१ पाप-प्रशमनाधिकारः

अथ न्यासोपदेशो नाम प्रथमोऽध्यायः

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तु सकलान्धर्मान्सिद्धिमेषां च शाश्वतीम्। भूय एव मुनिश्रेष्टमिदमूचुर्महर्षयः॥१॥

टीका समस्त निःश्रेयससाधनों के आपादक धर्मों को तथा उन उन धर्मों तथा विद्याओं के विषय, प्रतिपादित इष्ट देवताओं के नियत गुणादि एवं उनके द्वारा प्राप्त होने वाली फलभूत सिद्धियों को सुन लेने के बाद भी महर्षिगण मुनिश्रेष्ठ भारद्वाज से पुनः प्रश्न की भावना से इस प्रकार बोले ॥ १ |
मूलम्

श्रुत्वा तु सकलान्धर्मान्सिद्धिमेषां च शाश्वतीम्। भूय एव मुनिश्रेष्टमिदमूचुर्महर्षयः॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनोपायेन भगवन्निह सर्वेऽपि जन्तवः। प्राप्नुयुः परमां सिद्धिं सद्यो विगतकल्मषाः॥२॥

टीका हे भगवन्, इस लोक में सभी प्राणी अपने अपने कल्मषों को सद्यः दूर करते हुए परमनिः श्रेयस् की प्राप्ति किस उपाय से कर सकते हैं, इसे हमें बतलाइये ॥२॥
मूलम्

केनोपायेन भगवन्निह सर्वेऽपि जन्तवः। प्राप्नुयुः परमां सिद्धिं सद्यो विगतकल्मषाः॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां तद्वचनं श्रुत्वा भरद्वाजो महामनाः। सस्मार परमं गुह्यं पुनश्चेदमभाषत॥३॥

टीका सभी प्राणियों के कलुषों को शीघ्र दूर कर मुक्ति या निःश्रेयस प्रदान करनेवाले मुनिजन के वचनों को सुनकर महातपोनिधि भारद्वाज ऋषि ने परम गुह्य रहस्यों की ओर ध्यान लगाया ( और चिन्तन के ) बाद में वे उन मुनियों से इस प्रकार कहने लगे॥३॥
मूलम्

तेषां तद्वचनं श्रुत्वा भरद्वाजो महामनाः। सस्मार परमं गुह्यं पुनश्चेदमभाषत॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रूयतां संप्रवक्ष्यामि न्यासाख्यं योगमुत्तमम्। सिद्धिं चैवास्य परमांद्वयमेतच्छ्रुतं यथा॥४॥

टीका हे मुनिगण! आप ध्यान से सुनें, मैं आपको समस्त प्राणियों के कल्मष निवारक 'न्यास' नामक एक उत्तम योग तथा उससे प्राप्त होनेवाली फलरूप सिद्धियों को कहता हूं, जिन्हें मैंने परम्परा से सुन रखा है ||४॥
मूलम्

श्रूयतां संप्रवक्ष्यामि न्यासाख्यं योगमुत्तमम्। सिद्धिं चैवास्य परमांद्वयमेतच्छ्रुतं यथा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं च योगो वेदेषु वेदान्तेषु च गीयते। तथैव धर्मशास्त्रेषु दिव्यशास्त्रगणेषु च॥५॥

टीका यह न्यास-योग वेदों तथा वेदान्त के ग्रन्थों में रहस्यरूप में तथा इसी प्रकार मनु आदि प्रणीत स्मृतियों में तथा पञ्चरात्र संहिता आदि आगमों में दिखलाया गया है। ( वही अब मैं आप सभी को कह रहा हूँ ) ॥५॥
मूलम्

अयं च योगो वेदेषु वेदान्तेषु च गीयते। तथैव धर्मशास्त्रेषु दिव्यशास्त्रगणेषु च॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेनैव हि कर्माद्या योगाः सिध्यन्ति योगिनाम्। सिद्धिर्न तद्व्यपेक्षास्य तस्मादेनं परं विदुः॥६॥

टीका न्यास नामक इस उत्तम योग के द्वारा ही योगिजन को कर्म, ज्ञान तथा भक्ति आदि योगों में सिद्धि मिलती है परन्तु यह योग उन कर्मादि योगों की अपेक्षा नहीं रखता है अतः (उन सभी योगों से ) यह न्यास-योग ही उत्तम है, यह निश्चित है॥६॥
मूलम्

अनेनैव हि कर्माद्या योगाः सिध्यन्ति योगिनाम्। सिद्धिर्न तद्व्यपेक्षास्य तस्मादेनं परं विदुः॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निश्चितेऽनन्यसाध्यस्य परत्रेष्टस्य साधने। अयमात्मभरन्यासः प्रपत्तिरिति चोच्यते॥७॥

टीका इस न्यास का स्वरूप इस प्रकार है कि इस न्यास के अतिरिक्त अन्य उपायों से साध्य फलों से (इष्टार्थ की ) सिद्धि नहीं होती। अतः यह न्यास ही इष्ट फलों का आपादक तथा साधनभूत है तथा यही अपने इष्ट देव (परमात्मा) के प्रति स्वात्मा का न्यास या प्रपत्तिरूप है। अतः इसे 'न्यास' कहते हैं | ७ ||
मूलम्

निश्चितेऽनन्यसाध्यस्य परत्रेष्टस्य साधने। अयमात्मभरन्यासः प्रपत्तिरिति चोच्यते॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायो गुणवशादेषकृतः सर्वत्र देहिनाम्। सर्वेषां साधयत्येव तांस्तानर्थानभीप्सितान्॥८॥

टीका अतः सत्वरज तमोगुण के पारवश्य विष्णु, ब्रह्मा तथा परमशिव आदि देवों के प्रति भी यह 'न्यास' किया जाए तो प्राणियों को इष्टअर्थों की प्रायः सिद्धि देता ही है ( क्योंकि प्रपत्तिरूप अनुष्ठित न्यास का फल अवश्य होता है ) ||८||
मूलम्

प्रायो गुणवशादेषकृतः सर्वत्र देहिनाम्। सर्वेषां साधयत्येव तांस्तानर्थानभीप्सितान्॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्तज्ञानशक्त्यादिकल्याणगुणसागरे। परे ब्रह्मणि लक्ष्मीशे मुख्योऽयं सर्वसिद्धिकृत्॥९॥

टीका परन्तु अनन्त, ज्ञान, शक्ति तथा कल्याण आदि गुणों के सागर जो परब्रह्म रूप लक्ष्मीपति श्री विष्णु है उनके प्रति मुख्यरूप में अर्थात् श्रेष्ठ पद की प्राप्ति तक के लिये यदि यह 'न्यास' किया जाए तो सम्पूर्ण सिद्धियों का प्रदाता और आपादक रहता है ॥ ९ ॥
मूलम्

अनन्तज्ञानशक्त्यादिकल्याणगुणसागरे। परे ब्रह्मणि लक्ष्मीशे मुख्योऽयं सर्वसिद्धिकृत्॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशासितुरशेषाणामात्मनां परमात्मनः। न हि प्रसादनं विष्णोरन्यदात्मार्पणादृते॥१०॥

टीका परमात्मस्वरूप श्री विष्णु के प्रति आत्मार्पण रूप न्यास के अतिरिक्त अन्य कोई प्रसन्नता देने वाला (अन्य ) साधन नहीं है क्योंकि श्री विष्णु सम्पूर्ण जीवों के नियन्ता हैं ॥ १०॥
मूलम्

प्रशासितुरशेषाणामात्मनां परमात्मनः। न हि प्रसादनं विष्णोरन्यदात्मार्पणादृते॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमस्मि तवैवेति प्रपन्नाय सकृत्स्वयम्। देवो नारायणः श्रीमान्ददात्यभयमुत्सुकः॥११॥

टीका यदि इन भगवान् श्री विष्णु के प्रति प्रपन्नभाव से एक बार भी हे प्रभो!, मैं तो आपका ही भक्त हूं, कहकर स्वयं को न्यस्त कर दे तो भगवान् श्री नारायणदेव स्वयं ही करुणावश भक्त के प्रति उत्सुक होकर उसे अभय प्रदान कर देते हैं ॥ ११ ॥
मूलम्

अहमस्मि तवैवेति प्रपन्नाय सकृत्स्वयम्। देवो नारायणः श्रीमान्ददात्यभयमुत्सुकः॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्यन्तिकीमनिष्टानां सद्यः शान्तिमभीप्सताम्। प्रपत्तिरञ्जसा कार्या न त्वशुद्धमुखी क्वचित्॥१२॥

टीका जो अपने अनिष्टों की एक सद्यः शान्ति प्राप्त करने की इच्छा रखते हों तो ऐसे जन को अपने अनिष्टभूत अविद्या, कर्म, वासना आदि से विरत होने वाले दुष्कर्मों उत्पन्न सुखदुःखादि की सदा सर्वदा के लिये समाप्ति के लिये श्रीविष्णु के प्रति [प्रि|प्रपत्ति] तुरन्त बिना किसी व्यवधान या विलम्ब किये ( ग्रहण) कर लेना चाहिए, इसे किसी अन्य चेतना के अन्तर से दबाकर या अन्य विद्याओं के आचरण के साथ साथ नहीं करना चाहिये जिससे अनिष्ट निवृत्ति में विलम्ब हो जाए ॥ १२ ॥
मूलम्

आत्यन्तिकीमनिष्टानां सद्यः शान्तिमभीप्सताम्। प्रपत्तिरञ्जसा कार्या न त्वशुद्धमुखी क्वचित्॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्तुमिच्छन्परां सिद्धिं जनः सर्वोऽप्यकिञ्चनः। श्रद्धया परया युक्तो हरिं शरणमाश्रयेत्॥१३॥

टीका इसमें कोई अकिञ्चनजन भी परमश्रद्धा से युक्त होकर अपने कर्मों के सिद्धि की प्राप्ति की कामना करे तो वह भी श्रीकृष्ण की शरण में जाकर न्यास योग की साधना करे ॥ १३॥
मूलम्

प्राप्तुमिच्छन्परां सिद्धिं जनः सर्वोऽप्यकिञ्चनः। श्रद्धया परया युक्तो हरिं शरणमाश्रयेत्॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातिभेदं न कुलं न लिंगं न गुणक्रियाः। न देशकालौ नावस्थां योगो ह्ययमपेक्षते॥१४॥

टीका इस न्यासयोग की साधना में न जातिभेद, न कुल, न स्त्रीपुरुष आदि लिंग, न अपने गुणों और किया आदि कार्यों का, न देश काल और अवस्था आदि का योग साधक को अपेक्षित होता है ॥ १४ ॥
मूलम्

न जातिभेदं न कुलं न लिंगं न गुणक्रियाः। न देशकालौ नावस्थां योगो ह्ययमपेक्षते॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मक्षत्रविशःशूद्राः स्त्रियश्चान्तरजास्तथा। सर्व एव प्रपद्येरन्सर्वधातारमच्युतम्॥१५॥

टीका इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ तथा अन्त्यज जैसे छोटी [जातियों|जातियों] के किसी भी वृद्धाभावयुक्त व्यक्ति को सभी प्राणियों के अधिपति अच्युत श्रीविष्णु की प्रपत्ति में प्रणत होकर 'न्यास' योग को विधिवत् प्रस्तुत कर देना चाहिए | | १५॥
मूलम्

ब्रह्मक्षत्रविशःशूद्राः स्त्रियश्चान्तरजास्तथा। सर्व एव प्रपद्येरन्सर्वधातारमच्युतम्॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपत्तिं कारयन्त्येव सर्वभूतानि साधवः। अनपायहता सा तु तस्य तस्याशु सिद्धिदा॥१६॥

