्ध के विरोधि अन्यथाज्ञान या विपरीतज्ञान को अतिशय हानिकारक समझे ॥ १७॥
मूलम्

ज्ञानं तु स्वपरोपायफलान्वयविरोधिनाम्। अन्यथा विपरीतं वा ज्ञानं हानिकरं परम्॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छन्दांसि सरहस्यानि दिव्यशास्त्रान्विताः स्मृतीः। न जातु विचिकित्सीत पुराणादि च सात्विकम्॥१८॥

टीका वह रहस्यों से सम्पन्न वेदों तथा उपनिषद् आदि की, दिव्य शास्त्र पञ्चरात्र आगम आदि तथा शास्त्रानुगत स्मृतियों की तथा सात्विक पुराणों (श्री विष्णुपुराण तथा श्रीमद्भागवतादि) आदि की न तो निन्दा करे न व्यर्थ ही उनके वचनों पर संशय या अप्रासंगिक विवेचन ही करे ॥ १८ ॥
मूलम्

छन्दांसि सरहस्यानि दिव्यशास्त्रान्विताः स्मृतीः। न जातु विचिकित्सीत पुराणादि च सात्विकम्॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरण्यमिज्यं लक्ष्मीशं सदा सेव्यमनिच्छताम्। नेच्छेद्दृष्टिं कुदृष्टीनां सुधीः श्रुत्यर्थनिर्णयात्॥१९॥

टीका जो परमेश शरणागत की रक्षण करने में समर्थ है तथा जिससे यज्ञादि सम्पन्न होते हैं ऐसे श्री लक्ष्मीपति की सेवा को न चाहने वाले तथा उनके ज्ञान को न रखनेवाले को वह पुराण, इतिहास, पञ्चरात्र तथा श्रुत्यादि के अर्थों के विनिश्चय को ध्यान में रखते हुए न चाहे और न ही संगति में रहे ॥ १९॥
मूलम्

शरण्यमिज्यं लक्ष्मीशं सदा सेव्यमनिच्छताम्। नेच्छेद्दृष्टिं कुदृष्टीनां सुधीः श्रुत्यर्थनिर्णयात्॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं ज्ञेयं च तत्त्वेन कारणं चाच्युतं परम्। अजानद्भिर्वृथानीतान्नाश्रयेन्यायविस्तरान्॥२०॥

टीका जिनसे श्रीहरि जाने जाते हो ऐसे ज्ञान, शास्त्ररूप, ज्ञेय तथा तात्विकभूत इस जगत् के जो कारणभूत तथा इन सभी से जो परे भी हैं वह श्री अच्युत ही हैं, यह न जानने वाले पण्डितों के साथ न्याय तथा उनके विस्तरों को व्यर्थ या बिना ही हेतु या अर्थ के दिखलाने वाले समझ कर उनकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिए ( परन्तु तात्वि न्यायपरिशुद्ध ऐसी वस्तु की सहमति रखे जो कुदृष्टि से रहित हो || २० |
मूलम्

ज्ञानं ज्ञेयं च तत्त्वेन कारणं चाच्युतं परम्। अजानद्भिर्वृथानीतान्नाश्रयेन्यायविस्तरान्॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतिं पुरुषं योगं परं प्राप्यञ्च माधवम्। अन्यथा मन्यमानानां स्मृतीश्चपरिवर्जयेत्॥२१॥

टीका त्रिगुणात्मिक स्वरूप वाली प्रकृति तथा चिद्विशिष्ट पुरुष के सम्बन्ध अथवा जीवाल परमात्म सम्बन्ध को मुक्त्युपाय से प्राप्य माधव से अन्यथा या दूसरे कार्यादि प्राप्य मोक्ष को बतलाने वाले सांख्य, योग दर्शन, स्मृति आदि को भी ( श्रीहरि व भक्ति के तथा सिद्धान्त के प्रतिकूल समझते हुए) अनन्यभाव के प्रति बाधक समझन चाहिए ॥ २१ ॥
मूलम्

प्रकृतिं पुरुषं योगं परं प्राप्यञ्च माधवम्। अन्यथा मन्यमानानां स्मृतीश्चपरिवर्जयेत्॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाद्रियेत पुराणादीन्राजसांस्तामसांस्तथा। अनीशानां परेशत्वं वृथा यत्रोपवर्ण्यते॥२२॥

टीका इसी तरह रजोगुण की प्रधानता तथा तमोगुण की प्रमुखता के प्रतिपादक ऐसे पुराणों क भी जिनमें ईश श्रीमन्नारायण की परमप्रभुता से भिन्न अन्य देवेश ब्रह्मादि की प्रमुखत वर्णित हो ॥२२॥
मूलम्

नाद्रियेत पुराणादीन्राजसांस्तामसांस्तथा। अनीशानां परेशत्वं वृथा यत्रोपवर्ण्यते॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा रुद्रेण कथितं मोहनं क्षुद्रकामदम्। तन्त्रं बहुविरुद्धञ्च तामसं परिवर्जयेत्॥२३॥

टीका इसी प्रकार तामस तत्व से अनुप्राणित श्रीरुद्र द्वारा कथित सामान्य एवं लौकि इच्छाओं की पूर्ति करने तथा उन्हें प्रदान कर देने में समर्थ पाशुपतादि तन्त्रों को भी भगवन्निष्ठा में बाधक मानकर परिहार्य माने ॥ २३ ॥
मूलम्

तथा रुद्रेण कथितं मोहनं क्षुद्रकामदम्। तन्त्रं बहुविरुद्धञ्च तामसं परिवर्जयेत्॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्येषां त्रिदशादीनां स्तुतीर्मन्त्रांश्च वर्जयेत्। निबन्धनं गुणादीनां निबन्धांश्चान्यचेतसाम्॥२४॥

टीका अन्य उपास्य देवगणों की स्तुति तथा उनके मन्त्रादि का भी काम्य पाठ नहीं किया जावे जिनमें उन उन देवगणों के आपदादि उद्धारक गुणों का विवरण दिया जावे तो इष्ट प्रभुनारायण से मन को हटानेवाले हो तो उनका भी परित्याग करे॥२४॥
मूलम्

अन्येषां त्रिदशादीनां स्तुतीर्मन्त्रांश्च वर्जयेत्। निबन्धनं गुणादीनां निबन्धांश्चान्यचेतसाम्॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्यं दुष्टं तमोनिष्ठं विपरीतमनर्थकम्। मतं न सौगतादीनां मनसापि विचिन्तयेत्॥२५॥

टीका तथा इसी प्रकार वेदब्राह्म तथा वेदादि के विपरीत रहने वाले कुतर्ककारी तमोनिष्ठ तथा व्यर्थ के विषयों का विवेचन करनेवाले सौगतादि (बौद्धादि ) धर्म तथा दर्शनादि के मत हैं उनका अंतःकरण को लगाकर चिन्तन नहीं करना चाहिए ॥ २५ ॥
मूलम्

बाह्यं दुष्टं तमोनिष्ठं विपरीतमनर्थकम्। मतं न सौगतादीनां मनसापि विचिन्तयेत्॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं मतानि चान्येषां पश्येत्प्राज्ञोऽपनुत्तये। न च तेषु प्रसज्जेत नानुमन्येत नाभ्यसेत्॥२६॥

टीका चाहे बुद्धिमान् पण्डित वेद ब्राह्म मत के प्रतिपादक धर्मग्रन्थों तथा दर्शनों को उनके खण्डन के लिये ही देखें तथा उनका अध्ययन करे किन्तु वह उन उन मतों में मन को न लगाये और न उनके तर्कों का अनुमोदन मन में लाये और उनका आदरपूर्वक अध्ययन ही करे ॥ २६॥
मूलम्

कामं मतानि चान्येषां पश्येत्प्राज्ञोऽपनुत्तये। न च तेषु प्रसज्जेत नानुमन्येत नाभ्यसेत्॥२६॥

इति दृष्टिविरुद्धाधिकारः॥ भक्तिविरुद्धवर्जन

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपचारांश्च विविधान्हरेर्यत्नेन वर्जयेत्। महानपायो माध्यस्थ्यं किं पुनर्विपरीतता॥२७॥

टीका श्रीहरि के विषय में अन्य मतों के द्वारा आक्षेपों से पूर्ण विविध चिन्तनों तथा तर्कों का प्रयत्नपूर्वक निराकरण करना चाहिए। इस कार्य में मध्यस्थता या तटस्थता और भी अनर्थकारी होती है फिर विपरीत भाव रखना तो और भी अनर्थकारी होगा ॥२७॥
मूलम्

