अथ तृतीयोऽध्यायः (सत्सेवनाधिकारः)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ स्वकर्मनिरतः प्राज्ञो भक्तः सुलक्षणः। सत्सेवाभिरतो ह्येव प्रपन्नः सिद्धिमाप्नुयात्॥१॥
टीका
वृत्ति के अंगों के निदर्शन के साथ अब प्रपत्ति का विवेचन करते हैं:- तब दृष्टि सम्पन्न बुद्धिमान् एवं भगवत् लांछन से मण्डित भक्त अपने पूज्य सन्त की सेवा में निरत रहते हुए "प्रपत्ति" भाव में स्थित रहने पर सिद्धि की प्राि करता है। (या निःश्रेयस को प्राप्त करता है ) ॥ १ ॥मूलम्
अथ स्वकर्मनिरतः प्राज्ञो भक्तः सुलक्षणः। सत्सेवाभिरतो ह्येव प्रपन्नः सिद्धिमाप्नुयात्॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथार्हं विहितैस्तैस्तैः संस्कारैः संस्कृतः क्रमात्। नयेदात्मगुणोपेतस्तानि तानि व्रतानि च॥२॥
टीका
यह साधक या भक्त सर्वप्रथम उन विहित गर्भाधानादि संस्कारों से क्रमश: संस्कृत होकर सर्वभूतों के प्रति करुणादि आठ आत्मगुणों से युक्त रहकर तथा वेदव्रत जै नियत कर्मों को पूर्ण करे या उनका आचरण करे॥ २ ॥मूलम्
यथार्हं विहितैस्तैस्तैः संस्कारैः संस्कृतः क्रमात्। नयेदात्मगुणोपेतस्तानि तानि व्रतानि च॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यात्वा नारायणं देवमादौ कर्माण्यशेषतः। तस्यैवाराधनतया कुर्यात्सङ्कल्पपूर्वकम्॥३॥
टीका
फिर सर्वप्रथम श्रीनारायण देव का ध्यान कर सभी कर्मों को उन्हीं के आराधन पर मानकर उसी देव की ही आराधना में अपने समस्त कर्मों का संकल्प पूर्वक आचर करें॥३॥मूलम्
ध्यात्वा नारायणं देवमादौ कर्माण्यशेषतः। तस्यैवाराधनतया कुर्यात्सङ्कल्पपूर्वकम्॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाप्तानि च कर्माणि तस्मिन्नेव समर्पयेत्। आदावन्ते च मन्त्राणां योजयेद्व्यापकान्तरम्॥४॥
टीका
अपने आराधनादि कर्मों की ( प्रतिदिन की ) समाप्ति पर उन्हें श्री भगवदर्पित करें। मन्त्रों के आदि में तथा अन्त में व्यापक का अन्तर योजित करें ||४||मूलम्
समाप्तानि च कर्माणि तस्मिन्नेव समर्पयेत्। आदावन्ते च मन्त्राणां योजयेद्व्यापकान्तरम्॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातरुत्थाय विधिवत्स्नात्वा नित्यं समाहितः। यजेत कर्मभिस्तैस्तैर्विष्णुं देवादिसंज्ञितम्॥५॥
टीका
फिर वह ब्राह्म मुहूर्त में ( प्रातः काल ) उठे तथा विधिपूर्वक स्नान कर आगे विहित सन्ध्यावन्दनादि कर्म सम्पन्न कर एकाग्रभाव से विविध देव नामों वाले व्यापक श्रीविष्णु की उन उन विहित विधियों के साथ अर्चना करें || ५ |मूलम्
प्रातरुत्थाय विधिवत्स्नात्वा नित्यं समाहितः। यजेत कर्मभिस्तैस्तैर्विष्णुं देवादिसंज्ञितम्॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चदेवदेवेशं भोगैरभ्यर्चयेद्धरिम्। अशुद्धवर्जंसकलैः परिचारैः समन्वितम्॥६॥
टीका
फिर देवों के अधिपति श्रीविष्णु की गन्ध - पुष्प नैवेद्यादि भोग्य पदार्थों के द्वारा परिचर्या कर अर्चना करें। इनमें अशुद्ध देवादि परिवारों को हटाते हुए सभी परिचर्या रखी जावे ॥ ६ ॥मूलम्
ततश्चदेवदेवेशं भोगैरभ्यर्चयेद्धरिम्। अशुद्धवर्जंसकलैः परिचारैः समन्वितम्॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमेव यथान्यायमभिगम्य जगद्गुरुम्। उपादाय च यागार्थान् सम्भारान्नियतः स्वयम्॥७॥
यजेत पुरुषं साक्षाद्यथेच्छं प्रतिमादिषु। पञ्चरात्रेण विधिना गुर्वधीनोऽपरेण वा॥८॥
टीका
इस क्रम में सर्वप्रथम आचारादि का अनुसरण कर यथाविधान जगद्गुरु के समीप जाकर योग साधनों को ग्रहण करने के संकल्पों से नियत चित्त होते हुए उन सामग्री को रखकर फिर यथेच्छ भाव से साक्षात् शिला में या प्रतिमादि मे स्थित श्री हरि की अपने पूज्य गुरू के अधीन पञ्चरात्र प्रोक्त आगम के विधानानुसार अथवा श्रुति, स्मृति या पुराणादि में कथित विधि का अनुसरण करते हुए स्वयं अर्चना करे॥७-८॥मूलम्
पूर्वमेव यथान्यायमभिगम्य जगद्गुरुम्। उपादाय च यागार्थान् सम्भारान्नियतः स्वयम्॥७॥
यजेत पुरुषं साक्षाद्यथेच्छं प्रतिमादिषु। पञ्चरात्रेण विधिना गुर्वधीनोऽपरेण वा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रेः स्त्रीभिस्तथा परैः। यथार्हमर्च्यः सेव्यश्च नित्यं सर्वेश्वरो हरिः॥९॥
टीका
प्रतिदिन अपनी स्थिति तथा भावना के अनुरूप ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, स्त्रियों तथा अन्य अनुलोमादि सभी जातियों के द्वारा नित्य सर्वजगदधिपति श्री हरि की पूजा की जानी चाहिए || ९ ||मूलम्
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रेः स्त्रीभिस्तथा परैः। यथार्हमर्च्यः सेव्यश्च नित्यं सर्वेश्वरो हरिः॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिकप्रीतिरर्चायामेकान्ती हरिमर्चयेत्। तदभावेऽग्निवत्सूर्यभूम्यम्बुगगनादिषु॥१०॥
टीका
श्री विष्णु के प्रति अधिक अभिरति या भक्ति रखकर भक्त एकान्तिक या अनन्य भा की स्थिति में उनकी अर्चना प्रतिमारूप में ही करे। अर्चना के बाद श्रीहरि की स्थि अग्नि सूर्य, पृथ्वी, जल, आकाश तथा पादुकादि में भावित रखे ( तथा इनमें भ हरिभाव रखकर इन्हें भी पूर्जित करे ) || १०॥मूलम्
अधिकप्रीतिरर्चायामेकान्ती हरिमर्चयेत्। तदभावेऽग्निवत्सूर्यभूम्यम्बुगगनादिषु॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजयेद्वैष्णवान्नित्यं पित्रर्थानतिथींस्तथा। वैष्णवानेव बिभृयात्पुत्रदारादिकान्निजान्॥११॥
टीका
सामर्थ्यानुसार नित्य वैष्णवों को भोजन करवावे तथा पितरों के निमित्त रखे गं श्राद्धादि में वैष्णवजन को अतिथि बनाकर इनको भोजन करवावे। वह अपने पुत्र पत्नी आदि परिवार जन को भी वैष्णव दीक्षा दिलवाकर 'वैष्णव' बनव दे ॥ ११ ॥मूलम्
भोजयेद्वैष्णवान्नित्यं पित्रर्थानतिथींस्तथा। वैष्णवानेव बिभृयात्पुत्रदारादिकान्निजान्॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिसङ्गः परिचरेत्पुत्रादीनप्यवैष्णवान्। भिक्षेत वैष्णवेष्वेव ब्रह्मचारी यतिस्तथा॥१२॥
टीका
पुत्रादि के अवैष्णव रहने पर स्वयं इन पुत्रादि के साथ रहने की या संगति भावना रहने से उन्हें भी वैष्णव दीक्षा दिलवानी चाहिए। वैष्णव ब्रह्मचारी और यति भ वैष्णवों के यहाँ से ही यथासंभव भिक्षा तथा भोजनादि प्रसाद प्राप् करें॥१२॥मूलम्
नातिसङ्गः परिचरेत्पुत्रादीनप्यवैष्णवान्। भिक्षेत वैष्णवेष्वेव ब्रह्मचारी यतिस्तथा॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असद्दृष्टिं परिहरेदच्युतस्य निवेदिते। दद्यादाचार्यमुख्येभ्यः स्वार्थं चात्र प्रकल्पयेत्॥१३॥
टीका
श्रीभगवान् को अर्पित प्रसादान्न को भी अवैष्णवों की दृष्टि से देख लिये जाने प अपवित्र हो जाने के कारण ग्रहण नहीं किया जावे। ऐसा द्रव्य आचार्यादि प्रमुख व प्रथम अर्पित कर दे तथा उनसे लौटा दिये गये शेष बचे हुए कुछ अंश को अपने लि रख ले॥१३॥मूलम्
असद्दृष्टिं परिहरेदच्युतस्य निवेदिते। दद्यादाचार्यमुख्येभ्यः स्वार्थं चात्र प्रकल्पयेत्॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवेद्य हृदि तद्भूयः परिषेकादिपूर्वकम्। जुहुयादाहुतीः पञ्च विष्णौ प्राणादिसंज्ञके॥१४॥
टीका
तब फिर ईश्वरार्पण किये गये उस प्रसादादि को जल से परिसिंचन या प्रक्षेप पूर्व पुनः श्रीहरि को अर्पित करे और श्रीविष्णु को प्राणादि पंच आहुति को 'प्राणा स्वाहा' इत्यादि मन्त्रों से प्रदान करे ॥ १४ ॥मूलम्
निवेद्य हृदि तद्भूयः परिषेकादिपूर्वकम्। जुहुयादाहुतीः पञ्च विष्णौ प्राणादिसंज्ञके॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवेदयेच्च भुञ्जानो मनसानागतं पुरः। मनो हि पूतमन्यत्र सूतोदक्याशवस्पृशः॥१५॥
टीका
भोजन के बीच में पहिले अर्पित पदार्थों से भिन्न आनेवाले पदार्थों का निवेदन मन से प्रभु श्री वैष्णव को करे । मन केवल सूतक से युक्त, रजस्वला तथा शव के स्पर्श से शरीर की तरह अशुद्ध होता है और इनसे भिन्न स्थिति में मन शुद्ध माना जाता है॥ १५ ॥मूलम्
निवेदयेच्च भुञ्जानो मनसानागतं पुरः। मनो हि पूतमन्यत्र सूतोदक्याशवस्पृशः॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रशस्तं भगवद्भुक्तं पितृदेवादिकर्मसु। लब्धेन चान्यतस्तेन पुनर्यागोऽपि चोदितः॥१६॥
टीका