टीका प्रपत्ति सदैव अपायानपहतत्वरूप है अतएव इस प्रपत्ति को सभी प्राणिजन के साधुजन या विद्वान् अपने ज्ञान तथा परम्परा के अनुरूप विधिवत् करवाते हैं, क्योंकि यह प्रपत्ति यदि अनपायहतत्वरूप में आये तो वह शीघ्र ही सिद्धि को देने वाली होती है ॥ १६॥
मूलम्

प्रपत्तिं कारयन्त्येव सर्वभूतानि साधवः। अनपायहता सा तु तस्य तस्याशु सिद्धिदा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपत्तिरानुकूल्यस्य सङ्कल्पोऽप्रतिकूलता। विश्वासो वरणं न्यासः कार्पण्यमिति षड्विधा॥१७॥

कृतानुकूल्यसंकल्पः प्रातिकूल्यं विवर्जयेत्। विश्वासशाली कृपणः प्रार्थयन् रक्षणं प्रति॥१८॥

टीका इस प्रपत्ति के छः भेद बतलाने के साथ उसका स्वरूप भी दिखाने की इच्छा से कहते हैं कि अनुकूलता के हेतु सङ्कल्प के समय किसी प्रतिकूल बात का न आना ही प्रपत्ति है। यह छः प्रकार की है - सङ्कल्प, अप्रतिकूलता, विश्वास, वरण, न्यास तथा कार्पण्य। इनमें अनुकूल अनुष्ठान का संकल्प करना 'सङ्कल्प, प्रतिकूलता का परिहार करना 'अप्रातिकूल्य, इष्ट ही रक्षण करेगा, यह आस्था रखना 'विश्वास' अपनी रक्षा के लिये उपयुक्त रक्षक देवता का वरण करना 'वरण' स्वयं का इष्टदेव को निष्ठापूर्वक समर्पण 'न्यास' स्वयं को अकिञ्चन भाव में हृदय से प्रस्तुत करना 'कार्पण्यम्'। इस प्रकार से यह छः प्रकार की है ॥ १७-१८ ॥
मूलम्

प्रपत्तिरानुकूल्यस्य सङ्कल्पोऽप्रतिकूलता। विश्वासो वरणं न्यासः कार्पण्यमिति षड्विधा॥१७॥

कृतानुकूल्यसंकल्पः प्रातिकूल्यं विवर्जयेत्। विश्वासशाली कृपणः प्रार्थयन् रक्षणं प्रति॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मानं निक्षिपति यद्विप्रदेवस्य पादयोः। सा प्रपत्तिरियं सद्यः सर्वपापप्रमोचनी॥१९॥

टीका इस प्रकार अपने गुरु, विप्र तथा इष्टदेव श्री विष्णु आदि के चरणों में स्वयं आत्मा का समर्पण करना 'प्रपत्ति' है, यही निक्षेप होने से 'न्यास' (इसे ही शास्त्र में 'निक्षेपापर पर्यायो न्यासः इत्यादि) कह कर उसके पांच अंग भी बतलाये हैं॥१९॥
मूलम्

आत्मानं निक्षिपति यद्विप्रदेवस्य पादयोः। सा प्रपत्तिरियं सद्यः सर्वपापप्रमोचनी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्त्तानामाशु फलदा सकृदेव कृता ह्यसौ। दृप्तानामपि जन्तूनां देहान्तरनिवारिणी॥२०॥

टीका इस प्रपत्ति का अधिकारी भेद से फल यह है कि यह 'आर्तजन को शीघ्र फल देने वाली होती है (यदि इसे एक बार भी विधिवत् सम्पन्न किया जाए) और 'अहंकाराभिभूत' प्राणियों के द्वारा इसका आचरण हो तो उनका भी शोकादि का निवारण हो जाता है ||२०||
मूलम्

आर्त्तानामाशु फलदा सकृदेव कृता ह्यसौ। दृप्तानामपि जन्तूनां देहान्तरनिवारिणी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा च त्रिविधा ज्ञेया करणत्रयभेदतः। गुणत्रयविभेदादप्येकैका त्रिविधा पुनः॥२१॥

टीका करणों के भेद से इस प्रपत्ति के तीन भेद कायिकी, वाचिकी तथा मानसी रूपवाले हो जाते हैं, जो सत्त्व, रज तथा तमोगुण के भेद से प्रत्येक प्रपत्ति के होकर यह त्रिविधा बन जाती है ॥ २१ ॥
मूलम्

एषा च त्रिविधा ज्ञेया करणत्रयभेदतः। गुणत्रयविभेदादप्येकैका त्रिविधा पुनः॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणामांकनमुख्येन न्यासलिंगेन केवलम्। गुर्वधीना हि भवति प्रपत्तिः कायिकी क्वचित्॥२२॥

टीका इस प्रकार यदि सर्वप्रथम 'कायिकी' को देखे तो कहीं साष्टाङ्ग प्रणामादि रूप वाली, कहीं चक्रादि चिन्हों के अंकनरूप में धारण करने से, ऊर्ध्वपुण्ड्रादि के धारण- रूपी न्यास के चिन्ह से अपने दीक्षा देनेवाले आचार्य के अधीन कही गयी है और यह 'कायिकी - प्रपत्ति' कहलाती है ||२२||
मूलम्

प्रणामांकनमुख्येन न्यासलिंगेन केवलम्। गुर्वधीना हि भवति प्रपत्तिः कायिकी क्वचित्॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविज्ञातार्थतत्त्वस्य मन्त्रमीरयतः परम्। गुर्वधीनस्य कस्यापि प्रपत्तिर्वाचिकी भवेत्॥२३॥

टीका जिसका तात्विक अर्थ विशेष रूप में अवगत नहीं होता ऐसे गुरू के अधीन रहने वाले परम मन्त्रों को उनसे पाकर उच्चारण करने वाले किसी भी गुरु के अनुशासन में स्थित रहने वाले शिष्य साधक की प्रपत्ति को 'वाचिकी' समझना चाहिए ||२३||
मूलम्

अविज्ञातार्थतत्त्वस्य मन्त्रमीरयतः परम्। गुर्वधीनस्य कस्यापि प्रपत्तिर्वाचिकी भवेत्॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यासलिंगवतांगेन धियार्थज्ञस्य मन्त्रतः। उपासितगुरोः सम्यक् प्रपत्तिर्मानसी भवेत्॥२४॥

टीका न्यास-योग के (धारण) चिन्हों से मण्डित तथा अपने दीक्षा प्रदाता गुरू की विधिवत् उपासना करने वाले, मंत्रों के अर्थों के ( तात्विक ) ज्ञान को बुद्धि से धारण किये हुए शिष्य साधक की अनुकूल अंगादि के द्वारा की गई विशिष्ट प्रपत्ति 'मानसी' होती है || २४ ॥
मूलम्

न्यासलिंगवतांगेन धियार्थज्ञस्य मन्त्रतः। उपासितगुरोः सम्यक् प्रपत्तिर्मानसी भवेत्॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदीच्छन्प्रतिकूलानि सर्वभूतानुकम्पिनम्। प्रपद्यते हरिं मोहात्सा प्रपत्तिस्तु तामसी॥२५॥

टीका मोक्ष भावना के विपरीत शत्रुवध जैसी भूतहिंसादि की आकांक्षा रखते हुए सभी भूतों पर अनुकंपा करनेवाले इष्टदेव श्री विष्णु की मोहवश जब 'प्रपत्ति' की जाए तो यह प्रपत्ति 'तामसी' होगी ॥ २५ ॥
मूलम्

यदीच्छन्प्रतिकूलानि सर्वभूतानुकम्पिनम्। प्रपद्यते हरिं मोहात्सा प्रपत्तिस्तु तामसी॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभीप्सन्विविधान्कामान् यदकामैकवत्सलम्। प्रपद्यते हृषीकेशं तामिमां राजसीं विदुः॥२६॥

टीका यदि ऐहिक तथा आमुष्मिक अनेक भोगों की कामना से निष्काम भाव से प्रसन्न होने वाले श्री विष्णु (ऋषीकेश - इन्द्रियों के नियामक देव ) की प्रपत्ति की जाए तो यह 'राजसी' प्रपत्ति होगी॥२६॥
मूलम्

अभीप्सन्विविधान्कामान् यदकामैकवत्सलम्। प्रपद्यते हृषीकेशं तामिमां राजसीं विदुः॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परित्यज्याखिलान् कामान् भक्त्यैवात्मेश्वरं हरिम्। प्रपद्यते दास्यरतिर्यदेषा सा तु सात्त्विकी॥२७॥

टीका यदि सभी कामनाओं का परित्याग कर भक्तिभावना से आत्माधीश्वर श्री हरि की दास्यभाव से उनके समीप एक किंकर की प्राप्ति की भावना से प्रपत्ति की जाए तो यह 'सात्विकी' प्रपत्ति होती है ||२७||
मूलम्

परित्यज्याखिलान् कामान् भक्त्यैवात्मेश्वरं हरिम्। प्रपद्यते दास्यरतिर्यदेषा सा तु सात्त्विकी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीनाहीनतमाश्चैव रजसा तमसा कृताः। सत्त्वेन याः प्रयुज्यन्ते मुख्यास्ताः परिकीर्तिताः॥२८॥

टीका जो प्रपत्ति रजोगुण वाली है वह हीन तथा जो तामसभाव वाली है वह हीनतमा है, अतः इन दोनों को छोड़कर सात्विक भाव से प्रपत्ति की जाए तो यही 'सात्विक' प्रपत्ति मुख्य मानी गयी है ||२८||
मूलम्

हीनाहीनतमाश्चैव रजसा तमसा कृताः। सत्त्वेन याः प्रयुज्यन्ते मुख्यास्ताः परिकीर्तिताः॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वा मानसी त्वेका तत्र मुख्यतमा मता। तया हि परमां सिद्धिं सद्यो यान्ति मनीषिणः॥२९॥

टीका सत्व मूलक प्रपत्ति की मुख्यता इसीलिये है जैसा कि पूर्व में कहा गया है परन्तु इनमें भी जो मानसी है वह सात्विक प्रपत्ति होगी। वह मुख्यतम मानी जाएगी क्योंकि इस प्रपत्ति से मनीषीगण शीघ्र ही परमसिद्धि की प्राप्ति कर लेते हैं ॥ २९ ॥
मूलम्

सत्त्वा मानसी त्वेका तत्र मुख्यतमा मता। तया हि परमां सिद्धिं सद्यो यान्ति मनीषिणः॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणामः कीर्तनं वापि स्मरणं वापि केवलम्। एकैकमपि चांगानां प्रपत्तिः प्राज्ञसंश्रयात्॥३०॥

टीका कायिक प्रपत्ति के एकभाग प्रणाम क्रिया, वाचिक की प्रपत्ति के कीर्तन तथा मानसिक 'स्मरण' के केवल अंग को यदि विशेषज्ञ दीक्षा गुरू के अधीन रहकर किया जाए अथवा भगवत् सम्बन्धी इनमें से एक एक का सम्बन्ध रखते हुए यदि श्री हरि को स्वयं को अर्पित कर 'न्यासयोग' साधे तो इससे सभी पूर्व तथा बाद में कहे गये सभी प्रकार के साधकों को मुक्ति प्राप्त होती है ॥ ३०-३१ ॥
मूलम्

