नारदपञ्चरात्र तथा इसी के अनुगत भारद्वाजसंहिता के महत्व तथा उसकी उपयोगिता वैष्णव- आगम में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जिसमें सर्वाधिक प्रमुखता के साथ दास्यभक्ति के द्वारा भवबन्धन से मुक्ति एवं गोलोकप्राप्ति के उपाय एवं आचार का परम्परागत प्रतिपादन है। [पञ्चरात्र-आगम|पञ्चरात्र-आगम] वैष्णव- आगम का एक प्रमुख प्रभेद है। आगम को श्रुतिमूलक तथा प्रमाणभूत मानने की आस्था का कारण इसके प्रतिपाद्य एवं उपास्य साक्षान्नारायण तथा वक्ता भी श्री परमेश्वर का होना है। नारदपञ्चरात्र तथा इसके अनुगत ग्रन्थ संहिताओं के रूप में वैष्णव तन्त्र ( या आगम के रूप ) में प्रसिद्ध तथा प्रतिष्ठित हैं। आगम का एक पर्याय तन्त्र भी है, इसी कारण [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] को भी तन्त्र शब्द से अभिहित कर इसे वैष्णव-तन्त्र के रूप में माना जाता है। यहां हम तन्त्र तथा इसके वाङ्मय की भी इस प्रसंग में चर्चा कर रहे हैं।
१ तन्त्र साहित्य
संस्कृत साहित्य के व्यापक क्षेत्र रहने के कारण धर्म तथा दर्शन के क्षेत्र के साथ साथ इसे आगम या तन्त्र का एक ऐसा क्षेत्र भी प्राप्त है जो भारतीय चिन्तन, योग तथा उपासना का एक साथ निदर्शक है। तन्त्र के अन्तर्गत एक ऐसा विस्तीर्ण क्षेत्र आता है जिसके ग्रन्थों की अपरिमित सम्पत्ति भारत के विभिन्न प्रदेशों में सुरक्षित, प्रचलित तथा परम्परा के कार्यरूप में सम्पन्न होकर अवस्थित है। तान्त्रिक वाङ्मय की खोज करनेवाले मनीषिगण के सर्वेक्षण के आधार पर यह तथ्य उभर कर आता है कि ऐसे ग्रन्थों के वर्गीकरण में दो हजार ग्रन्थों को तो इस वर्ग के अन्तर्गत रखा जा सकता ह। इनमें से अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है किन्तु इनमें अनेक ऐसे ग्रन्थ भी हैं जो आज भी अप्रकाशित हैं तथा महत्वपूर्ण भी। ऐसे ग्रन्थों की संख्या प्रकाशित ग्रन्थों की तुलना में बहुत अधिक है। यदि इन ग्रन्थों का सामान्यतः इनके विषयों के आधार पर विभाजन करें तो इन्हें चार मुख्य वर्गों में रखा जा सकता है। ये हैं- ( १ ) ज्ञान (२) योग (३) क्रिया तथा (४) चर्या। इनमें “ज्ञान” के अन्तर्गत इसके निदर्शक तथा इसकी प्राप्ति आदि के विवेचक ग्रन्थ आते हैं। “योग” के अन्तर्गत वे ग्रन्थ हैं जिनमें चित्त के नियमन तथा उसकी एकाग्रता के विषय में विचार तथा उपाय तथा उसके वशीकरण हेतु दिखलाई जानेवाली क्रियाओं आदि का विवरण रहता है। “क्रिया” के अन्तर्गत उपास्य इष्ट देव, उनके निवासभूत मन्दिरों के निर्माण तथा इसमें चलने वाले कार्यों का विधान सहित विवरण होता है। “चर्या” एक प्रकार से इनकी प्रासंगिकता के अनुगत धार्मिक आचार तथा सामाजिक पर्यवेक्षा के बिन्दु पर विश्लेषण या विवेचन को लक्ष्य बनाकर रचे गये ग्रन्थ होते हैं। कभी कभी इन वर्गों के एक या दो मुद्दों को लेकर भी ये ग्रन्थ रचित होते हैं परन्तु ग्रन्थकार इनके लिये सर्वथा स्वतंत्र है तथा ग्रन्थ भी जिनको आधार या लक्ष्यबिन्दु बनाकर रचित हुए हों, यह भी स्पष्टतः परिशीलन के आधार पर प्रतीत होता है। परन्तु कुछ गन्थ इस लक्ष्यबिन्दु पर ही केन्द्रित होकर रचना में प्रवृत्त हुए हों, यह भी स्पष्ट नहीं है।
इस प्रकार यदि देखें तो तन्त्र या आगम शास्त्र को ऐसे रचनाग्रन्थों में रखना पड़ता है जिनमें प्रतिपादित सिद्धान्तों का क्रमानुगत ऐसा विवरण हो जिनसे ज्ञानादि की प्राप्ति उपयुक्त साधनादि के द्वारा सम्भव होती है। इस शास्त्र के ग्रन्थ, तन्त्र, आगम या संहिता के रूप में निरूढ माने गये हैं जिनमें आगम का रूप परम्परा से अधिक आबद्ध रहता है। संहिता ग्रन्थों में पारम्परिक मान्य सिद्धांतों का संकलन रखा जाता है। जिसमें प्राचीन एवं पवित्र परम्परा से प्रचलित ग्रन्थों के आधार पर या गुरूपदेशोंके आधार पर विवरण रहता है तथा विवेचन भी । इनके स्वरूप तथा उनमें स्थित विभेदक तत्वों के अनेक पहलू हैं तथा इनमें अनेक तथ्य तथा तत्व की आगमशास्त्रीय ग्रन्थों में मीमांसा मिलती है परन्तु ये ऐसी रचनाओं पर टिके हैं जहां इष्ट या उपास्य की उपासना की चर्चा हो, जो प्रतिपाद्य विषय के रूप में रखे जाएं। स्थूलरूप में ऐसे ग्रन्थ जिनमें आराध्य श्री सदाशिव तथा भगवती उमा ( शिव तथा शक्ति) अथवा श्रीमहाविष्णु तथा श्रीमहालक्ष्मी विषयक उपासना तथा चर्या रहती है। ऐसे ग्रन्थों को संहिता के अन्तर्गत रखा गया है। अतएव पूर्वोक्त ऐसे वर्गों के साहित्य या प्रतिपाद्य को आधार बनाकर निर्मित ग्रन्थ " तन्त्रग्रन्थ " या आगमग्रन्थ के नाम से जाने जाते हैं। परन्तु व्यवहार में वैष्णवतत्व को आधार बनाकर रचे गये इस शास्त्र के ग्रन्थ संहिता तथा इनसे भिन्न तत्व को बिन्दु मान कर रचे गये दूसरे सभी ग्रन्थ आगम ग्रन्थ या तन्त्रागमग्रन्थ के रूप में जाने जाते रहे हैं। इनको सरलता से शैवागम, बौद्धागम आदि के रूप में समझने के लिये लिखा है। सभी साधक या भक्तजन अपनी परम्परा के अनुरूप इन तन्त्रग्रन्थों को अपने [अर्धानुरूप|अर्थानुरूप] तथा परम्परा प्राप्त रूपों को मान्यता देकर तथा अपने अपने आग्रहों को निष्ठापूर्वक तथा बड़ी कठोरता से पालन कर अपनी साधना सम्पन्न करते हैं।
२ तन्त्र
तन्त्रशास्त्र या तन्त्रविद्या के प्रतिपादक के रूप में अवस्थित “तन्त्र” शब्द की व्याख्या तथा उसके परिसर को एवं इसकी व्यापकता को देखते हुए उसे एक स्वतन्त्र दर्शन की गरिमा भी दी गई। इसके क्षेत्रादि की व्यापकता को देखते हुए इस शब्द की " शब्दार्थ-चिन्तामणि” [कोष|कोश] में विवृत्ति इस प्रकार है:-
“सर्गश्व प्रतिसर्गश्च मन्त्रलक्षणमेव च । देवतानाश्व संस्थानं तीर्थानाचैव वर्णनम् ॥ तथैवाश्रमधर्माश्च मन्त्रसंस्थानमेव च । संस्थानचैव भूतानां यन्त्राणाश्चैव निर्णयः ॥ उत्पत्तिर्विबुधानाश्च तरूणां कल्पसंज्ञितम् । संस्थानं ज्योतिषाश्चैव पुराणाख्यानमेव च ॥ कोशस्य कथनचैव व्रतानां परिभाषणम् । शौचाशौचस्य चाख्यानं नरकाणाञ्च वर्णनम् ॥ हरचक्रस्य चाख्यानं स्त्रीपुंसोचैव लक्षणम् । राजधर्मो दानधर्मो युगधर्मस्तथैव च ॥ व्यवहारः कथ्यते च तथा चाध्यात्मवर्णनम् । इत्यादिलक्षणैर्युक्तं “तन्त्र” मित्यभिधीयते ॥” कोशकार के द्वारा इस प्रकार की गयी तन्त्र पद की यह विवृत्ति एक ओर जहां व्यापक है वहीं बड़ी सरल भी है तथा तन्त्रविद्या की सभी प्रकार की रचनाओं पर पूर्ण तथा विशेषरूप में लागू होती है फिर वह चाहे जैसी तन्त्रपद्धति हो। इसका कारण यह विवृत्ति है जो अपने सर्वसंग्राहक भाव के साथ व्यापक क्षेत्र की कल्पना को लेकर ही प्रवर्तित हुई । परम्परा में ‘तन्त्र की उत्पत्ति श्रुति से मानी गई है। व्याकरण निर्वचन के अनुसार “[तन्त्र्यते तन्यते|तन्यते] विस्तार्यते वा ज्ञानमनेनेति तन्त्रम्” अर्थात् जिससे ज्ञान का विस्तार हो वह ‘तन्त्र’ है। यह ज्ञान का विस्तार सभी के रक्षण या भयमुक्ति के लिये भी होने से लोककल्याण का आधायक है। तन्त्र के प्रयोजन के साथ उपर्युक्त निरुक्ति का निदर्शन “विष्णुसंहिता” की निम्नलिखित कारिका से स्पष्ट हो जाता है।
“सर्वेषां येन तन्त्र्यते त्रायन्ते च भयाज्जनाः । इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते ॥” तथा शैव मत के अनुसार- " तनोति विपुलान् अर्थान् तत्वमन्त्रसमन्वितान् । त्राणश्च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ॥ " तत्व मन्त्र के अर्थज्ञान का प्रचुर विस्तार तथा रक्षण ( करने) के कारण “तन्त्र” माना गया था। तन्त्रशास्त्र की धारणा सामान्यतः शक्ति तथा भैरव की उपासना के पारम्परिक [अर्वादि|अर्चादि] को लेकर जनसाधारण में प्रचलित है। किन्तु इसकी व्यापकता इसके द्वारा होनेवाले कल्याण विधान, भयमुक्ति एवं रक्षण को लेकर होनेवाली उपायभूत अर्चा के कारण है जो पुराणों में भी दूसरी तरह कही गयी है। ‘श्रीमद्भागवत’ में श्री विष्णु की अर्चा को वेद, तन्त्र तथा मिश्ररूप में दिखलाया गया है- “यजन्ति वेदतन्त्राभ्यां परं जिज्ञासवो नृप । तथा - नाना तन्त्रविधानेन कलावपि यथा शृणु ( भा० ११/५-२८ तथा ३१ ) इसी प्रकार महाभारत में शिवजी को [पश्चरात्र|पञ्चरात्र] ( तन्त्र) का विज्ञाता तथा बालखिल्य आदि ऋषियों को तन्त्रशास्त्र की दीक्षा तथा उपदेश कृतयुग में शिव के द्वारा प्रदान करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मपुराण - श्री शिव की पूजा वैदिक तथा तान्त्रिक विधि से करने की विधि का संकेत करता है। कालिकापुराण- देवी का ध्यान तथा अर्चा दुर्गातन्त्र के अनुसार करने के अतिरिक्त तन्त्रशास्त्र का बार-बार अनुवर्तन करता है तथा मार्कण्डेयपुराण में शक्ति उपासना का तान्त्रिक विधान विस्तार से निर्देशित किया गया है जो सर्वविदित है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि तन्त्रविद्या का महत्व तथा उसका प्रचलन सुदूर प्राचीन काल से ही यहाँ चला आ रहा है।