पितृ देवादि कर्मों में भगवदर्पित अन्नादि भोग्य पदार्थ प्रशस्त माने जाते हैं। यति आदि के द्वारा भिक्षादि में इनसे भिन्न स्थान और स्थिति में प्राप्त करने पर उनके द्वारा बाद में ऐसे पदार्थों के ग्रहण करने पर याग करने का विधान कहा गया है ॥ १६ ॥मूलम्
प्रशस्तं भगवद्भुक्तं पितृदेवादिकर्मसु। लब्धेन चान्यतस्तेन पुनर्यागोऽपि चोदितः॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वानुयागं कुर्वीत स्वाध्यायं वैष्णवं परम्। ततो युञ्जीत चात्मानं पुरुषे पुष्करेक्षणे॥१७॥
टीका
इस प्रकार होने पर वह विहित याग के सम्पादन करने के बाद होने वाले भगवन्मन्त्रादि के स्वाध्याय तथा जपादि के रूपवाले 'अनुयाग' का भी सम्पादन करे और फिर कमलनेत्र श्रीविष्णु में आत्मा ( मन ) को अविच्छिन्नभाव से लगाये॥१७॥मूलम्
कृत्वानुयागं कुर्वीत स्वाध्यायं वैष्णवं परम्। ततो युञ्जीत चात्मानं पुरुषे पुष्करेक्षणे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च भागवता मन्त्रा ये च दिव्याश्चविग्रहाः। यथोपदेशं नियतस्तांश्च सेवेत नित्यशः॥१८॥
टीका
वह प्रतिदिन सदा ही गुरुदीक्षा में प्राप्त भगवन्मन्त्रों को तथा आचार्य कृपा से प्राप्त श्रीविष्णु के मन्त्रों तथा प्रतिमाओं के रूप वाले विग्रहों का पवित्रभाव से नियतचित्त होकर अपने उपदेशानुरूप ध्यान करे (या उनका सेवन करे ) ॥ १८ ॥मूलम्
ये च भागवता मन्त्रा ये च दिव्याश्चविग्रहाः। यथोपदेशं नियतस्तांश्च सेवेत नित्यशः॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वाभिगमनं पूर्वमुपादाय च सम्पदः। इष्ट्वाधीत्य च युञ्जानो भोगैः कालं नयेद्यतिः॥१९॥
टीका
इस प्रकार वह पांच विभागों में किये जाने वाले कृत्यों में सर्वप्रथम अभिगमन कर फिर याग की सामग्री का उपादान करें फिर याग का सम्पादन करे फिर स्वाध्याय का अध्ययन (पाठादि) करे फिर ध्यानादि भक्तियोग का सम्पादन करते हुए अपने समय को व्यतीत करे ॥ १९ ॥मूलम्
कृत्वाभिगमनं पूर्वमुपादाय च सम्पदः। इष्ट्वाधीत्य च युञ्जानो भोगैः कालं नयेद्यतिः॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेव मत्वा भोक्तारमिज्यं यष्टारमेव च। यजेत सकलैर्यज्ञैः सर्वयज्ञमयं हरिम्॥२०॥
टीका
याग से उत्पन्न प्रीति के आधारभूत कर्तारूप श्रीविष्णु को ही भोक्ता के रूप में मानकर तथा उन्हें ही याग का विषय तथा यज्ञकर्ता भी मानते हुए सभी नामरूपवाले (ज्योतिष्टोमादि) यज्ञों से उनका ही यजन करे, क्योंकि श्रीहरि सभ यज्ञों में अधिष्ठित हैं अतः उन्हें 'सर्वयज्ञमय' समझना चाहिए ||२०||मूलम्
तमेव मत्वा भोक्तारमिज्यं यष्टारमेव च। यजेत सकलैर्यज्ञैः सर्वयज्ञमयं हरिम्॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोः सेवेत तीर्थानि तथैवायतनानि च। दद्यादर्थांश्च विप्रेभ्यश्चरेच्च विविधं तपः॥२१॥
टीका
दीक्षित एवं साधक भक्त श्री विष्णु सम्बन्धी तीर्थों की यात्रा कर उनका सेवन करें इसी प्रकार श्रीविष्णु के आयतन भूत श्रीरङ्गादि स्थित मन्दिरों का सेवन भी करें वह 'सुपात्र' वैष्णव ब्राह्मणों को दान दे तथा विविध प्रकार के उपवास प्रधा तपचान्द्रयणादि व्रतों का भी आचरण करे ॥ २१ ॥मूलम्
विष्णोः सेवेत तीर्थानि तथैवायतनानि च। दद्यादर्थांश्च विप्रेभ्यश्चरेच्च विविधं तपः॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रायश्चित्तं तु परमं प्रपत्तिस्तस्य केवलम्। कुर्यात्कर्मात्मकं वापि वासुदेवमनुस्मरन्॥२२॥
विशुद्ध्येद्विष्णुभक्तस्य दृष्ट्या स्पर्शेन सेवया। स्मरणेनान्नपानाद्यैर्गिरा पादरजोऽम्बुभिः॥२३॥
टीका
अभागवत दृष्टयादि के लिये सर्वोत्तम प्रायश्चित्त केवल श्री विष्णु की प्रपत्ति होती तथा शक्ति के होने पर भी श्रीवासुदेव का स्मरण करते हुए कुछ कर्म या अनुष्ठा रूप प्रायश्चित करना चाहिए। (निमित्त के थोड़े या अल्प मात्रा में होने पर तदनुरू लघु तथा गुरु होने पर क्रियारूप वैष्णवेष्टि याग रूप प्रायश्चित रहता है। (अवैष्ण दृष्टि के लिये वैष्णव दृष्टि ही प्रायश्चित है, अवैष्णव स्पर्श का वैष्णवस्प, अवैष्णवजन की सेवा का वैष्णवसेवा अवैष्णव स्मरण का वैष्णव स्मरण त अवैष्णव अन्न पानादि का वैष्णव अन्नपानादि करना प्रायश्चित्त है। वाणी अवैष्णवजन के साथ सम्भाषण का प्रायश्चित पुनः वैष्णवजन के साथ सम्भाषण क तथा अवैष्णवजन के चरणरजों का वैष्णवजन की चरण धूलि से अवैष्णव जलपान व वैष्णवजन के जलपान से प्रायश्चित्त हो जाता है ॥२२-२३ ॥मूलम्
प्रायश्चित्तं तु परमं प्रपत्तिस्तस्य केवलम्। कुर्यात्कर्मात्मकं वापि वासुदेवमनुस्मरन्॥२२॥
विशुद्ध्येद्विष्णुभक्तस्य दृष्ट्या स्पर्शेन सेवया। स्मरणेनान्नपानाद्यैर्गिरा पादरजोऽम्बुभिः॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोर्निवेदितान्नाद्यैस्तथा तत्कीर्तनादिभिः। अभागवतदृष्ट्यादेः शुद्धिरेषा विशेषतः॥२४॥
टीका
विशेषकर अभागवत दृष्टि आदि की श्रीविष्णु को निवेदित प्रसादान्न आदि के ग्रह तथा उनके कीर्तनादि कर्मों से शुद्धि होती है ॥ २४॥मूलम्
विष्णोर्निवेदितान्नाद्यैस्तथा तत्कीर्तनादिभिः। अभागवतदृष्ट्यादेः शुद्धिरेषा विशेषतः॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वानुयागं कुर्वीत स्वाध्यायं वैष्णवं परम्। ततो युञ्जीत चात्मानं पुरुषे पुष्करेक्षणे॥१७॥
टीका
इस प्रकार होने पर वह विहित याग के सम्पादन करने के बाद होने वाले भगवन्मन्त्रादि के स्वाध्याय तथा जपादि के रूपवाले 'अनुयाग' का भी सम्पादन करे और फिर कमलनेत्र श्रीविष्णु में आत्मा ( मन ) को अविच्छिन्नभाव से लगाये॥१७॥मूलम्
कृत्वानुयागं कुर्वीत स्वाध्यायं वैष्णवं परम्। ततो युञ्जीत चात्मानं पुरुषे पुष्करेक्षणे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च भागवता मन्त्रा ये च दिव्याश्चविग्रहाः। यथोपदेशं नियतस्तांश्च सेवेत नित्यशः॥१८॥
टीका
वह प्रतिदिन सदा ही गुरुदीक्षा में प्राप्त भगवन्मन्त्रों को तथा आचार्य कृपा से प्राप्त श्रीविष्णु के मन्त्रों तथा प्रतिमाओं के रूप वाले विग्रहों का पवित्रभाव से नियतचित्त होकर अपने उपदेशानुरूप ध्यान करे (या उनका सेवन करे ) ॥ १८ ॥मूलम्
ये च भागवता मन्त्रा ये च दिव्याश्चविग्रहाः। यथोपदेशं नियतस्तांश्च सेवेत नित्यशः॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वाभिगमनं पूर्वमुपादाय च सम्पदः। इष्ट्वाधीत्य च युञ्जानो भोगैः कालं नयेद्यतिः॥१९॥
टीका
इस प्रकार वह पांच विभागों में किये जाने वाले कृत्यों में सर्वप्रथम अभिगमन कर फिर याग की सामग्री का उपादान करें फिर याग का सम्पादन करे फिर स्वाध्याय का अध्ययन (पाठादि) करे फिर ध्यानादि भक्तियोग का सम्पादन करते हुए अपने समय को व्यतीत करे ॥ १९ ॥मूलम्
कृत्वाभिगमनं पूर्वमुपादाय च सम्पदः। इष्ट्वाधीत्य च युञ्जानो भोगैः कालं नयेद्यतिः॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेव मत्वा भोक्तारमिज्यं यष्टारमेव च। यजेत सकलैर्यज्ञैः सर्वयज्ञमयं हरिम्॥२०॥
टीका
याग से उत्पन्न प्रीति के आधारभूत कर्तारूप श्रीविष्णु को ही भोक्ता के रूप में मानकर तथा उन्हें ही याग का विषय तथा यज्ञकर्ता भी मानते हुए सभी नामरूपवाले (ज्योतिष्टोमादि) यज्ञों से उनका ही यजन करे, क्योंकि श्रीहरि सभ यज्ञों में अधिष्ठित हैं अतः उन्हें 'सर्वयज्ञमय' समझना चाहिए ||२०||मूलम्
तमेव मत्वा भोक्तारमिज्यं यष्टारमेव च। यजेत सकलैर्यज्ञैः सर्वयज्ञमयं हरिम्॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोः सेवेत तीर्थानि तथैवायतनानि च। दद्यादर्थांश्च विप्रेभ्यश्चरेच्च विविधं तपः॥२१॥
टीका
दीक्षित एवं साधक भक्त श्री विष्णु सम्बन्धी तीर्थों की यात्रा कर उनका सेवन करें इसी प्रकार श्रीविष्णु के आयतन भूत श्रीरङ्गादि स्थित मन्दिरों का सेवन भी करें वह 'सुपात्र' वैष्णव ब्राह्मणों को दान दे तथा विविध प्रकार के उपवास प्रधा तपचान्द्रयणादि व्रतों का भी आचरण करे ॥ २१ ॥मूलम्
विष्णोः सेवेत तीर्थानि तथैवायतनानि च। दद्यादर्थांश्च विप्रेभ्यश्चरेच्च विविधं तपः॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रायश्चित्तं तु परमं प्रपत्तिस्तस्य केवलम्। कुर्यात्कर्मात्मकं वापि वासुदेवमनुस्मरन्॥२२॥
विशुद्ध्येद्विष्णुभक्तस्य दृष्ट्या स्पर्शेन सेवया। स्मरणेनान्नपानाद्यैर्गिरा पादरजोऽम्बुभिः॥२३॥
टीका