प्रणामः कीर्तनं वापि स्मरणं वापि केवलम्। एकैकमपि चांगानां प्रपत्तिः प्राज्ञसंश्रयात्॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्वयादपि चैकस्य सम्यङ्न्यस्तात्मनो हरौ। सर्व एव प्रमुच्येरन्नराः पूर्वे परे तथा॥३१॥

टीका कायिक प्रपत्ति के एकभाग प्रणाम क्रिया, वाचिक की प्रपत्ति के कीर्तन तथा मानसिक 'स्मरण' के केवल अंग को यदि विशेषज्ञ दीक्षा गुरू के अधीन रहकर किया जाए अथवा भगवत् सम्बन्धी इनमें से एक एक का सम्बन्ध रखते हुए यदि श्री हरि को स्वयं को अर्पित कर 'न्यासयोग' साधे तो इससे सभी पूर्व तथा बाद में कहे गये सभी प्रकार के साधकों को मुक्ति प्राप्त होती है ॥ ३०-३१ ॥
मूलम्

अन्वयादपि चैकस्य सम्यङ्न्यस्तात्मनो हरौ। सर्व एव प्रमुच्येरन्नराः पूर्वे परे तथा॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालमूकजडान्धाश्च पंगवो बधिरास्तथा। सदाचार्येण संदृष्टाः प्राप्नुवंति परां गतिम्॥३२॥

टीका यहां तक कि सदैव अपने दीक्षाप्रदाता आचार्य की कृपा दृष्टि रहने पर उनके द्वारा प्रदत्त मन्त्रों के प्रभाव से 'न्यासयोग' में दीक्षितों के वंश में उत्पन्न होने वाले जो भी बालक, मूक, जड़ तथा अन्धे पंगु बधिर जन होंगे तो ये भी परमपद मुक्ति को प्राप्त कर लेंगे ॥३२॥
मूलम्

बालमूकजडान्धाश्च पंगवो बधिरास्तथा। सदाचार्येण संदृष्टाः प्राप्नुवंति परां गतिम्॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुणा योऽभिमन्येत गुरुं वा योऽभिमन्यते। तावुभौ परमां सिद्धि नियमादुपगच्छतः॥३३॥

टीका अतः जो अपने गुरू को प्रपत्ति के साथ न्यासयोग की भावना से श्रद्धाभाव से समर्पित करे तथा जो अपने प्रपत्ति के अनुष्ठान के पूर्णतः सम्पन्न होने के बाद भी न्यासयोग की सिद्धि में उनके कारण बनने की कृपा की अतिशय कृतज्ञभाव से बुद्धि रखे तो ये दोनों ही प्रकार के साधकं नियमतः परमसिद्धि की प्राप्ति कर लेते हैं॥३३॥
मूलम्

गुरुणा योऽभिमन्येत गुरुं वा योऽभिमन्यते। तावुभौ परमां सिद्धि नियमादुपगच्छतः॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानतस्त्वनुपेतस्य ब्रह्मचर्यमभीप्सतः। वृथैवात्मसमित्क्षेपो जायते कृष्णवर्त्मनि॥३४॥

टीका जो केवल पुस्तकादि के पठन से ज्ञान प्राप्त कर आचार्य के आश्रय ग्रहण करने के बिना ही प्रपत्ति का अनुष्ठान कर ब्रह्मचर्य की प्राप्ति (मोक्षादि) की अभिलाषा रखते हैं तो उनका निक्षेप या न्यासयोग अग्नि में फेंक दी जाने वाली समिधाओं के दाह की तरह वृथा होता है ॥ ३४ ॥
मूलम्

ज्ञानतस्त्वनुपेतस्य ब्रह्मचर्यमभीप्सतः। वृथैवात्मसमित्क्षेपो जायते कृष्णवर्त्मनि॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शास्त्रादिषु सुदृष्टापि साङ्गा सह फलोदया। न प्रसीदति वै विद्या विना सदुपदेशतः॥३५॥

टीका अतएव जैसे भली प्रकार से शास्त्रादि के ज्ञान के साङ्ग प्राप्त कर लेने पर भी बिना गुरु के उत्तम अनुभव सहित उपदेश के प्राप्त न होने पर फलोन्मुखी ब्रह्मविद्या भी ठीक से फल देनेवाली नहीं होती है || ३५ ॥
मूलम्

शास्त्रादिषु सुदृष्टापि साङ्गा सह फलोदया। न प्रसीदति वै विद्या विना सदुपदेशतः॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं लोकप्रमाणस्य कामाः सिध्यन्ति कामिनः। गृहीतसत्पदस्यैव निरपायफलोदयः॥३६॥

टीका प्रत्यक्षादि लोक प्रमाणों से इष्टसाधनों के प्रमाणित भाव के ग्रहण करने के बाद भी लौकिक पदार्थों से साधित हो जाने से किसी कामना करनेवाले साधक की सिद्धि हो परन्तु अलौकिक प्रमाण से सिद्ध होनेवाले मोक्षादि फल की प्राप्ति आचार्य की दीक्षा के अधीन रहने से सहज ही प्राप्त नहीं हो सकेगी। अतः ब्रह्मविद्या की प्राप्ति के लिये आचार्योपसत्ति ही अपेक्षित है || ३६ ||
मूलम्

कामं लोकप्रमाणस्य कामाः सिध्यन्ति कामिनः। गृहीतसत्पदस्यैव निरपायफलोदयः॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यासे वाप्यर्चने वापि मन्त्रमेकान्तिनः श्रयेत्। अवैष्णवोपदिष्टेन मन्त्रेण न परा गतिः॥३७॥

टीका अतएव न्यासयोग, इष्टदेव के अर्चन के लिये किसी अनन्य याजी गुरु का आश्रय या सभापतित्व को ग्रहण करें, क्योंकि अवैष्णव या अन्ययागी दीक्षाप्रद आचार्य से यदि 'न्यास' प्राप्त किये जावें तो उनसे परमपद की प्राप्तिरूप फल का मिलना कठिन होगा ! ३७॥
मूलम्

न्यासे वाप्यर्चने वापि मन्त्रमेकान्तिनः श्रयेत्। अवैष्णवोपदिष्टेन मन्त्रेण न परा गतिः॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपित्सुर्मन्त्रनिरतं प्राज्ञं हितपरं शुचिम्। प्रशान्तं नियतं वृत्तौ भजेद्द्विजवरं गुरुम्॥३८॥

टीका अतएव जो इस प्रपत्तिभाव की इच्छा रखते हों तो ऐसे साधकों को सर्वदा मन्त्रानुसंधान में रत रहनेवाले तथा मन्त्र के तात्विक रहस्यों के जाननेवाले, शिष्य के प्रति हितबुद्धि रखनेवाले, शिष्य से किसी प्रकार के अर्थादि प्राप्ति से निरपेक्ष रहने वाले, पवित्रभाव से रहने वाले, प्रशान्त वृत्ति के तथा विहित - आचारों में रत ऐसे किसी श्रेष्ठ वेदज्ञ ब्राह्मण का दीक्षा के लिये आचार्यरूप में आश्रय लेना उचित है॥ ३८॥
मूलम्

प्रपित्सुर्मन्त्रनिरतं प्राज्ञं हितपरं शुचिम्। प्रशान्तं नियतं वृत्तौ भजेद्द्विजवरं गुरुम्॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तपुरुषविज्ञेये सन्ततैकान्तिनिर्मले। कुले जातो गुणैर्युक्तोविप्रः श्रेष्ठतमो गुरुः॥३९॥

टीका यही गुरु यदि अपने वंश की सात पीढ़ियों का ज्ञाता या उसकी सातों पीढ़ी विद्यादि से विश्रुत रहीं हो तथा जिसका अविच्छिन्न भाव से चलनेवाला वंश एकान्तरूप में परिशुद्ध हो तो ऐसे वंश में उत्पन्न होने वाला तथा पूर्वकथित विशेषताओं से युक्त ब्राह्मण हो तो उसे श्रेष्ठतम आचार्य समझना चाहिए ॥ ३९ ॥
मूलम्

सप्तपुरुषविज्ञेये सन्ततैकान्तिनिर्मले। कुले जातो गुणैर्युक्तोविप्रः श्रेष्ठतमो गुरुः॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं वा भक्तिसम्पन्नो ज्ञानवैराग्यभूषितः। स्वकर्मनिरतो नित्यमर्हत्याचार्यतां द्विजः॥४०॥

टीका इसके अतिरिक्त जो स्वयं परमेश श्रीविष्णु की भक्ति से युक्त हो तथा ज्ञान वैराग्यादि गुणों से सम्पन्न हो तो अपनी सात पीढ़ी में भक्ति ज्ञानादि से रहित पुरुषों के रहने पर भी या ऐसे पूर्ववर्णित कुल में जन्म न लेने पर भी अपने उत्तम आचरण के कारण अन्य साधकों को मन्त्रदीक्षा देने में आचार्यत्व के गुणों की अर्हता के रखने से भी गुरु होता है ||४०||
मूलम्

स्वयं वा भक्तिसम्पन्नो ज्ञानवैराग्यभूषितः। स्वकर्मनिरतो नित्यमर्हत्याचार्यतां द्विजः॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाचार्यःकुलजातोऽपि ज्ञानभक्त्यादिवर्जितः। न च हीनवयोजातिः प्रकृष्टानामनापदि॥४१॥

टीका यदि उत्तम सात पीढ़ियों के वंशधरों के रहने पर भी ज्ञान तथा भक्तिभाव से रहित विप्र भी हो तो वह दीक्षादाता आचार्य नहीं हो सकता है। इसी प्रकार जो कम अवस्था या आयुवाला और अपकृष्टजाति का गुणशाली भी पुरुष हो तो वह क्रमशः अपने से प्रकृष्टजाति के साधक को मन्त्रादि दीक्षा प्रदान करने वाला 'आचार्य' नही होगा। यदि कोई आपद्धर्म की स्थिति न हो परन्तु आपद्धर्म में ऐसी विज्ञ तथा हीन जाति भी आचार्यरूप में ली जा सकती है || ४१ ॥
मूलम्

नाचार्यःकुलजातोऽपि ज्ञानभक्त्यादिवर्जितः। न च हीनवयोजातिः प्रकृष्टानामनापदि॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातु मन्त्रदा नारी न शूद्रो नान्तरोद्भवः। नाभिशस्तो न पतितः कामकामोऽप्यकामिनः॥४२॥

टीका आपद स्थिति में हीनजाति के ( द्वारा दीक्षित होने में ) आचार्यत्व की अनुमति रहने पर भी कोई स्त्री मन्त्र की देनेवाली नहीं रखनी चाहिए और न ही कोई प्रतिलोमजाति में ।उत्पन्न शुद्र ही मन्त्रदाता होता है। इसी प्रकार जो महापातकी या पतित हो तो उसे भी मन्त्रदाता आचार्य नहीं रखते हैं तथा जो सांसारिक कामनाओं से रहित हों तो उसे भी मन्त्रदाता नहीं रखा जावे ॥ ४२ ॥
मूलम्

न जातु मन्त्रदा नारी न शूद्रो नान्तरोद्भवः। नाभिशस्तो न पतितः कामकामोऽप्यकामिनः॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियः शूद्रादयश्चैव बोधयेयुर्हिताहितम्। यथार्हंमाननीयाश्च नार्हन्त्याचार्यतां क्वचित्॥४३॥

टीका स्त्री तथा शूद्रादि हिताहित की सलाह दे सकते हैं तथा वे अपनी स्थिति के अनुरूप सम्मान के भी अधिकारी होते हैं परन्तु उन्हें मन्त्रदाता आचार्य के रूप में नहीं रखा जा सकता है ||४३||
मूलम्

