हिन्दी - सारः
(२८५) श्राद्धादि लोकाचार -
विवेकज्ञ सिद्ध गृहस्थ के पक्ष में
आमरण प्रयत्नतः रक्षणीय है ।
इस सम्बन्ध में कर्म व्यवस्था द्विविध हैं
(क) श्रीनारदपञ्चरात्रादि के मत में
अन्तयामी भगवद् दृष्टि के द्वारा ही
सर्वाराधन कर्त्तव्य है ।
(ख) विष्णुयामल के मत में -
विष्णु निवेदितान्न द्वारा देवतान्तर की
एवं पित्रादि की आराधना करना विहित है ।
श्रीभगवत् पीठावरण पूजा में
गणेश दुर्गादि भगवत् स्वरूपभूत शक्त्यात्मक भगवत् नित्यसेवक हैं।
श्रुति तन्त्रादि में भी
श्रीकृष्ण-स्वरूप-भूत श्री-मद्-अष्टादशाक्षरादि मन्त्र के
अधिष्ठतृ-देवता रूप में
दुर्गाीनाम्नी भगवद्-भक्त्यात्मक स्वरूपभूत शक्तिवृत्ति विशेष +++(कही गई)+++ है ।
उसकी ही दासीतुल्या मायांशरूपा दुर्गा,
इस प्राकृतलोक में मन्त्र रक्षा लक्षण सेवार्थ नियुक्त है।
मायातीत अप्राकृत वैकुण्ठादि लोक में
दिक्-पालगण भी नित्य अप्राकृत भगवदंश रूप
सर्वत्र गोपवेशधर श्रीहरि देवदेवेश हैं ।
केवल रूपभेद से
नामभेद कथित है ।
अनन्य भक्तगण, विष्वक्सेनादिवत्
विनायकादिका एवं दिक्पालगण का
भागवत् एवं नित्य वैकुण्ठादि के सेवक होने के कारण
सम्मान करे ।
प्रोक्षणादि के द्वारा पूजा करे ।
श्रीहरि के भुक्तावशेष प्रदान उन सबको करे,
एवं तच्छेष द्वारा होम भी करे ।
श्री-नारद-पञ्चरात्रे चैवम् एव श्री-नारायण-वाक्यं श्राद्ध-कथनारम्भे—
हिन्दी
श्रीनारद पञ्चरात्र ग्रन्थ के श्राद्ध कथन के आरम्भ में श्रीनारायण वाक्य भी उस प्रकार ही है ।
नाचरेद् यस् तु सिद्धोऽपि
लौकिकं धर्मम् अग्रतः ।
उपप्लवाच् च धर्मस्य
ग्लानिर् भवति नारदः ॥
हिन्दी
जो सिद्ध महापुरुष होकर भी
प्रथम लौकिक धर्म का आचरण नहीं करता है,
विविध प्रकार उपद्रव से उस की धर्म ग्लनि होती है।
विवेकज्ञैर् अतः सर्वैर्
लोकाचारो यथा-स्थितः ।
आ देह-पाताद् यत्नेन
रक्षणीयः प्रयत्नतः ॥
इति ।
हिन्दी
जो विवेकी हैं, अर्थात् सत् असत् विचार शील हैं, उनके पक्ष में आदेहपात वय्यन्त जिस प्रकार लोकाचार है, प्रयत्न पूर्वक उस की रक्षा करनी चाहिये ।
एतेषां +++(कर्म-मिश्राराधकानां)+++ च द्विविधा कर्म-व्यवस्था +++(देवान्तर-पूजने - सान्तर्यामिता-भावेन, नित्य-किङ्करता-भावेन)+++।
हिन्दी
कर्म मिश्र अर्चन कारी गण को कर्म्म व्यवस्था द्विविध हैं ।
अन्तर्यामिता
श्री-नारद-पञ्चरात्रादौ
अन्तर्यामि-श्री-भगवद्-दृष्ट्यैव सर्वाराधानं विहितम् ।
हिन्दी
प्रथम अन्तर्य्यामि भगवद् दृष्टि से ही
सब की आराधना कर्त्तव्य है ।
श्रीनारद पश्ञ्चरात्रादि में इस प्रकार व्यवस्था है ।
नित्य-किङ्कर-देवाः
+++(किन्तु)+++ विष्णु-यामलादौ तु—
विष्णु-पादोदकेनैव
पितॄणां तर्पण-क्रिया ।
विष्णोर् निवेदितान्नेन
यष्टव्यं देवतान्तरम् ॥
इत्य्-आदि-प्रकारेण विहितम् इति ।
हिन्दी
किन्तु विष्णु यामलादि में लिखित है-
श्रीविष्णु के पादोदक के द्वारा ही
पितृ लोक प्रभृति का तर्पण करना कर्तव्य है ।