अभागवत दृष्टयादि के लिये सर्वोत्तम प्रायश्चित्त केवल श्री विष्णु की प्रपत्ति होती तथा शक्ति के होने पर भी श्रीवासुदेव का स्मरण करते हुए कुछ कर्म या अनुष्ठा रूप प्रायश्चित करना चाहिए। (निमित्त के थोड़े या अल्प मात्रा में होने पर तदनुरू लघु तथा गुरु होने पर क्रियारूप वैष्णवेष्टि याग रूप प्रायश्चित रहता है। (अवैष्ण दृष्टि के लिये वैष्णव दृष्टि ही प्रायश्चित है, अवैष्णव स्पर्श का वैष्णवस्प, अवैष्णवजन की सेवा का वैष्णवसेवा अवैष्णव स्मरण का वैष्णव स्मरण त अवैष्णव अन्न पानादि का वैष्णव अन्नपानादि करना प्रायश्चित्त है। वाणी अवैष्णवजन के साथ सम्भाषण का प्रायश्चित पुनः वैष्णवजन के साथ सम्भाषण क तथा अवैष्णवजन के चरणरजों का वैष्णवजन की चरण धूलि से अवैष्णव जलपान व वैष्णवजन के जलपान से प्रायश्चित्त हो जाता है ॥२२-२३ ॥मूलम्
प्रायश्चित्तं तु परमं प्रपत्तिस्तस्य केवलम्। कुर्यात्कर्मात्मकं वापि वासुदेवमनुस्मरन्॥२२॥
विशुद्ध्येद्विष्णुभक्तस्य दृष्ट्या स्पर्शेन सेवया। स्मरणेनान्नपानाद्यैर्गिरा पादरजोऽम्बुभिः॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोर्निवेदितान्नाद्यैस्तथा तत्कीर्तनादिभिः। अभागवतदृष्ट्यादेः शुद्धिरेषा विशेषतः॥२४॥
टीका
विशेषकर अभागवत दृष्टि आदि की श्रीविष्णु को निवेदित प्रसादान्न आदि के ग्रह तथा उनके कीर्तनादि कर्मों से शुद्धि होती है ॥ २४॥मूलम्
विष्णोर्निवेदितान्नाद्यैस्तथा तत्कीर्तनादिभिः। अभागवतदृष्ट्यादेः शुद्धिरेषा विशेषतः॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वानुयागं कुर्वीत स्वाध्यायं वैष्णवं परम्। ततो युञ्जीत चात्मानं पुरुषे पुष्करेक्षणे॥१७॥
टीका
इस प्रकार होने पर वह विहित याग के सम्पादन करने के बाद होने वाले भगवन्मन्त्रादि के स्वाध्याय तथा जपादि के रूपवाले 'अनुयाग' का भी सम्पादन करे और फिर कमलनेत्र श्रीविष्णु में आत्मा ( मन ) को अविच्छिन्नभाव से लगाये॥१७॥मूलम्
कृत्वानुयागं कुर्वीत स्वाध्यायं वैष्णवं परम्। ततो युञ्जीत चात्मानं पुरुषे पुष्करेक्षणे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च भागवता मन्त्रा ये च दिव्याश्चविग्रहाः। यथोपदेशं नियतस्तांश्च सेवेत नित्यशः॥१८॥
टीका
वह प्रतिदिन सदा ही गुरुदीक्षा में प्राप्त भगवन्मन्त्रों को तथा आचार्य कृपा से प्राप्त श्रीविष्णु के मन्त्रों तथा प्रतिमाओं के रूप वाले विग्रहों का पवित्रभाव से नियतचित्त होकर अपने उपदेशानुरूप ध्यान करे (या उनका सेवन करे ) ॥ १८ ॥मूलम्
ये च भागवता मन्त्रा ये च दिव्याश्चविग्रहाः। यथोपदेशं नियतस्तांश्च सेवेत नित्यशः॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वाभिगमनं पूर्वमुपादाय च सम्पदः। इष्ट्वाधीत्य च युञ्जानो भोगैः कालं नयेद्यतिः॥१९॥
टीका
इस प्रकार वह पांच विभागों में किये जाने वाले कृत्यों में सर्वप्रथम अभिगमन कर फिर याग की सामग्री का उपादान करें फिर याग का सम्पादन करे फिर स्वाध्याय का अध्ययन (पाठादि) करे फिर ध्यानादि भक्तियोग का सम्पादन करते हुए अपने समय को व्यतीत करे ॥ १९ ॥मूलम्
कृत्वाभिगमनं पूर्वमुपादाय च सम्पदः। इष्ट्वाधीत्य च युञ्जानो भोगैः कालं नयेद्यतिः॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेव मत्वा भोक्तारमिज्यं यष्टारमेव च। यजेत सकलैर्यज्ञैः सर्वयज्ञमयं हरिम्॥२०॥
टीका
याग से उत्पन्न प्रीति के आधारभूत कर्तारूप श्रीविष्णु को ही भोक्ता के रूप में मानकर तथा उन्हें ही याग का विषय तथा यज्ञकर्ता भी मानते हुए सभी नामरूपवाले (ज्योतिष्टोमादि) यज्ञों से उनका ही यजन करे, क्योंकि श्रीहरि सभ यज्ञों में अधिष्ठित हैं अतः उन्हें 'सर्वयज्ञमय' समझना चाहिए ||२०||मूलम्
तमेव मत्वा भोक्तारमिज्यं यष्टारमेव च। यजेत सकलैर्यज्ञैः सर्वयज्ञमयं हरिम्॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोः सेवेत तीर्थानि तथैवायतनानि च। दद्यादर्थांश्च विप्रेभ्यश्चरेच्च विविधं तपः॥२१॥
टीका
दीक्षित एवं साधक भक्त श्री विष्णु सम्बन्धी तीर्थों की यात्रा कर उनका सेवन करें इसी प्रकार श्रीविष्णु के आयतन भूत श्रीरङ्गादि स्थित मन्दिरों का सेवन भी करें वह 'सुपात्र' वैष्णव ब्राह्मणों को दान दे तथा विविध प्रकार के उपवास प्रधा तपचान्द्रयणादि व्रतों का भी आचरण करे ॥ २१ ॥मूलम्
विष्णोः सेवेत तीर्थानि तथैवायतनानि च। दद्यादर्थांश्च विप्रेभ्यश्चरेच्च विविधं तपः॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रायश्चित्तं तु परमं प्रपत्तिस्तस्य केवलम्। कुर्यात्कर्मात्मकं वापि वासुदेवमनुस्मरन्॥२२॥
विशुद्ध्येद्विष्णुभक्तस्य दृष्ट्या स्पर्शेन सेवया। स्मरणेनान्नपानाद्यैर्गिरा पादरजोऽम्बुभिः॥२३॥
टीका
अभागवत दृष्टयादि के लिये सर्वोत्तम प्रायश्चित्त केवल श्रीविष्णु के लिये वैष्णवजन के साथ सम्भाषण क तथा अवैष्णवजन के चरणरजों का वैष्णवजन की चरण धूलि से अवैष्णव जलपान व वैष्णवजन के जलपान से प्रायश्चित्त हो जाता है ॥२२-२३ ॥मूलम्
प्रायश्चित्तं तु परमं प्रपत्तिस्तस्य केवलम्। कुर्यात्कर्मात्मकं वापि वासुदेवमनुस्मरन्॥२२॥
विशुद्ध्येद्विष्णुभक्तस्य दृष्ट्या स्पर्शेन सेवया। स्मरणेनान्नपानाद्यैर्गिरा पादरजोऽम्बुभिः॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोर्निवेदितान्नाद्यैस्तथा तत्कीर्तनादिभिः। अभागवतदृष्ट्यादेः शुद्धिरेषा विशेषतः॥२४॥
टीका
विशेषकर अभागवत दृष्टि आदि की श्रीविष्णु को निवेदित प्रसादान्न आदि के [ग्रह|ग्रहण] तथा उनके कीर्तनादि कर्मों से शुद्धि होती है ॥ २४॥मूलम्
विष्णोर्निवेदितान्नाद्यैस्तथा तत्कीर्तनादिभिः। अभागवतदृष्ट्यादेः शुद्धिरेषा विशेषतः॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृता यज्ञाः समस्ताश्च दानानि च तपांसि च। प्रायश्चित्तमशेषेण नित्यमर्चयतां हरिम्॥२५॥
टीका
बिना किसी विच्छेद के नित्य श्री विष्णु का अर्चन करने वाले प्रपन्न भक्त को [स|सभी] प्रायश्चित स्पर्श नहीं करते हैं, क्योंकि उसके इस अर्चना के कार्य मात्र से सभी [या|यज्ञ] किये गये, सभी दान दिये गये तथा सभी तप किये गये माने जाते हैं। (अत[एव] नैमित्तिक अनुष्ठानादि की भी उसे अपेक्षा नहीं होती ) ॥ २५ ॥मूलम्
कृता यज्ञाः समस्ताश्च दानानि च तपांसि च। प्रायश्चित्तमशेषेण नित्यमर्चयतां हरिम्॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं नित्यानि कर्माणि तथा नैमित्तिकानि च। भर्तुः प्रियकराणीति कुर्यात्प्रीत्यैव केवलम्॥२६॥
टीका
अपने इष्टभूत सर्वान्तर्यामी स्वामी श्री विष्णु के निमित्त कहे हुए nित्य और नैमित्तिक कर्मों का आचरण उनके प्रिय भाव के कारण केवल प्रीतिमात्र के भाव से सम्पन्न करे ||२६|मूलम्
एवं नित्यानि कर्माणि तथा नैमित्तिकानि च। भर्तुः प्रियकराणीति कुर्यात्प्रीत्यैव केवलम्॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैवं ब्राह्मणो विद्वानेकान्ती धर्ममाचरन्। सरहस्यमिदं सम्यक्साधुभ्यश्चोपपादयेत्॥२७॥
टीका
अतः विद्वान् ब्राह्मण वेदों का अध्ययन तथा उस पर विचार कर परमेकान्त भाव से इन कथित धर्म तथा विहित आचारों का पालन करते हुए वृत्ति के रहस्यों के साथ इन्हें उपदेश के पात्र साधुजन को पाने पर उन्हें भी इनका उपदेश दें ॥ २७ ॥मूलम्
अथैवं ब्राह्मणो विद्वानेकान्ती धर्ममाचरन्। सरहस्यमिदं सम्यक्साधुभ्यश्चोपपादयेत्॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापालनरूपं च धर्मं भागवतं चरन्। प्राप्यापि महदैश्वर्यं मृतः स्यादेव निर्भरः॥२८॥
टीका
इसी प्रकार क्षत्रिय अपने वर्ण के अनुरूप विहित आचारों के अनुरूप प्रजापालनरूप धर्म के साथ भागवत धर्म का आचरण करते हुए अतिशय ऐश्वर्य सम्पन्न होकर भी उस ऐश्वर्य से बद्ध न होकर मुक्तिभाव को मृत्यु के बाद प्राप्त करता है ||२८||मूलम्
प्रजापालनरूपं च धर्मं भागवतं चरन्। प्राप्यापि महदैश्वर्यं मृतः स्यादेव निर्भरः॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा वैश्यः स्वधर्मस्थो वैष्णवानभितर्पयन्। धनेष्वसक्त एकान्ती परं प्राप्नोति तत्पदम्॥२९॥
टीका
इसी प्रकार वैश्य भी अपने वर्ण धर्म के अनुरूप वैष्णवजन को भोजनादि से तृप्त करते हुए अपनी विस्तीर्ण सम्पत्ति में अनुसक्त भाव से रहते हुए एकान्तभाव से भी श्रीविष्णु का सेवक बनकर उनके परमपद को प्राप्त करता है ॥ २९ ॥मूलम्
