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अथ प्रकृतम् अनुसरामः ।1

हिन्दी

अनन्तर प्रकरण प्राप्त विचार्य्य विषय का अनुसरण करते हैं ॥

तद् एवं योग-त्रयं तद्-अधिकार-हेतूंश् चोक्त्वा
कर्मणोऽपि यथा भगवत्-सम्मुख्य-रूपत्वं स्यात्, तथाह—

हिन्दी

कर्म, ज्ञान, एवं भक्ति योग रूप साधन का विवरण कह कर,
उक्त साधनों के अधिकारी कौन कौन होते हैं,
उस को कहने के पश्चात्
काम्य कर्माचरण भी किस प्रकार भगवत् साम्मुख्य का उपयोगी हो सकता है,
उस का विवरण, भा० ११ २०१०-११ के द्वारा प्रस्तुत करते हैं-

स्व-धर्म-स्थो यजन् यज्ञैर्
अनाशीः-काम उद्धव ।
न याति स्वर्ग-नरकौ
यद्य् अन्यन् न समाचरेत्
अस्मिन् लोके वर्तमानः
स्व-धर्म-स्थोऽनघः शुचिः ।
ज्ञानं विशुद्धम् आप्नोति
मद्-भक्तिं वा यदृच्छया ॥
[भा।पु। ११.२०.१०-११]

हिन्दी

उद्धव को श्रीभगवान् कहे हैं-

हे उद्धव ! स्वधर्म में अर्थात् निज निज वर्ण एवं आश्रमोचित धर्म पालन पूर्वक
निष्काम भाव से यज्ञ के द्वारा
यज्ञेश्वर मेरी आराधना करने से
स्वर्ग वा नरक गमन नहीं होगा,
यदि निषिद्ध आचरण एवं शास्त्र विहित धर्म का अतिक्रम नहीं करता तो,
वर्त्तमान शरीर में रहकर
निष्पाप भाव से धर्मानुष्ठान करते करते
विशुद्ध ज्ञान लाभ होता है ।
एवं यदृच्छाक्रम से अर्थात् साधुसङ्ग से
मुझ में भक्ति लाभ भी कर सकता है ।

टीका च—

अनाशीः-कामो ऽफल-कामः ।
अन्यन् निषिद्धं काम्यं च ।
नरक-यानं हि द्विधैव भवति—
विहितातिक्रमाद् वा, निषिद्धाचरणाद् वा ।
अतः स्व-धर्म-स्थत्वान् निषिद्ध-वर्जनाच् च
नरकं न याति,
अफल-कामत्वान् न स्वर्गम् अपीत्य् अर्थः ।
किन्त्व् अस्मिन् लोके अस्मिन्न् एव देहे ।
अनघो निषिद्ध-परित्यागी ।
अतः शुचिर् निवृत्त-रागादि-मलः ।
यदृच्छयेति केवल-ज्ञानाद् अपि भक्तेर् दुर्लभतां द्योतयति ॥

इत्य् एषा ।

हिन्दी

उस श्लोक में श्रीधर स्वामिपाद कृत टीका की व्याख्या इस प्रकार है-

अनाशीःकामः, फलाकाङ्क्षारहितः, अन्यत् निषिद्धाचरणम् ।

अर्थात् निषिद्धाचरण न करके निष्काम भाव से यज्ञ के द्वारा
यज्ञेश्वर मेरी आराधना करने पर
स्वर्ग एवं नरक में गमन नहीं होगा ।
कारण, मनुष्य दो प्रकार से नरक गमन करते हैं,
एक प्रकार निषिद्ध आचरण करके
अपर प्रकार शास्त्र विहित कर्मानुष्ठान न करके ।
अतएव स्वधर्म आचरण में प्रवृत्त,
एवं निषिद्ध त्यागी होने के कारण,
नरक गमन नहीं होता है ।
एवं कामना शून्य होने के कारण,
स्वर्गगमन भी नहीं होता है ।
किन्तु वर्तमान शरीर में ही निषिद्ध परित्यागी होने के कारण
शुचि अर्थात् पवित्र है,
भोगादि में आसक्ति शून्य है ।
इस प्रकार व्यक्ति विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी है ।