अपचारांश्च विविधान्हरेर्यत्नेन वर्जयेत्। महानपायो माध्यस्थ्यं किं पुनर्विपरीतता॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्ण्वर्चारहिते ग्रामे विष्ण्वर्चारहिते गृहे। न कुर्यादन्नपानादि न तत्र दिवसं वसेत्॥२८॥

टीका ऐसे ग्राम में जहाँ श्रीविष्णु का अर्चन न होता हो (जहाँ श्रीविष्णु का कोई स्थान या मन्दिर न हो), जिस घर में श्रीविष्णु की उपासना तथा नित्य अर्चन न होता हो वहां अन्न तथा जल ग्रहण नहीं करना चाहिए तथा ऐसे स्थान पर एक दिन भी निवास या विश्राम न किया जावे ॥ २८॥
मूलम्

विष्ण्वर्चारहिते ग्रामे विष्ण्वर्चारहिते गृहे। न कुर्यादन्नपानादि न तत्र दिवसं वसेत्॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च मन्त्रोपजीवी स्यान्नचाप्यर्चोपजीविकः। नानिवेदितभोगश्च न च निन्द्यनिवेदकः॥२९॥

टीका श्रीहरि का प्रपत्तिशील भक्त अपनी जीविका मन्त्रों के पाठ तथा जप करके न चल और न ही देवपूजक होकर रहे । वह श्रीहरि को बिना अर्पण किये भोज करनेवाला और भगवान् को प्रसादरूप में नित्यवर्ज्य खाद्यादि को अर्पण करनेवा भी नहीं होना चाहिए ॥ २९ ॥
मूलम्

न च मन्त्रोपजीवी स्यान्नचाप्यर्चोपजीविकः। नानिवेदितभोगश्च न च निन्द्यनिवेदकः॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्ज्याःपाखण्डशैवाद्यैः स्थापिताश्च तथार्चिताः। अन्यत्र च स्वतो बद्धा नियमात्सर्वदेवताः॥३०॥

टीका ऐसी भगवत् प्रतिमाएं जिन्हें वैदिक ब्राह्मण पाखण्डजन तथा अन्य शैवादि ने स्थापित तथा पूजित की हो उनकी भी पूजनादि से दूर रहना चाहिए। नियमतः तु कर्मव सभी देवता भगवत् शरीरभाव के बिना उपासना के योग्य नहीं माने जा हैं॥ ३० ॥
मूलम्

वर्ज्याःपाखण्डशैवाद्यैः स्थापिताश्च तथार्चिताः। अन्यत्र च स्वतो बद्धा नियमात्सर्वदेवताः॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहे यस्यान्यदेवार्चाव्यक्तो न च जनार्दनः। न तस्य किञ्चिदश्नीयादपि वेदान्तवेदिनः॥३१॥

टीका जिस पुरुष के घर में अन्य देवगण की पूजन में श्रीविष्णु का पूजन व्यक्त रूप में नही होता हो तो यदि वह वेद या वेदान्तवेत्ता विद्वान् भी ( अनेक यज्ञादि का [कत्त|कर्ता] विद्वान् ब्राह्मण भी ) हो तो उसके यहाँ पर ( कुछ भी) अन्नादि ग्रहण नहीं करन चाहिए ॥ ३१ ॥
मूलम्

गृहे यस्यान्यदेवार्चाव्यक्तो न च जनार्दनः। न तस्य किञ्चिदश्नीयादपि वेदान्तवेदिनः॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्जयेदन्यदेवानामालयाद्युपसर्पणम्। तथा गोपुरहर्म्यार्च्चायानास्त्राद्यवलोकनम्॥३२॥

टीका इसी प्रकार श्रीविष्णु के अतिरिक्त अन्य देवताओं के मन्दिरों में दर्शनार्थ भक्ति से तो जाना ही चाहिए और न उनके गोपुर, निवास भवन तथा रथोत्सवादि क अवलोकन या उनके त्रिशूलादि अस्त्रों की अर्चना ही करना चाहिए ॥ ३२ ।
मूलम्

वर्जयेदन्यदेवानामालयाद्युपसर्पणम्। तथा गोपुरहर्म्यार्च्चायानास्त्राद्यवलोकनम्॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गीतवादित्रघण्टादिशब्दानां श्रवणं तथा। कर्माणि च समस्तानि बाह्यान्याभ्यन्तराणि च॥३३॥

टीका उनके मन्दिर में होनेवाले गीत, वादन तथा घण्टादि शब्दों का श्रवण तथा वह सम्पन्न होनेवाले अर्चनादि समस्त कर्म जो मन्दिर के अन्दर किये जाएं या ज मन्दिरों के बाहर हो रहे हों तो उनको भी नहीं देखना या कार्यों में सम्मिलित होन ही उचित है | |३३||
मूलम्

गीतवादित्रघण्टादिशब्दानां श्रवणं तथा। कर्माणि च समस्तानि बाह्यान्याभ्यन्तराणि च॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रव्याणां भुक्तभोगानां स्वीकारं स्पर्शनं तथा। भोगादीनां तदर्थं चाप्यर्थानां प्रतिपादनम्॥३४॥

टीका उन अन्य देवताओं के द्वारा भुक्त या अर्पित (प्रसादादि) अन्यान्य अन्नादि क स्वीकार करना उनका स्पर्श करते हुए या उनके वन्दनादि में झुक कर पृथ्वी क स्पर्श करना या उनके देवताओं को अर्पित किये जानेवाले भोग्य पदार्थों (अन्नादि पक्व या अपक्व पदार्थों) को समर्पित करना भी उचित नहीं है || ३४ ||
मूलम्

द्रव्याणां भुक्तभोगानां स्वीकारं स्पर्शनं तथा। भोगादीनां तदर्थं चाप्यर्थानां प्रतिपादनम्॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणामं स्पर्शनं सेवां स्मरणं कीर्तनं तथा। निन्दाञ्च तद्भक्तिपराण्यप्येतानि विवर्जयेत्॥३५॥

टीका इसी प्रकार उन सभी अन्य देवताओं को प्रणाम करने, उनका श्रद्धा से स्पर्श करने, उनके मन्दिरों में सम्मार्जन या सफाई के लिये उनके स्थानों को लीपने पोतने की सेवा करने, उनके स्वरूप का स्मरण या स्तुति आदि करने या अन्य देवगण को भक्ति के साथ मन से प्रणाम करने जैसी क्रियाएं भी उचित नहीं है ॥ ३५॥
मूलम्

प्रणामं स्पर्शनं सेवां स्मरणं कीर्तनं तथा। निन्दाञ्च तद्भक्तिपराण्यप्येतानि विवर्जयेत्॥३५॥

इतिभक्तिविरुद्धाधिकारः॥ अथ लक्ष्मविरुद्धवर्जनमाह—

विश्वास-प्रस्तुतिः

शंखचक्रोर्द्धपुण्ड्राद्यैश्चिह्नैःप्रियतमैर्हरेः। रहितः सर्वधर्मेभ्यः प्रच्युतो नैनमाप्नुयात्॥३६॥

टीका जो श्रीनारायण के अतिशय प्रिय शङ्ख, चक्र तथा उर्ध्वपुण्ड्र आदि लक्ष्म कहे गये हैं उनसे यदि कोई दीक्षित भक्त रहित है तो वह सभी धर्मों के अधिकारों से पतित होकर अन्त में श्रीनारायण को प्राप्त करने के योग्य नहीं रह जाता है ॥ ३६ ॥
मूलम्

शंखचक्रोर्द्धपुण्ड्राद्यैश्चिह्नैःप्रियतमैर्हरेः। रहितः सर्वधर्मेभ्यः प्रच्युतो नैनमाप्नुयात्॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्राम्बुजगदाशार्ङ्गखङ्गेभ्योऽन्यैर्हरेरपि। न लक्षणैर्दहेञ्चाङ्गान्नान्यदग्धोऽर्हति क्रियाम्॥३७॥

टीका श्रीनारायण के लक्ष्मभूत जो शंख, चक्र, गदा तथा शार्ङ्ग और खड्ग है, इन पांचो के अतिरिक्त उनके अन्य किसी लक्ष्म से दग्ध पुरुष उनकी अर्चनादि क्रिया के योग्य किङ्करभाव भी प्राप्त करने के योग्य नहीं है || ३७ ॥
मूलम्