तथा वैश्यः स्वधर्मस्थो वैष्णवानभितर्पयन्। धनेष्वसक्त एकान्ती परं प्राप्नोति तत्पदम्॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्रूषमाणः शूद्रोऽपि वैष्णवानग्रजन्मनः। स्वधर्मरत एकान्ती मुच्यते सर्वकिल्बिषैः॥३०॥
टीका
इसी प्रकार सेवा में लगा हुए शूद्र भी वैष्णव ब्राह्मण तथा क्षत्रियादि की सेवा करते हुए अपने वर्णधर्म का पालन कर भगवन्निष्ठ हो वैष्णव धर्म का पालन करते हुए सभी पातकों से मुक्त होता है ||३०||मूलम्
शुश्रूषमाणः शूद्रोऽपि वैष्णवानग्रजन्मनः। स्वधर्मरत एकान्ती मुच्यते सर्वकिल्बिषैः॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचारी गृहस्थश्चवानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। एकान्तिनः स्वधर्मस्थाः सर्वे यान्ति परां गतिम्॥३१॥
टीका
इसी प्रकार ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक भी श्री विष्णु के प्रति प्रपत्ति रख एकान्तभाव से अपने अपने धर्मों के व्रतों में स्थित रहते हुए परम गति को प्राप्त करते हैं॥३॥मूलम्
ब्रह्मचारी गृहस्थश्चवानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। एकान्तिनः स्वधर्मस्थाः सर्वे यान्ति परां गतिम्॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्योप्तकेशा निभृतास्त्यक्तसर्वपरिग्रहाः। स्त्रीशूद्राद्याः स्वधर्मेण वर्तेरञ्जगतीपतौ॥३२॥
टीका
ऐसे स्त्री, शूद्र आदि जो कि धन दारा आदि के परिग्रह से रहित होकर सदा ही अपने केशों का मुण्डन करवाकर निश्छल भाव से जगद्गुरु श्री विष्णु के प्रति अपने दीक्षादि से विहित आचारों का पालन करते हुए स्वधर्म का पालन करते रहें॥३२॥मूलम्
नित्योप्तकेशा निभृतास्त्यक्तसर्वपरिग्रहाः। स्त्रीशूद्राद्याः स्वधर्मेण वर्तेरञ्जगतीपतौ॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णाश्रमपराश्चैव परेऽपि हरिमाश्रिताः। अपायैर्नावसीदन्ति स्वेषु धर्मेष्ववस्थिताः॥३३॥
टीका
चारों वर्ण तथा चारों आश्रमों से भिन्न जो अनुलोम प्रतिलोमादि जातियां हैं वे भी श्रीहरि की प्रपत्ति ग्रहण कर अपने विहित धर्मों में स्थित रहते हुए किसी अभाव य कष्ट से नष्ट नहीं होते हैं ॥ ३३ ॥मूलम्
वर्णाश्रमपराश्चैव परेऽपि हरिमाश्रिताः। अपायैर्नावसीदन्ति स्वेषु धर्मेष्ववस्थिताः॥३३॥
इति विहिताचाराधिकारः।
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाश्रितो दास्यरतिः पतिं विश्वस्य माधवम्। यथार्हमाचरन्धर्मान्भूयो दृष्ट्यादि संश्रयेत्॥३४॥
टीका
विश्व के अधिपति श्रीपति विष्णु के प्रति दास्यभाव की अभिरति रखते हुए उनका आश्रय लेकर अपने योग्य वर्णाश्रम धर्म का आचरण करते हुए साधक को बार बा इष्ट के ज्ञान तथा दृष्टि के साथ सभी चिन्ह, भक्ति तथा सत्सेवा आदि सभी आश्रय लेकर स्थित रहना चाहिए || ३४ ||मूलम्
समाश्रितो दास्यरतिः पतिं विश्वस्य माधवम्। यथार्हमाचरन्धर्मान्भूयो दृष्ट्यादि संश्रयेत्॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिष्ठां सर्वधर्माणां प्रसादेकात्मनां हरेः। तदाज्ञारूपमनघं शास्त्रश्रुत्यादि मानयेत्॥३५॥
टीका
श्रीविष्णु के प्रसाद मात्र फलवाले सभी धर्म प्रतिष्ठा से युक्त स्थित माने गये हैं अतएव भगवदाज्ञारूप तथा निष्पापरूपी अपौरुषेयरूप नित्य रूप वाले वेदादि तथा शास्त्रादि को भी पुरुषार्थ में अनुगत प्रमाणभूतरूप में श्रद्धा से मान्य करे॥३५॥मूलम्
प्रतिष्ठां सर्वधर्माणां प्रसादेकात्मनां हरेः। तदाज्ञारूपमनघं शास्त्रश्रुत्यादि मानयेत्॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साङ्गान्वेदानधीयीत न्यायेश्चार्थं विचारयेत्। विद्यात्कर्मादिकं यत्र विष्णोराराधनात्मकम्॥३६॥
टीका
अतएव साङ्गवेदों का अध्ययन कर स्वाध्याय संस्कार किया जावें, [न्यायाि|न्यायादि] ( जैमिनि आदि के वस्तु परीक्षणादिरूप मीमांसा) शास्त्रों से वेदों के अर्थों का विचार कर तथा वहाँ श्रीविष्णु की आराधनारूप कर्मों को ध्यान देकर समझें ॥ ३६ ।मूलम्
साङ्गान्वेदानधीयीत न्यायेश्चार्थं विचारयेत्। विद्यात्कर्मादिकं यत्र विष्णोराराधनात्मकम्॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यवस्थां पदवर्णादेश्छन्दः कालक्रियाविधिम्। ज्ञात्वाङ्गैर्गमयेदर्थान् न्यायैः सर्वत्र साधुभिः॥३७॥
टीका
वेद मन्त्रों की पद वर्णादि की व्यवस्था, प्रमाणादि व्यवस्था, छन्दों की गायत्री आदि में व्यवस्था, काल स्वरूप तथा स्थिति, यज्ञादि की क्रिया विधि आदि को अङ्गों के द्वारा ( अर्थात् पद व्यवस्था को व्याकरण शास्त्र से वर्णव्यवस्था को शिक्षा के द्वारा ) प्रमाणादि व्यवस्था को मीमांसादि शास्त्रों के न्यायों के द्वारा, छन्द की व्यवस्था, छन्दोविचितिसे, काल की ज्योतिषशास्त्र से क्रियाविधि को कल्पसूत्र से जानकर सम्यक्रूप से अर्थों का विचार सम्पन्न करें ॥ ३७||मूलम्
व्यवस्थां पदवर्णादेश्छन्दः कालक्रियाविधिम्। ज्ञात्वाङ्गैर्गमयेदर्थान् न्यायैः सर्वत्र साधुभिः॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिष्टैर्वर्णाश्रमादीनामच्युताराधनात्मकान्। स्मृतांश्च विविधान्धर्मान्विद्याद्वैदिकसंमतान्॥३८॥
टीका
मनु आदि शिष्ट धर्मशास्त्र वेत्ताओं के द्वारा मान्य वर्ण आश्रम आदि धर्मों को तथा अच्युत की आराधना के लिये स्मृत्युपदिष्ट (पुराणाद्युपदिष्ट वैदिक धर्म के समस्त विविध धर्मो का ज्ञान प्राप्त करे। ) मनु आदि के धर्मशास्त्रों से कर्मभाग का [उपवृहंण|उपबृंहण] सम्पन्न करें या उनका ज्ञानार्जन करें ॥ ३८ ॥मूलम्
शिष्टैर्वर्णाश्रमादीनामच्युताराधनात्मकान्। स्मृतांश्च विविधान्धर्मान्विद्याद्वैदिकसंमतान्॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथौपनिषदं चार्थं शृणुयान्न्यायतः सुधीः। येनाराध्यं परं ब्रह्म जानीयात्पुरुषोत्मम्॥३९॥
टीका
इस प्रकार कर्म- विचार के बाद 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' इत्यादि ब्रह्म-विद्या उपनिषदों के गूढ़ अर्थों का न्यायादि के साथ परिशीलन करें ( स्वाध्याय करे ) और इस प्रकार वह सुधी 'पुरुषोत्तमं परं ब्रह्म' का जो कि आराध्य है, ज्ञान प्राप्त करे ॥ ३९ ॥मूलम्
अथौपनिषदं चार्थं शृणुयान्न्यायतः सुधीः। येनाराध्यं परं ब्रह्म जानीयात्पुरुषोत्मम्॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चरात्रं महद्दिव्यं शास्त्रं श्रुतिविभावनम्। विशेषेणाधिगन्तव्यं गीतं भगवता स्वयम्॥४०॥
टीका
वह उपनिषदों के इन अर्थों का पञ्चरात्र, इतिहास तथा पुराणादि के साथ वेदान्त [परिब्रह्मण|उपबृंहण] के सम्पन्न करने के क्रम में तब भगवान् के द्वारा स्वयं उपदिष्ट महत् 'पञ्चरात्र शास्त्र' का जो दिव्य तथा वेदों के गुह्यार्थ को दिखलाने वाला है, उसे विशेषरूप में जाने ( इसे महत् कहने का आशय यह है कि इस आगम में एक सौ आठ संहिताएँ आती हैं) अतः यह विशालरूप वाला है ॥ ४० ॥मूलम्
पञ्चरात्रं महद्दिव्यं शास्त्रं श्रुतिविभावनम्। विशेषेणाधिगन्तव्यं गीतं भगवता स्वयम्॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदवेद्यः स भगवान् कृपया परयाच्युतः॥ चतुर्विधमिदं प्राह सर्वेषां हितकारणात्॥४१॥
टीका
वेदादि के द्वारा जो भगवान् श्रीविष्णु जाने जाते हैं उन अच्युतभगवान् ने अतिशय कृपा द्वारा इस आगम-सिद्धान्त [पन्चरात्र|पञ्चरात्र] को सभी प्राणिजन के हितों को ध्यान में रखकर चा भागों में विभक्त कर १ - आगम सिद्धान्त २ - मन्त्र सिद्धान्त ३-तन्त्र सिद्धान्त तथ ४-तन्त्रान्तर सिद्धान्त के रूपों में प्रतिपादित किया ||४१ ||मूलम्
वेदवेद्यः स भगवान् कृपया परयाच्युतः॥ चतुर्विधमिदं प्राह सर्वेषां हितकारणात्॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्य ब्रह्मणस्तस्य विद्याद्व्यूहादिसंस्थितीः॥ ज्ञानं क्रियाः समस्ताश्च योगं चात्र फलानि च॥४२॥
टीका
इसमें उस परब्रह्म की कही गयी चतुर्व्यूह स्थिति का ज्ञान प्राप्त करें। ये हैं- १ ज्ञान, २- सत्क्रिया, ३ योग तथा ४ चर्या (जिनमें परब्रह्म का ज्ञानस्वरूप, समस्त [कर्षणाि|कर्षणादि] प्रतिष्ठान्त क्रियाएं तथा उत्सवादि प्रायश्चितान्त क्रियाओं का, योग स्वरूप तथा चर्या का जो कि इसके चारों पाद हैं) अतएव शास्त्रों से इनका ज्ञान सम्पादन करन चाहिए ॥ ४२ ॥मूलम्