३ आगम
तन्त्र शब्द के अतिरिक्त ‘आगम’ शब्द भी इस शास्त्र का पर्याय माना जाता है। आगम भी श्रुति के समान महत्वशाली अनुष्ठान प्रकार की गरिमा रखता है। ऐसी मान्यता है कि जो महादेव (या सदाशिव) के द्वारा माता पार्वती के लोककल्याण की जिज्ञासा में करुणा से प्रेरित आग्रह से पूछे गये प्रश्नों के आधार पर कहे गये धर्मादि के गुप्त या रहस्यमय विवरणादि हैं वे “आगम” कहलाते हैं। पद्मसंहिता में आगम की जो परिभाषा दी गई है वह भी इसी बात को दर्शाती है। यथा- “आगतं [पश्चवक्त्रात्तु|पञ्चवक्त्रात्तु] गतं च गिरिजानने । मतश्व वासुदेवस्य तस्मादागम उच्यते ॥ सृष्टिव प्रलयश्चैव देवतानां तथार्चनम् । साधनश्चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥ षट्कर्मसाधनचैव ध्यानयोगश्चतुर्विधः । सप्तभिर्लक्षणैर्युक्तं तस्मादागममुच्यते ॥” आगम के लक्षणभूत अंगों से सात लक्षण उपर्युक्त विवरण से निदर्शित है। ये हैं- (१) सृष्टि (२) प्रलय (३) देवार्चा (४) साधन ( ५ ) पुरश्चरण ( ६ ) षट्कर्म साधना तथा ( ७ ) ध्यानयोग इष्ट देवों की उपासना के आधार आदि अनेक स्वेष्ट देवताराधन एवं विषयादि को अपना आधार बनाकर आगमों का सम्बन्ध धर्म तथा दार्शनिक चिन्तन आदि से सम्बद्ध होता है जिनकी संख्या अट्ठाईस मानी गयी थी। इस संख्या में ( जो शैवागम में दिखलाई गयी थी) आनेवाले आगमों की नामावली इस प्रकार है - कामिक, योगज, चिन्त्य, कारण, अजित, दीप्त, सूक्ष्म, सहस्र, अंशुमद्भेद, सुप्रभेद, विजय, निश्वास, स्वायम्भुव, अनिल, वीर, रौरव, मुकुटक, विमल, चन्द्रज्ञान, बिम्ब, प्रोद्गीत, ललित, सिद्ध, सन्तान, सर्वोक्त, परमेश्वर, किरण तथा वातूल आगम। इन आगमों के ग्रन्थों में अपने अपने विषय से सम्बद्ध तन्त्र के अनुगत धार्मिक विधानों तथा विधियों का विवरण रहता है ( आगमों को भी तन्त्र के क्षेत्र के अन्तर्गत समाविष्ट माना जाता है ) ।
४ संहिताएं-
तन्त्रशास्त्र के आगमवर्ग में संहिताओं का महत्वपूर्ण स्थान माना गया है क्योंकि इन संहिताओं का क्षेत्र विस्तीर्ण होता है तथा इनके मूल ग्रन्थ में बारह हजार श्लोक (तक का ? ) आयाम रहता है। इन संहिताओं में वैष्णव- तन्त्र या आगम के वर्ग में आनेवाली संहिताओं की संख्या अधिक है। इसके विषय में ‘पौष्करसंहिता’ का यह वचन द्रष्टव्य है :- “द्विषट्सहस्रपर्यन्तं संहिताख्यं सदागमम् । ये चान्ये चान्तराला वै शास्त्रार्थेनाधिका शतैः । सर्वेषां संहिता संज्ञा बोद्धव्या कमलोद्भव ॥” आगम साहित्य के इस वर्ग में संहिताएं कितनी थीं तथा उनमें से कितनी संहिताएं उपलब्ध हैं, इसका निश्चित विवरण नहीं दिया जा सकता है। फिर भी अभी तक इस विषय पर जो तथ्य मिल चुके हैं उनके आधार पर प्राप्त संहिताओं के नामादि इस प्रकार हैं- अहिर्बुघ्रय, ईश्वर, कपिञ्जल, जया, पाराशर्य, पाद्म, बृहद्ब्राह्म, भारद्वाज, सात्वत, श्रीपाश्न, विष्णु, विष्णुतिलक, लक्ष्मी, मारीच, अत्रि, परम तथा पौष्कर संहिता। पाश्चात्य विद्वान् ‘श्रोडर’ ने इस वर्ग में अगस्त्य, अनिरुद्ध, उपेन्द्र, काश्यप संहिताओं के विद्यमान रहने की सूचना देकर उनकी भी इसी वर्ग में योजना रखने की बात कही है।
५ रहस्य-ग्रन्थ
तन्त्रशास्त्र के अन्तर्गत इन आगम तथा संहिता ग्रन्थों के अतिरिक्त इनसे अधिक सम्बद्ध विषयों के विवेचक ग्रन्थों में रहस्य ग्रन्थों का भी महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। इनमें शिवरहस्य, ब्रह्मरहस्य तथा विष्णुरहस्य जैसे ग्रन्थ आते हैं। इन रहस्य ग्रन्थों का वर्गीकृत विभाजन यामलों तथा डामर-तन्त्र जैसे ग्रन्थों में मिलता है। ‘यामल’ की परिभाषा इस प्रकार ( मिलती ) है- “सृष्टिश्व ज्योतिषाख्यानं नित्यकृत्यप्रदीपनम् । क्रमसूत्रं वर्णभेदो जातिभेदस्तथैव च । युगधर्मस्तथाख्यातं यामलस्याष्ट - लक्षणम् ॥ इति । इस यामल वर्ग में परिगणित कुछ ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-आदि, ब्रह्म, विष्णु, रुद्र, गणेश, आदित्य जयद्रथ तथा शक्ति यामल जो संख्या में आठ हैं। इन रहस्य ग्रन्थों में इन यामलों के साथ डामर ग्रन्थों का भी तन्त्रपरम्परा में समावेश माना गया है। इनमें योग, शिव, दुर्गा, सरस्वती, ब्रह्मा, तथा गान्धर्व डामर ऐसे ग्रन्थ हैं जिन्हें तन्त्रग्रन्थों में डामर मानते हैं। ये तन्त्र दो प्रमुख धाराओं में विभक्त हैं जिन्हें वैदिक तथा अवैदिक कहते हैं। इनमें वैदिक मन्त्रादि से अनुगत धारा मुख्यरूप से दक्षिणमार्गी धारा कहलाती है तथा अवैदिक को वाममार्गी या अवैदिक धारा या शाख भी कह सकते हैं जिसका विस्तार से विवरण यहां अनभिप्रेत तथा प्रासंगिक नहीं है। इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से तन्त्रसाहित्य के व्यापक क्षेत्र का परिज्ञान होता है जिसमें अपरिमित या विशाल ग्रन्थसम्पत्ति विद्यमान है। जिनके अनेक ग्रन्थों के परिशीलन से इसी वर्ग के अनेक लुप्त या अप्राप्य ग्रन्थों का पता लग रहा है तथा जिनके उद्धरण इन ( प्राप्य) ग्रन्थों में मिलते हैं। तन्त्रशास्त्र के परिशीलन से अनेक अज्ञात तत्वों का परिज्ञान होने से यह शास्त्र महत्वपूर्ण स्थिति से सदैव मण्डित रहेगा यह भी स्पष्ट ही है तथा इस पर अनुसन्धान भी नितान्त आवश्यक है।
६ वैष्णव- आगम तथा संहिताएं
वैष्णवआगम अपने में सर्वथा पूर्ण आगम माना गया है। इसके सामान्यतः दो भेद प्रमुख हैं- वैखानस तथा [पाञ्चरात्र|पाञ्चरात्र]। इनमें से वैखानस नाम श्रीमद्भागवत् में गोपीगीत में मिलता है, जो इस धारा की प्राचीन स्थिति दर्शाता है। यथा- न खलु गोपिकानन्दनो भवान् अखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् । विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥ विखानस् शब्द का अर्थ ब्रह्मा है तथा इस नाम के एक मुनि भी विखानस् कहलाते थे। विखानस से प्रवर्तित सम्प्रदाय वैखानस हुआ। छान्दोग्योपनिषद् में वैखानस का अर्थ वानप्रस्थ किया गया है। वैखानस गुह्यसूत्र में कहा गया है कि वैखानसों को भगवान् नारायण स्वयं गर्भ में ही मुद्रा धारण करवा देते हैं। यथा- नारायणः स्वयं गर्भे मुद्रां धारयते निजाम् । विप्रा वैखानसा ये ते स्मृताः श्रीभगवत्-प्रियाः ॥ " अतः इन वैखानसों के सम्प्रदाय को वैखानस आगम कहा गया। [पाञ्चरात्र-आगम|पाञ्चरात्र-आगम] वैष्णव-आगम में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें चर्चित विवरणों में पञ्चरात्र की व्याख्याएं भिन्न भिन्न रूप में मिलती हैं। इस शाखा के ग्रन्थ भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जिनकी आगे चर्चा की जा रही है। [पञ्चवरात्र|पञ्चरात्र] शब्द की व्याख्या में पाद्मसंहिता के अनुसार पांच विरोधी दर्शन अर्थात् बौद्ध, जैन, सांख्य, न्याय तथा वेदान्तशास्त्रों को जो अन्धकारमय या रात्रितुल्य अपने प्रकाश से कर देता है वह “[पश्चरात्र|पञ्चरात्र]” शास्त्र या मत है। ‘अहिर्बुध्न्यसंहिता’ तथा ‘[नारदपश्वरात्र|नारदपञ्चरात्र]’ के अनुसार रात्रपद ज्ञान का वाचक है। ये पंचविध ज्ञान हैं- ( १ ) परमतत्व, (२) मुक्ति, (३) भुक्ति, (४) योग, तथा ( ५ ) विषय (संसार) जिनके ज्ञान का आपादक यह शास्त्र है। ‘ईश्वरसंहिता’ - के अनुसार पांच मुनियों को सर्वप्रथम इस शास्त्र का ज्ञान प्राप्त होने के कारण यह [पावरात्र|पाञ्चरात्र] शास्त्र कहलाया। ये पांच मुनि हैं- शाण्डिल्य, औपगायन, मौज्जायन, कौशिक तथा भारद्वाज तथा यह भी है कि परमेश्वर ने पांच दिवारात्र की कालावधि में इस विद्या का उपदेश दिया था इसलिये इसका नाम पञ्चरात्र हुआ। इस प्रकार विविध वैष्णव आगमों में इसकी भिन्न भिन्न विवृतियाँ मिलती है। शतपथब्राह्मण में [पाश्वरात्र|पाञ्चरात्र] पद का अर्थ पांचसत्र किया गया है। आचार्य वेदान्तदेशिका ने “न्यायपरिशुद्धि " मैं विभिन्न आगमादि के आधार पर सारभूतरूप में [पावरात्र|पाञ्चरात्र] पद का यह स्वरूप दिखलाया है:- “प्रतिबुद्धविषयभगवदन्यभजनोपदेशप्रवृत्तं तु । शास्त्रं [पाश्वरात्रम्|पञ्चरात्रम्] । (श० अ० २ आ०) तदनुसार श्री विष्णु की अनन्यभाव से भक्ति का उपदेशक शास्त्र [पाञ्चरात्र|पाञ्चरात्र] माना गया है। इस प्रकार अनेक तरह से [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] शब्द का अर्थ वर्णित रहने पर भी इस शब्द के शास्त्रादि