चक्राम्बुजगदाशार्ङ्गखङ्गेभ्योऽन्यैर्हरेरपि। न लक्षणैर्दहेञ्चाङ्गान्नान्यदग्धोऽर्हति क्रियाम्॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारयेन्नान्यचिह्नानि विशेषेणाङ्कनं क्वचित्। धारणादन्यचिह्नानां महदाप्नोति किल्बिषम्॥३८॥

टीका अन्य देवगण के चिन्हों का तथा विशेषकर शरीर पर तप्त मुद्रा के दाह चिन्हों को धारण नहीं करना चाहिए, क्योंकि इन अन्य देवताओं के चिन्हों को धारण करने ( या श्रीविष्णु के ही इन चिन्हों से भिन्न किसी लक्ष्म की धारण करने) पर अतिशय किल्विष (ऐकान्त्यभंगरूपदोष या उसके कारण आपराधिकता) को प्राप्त करता है॥ ३८॥
मूलम्

धारयेन्नान्यचिह्नानि विशेषेणाङ्कनं क्वचित्। धारणादन्यचिह्नानां महदाप्नोति किल्बिषम्॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यचिह्नाङ्कितान्मर्त्यान् दूरतः परिवर्जयेत्। पयोऽस्थिचर्ममांसादि पशूनां चातिगर्हितम्॥३९॥

टीका जो मनुष्य या प्राणी श्रीनारायण के शंकचक्रादि चिह्नों से अंकित नहीं हो तो उसक परित्याग करना चाहिए तथा ऐसे पशुओं का दूध अस्थि, चर्म तथा मांसादि की भ ( जो अतिशय अपवित्र हैं उन्हें भी ) दूर से ही परित्याग करे ॥ ३९ ॥
मूलम्

अन्यचिह्नाङ्कितान्मर्त्यान् दूरतः परिवर्जयेत्। पयोऽस्थिचर्ममांसादि पशूनां चातिगर्हितम्॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृक्षादीनां च सर्वेषामकर्मण्यं फलादिकम्। अन्यचिह्नाङ्कितं चैव गृहक्षेत्रादिकं त्यजेत्॥४०॥

टीका ऐसे वृक्षादि जो अन्य चिन्हों से अंकित वृक्ष तथा लता आदि हों तो उनके फल तथा पत्रादि को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए तथा इसी प्रकार अन्य चिन्हांकित ग्रह तथा क्षेत्रादि के रहने पर उनका भी परित्याग करना योग्य है ||४०||
मूलम्

वृक्षादीनां च सर्वेषामकर्मण्यं फलादिकम्। अन्यचिह्नाङ्कितं चैव गृहक्षेत्रादिकं त्यजेत्॥४०॥

त्रिपुण्ड्र- स्वरूपादि विचार-

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्तुलं तिर्यगच्छिद्रं ह्रस्वं दीर्घन्ततं तनुम्। वक्रंस्वरूपं बद्धाग्रंछिन्नमूलं पदच्युतम्॥४१॥

टीका इसी प्रकार जो पुण्ड्र (तिलक) केवल मालाकार हो, तिरछे आकार में हो, छिद्र हीन हो, छोटे आकार का हो या बहुत बड़े आकार का हो, अपने विस्तार से न्यून या अधिक परिमाण वाला हो, अपने टेढ़े आकार में हो, असुन्दर या सीधे आकार में न हो, दोनों भौहों के मूलभाग में न मिलता हो, अपने निर्धारित स्थान से हट गया हो जो श्वेतवर्ण के हलकेपन से युक्त होकर शुभकारी न हो, जिसके हृदय स्थान से हव गया हो, जो श्वेतवर्ण के हलकेपन से युक्त होकर शुभकारी न हो, जिसके हृदय स्थान पर धारण करने का स्थान फोड़े आदि के कारण सूखा सा रहता हो, अन्य पुण्ड्र से लगा हुआ हो, जो स्वयं की (हस्त की) अंगुलियों के द्वारा किया हुआ न हो, जो किसी गन्ध से रहित हो, निर्धारित संख्या के अनुरूप धारण किया हुआ न हो तो ऐसा 'पण्डू' धारण करने पर भी अनर्थकारी या व्यर्थ समझन चाहिए। ४१-४२ ॥
मूलम्

वर्तुलं तिर्यगच्छिद्रं ह्रस्वं दीर्घन्ततं तनुम्। वक्रंस्वरूपं बद्धाग्रंछिन्नमूलं पदच्युतम्॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशुभ्रं रूक्षमासक्तं तथानङ्गलिकल्पितम्। विगन्धमपसंख्यञ्च पुण्ड्रमाहुरनर्थकम्॥४२॥

टीका इसी प्रकार जो पुण्ड्र (तिलक) केवल मालाकार हो, तिरछे आकार में हो, छिद्र हीन हो, छोटे आकार का हो या बहुत बड़े आकार का हो, अपने विस्तार से न्यून या अधिक परिमाण वाला हो, अपने टेढ़े आकार में हो, असुन्दर या सीधे आकार में न हो, दोनों भौहों के मूलभाग में न मिलता हो, अपने निर्धारित स्थान से हट गया हो जो श्वेतवर्ण के हलकेपन से युक्त होकर शुभकारी न हो, जिसके हृदय स्थान से हव गया हो, जो श्वेतवर्ण के हलकेपन से युक्त होकर शुभकारी न हो, जिसके हृदय स्थान पर धारण करने का स्थान फोड़े आदि के कारण सूखा सा रहता हो, अन्य पुण्ड्र से लगा हुआ हो, जो स्वयं की (हस्त की) अंगुलियों के द्वारा किया हुआ न हो, जो किसी गन्ध से रहित हो, निर्धारित संख्या के अनुरूप धारण किया हुआ न हो तो ऐसा 'पण्डू' धारण करने पर भी अनर्थकारी या व्यर्थ समझन चाहिए। ४१-४२ ॥
मूलम्

अशुभ्रं रूक्षमासक्तं तथानङ्गलिकल्पितम्। विगन्धमपसंख्यञ्च पुण्ड्रमाहुरनर्थकम्॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चन्दनादिभिर्गन्धैः कर्त्तव्यं न च भस्मना। न मृद्भिश्चाप्रशस्ताभिरूर्द्ध्वपुण्ड्रं कदाचन॥४३॥

टीका इसे चन्दन अगर आदि गन्धों से युक्त वस्तुओं से तथा भस्म आदि के द्वारा नही किया जाता है तथा इसी प्रकार साधारण मिट्टी जो कि प्रशस्त न हो तो उससे भी ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण न करने (क्षेत्र या पर्वतादि की प्रशस्त मृत्तिका से ही ऊर्ध्वपुण‍ किया जावे। ) ॥ ४३ ।
मूलम्

न चन्दनादिभिर्गन्धैः कर्त्तव्यं न च भस्मना। न मृद्भिश्चाप्रशस्ताभिरूर्द्ध्वपुण्ड्रं कदाचन॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमसो भस्म रजसो गन्धः सत्त्वस्य मृत्तिका। तस्माद्भस्मादिभिर्नैच्छेदेकान्ती शुद्धिमात्मनः॥४४॥

टीका भस्म आदि पदार्थ तामसिक, गन्धयुक्त पदार्थ राजस तथा मृतिका सात्विक कारण वाली होती है, अतः नैष्ठिक वैष्णव (एकान्ती) आत्मशुद्धि के कारणभूत तिलक को स्वयं करने में भस्मादि पदार्थों की इच्छा न करे या उनका उपयोग न करे ( किन्तु सात्विक मृत्तिका से ही ऊर्ध्वपुण्ड्र स्वयं सम्पादित करे ) || ४४ ||
मूलम्

तमसो भस्म रजसो गन्धः सत्त्वस्य मृत्तिका। तस्माद्भस्मादिभिर्नैच्छेदेकान्ती शुद्धिमात्मनः॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रौद्रवतादिनियतैस्तथा मोहनतान्त्रिकैः। शवेन्धनकरीषादिभस्मभिः कर्म साध्यते॥४५॥

टीका क्योंकि रुद्रादि के उपासनादि व्रतों में उपयोग की जाने वाली तथा मोहनादि कर्मों में तान्त्रिकादिजन के उपयोग में रहनेवाली भस्म जो कि शव, ईन्धन तथा करीषादि ( सूखे गोबरों) से प्राप्त होती है तथा जिससे तन्त्रादि कर्मों की साधना की जाती है। अतः ऐसी निषिद्ध भस्म से कभी ऊर्ध्वपुण्ड्र नहीं किया जावे ॥ ४५ ॥
मूलम्