परस्य ब्रह्मणस्तस्य विद्याद्व्यूहादिसंस्थितीः॥ ज्ञानं क्रियाः समस्ताश्च योगं चात्र फलानि च॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुराणान्यवगाहेत सेतिहासानि यत्र च॥ केशवस्य जगत्सर्गस्थितिभङ्गादि कीर्त्यते॥४६॥
टीका
इस क्रम में पुराण तथा इतिहासों का अनुशीलन किया जाए जिनमें श्रीभगवान् केशव द्वारा जगत् की सृष्टि, जगत् का संरक्षण तथा प्रलयादि का कीर्तन किया जाता है। (तथ इनमें अच्युत के दिव्यावतारों तथा उनके कार्यों का भी वर्णन किया जाता है ) ||४३मूलम्
पुराणान्यवगाहेत सेतिहासानि यत्र च॥ केशवस्य जगत्सर्गस्थितिभङ्गादि कीर्त्यते॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तोत्राणि कल्पनामानि कथाश्च विविधा हरेः। सद्भिः प्रणिहितांश्चान्यान् प्रबन्धान्परिशीलयेत्॥४४॥
टीका
इसी प्रकार कल्पादिमन्त्रप्रतिपादक तथा व्रतादि के प्रतिपादक स्तोत्रों तथा विष्णुसहस्रनामादि नामों, श्री अच्युत की विविध पुराणस्थित कथाओं का तथ महात्माओं के द्वारा रचित इसी प्रकार के प्रबन्धों आदि का भी वह परिशील करे॥४४॥मूलम्
स्तोत्राणि कल्पनामानि कथाश्च विविधा हरेः। सद्भिः प्रणिहितांश्चान्यान् प्रबन्धान्परिशीलयेत्॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलस्कन्धमया वेदाः पञ्चरात्रं च यत्परम्। अन्यच्च तत्परं ग्राह्यं शास्त्रं नान्यादृशं पुनः॥४५॥
टीका
वेदमूलके स्कन्धरूप जो अनुवाद हैं उनका तथा जो उपनिषदरूपवाले हैं उनका औ जिनके गूढ़ अर्थों का प्रतिपादक आगम पञ्चरात्र माना जाता है उनका अनुशीलन करे इसी के समान ज्ञानादि प्रतिपादक अन्य शास्त्रों का अध्ययन किया जाए परन्तु इन विरुद्ध जो नास्तिक शास्त्रादि आते हैं उनका अनुशीलन न करें ॥ ४५ ॥मूलम्
मूलस्कन्धमया वेदाः पञ्चरात्रं च यत्परम्। अन्यच्च तत्परं ग्राह्यं शास्त्रं नान्यादृशं पुनः॥४५॥
इति दृष्ट्यधिकारः॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभुं भक्तपराधीनं नित्यमालोकयेद्धरिम्। विमानमथ वा तस्य दूराद्गोपुरमेव वा॥४६॥
टीका
सर्वेश्वर श्री हरि का जो कि भक्ति के कारण भक्तों के अधीन रहते हैं तथा जो उन पर कृपा करते हैं अतः उनका नित्य दर्शन करे (क्योंकि भगवद्दर्शन भक्ति का आधार तथा आपादक है) अथवा परिस्थितिवश दूर स्थित रहकर उनके विमान अथवा गोपुर का ही दर्शन नित्य कर लें ॥ ४६ ॥मूलम्
प्रभुं भक्तपराधीनं नित्यमालोकयेद्धरिम्। विमानमथ वा तस्य दूराद्गोपुरमेव वा॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वरूपरूपविभवगुणकर्माणि शार्ङ्गिणः। व्याचक्षीत निबध्नीयाच्छृणुयाद्विलिखेत्पठेत्॥४७॥
टीका
श्रीविष्णु का स्वरूप, उनके रूप या विग्रहों, उनकी विभूतियों उनके ज्ञानादि गुणों, उनके गजेन्द्ररक्षण रूप कार्य, अर्जुन का सारथि बनने जैसे कार्यों या दिव्यचेष्टितों का विचार कर, इनकी व्याख्या करे। वह इन दिव्यचरितों का श्रवण करें, इनका लेखन तथा पठन भी करे॥४७॥मूलम्
स्वरूपरूपविभवगुणकर्माणि शार्ङ्गिणः। व्याचक्षीत निबध्नीयाच्छृणुयाद्विलिखेत्पठेत्॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्भुजमुदारांगं श्यामं पद्मनिभेक्षणम्। श्रीभूमिलीलासहितं चिन्तयेच्च सदा हृदि॥४८॥
टीका
वह सदा ऐसे श्री विष्णु का जो कि चतुर्भुज, उन्नत शरीरवाले, श्यामवर्ण, कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाले तथा श्रीभूमि लीलादि के साथ हों तो ऐसे उनके स्वरूप का हृदय से चिन्तन करता रहे॥४८ ॥मूलम्
चतुर्भुजमुदारांगं श्यामं पद्मनिभेक्षणम्। श्रीभूमिलीलासहितं चिन्तयेच्च सदा हृदि॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपेत्यायतनं विष्णोः प्रणिपत्य ततस्ततः। परीत्य देवदेवेशं प्रणम्यात्मानमर्पयेत्॥४९॥
टीका
वह श्रीविष्णु के मन्दिर में नित्य पहुँचे तथा वहाँ उन्हें प्रणाम कर प्रदक्षिणा करें तथा अपने प्रपत्तिभाव के स्मरणार्थ आत्मनिवेदन नित्य प्रस्तुत करता रहे॥ ४९ ॥मूलम्
उपेत्यायतनं विष्णोः प्रणिपत्य ततस्ततः। परीत्य देवदेवेशं प्रणम्यात्मानमर्पयेत्॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतिसंहृष्टसर्वाङ्गः स्तुत्वा वापि विलोकयेत्। कृतप्रसादः सेवेत नियतात्मा यथोचितम्॥५०॥
टीका
वह भगवत्प्रीति से रोमांचित भाव में आकर इष्ट श्री अच्युत की स्तुति करते हुए उनका दर्शन करे। भगवान् ने उस पर प्रसाद किया हैं, ऐसी भावना रखे फिर वह नियतचित्त से अपने पारिवारिक व्यक्तिगत कार्यों का आचरण करे ( या ऐसे कार्यों का आचरण तथा सेवन करे॥५०॥मूलम्
प्रीतिसंहृष्टसर्वाङ्गः स्तुत्वा वापि विलोकयेत्। कृतप्रसादः सेवेत नियतात्मा यथोचितम्॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यात्रादिषु च सेवेत तदृष्टिस्तद्गुणान्वदन्। तत्कर्माणि च युक्तस्तजनसम्बन्धहर्षितः॥५१॥
टीका
वह भगवान् की रथयात्रादि के प्रसंग आने पर उनकी ओर अपनी दृष्टि लगाते हुए तथा उनके गुणानुवाद नामादि को उच्चारित करते हुए उनके द्वारा किये गये दिव्य कर्मों का कथन करते हुए रथयात्रा में एकत्रित अन्य वैष्णवों से युक्त होक प्रसन्नभाव से इष्टदेव का सेवन करे ॥ ५१ ॥मूलम्
यात्रादिषु च सेवेत तदृष्टिस्तद्गुणान्वदन्। तत्कर्माणि च युक्तस्तजनसम्बन्धहर्षितः॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गायेदास्फोटयेन्नृत्येदुत्पतेन्निपतेत्स्खलेत्। कोशेद्विषीदेद्धृष्येच्च विष्णोः प्रेमवशानुगः॥५२॥
टीका
वह श्रीविष्णु के ऐसे उत्सवादि प्रसंग में सम्मिलित होकर भक्ति के भावावेश में प्रेमवश उनका गुणगान कर गायन करे, भुजास्फोटन करे, करताल बजावे, नृत्य करे, उत्पतन करे, निपतन करे, स्खलद्गति में चेष्टारत रहे, आक्रोश भाव में स्थित होकर विषाद करे तथा प्रसन्नभाव दिखलावे ॥५२॥मूलम्
गायेदास्फोटयेन्नृत्येदुत्पतेन्निपतेत्स्खलेत्। कोशेद्विषीदेद्धृष्येच्च विष्णोः प्रेमवशानुगः॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुर्वाणश्च सदावृत्तिं विष्णोरायतने वसेत्। दद्याच्च विविधान् भोगाननुरूपान्मनोरमान्॥५३॥
टीका
वह श्रीविष्णु के मन्दिरादि स्थानों में सेवाभाव से सम्मार्जन आदि वृत्ति कर स्थित रहे तथा चन्दन, अगरू, कस्तूरी आदि देशकाल के अनुरूप शास्त्रानुमोदित सुन्दर भोग्य पदार्थों को श्री भगवान् को अर्पित करे ॥ ५३ ॥मूलम्
कुर्वाणश्च सदावृत्तिं विष्णोरायतने वसेत्। दद्याच्च विविधान् भोगाननुरूपान्मनोरमान्॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परीवारांश्च सेवेत भक्त्या परमया हरेः। तत्तदर्चागतान् भक्तान् गुर्वादींश्च विशेषतः॥५४॥
टीका
श्रीहरि के परिवारभूत श्रीदेवी के भूषण स्वयं के आयुध, परिजन आदि संवाहन परिच्छद सेनाधिप चण्डादि द्वारपाल, कुमुदादिगणाधिप रूप भगवान् की उन उन अर्चाओं में प्रतिष्ठापित परिवारों का तथा श्रीहरि के भक्तों उनका मन्त्र देने वाले गुरुजन का विशेषरूप में सेवन करे || ५४ ॥मूलम्
परीवारांश्च सेवेत भक्त्या परमया हरेः। तत्तदर्चागतान् भक्तान् गुर्वादींश्च विशेषतः॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरेराश्रितवात्सल्यात्ततत्स्थानाभिनन्दिनः। असाधारणभावेन तत्र तत्रैव वा वसेत्॥५५॥
टीका
वात्सल्य तथा अनुरागवश श्रीहरि के द्वारा आश्रित तीर्थादि स्थानों का जैसे श्रीरंग हस्तिगिरि, यदुगिरि जैसे दिव्य प्रदेशों का वह असाधारणभाव से अभिनन्दन करते हुए यात्रादि के प्रसंग में सेवन करे अथवा अतिशय भक्तिवश उन्हीं प्रदेशों में अपन निवास भी रखे ॥ ५५॥मूलम्
हरेराश्रितवात्सल्यात्ततत्स्थानाभिनन्दिनः। असाधारणभावेन तत्र तत्रैव वा वसेत्॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च भुक्तोज्झिता भोगाः श्रीपतेः शिरसा नतः। अभ्येत्य प्रतिपद्येत भक्त्या परमया स्वयम्॥५६॥
टीका
जो श्रीहरि से भुक्त होकर निर्माल्यभूत माल्यादि भोग हों, उन्हें परमभक्ति के सा विनत मस्तक कर प्रणाम के साथ अभिमुख होकर ग्रहण करे ॥५६॥मूलम्
ये च भुक्तोज्झिता भोगाः श्रीपतेः शिरसा नतः। अभ्येत्य प्रतिपद्येत भक्त्या परमया स्वयम्॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादोदकं भगवतो लब्ध्वा भागवतस्य वा। तिष्ठन्नेवाथवासीनः पिबेच्छुद्धिश्चनापरा॥५७॥
टीका