ग्रन्थों में मिलने वाले प्रयोगों से भी इस पर अतिरिक्त प्रकाश पड़ता है जहां ( पुरुष ) नारायण को पांच अहोरात्र में सम्पन्न होने वाले यज्ञ का सम्पादक कहा गया है। आचार्य उत्पल ने [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] श्रुति, [पाञ्चरात्रोपनिषद्|पञ्चरात्रोपनिषद्] तथा [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] संहिता इन तीन नामों से [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] साहित्य का निर्देश किया है। इस प्रकार श्रुति तथा उपनिषद् के अतिरिक्त इस शास्त्र के ग्रन्थों के साथ संहिता शब्द का प्रयोग एक परम्परा के रूप में सर्वज्ञात रहने से इसकी निरन्तर धारारूप में गति बनी रही यह माना जाता है। (१) प्रथमं सात्विकं ज्ञानं द्वितीयन्तु तदेव तु । नैर्घृण्यन्तु तृतीयश्व ज्ञानश्व सर्वतः परम् । चतुर्थव राजसिकं भक्तस्तन्नाभिवाञ्छति । [पश्वमं|पञ्चमं] तामसं ज्ञानं विद्वास्तन्नाभिवाञ्छति । इति पञ्चविधं ज्ञानं [पञ्चरात्रं|पञ्चरात्रं] विदुर्बुधा । (२) ब्रह्मवैवर्तेऽपि वासिष्ठं नारदीयश्च कापिलं गौतमीयकम् । परं सनत्कुमारीयं [पाश्वरात्रन्तु|पञ्चरात्रन्तु] पञ्चकम् ॥” इति । [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] शब्द के अर्थ निर्वचन के क्रम में [पाञ्चरात्रागमगत|पञ्चरात्रागमगत] विभिन्न संहितादि का मत देखते हुए जब हम भारतीय दर्शनशास्त्र के सांख्य, योग तथा वेदान्तादि (अद्वैतवेदान्तादि) दार्शनिक परम्परा को देखे तो ये सभी निश्चितरूप से पुरुषार्थ साधक होकर अमूर्ताराधनपरक शास्त्र भी हैं जिनमें प्रवृत्ति यदि असंभव नहीं तो कठिन तो अवश्य ही है। इनकी तुलना में [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] समूर्ताराधक होकर सर्वसामान्यजन के लिये भी पुरुषार्थ साधक वन पड़ने से लाघव आपादक शास्त्र है तथा सरल भी रहने से इसमें लोक प्रवृत्ति का लगाव या झुकना भी संभव हुआ था यही समझना चाहिये। यही इस शास्त्र की दर्शनादि अन्य शास्त्रों में भिन्नता भी है। अतएव [पाश्वरात्र|पञ्चरात्र] शब्द में अवस्थित रात्र - पद को सामान्य काल वाचक मान लेना इस आगम के अनुकूल है, अर्थात् [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] - पद पञ्चकाल शब्द का समानार्थक है यही प्रतीत होता है। [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] संहिता आदि अनेक ग्रन्थों में पञ्चकालपरायण शब्द का प्रयोग [पावरात्र|पञ्चरात्र] - विशेषज्ञ के अर्थ में प्रयुक्त किया गया मिलता है। अतः [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] शब्द से ऐसा संप्रदाय एवं उसका आचार अभिहित है जिसमें वैष्णवों के आचार निर्वाह हेतु चौबीस घन्टे या एक अहोरात्र को पांच भागों में विभक्त किया गया हो तथा प्रत्येक काल के कर्तव्यों का निरूपण रहे। इस पञ्चकाल के अन्तर्गत प्रातःकाल से आरम्भ होकर रात्रि के उत्तर भाग पर्यन्त रहने वाले आचार जैसे- (१) अभिगमन, (२) उपादान, (३) इज्या, (४) स्वाध्याय तथा (५) योगकाल का कर्म इष्ट है जिसका निर्देश [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] ग्रन्थों में दिया गया है। यही अर्थ यहां व्यावहारिक भी है तथा युक्तियुक्त भी है कि पांच कालों के लिये निर्धारित पृथक् एवं विशिष्ट आचार-परक विधेय क्रियाओं का इन विभक्त हुए पांच कालों में ही सम्पादन हो । यही विधि यहां इष्ट भी है।
१ [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] मत की प्राचीनता-
[पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] - आगम की मूल परम्परा अतिशय प्राचीन है जिसका सम्बन्ध ऋग्वेद के पुरुषसूक्त से है तथा जो आगे चलकर सभी वैष्णव सम्प्रदायों का आधार बनी। शतपथब्राह्मण में कहा गया है कि परमपुरुष नारायण ने जब एक होने की इच्छा की तो उन्हें [पश्ञ्चरात्र|पञ्चरात्र] यज्ञ का साक्षात्कार हुआ। श्री वेंकटसुधी ने अपने विशाल ग्रन्थ ‘सिद्धान्तरत्नावली’ में दिखलाया कि नारायण पद ब्रह्म का वाचक है। महाभारत के शान्तिपर्व में एक उल्लेख है कि-नारायण तथा नर उस एक अपरिणामी ब्रह्म की उपासना करते हैं। अन्य एक अध्याय में एक ऐसी कथा है कि नारायण का अनन्य भक्त एक राजा सात्वत धर्मविधि के अनुसार उनकी उपासना करता था। वह अपने यहां पञ्चरात्र वेत्ता सन्तों का सम्मान कर उन्हें आश्रय देता था। पर ये सन्त अपनी उपासना साधना के बाद भी नारायण के दर्शन नहीं पा सके। उन्हें बाद में सन्देश मिला कि नारायण का श्वेतद्वीप वासियों को ही दर्शन संभव है क्योंकि वे इन्द्रियहीन हैं। नारद भी श्वेतद्वीप वासियों को दूर से ही देख पाए थे पर जब वे वहां स्वयं पहुंचे तो उन्हें नारायण के दर्शन हुए। नारायण ने उन्हें उपदेश दिया कि वासुदेव परम एवं अपरिणामी हैं जिनसे संकर्षण की उत्पत्ति हुई जो समस्त जीवों (प्राणियों) के अधिपति हैं, उनसे प्रद्युम्न हुए जो मनस् भूत है, इनसे अनिरुद्ध उत्पन्न हुए जो अहंकार रूप हैं। अनिरुद्ध से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई और जिसने इस समग्र सृष्टि की उत्पत्ति की। अतः महाप्रलय के पश्चात् प्रथम वासुदेव से ही कर्मपूरक संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध की उत्पत्ति होकर सृष्टि प्रक्रिया प्रवृत्त होती है। [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम होने से इसकी पुष्टि सभी वैष्णवाचार्यों ने की सात्वत्संहिता, आदि के आधार पर इस शास्त्र के वक्ता स्वयं श्रीनारायण हैं यह भी उपर्युक्त विवरण से प्रकट है। जैसा कि कहा भी गया है:- “[पवरात्रस्य|पञ्चरात्रस्य] [कृत्त्रस्य|कृत्स्नस्य] वक्ता नारायणः स्वयम् " अर्थात् समग्र पञ्चरात्र-आगम के वक्ता या प्रथमोपदेष्टा स्वयं श्री नारायण हैं। इस पञ्चरात्र-आगम के अनुगत अनेक उपनिषद् हैं। यथा- अव्यक्तोपनिषद् या अव्यक्तनृसिंहोपनिषद्, कृष्णोपनिषद्, गोपालतापनी उपनिषद्, महानारायणोपनिषद्, नृसिंहतापनी उपनिषद्, नृसिंहोत्तरतापनी उपनिषद्, रामतापिनी उपनिषद्, रामरहस्योपनिषद् तथा वासुदेवोपनिषद् आदि। ये सभी उपनिषद् वैष्णव मन्त्रों तथा क्रिया एवं कर्म विधानों से युक्त विवरण परक हैं। इनमें से कुछ उपनिषद् विभिन्न वैष्णवाचार्यों द्वारा अपने यहां [आगृहीत|आगृहीत] भी हैं तथा इनमें नृसिंहतापनी तथा गोपालतापनी अति प्रसिद्ध भी हैं। यामुनाचार्य ने अपने ‘आगमप्रामाण्य’ (नामक) ग्रन्थ में [पांचरात्र|पञ्चरात्र] पद की आध्यात्मिक रहस्यपूर्ण विशिष्टता की विवेचना की है। वे कहते हैं कि पञ्चरात्र से सम्बद्ध प्रक्रियाएं प्रत्यक्ष तथा अनुमान से ज्ञेय नहीं है। केवल ईश्वर ही पञ्चरात्र का आप्तभूत विशिष्ठ उपदेश दे सकते हैं क्योंकि उनका ज्ञान अपरिमित होकर जगत् की समस्त वस्तुओं तक पहुंचता है । [पञ्चवरात्र|पञ्चरात्र] ग्नन्थ ईश्वर द्वारा ऐसे भक्तों के हितार्थ उपदिष्ट हुए हैं जो वेदोक्त बहुश्रमसाध्य अनुष्ठानादि क्रियाओं से त्रस्त हो चुके थे। अतएव वेद में [पावरात्र|पञ्चरात्र] समर्थक पाठ न पाये जाने का कारण समझा जा सकता है। क्योंकि शाण्डिल्य ने वेदों में अपने अभीष्ट हेतु को प्राप्त करने का जब साधन नहीं देखा तो वे भक्ति की ओर झुके जिसका तात्पर्य वेद - निन्दा नहीं है। इससे यह भी समझा जा सकता है कि [पावरात्र|पञ्चरात्र] आगम के आधार तथा साधन वेद से भिन्नता रखते हैं। इसमें वेदोक्त कर्मकाण्ड के अतिरिक्त अपनी कर्मविधि होने से इसकी अवैदिकता भी सिद्ध नहीं हो सकती है। इसी तरह [पचरात्र|पञ्चरात्र] में चार व्यूहों को स्वीकार करने पर इसकी अनेकेश्वरवादिता मानना भी अनुचित है क्योंकि दैवी पुरुष एक वासुदेव के ही ये अभिहित चारव्यूह अभिव्यक्ति है। इस प्रकार यही तथ्य सामने आता है कि वेद की तरह ही पञ्चरात्र मत की भी समानरूप में प्रामाणिकता है जिसका मूल उद्गम स्थान एक ही दैवी पुरुष नारायण हैं।
२ [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] - साहित्य
[पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] मत के प्रतिपादक अनेक ग्रन्थ हैं क्योंकि दसवीं शती से लेकर १७ वीं शती तक इस मत का सुदूर दक्षिण में अधिक प्रसार रहा। यहां वैष्णवों को शैवमत के साथ रहना भी पड़ा तथा इसकी सिद्धान्त विषयक विचार मीमांसा भी खण्डन - मण्डन में प्रवृत्त हुई जो समय को देखते हुए स्वाभाविक थी। ऐसे गन्थों के विवरण क्रम में सर्वप्रथम “सिद्धान्तरत्नावली” ग्रन्थ को लेते हैं जिसके रचयिता वेङ्कटसुधी हैं। यह ग्रन्थ चार अध्याय का है जिसका तीन लाख अक्षर का आयाम है। यह ग्रन्थ बड़ा होने से अभी तक अप्रकाशित है । परन्तु महत्वपूर्ण भी हैं। वेंकटसुधी का स्थितिकाल १४ तथा १५ वीं शती है। ये प्रसिद्ध विद्वान् वेङ्कटनाथ के शिष्य तथा श्रीशैल ताताचार्य के पुत्र थे। इन्होंने सिद्धान्तरत्नावली के अतिरिक्त रहस्यत्रयसार तथा सिद्धान्तवैजयन्ती नामक अन्य दो ग्रन्थों की भी रचना की थी। इसी क्रम में गोपालसूरिकृत “पञ्चरात्र-रक्षासंग्रह” नामक ग्रन्थ आता है। गोपालसूरि वि कृष्णदैशिक के पुत्र तथा वेदान्तरामानुज के शिष्य थे। वह ग्रन्थ पञ्चरात्र के विविध क्रियाकलापों का विवरण देता है। प्रमाणसंग्रह भी ऐसा ही एक ग्रन्थ है जिसमें महाभारत, पुराण तथा स्मृत्यादि क को आधार बनाकर [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] मत की प्रामाणिकता दिखलाई गई है। [पावरात्र|पञ्चरात्र] - साहित्य विशाल है जिसके कुछ ही ग्रन्थ मुद्रित तथा प्रकाशित हैं। इन ग्रन्थों का क दार्शनिक दृष्टि से कम महत्व है तथा सांप्रदायिक दृष्टि से अधिक है। फिर भी इस क्रम में जो महत्वपूर्ण ग्रन्थ है उनमें एक “[सात्वतसंहिता|सात्वतसंहिता] है। इस ग्रन्थ के २४ अध्याय हैं। इसमें कहा गया है कि स्वयं नारायण ने ऋषि आदि के हितार्थ पञ्चरात्र शास्त्र का प्रवर्तन किया । ‘[सात्वत-संहिता|सात्वत-संहिता] " ऋषि द्वारा रचित मानी जाती है । “[ईश्वरसंहिता|ईश्वरसंहिता] " भी इस शास्त्र की महत्वपूर्ण रचना है। जिसमें २४ अध्याय हैं जिन्में मूर्ति, ध्यान, मन्त्र, शुद्धि तथा आत्मनिग्रह आदि विषय हैं तथा जिसमें दार्शनिक सिद्धान्त भी प्रतिपादित हैं। बाद में यह ग्रन्थ श्रीवैष्णव जन के दर्शन और धर्म का प्रमाणसिद्ध तथा आधारभूत ग्रन्थ माना गया। “[हयशीर्षसंहिता|हयशीर्षसंहिता] " भी इसी क्रम में आता है। जिसमें देवमूर्ति प्रतिष्ठा तथा इनके निर्माण कार्य तथा अन्य प्रकारादि का विवरण है। यह ग्रन्थ विस्तीर्ण है तथा चार विभागों में विभक्त है। वैष्णवतंत्रीग्रन्थों में “[जयाख्यसंहिता|जयाख्यसंहिता] " चर्चा के योग्य है जिसका आगे ( विषयादि) दिखलाने का प्रक्रम रखा गया है । इस तन्त्र के कुछ अन्य ग्रन्थ भी हैं जिनमें पद्मसंहिता, पौष्करसंहिता, सनत्कुमारसंहिता ( जो [एक्व|एक] बृहद् ग्रन्थ है), अनिरुद्धसंहिता महोपनिषद्, कश्यपसंहिता, विहगेन्द्रसंहिता, सुदर्शनसंहिता, अगस्त्यसंहिता आदि आते हैं। ये सभी ग्रन्थ न्यूनाधिकरूप में आनुष्ठानिक अर्चा आदि के विवरण से युक्त हैं तथा प्रायः अप्रकाशित भी । विष्णुसंहिता - भक्ति का प्रतिपादक ऐसा ग्रन्थ है जिसे भागवतयोग कहा गया है। “[मार्कण्डेयसंहिता|मार्कण्डेयसंहिता] " ग्रन्थ को प्राचीन माना जाता है जिसमें वैष्णवतन्त्र की १०८ संहिताओं का उल्लेख तथा उसमें से ९१ संहिताओं की सूची दी गयी है । “[जयाख्यसंहिता|जयाख्यसंहिता], अहिर्बुध्न्यसंहिता, विष्णुसंहिता, विहगेन्द्रसंहिता, परमसंहिता तथा पौष्करसंहिता नामक ग्रन्थ [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम के ऐसे ही ग्रन्थ है जिनमें साम्प्रदायिक अर्चा तथा कर्मकाण्डादि विषयों के साथ साथ तात्विक दार्शनिक चिन्तन भी मिलता है। यहां हम क्रमशः इस बिन्दु पर भी थोड़ा प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। इनमें भी जयाख्य तथा अहिर्बुध्न्यसंहिताएं अधिक महत्वपूर्ण मानी गयी हैं। जयाख्यसंहिता में वैदिक यज्ञादि से विरत होकर मुक्ति की प्राप्ति हेतु चिन्तना के क्रम में कहा गया कि ऋषिगण शाण्डिल्य मुनि के समीप गये तथा उनसे परमतत्व प्राप्ति की जिज्ञासा की । उत्तर में शाण्डिल्य ने नारद को नारायण द्वारा किये गये उपदेश की गाथा सुनाकर इसी क्रम में साधक के अन्तःकरण में उत्कट भक्ति की स्थिति की आवश्यकता प्रतिपादित की। यह कार्य उसे प्रथमसाधन के रूप में गुरु प्राप्ति से आरम्भ करना पड़ेगा जो शास्त्राध्यापन के द्वारा इसका ज्ञान करवाता है। बाद में सृष्टिप्रक्रिया का विवरण देकर श्रीविष्णु के अनेक आख्यान शिष्य को कहता है । गुरु बतलाता है कि जीव विशुद्ध चैतन्य के सत्य अनादिवासना के योग का परिणाम है। इस वासना को दूर करने के लिये ब्रह्म में से एक विशिष्ट शक्ति उत्पन्न होती है कि जीव के अन्तर्गत शुद्धचैतन्य अपने कर्मों के क्षीण हो जाने पर वासना रहित हो जाता है और अन्त में ब्रह्म से एकरसता प्राप्त कर लेता है। चैतन्य का जड़ से सम्बन्ध ईश्वर की विशिष्ट शक्ति द्वारा होता है जो आत्मा का माया के संयोग से अनेक भोगों का अनुभव करवाता है तथा बन्धन के टूटते ही शुद्धचैतन्यरूप आत्मा का ब्रह्म से एक भाव हो जाता है। जयाख्य-संहिता में दो प्रकार के ज्ञान का उल्लेख हैं जिन्हें स्थिति या सत्तारूप तथा क्रिया या क्रियारूप ज्ञान कहते हैं। क्रियारूप ज्ञान के अन्तर्गत यम नियम आदि अनुशासन आते हैं तथा इन [क्यारूप|क्रियारूप] ज्ञान के निरन्तर अभ्यास से सत्ताख्य ज्ञान पूर्ण तथा परिपक्व होता है। इस प्रकार [गाभ्यास|अभ्यास] के द्वारा अन्त में साधक या योगी ब्रह्मरंध्र के द्वार से निकल जाता है और अपने देह का परित्याग कर अन्त में मूल सत्यभूत बासुदेव के साथ एकरस हो जाता है। “विष्णुसंहिता " में ईश्वर की पांच शक्तियों का उल्लेख है जिनके द्वारा ईश्वर अपने को प्रकट करता है। इस प्रकार प्रकृति की शक्तियां ईश्वर में निहित हैं तथा क्षेत्र या प्रकृति क्षेत्रज्ञ या [रुपभूत|रूपभूत] ईश्वर से अभिन्न हैं। इनमें प्रथमशक्ति चित्शक्ति है जो समस्त क्रियाओं की अपरिणामी आधार है। द्वितीय भोगशक्ति है जो पुरुषरूप में है। तीसरी कारणशक्ति है जो विश्व के विविधरूपों में प्रकट होती है। चौथी शक्ति इन्द्रियों के विषय ग्रहण करवा कर ज्ञानरूपता देती है तथा पांचवी [बक्ति|शक्ति] ज्ञान क्रियात्मक होती है जिसे सर्वा कहा जाता है। अतः पुरुष तथा भोग्य प्रकृति ये दोनों स्वतन्त्र तत्व न होकर ईश्वर की ही शक्ति मात्र हैं। परमेश्वर से समरस होने के लिये प्राणायाम के क्रम से आगे अनेक ध्यानादि करने भी आवश्यक हैं। भक्ति का अर्थ यहां ईश्वराभिमुखीकरण है जिसको आगे बढ़ाने का साधन योग साधना है। यहां [वक्त|भक्त] को योगी माना गया है तथा योग द्वारा प्राप्त ज्ञान ही सर्वोच्च है क्योंकि योग के ज्ञान के बिना अनुष्ठित कर्म इष्टफल नहीं दे पाते हैं। योग का अर्थ ही चित्त का विषय पर बिना क्षोभ से [माहित|समाहित] होना ( कहा गया) है। अतः जब चित्त कर्म करने में दृढ़ता से स्थिर हो जाए तो यही कर्मयोग और जब यही ज्ञान पर अस्खलित रूप से सक्त या स्थिर हो तो ज्ञानयोग हो जाता है। योगी या भक्त इन दोनों योगों को साधते हुए जब श्रीविष्णु की शरण लेता है तो उसे एकात्मता की प्राप्ति होती है। यहां उसकी वृत्तिभूत इस चिन्तनासे चित्त में निर्मल भक्ति का जन्म होता है जिससे आसक्ति की जड़ों का नाश होकर अन्त में समस्त इच्छाओं से तथा राग से छुटकारा पाकर वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है। यहां कर्मयोग तथा ज्ञानयोग में से किसे चुना जाए इस विन्दु पर यही दिखलाया है कि इस विषय में कोई नियम नहीं है। कोई स्वभाव से कर्मयोग के लिये तथा कोई [न-योग|ज्ञान-योग] के उपयुक्त होता है । परन्तु विशेष योग्यता वाले कर्म तथा ज्ञान दोनों का संयोजन करने में समर्थ हो जाते हैं।
३ “अहिर्बुध्न्यसंहिता "
[पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] ग्रन्थों में ‘अहिर्बुध्न्यसंहिता’ का अपना विशेष तथा प्रामाणिक स्थान माना गया है। इसमें अहिर्बुध्न्य के द्वारा सङ्कर्षण से सुदर्शन नामक सत्यज्ञान की प्राप्ति का विवरण है जो विश्व की समस्त वस्तुओं का आधार है। जब ब्रह्म जो ज्ञानरूप तथा सर्वगुणसम्पन्न है अपने को नानारूप में प्रकट करता है तो वह “सुदर्शन” कहलाता है। ईश्वर में शक्ति अभिन्न रूप से स्थित है तथा जगत् उसकी अभिव्यक्ति है, जिसे आनन्द कहा गया है। क्योंकि वह निरपेक्ष है और जगत् रूप से अभिव्यक्त होने पर लक्ष्मी कहलाती हैं। यह जगत्रूप से अपने को संकुचित करती है अतः कुण्डलिनी है तथा विष्णुशक्ति भी कहलाती है । शक्ति ब्रह्म से अभिन्न दिखती है और ईश्वर इसी की सहायता से जगत् की रचना करता है। प्रगति के क्रम से यह शक्ति सृष्टि का विकास करती है तथा जब यही विपरिवर्तित होती है तो प्रलय होता है। इस शक्ति की दो भिन्न युगल क्रियाओं से नाना प्रकार की शुद्ध रचनाएं होती हैं। ज्ञान और बल क्रियाओं से संकर्षण का आध्यात्मिकरूप उत्पन्न होता है। ऐश्वर्य और वीर्य से प्रद्युम्न का तथा शक्ति और तेज से अनिरुद्ध की उत्पत्ति होती है। ये तीनों दैवी - व्यूह कहे जाते हैं। यद्यपि प्रत्येक व्यूह में दो दो गुण प्रधान है फिर भी वह ईश्वर के षड्गुणों से युक्त है क्योंकि ये श्रीविष्णु के ही रूप हैं। [ब्यूह|व्यूह] तीन प्रकार के कार्य करते हैं - ( १ ) उत्पत्ति स्थिति और लय, (२) सांसारिक वस्तुओं का पोषण तथा (३) मुमुक्षु भक्तों की सहायता । ये तीनों रूप वासुदेव से अभिन्न हैं और श्रीविष्णु के शुद्ध या पूर्ण अवतार माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त वासुदेव के दो रूप और भी हैं जिन्हें आवेशावतार तथा साक्षात् अवतार कहा गया है। आवेशावतार दो प्रकार के हैं- स्वरूपावेश तथा शक्त्यावेश। साक्षात् अवतार की उत्पत्ति दीपक के दूसरे दीपक के जलने की तरह सीधे और अविलम्ब होती है। ये सांसारिक अवतार से भिन्न हैं तथा मुमुक्षु जन के उपास्य भी हैं। परशुराम, आत्रेय, कपिल, व्यास, अर्जुन, पावक आदि सभी आवेशावतार हैं तथा मुख्यरूप से आराध्य नहीं माने जाते हैं। इसी प्रकार आगे प्रत्येक व्यूह से तीन उपव्यूह प्रकट होते हैं। इनमें वासुदेव से केशव, नारायण और माधव, संकर्षण से गोविन्द, विष्णु तथा मधुसूदन, प्रद्युन्न से त्रिविक्रम, वामन तथा श्री और अनिरुद्ध से हृषीकेश, पद्मनाभ तथा दामोदर प्रकट होते हैं। इसके अतिरिक्त विभवावतार भी होते हैं जिनकी संख्या आगम में ३९ मानी गयी है तथा समस्त विभवातारों की उत्पत्ति अनिरुद्ध से होती है। एक अन्य प्रकार और भी है जो अर्चावतार कहलाते हैं तथा इन सभी का विस्तार से आगम में विवरण भी दिया गया है। परमेश्वर वासुदेव अपनी शक्ति श्री से युक्त रहते हैं। आगम में इनकी तीन सहधर्मिणी देवियाँ लक्ष्मी, भूमि तथा नीला का उल्लेख मिलता है। ये तीन इच्छा, क्रिया तथा साक्षात् शक्तिरूप हैं। लक्ष्मी को विष्णु की अन्तिम तथा नित्य शक्ति माना गया है। यही परमशक्ति संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के रूप में प्रकट हैं। ये भिन्नशक्तियां अभिव्यक्त होने पर ही गोचर होती हैं किन्तु जब अव्यक्त दशा में होती हैं तब भी श्रीविष्णु में लक्ष्मीरूप से परमशक्ति के रूप में अवस्थित रहती हैं। व्यक्त, अव्यक्त, पुरुष, काल तथा योग का श्रीलक्ष्मी में ही निवास रहता है। लक्ष्मी ही ऐसी परमा शक्ति हैं जिसमें सभीका लय होता है। मुक्त जीव इसी मातृशक्ति लक्ष्मी में प्रवेश करते हैं जो श्रीविष्णु का परमधाम है। यह स्वरूप से आनन्दमयी है तथा इसके अन्तराल में आनन्त तत्व है तथा यही उत्पत्ति, स्थिति, संहार, अनुग्रह तथा निग्रह रूपी पांच कार्यों की करनेवाली मानी गयी है। इस शक्ति का अंशमात्र भाव्य तथा भावक शक्ति के रूप में व्यक्त होता है। जिसमें भावक शक्ति सुदर्शन के नाम से तथा भाव्य जगत् के रूप में प्रकट होती है, जिसका उद्देश्य भी संसार है। इस प्रकार विष्णु से एकात्मता का अर्थ सुदर्शन से तादाम्य या श्री लक्ष्मी में प्रवेश होकर लीनता प्राप्त करना है। [पाचरात्र|पञ्चरात्र] मत में एक भक्त या उपासक के लिये उपादेय तत्व है ईश्वर प्राप्ति के लिये साधन भूत प्रपत्ति, न्यास या शरणागति का सिद्धान्त। यहां शरणागति की व्याख्या इस प्रकार है कि हम जीव होने से पाप तथा दोषों में लिप्त हैं तथा श्रीविष्णु के अनुग्रह के प्राप्त न होने से भटके हुए हैं तथा सर्वथा निराधार हैं। इस विश्वास से परमेश्वर के अनुग्रह की याचना करना शरणागति है। जो साधक भक्त या पुरुष प्रपत्ति के इसी मार्ग को ग्रहण करता है उसे सभी जैसे तप, यज्ञ तीर्थाटन, दान आदि से समग्र फल की अनायास प्राप्ति होकर बिना अन्य साधन के सरलता से मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। प्रपत्ति मार्ग अपनाने के लिए केवल एक भाव ही अपेक्षित होता है कि साधक या भक्त श्रीविष्णु पर सर्वथा आश्रित रहे हैं और अपने को सर्वदा नितान्त निराधार समझे। इस भावना में दृढ़ता से आस्था तथा विश्वास करते हुए जब साधक या भत्त श्रीविष्णु की आराधना में रत रहता है तो फिर उसे कोई अन्य प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती है तथा उसका अभीष्ट कार्य ईश्वर ही सब कुछ कर देता है। यह प्रपत्ति एक प्रकार का उपाय ज्ञान है, उपाय नहीं है। यह एक प्रकार की धारणा या मति है, कर्म नहीं है। यही बात इस प्रकार समझी जा सकती है कि यह एक तरणी है जिसमें यात्री बैठता है और मल्लाह उसे पार कर देता है। यह तत्व [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम में परम्परा के अनुगत श्रुति, पुराण आदि सभी से अविरोध रखता है तथा वैष्णवमत का परिचायक सुदृढ़ आधार तत्व भी है। [पावरात्र|पञ्चरात्र] मत वैदिक तथा तान्त्रिक सिद्धान्तों का आधार लेकर प्रवृत्त रहने से मन्त्र के गुह्य रहस्यों को मानता है। इसके अनुसार जगत् सुदर्शन से उत्पन्न है अतः जगत् की सभी शक्तियां सुदर्शन के रूप हैं। जैसा कि कहा भी है- “सुदर्शनाह्वया देवी सर्वकृत्यकरी विभोः । तन्मयं विद्वि सामर्थ्य सर्व सर्वपदार्थजम् ॥ धर्मस्यार्थस्य कामस्य मुक्तेर्बन्धत्रयस्य च । यद्यत् स्वकार्यसामर्थ्यं तत्तत् सौदर्शनं वपुः ॥” अर्थात् सुदर्शन की शक्ति चेतन तथा जड़ समस्त पदार्थों में तथा बन्धन और मोक्ष के रूप में प्रकट है। जो भी उत्पन्न करने की शक्ति रखता है वह सुदर्शन शक्ति का ही प्रकटीकरण है। मन्त्र भी शुद्धचैतन्यरूप श्रीविष्णु की शक्ति है। घण्टों की दीर्घ ध्वनि के रूप में सर्वप्रथम जो अभिव्यक्ति होती है वह “नाद” कहलाती है जिसे केवल योगी ही सुन सकते हैं या यह उन्हें ही प्रत्यक्ष होती है। दूसरी अभिव्यक्ति सागर से बूँद की तरह होनेवाली मानी गयी है जिसे “बिन्दु” माना गया । “बिन्दु” में नाम तथा उसके द्वारा संकेतित शक्ति का तादाम्य होता है। इसके बाद नामी का उदय होता है जो शब्द ब्रह्मन् है। इस प्रकार प्रत्येक वर्ण की उत्पत्ति के साथ तदनुरूप अर्थशक्ति (नाम्युदय) भी उत्पन्न होती है। बिन्दु शक्ति के स्वर तथा व्यञ्जन उत्पन्न होते हैं। जिनकी वैष्णव मान्यता यह है कि श्रीविष्णु की कुण्डलिनी शक्ति के भ्रमण या नृत्य के १४ प्रकार के प्रयत्नों से १४ स्वरों की उत्पत्ति हो जाती है। यह शक्ति जब मूलाधार से उठकर नाभिप्रदेश तक रहती है तो यह “पश्यन्ती” कहलाती है ।’ योगी ही इसका अनुभव कर सकते हैं। आगे जब वही हृदय कमल की ओर बढ़ती है और कण्ठ द्वारा व्यक्त शब्दरूप में प्रकट होती है। स्वरशक्ति सुषमा नाड़ी में से चलती है तथा इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यञ्जनों की ध्वनियां जगत् की भिन्न शक्तियों के आदर्शरूप है, वे भिन्न भिन्न देवताओं की शक्तियों की अध्यक्ष होती हैं। इनमें से कुछ वर्णों का भिन्न कम तथा व्यूह में समुच्चय जिसे चक्र या कमल कहते हैं विभिन्नाकार वाली जटिल शक्तियों का प्रतिनिधि माना जाता है। इन चक्रों की अर्चना और ध्यान करने से चक्र में निहित शक्ति को वश में किया जाता है। यहां प्रत्येक चक्र तथा मन्त्र के साथ भिन्न भिन्न देवताओं का सम्बन्ध रहता है। पञ्चरात्र ग्रन्थों के अधिकांश भाग इन चक्र तथा देवताओं के वर्णन तथा इनकी अर्चाक्रम, इनके अनुरूप देव प्रतिमा तथा इनके मन्दिर निर्माण के विवरण से भरे हुए हैं। [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम में भक्त को योगी बनने की बात कही जा चुकी है। अतः इनके ग्रन्थों में भी योग विषयक विवरण रखा जाता है। जिसमें नाड़ीतन्त्र का वर्णन शरीरस्थ नाड़ियों आदि का योग के साधनार्थ विवरण है। यह वर्णन शाक्ततन्त्र से तथा आयुर्वेद के नाड़ी विवरण से भिन्न है और अपनी स्वतंत्र स्थिति रखता है। वैष्णव-आगम में योग को जीवात्मा का परमात्मा के साथ संयोग माना जाता है। इनका मत है कि अन्तिम ध्येय की प्राप्ति के दो मार्ग हैं-इनमें एक है श्रीविष्णु की कोई एक शक्ति के रूप में ध्यान लगाकर उसमें आत्मसमर्पण करना जिसे छदम्बुयोग कहा जाता है। यहां किसी एक विशेषख्य परमन्त्र द्वारा ध्यान केन्द्रित किया जात है। दूसरा मार्ग बोग का है। यहां जीवात्मा के दो प्रकार माने गये है। इनमें एक वह जो प्रकृति से प्रभावित हैं तथा दूसरा दह जो प्रकृति के प्रभाव से परे हैं। यहां यह भी माना गया कि परमेश्वर से कर्म और ज्ञान द्वारा तादाम्य स्थापित किया जा सकता है। कर्म के भी दो प्रकार माने गये हैं जिनमें एक -च्छाप्रेरित या प्रवर्तक और दूसरा इच्छा से रहित या निवर्तक कहलाता है। इनमें से दूसरे प्रकार कर्म मुक्ति प्राप्त करवा सकता है और प्रथम रूप का कर्म इच्छा की फल प्राप्ति तक सीमित है। रमात्मा जिसके अनन्त