रौद्रवतादिनियतैस्तथा मोहनतान्त्रिकैः। शवेन्धनकरीषादिभस्मभिः कर्म साध्यते॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलजं गन्धसारादि मृगनाभ्यादि जीवजम्। मनःशिलादि धातूत्थं त्रयं पुण्ड्रेषु कामिनाम्॥४६॥

टीका किसी वृक्ष की जड़ से प्राप्त सुगन्धित द्रव्य, किसी प्राणी के शरीर से प्राप्त होने वाले कस्तूरी आदि द्रव्य तथा धातु या पत्थर से निकलने वाले मनःशिला ( मैनसिल ) जैसे सुगन्धित द्रव्य इन तीनों से पुण्ड्र किसी पदार्थादि के कामीजन तिकलरूप में लगाते हैं। (अतः इनसे भी ऊर्ध्वपुण्ड्र नहीं करना चाहिए ) ॥ ४६ ॥
मूलम्

मूलजं गन्धसारादि मृगनाभ्यादि जीवजम्। मनःशिलादि धातूत्थं त्रयं पुण्ड्रेषु कामिनाम्॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्याद्रक्षाविधानञ्च नान्यैः पञ्च विना मृदः। गोरजो गोकरीषञ्च चूर्ण हारिद्रमेव च॥४७॥

टीका विहित तथा ग्राह्य पांच मृदा (मिट्टियों) को छोड़कर तथा गोरज, गोबर की राख, हरिद्रा के चूर्ण तथा पांच प्रकार की मृत्तिका को छोड़कर अन्य भस्मादि से रक्षाविधान कर्म नहीं करना चाहिए | | ४७ ॥
मूलम्

कुर्याद्रक्षाविधानञ्च नान्यैः पञ्च विना मृदः। गोरजो गोकरीषञ्च चूर्ण हारिद्रमेव च॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च भागवतः कुर्यादूर्ध्वपुण्ड्रममृत्तिकम्। धारणादेव मृत्स्नायाः प्रीयते धरणीधरः॥४८॥

टीका बिना विहित सात्विक मृत्तिका के अन्य किसी वस्तु से भागवत वैष्णव ऊर्ध्वपुण्ड्र न करे क्योंकि मृत्तिका के तिलक मात्र के धारण से धरणीधर श्रीविष्णु तुष्ट हो जाते हैं॥४८॥
मूलम्

न च भागवतः कुर्यादूर्ध्वपुण्ड्रममृत्तिकम्। धारणादेव मृत्स्नायाः प्रीयते धरणीधरः॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः प्रपन्नोऽपि लक्ष्मीशं न चक्रादिभिरंकितः। न वहत्यूर्ध्वपुण्ड्रं वा नैकान्त्यन्तस्य विद्यते॥४९॥

टीका जो वैष्णव श्रीविष्णु के प्रति प्रपत्ति अर्पित करने के पश्चात् चक्रादि से अंकित न तथा ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण न करता हो तो उसकी श्रीहरि के प्रति एकान्तिक निष्ठा रहेगी (अतः उसे ऊर्ध्वपुण्ड्रादि अवश्य धारण करना चाहिए ) ॥४९॥
मूलम्

यः प्रपन्नोऽपि लक्ष्मीशं न चक्रादिभिरंकितः। न वहत्यूर्ध्वपुण्ड्रं वा नैकान्त्यन्तस्य विद्यते॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजसाँस्तामसाँश्चैव व्यपदेशान्विवर्जयेत्। ध्रुवं व्यपेति भक्तोऽपि व्यपदेशैरसात्त्विकैः॥५०॥

टीका अतएव प्रपन्न वैष्णवों को राजस तथा तामस पदार्थों से तिलकादि के धारण कार्यों को नहीं करना चाहिए क्योंकि भक्त होने पर भी सात्विक पदार्थों से [रा|दूर] होनेवाला वैष्णव विशेषरूप में पतित हो जाता है ॥ ५० ॥
मूलम्

राजसाँस्तामसाँश्चैव व्यपदेशान्विवर्जयेत्। ध्रुवं व्यपेति भक्तोऽपि व्यपदेशैरसात्त्विकैः॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्त्विकं नाम शुद्धानामशुद्धानान्तु राजसम्। बाह्यादितंत्रसिद्धानां देवादीनान्तु तामसम्॥५१॥

टीका जो अनन्यभाव से इष्ट की अर्चना करते हो, ऐसे शुद्धजन का सात्विक अशुद्ध अन्यभावादि से इष्ट की अर्चनादि करनेवाले राजस तथा अवैदिक विधियों तान्त्रिक तथा उनके द्वारा इष्ट की अर्चना करनेवालों का 'तामस' नाम कहा है ॥ ५१ ॥
मूलम्

सात्त्विकं नाम शुद्धानामशुद्धानान्तु राजसम्। बाह्यादितंत्रसिद्धानां देवादीनान्तु तामसम्॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दास्यं हि नामकरणमपि तद्वाचकैर्विना। गुणकर्मादिभिः स्वैश्चरूढं श्लाघ्यैः सनातनम्॥५२॥

टीका इसी प्रकार श्रीभगवद्दास्य के बोधक शब्दों के बिना अशुद्धार्थ बोधक तथा अवै नाम भी न रखें जावें। यहां शुद्ध तथा वैदिक नाम के अतिरिक्त भी अपने ल दास्य कर्म जो गुण तथा कर्मों के बोधक हों तो ऐसे रूढ़ तथा संकेतितार्थ वाले ' रखे जाने उचित हैं || ५२ ॥
मूलम्

दास्यं हि नामकरणमपि तद्वाचकैर्विना। गुणकर्मादिभिः स्वैश्चरूढं श्लाघ्यैः सनातनम्॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युग्मैर्विवर्त्तितं रौद्रमयुग्मैर्ब्राह्ममुच्यते। उभयैस्तैर्व्यतिस्यूतमयुग्मैर्वेष्णवं गुणैः॥५३॥

उपवीतं सदा ब्राह्मं वैष्णवं कटिबन्धनम्। उभयं धारयेद्रौद्रं साधयन्कर्म तामसम्॥५४॥

टीका जो युग्म भाव (दो तन्तुओं) से पूर्ण हो उसे 'रौद्र' तथा अयुग्म या तीन से पूर्ण तथा इन दोनों को मिलाकर गुणोंसे बँटा हुआ हो वह वैष्णव 'उपवीतक' कहलात इनमें सदा ब्राह्म तथा वैष्णव उपवीत को कटिबन्ध प्रदेश तक धारण करे इन उपवीतों को धारण करना चाहिए तथा तामस कर्मों की साधना करते समय उपवीत धारण करना चाहिए ॥ ५३-५४ ॥
मूलम्

युग्मैर्विवर्त्तितं रौद्रमयुग्मैर्ब्राह्ममुच्यते। उभयैस्तैर्व्यतिस्यूतमयुग्मैर्वेष्णवं गुणैः॥५३॥

उपवीतं सदा ब्राह्मं वैष्णवं कटिबन्धनम्। उभयं धारयेद्रौद्रं साधयन्कर्म तामसम्॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामसं नग्नमेकन्तु राजसं वसनद्वयम्। कौपीनसहितं तत्तु सात्त्विकं मुनिभिः स्मृतम्॥५५॥

टीका शरीर पर एक वस्त्र का धारण करना 'तामस' दो वस्त्रों का धारण करना 'राजस' तथा कौपीन सहित दो वस्त्रों का धारण करना 'सात्विक' होने से सात्विक विधान से वस्त्रधारण करना अधिक उचित है ॥ ५५॥
मूलम्

तामसं नग्नमेकन्तु राजसं वसनद्वयम्। कौपीनसहितं तत्तु सात्त्विकं मुनिभिः स्मृतम्॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्भाक्षसूत्रवस्त्रांकनामपुण्ड्रविभूषणम्। अन्यत्तु तामसं सर्वं विशेषेण विवर्जयेत्॥५६॥