एवं श्रीविष्णु निवेदितान्न के द्वारा
देवता वृश्व की आराधना करना कर्त्तव्य है ।
इस प्रकार विधान है ।
ये तु तत्र श्री-भगवत्-पीठावरण-पूजायां
गणेश-दुर्गाद्या वर्तन्ते,
ते हि विष्वक्सेनादिवद्
भगवतो नित्य-वैकुण्ठ-सेवकाः ।+++(5)+++
हिन्दी
श्रीभगवत् पीठ की आवरण पूजा में गणेश दुर्गादि जो देववृन्द हैं,
यह सब विष्वक्सेनादि के समान
श्रीभगवान् के नित्य वैकुण्ठ सेवक हैं ।
स्वरूप-भूत-शक्त्यात्मकाः
ततश् च ते गणेश-दुर्गाद्याः,
ये परे माया-शक्त्य्-आत्मका गणेश-दुर्गाद्याः,
ते तु न भवन्ति,
हिन्दी
अतएव नाम साम्य से गणेशदुर्गादि
माया शक्ति सम्भूत नहीं हो सकते हैं ।
न यत्र माया किम् उतापरे हरेः [भा।पु। २.९.१०]
इति द्वितीयोक्तेः ।
हिन्दी
कारण, भा० २६।१० वैकुण्ठ स्वरूप वर्णन प्रसङ्ग में कथित है-
“न यत्र माया किमुतापरे हरे’
श्रीवैकुण्ठ में माया का अधिकार नहीं है ।
एवं माया शक्ति का कार्य- सत्त्व, रज, तमोगुण भी नहीं है ।
अतएव श्रीशिव दुर्गा प्रभृति देव वृन्द भी
वहाँ पर नहीं हैं।
इस प्रकार उल्लेख होने के कारण,
मायामय श्रीशिव दुर्गादि की
श्रीवैकुण्ठ में स्थिति सर्वथा असम्भव है ।
अथच श्रीभगवान् के पीठ देवता रूप शिव दुर्गादि भी हैं।
ततो भगवत्-स्वरूप-भूत-शक्त्य्-आत्मका एव ते ।+++(5)+++
हिन्दी
अतएव उक्त श्रीशिव दुर्गादि देवतागण
भगवान् के स्वरूप शक्ति स्वरूप हैं ।
यत एव च
श्री-कृष्ण-स्वरूप-भूते श्रीमद्-अष्टादशाक्षरादि-मन्त्र-गणेऽपि
दुर्गा-नाम्नो भगवद्-भक्त्य्-आत्मक-स्वरूप-भूत–शक्ति-वृत्ति-विशेषस्याधिष्ठातृत्वं
श्रुति-तन्त्रादिष्व् अपि दृश्यते,
हिन्दी
कारण, श्रीकृष्ण के स्वरूप से अभिन्न
श्रीमत् अष्टादशाक्षरादि मन्त्र समूह में भी
भगवद् भक्ति की जीवन स्वरूप शक्ति वृत्ति विशेष
दुर्गानामिका अधिष्ठात्री शक्ति है।
श्रुति तन्त्र प्रभृति में यह वृत्तान्त सुप्रसिद्ध है ।
यथा नारद-पञ्चरात्रे श्रुति-विद्या-संवादे—
हिन्दी
नारद पञ्चरात्र के श्रुति विद्या संवाद में उक्त है-
भक्तिर् भजन-सम्पत्तिर्
भजते प्रकृतिः प्रियम् +++(कृष्णम्)+++।
ज्ञायते ऽत्यन्त-दुःखेन
सेयं प्रकृतिर् आत्मनः ॥
+++(अतः)+++ दुर्गेति गीयते सद्भिर्
अखण्ड-रस-वल्लभा ॥
इति ।
हिन्दी
भजन ही ‘सेवा’ जिस की सम्पत्ति है,
इस प्रकार श्रीभगवान् की प्रकृति रूपा भक्ति,
निज प्राणबन्धु श्रीकृष्ण का भजन करती है।
इस प्रकार भगवत् शक्ति भक्ति देवी को
अत्यन्त दुःख से जान सकते हैं ।
इस अभिप्राय से ही
अखण्ड रस वल्लभा उस भक्ति देवी को
महापुरुषगण दुर्गा नाम से कहते हैं।
अत एव श्री-भगवद्-अभेदेनोक्तं गौतमीय-कल्पे—
यः कृष्णः सैव +++(भक्ति-स्वरूपिणी)+++ दुर्गा स्याद्
या दुर्गा कृष्ण एव सः
इति ।
हिन्दी
अतएक गौतमीय कल्प में
इस भक्ति स्वरूपिणी दुर्गा को
श्रीभगवान् के सहित अभेद रूप से कहा गया है ।
“यः कृष्णः सैव दुर्गा स्याद् या दुर्गा कृष्ण एव स.”