श्री हरि के चरणामृत स्वरूप जल को हाथों में ग्रहण कर स्थित होकर अथवा बैठकर पान करे। इसी प्रकार पूज्य भागवतजन का पादोदक भी ग्रहण कर उसे भी पान करे। इसके अतिरिक्त अन्य शुद्धि आचमन हस्तप्रक्षालनादि स्वरूप नहीं मानी जाती है । (कहीं कहीं विष्णुपादोदक को पान न कर मस्तक पर सिंचन करने तथा उसे अज्ञानवश पृथ्वी पर न गिराने का भी उल्लेख मिलता है क्योंकि यदि मोहवश यह जल पृथ्वी पर गिर जाए तो गृहीता का पतन होता है ॥ ५७॥मूलम्
पादोदकं भगवतो लब्ध्वा भागवतस्य वा। तिष्ठन्नेवाथवासीनः पिबेच्छुद्धिश्चनापरा॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरराष्ट्राभिवृद्ध्यर्थमर्चितस्य जगत्पतेः। शेषभाजोऽर्थिनः सर्वे सन्त एव सतां गृहे॥५८॥
टीका
अर्चना के बाद भी श्री हरि के भुक्त प्रसादरूप चरणामृतादि पदार्थ पुर तथा राष्ट्र की अभिवृद्धि के कारण हैं। अत: इस प्रसाद के अपेक्षी सभी सन्तजन होते हैं तथा गृह में अर्चित श्रीहरि के दर्शन तथा उनका प्रसाद ग्रहण करने हेतु स्थित सन्त तथा भक्तजन ही अधिकारी होते हैं ( अन्य नहीं ) ॥ ५८ ॥मूलम्
पुरराष्ट्राभिवृद्ध्यर्थमर्चितस्य जगत्पतेः। शेषभाजोऽर्थिनः सर्वे सन्त एव सतां गृहे॥५८॥
इति भक्त्यधिकारः॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो नारी तथेतरः। चक्राद्यैरङ्कयेद्गात्रमात्मीयस्याखिलस्य च॥५९॥
टीका
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, नारी तथा अन्य सभी जन श्रीहरि के चक्रादि आयुध या लक्ष्म से अपने अपने तथा परिवार के सभी के शरीरों के अंकित करें॥५९॥मूलम्
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो नारी तथेतरः। चक्राद्यैरङ्कयेद्गात्रमात्मीयस्याखिलस्य च॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्टानां निवृत्त्यर्थंमैकात्याय जगत्पतेः। सिद्ध्यर्थंं कर्मणां चैव धार्यं चक्रादिलाञ्छनम्॥६०॥
टीका
इन चक्रादि लांछनों को धारण करने का प्रयोजन यह है कि इससे अनिष्टों की निवृत्ति होती है तथा जगदीश श्रीनारायण की परमैकान्तिकता की पुष्टि होकर आरब्ध कर्मों में सिद्धि प्राप्त होती है। अतः श्रीहरि के इन चक्रादि लांछनों का धारण आवश्यक है ॥ ६० ॥मूलम्
अनिष्टानां निवृत्त्यर्थंमैकात्याय जगत्पतेः। सिद्ध्यर्थंं कर्मणां चैव धार्यं चक्रादिलाञ्छनम्॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाह्वोर्ललाटे शिरसि हृदये चाग्रजन्मनाम्। शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गखड्गैर्मन्त्रेण दाहयेत्॥६१॥
टीका
इन्हें दोनों बाहुओं पर, ललाट देश में, मस्तक पर, शरीर में, हृदय स्थान पर मन्त्रपूर्वक ब्राह्मणादि के शरीर पर दाहन के साथ अंकित करना चाहिए॥६१॥मूलम्
बाह्वोर्ललाटे शिरसि हृदये चाग्रजन्मनाम्। शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गखड्गैर्मन्त्रेण दाहयेत्॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोरायतनाग्नौवा गुरोरात्मन एव वा। हुते हेमादिभिस्तप्तैः सुरूपैरर्चितैः क्रमात्॥६२॥
टीका
श्रीविष्णु के मन्दिर में स्थित अग्नि में अथवा श्रीविष्णु के नैवेद्यार्थ निर्मित पाकादिव अग्नि में, गुरु की अग्निहोत्रादि हवन कार्य की हुई अग्नि में या स्वयं के घर की पवि अग्नि में इन चक्रादि मुद्राको सन्तप्त करे जो हेम रजत, ताम्र आदि से निर्मित ह तथा जिनकी विधिवत् अर्चना पूर्व में की जाए फिर उभरते अंगों को अग्नि से तप्त कर, उनसे अंकित करे ॥ ६२ ॥मूलम्
विष्णोरायतनाग्नौवा गुरोरात्मन एव वा। हुते हेमादिभिस्तप्तैः सुरूपैरर्चितैः क्रमात्॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दासभूतं यदात्मानं बुद्ध्येत परमात्मनः। तदैव गात्रं कुर्वीत शङ्खचक्रादिलाञ्छितम्॥६३॥
टीका
जब साधक या शिष्य परमेश्वर श्रीविष्णु की दासभावना का स्वयं अन्तरात्मा से बोध अनुभव करे तभी उसके शरीर को शंख, चक्रादि से यथास्थान लांछित करना चाहिए ॥ ६३ ॥मूलम्
दासभूतं यदात्मानं बुद्ध्येत परमात्मनः। तदैव गात्रं कुर्वीत शङ्खचक्रादिलाञ्छितम्॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्कितं क्वचिदप्येवं चक्रेणैकेन केवलम्। अनिष्टानां तु भूतानां न तावद्वशगो भवेत्॥६४॥
टीका
भागवतत्व की स्थिति इन चक्रादि के लांछन से होती है अतः किसी को केवल एक चक़ मात्र के लांछन के द्वारा भी अंकित किया जा सकता है ( पूरे शरीर के निर्धारित स्थानों के विकल्प में अथवा शंख तथा चक्र की मुद्राओं के द्वारा अथव सभी श्रीहरि के आयुधों की मुद्राओं से शरीर को अंकित किया जाना चाहिए। ) ऐस करने से अनिष्टकारी भूतादि तथा यमकिङ्करों पिशाचादि के वश में वह नहीं अ सकता है ॥ ६४ ॥मूलम्
अङ्कितं क्वचिदप्येवं चक्रेणैकेन केवलम्। अनिष्टानां तु भूतानां न तावद्वशगो भवेत्॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्नीषोमौहि चक्राब्जौ सर्व एव तदात्मकाः। यदि वा मानयन्नेकं पूर्णो हि परमश्नुते॥६५॥
टीका
चक्र तथा शंख अग्निषोमीय स्वरूप वाले माने गये हैं (अर्थात् चक्र अग्नि तथा [अ|शंख] (शंख) सोमरूप है तथा सभी देवगण इन्हीं रूपों वाले माने जाते हैं। अतएव चक्र क धारण ( ही ) मुख्य है। या इन दोनों में से किसी एक को ही मुख्य मानते हुए धारण करे तो भी वह पूर्ण होकर परमफल का दाता होता है ॥ ६५ ॥मूलम्
अग्नीषोमौहि चक्राब्जौ सर्व एव तदात्मकाः। यदि वा मानयन्नेकं पूर्णो हि परमश्नुते॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खचक्रप्रधानं हि सर्वमन्यद्गदादिकम्। अंकितः शङ्खचक्राभ्यां सर्वैरङ्गित एव वा॥६६॥
टीका
क्योंकि श्रीनारायण के सभी आयुधों में शङ्ख तथा चक्र की प्रमुखता है। अत शङ्ख और चक्र के द्वारा अंकित होने पर वह सभी आयुधों से अङ्कित होकर (पू भागवत के रूप में) मान्य हो जाता है ॥ ६६॥मूलम्
शङ्खचक्रप्रधानं हि सर्वमन्यद्गदादिकम्। अंकितः शङ्खचक्राभ्यां सर्वैरङ्गित एव वा॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारयेदूर्द्ध्वपुण्ड्राँश्च विष्णोः प्रीतिकरान्सदा। जपहोमार्चनध्यानदानादिषु विशेषतः॥६७॥
टीका
वैष्णव भक्त अपने जप, होम, दान तथा अर्चन, ध्यानादि के अवसर पर भगवत्सेवा की परमयोग्यता के आपादनार्थ विशेषरूप में श्रीविष्णु के प्रीति के सदैव आधारभूत रहनेवाले ऊर्ध्व तिलक को अवश्य धारण करे ॥ ६७ ॥मूलम्
धारयेदूर्द्ध्वपुण्ड्राँश्च विष्णोः प्रीतिकरान्सदा। जपहोमार्चनध्यानदानादिषु विशेषतः॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नश्यन्ति सकलाः क्लेशा नराणां पापसम्भवाः। अभीष्टान्यखिलानि स्युरूर्द्ध्वपुण्ड्रस्य धारणात्॥६८॥
टीका
इस ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक के धारण करने से मनुष्यों के पापों से उत्पन्न होने वाले समस्त क्लेशों का उपशम या नाश होता है तथा सभी अभीष्ट प्रयोजनों की संप्राप्ति होती है॥६८॥मूलम्
नश्यन्ति सकलाः क्लेशा नराणां पापसम्भवाः। अभीष्टान्यखिलानि स्युरूर्द्ध्वपुण्ड्रस्य धारणात्॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोदश द्वादश वाप्यूर्ध्वपुण्ड्राणि धारयेत्। एकं चत्वारि षट् चाष्टावपि वाञ्छन्ति केचन॥६९॥
टीका
इन ऊर्ध्वपुण्ड्रों के धारण में त्रयोदश या द्वादश संख्या की स्थिति मान्य है परन्तु कुछ विष्णुभक्त एक, चार, छ: तथा आठ संख्या भी ऊर्ध्वपुण्ड्रों की बतलाते हैं॥६९॥मूलम्
त्रयोदश द्वादश वाप्यूर्ध्वपुण्ड्राणि धारयेत्। एकं चत्वारि षट् चाष्टावपि वाञ्छन्ति केचन॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋजुनि स्फुटपावनि सान्तरालानि विन्यसेत्। ऊर्द्ध्वपुण्ड्राणि दण्डाब्जमत्स्यदीपनिभानि च॥७०॥
टीका
ये ऊर्ध्वपुण्ड्र आकार में सीधे होने के साथ साथ इनकी दोनों रेखा या वस्तुएं स्पष्ट होनी चाहिए तथा इनके बीच के भाग स्पष्ट अलग दिखना चाहिए तथा इनका आकार लम्बा, चक्र, अब्ज (शंख) तथा दीप के आकारों से समानता लिये हुए श्रीहरि के पादाब्ज के समान होना चाहिए ॥ ७० ॥मूलम्
ऋजुनि स्फुटपावनि सान्तरालानि विन्यसेत्। ऊर्द्ध्वपुण्ड्राणि दण्डाब्जमत्स्यदीपनिभानि च॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोरूर्द्ध्वतयाक्षेत्रे पर्वतादौ प्रशस्तया। मृदोर्द्ध्वपुण्ड्रं देवनामन्यैर्वा छिद्रमेव वा॥७१॥
टीका