टीका इसी तरह जो तामस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले दर्भ, रुद्राक्ष, अन्य चिन्हादि से अंकित वस्त्रादि अथवा सूत्रादि या अयुग्म गुण (सूत्रों) से निर्मित कटिबन्धादि तथा त्रिशूलादि से या देवनामादि से अङ्कित अशुद्ध पुण्ड्रादि भूषण या त्रिशूलादि आकार के भूषण तथा इनके अतिरिक्त भी ऐसे तामस उपकरणों को ध्यान देते हुए छोड़ना उचित है ॥ ५६॥
मूलम्

दर्भाक्षसूत्रवस्त्रांकनामपुण्ड्रविभूषणम्। अन्यत्तु तामसं सर्वं विशेषेण विवर्जयेत्॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यतन्त्रैकसिद्धानि काम्यानि विविधानि च। द्रव्यनामादिरूपाणि लक्षणानि विवर्जयेत्॥५७॥

टीका अन्य आगमों के द्वारा विहित काम्य विविध कर्मों को एवं तन्त्रमात्र में व्यवहृत पारिभाषिक द्रव्यादि तन्त्रसिद्धरूप वाले द्रव्य तथा उनके विशेष आकारों (के बोधक चिन्हादि ) का भी व्यवहार न करे ॥ ५७॥
मूलम्

अन्यतन्त्रैकसिद्धानि काम्यानि विविधानि च। द्रव्यनामादिरूपाणि लक्षणानि विवर्जयेत्॥५७॥

इति लक्ष्मविरुद्धाधिकारः॥ सत्सेवाविरुद्ध

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरोरपह्नवात्त्यागात्साम्याद्विस्मरणादपि। लोभमोहादिभिश्चान्यैरपचारैर्विनश्यति॥५८॥

टीका अपने गुरु के नामादि को न बतलाते हुए, उनका परित्याग करने उनकी बराबरी या तुलना करने या उन्हें विस्मृत कर देने के कारण लोभ, मोह आदि गुरु के वैभव का ज्ञान न रखकर उनके प्रति उपचार या उपेक्षाभूत तिरस्कार के भाव रखने पर शिष्य का पतन होता है ॥ ५८ ॥
मूलम्

गुरोरपह्नवात्त्यागात्साम्याद्विस्मरणादपि। लोभमोहादिभिश्चान्यैरपचारैर्विनश्यति॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशेषाद्विष्णुभक्तेषु दम्भं लोभं नृशंसताम्। क्रोधमीर्ष्यांमदं मानं साम्यञ्च परिवर्जयेत्॥५९॥

टीका विशेषरूप में जो विष्णुभक्त हैं उन्हें ही बिना धर्म का आचरण किये हुए उनको बतलानेकी मिथ्या घोषणा के दम्भों, लोभ करना, किसी दीन के प्रति करुणा न रखना, क्रोध करना तथा दूसरों से समानता को देखने का भाव भी नहीं रखना चाहिए ॥ ५९ ॥
मूलम्

विशेषाद्विष्णुभक्तेषु दम्भं लोभं नृशंसताम्। क्रोधमीर्ष्यांमदं मानं साम्यञ्च परिवर्जयेत्॥५९॥

वैष्णव के दो प्रभेद-

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एकान्त्यन्यविमुखो हरिं सर्वेश्वरं प्रभुम्। यः समाश्रयते किंचित्फलमभ्यर्थयन्नरः॥६०॥

टीका जो भक्त मनुष्य दूसरे देवताओं से हटकर श्रीविष्णु के पाद सेवन भक्ति या उन ज्ञान के प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हुए सर्व जगत के अधिपति श्रीहरि प्रपत्ति या आश्रय को ग्रहण करता हो तो वह 'एकान्ती' वैष्णव कहला है॥६०॥
मूलम्

स एकान्त्यन्यविमुखो हरिं सर्वेश्वरं प्रभुम्। यः समाश्रयते किंचित्फलमभ्यर्थयन्नरः॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यस्ताशेषभरः श्रीशे यस्तु दास्यैकजीवितः। स एष परमैकान्ती द्वावेतौ वैष्णवा स्मृतौ॥६१॥

टीका तथा जो भक्त नर अपने आत्मा के समस्त भर को श्रीहरि के प्रति अर्पित कर न्यस्त करता हो और उनके दासभाव के अतिरिक्त अन्य सत्तामय स्थिति की काम नहीं रखता हो तो ऐसा पुरुष 'परमैकान्ती' वैष्णव कहलाता है ॥ ६१॥
मूलम्

न्यस्ताशेषभरः श्रीशे यस्तु दास्यैकजीवितः। स एष परमैकान्ती द्वावेतौ वैष्णवा स्मृतौ॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्ये त्ववैष्णवाः सर्वे मनुष्या जिह्मदृष्टयः। असतस्तान्विदुर्देवास्तैः सतां नास्ति सङ्गमः॥६२॥

टीका इन दो प्रकार के वैष्णवो को छोड़कर शेष सभी कुटिल बुद्धि के कारण अवैष्णव म गये हैं, जिन्हें देवगण असन्त भूत मानकर उनके साथ सन्तों के समागम को स्वीक नहीं करते हैं ॥ ६२ ।
मूलम्

अन्ये त्ववैष्णवाः सर्वे मनुष्या जिह्मदृष्टयः। असतस्तान्विदुर्देवास्तैः सतां नास्ति सङ्गमः॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवैष्णवात्स्वधर्मस्थाद्वैष्णवः स्खलितोऽपि सन्। श्रेयानेव हि मन्तव्यो मूलात्स न परिच्युतः॥६३॥

टीका जो अपने वर्ण तथा आश्रम धर्मों मे अवस्थित होने वाले किन्तु अवैष्णव हों उन अपेक्षा अपने धर्म तथा कर्त्तव्यों से किन्चित् स्खलित हो जानेवाला भी यदि वैष्णव तो भी वह श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि वह अपनी मूलस्थिति से पतित न है ॥ ६३ ॥
मूलम्

अवैष्णवात्स्वधर्मस्थाद्वैष्णवः स्खलितोऽपि सन्। श्रेयानेव हि मन्तव्यो मूलात्स न परिच्युतः॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वेश सम्बन्धविज्ञानं मूलमन्याः क्रियाः पुनः। तस्य शाखाः प्रशाखाश्च काश्च ता मूलवर्जिताः॥६४॥

टीका इसका कारण अपने इष्ट देव आराध्य श्रीविष्णु तथा उनके साथ अपने दास्यभ का उसे ज्ञान है जो मूल माना जाता है तथा अन्य कार्य इसी मूल की शाखा, तथा उपशाखाएं होती है ये अपने मूल से रहित होने से अर्थ नहीं होत रखती है॥६४॥
मूलम्

स्वेश सम्बन्धविज्ञानं मूलमन्याः क्रियाः पुनः। तस्य शाखाः प्रशाखाश्च काश्च ता मूलवर्जिताः॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्यानां जिह्मदृष्टीनामज्ञानां संशयात्मनाम्। नालोकमपि कुर्वीत न च तैः किञ्चिदाचरेत्॥६५॥

टीका जो अपनी विरुद्ध बुद्धि तथा दृष्टि रखने के कारण बाह्य हैं तथा जिनकी अन्यथा दृष्टि हों ऐसे अज्ञानयुक्त संशयात्मा पुरुषों को अपने वैष्णवशास्त्र का दर्शन भी बतलाना इष्ट नहीं। अतः ऐसे पुरुषों के साथ लोक व्यवहार का आदान प्रदान न रखा जावे तथा शास्त्रीय यज्ञ दानादि का व्यवहार तो बिल्कुल ही नहीं रखना चाहिए ॥ ६५ ॥
मूलम्

बाह्यानां जिह्मदृष्टीनामज्ञानां संशयात्मनाम्। नालोकमपि कुर्वीत न च तैः किञ्चिदाचरेत्॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपन्नैश्चान्यभजनाद्युक्तापायसमन्वितैः। वैष्णवो वर्जयेत्सङ्गं प्रच्युतास्ते वैष्णवाः॥६६॥

टीका और जो शास्त्रोक्त भजनादि उपाय के साथ दूसरे इष्टदेव की प्रपत्ति में स्थित हों तो ऐसे अवैष्णव पुरुषों के साथ भी वैष्णव सङ्गति न रखे। क्योंकि जो अवैष्णव हैं वे सभी दूसरे देवगणों के भजनादि प्रपत्ति कार्यों के करने से स्खलिताचारवाले हो गये हैं ॥ ६६ ॥
मूलम्