जो कृष्ण हैं, वही दुर्गा हैं, जो दुर्गा हैं, वही कृष्ण हैं ।
मन्त्र-रक्षा-नियुक्तिः
त्वम् एव परमेशानि
अस्याधिष्ठातृ-देवता
इत्य्-आदिकं तु विराट्-पुरुष–महा-पुरुषयोर् इव
केषांचिद् अभेदोपासना-विवक्षयैवोक्तम् ।
हिन्दी
अन्यत्र भी कथित है - “त्वमेव परमेशानि अस्याधिष्ठात्री देवता”
अर्थात् “अयि परमेशानि ! तुम्हीं इस मन्त्र की अधिष्ठात्री देवता हो ।”
यहाँपर प्रसिद्ध दुर्गा को सम्बोधन करके कहा गया है।
यद्यपि यह असम्भव है - तथापि -
विराट पुरुष एवं महापुरुष को जिस प्रकार स्थल विशेष में अभेद रूप से कहा जाता है,
उस प्रकार ही जो लोक प्राकृत दुर्गा,
एवं अप्राकृत दुर्गा की उपासना
अभिन्न रूप से करते हैं,
उन के मतावलम्बन से ही
उस प्रकार कहा गया है।
सा हि मायांश-रूपा,
तद्-अधीने प्राकृतेऽस्मिन् लोके
मन्त्र-रक्षा-लक्षण-सेवार्थं नियुक्ता
चिच्-छक्त्य्-आत्मक-+++(भक्ति-स्वरूप)+++दुर्गाया दासीयते,
न तु सेवा+++(=भक्ति)+++ऽधिष्ठात्री1 +++(स्वयम्)+++।
हिन्दी
[[५७७]]
कारण, मायाधीन इस प्रकृत लोक में
मन्त्र रक्षा रूप सेवा हेतु मायांशभूता दुर्गा अधिष्ठिता हैं ।
अर्थात् जो लोक श्रीकृष्ण मन्त्र में दीक्षित होकर
जपादि अथवा मन्त्र देवता की पूजा नहीं करता है,
उस के द्वारा भगवन्-मन्त्र का अनादर होता है,
यह सब मन्त्र रक्षा हेतु
श्रीकृष्ण स्वरूप जगत् में
जो स्वरूप शक्ति स्वरूप श्रीदुर्गा हैं,
उन के द्वारा नियुक्ता होकर
सेविका के तुल्य सेवा करती रहती है,
किन्तु मायामयी दुर्गा,
साक्षात् सेवा करने की अधिष्ठात्री रूपा नहीं हैं ।
वैकुण्ठावरणता
मायातीत-वैकुण्ठावरण-कथने पाद्मोत्तर-खण्डे—
हिन्दी
पद्म पुराण के उत्तर खण्ड में मायातीत वैकुण्ड के आवरण वर्णन प्रसङ्ग में वर्णित है-
सत्याच्युतानन्त-दुर्गा-
विष्वक्सेन-गजाननाः ।
शङ्ख-पद्म-निधी लोकाश्
चतुर्थावरणं शुभम् ॥
हिन्दी
सत्य, अच्युत, अनन्त, दुर्गा, विष्वक्सेन, गणेश, शङ्खनिधि एवं पद्म निधि
यह सब लोक चतुर्थ आवरण के हैं।
ऐन्द्र-पावक-याम्यानि
नैरृतं वारुणं तथा ।
वायव्यं सौम्यम् ऐशानं
सप्तमं मुनिभिः स्मृतम् ॥
हिन्दी
सप्तम आवरण के समस्तदिकों में यह सब किप लवृन्द यथाक्रम से अवस्थित हैं,
पूर्व, अग्नि, दक्षिण, नैऋत, पश्चिम, वायु, उत्तर, एवं ईशान प्रभृति दिक् में
इन्द्र अग्नि, यम, नऋति, वायु, सोम, एवं ईशान प्रभृति, देव वृन्द हैं।
साध्या मरुद्-गणाश् चैव
विश्वेदेवास् तथैव च ।
नित्याः सर्वे परे धाम्नि
ये चान्ये च दिवौकसः ॥
हिन्दी
परव्योम वैकुण्ठ के साध्यगण, मरुद्गण, विश्वेदेवगण, एवं अन्यान्य जितने देववृन्द हैं, यह सब अप्राकृत नित्य हैं ।