स्त्रियः शूद्रादयश्चैव बोधयेयुर्हिताहितम्। यथार्हंमाननीयाश्च नार्हन्त्याचार्यतां क्वचित्॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमप्यत्राभिजायन्ते योगिनः सर्वयोनिषु। प्रत्यक्षितात्मनाथानां नैषां चिन्त्यं कुलादिकम्॥४४॥

टीका इस संसार में योगीजन अनेक निकृष्ट तथा उत्तम योनि तथा जातियों में जन्म ले लेते हैं अतः जिसने अपनी साधनाओं के कारण भगवत्-तत्त्व का साक्षात्कार प्राप्त कर लिया हो ऐसे योगीजन के लिये कुलादि का विचार नहीं माना जाता है। अत ऐसे किसी भी योगी से मन्त्रदीक्षा लेना निषिद्ध नहीं है | |४४ ||
मूलम्

किमप्यत्राभिजायन्ते योगिनः सर्वयोनिषु। प्रत्यक्षितात्मनाथानां नैषां चिन्त्यं कुलादिकम्॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वात्मन्यात्मनो न्यासं धिया वृत्तिं च शाश्वतीम्। मन्त्रेणोच्चारयेद्यस्तु स आचार्यः परो मतः॥४५॥

टीका जो विहित आचार दृष्टि तथा भक्ति के तात्विक भावों से युक्त मन्त्र का उच्चारण कर उपकारातिशय के भाव के कारण सभी के अन्तर्यामी भगवान् में अपने शिष्यको प्रपत्ति के रूप में न्यास-योग का सम्पादन करवाता हो तथा अपने ज्ञान से जो शाश्वती - वृत्ति को मन्त्रों के द्वारा कहलवाता हो तो उसे परम या उत्तम आचार्य माना जाता है॥४५ ॥
मूलम्

विश्वात्मन्यात्मनो न्यासं धिया वृत्तिं च शाश्वतीम्। मन्त्रेणोच्चारयेद्यस्तु स आचार्यः परो मतः॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्तोऽनसूयुः श्रद्धावान्गुर्वर्थार्थात्मवृत्तिकः। शुचिः प्रियहितो दान्तः शिष्यश्चोक्तो मनीषिभिः॥४६॥

टीका विद्वान् ऐसे गुणवाले को जो कि शान्त प्रकृतिवाला, किसी से भी असूया न रखनेवाला, अर्थराशि तथा अपने कार्यों को जो आपने गुरुजन के लिये करने में उद्यत हो ( अपनी वृत्ति भी गुरू के हित में चलाने वाला हो) शुद्ध वृत्ति तथा आचरणशील, अपने आचार्य के प्रिय तथा हित में तल्लीन रहनेवाला तथा अपनी इन्द्रियों को वश में रखनेवाला, अतिशय आसंग से हीन जो रहता हो उसे 'शिष्य' समझना चाहिए तथा जो उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण करने में समर्थ बुद्धिवाला या दक्ष हो ||४६ ॥
मूलम्

शान्तोऽनसूयुः श्रद्धावान्गुर्वर्थार्थात्मवृत्तिकः। शुचिः प्रियहितो दान्तः शिष्यश्चोक्तो मनीषिभिः॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मत्तोन्मत्तपतिताभिशस्तक्रूरनास्तिकाः। नानर्थिनो न चाज्ञाताः कर्तव्या मन्त्रगामिनः॥४७॥

टीका अतएव जो मत्त या उन्मत्त प्रकृति के हो, जो पतित हों, जो अभिशस्त क्रूर तथा नास्तिक हो, जो अर्थ के बोध में असमर्थ हों तथा जिनका कुलादि परिचय न हो तो ऐसे शिष्यों को न्यास का मन्त्रोपदेश नहीं दिया जावे ||४७ ||
मूलम्

न मत्तोन्मत्तपतिताभिशस्तक्रूरनास्तिकाः। नानर्थिनो न चाज्ञाताः कर्तव्या मन्त्रगामिनः॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीणां च पतिमित्रादीननतिक्रम्य सत्तमान्। अनुज्ञया वाप्यन्येभ्यः स्मृतो मन्त्रपरिग्रहः॥४८॥

टीका स्त्रियों के पति, मित्र, पिता तथा श्वसुर जैसे सम्बन्धियों तथा श्रेष्ठ विद्याओं से युक्त जन को न छोड़कर अथवा अन्यों से भी अपने पूज्यजन से अनुमति लेकर मन्त्रग्रहण किया जा सकता है (पति, पिता तथा अन्य सम्मान्य पुरुष हों तो उनसे भी अनुज्ञा लेकर मन्त्र ग्रहण किया जा सकता है ) ॥ ४८ ॥
मूलम्

स्त्रीणां च पतिमित्रादीननतिक्रम्य सत्तमान्। अनुज्ञया वाप्यन्येभ्यः स्मृतो मन्त्रपरिग्रहः॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैदिकांस्तान्त्रिकश्चैव यथार्था लौकिकास्तथा। प्रपत्तौ विहिता मन्त्रास्तत्र तत्र व्यवस्थया॥४९॥

टीका इस न्यास विधि में प्रपत्ति के लिये वैदिक, तान्त्रिक, उन मन्त्रों के अर्थवाले लौकिक भाषा वाले मन्त्रों को भी विहित माना गया है। ये मन्त्र यथेष्ट दिये जा सकते हैं तथा ये आचार्य के अधिकारी भेद की व्यवस्था के अनुगत होते हैं ॥ ४९ ॥
मूलम्

वैदिकांस्तान्त्रिकश्चैव यथार्था लौकिकास्तथा। प्रपत्तौ विहिता मन्त्रास्तत्र तत्र व्यवस्थया॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यासिनो न्यास एव स्यान्निष्ठा तत्पूर्विकाः क्रियाः। व्यापकैर्नैष्टिकैर्वान्यैः कुर्यात्तेऽप्यर्पणे मताः॥५०॥

टीका जिसे आचार्य न्यास विधि में प्रपत्ति प्रतिपादक मन्त्र देवें उसे उसमें निष्ठा रखन चाहिए तथा वह उसी का नित्य जपादि करे। अर्चनादि किया भी उसी मन्त्र के ध्यान में रखते हुए रखे। अथवा यह कार्य व्यापकों अर्थात् आनात मन्त्रों के तथा नैष्ठिक मन्त्रों के जो दीक्षा प्राप्त मन्त्र रत्न से भिन्न हो तो उनसे भी किया जा सकता है। ये मन्त्र भी न्यास या प्रपत्ति में मान्य होते हैं। क्योंकि ऐसे मन्त्र भी 'नमः आदिशब्दों से युक्त रहने से इनसे भी प्रपत्ति की स्थिति या प्रतिपादकता बनती ही है॥५०॥
मूलम्

न्यासिनो न्यास एव स्यान्निष्ठा तत्पूर्विकाः क्रियाः। व्यापकैर्नैष्टिकैर्वान्यैः कुर्यात्तेऽप्यर्पणे मताः॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करेण स्पर्शयन्गात्रं मन्त्रविद्भावयेदृशा। एषा वा सर्ववर्णानां दीक्षेत्याह मुनिः स्वयम्॥५१॥

टीका मन्त्र-विधाता आचार्य अपने हाथ से शिष्य के शरीर का स्पर्श करते हुए तथा उसे (अपनी दृष्टि से ) देखते हुए दीक्षा मन्त्र प्रदान करें। सभी वर्गों को दी जाने वाली दीक्षा का यही मान्य सिद्धान्त है। जो भारद्वाज मुनि ने स्वयं कहा है ॥ ५१ ॥
मूलम्

करेण स्पर्शयन्गात्रं मन्त्रविद्भावयेदृशा। एषा वा सर्ववर्णानां दीक्षेत्याह मुनिः स्वयम्॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यां सिद्धिं वैष्णवैर्मन्त्रैराधत्ते वैष्णवो गुरुः। सर्ववेदधरोऽप्यन्यो नान्यैः कुर्वीत तादृशीम्॥५२॥

टीका मन्त्रदीक्षा-प्रदाता आचार्य जिन वैष्णव मन्त्रों से जितनी सिद्धि प्राप्त किये रहता है वह सभी वेदों के ज्ञाता भी अन्य गुरू दूसरे अवैष्णव मन्त्रों से वैसी सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता है ॥५२॥
मूलम्

यां सिद्धिं वैष्णवैर्मन्त्रैराधत्ते वैष्णवो गुरुः। सर्ववेदधरोऽप्यन्यो नान्यैः कुर्वीत तादृशीम्॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैदिकास्तान्त्रिकाश्चैव द्वये मुख्या द्विजन्मनाम्। शूद्रानुलोमजातीनां मन्त्राः स्युस्तान्त्रिकाः परम्॥५३॥

भाषाख्या लौकिका मन्त्राः प्रपत्त्यर्थविभावनाः। सर्वेभ्यः प्रतिलोमेभ्यो देयाः कामं द्विजातिभिः॥५४॥

टीका द्विजों में दो प्रकार के साधक मुख्य होते हैं-जिनमें एक वैदिक तथा दूसरे तान्त्रिक (आगमिक) हैं। इनमें जो शूद्र वर्ण तथा अनुलोम-जातियों में उत्पन्न जन हैं उनके हितकर ( तथा उनसे साध्य) तान्त्रिक - मन्त्र (होते ) हैं। ये लौकिक-भाषाओं में ( भाषाओं में ) भी प्राप्त होते हैं जो लौकिक मन्त्र के रूप में प्रपत्ति के भावों क दिखलाने वाले होते हैं । ऐसे उपयोगी मन्त्रों को भी ब्राह्मण आचार्यों तथ दीक्षा गुरुओं के द्वारा ही सभी शूद्र तथा प्रतिलोम जाति के भक्त शिष्यों के दीक्षापूर्वक यथेष्ट रूप में ग्रहण करना चाहिए ॥ ५३-५४ ॥
मूलम्

वैदिकास्तान्त्रिकाश्चैव द्वये मुख्या द्विजन्मनाम्। शूद्रानुलोमजातीनां मन्त्राः स्युस्तान्त्रिकाः परम्॥५३॥

भाषाख्या लौकिका मन्त्राः प्रपत्त्यर्थविभावनाः। सर्वेभ्यः प्रतिलोमेभ्यो देयाः कामं द्विजातिभिः॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्रं नियतमग्र्याणां यो हीनाय प्रयच्छति। स वै हीनगुरुर्निन्द्यस्तेन सार्द्धं पतत्यधः॥५५॥

टीका अग्रजात त्रैवर्णिक द्विजों के लिये शास्त्रों में मान्य तथा नियत वैदिक मन्त्रों को जो हीन या शूद्रादिवर्णों को दीक्षा प्रदान करते हुए देते हैं वे हीन गुरु होकर निन्दनीय स्थिति को प्राप्त कर साधक शिष्य के साथ ही नरक में जाते हैं। ( अतः शूद्रादि जातियों को तान्त्रिक मन्त्र ही साधना के लिये उपयुक्त हैं। ) ॥ ५५॥
मूलम्

मन्त्रं नियतमग्र्याणां यो हीनाय प्रयच्छति। स वै हीनगुरुर्निन्द्यस्तेन सार्द्धं पतत्यधः॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेवं स्वोचितैरेव मन्त्रैर्मन्त्रविदाश्रयाः। श्रयेयुः शरणं सर्वे सर्वभूतेश्वरं हरिम्॥५६॥