श्रीविष्णु के पर्वतादि क्षेत्रों के प्रशस्त होने के कारण उसी पर्वतादि की मिट्टी से ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण होता है। अतः उसे ही धारण करना चाहिए। देवताओं की अर्चनाकारी अन्य कस्तूरी आदि द्रव्यों से भी ऊर्ध्वपुण्ड्र किया जाता है। मनुष्यों का ऊर्ध्वपुण्ड्र बीच में छिद्रवाला होता है तथा यहाँ मिट्टी सफेद होनी चाहिए ॥ ७१ ॥मूलम्
विष्णोरूर्द्ध्वतयाक्षेत्रे पर्वतादौ प्रशस्तया। मृदोर्द्ध्वपुण्ड्रं देवनामन्यैर्वा छिद्रमेव वा॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निघर्षणादि विधिवत्कृत्वा ध्यायन् जगद्गुरुम्। आसीनोऽङ्गुलिभिर्दद्यादूर्ध्वपुण्ड्रान् स्वयं क्रमात्॥७२॥
टीका
विधिवत् संसार के प्रभु श्रीनारायण का ध्यान करते हुए (स्मरण करते हुए) श्वेत मृत्तिका का सव्यहस्त के द्वारा निघर्षण कर उससे ऊर्ध्वपुण्ड्र बनाकर धारण करे। दह कार्य वह आसीन होकर स्वयं की अंगुलि में मृत्तिका से ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करे॥७२॥मूलम्
निघर्षणादि विधिवत्कृत्वा ध्यायन् जगद्गुरुम्। आसीनोऽङ्गुलिभिर्दद्यादूर्ध्वपुण्ड्रान् स्वयं क्रमात्॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वपुण्ड्रंललाटे तु कुर्वीत चतुरङ्गुलम्। उदरे हृदि कण्ठे च दशाष्टचतुरङ्गलान्॥७३॥
टीका
ललाट पर यह ऊर्ध्वपुण्ड्र चार अंगुल के प्रमाण का उन्नत रखना चाहिए तथा उदर, हृदय तथा कण्ठ देश पर क्रमशः दस, आठ तथा चतुरंगुल प्रमाण का रखना चाहिए ॥७३॥मूलम्
ऊर्ध्वपुण्ड्रंललाटे तु कुर्वीत चतुरङ्गुलम्। उदरे हृदि कण्ठे च दशाष्टचतुरङ्गलान्॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणोदरबाह्वंसेष्वेवं त्रीणीतरस्य च। आद्यवत्पृष्ठतो द्वे च मूर्ध्नि चैवं त्रयोदश॥७४॥
टीका
उदर के दक्षिण भाग पर, दक्षिण बाहु तथा स्कन्ध पर तथा उदर के वामभाग, बाहु तथा स्कन्ध पर इसी क्रम से दस, आठ तथा चार अंगुलों वाले ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करे। ललाट के ऊर्ध्वपुण्ड्र की तरह ही पृष्ट देश में दो तथा मूर्धा पर एक ऊर्ध्वपुण्ड्र रखें। इसी प्रकार शरीर पर इनकी संख्या तेरह रहती है ॥ ७४ ॥मूलम्
दक्षिणोदरबाह्वंसेष्वेवं त्रीणीतरस्य च। आद्यवत्पृष्ठतो द्वे च मूर्ध्नि चैवं त्रयोदश॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिधा सर्वत्र विस्तारश्चतुस्त्रिद्व्यङ्गुलं क्रमात्। उत्तमो मध्यमो हीनः पार्श्ववङ्गुलिकौ स्मृतौ॥७५॥
टीका
इन सभी ऊर्ध्वपुण्ड्रों में चार, तीन तथा दो अंगुलों की लम्बाई का विस्तार क्रमश उत्तम, मध्यम तथा हीन माना जाता है। अतएव इनके अतिरिक्त मध्यम तथा हीन वाजुओं में ये अंगुलि मात्र प्रमाण के रहते हैं ॥ ७५ ॥मूलम्
त्रिधा सर्वत्र विस्तारश्चतुस्त्रिद्व्यङ्गुलं क्रमात्। उत्तमो मध्यमो हीनः पार्श्ववङ्गुलिकौ स्मृतौ॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तत्र स्मरन्मन्त्रैः केशवादीन्न्यसेत्क्रमात्। पाणिना दक्षिणेनैव वासुदेवं त्रयोदशे॥७६॥
टीका
इनमें जहाँ तहाँ ललाटादि प्रदेश में रहनेवाले ऊर्ध्वपुण्ड्रों में केशवादिरूपों का ध्यान करते हुए उनके मन्त्रों से क्रमशः केशवादि का वहाँ न्यास करे। इन शिर आदि त्रयोदश ऊर्ध्वपुण्ड्रों में वासुदेव मन्त्र से दक्षिण हस्त के द्वारा ही वासुदेव का न्यास करें॥७६॥मूलम्
तत्र तत्र स्मरन्मन्त्रैः केशवादीन्न्यसेत्क्रमात्। पाणिना दक्षिणेनैव वासुदेवं त्रयोदशे॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणवेन तथा व्यूहैः षडष्टद्वादशाक्षरैः। मन्त्रैरन्यैश्चतांस्तान्वै धारदूर्द्ध्वपुण्ड्रकान्॥७७॥
टीका
प्रणव के द्वारा तथा केशव के षड् आठ तथा द्वादशाक्षर वाले अपने उपदिष्ट मन्त्रों से या उनके व्यूह चतुष्टय के त्रिगुण होकर द्वादश मन्त्रों से उन उन ऊर्ध्वपुण्ड्रों को धारण करना चाहिए ॥ ७७ ॥मूलम्
प्रणवेन तथा व्यूहैः षडष्टद्वादशाक्षरैः। मन्त्रैरन्यैश्चतांस्तान्वै धारदूर्द्ध्वपुण्ड्रकान्॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दिव्यं च हारिद्रं सहेमतुलसीदलम्। मन्त्रेण धारयेच्चूर्णं ललाटे मस्तके तथा॥७८॥
टीका
इसके उपरान्त श्री भगवदर्पित सुवर्ण तुलसीदल चूर्ण मिश्रित हरिद्रा चूर्ण को ललाट तथा मस्तक पर मन्त्र के साथ ( अधिकारानुसारी 'श्रियो जात' इत्यादि मन्त्रादि के साथ) धारण करना चाहिए || ७८ ॥मूलम्
ततो दिव्यं च हारिद्रं सहेमतुलसीदलम्। मन्त्रेण धारयेच्चूर्णं ललाटे मस्तके तथा॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवित्राण्यब्जबीजानि शंखचक्राङ्कभूषणम्। धारयेद्वैष्णवं नाम वैष्णवाश्रयमेव वा॥७९॥
टीका
पवित्रारोपणादि उत्सव के अवसर पर श्रीभगवान् विष्णु के द्वारा धारण किये गये तन्तुमय पद्माक्ष वीज के वलयों (तुलसी काष्ठ निर्मित अक्ष वलय और अन्य वैष्णवों के इष्ट कण्ठी आदि को ) तथा शंख चक्रादि से अङ्कित मुद्रिकादिभूषणों को जो वैष्णवाश्रय होकर नाम से भी वैष्णव भूषण हो गये हों तथा भगवत्सम्बन्धित भूषणों को धारण करना चाहिए ॥ ७९ ॥मूलम्
पवित्राण्यब्जबीजानि शंखचक्राङ्कभूषणम्। धारयेद्वैष्णवं नाम वैष्णवाश्रयमेव वा॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयुक्सूत्रैर्व्यतिस्यूतं धारयेत्कटिबन्धनम्। कौपीनंवस्त्रयुग्मं च यथार्हमितराणि च॥८०॥
टीका
उसे अयुग्म या तीन सूत्रों से बट कर बनाया हुआ कटिसूत्र का धारण करना चाहिए, कौपीन के दो वस्त्रखण्डों को रखना चाहिए तथा यथायोग्य आवश्यकतानुरूप अन्य वस्त्रों (उष्णीष आदि) को शरीर पर धारण करना चाहिए ॥ ८० ॥मूलम्
अयुक्सूत्रैर्व्यतिस्यूतं धारयेत्कटिबन्धनम्। कौपीनंवस्त्रयुग्मं च यथार्हमितराणि च॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्षणानि स्फुटान्येव क्रियासिद्धिकराणि तु। धारयेन्नोपहन्येत कदाचित्किङ्करादिभिः॥८१॥
टीका
शंख, चक्र, ऊर्ध्वपुण्ड्र आदि लक्षणों को स्पष्ट रूप में प्रकट होने वाले आकारों में धारण करने से ये क्रियाओं के सिद्धि-कारक भगवान् श्रीविष्णु के किंकरभाव की योग्यता के सम्पादक होकर भी रहने से इनका धारण करना इष्ट है जिससे कभी भी यम देवता के किङ्कर दूतादि से बाधा नहीं होती है ॥ ८१॥मूलम्
लक्षणानि स्फुटान्येव क्रियासिद्धिकराणि तु। धारयेन्नोपहन्येत कदाचित्किङ्करादिभिः॥८१॥
इति लक्ष्माधिकारः॥ सत्सेवाधिकार-
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डवत्प्रणमेद्भूमावुपेत्य गुरुमन्वहम्। दिशे वापि नमस्कुर्याद्यत्रासौवसति स्वयम्॥८२॥
टीका
अपने अहंकार को हटाकर प्रतिदिन अपने उपदेष्टा पूज्य गुरू को दण्डवत् प्रणाम पृथ्वी पर झुककर करना चाहिए अथवा जिस स्थान पर वह निवास करता हो उसी दिशा को गुरु का आवास स्थान मानकर (गुरु के न मिलने पर ) प्रणाम कर लेना चाहिए। अपने आचार्य के लिये धनादि देने को लावे तथा अपना परिचय निवेदन उनकी आज्ञा का अनुसरण कर स्थित रहे, क्योंकि आचार्य स्वयं नारायण स्वरूप होता है ( आशय यह कि भगवद्विषयक सारी वृत्तियां तथा श्रद्धा को गुरु के लिये भी किया जाना चाहिये ) ॥८२-८३॥मूलम्
दण्डवत्प्रणमेद्भूमावुपेत्य गुरुमन्वहम्। दिशे वापि नमस्कुर्याद्यत्रासौवसति स्वयम्॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्यायाहरेदर्थानात्मानं च निवेदयेत्। तदधीनश्च वर्तेत साक्षान्नारायणो हि सः॥८३॥
टीका
अपने अहंकार को हटाकर प्रतिदिन अपने उपदेष्टा पूज्य गुरू को दण्डवत् प्रणाम पृथ्वी पर झुककर करना चाहिए अथवा जिस स्थान पर वह निवास करता हो उसी दिशा को गुरु का आवास स्थान मानकर (गुरु के न मिलने पर ) प्रणाम कर लेना चाहिए। अपने आचार्य के लिये धनादि देने को लावे तथा अपना परिचय निवेदन उनकी आज्ञा का अनुसरण कर स्थित रहे, क्योंकि आचार्य स्वयं नारायण स्वरूप होता है ( आशय यह कि भगवद्विषयक सारी वृत्तियां तथा श्रद्धा को गुरु के लिये भी किया जाना चाहिये ) ॥८२-८३॥मूलम्
आचार्यायाहरेदर्थानात्मानं च निवेदयेत्। तदधीनश्च वर्तेत साक्षान्नारायणो हि सः॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुर्वीत परमांभक्ति गुरौ तत्प्रियवत्सलः। तदनिष्टापवादी च तन्नामगुणहर्षितः॥८४॥
टीका
आचार्य का भक्तवत्सल होकर अपने पूज्य गुरु के प्रति परम भक्ति रखे तथा अपन ओर से गुरु के अनिष्ट का विरोध करे तथा उनके वचन, नाम तथा गुणों का अनुवाद सुनकर प्रसन्नता दिखलाए॥८४॥मूलम्