ते वै प्राकृत-लोकेऽस्मिन्न्
अनित्यास् त्रिदशेश्वराः ।
ते ह नाकं महिमानः
सचन्त इति वै श्रुतिः ॥
[प।पु। ६.२२८.६०, ६४-६६]
इति ।
हिन्दी
प्राकृत जगत् के स्वर्ग में जो देवगण हैं, वे किन्तु नित्य नहीं ।
ब्रह्मा के एक दिन पर्य्यन्त ही इन की आयु है ।
कारण, श्रुति में भी उक्त है- “ते ह नाकं महिमानः सचन्तः ॥ "
किं च, भगवद्-अंश-स्वरूपा एव ते +++(अप्राकृत-वैकुण्ठावरणस्थाः)+++।
हिन्दी
श्रीभगवद्धाम में जो रहते हैं,
वे श्रीभगवान् के अंशभूत हैं,
यथोक्तं त्रैलोक्य-सम्मोहन-तन्त्रे
अष्टादशाक्षर-षड्-अङ्गादि–देवता-भेद-कथनारम्भे—
हिन्दी
त्रैलोक्य सम्मोहन तन्त्र में
अष्टादशाक्षर मन्त्र के षड़ङ्ग देवतागण के नाम भेद कथन प्रसङ्ग में लिखित है-
सर्वत्र देव-देवोऽसौ
गोप-वेश-धरो हरिः ।
केवलं रूप-भेदेन
नाम-भेदः प्रकीर्तितः ॥
इति ।
हिन्दी
गोपवेशधारी देवादि देव, समस्त देव वृन्द के मध्य में अवस्थित हैं।
केवल रूप भेद से नाम भेद के पक्ष में कल्पित है ।
अतो +++(प्राकृत-देवापेक्षया)+++ नाम-मात्र-साधारण्येन
+अनन्य-भक्तैर् न भेतव्यम् +++(वैकुण्ठावरणस्थ-देवार्चने)+++।+++(5)+++
हिन्दी
अर्थात् साधारण देवता के तुल्य नाम भेद होने के कारण,
अनन्य भक्त वृन्द विभीषिका का कोई कारण नहीं है ।
सत्कार्यता
किन्तु भगवतो नित्य-वैकुण्ठ-सेवकत्वाद् विष्वक्सेनादिवत् सत्-कार्या एव ते,
हिन्दी
किन्तु भगवान् के नित्य वैकुण्ठ सेवक होने के कारण,
विष्वक्सेनादि के समान उन सब को सम्मान करना ही चाहिये ।
यस्यात्म-बुद्धिः कुणपे त्रि-धातुके [भा।पु। १०.८४.८]
इत्य्-आदौ,
हिन्दी
भा० १६४।१३ में उक्त है - ’ यस्य त्मबुद्धिः कुणपे विधातुके”
प्रभास तोर्थ में समागत मुनिवृन्द को लक्ष्य करके
श्रीकृष्ण कहे थे,
जिस की वात पित्त श्लेष्मा यह त्रिधातुमय कुत्सित् देह में आत्म बुद्धि है,
स्त्री पुत्र प्रभृति में निज जन बुद्धि है,
भूमि विकार स्वरूप साधारण प्रतिमा प्रभृति में पूज्य बुद्धि है,
साधारण जल में तीर्थ बुद्धि है,
किन्तु कभी भी भगवत् तत्त्वाभिज्ञ जन के प्रति
पूज्य बुद्धि नहीं है,
इस जगत् में वही चतुष्पद के मध्य में गधा है ।
अर्चयित्वा तु गोविन्दं
तदीयान् नार्चयेत् तु यः [प।पु। ६.२५३.१७७]
इत्य्-आदि-पाद्मोत्तर-खण्ड-वचनेन
तद्-असत्-कारे दोष-श्रवणात् ।
हिन्दी
इस प्रकार पाद्मोत्तर खण्ड के वचन में दृष्ट होता है
“अर्चयित्वा तु गोविन्दं तदीयान्नाच्चयेत्तु यः "
श्रीकृष्णकी अर्चना करके
उनके भक्त जनकी अर्चना जो नहीं करता,
उस का श्रीगोविन्दार्चन व्यर्थ होता है।