प्रपन्नैश्चान्यभजनाद्युक्तापायसमन्वितैः। वैष्णवो वर्जयेत्सङ्गं प्रच्युतास्ते वैष्णवाः॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवेषु पित्र्येषु तथाधर्मार्थेष्वितरेषु च। अवैष्णवं न गृह्णीयात्पात्रं दानेषु कर्हिचित्॥६७॥

टीका देवता के उद्देश्य से तथा पितरों के श्राद्धादि प्रयोजन से एवं धर्मादि के अन्य किसी कार्यवश या लौकिक कार्यवश भी अनैकान्ती अवैष्णवजन को दानादि के पात्ररूप में न तो आमन्त्रित करे और न ही देवादि कार्यों में उन्हें सम्मिलित करे॥६७॥
मूलम्

देवेषु पित्र्येषु तथाधर्मार्थेष्वितरेषु च। अवैष्णवं न गृह्णीयात्पात्रं दानेषु कर्हिचित्॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कञ्चित्प्रतिगृह्णीयाद्विष्णुभक्तिविवर्जितात्। पानीयं पक्वमन्नञ्च विशेषण विवर्जयेत्॥६८॥

टीका इसी प्रकार किसी विष्णुभक्ति से रहित पुरुष के द्वारा अर्पित जल, पक्वान्न तथा फलादि को विशेषरूप से ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥ ६८ ॥
मूलम्

न कञ्चित्प्रतिगृह्णीयाद्विष्णुभक्तिविवर्जितात्। पानीयं पक्वमन्नञ्च विशेषण विवर्जयेत्॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यार्थीसंप्रयोगोऽपि प्राकृतैर्न कथंचन। विवादोऽपि न कर्त्तव्यः क्रीडासंकथनानि च॥६९॥

टीका इसी प्रकार ऐसे अवैष्णवजनों के साथ विद्या के आदान-प्रदान या अध्ययनादि या अध्यापनादि का कार्य भी नहीं रखे, क्योंकि ये प्राकृतजन या अलग माने जाने वाले पुरुष होते हैं अतः इनके साथ शास्त्रादि विवाद तथा इष्टआलाप भी न रखा जावे॥६९॥
मूलम्

विद्यार्थीसंप्रयोगोऽपि प्राकृतैर्न कथंचन। विवादोऽपि न कर्त्तव्यः क्रीडासंकथनानि च॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैकस्मिन्भजेत्साम्यं कर्मण्यैकान्त्यवर्जितैः। न चैषां कर्म कुर्वीत न स्वकर्म च कारयेत्॥७०॥

टीका किसी एक लौकिक अथवा वैदिक-कर्म में इन प्राकृत तथा एकान्त वर्जित जन की समानता नहीं हो सकती है। अतएव इन अवैष्णवजन से अपने लौकिक अथवा वैदिक कर्मों को सम्पादन नहीं करवाना चाहिए तथा न ही स्वयं इनके लौकिक अर्थ वैदिक कर्मों का सम्पादन ही करना चाहिए ॥ ७० ॥
मूलम्

न चैकस्मिन्भजेत्साम्यं कर्मण्यैकान्त्यवर्जितैः। न चैषां कर्म कुर्वीत न स्वकर्म च कारयेत्॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंक्तौसमाजे ग्रामादौ न त्वभागवतोत्तरे। वसेदेकत्र भवने नैकेनाप्यसता सह॥७१॥

टीका अवैष्णवजन की अधिक संख्या में स्थिति वाले ग्रामों में, भोजनादि पंक्ति में, सम (समूह) में तथा ऐसे भवनों में जहाँ ऐसे एक अवैष्णव व्यक्ति की भी स्थिति रह पर वहां इनके साथ निवास न करे ॥ ७१ ॥
मूलम्

पंक्तौसमाजे ग्रामादौ न त्वभागवतोत्तरे। वसेदेकत्र भवने नैकेनाप्यसता सह॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीत्यप्रीतिसमायोगं स्पर्शं मुक्तिं सहोषिताम्। स्वैरप्यैकान्त्यविमुखैरघवर्जं विवर्जयेत्॥७२॥

टीका अपने आत्मीय या पारिवारिक जन के साथ प्रीति या हर्ष के कल्याणादि अवसरों प तथा अप्रीति के शोकादि अवसरों के व्यवहारार्थ उन सभी के साथ मिलने, सा भोजन करने, एक आसन पर एक साथ बैठने आदि समागम के अवसर पर एकान्त्यभाव से रहित अपने जन के होने पर अघ या आशौचादि की स्थिति छोड़कर उनके साथ अपना व्यवहारादि सम्बन्ध न रखे ॥ ७२ ॥
मूलम्

प्रीत्यप्रीतिसमायोगं स्पर्शं मुक्तिं सहोषिताम्। स्वैरप्यैकान्त्यविमुखैरघवर्जं विवर्जयेत्॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवैष्णवं न वन्देत नार्चयेद्विधिपूर्वकम्। संप्रश्नासनदानादि कुर्याद्वाप्यानृशंस्यतः॥७३॥

टीका अवैष्णवजन को न तो नमस्कार करे और न ही गुणशाली होने पर भी उन विधिपूर्वक अर्चना ही करे। उनसे कुशल मंगल के प्रश्न उन्हें आसनादि का दे आदि भी निस्संकोच भाव से न करे ॥७३॥
मूलम्

अवैष्णवं न वन्देत नार्चयेद्विधिपूर्वकम्। संप्रश्नासनदानादि कुर्याद्वाप्यानृशंस्यतः॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभक्तमच्युतस्यापि नावमन्येत कञ्चन। हितं वा बोधयेत्साधोर्दद्याद्वा किञ्चिदीप्सितम्॥७४॥

टीका परन्तु अच्युतविषयक भक्ति से रहित भी किसी भक्त की कभी भी अवहेलना तिरस्कार नहीं करना चाहिए। यदि ऐसे साधु अवैष्णवजन सामने मिल जावें उनसे कुशल मंगलादि हित-संभाषण अवश्य करना चाहिए तथा उन्हें शक्ति अनुसार इष्ट वस्तु को भी देना चाहिए ॥ ७४ ॥
मूलम्

अभक्तमच्युतस्यापि नावमन्येत कञ्चन। हितं वा बोधयेत्साधोर्दद्याद्वा किञ्चिदीप्सितम्॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च मैत्रीं प्रकुर्वीत वैष्णवः प्राकृतैः सह। क्वायमच्युतसक्तात्मा क्व ते विषयचंचलाः॥७५॥

टीका वैष्णव भक्त अवैष्णव प्राकृतजन के साथ मैत्री न रखे क्योंकि कहाँ तो अच्युत भक्ति में आत्मन्यास करनेवाला वैष्णव तथा कहां वे विषय से भिन्न प्रकृति अस्थिर भाव वाले अवैष्णव जन। (इन दोनों की समानता शक्य ही नहीं है) अ मैत्री कैसे हो सकेगी ॥ ७५ ॥
मूलम्

न च मैत्रीं प्रकुर्वीत वैष्णवः प्राकृतैः सह। क्वायमच्युतसक्तात्मा क्व ते विषयचंचलाः॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असतां गुणकर्माणि नानुमोदेत किंचन। स्मरणादपि यत्तेषां महदाप्नोति किल्बिषम्॥७६॥

टीका अतएव ऐसे अवैष्णवजन के औदार्यादि गुणों तथा अरि-निरसनादि कर्मों की अशास्त्रविहित स्थिति का अनुमोदन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन उन अशास्त्रीय गुण कर्मों के स्मरणमात्र से महान् किल्विष उत्पन्न होता है। ( अतः उनके स्मरणादि तथा अनुमोदन करने की उपेक्षा नहीं रखे ॥ ७६ ॥
मूलम्

असतां गुणकर्माणि नानुमोदेत किंचन। स्मरणादपि यत्तेषां महदाप्नोति किल्बिषम्॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशिष्टः परमैकान्ती ज्ञानवैराग्यभक्तिभिः। तादृशैरेव कुर्वीत सह संकथनादिकम्॥७७॥

उक्तान्येतानि सर्वाणि योऽवमन्येत मूढधीः। स एष तमसोऽभ्येति पारमैकान्त्यवर्जितः॥७८॥