टीका अतएव मन्त्रवेत्ता गुरु का आश्रय लेकर अपने लिये नियत मन्त्रों को ग्रहण करते हुए सभी प्राणियों के अधिपति श्री विष्णु की प्रपत्ति के द्वारा उनकी धारणा प्राप्त करना चाहिए ॥ ५६ ॥
मूलम्

तदेवं स्वोचितैरेव मन्त्रैर्मन्त्रविदाश्रयाः। श्रयेयुः शरणं सर्वे सर्वभूतेश्वरं हरिम्॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्येऽनुकूले समये देशे भागवते शुभे। निमज्ज्य नियतस्तीर्थे प्रणिपत्याश्रयेद्गुरुम्॥५७॥

टीका इसकी दीक्षा लेने वाला साधक भक्त किसी उत्तम अनुकूल तथा पुण्यशाली दिवस या तिथि को तथा शुभदाता भागवत तीर्थ या प्रदेश में संयमित मन के साथ सर्वप्रथम पवित्र भाव से नियत तीर्थ में स्नान करें तथा फिर गुरु का सान्निध्य प्राप्त कर उन्हें आचारानुरूप प्रणाम करें ॥ ५७ ॥
मूलम्

पुण्येऽनुकूले समये देशे भागवते शुभे। निमज्ज्य नियतस्तीर्थे प्रणिपत्याश्रयेद्गुरुम्॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्यश्चोपसन्नाय भक्त्याभ्यर्च्य जनार्दनम्। गुरून्प्रणम्य मन्त्रेण प्रपत्ति प्रतिपादयेत्॥५८॥

टीका तब दीक्षा प्रदान करने के पूर्व मन्त्रदाता आचार्य उस शिष्य के शरण आने पर अपने इष्टदेव श्रीमहाविष्णु का सर्वप्रथम पूजन करें तथा बाद में अपने पूज्य गुरु को प्रणाम कर गुरुपरम्परा पूर्वक मन्त्र को उस समीपवर्ती शिष्य को मन्त्र दीक्षा देकर 'प्रपत्ति' या न्यास योग को सम्पादित करें ॥ ५८ ॥
मूलम्

आचार्यश्चोपसन्नाय भक्त्याभ्यर्च्य जनार्दनम्। गुरून्प्रणम्य मन्त्रेण प्रपत्ति प्रतिपादयेत्॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ स्त्रीशूद्रसङ्कीर्णानिर्मलापतितादिषु। अनन्येनान्यदृष्टौ च कृतापि न कृता भवेत्॥५९॥

टीका और जो स्त्री, शूद्र तथा अनुलोम प्रतिलोम जातियां (संकीर्ण) हैं, जो आचार्य के आश्रय-ग्रहण से हीन है तथा जो महापातकादि से युक्त हैं वे यदि केवल शास्त्रमात्र से सम्पादित ज्ञानवाले किसी भी आचार्य को गुरु के रूप में प्राप्त कर उनसे न्यास या प्रपत्तिकी दीक्षा लेते हैं तो उनकी यह प्रपत्ति इस प्रकार होने पर भी न किये के समान निष्फ है (अतः किसी [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम के वेत्ता तथा पारम्परिक विद्वान् को ही आचार मानकर उनके द्वारा ही मन्त्र से दीक्षित होना उत्तम है ) ॥ ५९ ।
मूलम्

अथ स्त्रीशूद्रसङ्कीर्णानिर्मलापतितादिषु। अनन्येनान्यदृष्टौ च कृतापि न कृता भवेत्॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽन्यत्राशु विधिवत्कर्त्तव्या शरणागतिः। उपदेश तु मन्त्रस्य मूढः प्रच्यवते ह्यधः॥६०॥

टीका अतएव स्त्री, शूद्रादि से भिन्न आचार्य के प्राप्त होने पर ही उनके द्वारा ही विधिवत् श्री हरि की शरणागति की दीक्षारूप प्रपत्ति से न्यासयोग को मन्त्रउपदेशपूर्वक ग्रहण करना चाहिए। मन्त्रों के स्त्रीशूद्रादि को उपदेश करते रहने पर आचार्य भी मूढ होकर पतन को प्राप्त करते हैं ॥ ६० ॥
मूलम्

अतोऽन्यत्राशु विधिवत्कर्त्तव्या शरणागतिः। उपदेश तु मन्त्रस्य मूढः प्रच्यवते ह्यधः॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनादेर्वासनायोगाद्विपरीतादिहात्मनः। स्मृतिर्न जायते विष्णौ कुत एवार्पणे मतिः॥६१॥

टीका और जो अनादिदुर्वासनाओं से कलुषित अन्तरात्मावाले हैं उनमें स्थित अनादि वासनाओं के कारण आत्मस्थभाव से विपरीतस्थिति बन जाने से उनमें स्वयं में श्रीविष्णु को समर्पित करने की शरणागति भाव की स्मृति तक नहीं आती हो त फिर उनको 'न्यास' की भावना कहाँ से आ सकती है ॥ ६१ ॥
मूलम्

अनादेर्वासनायोगाद्विपरीतादिहात्मनः। स्मृतिर्न जायते विष्णौ कुत एवार्पणे मतिः॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वपापसंभवादेव कुलात्संसर्गतोऽन्यतः। देशात्कालात्स्वभावाच्च प्रपद्यन्ते न केशवम्॥६२॥

टीका वे अपने पापों के उदय के बने रहने के कारण तथा कुल तथा अन्य निषिद्ध कर्मों तथ उनके कर्ताजन के संसर्ग में रहने के कारण, दूसरे भगवद्विमुख जन से युक्त रहने के कारण, देश, काल तथा स्वभाव के वातावरण में स्थित होकर श्रीमद्विष्णु की शरण प्राप्त करने के अवसरों से स्वतः ही ववित रहते हैं ॥ ६२ ॥
मूलम्

स्वपापसंभवादेव कुलात्संसर्गतोऽन्यतः। देशात्कालात्स्वभावाच्च प्रपद्यन्ते न केशवम्॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविज्ञाय सदा शुद्धं नरा नारायणं प्रभुम्। अशुद्धानामहोऽन्येषां दास्यभिच्छन्त्यबुद्धयः॥६३॥

टीका ऐसे नर स्वतः की पापमूलक दुर्बुद्धि के कारण शुद्ध-स्वरूप वाले श्रीनारायण को ठीक से न जानकर अन्य इष्ट देवता की शरण ग्रहण करने लगते है और वे अपनी अल्पबुद्धि के कारण कार्यवश राजस तथा तामस गुणों के अधिपति ब्रह्मादि अन्य देवगणो की शरण या उपासना की दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं ॥ ६३ ॥
मूलम्

अविज्ञाय सदा शुद्धं नरा नारायणं प्रभुम्। अशुद्धानामहोऽन्येषां दास्यभिच्छन्त्यबुद्धयः॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचित्सर्वेश्वरं विष्णुमशेषदुरितापहम्। कामकामाः प्रपद्यन्ते न ते दास्यं परं विदुः॥६४॥

टीका इनमें से कुछ तो समस्त दुरित के अपहर्त्ता, सभी के प्रभु श्री विष्णु की शरण में किसी कामनाके अभिभूत होकर जाते हैं। ऐसे जन भी श्री विष्णु का दास्यभाव या भक्त की स्थिति प्राप्त नहीं करते हैं ॥ ६४ ॥
मूलम्

केचित्सर्वेश्वरं विष्णुमशेषदुरितापहम्। कामकामाः प्रपद्यन्ते न ते दास्यं परं विदुः॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुजन्मकृतैः पुण्यैरात्मनः क्षीणकल्मषाः। हरिं सन्तः प्रपद्यन्ते तद्दास्यैकफलार्थिनः॥६५॥

टीका किन्तु अनेक जन्मों में पुण्य का आचरण करने के कारण उनसे अपने कल्मष या पापों को दूर कर लेने वाले सन्तजन ही उन श्रीविष्णुरूप के दास्यभाव की फलरूप में इच्छा रखने पर उन्हें प्राप्त करते हैं, क्योंकि वे उनके परब्रह्मरूप से अभिज्ञ हो जाते हैं॥६५॥
मूलम्

बहुजन्मकृतैः पुण्यैरात्मनः क्षीणकल्मषाः। हरिं सन्तः प्रपद्यन्ते तद्दास्यैकफलार्थिनः॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतिनां वीतमोहानां केशवे निहितात्मनाम्। स्वदते केवलं दास्यं स्वधर्मकरणादिकम्॥६६॥

टीका परन्तु श्री विष्णु में अपनी आत्मा को निहित या समर्पित करने वाले तथा विगत-मोहादि-भाव वाले ( अर्थपञ्चक विषयक अज्ञान से रहित ) तथा अपने नियत धर्मों का आचरण करनेपर पवित्रभाव के कारण वे श्रीविष्णु के दास्यभाव का फलास्वादन करने में समर्थ होते हैं ॥ ६६॥
मूलम्

कृतिनां वीतमोहानां केशवे निहितात्मनाम्। स्वदते केवलं दास्यं स्वधर्मकरणादिकम्॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवं प्रपन्नानां तद्दास्यैकरसात्मनाम्। भेदो वीतभयानां हि नात्र कश्चित्परत्र वा॥६७॥

टीका अतएव जब अपने नियत धर्मों में स्थित रहने वाले होकर जो श्री वासुदेव की प्रपन्नता या शरणरूप समर्पण भाव को रखते हैं, जिसमें उनकी दास्यभावना की प्राप्ति के कारण आत्मानन्द का अनुभव हो जाता है तो ऐसे वीतभय या कहीं से प्राप्त किसी भी भय से मुक्त होकर इस लोक तथा परलोक में भेद भावना से रहित हो जाते हैं तथा प्रायः मुक्तिभाव की प्राप्ति करने वाले होते हैं ॥ ६७॥
मूलम्

वासुदेवं प्रपन्नानां तद्दास्यैकरसात्मनाम्। भेदो वीतभयानां हि नात्र कश्चित्परत्र वा॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह श्रुत्यादिनियता वृत्तिरेव स्वयं फलम्। परत्र च परेशस्य कामात्कामप्रवृत्तयः॥६८॥

टीका ऐसे धर्मनिष्ठजन को इस लोक में श्रुति आदि से विहित वृत्ति वाली जीविका ( उन्हें ) मिल जाना ही पूर्वपुण्यों का फल होता है तथा उस लोक में भी परेश श्रीविष्णु की कामना के संकल्प रहने से स्वच्छन्दरूप में उन्हें श्रीभगवद्विष्णु के प्रसाद से स्वाभिमत मोक्ष की (उनके किंकर भाव से युक्त ) प्राप्ति भी हो जाती है॥६८॥
मूलम्

इह श्रुत्यादिनियता वृत्तिरेव स्वयं फलम्। परत्र च परेशस्य कामात्कामप्रवृत्तयः॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निक्षिप्यात्मानमात्मीयमशेषमखिलात्मनि। क्रियाश्च सकलास्तत्र वर्त्तन्ते वीतकल्मषाः॥६९॥

टीका जो अखिलभुवनों के अधिपति श्रीभगवान् विष्णु में स्वय की आत्मा को अर्पित या स्थापित कर भगवदनुसन्धान में अपना समय बिताते हैं तथा सभी क्रियाएं भी भगवदर्पित कर देते हैं वे निष्पाप होकर ऐसे किसी भी वस्तु पर अपना अधिपत्य नहीं मानते तथा अपनी प्रीति के लिये किसी अन्य देव को अपने अर्चन के योग्य नहीं मानते हैं किन्तु ईश सेवा के आचरण में लगी हुई वृत्ति या जीविका को भी परमेश्वर के द्वारा करवाने वाली क्रिया के रूप में जो मानता है वह प्रपन्न या शरणागत भक्त "व्यासयोग" वाला है तथा उसे ही श्रीविष्णु का दास्यभाव प्राप्त रहता है॥६९-७०॥
मूलम्