इस प्रकार श्रीकृष्ण की अर्चना करके भी
यदि उनके परिकरों का अर्चन नहीं करता है
तो दोष होता है,
अतएव श्रीकृष्णाचर्च्चन के सहित यह सब देव वृद की अच्चन करना अवश्य कर्तव्य है ।
अतस् तान् एवोद्दिश्याह—
दुर्गां विनायकं व्यासं
विष्वक्सेनं गुरून् सुरान् ।
स्वे स्वे स्थाने त्व् अभिमुखान्
पूजयेत् प्रोक्षणादिभिः ॥ [भा।पु।११.२७.२९]
हिन्दी
[[५७६]]
अतएव भगवत् पीठस्थ देवता गण को लक्ष्य करके भा० ११/२७१२६ में उक्त है-
दुर्गा, गणेश, व्यास, विष्वक्सेन, श्रीगुरुदेव एवं अन्य देव वृन्द का अर्चन,
भगवान् के वाम, दक्षिणादि जिस जिस दिक् में जिन की स्थिति है,
उस उस स्थान में उन को रखकर पाद्यादि के द्वारा करे ।
एवं अर्च्चन के समय चिन्तन करना पड़ेगा कि
उक्त देवतावृन्द श्रीभगवान् के ओर मुख करके उपदिष्ट हैं।
पाद्मोत्तर-खण्ड एव च—
हिन्दी
पाद्मोत्तर खण्ड में लिखित है-
तस्माद् अवैदिकानां च
देवानाम् अर्चनं त्यजेत् ।
स्वतन्त्र-पूजनं यत्र
वैदिकानाम् अपि त्यजेत् ॥
हिन्दी
अतएव वेद में अप्रसिद्ध देव गण का अच्चन न करे । अर्थात् जो सब देवता अवैदिक हैं, शुद्ध भक्त गण कभी भी उनकी पूजा न करे ।
वेद प्रसिद्ध देव गण को भी स्वतन्त्र अर्थात् पृथक् ईश्वर बुद्धि से अर्च्चना न करे ।
अर्थात् पञ्चदेवोपासना की दुर्गा पूजा में दुर्गा प्रधान आराध्य हैं, एवं अन्यान्य देव गण, तथा श्रीविष्णु आवरण में पूजित होते हैं, गणेश पूजन में गणेश प्रधान रूप में पूज्य हैं, एवं विष्णु प्रभृति आवरण देवतारूप में पूजित होते हैं।
इस प्रकार स्वतन्त्र भाव से
स्वतन्त्र रूप से
देवतान्तर की पूजा
विशुद्ध भक्ति का अत्यन्त विघातक है।+++(5)+++
अर्चयित्वा जगद्-वन्द्यं
देवं नारायणं हरिम् ।
तद्-आवरण-संस्थानं
देवस्य परितो ऽर्चयेत् ॥
हिन्दी
किन्तु जिस पूजा में श्रीविष्णु प्रधान हैं,
वहाँ अन्यान्य देव वृन्द की पूजा करने से
विशुद्ध भक्ति का बाधक नहीं होता है,
प्रत्युत पूजा न करने से ही श्रीविष्णु अप्रसन्न होते हैं ।
उस का क्रम प्रदर्शन करते हैं-
जगदाराध्य भगवान् श्रीनारायण श्रीहरि की पूजा करके,
उनके आवरण में संस्थित देव वृन्द की उन के चतुर्दिक में
क्रम पूर्वक पूजा करे।
हरेर् भुक्तावशेषेण
बलिं तेभ्यो विनिक्षिपेत् ।
होमं चैव प्रकुर्वीत
तच्-छेषेणैव वैष्णवः ॥
[प।पु। ६.२५३.१०३-६]
इत्य्-आदि ।
हिन्दी
श्रीहरि के भुक्तावशेष अर्थात् श्रीभगवत् प्रसाद अर्पण
उन सब को करे,
एवं उक्त भगवत् प्रसाद द्वारा वैष्णव होम भी करे ।
॥ ११.२७ ॥ श्री-भगवान् ॥ २८५ ॥
हिन्दी
श्रीभगवान् कहे थे ॥ २८५॥
-
सैवाधिष्ठात्री (क, ग) ↩︎