टीका अपने ज्ञान, वैराग्य तथा भक्तिभाव के कारण एकान्ती वैष्णव अन्य सभी दूसरों की अपेक्षा विशिष्ट है, अतः ऐसे विशिष्टजन के साथ ही संकथन कुशल प्रश्नादि कार्य रखना चाहिए और जो बुद्धिहीन पुरुष इन कहे गये सभी उपदेशों की अवहलेना करता है वहीं एकान्तवर्जित होकर तमस् के पार ( अतिशय तमस् के घने समुद्र में ) चला जाता है॥७७-७८॥
मूलम्

विशिष्टः परमैकान्ती ज्ञानवैराग्यभक्तिभिः। तादृशैरेव कुर्वीत सह संकथनादिकम्॥७७॥

उक्तान्येतानि सर्वाणि योऽवमन्येत मूढधीः। स एष तमसोऽभ्येति पारमैकान्त्यवर्जितः॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वृत्तिमिमां सम्यक्कुर्वाणो विगतव्यथः। विसृज्य देहं प्राप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्॥७९॥

टीका तथा पूर्व में कथित विहिताचारकी वृत्ति में स्थित रहने वाला एकान्ती अपनी समस्त व्यथाओं से मुक्त होकर तथा अपने देह के छूटने पर श्रीहरि के परमपद की प्राप्ति कर लेता है॥७९॥
मूलम्

अथ वृत्तिमिमां सम्यक्कुर्वाणो विगतव्यथः। विसृज्य देहं प्राप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्॥७९॥

इति सत्सेवाविरुद्धाधिकारः।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशक्तमपि च स्मर्तुमन्ते पूर्वकृतं स्मरन्। स्वयमेव परं धाम स्वयं नयति माधवः॥८०॥

टीका जब शरीर की अवसन्न दशा में परमेश्वर के स्मरण की शक्ति नहीं रहने से ( अन्त समय में) ईशस्मरण न होने के कारण वैष्णवजन के भी ईश स्मरण करने में अशक्त हो जाने पर भी श्रीनारायण स्वयं ही आकर उसे अपने वैकुण्ठधाम में ले आते हैं। ८० ॥
मूलम्

अशक्तमपि च स्मर्तुमन्ते पूर्वकृतं स्मरन्। स्वयमेव परं धाम स्वयं नयति माधवः॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न खल्वपि दशादेशकालहेतुविपर्ययैः। प्रपत्तुस्त्यक्तदेहस्य परा यात्रा विहन्यते॥८१॥

टीका प्रपत्ति को लेने वाले वैष्णव भक्त की दशा, पुण्य-क्षेत्रादि देश, उत्तरायण आदि क तथा इनके कारण के विपरीत रहने पर भी उसकी जब देह छूट जाए तो भी उस परमयात्रा में अर्चिरादिमार्ग में जाने में कोई विघ्न नहीं आता तथा वह मुक्ति प्राप्त करता ही है ॥ ८१ ॥
मूलम्

न खल्वपि दशादेशकालहेतुविपर्ययैः। प्रपत्तुस्त्यक्तदेहस्य परा यात्रा विहन्यते॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चिरादिकया गत्या तत्र तत्रार्चितः सुरैः। अतीत्य लोकानभ्येति वैकुठं वीतकल्मषः॥८२॥

टीका और वह उस अर्चिरादि मार्ग में गतिशील रहकर बीच में आनेवाले प्रत्येक विश्र स्थल पर देवगण से पूजित अभिनन्दित होता हुआ मध्यवर्ती लोकों को पार व निष्पापभाव से विशुद्धरूप में वैकुण्ठ पहुँच जाता है ॥ ८२ ॥
मूलम्

अर्चिरादिकया गत्या तत्र तत्रार्चितः सुरैः। अतीत्य लोकानभ्येति वैकुठं वीतकल्मषः॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनममरास्तत्र सह दिव्याप्सरोगणैः। सोपहाराः प्रहर्षेण प्रत्युद्गच्छन्त्युपागतम्॥८३॥

टीका वहाँ पहुँचने पर देवगण दिव्य अप्सराओं के समुदाय के साथ प्रसन्न होकर उसे अप हाथ में लिये हुए उपहारों को समर्पित कर उसकी अगवानी करते हैं॥ ८३ ॥
मूलम्

अथैनममरास्तत्र सह दिव्याप्सरोगणैः। सोपहाराः प्रहर्षेण प्रत्युद्गच्छन्त्युपागतम्॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्राप्य जगन्नाथं प्रणिपत्य श्रियः पतिम्॥ आसीनमासने दिव्ये भक्तैर्भागवतैर्वृतम्॥८४॥

टीका तब फिर वह जगदीश श्रीपति नारायण को प्राप्त करता है जो कि दिव्य देव तथा भागवतों से युक्त सिंहासन पर आसीन है। तब स्मित पूर्वक भाषण करते तथा अपने मधुर विलोकनरूपी अमृत दृष्टियों से भर कर इष्ट के दास्यभाव आनन्द में भरते हुए वह श्रीपति नारायण के दोनों चरणों के मूल का स्वयं सेव करता है। (अपना मस्तक उनके चरणों पर टिका देता है) ॥८४-८५॥
मूलम्

ततः प्राप्य जगन्नाथं प्रणिपत्य श्रियः पतिम्॥ आसीनमासने दिव्ये भक्तैर्भागवतैर्वृतम्॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आलुतः सस्मितालापमधुरालोकनामृतैः। पादमूलं भजत्यस्य दास्यैकानन्दनिर्भरः॥८५॥

टीका तब फिर वह जगदीश श्रीपति नारायण को प्राप्त करता है जो कि दिव्य देव तथा भागवतों से युक्त सिंहासन पर आसीन है। तब स्मित पूर्वक भाषण करते तथा अपने मधुर विलोकनरूपी अमृत दृष्टियों से भर कर इष्ट के दास्यभाव आनन्द में भरते हुए वह श्रीपति नारायण के दोनों चरणों के मूल का स्वयं सेव करता है। (अपना मस्तक उनके चरणों पर टिका देता है) ॥८४-८५॥
मूलम्

आलुतः सस्मितालापमधुरालोकनामृतैः। पादमूलं भजत्यस्य दास्यैकानन्दनिर्भरः॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च सर्वेषु लोकेषु तमेवाभ्यनुसंचरन्॥ समोदते समगुणः कामान्नी कामरूपधृक्॥८६॥

टीका वह मुक्त वैष्णव भक्त आगे उन्हीं इष्टदेव के अभिमुखी भाव में रहकर वहां संच करते हुए भगवद्गुण के समान होकर कामरूप धारी भोगवाला तथा इच्छानु शरीरादि स्वरूपधारी होकर प्रसन्नता पूर्वक स्थित होता है। (उनके साथ समान से भोगादि का अनुभव कर प्रसन्न होता रहता है ) ॥ ८६ ॥
मूलम्

स च सर्वेषु लोकेषु तमेवाभ्यनुसंचरन्॥ समोदते समगुणः कामान्नी कामरूपधृक्॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथेह बान्धवास्तस्य गतस्य परमां गतिम्। वैष्णवास्त्वाभिनन्देयुः पुण्यामवभृथक्रियाम्॥८७॥

टीका इधर यहां भूलोक में उस प्रपन्नभक्त के बन्धुबांधव जन परमगति प्राप्त करने वाले उस वैष्णव का अभिनन्दन कर पुण्यभूत संस्कारान्त में होने वाले अवभूत स्नान को सम्पन्न करते हैं॥८७॥
मूलम्

अथेह बान्धवास्तस्य गतस्य परमां गतिम्। वैष्णवास्त्वाभिनन्देयुः पुण्यामवभृथक्रियाम्॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रियते चास्य पुत्राद्यैर्यत्किमप्यौर्द्ध्वदैदैह्निकम्। तत्सर्वं प्रियभक्तस्य विष्णोः प्रीतिकरं परम्॥८८॥

टीका और तब इसके पुत्रादि के द्वारा संस्काररूप में किये गये और्द्धदेहिक विधान आदि क्रियाएँ भी भक्तिप्रिय श्रीविष्णु की परमप्रीति करनेवाली हो जाती हैं || ८८ ||
मूलम्

क्रियते चास्य पुत्राद्यैर्यत्किमप्यौर्द्ध्वदैदैह्निकम्। तत्सर्वं प्रियभक्तस्य विष्णोः प्रीतिकरं परम्॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरूणामन्तिमतिथौ जन्मर्क्षे श्रवणेऽपि वा। हरिमभ्यर्चयेद्भक्त्या तद्भक्तांश्च विशेषतः॥८९॥