केवल ज्ञान से भी भक्ति की दुर्लभता को कहते हैं,
उस प्रकार अधिकारी का यदि साधुसङ्ग लाभ होता है,
तो मेरे (श्रीकृष्ण) चरणों में भक्ति हो सकती है ।

अत्राफल-कामत्वं केवलेश्वराज्ञा-बुद्ध्या कुर्वाणत्वम् ।

हिन्दी

यहाँपर ज्ञातव्य यह है कि -
कामना शून्य होकर कर्म करने का अर्थ है -
केवल ईश्वराज्ञा बुद्धि से कर्मानुष्ठान करना,
अर्थात् अपर किसी प्रकार उद्देश्य से प्रेरित न होकर
केवल मात्र परमेश्वर के आदेश बुद्धि से कर्मानुष्ठान करने का नाम ही निष्काम कर्म है।

अत्र ज्ञानि-सङ्गे सति
तन्-मात्रत्वम् एव भगवद्-अर्पणं भवेत् ।

हिन्दी

यदि उस प्रकार अधिकारी को ज्ञानी महत का सङ्ग होता है तो भगवदाज्ञाबुद्धि से कर्माचरण करने पर भी
उक्त कर्म ईश्वर को अर्पण करना पड़ता है ।

भक्त-सङ्गे तु तत्-सन्तोषमयत्वम् ।

हिन्दी

और यदि भक्त महत् का सङ्ग हो जाता है तो,
भगवत् सन्तोषार्थ कर्मानुष्ठान ही
निष्काम कर्म होता है ।

अतो यदृच्छया इति
पूर्ववद् भक्त-सङ्ग–तत्-कृपा-लक्षणं भाग्यं बोधितम् ।

हिन्दी

यहाँ मूल श्लोक में “यदृच्छया” पद का उल्लेख है ।
उस का अर्थ है -
“यदृच्छया मत् कथादौ” १७१ अनुच्छेद में लिखित
भा० ११।२० अध्याय के श्लोक की व्याख्या में उक्त भक्त्यङ्ग
एवं तत् कृपा जनित भाग्य को ही जानना होगा।

अर्थात् पूर्वोक्त कर्माधिकारी व्यक्ति का
यदि ज्ञानो महत् का सङ्गलाभ होता है
तो विशुद्ध ज्ञान लाभ से
वह धन्य होगा,,

और भक्त महत् का सङ्ग लाभ होने से
श्रीकृष्ण स्वरूप मुझमें भक्ति प्राप्तकर
कृतार्थ हो सकता है।

यद् उक्तम्

“एतावानेव यजताम्
इह निःश्रेयसोदयः । (भगवत्य् अचलो भावो
यद् भागवत-सङ्गतः ॥ )[भा।पु। २.३.११]

इत्य्-आदि ।

हिन्दी

कारण, भक्त महत् के सङ्ग व्यतीत
अपर किसी भी उपाय से
भक्ति लाभ करने में
कोई सक्षम नहीं होता है ।

इस अभिप्राय से ही भा० २।३।११ में श्रीशुक देवने कहा है

“एतावानेव यजताम्
इह निःश्रेयसोदयः । भगवत्य् अचलो भावो
यद् भागवत-सङ्गतः ॥

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हे राजन् ! जो, इन्द्र दि देवगण की आराधना यज्ञ के द्वारा करते हैं,
उन उन देवता की आराधना के द्वारा
यदि भगवद् भक्त सङ्ग लाभ होता है
तो उक्त भक्त महत् सङ्ग से ही
श्रीभगवान् के श्रीचरणों में अचला भक्ति का उदय होता है ।

यही काम्य कर्मानुष्ठानकारी का परम मङ्गल है ।

॥ ११.२० ॥ श्री-भगवान् ॥ १७०-१७४ ॥

हिन्दी

श्रीभगवान् कहे थे ॥१७४ ॥


  1. नोत् इन् ख-ग-च। ↩︎