कल्याणकारी गुण हैं तथा जो सूक्ष्म, अनादि, अनन्त एवं अविकारी है। जो ज्ञान क्रिया विरहित, अकाम, अजाति और निर्गुण होकर भी सर्वज्ञ, स्वयंप्रकाश्य, सर्वव्यापी तथा सभी का पालनकर्ता है तथा जो सहजबोधगम्य भी है। योग के द्वारा लघुभूत आत्मा या जीव का संयोग परमात्मा से बनता है। यह योग अष्टांग द्वारा सिद्ध माना गया है। जो कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, प्रत्याहार तथा समाधि नामक आठ अंग है। इनमें यम में सत्य, दया, धृति, शौच, ब्रह्मचर्य, क्षमा, आर्जव, मिताहार, अस्तेय और अहिंसा आते हैं तथा नियम में सिद्धान्तश्रवण, दान, मति, ईश्वरार्चा, सन्तोष, तप आस्तिक्य, ह्री, मन्त्रजप, व्रतोपवास आदि रखे गये हैं। योगविषयक यह सभी वैष्णव आगमिक विवरण पातञ्जलयोगशास्त्र से भिन्न हैं। आगम में प्रमाणमीमांसा भी अन्य शास्त्रों की तरह अपेक्षित रहने से इसकी पूर्ति की भावना से प्रमाणादि पर भी यहाँ विचार मिलता है। यहां प्रमाका लक्षण " यथार्थावधारणम्” दिया गया है जिसका अर्थ है वस्तु का यथार्थज्ञान प्रमा है और जो प्रमाण से ग्राह्य होती है। मनुष्य के लिये हितकर जो वस्तु प्रमाण से प्राप्त होती है वह प्रमाणार्थ कहा जाता है। यह दो प्रकार का है- इनमें एक वह जो आत्यन्तिक तथा एकान्तिक हित का आधान करता हो तथा दूसरा परोक्षरूप से हितकर होता है जिसे हितसाधन या हित कहा गया हो। परमेश्वर से तादाम्य प्राप्ति अतिशय आनन्दमयी और अत्यन्त हितकारी मानी गयी है। अतः इसकी प्राप्ति के दो मार्ग-धर्म तथा ज्ञान हैं। ज्ञान के भी दो भेद हैं-साक्षात्कार तथा परोक्ष। धर्म से ज्ञान उत्पन्न होता है जो दो प्रकार का है - प्रथम वह जो ईश्वरभक्ति की साक्षात् प्रेरणा देता हो तथा दूसरा वह जो परोक्ष रूप से प्रेरणा करता है। ईश्वर की दृष्टि से आत्मसमर्पण या हृदसंयोग परोक्ष धर्म है तथा जिस मार्ग से योगी भगवत्साक्षात्कार करता है वह साक्षात् धर्म कहलाता है जो [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] ग्रन्थों में उपदिष्ट है और सात्वत-शासन कहलाता है। पुरुषार्थ भूत धर्म, अर्थ तथा काम की तरह मोक्ष भी साध्य है। यद्यपि ये तीनों भी परस्पर सहायक रहते हुए मोक्ष को साध्य बनाते हैं।
४ वैखानस -आगम-
वैखानस आगम विखनस से प्रवर्तित था यह बतला आये हैं। छान्दोग्योपनिषद् के [अर्चियान|अर्चिरादि] प्रकरण में वैखानस पद का शाङ्गकरभाष्य में अर्थ वानप्रस्थी किया गया है। वैखानसगृह्यसूत्र की तात्पर्य चिन्तामणि टीका में दशविधिहेतु निरूपण में बतलाया है कि वैखानसों को श्रीनारायण गर्भ में ही मुद्राधारण करवा देते हैं। जैसे वृक्षों में अश्वत्थ, पशुओं में कपिला गौ, पौधों में तुलसी पवित्र हैं, उसी तरह द्विजों में ब्राह्मण, तथा ब्राह्मणों में वैखानस श्रेष्ठ होते हैं। यथा- “विप्रा वैखानसाख्या ये ते स्मृताः भगवत्प्रियाः । अश्वत्यः कपिलागावस्तुलसी विलनास्तथा । द्विजेषु ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः ब्राह्मणेषु च वैष्णवाः ॥” यद्यपि [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] मत जैसे भगवद्भक्ति का उपदेशक है उसी प्रकार वैखानस भी है किन्तु दोनों में अन्तर भी है। वैखानस पूजन या अर्चा को वैदिक-पूजन कहते हैं तथा [पाश्चरात्र|पाञ्चरात्र] इसे शुद्धपूजन कहते हैं। “पुष्करसंहिता’ के तन्त्रभेदनिर्णय प्रसंग में यह भेद इस प्रकार बतलाया है- “शुद्धच वैदिकवेति तान्त्रिकच त्रिधा भवेत् । [पाश्वरात्रेण|पञ्चरात्रेण] पूजा तु शुद्धं विष्णोरिति स्मृतम् ॥ वैखानसः स्वसूत्रेण पूजयेद् विष्णुमव्ययम् । वैदिकं तदिति प्रोक्तं द्विजातीनां प्रशस्यते ॥” इसके अतिरिक्त इन दोनों में अन्य भेद भी हैं। वैखानस मत में पांच मूर्तियों की अर्चा की जाती है तथा [पावरात्र|पाञ्चरात्र] केवल चार मूर्तियों के चतुर्व्यूह की अर्चना करते हैं। वैखानसमत की पांच मूर्तियां है -श्रीविष्णु, पुरुष, सत्य, अच्युत तथा अनिरुद्ध । [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] मत की मूर्तियां है - वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्धा महाभारत के अश्वमेधिक पर्व में युधिष्ठिर के प्रश्न का वासुदेव ने यह समाधान दिया था- युधिष्ठिर उवाच-कथं त्वमर्चनीयोऽसि मूर्तयः कीदृशाश्च ते । वैखानसाः कथं ब्रूयुः कथं वा [पाश्वरात्रिकाः|पाञ्चरात्रिकाः] ॥ श्रीभगवानुवाच श्रुणु पाण्डव तत्सर्वमर्चनाक्रममात्मनः । स्थितं मां मन्त्रतस्तस्मिन्नर्चयेत् सुसमाहितः । विष्णुच पुरुषं सत्यमच्युतच युधिष्ठिर । अनिरुद्धन्व मां प्राहुर्वैखानसविदो जनाः । अन्ये त्वेवं विजानन्ति मां राजन् [पाश्वरात्रिकाः|पाञ्चरात्रिकाः] । वासुदेवश्च राजेन्द्र सङ्घर्वणमथापि वा । प्रद्युन्नश्वानिरुद्धच चतुर्मूर्ति प्रचक्षते ॥ इति ॥ इन दोनों सम्प्रदायों में श्रीविष्णु की अर्चा का अतिशय महत्वपूर्ण स्थान है। वेदों में यज्ञ को विष्णुरूप कहा गया है - यज्ञोह वै विष्णुः - अतः श्रीविष्णु पूजन भी यज्ञ ही है। दोनों सम्प्रदाय यज्ञ तथा देवालय की समता बतलाते हैं कि यज्ञशाला में अग्निस्थापन है तो देवालय में विष्णुस्थापन है। यज्ञशाला में हिरण्यकलश स्थापन है तो बिम्बपीठ पर रत्नकलश स्थापित रहता है। अग्नि पांच है-गार्हपत्य, आहवनीय, अन्वाहार्य, सभ्य तथा आवसथ्य। विग्रह भी पांच हैं- ध्रुव, कौतुक, उत्सव, स्नपन तथा बलि। जैसे श्रौतकर्म में गार्हपत्य अग्नि से आहवनीय अग्नि को लेते हैं वैसे ही ध्रुव विग्रहसे परमात्मा को कौतुक विग्रह में ले जाया जाता है। जैसा सभ्याग्नि तथा आवसथ्याग्नि को छोड़ कर त्रेताग्नि प्रसिद्ध है वैसे ही कौतुक तथा स्नपन को छोड़ कर शेष तीन ध्रुव, उत्सव तथा बलि विग्रह अधिक प्रसिद्ध हैं। परमेश्वर श्रीविष्णु की अर्चा दो प्रकार से की जाती है-समूर्त अर्चन तथा अमूर्त अर्चन । इनमें समूर्त अर्चन विग्रहों में तथा अमूर्त अर्चन होमादि यज्ञ में विष्णु की रखी जाती है। यहां भी स्वार्थ अर्चना स्वगृह में एवं परार्थ अर्चना जगत्-कल्याणार्थ देवालयों में होती है। आहिताग्नि को जैसे अग्नि में आहुति देने का अधिकार रहने पर अनाहिताग्नि पुरुष उसे सामग्री देकर भी वैसा फल प्राप्त कर सकता है वैसे ही अर्चना के अनधिकारी व्यक्ति अधिकारी व्यक्ति को विग्रह के लिये पूजन सामग्री आदि उपकरण प्रस्तुत कर स्वपुण्य फलप्राप्ति करते हैं। देवालय इसी उद्देश्य से हैं कि सभी देवार्चन अथवा यज्ञ के फल को प्राप्त कर सकें। जैसे यज्ञ में पचानि होती हैं उसी प्रकर वैखानस मत के अनुसार देवालय मे पांच विग्रह होते हैं। यथा-ध्रुव, कौतुक, उत्सव, स्नपन तथा बलि। ये पाँच विग्रह वैखानस सम्प्रदाय में मान्य हैं। [पाञ्चरात्र|पाञ्चरात्र] सम्प्रदाय में छः विग्रह तथा अर्चा मान्य है। ये हैं-धुवार्चा, कर्मार्चा, उत्सवार्चा, बल्यर्चा, तीर्थार्चा तथा शयनार्चा। इनके अन्य नाम हैं- कर्मार्चा, बल्यर्चा, यात्रार्चा, कृत्रिमालयार्चा, यागार्चा तया स्नानार्चा। परमेश्वर का विग्रह अचल तथा चल माना जाता है अतः अचल के पूजनार्थ ध्रुव विग्रह स्थापित करते हैं। इन विग्रहों के नाम से इनका प्रयोजन भी अभिव्यक्त होता है। समग्र संवत्सर में अनेक उत्सव रहते हैं जिनमें प्रभु देवालय से बाहर भी गजवाहन, गरुड़ वाहन आदि दशाओं में यात्रा आदि रूप में जाते हैं तदर्थ उत्सव विग्रह होता है। इसी प्रकार स्नान, बलि तथा शयन के लिये भी पृथक् पृथक् तत्तद् विग्रह नियत होते हैं। [नपन|स्नपन] विग्रह में पूजा के समय ध्रुववेर से कुश के द्वारा सम्बन्ध स्थापित कर [अपन|स्नपन] विग्रह में प्रभु की प्रतिष्ठा कर स्नानार्चन के बाद पुनः ध्रुववेर में स्थापित करने की विधि होती है। ध्रुववेर प्रधान होता है तथा चार या पांच वेर ध्रुववेर सें पूर्वादिक्रम से स्थापित की जाती है। ये वेर या विग्रह तीन प्रकार के माने जाते हैं-चित्र, चित्रार्थ तथा चित्राभासा जो विग्रह अपने मान, प्रमाण, उन्मान, परिमाण, उपमान तथा लम्बमान से युक्त हो वह चित्रबिम्ब या चित्रवेर है । इस बिम्ब में प्रभु के सभी अवयव दृश्य होते हैं तथा यह बिम्ब लौकिक तथा पारलौकिक सभी फलों का प्रदान करनेवाला होता है। चित्रार्थ में सर्वावयव अर्द्धदृश्य होते हैं अतः यह बिम्ब केवल लौकिक फलों का प्रदाता होता है। चित्राभास वह है जिसमें ऊंचाई और लम्बाई के मान पर अधिक विचार न रखते हुए वस्त्र, काष्ठफलक या भित्ति पर अंकित किया जाता है। पुनः ये विग्रह वैखानसों के मत में तीन तथा [पाश्चरात्रों|पाञ्चरात्रों] के मत में चार प्रकार की स्थिति के