कुर्वीत परमांभक्ति गुरौ तत्प्रियवत्सलः। तदनिष्टापवादी च तन्नामगुणहर्षितः॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं गुरुमुपासीत तद्वचः श्रवणोत्सुकः। विग्रहालोकनपरस्तस्यैवाज्ञाप्रतीक्षकः॥८५॥
टीका
नित्य ही वह अपने आचार्य या उपदेष्टा गुरु की उपासना करता रहे तथा उनके कथन ( उपदेश वचन) को सुनने को उत्सुक रहे। उनके शरीर की सेवा में सदैव तत्पर रहे तथा उनके द्वारा दी जाने वाली आज्ञाओं की सदा प्रतीक्षा करत रहे ॥ ८५ ॥मूलम्
नित्यं गुरुमुपासीत तद्वचः श्रवणोत्सुकः। विग्रहालोकनपरस्तस्यैवाज्ञाप्रतीक्षकः॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रक्षाल्य चरणौ पात्रे प्रणिपत्योपयुज्य च। नित्यं विधिवदर्घ्याद्यैरादृतोऽभ्यर्चयेद्गुरुम्॥८६॥
टीका
वह अपने आचार्य के चरणों को पात्र में स्थापित कर उन्हें प्रक्षालित करे तथ दण्डवत् प्रणाम कर पादप्रक्षालन के जल का आचमन कर ग्रहण करे तथा प्रतिदि अर्ध्यादि लेकर आदर करते हुए आचार्य का अर्चन करे || ८६ ॥मूलम्
प्रक्षाल्य चरणौ पात्रे प्रणिपत्योपयुज्य च। नित्यं विधिवदर्घ्याद्यैरादृतोऽभ्यर्चयेद्गुरुम्॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छाप्रकृत्यनुगुणैरुपचारैः सदोचितैः। भजन्नवहितश्चात्र हितमावेदयेद्रहः॥८७॥
टीका
वह सदा उनकी इच्छा तथा प्रकृति के अनुरूप उपचारों से सेवा करे तथ सावधानीपूर्वक रहते हुए आचार्य के हितों को अलग एकान्त होने पर उन बतलावे॥८७॥मूलम्
इच्छाप्रकृत्यनुगुणैरुपचारैः सदोचितैः। भजन्नवहितश्चात्र हितमावेदयेद्रहः॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथानुजीवी नृपतिं यथा भक्तस्तु दैवतम्। तथैव देशिकं शिष्यः सेवेत विनयान्वितः॥८८॥
टीका
जैसे कोई राजसेवक अपने स्वामी राजा का अथवा जैसे कोई भक्त अपने इष्टदेव की विनयपूर्वक सेवा करता रहता है उसी प्रकार वह शिष्य अपने देशिक (गुरु) की सेवा करे ॥ ८८ ॥मूलम्
यथानुजीवी नृपतिं यथा भक्तस्तु दैवतम्। तथैव देशिकं शिष्यः सेवेत विनयान्वितः॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नातं च गुरुणा यत्र तीर्थं नान्यत्ततोऽधिकम्। यच्च कर्म तदर्थं तद्विष्णोराराधनात्परम्॥८९॥
टीका
अपने गुरु ने जिस जलाशय (नदी, सरोवर या कूप ) में स्नान किये उससे अधिक अन्य श्रेष्ठ तीर्थ नहीं है' तथा जो भी कार्य उनके लिये किया जाता है वह स्वयं श्रीविष्णु की आराधना के समान श्रेष्ठ कार्य है ॥ ८९ ॥मूलम्
स्नातं च गुरुणा यत्र तीर्थं नान्यत्ततोऽधिकम्। यच्च कर्म तदर्थं तद्विष्णोराराधनात्परम्॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपदिश्य पितॄन्देवान्गुरौ यत्प्रतिपाद्यते। देशकालक्रियामन्त्रनिरपेक्षं तदक्षयम्॥९०॥
टीका
अपने पितरों तथा देवताओं को भी न देते हुए जो हव्य कव्य पदार्थ आचार्य को प्रदान किया जाता है वह देश, काल, क्रिया तथा मन्त्रों की बिना अपेक्षा किये हुए भी अक्षय होता है ॥ ९० ॥मूलम्
अपदिश्य पितॄन्देवान्गुरौ यत्प्रतिपाद्यते। देशकालक्रियामन्त्रनिरपेक्षं तदक्षयम्॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनो ह्यतिनीचस्य योगिध्येयपदार्हताम्। कृपयैवोपकर्त्तारमाचार्यं संस्मरेत्सदा॥९१॥
टीका
अतिशय हीनात्मा को भी योगिजन से ध्यान करने ( प्राप्तव्य ) योग्य पद की योग्यता को जो अपनी करुणामयी कृपा के द्वारा उपदेशों के उपकार से शक्य बनाता है, अतः ऐसे उपदेष्टा आचार्य का सदैव स्मरण करना चाहिए ॥ ९१ ॥मूलम्
आत्मनो ह्यतिनीचस्य योगिध्येयपदार्हताम्। कृपयैवोपकर्त्तारमाचार्यं संस्मरेत्सदा॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं देहानुकूलानि धर्मार्थौपयिकानि च। कुर्यादप्रतिषिद्धानि गुरोः कर्माण्यशेषतः॥९२॥
टीका
वह सदां आचार्य के शरीर के अनुकूल पादसंवाहन आदि सेवा तथा धर्म और अर्थ के उपयुक्त अग्नि परिचर्या देवपूजन आदि शास्त्र के अनुगत तथा अप्रतिबिद्ध कर्मों को स्वयं सम्पन्न करे॥९२॥मूलम्
स्वयं देहानुकूलानि धर्मार्थौपयिकानि च। कुर्यादप्रतिषिद्धानि गुरोः कर्माण्यशेषतः॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ मन्त्रवरं प्रादात्संसारोच्छेदसाधनम्। प्रतीच्छेद्गुरुवर्यस्य तस्योच्छिष्टं सुपावनम्॥९३॥
टीका
जो आचार्य मोक्ष के हेतुभूत श्रेष्ठ मन्त्र को प्रदान करता है उस आचार्य का पवित्रभूत उच्छिष्ट [प्रासादं|प्रसाद] पवित्र भगवत्प्रसादवत् आचार्य के वदनसे स्पष्ट अन्नादि को स्वीकार करे ॥ ९३ ॥मूलम्
योऽसौ मन्त्रवरं प्रादात्संसारोच्छेदसाधनम्। प्रतीच्छेद्गुरुवर्यस्य तस्योच्छिष्टं सुपावनम्॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चोपकुर्वते ज्ञानं किमप्यच्युतसंश्रयम्। विनोच्छिष्टाशनं कुर्याद्वृत्तिं तेष्वपि गौरवात्॥९४॥
टीका
श्रीमद्भगवान् अच्युत विषयक मोक्ष साधक ज्ञान का जिस गुरु के उच्छिष्टाशन कर्म से उपकार होता है या ऐसे ज्ञान को जो प्रदान करता है, ऐसे अन्य गुरुजन उच्छिष्टाशन से वर्जित अपने गुरु के समान ही वृत्ति का आचरण करे ॥ ९४ ॥मूलम्
ये चोपकुर्वते ज्ञानं किमप्यच्युतसंश्रयम्। विनोच्छिष्टाशनं कुर्याद्वृत्तिं तेष्वपि गौरवात्॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरोश्च पत्नीपुत्रादिष्वन्येष्वप्यमलात्मसु। कुर्यादाचार्यवद्वृत्तिं तत्र तत्र व्यवस्थया॥९५॥
टीका
अपने पूज्य गुरु की पत्नी तथा पुत्रादि भ्राता आदि तथा उनके अंतरंग ऐसे शिष्टजन सहृदयादि निर्मल स्वभाव वाले हों तो उन सभी में यथा [पर्या|पर्याप्त] उच्छिष्टाशनादिवर्ज्य पादोपसंग्रहणादि आचार का पालन करे॥ ९५ ॥मूलम्
गुरोश्च पत्नीपुत्रादिष्वन्येष्वप्यमलात्मसु। कुर्यादाचार्यवद्वृत्तिं तत्र तत्र व्यवस्थया॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्योऽपि तथा शिष्यं स्निग्धो हितपरः सदा। प्रबोध्य बोधनीयानि वृत्तिमाचारयेत्स्वयम्॥९६॥
टीका
गुरु भी विनयादि सम्पन्न शिष्य के प्रति कृपापूर्ण तथा सदैव शिष्यहित की चिन्ता रहकर उन्हें बतलाने योग्य सभी विषयों का उपदेश देते हुए सदा प्रबुद्ध करे तथा स्व अपनी वृत्ति का यापन करे ॥ ९६ ॥मूलम्
आचार्योऽपि तथा शिष्यं स्निग्धो हितपरः सदा। प्रबोध्य बोधनीयानि वृत्तिमाचारयेत्स्वयम्॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निजधर्मानुरोधेन वैष्णवैरेव वैष्णवः। कुर्यात्सर्वाणि कार्याणि न कदाचिदवैष्णवैः॥९७॥
टीका
वह शिष्य अपने से अधिक योग्य अथवा अपने समान बुद्धिवाले अन्य शिष्यों क संगति रखे। वह अपने से कम योग्यता या स्थिति वालों की अवहेलना न करे और ही उनमें दोषों की चिन्ता या निदर्शन करे ॥ ९८ ॥मूलम्
निजधर्मानुरोधेन वैष्णवैरेव वैष्णवः। कुर्यात्सर्वाणि कार्याणि न कदाचिदवैष्णवैः॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिकैः सदृशैर्वापि कुर्यादेव तु सङ्गमम्। हीनांश्च नावमन्येत न च दोषं विभावयेत्॥९८॥
टीका
वह शिष्य अपने से अधिक योग्य अथवा अपने समान बुद्धिवाले अन्य शिष्यों क संगति रखे। वह अपने से कम योग्यता या स्थिति वालों की अवहेलना न करे और ही उनमें दोषों की चिन्ता या निदर्शन करे ॥ ९८ ॥मूलम्
अधिकैः सदृशैर्वापि कुर्यादेव तु सङ्गमम्। हीनांश्च नावमन्येत न च दोषं विभावयेत्॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धानाचारसम्पन्नान्विष्णुभक्तान्दृढव्रतान्। सतः सत्सेवनपरान्नित्यं सेवेत संनतः॥९९॥
टीका
वह सदा विनम्र भाव से ऐसे सन्तजन की जो श्रीहरि के भक्त तथा इष्ट के प्रति दृ आस्था एवं व्रतशील रहते हो आचार सम्पन्न हों तथा सज्जनों के सेवी हों तो उनक सदा सेवन (सेवा) करना चाहिए ॥ ९९ ॥मूलम्
वृद्धानाचारसम्पन्नान्विष्णुभक्तान्दृढव्रतान्। सतः सत्सेवनपरान्नित्यं सेवेत संनतः॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्वकर्मणि ज्ञाने भक्तौ च परिनिष्ठितः। वैराग्येण च संयुक्तो न चेहाजायते पुनः॥१००॥
टीका
इस प्रकार वह अपने विहित आचारों में इष्ट के दृष्टज्ञान तथा भक्ति वैराग्यादि में परिपक्व या दृढ़ धारणा रखकर वर्तत करने पर पुनः इस लोक में जन्म ग्रहण नहीं करता है॥१००॥मूलम्
एवं स्वकर्मणि ज्ञाने भक्तौ च परिनिष्ठितः। वैराग्येण च संयुक्तो न चेहाजायते पुनः॥१००॥
इति श्रीभारद्वाजसंहितायां न्यासोपदेशे तृतीयोध्यायः॥३॥ ( इति सत्सेवनाधिकारः॥) (भारद्वाज संहिता के न्यासोपदेश का तृतीय अध्याय समाप्त)