निक्षिप्यात्मानमात्मीयमशेषमखिलात्मनि। क्रियाश्च सकलास्तत्र वर्त्तन्ते वीतकल्मषाः॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्यन्ते च स्वकीयान्नः स्वप्रीत्यै स्वोचितां स्वयम्। नाथः स्वकीयसेवां तां वृत्तिं कारयतीति वै॥७०॥

टीका जो अखिलभुवनों के अधिपति श्रीभगवान् विष्णु में स्वय की आत्मा को अर्पित या स्थापित कर भगवदनुसन्धान में अपना समय बिताते हैं तथा सभी क्रियाएं भी भगवदर्पित कर देते हैं वे निष्पाप होकर ऐसे किसी भी वस्तु पर अपना अधिपत्य नहीं मानते तथा अपनी प्रीति के लिये किसी अन्य देव को अपने अर्चन के योग्य नहीं मानते हैं किन्तु ईश सेवा के आचरण में लगी हुई वृत्ति या जीविका को भी परमेश्वर के द्वारा करवाने वाली क्रिया के रूप में जो मानता है वह प्रपन्न या शरणागत भक्त "व्यासयोग" वाला है तथा उसे ही श्रीविष्णु का दास्यभाव प्राप्त रहता है॥६९-७०॥
मूलम्

मन्यन्ते च स्वकीयान्नः स्वप्रीत्यै स्वोचितां स्वयम्। नाथः स्वकीयसेवां तां वृत्तिं कारयतीति वै॥७०॥

इति प्रपत्त्यधिकारः॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा प्रपत्तिर्विहिता भगवच्चरणाब्जयोः। तथैव तत्र वृत्तिश्च कार्या गुरुनिदेशतः॥७१॥

टीका उपासक या भक्त की वृत्ति की आगे व्याख्या करते हैं, जब उसने अपने मन तथा बुद्धि के द्वारा जिस शाश्वत वर्णानुक्रमागत वृत्ति को प्राप्त किया तथा भगवान् श्री विष्णु के चरणों में प्रपत्ति या न्यासदीक्षा प्राप्त कर ली हो तो उसे गुरु के निर्देश से उसी 'वृत्ति' का आचरण तथा तदनुरूप अर्चनादि अनुष्ठान करना चाहिये ॥ ७१ ॥
मूलम्

यथा प्रपत्तिर्विहिता भगवच्चरणाब्जयोः। तथैव तत्र वृत्तिश्च कार्या गुरुनिदेशतः॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्तिश्व विहिताचारः प्रतिषिद्धविवर्जनम्। दृष्टिर्भक्तिस्तथा लक्ष्म सतां सेवेति षड्विधा॥७२॥

टीका यह वृत्ति छः प्रकार की है यथा - १ विहित कर्मों का आचरण करना, २- प्रतिषिद्ध कर्म हिंसादि का निषेध या आचरण न करना, ३-अपने इष्ट की ओर दृष्टि या उसका ज्ञान तथा ४- उसी की भक्ति ५ - उसी इष्टदेव भगवान् श्री विष्णु के शंखादि चिन्ह ( लाञ्छनादि ) का धारण करना तथा ६-सन्तों की या पूज्य आचार्यों की सेवा करना ॥ ७२ ।
मूलम्

वृत्तिश्व विहिताचारः प्रतिषिद्धविवर्जनम्। दृष्टिर्भक्तिस्तथा लक्ष्म सतां सेवेति षड्विधा॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्यरतिरत्यन्तं विहितानि समाचरन्। वर्जयन् प्रतिषिद्धानि वेदवेदांततत्त्ववित्॥७३॥

टीका अपने इष्ट के प्रति अनन्य या अत्यन्त निष्ठा या भक्ति रखना तथा इष्ट देव के अतिरिक्त अन्यों के प्रति निवर्तन का भाव रखना ही दृष्टि या 'ज्ञान' है। यही उस वेद और वेदान्त के तत्ववेत्ता के द्वारा किया जाए और इसी प्रकार की वृत्ति वह रखे॥७३॥
मूलम्

अनन्यरतिरत्यन्तं विहितानि समाचरन्। वर्जयन् प्रतिषिद्धानि वेदवेदांततत्त्ववित्॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चादिष्वर्चयन्विष्णुमङ्कितो हरिलाञ्छनैः॥ सेवते यद्गुरून्भक्त्या सेयं वृत्तिः परा मता॥७४॥

टीका इस वृत्ति में स्थित रहते हुए इष्टदेव श्रीविष्णु की अर्चनादि के द्वारा पूजन करते हुए तथा अपने शरीर को श्रीहरि के लांछनों से अंकित रखकर वह जब पूज्य गुरुजन की भक्तिपूर्वक सेवा करता है तो यह श्रेष्ठ वृत्ति मानी गयी है ॥ ७४। है॥७४॥
मूलम्

अर्चादिष्वर्चयन्विष्णुमङ्कितो हरिलाञ्छनैः॥ सेवते यद्गुरून्भक्त्या सेयं वृत्तिः परा मता॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाभाविकोऽस्य सम्बन्धः पुंसो यः परमात्मना। तस्यैव बोधो न्यासाख्यः प्रथमं यात्युपायताम्॥७५॥

टीका इस प्रकार इस उपासक या भक्त (जीव ) का परमेश्वर श्रीविष्णु के साथ जो स्वाभाविक भाव से स्वामी तथा सेवकरूप में जो सम्बन्ध हो जाता है इसका बोध रहना ही 'न्यास' ( नामक रूप ) होकर प्राथमिकरूप से श्रीभगवान् की अनुग्रह प्राप्ति में साधनभूत उपाय बनता है ॥ ७५ ॥
मूलम्

स्वाभाविकोऽस्य सम्बन्धः पुंसो यः परमात्मना। तस्यैव बोधो न्यासाख्यः प्रथमं यात्युपायताम्॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवोपर्युपर्यस्य परां प्रीतिमुपावहन्। वृत्त्याख्यां फलतां याति तदेवामृतमुच्यते॥७६॥

टीका यही सम्बन्ध धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए श्री भगवान् की परम प्रीति को उत्पन्न करते हुए वृत्तिरूप फल का आकार धारणकर लेता है जो 'अमृत रूप' कहा जाता है ( अर्थात् इस वृत्ति का फल ही 'अमृतत्व' है ) ॥ ७६ ॥
मूलम्

स एवोपर्युपर्यस्य परां प्रीतिमुपावहन्। वृत्त्याख्यां फलतां याति तदेवामृतमुच्यते॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या स्वधर्मेष्वभिरतिः सा भवत्यनुकूलता। वर्जनं प्रतिषिद्धानां तथैषा प्रतिकूलता॥७७॥

वेदवेदान्तविज्ञानं विश्वासो गोप्तरि स्वयम्। गोप्तृत्ववरणादन्यन्न विष्णोरर्चनादिकम्॥७८॥

प्रपत्तेर्ह्यात्त्मनि क्षेपो दास्यचिह्नैकलक्षणः। सतां देशिकमुख्यानां सेवा कार्पण्यमुच्यते॥७९॥

टीका अपने धर्म में जो विहित आचरण के कारण अभिरति का हो जाना है वही प्रपत्ति में अनुकूलता की प्राप्त करता है और यही प्रतिषिद्ध कर्मों के प्रति वर्जन या निषेधभाव को प्राप्त कर ऐसे कर्मों से प्रतिकूलता भी प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार आगे इसी वृत्ति से वेद तथा वेदान्त के विशेष ज्ञान में यह वृत्ति प्रविष्ट होकर ज्ञान प्राप्त कर लेती है जो स्वयं अपने संरक्षक इष्टदेव के द्वारा रक्षा की भावना को उत्पन्न कर विश्वास को उत्पन्न कर देती है तथा इस प्रकार अपने इष्टदेव श्रीभगवद्विष्णु को संरक्षण के रूप में वरण से अन्य कार्य बन जाता है ( क्योंकि यही 'भक्ति' बन जाती है ) तब इस कार्य के द्वारा अपने आत्मा को प्रपन्नभाव से इष्ट के प्रति अर्पण करने पर ‘न्यासयोग' सम्पन्न हो जाता है। जिसमें इष्ट की दास्यता के चिह्नों का धारण करना एक लक्षण होकर यही वृत्ति आगे अपने उपदेश या मन्त्र - प्रदाता मुख्य गुरु (देशिक मुख्य आचार्य) की सेवा वृत्ति के भाव से प्रपत्ति की करुणामयी स्थिति में जाकर अवस्थित हो जाती है ॥७७-७९॥
मूलम्

या स्वधर्मेष्वभिरतिः सा भवत्यनुकूलता। वर्जनं प्रतिषिद्धानां तथैषा प्रतिकूलता॥७७॥

वेदवेदान्तविज्ञानं विश्वासो गोप्तरि स्वयम्। गोप्तृत्ववरणादन्यन्न विष्णोरर्चनादिकम्॥७८॥

प्रपत्तेर्ह्यात्त्मनि क्षेपो दास्यचिह्नैकलक्षणः। सतां देशिकमुख्यानां सेवा कार्पण्यमुच्यते॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः प्रपत्तिरेवेह वृत्तिर्भवति शाश्वती। तस्यैवास्मीति बोधात्मा प्रवृत्ति र्वृत्तिरेव च॥८०॥

टीका अतएव प्रपत्तिभाव को ही शाश्वत स्थितिवाली 'वृत्ति' समझना चाहिए (या यही शाश्वत 'वृत्ति' कहलाती है) इसी का 'अस्मीति' भाव में होने वाला विबोध होता है। अतः प्रपत्ति ही शाश्वत वृत्ति है ॥ ८० ॥
मूलम्

अतः प्रपत्तिरेवेह वृत्तिर्भवति शाश्वती। तस्यैवास्मीति बोधात्मा प्रवृत्ति र्वृत्तिरेव च॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेवं भगवान्प्रीतः प्रपत्त्या साधनं परम्। तयैव वृत्तिवपुषा प्रीतः फलमपि स्वयम्॥८१॥

टीका इस प्रकार इस प्रपत्ति के द्वारा प्रीत श्रीमद्भगवान् ही फलरूप या प्राप्तव्य होकर फल भी हो जाते हैं। जिसमें पर-साधन है प्रपत्ति तथा इसी प्रपत्तिवृत्ति से प्रसन्न हो जाने वाले श्रीविष्णु ही तब स्वयं फलरूप हो जाते हैं || ८१ ॥
मूलम्

तदेवं भगवान्प्रीतः प्रपत्त्या साधनं परम्। तयैव वृत्तिवपुषा प्रीतः फलमपि स्वयम्॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहितांतर्गतान्येव दृष्ट्यादीनि तथापि तु। तेषां विशेषमान्यत्वात्पृथक् चांगतया विधिः॥८२॥

टीका वृत्ति आदि से होने वाले ज्ञान या 'दृष्टि' आदि यद्यपि विहितकर्मों के अन्तर्गत ही है फिर भी इनकी विशेषरूप में मान्यता रहने के कारण इनकी अंगरूप विधि पार्थक्य रूप में स्थित मानी गई है || ८२ ॥ |
मूलम्