कारण चार प्रकार के होते हैं। खड़ीमूर्ति, आसनबद्ध या बैठी हुई मूर्ति तथा शयानमूर्ति। ये तीन भेद वैखानस मानते हैं। इन भेदों के साथ [पांचरात्र|पाञ्चरात्र] में यानग या वाहन पर स्थिति वाले विग्रह का चौथा भेद माना गया है। ये सभी विग्रह भोग, योग [नीर|वीर] तथा अभिचारिक भेद से प्रत्येक की एक दूसरे से भिन्नता रखते हैं। [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] ग्रन्थों में इन भेदों के अतिरिक्त कुछ विशेष भेदों की कल्पना भी की गई है जिन्हें विस्तार भय से यहाँ नहीं दिया जा रहा है, उन्हें यथास्थान जिज्ञासु तथा विशेषार्थ के अन्वेषकजन तत्तत् स्थानों पर शास्त्रग्रन्थों का अवलोकन करें। इसमें कामना भेद से तत्तद् विग्रहों की अर्चा की स्थिति मानी गयी है। यज्ञों से होनेवाले अर्थव्ययों तथा असुविधाओं को ध्यान में रखकर वैखानस तथा [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] आगमों में जगत्हितार्थ तथा कामनापूर्ति एवं उद्दिष्टफलों की उपलब्धि के लिये विग्रहार्चन का विधान अधिकरूप से किया जाता है जिनकी विधियां इन आगमों के अनुगत पद्धतिग्रन्थों में विद्यमान हैं तथा उनके प्रयोगों का समय समय पर अर्चा में उपयोग किया जाता है जिनका ज्ञान सम्बद्ध आचार्य रखते हैं।
५ [नारदपश्वरात्र|नारदपञ्चरात्र]-
पिछले पृष्ठों में [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] - आगम की चर्चा की जा चुकी है । " नारद [पश्ञ्चरात्र|पञ्चरात्र]” का वैष्णवआगम के अन्तर्गत एक विशिष्ट स्थान तो है ही इसकी गणना भी प्राचीनतम आगमग्रन्थों में की जाती है। इतिहास के विद्वानों के मत में श्रीमद्भागवत ग्रन्थ ही इससे प्राचीन माना गया है जिसकी तात्विक रूप में भक्तिसिद्धान्त के साथ अर्चादि विधानादि से संयुक्त [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम में शास्त्रीय स्थिति को दिखलाया गया था। इसमें सर्वाधिक बल श्रीवासुदेव की दास्य-भक्ति तथा इसी से मुक्ति की प्राप्ति पर दिया गया है। इसके प्रतिपाद्य विषयों में श्रीकृष्ण, श्रीगोपाल तथा श्रीराधा की प्रशस्ति, इनकी अर्चा तथा इन्हीं के आगमोक्त सहस्रनाम, कवच तथा न्यास आदि का विधान दिखलाया गया है। इसकी मान्यता है कि श्रीकृष्ण की आराधना के बाद भक्त को सभी पदार्थों की प्राप्ति संभव है। इसमें भगवान् शिव के द्वारा दिये गये नारद को उपदेश तथा मन्त्र आदि में श्रीकृष्ण की आराधना को मोक्षप्राप्ति का परम साधन निरूपित किया गया है। नारद स्वयं इस [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] आगमग्रन्थ का उपक्रम इस प्रकार करते हैं- “वेदेभ्यो दधिसिन्धुभ्यः चतुर्थः सुमनोहरम् । तज्ज्ञानमन्थदण्डेन सन्निर्मथ्य नवं नवम् । नवनीतं समुद्धृत्य नत्वा शम्भोः पदाम्बुजम् ॥ विधिपुत्रो नारदोऽहं [पञ्चरात्रं|पञ्चरात्रं] समारभे ॥ ( ना० प० रात्रि । अ० १ / १०-११ ) यह कथन इस शास्त्र की समृद्ध एवं प्रामाणिकता को दिखलाने के साथ साथ नारदप्रोक्त स्थिति की ओर भी संकेत करता है। [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] पद की व्याख्या भी इसमें स्वयं ग्रन्थकार ने ही की है। यथा- “[रात्रश्व|रात्रश्च] ज्ञानवचनं ज्ञानं पञ्चविधं स्मृतम् । तेनेदं [पञ्चरात्रश्व|पञ्चरात्रञ्च] प्रवदन्ति मनीषिणः । ज्ञानं परमतत्वश्व मृत्युञ्जयञ्जरापहम् ॥ ( रा० । अ० १/४४-४५ ) इस प्रकार रात्र पद की व्याख्या के साथ [पश्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम की परम्परा में इस शास्त्र के अनेक ग्रन्थों का विवरण दिया है। तदनुसार इस शास्त्र के सात शास्त्रकर्तागण मान्य हैं। यथा- ब्राह्मं शैवन्ध कौमारं वासिष्ठं कापिलं परम् । गौतनीयं नारदीयमिदं सप्तविधं स्मृतम् ॥ ( वही 1/- ५७ ) इस विवरण के अनुसार इस [पन्चरात्र|पञ्चरात्र] शास्त्र के छः अन्य शास्त्रकर्ता भी हैं जिनके इस वैष्णव आगम पर ग्रन्थ हैं। प्रकृत ग्रन्थ इन छः ग्रन्थों के अनुशीलन की भी सूचना देता है। इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम नारद को एक देववाणी का श्रवण होता है जिसमें श्रीहरि की उपासना का कार्य ही सर्वोपरि कहकर उसे प्राप्त करने की प्रेरणा दी गयी- “आराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् नाराधितो यदि हरिस्तपसा ततः किम् । अन्तर्वहिर्यदि हरिस्तपता ततः किन् नान्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा ततः किम् ॥ विरम विरम ब्रह्मन् किं तपस्यासु वत्स व्रज व्रज द्विज शीघ्रं शङ्करं ज्ञानसिन्धुम् । लभ लभ हरिभक्तिं वैष्णवोक्तां सुपक्वाम् भवनिगड़निबद्वच्छेदिनों कर्त्तनीश्च ॥ ( ना० प० रात्रि | / अ० २ / ६-७ ) इस देवी कथन को सुनकर नारद अपने पिता सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के समीप इसकी व्याख्या हेतु जाते हैं। वहां वह सनत्कुमार तथा ब्रह्मा को इन दो श्लोकों को सुनाता है। ब्रह्मा ने इनकी व्याख्या करते हुए नारद को शंकर से दीक्षा लेकर वैष्णव अर्चा आदि की पारम्परिक विधि का पालन कर भक्ति की चरितार्थता का रहस्य बतलाया तथा नारद ने भी तदनुसार बड़ी साधना के बाद भगवान् शिव से उपदेश में एकान्ती श्रीविष्णु की भक्ति का तत्व प्राप्त किया। नारद [पश्ञ्चरात्र|पञ्चरात्र] ग्रन्थ में पांच रात्र या खण्ड हैं जिनमें प्रथमरात्र में पन्द्रह, दूसरे में आठ, तीसरे में पन्द्रह, चौथे में ग्यारह तथा पांचवे में ग्यारह अध्याय हैं। इनमें वैष्णव धर्म तथा उसके आदिदेव श्रीविष्णुरूप वासुदेवकृष्ण तथा श्रीराधा के तात्विक आराधना का विस्तार से विवरण रखा गया है। इसमें अपना पक्ष प्रस्तुत करने तथा उसे परमोयोगी एवं हितावह दिखलाने की भावना से आस्था जाग्रत करने के लिये ही अन्य देवों तथा धर्मों की उपासना प्रक्रिया की समीक्षा रखी है, जिसे किसी अन्य देव तथा उनकी उपासना पर प्रहार नहीं समझना चाहिए। [पाश्वरात्र|पञ्चरात्र] - आगम के ग्रन्थों में नारदपञ्चरात्र मध्यमणि की तरह महत्वपूर्ण स्थान पर विद्यमान है।
६ भारद्वाजसंहिता
[पाञ्चरात्रआगम|पञ्चरात्रागम] की अतिसमृद्ध ग्रन्थ सम्पत्ति रहने से इसकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। यह ग्रन्थ नारदपञ्चरात्र का वार्तिक भूत परिशिष्ट है जिसमें चार अध्याय हैं तथा इन्हीं चार अध्यायों की शेषभूत तात्विक व्याख्या को परिशिष्ट में देकर इस शास्त्र की समग्र पूर्ति की गई है। भारद्वाजसहिता में विद्यमान द्वितीय अध्याय थोड़ा ही है तथा ऐसा माना जाता है कि यह भाग अब प्राप्य नहीं है। हमने भी भारत के मुख्य मुख्य तथा प्रामाणिक हस्तलिखित ग्रन्थों के पुस्तकालयों में खोजने पर तथा उनके सूची ग्रन्थों में देखने पर भी उक्त द्वितीय अध्याय की पूर्ण प्रति नहीं देखी। अतः श्रीवेङ्कटेश्वर प्रेस की पहिले मुद्रित प्रति के पाठ को लेकर ही सम्पादन तथा हिन्दी व्याख्या का कार्य सम्पन्न किया। आगम परम्परा में [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] के प्रवर्तक मुनियों में सनत्कुमार नारदादि ब्रह्मपुत्रों से इस आगम का ज्ञान भारद्वाज मुनि ने प्राप्त किया था जो पांच मुनियों में एक थे तथा इसी कारण यह [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] कहलाया इसे पूर्व में बतला चुके हैं। इसी क्रम में [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] के कुछ अनुन्मीलित उपासनादि के तत्वों की साधकादि भक्तों के लिये “भारद्वाजसंहिता " में चर्चा है जो नारद[पश्चरात्र|पञ्चरात्र] (ग्रन्थ) में नहीं है। इसी कारण यह संहिता वार्तिक के समान आदर पा रही है। इसके भी परिशिष्ट में चारों अध्यायों के चर्चित तथ्यों पर और विवेचन है जो संहिता में संक्षेप में दिखलाया गया था। भारद्वाज संहिता के प्रथमाध्याय में मुख्यरूपसे न्यासयोग या भगवत्प्रपत्ति को ईश्वर की प्राप्ति तथा मोक्ष के लिये परमोपयोगी दिखलाकर शिष्य या साधक को न्यासयोग की दीक्षा प्रदान करने की विधि तथा वृत्ति आदि का विस्तार से विवरण दिया गया है। इस क्रम में इस दीक्षा तथा उपासना के लिये अधिकारी सभी वर्ण तथा स्त्री, शूद्र, म्लेच्छ आदि जातियों को भी मान्य किया गया है जो सभी तन्त्र एवं आगम परम्परा का अनुसरण करने वाला मत है। इन सभी के लिये दीक्षाप्रदाता गुरु पात्रानुरूप वैदिक, तान्त्रिक तथा भाषा मन्त्रों में से उपयुक्त मन्त्र का उपदेश देकर उन्हें श्रीहरि की प्रपत्ति अथवा न्यासयोग की दीक्षा सम्पन्न करवाता है। इसी क्रम में द्वितीयाध्याय में प्रपत्ति के अंगों की विवृत्ति है परन्तु