टीका ऐसे परम वैष्णव गुरु की अन्तिम या पुण्यतिथि के अवसर पर जन्म नक्षत्र के या सुनी गयी उनकी तिथि के दिन भक्तिपूर्वक श्रीहरि की अर्चना करे तथा उनके शिष्य और भक्तजन इस कार्य पर ध्यान विशेषरूप से रखे ॥ ८९ ॥
मूलम्

गुरूणामन्तिमतिथौ जन्मर्क्षे श्रवणेऽपि वा। हरिमभ्यर्चयेद्भक्त्या तद्भक्तांश्च विशेषतः॥८९॥

इति गत्यधिकारः॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानकर्मक्रियामन्त्रध्यानयोगगतिक्रमाः। विस्तरेण मया पूर्वमुक्तास्तत्रापि ते समाः॥९०॥

टीका श्रीहरि के प्रति प्रपत्तिभाव रखने के बाद जिन कार्यों को मैंने यहां पूर्वमें विस्तारसे कहा था उन सभी ज्ञान, कर्म, क्रिया, मन्त्र, ध्यानयोग, गति तथा क्रमों का अनुसरण करना चाहिए। यहां भी इसी प्रकार इनका अनुगमन समान भाव से किया जाए ॥ ९० ॥
मूलम्

ज्ञानकर्मक्रियामन्त्रध्यानयोगगतिक्रमाः। विस्तरेण मया पूर्वमुक्तास्तत्रापि ते समाः॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपासनविधौ धर्मा ये चान्यैः परिकीर्तिताः। न्यस्तात्मनस्तु तान्सर्वान्फलान्येव निबोधत॥९१॥

टीका और न्यस्त या प्रपत्तिभाव करनेवालों के विषय में अन्य पूज्य मुनिजन के द्वारा उपासना के विधानों में जिन उपायादि का कथन किया गया है उन सभी उपायों को भी जानना उचित है ॥ ९१ ॥
मूलम्

उपासनविधौ धर्मा ये चान्यैः परिकीर्तिताः। न्यस्तात्मनस्तु तान्सर्वान्फलान्येव निबोधत॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्यर्थितो जगद्धात्र्याश्रिया नारायणः स्वयम्। उपादिशदिमं योगामिति मे नारदाच्छ्रुतम्॥९२॥

टीका इस योग का सम्प्रदायिक क्रम पूर्व में स्वयं संसार की विधात्री श्री लक्ष्मी के श्रीमहाविष्णु से प्रार्थना करने पर इस न्यासयोग का उपदेश दिया था जिसे मैंने श्री नारद ऋषि से सुनकर ग्रहण किया है ॥ ९२ ।
मूलम्

अभ्यर्थितो जगद्धात्र्याश्रिया नारायणः स्वयम्। उपादिशदिमं योगामिति मे नारदाच्छ्रुतम्॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति हस्तपदे साङ्ख्यं शास्त्रं गुह्यतमं परम्। शिरश्चैतन्मयोक्तायाः संहिताया भविष्यति॥९३॥

टीका इस प्रकार इस देवगण से भी अज्ञात गुह्यतम सांख्य शास्त्र का मैंने शीर्षभूत सिद्धान यह न्यासयोग बतलाया जो मेरे द्वारा कही गयी संहिता का रूप लेकर भविष्य प्रवृत्त होगा॥९३॥
मूलम्

इति हस्तपदे साङ्ख्यं शास्त्रं गुह्यतमं परम्। शिरश्चैतन्मयोक्तायाः संहिताया भविष्यति॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहितोपनिषद्यस्मिञ्च्छास्त्रे नेयान्यनुक्रमात्। आदौ न्यासः फलञ्चास्य तदुपायश्चसंग्रहः॥९४॥

टीका इस प्रकार इस भारद्वाज संहिता के रूपवाले गुह्यतम उपनिषद्भूत इस शास्त्र क्रमशः मैंने न्यासयोग, न्यास का फल तथा उसके उपायों को संग्रह कर चा अध्यायों में प्रतिपादित शास्त्र में बतलाया है ॥९४॥
मूलम्

संहितोपनिषद्यस्मिञ्च्छास्त्रे नेयान्यनुक्रमात्। आदौ न्यासः फलञ्चास्य तदुपायश्चसंग्रहः॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो न्यासस्य चाङ्गानां निर्णयः सविरोधिनाम्। ततश्च फलरूपाया वृत्तेरङ्गानि विस्तरात्॥९५॥

टीका और इसमें न्यास तथा उसके अंगों का उनके विपरीत भावों के साथ निर्ण दिखलाया है तथा फलभूत वृत्तियों तथा उनके अंगों का भी विस्तार से निरूपप किया गया है॥९५।
मूलम्

ततो न्यासस्य चाङ्गानां निर्णयः सविरोधिनाम्। ततश्च फलरूपाया वृत्तेरङ्गानि विस्तरात्॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्त्यङ्गमेवं च ततो निन्द्यहानं गतिस्तथा। एवं चतुर्भिरध्यायैः कथितानि विशेषतः॥९६॥

टीका इसी क्रम में वृत्ति तथा उसके अंगों का विचार, इसके बाद प्रतिषिद्ध विवर्जन क विवेचन किया गया। इन सभी को विशेषरूप से चार अध्यायों के द्वारा बतलाय गया ॥ ९६॥
मूलम्

वृत्त्यङ्गमेवं च ततो निन्द्यहानं गतिस्तथा। एवं चतुर्भिरध्यायैः कथितानि विशेषतः॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं प्रसादाद्देवर्षेर्नारदस्यामितौजसः। कृतोऽत्र वेदवेदान्तपञ्चरात्रार्थनिर्णयः॥९७॥

टीका इस प्रकार यहां अमितौजाः महर्षि नारद मुनि के प्रसाद से मैंने वेद तथा वेदान्त के अनुगत [पञ्चरात्रआगम|पञ्चरात्रागम] के अर्थों का (तात्पर्यो का ) शास्त्रीय निश्चय दिखलाया है॥९७॥
मूलम्

इत्थं प्रसादाद्देवर्षेर्नारदस्यामितौजसः। कृतोऽत्र वेदवेदान्तपञ्चरात्रार्थनिर्णयः॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतत्परमं गुह्यं श्रुत्वा भागवतोत्तमाः। मुनयः पूजयांचक्रुर्भरद्वाजं तपोनिधिम्॥९८॥

टीका इस प्रकार वेद ग्रहण के तुल्य परम रहस्यों से पूर्ण पञ्चरात्र के अर्थों को सुनक परमभागवत मुनिगण ने तपोनिधि भारद्वाज की प्रसन्नता से अर्चन की ॥ ९८ ॥
मूलम्

इत्येतत्परमं गुह्यं श्रुत्वा भागवतोत्तमाः। मुनयः पूजयांचक्रुर्भरद्वाजं तपोनिधिम्॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वादौनारदात्सम्यग्भरद्वाजोऽर्थसंग्रहम्। महतीं संहितामेतां चकार मुनिचोदितः॥९९॥

टीका प्रथम बार श्री देवर्षि नारद से [पचरात्र|पञ्चरात्र] आगम के अर्थों का श्रवण कर बाद में नारदमुनि की ( ही ) प्रेरणा से इस विस्तीर्ण संहिता की मैंने रचना की॥९९॥
मूलम्

श्रुत्वादौनारदात्सम्यग्भरद्वाजोऽर्थसंग्रहम्। महतीं संहितामेतां चकार मुनिचोदितः॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चेमां संहितां पुण्यां शृणुयाच्छ्रावयेत वा। स मुक्तः सर्वपापेभ्यः सर्वकामान्समश्नुते॥१००॥

टीका अतएव जो इस पुण्यदात्री तथा सभी पातकों को दूर करनेवाली भारद्वाज प्रोक्त संहिता का नियतमन से वह श्रवण करता है, वह सद्यः सभी पातकों से मुक्त होकर सभी इच्छाओं (कामनाओं) की प्राप्ति करेगा॥१००॥
मूलम्

यश्चेमां संहितां पुण्यां शृणुयाच्छ्रावयेत वा। स मुक्तः सर्वपापेभ्यः सर्वकामान्समश्नुते॥१००॥

इति श्रीनारदपञ्चरात्रे भारद्वाजसंहितायां न्यासोपदेशो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥ (नारदपञ्चरात्र की भारद्वाजसंहिता में न्यासोपदेश नामक चतुर्थाध्याय की तत्वप्रकाशिका नामक हिन्दी व्याख्या समाप्त)