विहितांतर्गतान्येव दृष्ट्यादीनि तथापि तु। तेषां विशेषमान्यत्वात्पृथक् चांगतया विधिः॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निषिद्धांतर्गतान्येव विरुद्धान्यखिलान्यपि। हानं सर्वस्य चैकांगं पृथग्व्याचक्षते परे॥८३॥

टीका इस प्रकार दृष्टि, लक्ष्म या चिह्नधारणादि तथा सत्सेवा जैसे कर्मों के आचरण के विपरीत रहनेवाले सभी कार्य विरुद्ध होने के कारण निषिद्ध कर्मों के अन्तर्गत आ जाते हैं। अतः ये सभी वर्ज्य है तथा इनकी प्रत्येक अंग के रूप में पृथक् से आगे व्याख्या की गयी है||८३ ||
मूलम्

निषिद्धांतर्गतान्येव विरुद्धान्यखिलान्यपि। हानं सर्वस्य चैकांगं पृथग्व्याचक्षते परे॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनुकूल्यस्य संकल्पात्प्रातिकूल्यस्य वर्जनात्॥ प्राप्ते समस्तेऽपि तथा विश्वासादेः पृथग्विधिः॥८४॥

टीका इस प्रकार अनुकूल संकल्प को लेने के तथा प्रतिकूल आचारादि के निषेध के कारण समस्त विश्वासादि के सिद्ध हो जाने पर भी जैसे इन विश्वासादि की पृथक्रूप में विधि होती है, इसी प्रकार यहां समझना चाहिए ॥ ॥ ८४ ॥
मूलम्

आनुकूल्यस्य संकल्पात्प्रातिकूल्यस्य वर्जनात्॥ प्राप्ते समस्तेऽपि तथा विश्वासादेः पृथग्विधिः॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कर्म हीनं ज्ञानेन न तत्तेन न ते अपि॥ भक्त्या ताभ्यां न सा तानि न वैराग्येण तन्न तैः॥८५॥

टीका क्योंकि ज्ञान की दृष्टि से रहित कर्म विहित नहीं होता है तथा यह ज्ञान भी कर्म से हीन या उसके बिना नहीं रहता और ये कर्म तथा ज्ञान दोनों ही भक्ति के बिना श्रीभगवान् की प्राप्ति में हेतु नहीं हो सकते हैं। ये कर्मादि भी वैराग्य के बिना नहीं और इन भक्त्यादि से रहित या प्रतिकूल निषेधादि भी भगवन् की प्रीति में हेतु नहीं बन सकते हैं॥ ८५ ॥
मूलम्

न कर्म हीनं ज्ञानेन न तत्तेन न ते अपि॥ भक्त्या ताभ्यां न सा तानि न वैराग्येण तन्न तैः॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहिताचरणं कर्म वैराग्यं निंद्यवर्जनम्॥ ज्ञानं सुदृष्टिर्भक्तिस्तु हरिचिह्नसमाश्रया॥८६॥

टीका विहित आचार में स्थित रहना 'कर्म' है तथा निन्द्य या निषिद्ध कर्मों का परिवर्जन ही 'वैराग्य' कहलाता है। सम्यक् 'दृष्टि' है इष्ट का ध्रुव ज्ञान तथा यही हरि के चिन्हों का आश्रय लेकर रहने वाली 'भक्ति' कहलाती हैं ||८६ ॥
मूलम्

विहिताचरणं कर्म वैराग्यं निंद्यवर्जनम्॥ ज्ञानं सुदृष्टिर्भक्तिस्तु हरिचिह्नसमाश्रया॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं चतुर्विधामेनां प्रीतिरूपां हरेः स्वयम्। यो वृत्तिमवमन्येत न हि तस्यास्ति निष्कृतिः॥८७॥

टीका इस प्रकार इस चार प्रभेदों वाली तथा श्रीहरि के प्रीतिभाव रखने वाले साधकभक्त की इन चारों वृत्तियों यथा-१ विहिताचार, २ दृष्टि, ३ भक्ति तथा ४ विरुद्धाचाररूप वर्जनात्मक वैराग्यरूप की जो अवमानना करता हैं उसका कोई भी प्रायश्चित नहीं हैं ( अर्थात् वह महापातकी हैं ) ॥८७॥
मूलम्

एवं चतुर्विधामेनां प्रीतिरूपां हरेः स्वयम्। यो वृत्तिमवमन्येत न हि तस्यास्ति निष्कृतिः॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न देवतान्तरपरा न च कस्यापि साधनम्। परं प्रसाद एवैषा वृत्तिर्विश्वात्मनो हरेः॥८८॥

टीका विश्वात्मा श्रीहरि की यह 'वृत्ति' परमप्रसाद स्वरूप ही समझना चाहिए क्योंकि इसमें न तो किसी अन्य देवता से सम्बन्ध हैं और न ही ये किसी काम्यकर्म में साधनरूप हैं क्योंकि ये तो केवल भगवत् प्रसन्नता की कारणीभूत स्थितिवाली होती हैं ॥ ८८ ॥
मूलम्

न देवतान्तरपरा न च कस्यापि साधनम्। परं प्रसाद एवैषा वृत्तिर्विश्वात्मनो हरेः॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहस्यात्यन्तिकलये मोक्षाख्ये सति सा पुनः। निःश्रेयसं परं ब्रह्म निर्वाणमिति चोच्यते॥८९॥

टीका भौतिक शरीर की आत्यनिक लीनभाव की दशा वाली मोक्ष नामक स्थिति के प्राप्त हो जाने पर तब यही वृत्ति निरवधि श्रेयोरूप परब्रह्म विषयक बनकर 'निर्वाण' कहलाती हैं।८९॥
मूलम्

देहस्यात्यन्तिकलये मोक्षाख्ये सति सा पुनः। निःश्रेयसं परं ब्रह्म निर्वाणमिति चोच्यते॥८९॥

इतिवृत्त्यधिकारः

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपन्नस्यापि हि पुनर्देहे कर्मकृते स्थिते। दुरितानि परां वृत्तिं दूषयन्ति मुहुर्बलात्॥९०॥

टीका न्यासयोग में साधक के प्रपत्ति भाव में स्थित रहने पर तथा कर्मों के परिणामवश देह के विद्यमान रहने पर प्रपत्ति के सामर्थ्य से यह वृत्ति परम दूषणों का भी विनाश कर देती हैं (पातक इन परम वृत्तियों को दूषित कर देते हैं क्योंकि दूषणों का ऐसा सामर्थ्य होता है )। तब यही फिर से श्री विष्णु के प्रति प्रपत्तिपरक (भगवत्परक्) कर्मों के द्वारा उन सभी पातकों को ( वह वृत्ति) क्षीण या नष्ट कर देती है तथा पातकों को शान्त कर देती है ॥ ९०-९१॥
मूलम्

प्रपन्नस्यापि हि पुनर्देहे कर्मकृते स्थिते। दुरितानि परां वृत्तिं दूषयन्ति मुहुर्बलात्॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि सर्वाण्यशेषाणि पापानि प्रशमं नयेत्। पुनः प्रपदनेनाशु कर्मभिर्वापि तत्परैः॥९१॥

टीका न्यासयोग में साधक के प्रपत्ति भाव में स्थित रहने पर तथा कर्मों के परिणामवश देह के विद्यमान रहने पर प्रपत्ति के सामर्थ्य से यह वृत्ति परम दूषणों का भी विनाश कर देती हैं (पातक इन परम वृत्तियों को दूषित कर देते हैं क्योंकि दूषणों का ऐसा सामर्थ्य होता है )। तब यही फिर से श्री विष्णु के प्रति प्रपत्तिपरक (भगवत्परक्) कर्मों के द्वारा उन सभी पातकों को ( वह वृत्ति) क्षीण या नष्ट कर देती है तथा पातकों को शान्त कर देती है ॥ ९०-९१॥
मूलम्

तानि सर्वाण्यशेषाणि पापानि प्रशमं नयेत्। पुनः प्रपदनेनाशु कर्मभिर्वापि तत्परैः॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकांती शक्तितः कुर्वन् विहितानि समुत्सुकः॥ तथैव प्रतिषिद्धानि त्यक्त्वा याति परां गतिम्॥९२॥

टीका अतएव इष्ट के प्रति उत्सुकभाव रखते हुए साधक या मन्त्र एकांत की स्थिति ( वाला बनकर ) में विहित कर्मों का शक्ति भर आचरण करें तथा इसी प्रकार प्रतिषिद्ध कर्मों का परित्याग करते हुए जीवन यापन कर अन्त में परमगति (मोक्ष) को प्राप्त करे ॥ ९२ ॥
मूलम्

एकांती शक्तितः कुर्वन् विहितानि समुत्सुकः॥ तथैव प्रतिषिद्धानि त्यक्त्वा याति परां गतिम्॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाखण्डशैवशाक्तादितंत्रार्चालोकनादिकम्। स्वतो ब्रह्मशिवादीनां बद्धानामर्चनादिकम्॥९३॥

टीका दृष्टि विरुद्ध तत्वों में पाखण्डों (जैन तथा बौद्धागर्भो ), शैव, शाक्त आदि तन्त्रों के अनुसार देवतार्चन आदि का करना तथा स्वयं ही गुणों से बद्ध ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं का दृष्ट या इष्टभाव में अर्चनादि करना यह सभी 'भक्ति' के विरुद्ध कार्य माना जाता है। इसके अतिरिक्त अपने इष्ट की सामर्थ्य ( या स्वरूपादि) में न्यूनताबुद्धि रखना, उनके समान दूसरे इष्ट की समता की मन में आशंका रखना, इष्टदेव विष्णु को विस्मरण कर देना तथा उनके मन्त्रों, लक्षणों तथा अर्चादि आस्था में उपेक्षा भाव का रखना दृष्टि तथा भक्ति के विरुद्ध कर्म माना गया है। अथवा प्रपत्ति से किये गये आत्यन्तिक दास्यभाव से विरुद्ध बुद्धि की स्थिति रखने लगना, किसी काम्य या इष्टभाव की इच्छा करना, प्रपत्ति के विषय में दृढ़ विश्वास में शिथिलता लाना या विधानों के अतिरिक्त दूसरे साधनों को (आश्रय ) ग्रहण करना भी भक्ति के विरुद्ध माना जाता है। स्वयं के प्रपत्तिरूप धर्माचरण होने से अपने कु तथा वर्णाश्रम के उपयुक्त धर्मों से बाधा रहने के कारण प्रपत्ति का वर्जन करना त असच्छास्त्रों में रुचि ग्रहण करते हुए विष्णु देवता के अंकभूत शंखचक्रादि की उपे करना, भागवत-जन से संसर्ग न रखना, भागवतजन का तिरस्कार करना, दीक्षा तथा मन्त्रादि के प्रदाता गुरुजन को मानवरूप में सामान्य भाव से देखना तर उन्हें अधिक गौरव प्रदान नहीं करना, ये सभी सत्सेवा के विपरीत कार्य क गये हैं॥९३-९७॥
मूलम्

पाखण्डशैवशाक्तादितंत्रार्चालोकनादिकम्। स्वतो ब्रह्मशिवादीनां बद्धानामर्चनादिकम्॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊनधीः समताशङ्का विष्णोर्विस्मृतिरेव च। अनादरश्वतन्मन्त्रलक्षणार्चाक्रियादिषु॥९४॥