परम्परा में द्वितीयाध्याय लुप्त है। तृतीयाध्याय में न्यासयोग प्राप्त कर लेने वाले आराधक के अर्चा तथा अन्य दैनिक तथा नैतिक कार्यों तथा विधानों का विवरण है तथा उसके द्वारा मुद्रा तप्त चक्रादि के अंकन तथा ऊर्ध्वयुण्ङ्ग धारण की विधि बतलायी गई है जिससे भक्ति में परिनिष्ठता आ सके । चतुर्थाध्याय में आराधक के लिये वृत्ति तथा उसके अंगों का विस्तार से विवरण दिया गया है। ‘भारद्वाज-संहिता के इन चारों अध्यायों पर परिशिष्ट के चार अध्याय और लगाये गये हैं जिनमें चारों अध्यायों में उपदिष्ट तत्वों के विषय में छोड़े गये तात्विक विवरणों को लेकर [पाश्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम की परम्परा तथा रहस्यों का स्पष्टीकरण किया गया है। वैष्णव परम्परा में [पाञ्चरात्र|पञ्चरात्र] आगम को दिव्यशास्त्र माना गया है तथा इसका श्रवण तथा अनुचिन्तन उपासक को अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि वैराग्य, ज्ञान तथा भक्ति के परिपाक के द्वारा ही परमेश्वर की प्राप्ति तथा मुक्ति मिलती है। इस ग्रन्थ की इस प्रकार संक्षिप्त चर्चा के साथ प्रकृत ग्रन्थ के अध्ययन तथा चिन्तन की ओर स्वतः प्रवृत्ति बनकर उपासकों एवं पाठकों का इस शास्त्र में प्रवेश होगा ऐसी आशा है।
७ प्रकृत संस्करण
नारदपञ्चरात्र- भारद्वाजसंहिता का वैष्णव आगम के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान था परन्तु यह ग्रन्थ पूर्व में भी खेमराज श्रीकृष्णदास के वेङ्कटेश्वर प्रेस द्वारा प्रकाशित होकर लगभग तीस वर्षों से अनुपलब्ध रहा । जब इस ग्रन्थ का मुद्रण हुआ था उस समय वह संस्कृत भाषा में छपा था। इतने वर्षों के अन्तराल के पश्चात् इस ग्रन्थ की पुनः प्रकाशन की योजना पुनः प्रकाशक ने ऐसी बनाई कि हिन्दी व्याख्या के साथ यह ग्रन्थ प्रकाशित होकर सर्वजन हितार्थ [वनें|बनें]। यह कार्य करने का प्रकाशक का प्रस्ताव मैंने सहर्ष स्वीकार कर इस ग्रन्थ पर “तत्वप्रकाशिका” नामक हिन्दी व्याख्या तैयार की तथा अपेक्षित टिप्पणी तथा श्लोकानुक्रमणिका आदि के साथ “प्रस्तावना” से युक्त करते हुए यह ग्रन्थ प्रस्तुत कर दिया। प्रस्तावना भाग में इस शास्त्र के ऐतिहासिक तथा अन्य सभी पक्षों की चर्चा रखकर अनुशीलन कर्ताओं की अपेक्षा की पूर्ति के साथ अब यह प्रकाशित करवाया जा रहा है। इससे सुधीजन अवश्य संतुष्ट होंगे यही आशा है।
८ आभार
सर्वप्रथम नारदपञ्चरात्र तथा भारद्वाजसंहिता के अनुसन्धान अनुशीलन में सहायता करने वाले पञ्चरात्र आगम के विविध ग्रन्थों के रचयिताओं, सम्पादकों तथा ग्रन्थकारों का आभार मानता हूँ जिनके कारण प्रकृत ग्रन्थ इस रूप को प्राप्त कर सका। इसके हिन्दी व्याख्यादि के लेखनक्रम में [सहायत|सहायता] करने के प्रसंग में मैं अपने मित्र डॉ० रुद्रदेवजी त्रिपाठी प्रकाशन सम्पादन तथा अनुसन्धान अधिकारी, ब्रजमोहन बिड़ला शोध केन्द्र, उज्जैन का आभार मानता हूँ। कालिदास अकादमी के सञ्चालक श्री प्रोफेसर श्रीनिवास “रथ” का भी इस ग्रन्थ के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में सहायक [वन|बन] प्रेरित करने के साथ साथ प्रकाशन तक के कार्य में योगदान के कारण आभारी हूँ। कालिदास अकादमी परिवार के डॉ० जगदीश शर्मा, अनुसंधान सहकारी का तथा टंकण कार्य में सहायता के कारण श्री अवधेश श्रीवास्तव तथा श्री आर० जे० पानड़ीवाल का भी आभार मानता हूँ। इस ग्रन्थ को अपने प्रकाशनक्रम में लगाकर शीघ्र मुद्रणादि कार्य पूर्ण करवाने के कारण सर्वप्रथम श्रीमुरलीधरजी बजाज, स्वामी खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन बम्बई का तथा इसी प्रतिष्ठान के व्यवस्थापक भाई श्री ऋषिकेश शर्माजी का भी हृदय से आभारी हूँ। मुद्रणादि कार्य में रुचि लेकर समय पर कार्य पूर्ण करने के लिये बेङ्कटेश्वर प्रेस के सभी कर्मचारियों का भी आभारी हूं। उज्जैन के बालाजी पुस्तकालय के व्यवस्थापक श्रीतरुणकुमार गर्ग का मैं किन शब्दों में आभार मानूं। इसके साथ मुद्रण की या विवेचन के क्रम में रहनेवाले स्खलनों के लिये विनम्र क्षमाप्रार्थना के साथ सभी विद्वज्जन एवं पाठकों को प्रकृत ग्रन्थ को अपनाकर सहृदयता के साथ अनुग्रह रखने की साग्रह प्रार्थना करता हूँ। आशा है इस ग्रन्थ का वे पूरी तत्परता से स्वागत करेंगे। सुधीजन से निवेदन के इस पद्य के साथ इस प्रकृत कथन का उपसंहार करता हूँ। “इह प्रमादान्मति - विभ्रमाद्वा भवेत् क्वचिन्मे स्वलितं बुधैस्तत् । संशोधनीयं कृपया यदीशादन्यो न सर्वज्ञपदं प्रयाति ॥” इति निवेदक: विदुषां वशंवदः बाबूलाल शुक्ल, शास्त्री, हिन्दी व्याख्याकारः सम्पादकक्ष
७ नारदपञ्चरात्र भारद्वाजसंहिता विषयानुक्रमणिका
| विषय | श्लोक संख्या | पृष्ठ |
|---|---|---|
| न्यासोपदेशो नाम प्रथमोऽध्यायः | १-१०० | २५-४६ |
| ऋषिगण का भारद्वाज मुनि से धर्मविषय प्रश्न | १-२ | २५-२५ |
| भारद्वाजमुनि द्वारा न्यासयोग का कथन तथा विवरणादिवर्णन | ३-७ | २६-२७ |
| भगवत्प्रपत्तिरूप न्यास का माहात्म तथा प्रतिपाद्य विषय- | ८-२७ | २७-३१ |
| प्रपत्ति के गुणानुगत प्रभेद महत्ता एवं फल | २८-३२ | ३१-३२ |
| न्यासदीक्षाप्रदाता आचार्य एवं उनका लक्षणादिविवरण | ३३-५९ | ३२-३८ |
| शिष्य या साधक को प्रदेय मन्त्र तथा उसके कर्मादि की मीमांसा तथा प्रपत्तिस्वरूप- | ६०-७० | ३८-४० |
| वृत्ति का स्वरूप सम्बन्ध एवं प्रभेद | ७१-८९ | १६-२० |
| वृत्ति काल के मध्य आनेवाले दोष तथा दुरितादि | ९०-१०० | ४४-४६ |
| प्रपत्तिधर्मादिनिरूपणो नाम द्वितीयोऽध्यायः | १-१ | ४७ |
| न्यासोपदेशो नाम तृतीयोऽध्यायः | १-१०० | ४८-६७ |
| दीक्षित साधक द्वारा इष्टाराधन कर्म तथा सत्सेवन | १-२६ | ४८-५३ |
| इष्टाराधक का आचार तथा उसके द्वारा इसका अन्यों को उपदेश | २७-३५ | ५३-५४ |
| एकान्ती साधक द्वारा साङ्गवेदादि का स्वाध्याय तथा आराधनादि | ३६-४५ | ५४-५६ |
| भक्ति के क्रम में होनेवाली आराधनादि विधानादि | ४६-५८ | ५७-५९ |
| दीक्षाक्रम में शिष्य को चक्राद्यङ्कन संस्कार, उसके आचार एवं प्रयोजन का विवरण | ५९-८१ | ५९-६३ |
| सत्सेवन एवं उसके विधानादि | ८२-१०० | ६३-६७ |
| न्यासोपदेशो नाम चतुर्थोऽध्यायः | १-१०० | ६८-८७ |
| विहिताचार तथा विरुद्धवर्जनादि का विवरण | १-१६ | ६८-७१ |
| दृष्टि विरोध | १७-२६ | ७१-७३ |
| भक्ति विरुद्धता- | २७-३५ | ७३-७५ |
| लक्ष्य विरुद्धता- | ३६-५७ | ७५-७९ |
| सत्सेवा विरुद्धता | ५६-७९ | ७९-८३ |
| न्यासयोग से प्रपन्न साधक की परिणति तथा न्यासयोग माहात्म्य | ८०-१०० | ८३-८७ |
| परिशिष्टे प्रथमोऽध्यायः | १-१०० | ८८-१०७ |
| भरद्वाजमुनि द्वारा शेष धर्मो का पुनः कथन एकान्ती साधक के शुद्धादि प्रभेद | १-९ | ८८-८९ |
| १०-१५ | ९०-९१ | |
| आराध्य श्रीहरि की अर्चा तथा उसका फल | १६-२६ | ९१-९३ |
| एकान्ती के गुणात्मक प्रभेद तथा लक्षण | २७-३३ | ९३-९४ |
| एकान्ती का विहित आचार तथा वर्जनीय कर्म | ३४-५१ | ९५-९८ |
| एकान्ती का चक्राद्यङ्क धारणादि आचार | ५२-६० | ९८-९९ |
| चक्राद्यडून संस्कार विधान अधिकारी तथा आचार | ६१-६९ | ९९-१०१ |
| इष्टदेव श्रीहरि का अर्चादि विवरण | ७०-८४ | १०१-१०४ |
| एकान्ती द्वारा विरुद्धाचार परिवर्जनादि कर्म | ८५-९२ | १०४-१०५ |
| न्यासयोग की महत्ता | ९३-१०० | १०५-१०७ |
| परिशिष्टे द्वितीयोऽध्यायः | १-१०० | १०८-१२४ |
| साधक को प्रदेय तापादि पञ्चसंस्कार तथा उनका विवरण | १-५२ | १०८-११६ |
| संस्कारों के विहित मुहूर्त्तादि एवं अनुष्ठान | ५३-५६ | ११६-११७ |
| साधक के उपासना के मध्य आने वाले प्रत्यवायादि के हेतु शान्त्यादि कर्म विधान | ५७-१०० | ११७-१२४ |
| परिशिष्टे तृतीयोऽध्यायः | १-१०० | १२५-१४४ |
| सद्वृत्ति तथा एकान्ती के विहित धर्मादि न्यासयोग तथा उसका महत्व | ३७-५३ | १३१-१३४ |
| वृत्ति, सत्सेवन एवं अर्चादि कर्म | ५४-६९ | १३५-१३८ |
| न्यासोपदेष्टा गुरु तथा उपदेशग्रहणादि | ७०-८१ | १३८ - १४० |
| कुदृष्टि एवं ऐसे जन का संवास त्याग का उपदेश | ८१-१०० | १४०-१४४ |
| परिशिष्टे चतुर्थोऽध्यायः | १-९८ | १४५ - १६१ |
| न्यासयोग के उपयुक्त वृत्ति तथा उसका मूलादि | १-२४ | १४५-१४९ |
| विहिताचार तथा उसका स्वरूपादि | २५-३५ | १४९-१५० |
| भक्ति तथा उसके कार्य | ३६-४५ | १५०-१५२ |
| सत्स्वरूप तथा सत्सेवनगत आचार | ४६-७२ | १५३-१५६ |
| अन्य विरोधीशास्त्र, असदाचार का परित्याग तथा वृत्ति का सेवनीय पक्ष- | ७३-९८ | १५७ - १६१ |
नारदपञ्चरात्र-भारद्वाजसंहिता तत्वप्रकाशिकाख्याभिनवहिन्दीव्याख्यया सहिता