टीका दृष्टि विरुद्ध तत्वों में पाखण्डों (जैन तथा बौद्धागर्भो ), शैव, शाक्त आदि तन्त्रों के अनुसार देवतार्चन आदि का करना तथा स्वयं ही गुणों से बद्ध ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं का दृष्ट या इष्टभाव में अर्चनादि करना यह सभी 'भक्ति' के विरुद्ध कार्य माना जाता है। इसके अतिरिक्त अपने इष्ट की सामर्थ्य ( या स्वरूपादि) में न्यूनताबुद्धि रखना, उनके समान दूसरे इष्ट की समता की मन में आशंका रखना, इष्टदेव विष्णु को विस्मरण कर देना तथा उनके मन्त्रों, लक्षणों तथा अर्चादि आस्था में उपेक्षा भाव का रखना दृष्टि तथा भक्ति के विरुद्ध कर्म माना गया है। अथवा प्रपत्ति से किये गये आत्यन्तिक दास्यभाव से विरुद्ध बुद्धि की स्थिति रखने लगना, किसी काम्य या इष्टभाव की इच्छा करना, प्रपत्ति के विषय में दृढ़ विश्वास में शिथिलता लाना या विधानों के अतिरिक्त दूसरे साधनों को (आश्रय ) ग्रहण करना भी भक्ति के विरुद्ध माना जाता है। स्वयं के प्रपत्तिरूप धर्माचरण होने से अपने कु तथा वर्णाश्रम के उपयुक्त धर्मों से बाधा रहने के कारण प्रपत्ति का वर्जन करना त असच्छास्त्रों में रुचि ग्रहण करते हुए विष्णु देवता के अंकभूत शंखचक्रादि की उपे करना, भागवत-जन से संसर्ग न रखना, भागवतजन का तिरस्कार करना, दीक्षा तथा मन्त्रादि के प्रदाता गुरुजन को मानवरूप में सामान्य भाव से देखना तर उन्हें अधिक गौरव प्रदान नहीं करना, ये सभी सत्सेवा के विपरीत कार्य क गये हैं॥९३-९७॥
मूलम्

ऊनधीः समताशङ्का विष्णोर्विस्मृतिरेव च। अनादरश्वतन्मन्त्रलक्षणार्चाक्रियादिषु॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैवात्यन्तिके दास्ये विमतिः कामकामिता। अविश्वासः प्रपदने साधनान्तरसंश्रयः॥९५॥

टीका दृष्टि विरुद्ध तत्वों में पाखण्डों (जैन तथा बौद्धागर्भो ), शैव, शाक्त आदि तन्त्रों के अनुसार देवतार्चन आदि का करना तथा स्वयं ही गुणों से बद्ध ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं का दृष्ट या इष्टभाव में अर्चनादि करना यह सभी 'भक्ति' के विरुद्ध कार्य माना जाता है। इसके अतिरिक्त अपने इष्ट की सामर्थ्य ( या स्वरूपादि) में न्यूनताबुद्धि रखना, उनके समान दूसरे इष्ट की समता की मन में आशंका रखना, इष्टदेव विष्णु को विस्मरण कर देना तथा उनके मन्त्रों, लक्षणों तथा अर्चादि आस्था में उपेक्षा भाव का रखना दृष्टि तथा भक्ति के विरुद्ध कर्म माना गया है। अथवा प्रपत्ति से किये गये आत्यन्तिक दास्यभाव से विरुद्ध बुद्धि की स्थिति रखने लगना, किसी काम्य या इष्टभाव की इच्छा करना, प्रपत्ति के विषय में दृढ़ विश्वास में शिथिलता लाना या विधानों के अतिरिक्त दूसरे साधनों को (आश्रय ) ग्रहण करना भी भक्ति के विरुद्ध माना जाता है। स्वयं के प्रपत्तिरूप धर्माचरण होने से अपने कु तथा वर्णाश्रम के उपयुक्त धर्मों से बाधा रहने के कारण प्रपत्ति का वर्जन करना त असच्छास्त्रों में रुचि ग्रहण करते हुए विष्णु देवता के अंकभूत शंखचक्रादि की उपे करना, भागवत-जन से संसर्ग न रखना, भागवतजन का तिरस्कार करना, दीक्षा तथा मन्त्रादि के प्रदाता गुरुजन को मानवरूप में सामान्य भाव से देखना तर उन्हें अधिक गौरव प्रदान नहीं करना, ये सभी सत्सेवा के विपरीत कार्य क गये हैं॥९३-९७॥
मूलम्

तस्यैवात्यन्तिके दास्ये विमतिः कामकामिता। अविश्वासः प्रपदने साधनान्तरसंश्रयः॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधनत्वाभिमत्या च निजधर्मस्य वर्जनम्। असच्छास्त्रेष्वभिरतिर्दिव्यशास्त्रावधीरणम्॥९६॥

टीका दृष्टि विरुद्ध तत्वों में पाखण्डों (जैन तथा बौद्धागर्भो ), शैव, शाक्त आदि तन्त्रों के अनुसार देवतार्चन आदि का करना तथा स्वयं ही गुणों से बद्ध ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं का दृष्ट या इष्टभाव में अर्चनादि करना यह सभी 'भक्ति' के विरुद्ध कार्य माना जाता है। इसके अतिरिक्त अपने इष्ट की सामर्थ्य ( या स्वरूपादि) में न्यूनताबुद्धि रखना, उनके समान दूसरे इष्ट की समता की मन में आशंका रखना, इष्टदेव विष्णु को विस्मरण कर देना तथा उनके मन्त्रों, लक्षणों तथा अर्चादि आस्था में उपेक्षा भाव का रखना दृष्टि तथा भक्ति के विरुद्ध कर्म माना गया है। अथवा प्रपत्ति से किये गये आत्यन्तिक दास्यभाव से विरुद्ध बुद्धि की स्थिति रखने लगना, किसी काम्य या इष्टभाव की इच्छा करना, प्रपत्ति के विषय में दृढ़ विश्वास में शिथिलता लाना या विधानों के अतिरिक्त दूसरे साधनों को (आश्रय ) ग्रहण करना भी भक्ति के विरुद्ध माना जाता है। स्वयं के प्रपत्तिरूप धर्माचरण होने से अपने कु तथा वर्णाश्रम के उपयुक्त धर्मों से बाधा रहने के कारण प्रपत्ति का वर्जन करना त असच्छास्त्रों में रुचि ग्रहण करते हुए विष्णु देवता के अंकभूत शंखचक्रादि की उपे करना, भागवत-जन से संसर्ग न रखना, भागवतजन का तिरस्कार करना, दीक्षा तथा मन्त्रादि के प्रदाता गुरुजन को मानवरूप में सामान्य भाव से देखना तर उन्हें अधिक गौरव प्रदान नहीं करना, ये सभी सत्सेवा के विपरीत कार्य क गये हैं॥९३-९७॥
मूलम्

साधनत्वाभिमत्या च निजधर्मस्य वर्जनम्। असच्छास्त्रेष्वभिरतिर्दिव्यशास्त्रावधीरणम्॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभागवतसंसर्गोरीढा भागवतेषु च। मर्त्यसामान्यभावेन गुरौ चानतिगौरवम्॥९७॥

टीका दृष्टि विरुद्ध तत्वों में पाखण्डों (जैन तथा बौद्धागर्भो ), शैव, शाक्त आदि तन्त्रों के अनुसार देवतार्चन आदि का करना तथा स्वयं ही गुणों से बद्ध ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं का दृष्ट या इष्टभाव में अर्चनादि करना यह सभी 'भक्ति' के विरुद्ध कार्य माना जाता है। इसके अतिरिक्त अपने इष्ट की सामर्थ्य ( या स्वरूपादि) में न्यूनताबुद्धि रखना, उनके समान दूसरे इष्ट की समता की मन में आशंका रखना, इष्टदेव विष्णु को विस्मरण कर देना तथा उनके मन्त्रों, लक्षणों तथा अर्चादि आस्था में उपेक्षा भाव का रखना दृष्टि तथा भक्ति के विरुद्ध कर्म माना गया है। अथवा प्रपत्ति से किये गये आत्यन्तिक दास्यभाव से विरुद्ध बुद्धि की स्थिति रखने लगना, किसी काम्य या इष्टभाव की इच्छा करना, प्रपत्ति के विषय में दृढ़ विश्वास में शिथिलता लाना या विधानों के अतिरिक्त दूसरे साधनों को (आश्रय ) ग्रहण करना भी भक्ति के विरुद्ध माना जाता है। स्वयं के प्रपत्तिरूप धर्माचरण होने से अपने कु तथा वर्णाश्रम के उपयुक्त धर्मों से बाधा रहने के कारण प्रपत्ति का वर्जन करना त असच्छास्त्रों में रुचि ग्रहण करते हुए विष्णु देवता के अंकभूत शंखचक्रादि की उपे करना, भागवत-जन से संसर्ग न रखना, भागवतजन का तिरस्कार करना, दीक्षा तथा मन्त्रादि के प्रदाता गुरुजन को मानवरूप में सामान्य भाव से देखना तर उन्हें अधिक गौरव प्रदान नहीं करना, ये सभी सत्सेवा के विपरीत कार्य क गये हैं॥९३-९७॥
मूलम्

अभागवतसंसर्गोरीढा भागवतेषु च। मर्त्यसामान्यभावेन गुरौ चानतिगौरवम्॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति भागवतस्योक्ताः प्रपन्नस्य विशेषतः। अपाया दुस्त्यजा ह्येते देहबन्धनिबन्धनाः॥९८॥

टीका इस प्रकार पूर्व में कही गयी ये सभी बातें विशेषकर दीक्षित तथा प्रपत्ति भाव न्यासयोग के आचरणकर्ता को भगवत् प्राप्ति के उपाय में संलग्न रहनेवाले त तन्निष्ठभाववालों के लिये वर्जित हैं। ये सभी यद्यपि देह धारण के कारण एकद छोड़े नहीं जा सकते हैं परन्तु ये विषभूत हैं तथा इन्हें छोड़ना आवश्य है॥९८॥
मूलम्

इति भागवतस्योक्ताः प्रपन्नस्य विशेषतः। अपाया दुस्त्यजा ह्येते देहबन्धनिबन्धनाः॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतानन्याँश्च विविधानपचारान्विशेषतः। सर्वानप्यनपाकृत्य नाप्नोति मधुसूदनम्॥९९॥

टीका इस प्रकार ऐसे अपचारों (विघ्नों) को तथा आगे कहे जाने वाले अपायों को भी ज तक हटाया नहीं जाएगा तब तक मधुसूदन श्रीविष्णु की अनुग्रह प्राप्ति सम्भव नह होगी॥९९॥
मूलम्

एतानन्याँश्च विविधानपचारान्विशेषतः। सर्वानप्यनपाकृत्य नाप्नोति मधुसूदनम्॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो देहस्य कालुष्यान्मंत्रमर्थेन केवलम्। आवर्त्तयन्सदा वृत्तिं कुर्वन्कालं नयेत्सुधीः॥१००॥

टीका इसलिये शरीर की कलुषता के कारण दीक्षा प्राप्त मन्त्र के अर्थादि चिन्तन बार-बा आवृत्ति करते हुए तथा विहित तथा आचारानुगत करते हुए जीवन के शेष समय व बिताया जाए ॥ १०० ॥
मूलम्

अतो देहस्य कालुष्यान्मंत्रमर्थेन केवलम्। आवर्त्तयन्सदा वृत्तिं कुर्वन्कालं नयेत्सुधीः॥१००॥

इति श्रीनारदपञ्चरात्रे भारद्वाजसंहितायां न्यासोपदेशो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥ (नारदपञ्चरात्र आगम में ‘भारद्वाज - संहिता’ के न्यासोपदेश की ‘तत्वप्रकाशिका’ हिन्दी व्याख्या का प्रथम अध्याय सम्पूर्ण)